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________________ शास्त्रवासिमुदाय-स्तयक १ लोकसिद्धत्वमेवात्मनः स्पष्टयति नात्माऽपि इति । मूलम्-नात्मापि लोके नो सिद्धो जातिस्मरणसंश्रयात् । सर्वेषां तदभावश्च चित्रकर्मविपाकतः ॥४॥ आत्मा लोकेऽपिशव्दतदुपनोविप्रमाणातिरिक्तप्रमाणानुसारिण्यपि, अपिन्निक्रमोऽत्र सम्बध्यते, नो सिद्ध इति न, किन्तु सिद्ध एव, नद्वयादवधारणं प्रतीयते । (जातिस्मरण से आत्मसिद्धि) १० वी कारिका में आत्मा की लोकसिद्धता स्पष्ट की गयी है। कारिका में 'अपि' मात्मा' शब्द के अनन्तर प्रयुक्त है किन्तु उसका क्रम भिन्न है, उसे 'लोक' शम के मनम्तर पढना चाहिये । इसी प्रकार 'मात्मा' शब्द के पूर्व में प्रयुक्त 'न' शब्द को 'नो सिद्धः' के अनन्तर इति' शब्द के साथ पढना चाहिये, जिससे 'न' से 'नो सिद्धः' का निषेध हो कर आत्मा को लोकसिद्धता का अवधारण हो सके। उपर्युक्तरीति से 'अषि और 'न' शब्द के स्थानपरिवर्तन से कारिका का यह अर्थ निष्पन्न होता है कि परव-अपरस्त्र के बारे में मी केवल इतना कहा जा सकता है कि ये दोनों द्रव्य के गुणात्मक धर्म नहीं है, किन्तु जिस द्रव्य की उत्पत्ति से पूर्व होने वाली सूर्यक्रिया से जो द्रव्य सम्बद्ध होता है वह उससे पर तथा जिस द्रव्य की उत्पत्ति के बाद होने वाली सूर्यक्रिया से जो द्रम सम्बद्ध होता है वह उससे अपर होता है, अतः परत्व-अपरत्व जब गुणात्मक धर्म ही नहीं है तब उनके असमवायिकारण के सम्पादनार्थ फाल की कल्पना असंगत है। निरीक्षककृत टिप्पणी : बतमान सूर्यक्रिया के साथ घट का सम्बन्ध कौन सी चीज़ है ? केवल यही कि सूर्यक्रिया सापेक्ष घट का बत्तनापयांव-वर्ननामरिणाम, जैसे नजेनोसापेक्ष मध्यमाअंगुलि में दीर्घत्व-पर्याय होता है। घट में इस वर्तनापर्याय से 'इदानी घर' वह प्रनीति होती है । जिस प्रकार 'मध्यमा (तर्जनी की अपेक्षा) दीर्घ इस प्रतीति के लिये मध्यमा में तर्जनी के सम्बन्धरूप अतिरिक्तपदार्थ को मानने की कोई आवश्यकता नहीं. इस प्रकार घट में 'इदानी घटा' ईस प्रनीति हेतु सूर्यक्रिया का सम्बन्धरूप कोई अतिरिक्तपदार्थ मानने की आवश्यकता नहीं, मात्र इतना आवश्यक है कि सूर्यक्रिया वर्तमान व घर भी वर्तमान होना चाहिये । 'धनवान चयः' इस प्रतीति में क्या है ? चत्र में धनस्वामित्व नाम का पर्याय-परियाम ही प्रतीति का विषय है. न कि चैत्र व धन के बीच कोई सम्बन्धरूप अतिरिक्तपदार्थ । तब जैसे धनस्वामित्व-परिणाम से ऐसा कोई अतिरिक्तपदार्थ अन्ययासिद्ध हो जाता हैं इस प्रकार 'इदानों घटः' प्रतीति के विषय में घट में वैसा परिणाम ही अन्तर्भूत है, न कि सूयें क्रिया व घट के बीच कोई अतिरिक्तसम्बन्धरूप पदार्थ | जिस प्रकार चैत्र में स्वामित्व धनसापेक्ष हैं, इस प्रकार वट में तादृशवर्तनापरिणाम सूर्यक्रिया सापेक्ष है इतना ही। अतः इस परिणाम से अति रक्त 'काल' पदार्थ अन्यथासिद्ध हो जाता है । घटादि द्रव्य में परत्व-अपरत्व भी घटादि द्रव्य के परिणामविशेष ही हैं, और परत्वपरिणाम अपरदस्योत्पत्ति के पूर्वसमय की सूर्यक्रिया को सापेक्ष होता है । परव-अपरत्व अतिरिकगुणस्वरूप न होने से इन को असमवायिकारण की अपेक्षा ही नहीं तन समवायिकारण के संपादनार्थ कालन्य की कल्पना भी अनावश्यक है। वर्तनापरिणाम से काल अन्यथासिद्ध हो जाता है।
SR No.090417
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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