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________________ स्या० का टोका व हि. वि० (स्या०) किं च, दुखाभावदशायां 'सुखं नास्ति' इति ज्ञाने कथं प्रवृत्तिः, मुखहानेरनिष्कृत्वात् ? न च वैराग्याद् न तदनिष्टत्वप्रतिसन्धानम्, विरक्तानामपि प्रशमप्रभव सुखस्येष्ठत्वात्, अनुभवसिद्ध खल्वेतत् । किं च, दुःखे द्वेषमात्रादेव यदि तन्नाशानुकूलः प्रयत्नः स्यात् तदा मुच्छ दावपि प्रवृत्तिः स्यात् । जायत एव बहुदुःखग्रस्तागं परमादामगि प्रवृत्तिरिनि चेन् ? न, विवेकिप्रवृत्तरेवाप्राधिकृतत्वात । अतः मुष्टच्यते---- दुःखाभावोऽपि नावेधः पुरुषार्थतयेष्यते । न हि मूर्छाद्यवस्था प्रवृत्तो दृश्यते 'सूष्ट्रयते' सुधीःइति। इसके अतिरिक्त यह भी एक प्रश्न है कि मनुष्य को सुस्त्र की हानि किसी भी स्थिति में इष्ट नहीं है, अतः जब उसे यह ज्ञान होगा कि 'दुःखाभावदशा-मोक्षदशा में सुख नहीं होता तब माक्षसाधना में उसकी प्रवृत्ति कैसे हो सकेगी, क्योंकि सुखहामि उसे कथमपि सह्य नहीं है। यदि यह कहा जाय कि सुख-दुःखमय सारे संसार के प्रति बैराग्य हो जाने पर ही मनुष्य को मोक्ष की इच्छा होती है, अतः मोक्षे मनुष्य के मन में सुख के प्रति भी विराग होने के कारण उसे सुनहानि में अनिष्टत्व की बुद्धि नहीं होती, इसलिये मोक्ष में सुस्वाभाव होने का ज्ञान रहने पर भो मोक्ष के लिये उसके प्रयत्नशील होने में कोई बाधा नहीं हो सकती, तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि विरक्तजनों को भी प्रशमनन्यसुख की काम का होना 'अनुभवसि है। इस सन्दर्भ में यह भी विचारणीय है कि यदि यह माना जाय कि 'दुख के प्रति द्वेष होने मात्र से ही मनुष्य दुःस नाशके लिये प्रयत्नशील होता है, तब तो उसे मूर्छ आदि की अवस्था के लिये भी प्रयत्नशील होना चाहिये, क्योंकि उस अवस्था में भी उसे दुख से मुक्ति मिल सकती है, किन्तु मनुष्य सचमुच मूच्छविस्था के लिये कभी प्रयाम नहीं करता, अतः यह मानना उचित नहीं है कि दुःख के प्रति द्वेष होने से ही मनुष्य दुःखनाश के लिये प्रयत्न करता है, किन्तु यह मानना उचित होगा की दुःला के रहने पर मनुष्य को सुख का अनुभव नहीं हो सकता, इसलिये सुखानुभव की बाधा को धर करने के उद्देश्य से वह दुःख नाश के लिये प्रयत्न करता है, और यह मानने पर यह निर्विषादरूप से सिद्ध हो जाता है कि सुख कामना ही उस की प्रवृत्ति का मूल है, अतः मोक्षदशा में सुत्रप्राप्तिकी आशा न रहने पर उसके लिये मनुष्यको प्रवृतिका होना सम्भव न हो सकेगा। यदि यह कहा जाय कि-'संसार में पैसे भी मनुष्य देखने में आते हैं जो पाहत दास से प्रस्त होने पर मृत्युका आलिङ्गन करने के लिये आत्मघात तक कर लेते है, अतः यह कहने में कोई असंगति नहीं है कि सुख प्राप्ति की आशा न होने पर भी केवल चुन से १. यह अनुभव इस उक्ति से प्रमागित हैं कि अच्च कामसुख लोके, पाच दि महत्मुखम । तृष्णाक्षयमुनस्यैत नाहतः पांडशी फलाम् ।। अर्थ- सारमें जिसना भो कान मुख है और स्वर्ग में जितना भी दिव्य सुख है, वह सब मिल कर भी तृष्णा के क्षय से होनेवाले सुख के सोलह बे भाग की भी वगवरी नहीं कर सकते ।
SR No.090417
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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