SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 48
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शानवासां समुचय (स्या०) प्रणम्य शारदां देवी गुरुनपि गणान् । विमोमि यथाशक शास्त्राचा-समुचयम् ॥२॥ को दुष्ट भावों से संकोच कर प्रशस्त भाव में यानी परमात्मा से सम्बन्धित शुभ अध्यवसाय में स्थापित करना यह भाव नमस्कार है। द्रव्य नमस्कार यह भाव नमस्कार का पोषक होता है. और भाष नमस्कार से विध्न-अंतरायकर्म नष्ट हो प्रन्थरचना आदि इन की सिद्धि निर्विघ्न सम्पन्न होती है । __व्याख्याकार यशोविजयजी ने इस पद्य द्वारा महावीर को बदना की है और उनकी वन्दनीयता के समर्थन में उनके उत्सम गुणों और विशिनाओं की चर्चा की है जो पद्य में आये शब्दों का अर्थ यता देने से स्पष्ट है ॥॥ दुसरे पद्य में यशोविजयजीने सरस्वती और अपने गुण-गौरवशाली गुरुजनों को सपना कर मूलमन्य शास्त्रवातासमुच्चय' का विवरण करने की प्रतिज्ञा को है। पद्य में चिवरिष्यामि-विवर ग करूंगा' के अर्थ में घिणोमि विवरण करता हुँ' का प्रयोग किया गया हैं। पैसे प्रयोग के लिए व्याकरण शास्त्र में व्यवस्था है। 'वर्तमानसामीप्ये धर्तमानवदा' इस पाणिनि-सूत्र के अनुसार धर्तमान के समीपवर्ती भविष्य के लिये वर्तमान का प्रयोग मान्य है। उससे भविष्य का नेकटय सूचित होता है। पद्य में मूलग्रन्थ का विवरण करने की प्रतिक्षा का उल्लेख है। 'विवरण' का अर्थ होता है 'तुल्यार्थक स्पष्ट कथन'। मूल वाक्य से जो अर्थ विवक्षित हो किन्तु स्पष्ट न होता हो उसे स्पष्ट करने वाली शब्दार्याल को 'चिचरण' कहा जाता हैं। जैसे 'पचति' का विवरण है-'पाक करोति।' इस विवरण वाक्य से 'पचनि' के पच्' का पाक' अर्थ और 'ति' का करोति' अर्थ स्पष्ट हो जाता है । यशोविजयजी ने अपनी व्याख्या का विवरण कह कर यह सूचित किया है कि वे अपनी व्याख्या में जो कुछ कहेंगे यह सब मूलमन्थ काही अर्थ होगा उममे कुछ नया नहीं होगा । वह तो मूलप्रन्थ को खोलने की पक कुखी मात्र है इस कथन से मूलप्रन्थ की गम्भीरता. उसके प्रामाण्य से व्याख्या की प्रामाणिकता, तथा मूल अन्धकार के प्रति व्याख्याकार के धिनय की सूचना होती हैं। यथाशक्ति विवरण करने की बात कह कर यह सूचित किया गया है कि व्याख्या में भी कुछ कहा जायगा. मूलग्रन्थ में उतना ही नहीं है। प्रतिभाशाली अध्येता उसमें और भी अर्थ प्राप्त कर सकते है | व्याख्या में नो मूलमन्थ के उतने ही अर्थ का सन्निवेश है जितने मक व्याख्याकार की पहुंच हो सकी है। कथन से भी मूलप्रन्थ की गम्भीरता और व्याख्याकार के विनय का सघन होता है।
SR No.090417
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy