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स्था० क० टीका घ हिं० वि०
१३५ शान के धर्मों अंश में भी अप्रमाण होने से उससे रजतगोचरव्यवहार का सम्भावना नहीं हो सकती, क्योंकि चार्वाक, बौद्ध आदि को 'सभी शाम धर्मी प्रश में अभ्रान्त होता है' यह नियम मान्य नहीं है" तो यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि शुक्तिस्थल में अलोक रजत को उपस्थित करने वाली वासना तथा सत्यरजतस्थल में अलीकरजतत्व धर्म को उपस्थित करने वाली बासना के सामर्थ्य में कोई अन्तर न होने से रजतत्व धर्म को उपस्थित करने वाली वासना रजतत्वविशिष्टरजत्तरूप अलीक धर्मी को भी उपस्थित कर सकती है, अतः सत्यरजत स्थलीय विशिष्टशान भी धर्मी अश में अप्रमाण हो जायगा। फलतः उससे भी धर्मों में सफलप्रवृतिरूपव्यवहार को उपपत्ति न हो सकेगी।
यदि यह कहा जाय कि-"वासनावशात् अलीक रजतादि का शान मामने वाले वादो के मतमें भी सम्यग्ज्ञान एवं मिथ्याशाम के रूप में विशिष्टज्ञान का विभाग मान्य है, अतः उसनः उपपति के लिये शुशियालीय मसान को अलीकरजतविषयक और रजतस्थलीय रजतझान को सत्यरजतविषयक मानना आवश्यक होने से अलीकरजन का उपस्थित करने वाली विशिष्ट वासना पचं अलीकरजतत्वादि धर्म को उपस्थित करने वाली अघि शिष्ट वासना के सामर्थ्य में मेद मानना उचित हो सकता है"-तो यह ठोक नहीं है, क्योंकि सम्यग् शान पर्व मिथ्याज्ञान का विभाग तो इस प्रकार से भी किया जा सकता है कि जिस शान में भासमान धर्मी में उस ज्ञान में भासमान धर्म का समाव होता है वह शान सम्यग्रशान होता है और जिस शान में भासमान धर्मी में उस शान में भासमानधर्म का अभाव होता है वह शान मिथ्याज्ञान होता है। इस प्रकार स्वीकार करने में किसी अतिरिक्त सत्य अथवा असत्य पदार्थ को कल्पना न होने से लाघव है, अतः शान के उक्त विभाग की उपपत्ति के लिये धमिवासना और धर्मवासनाके रूपमें या मनामेद की कल्पना की कुष्टि करना उचित नहीं है।
यदि यह कहा जाय कि-"शुक्तिस्थल में भी 'इदं रजतम्' इस रूप में सन्मुखस्थित रजत का अनुभव होता है, किन्तु वहाँ सत्यरमत सन्मुखस्थित नहीं है अतः उस स्थल में सन्मुखस्थित अलीक रअत की कल्पना उचित है, किन्तु रजत स्थल में सत्यरजत सन्मुखस्थित है हो । अतः वहाँ अलीक रजतत्वधर्म की ही कल्पना उचित है, अलीक रजत की कल्पना अनावश्यक होने से उचित नहीं है, अनः रजतशान का सम्यक और मिथ्यारूप में भेद करने के लिये धमिवासना और धर्मशासना के रूप में वासना मेद की कलाना उचित होने से उक्त आपत्ति नहीं हो सकती-तो यह ठोक नहीं है, क्योंकि इश्माकारशान की विषयता इदर्मश के ज्ञानावरणीयकर्म के क्षयोपशमविशेष से ही सम्पन्न होती है, और वह क्षयोपशमविशेष जैसे रजतस्थल में होता है उसी प्रकार शुक्तिस्थल में भी होता है अतः जैसे रजत स्थल में रजत का इदमाकारज्ञान होता है उसी प्रकार शुक्तिस्थल में भी रजत का इदमाकारमान हो सकता है, अन्तर केवल इतना ही है कि रजतस्थल में रजत सन्निहित होने से इन्द्रिय द्वारा उपनोत होता है और शुक्तिस्थलमें दूरस्थ होने से संस्कारद्वारा या स्मरणतारा उपतीत होता है। प्रतः शुक्तिस्थल में रजत के इदमाकाराम के अनुरोध से अतिरिक्त अलीकरजत की कल्पना · उचित नहीं है क्योंकि अतिरिकरजतकी कल्पना करने पर उस की उत्पत्ति, उसक