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शा० वा० समुडखय
(स्या० ) स्वतो मङ्गळभूत एव शास्त्रे शिष्यमतिमञ्जलपरिग्रहार्थ मङ्गलाचरणम्, अन्यथा मङ्गलवाक्यस्य शास्त्रवहिर्भावे वाक्यान्तराणामप्यविशेषाच्छास्त्रवष्टिर्भावप्रसङ्गेशास्त्रस्य चरमवर्णमात्रपर्यवसानप्रसङ्गात् इति तु भाष्यकाराभिप्रायः । तत्त्वमत्रत्यं मत्कृतमङ्गलवादादव सेयम् । तस्मात् सफलं मङ्गलम् इति युक्तं तदाचरणं ग्रन्थकारस्येति ॥ अन्वयव्यभिचार बताया गया था, वह नहीं होगा, क्योंकि उक्त व्यवस्था के अनुसार यह कल्पना की जा सकती है कि कादम्बरी में महल का अनुष्ठान समाप्ति की कामना से नहीं किया गया है, अतः मङ्गल होते हुये भी समाप्ति नहीं हुई है ।
इसके विरुद्ध अन्य विद्वानों का कहना यह है कि 'अनेक फल देने वाले कर्मों से उद्देश्य - मनुद्देश्य, प्रधान - अप्रधान आदि अनेक फलों की उत्पत्ति का होना प्रामाणिक है, अतः यह कल्पना उचित नहीं है कि समाप्ति की कामना से मङ्गल न किये जाने के कारण मङ्गल के रहते हुये भी कादम्बरी की समाप्ति नहीं हुई। उनका आशय यह है कि मङ्गल यदि समाप्ति का कारण है तो भले उसका अनुष्ठान समाप्ति की कामना से न भी किया गया हो किन्तु यदि उसका अनुष्ठान किया गया है, तो उससे सम्माप्ति की उत्पत्ति होनी ही चाहिये । मकल के प्रयोजन के सम्बन्ध में 'माध्यकारका अभिशय यह है कि शास्त्र तो स्वयं मङ्गल रूप ही है, फिर भी शास्त्र के आरम्भ में अन्य प्रकार के भी मङ्गल का अनुष्ठान किया जाता है, अतः उस मङ्गलानुष्टान का कोई पैसा प्रयोजन होना चाहिये जो शास्त्रनिर्माण के प्रयोजन से भिन्न हो. विचार करने से यह निश्चित होता है कि वह प्रयोजन है- 'शिष्य को म लाचरणकी कर्तव्यता के घोध का सम्पादन' स्पष्ट है कि शास्त्र के आरम्भ में मङ्गलाचरण
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दर्शेष्टि – अमावास्या तिथिमें अग्नि की स्थापना करके शुक्ल पक्ष की प्रतिपद् तिथि में इस इष्टि का अनु Bान किया जाता है । इसमें तीन देवता और तीन द्रव्य होते हैं। देवता है इन्द्र, अग्नि और इन्द्राग्नि, द्रव्य हैं पुरोडाश, दधि और पय । शास्त्रांत विधि से तथार को जानेवाली यत्र की एक विशेष प्रकारको रोटी का नाम है पुरोडाश | अभिकी तुष्टि के लिये पुरोडाश से की जानेवाली इष्टि को 'आग्नेय', इन्द्रकी दृष्टि के लिये दधि से की जानेवाली इष्टिको 'हिन्द' इन्द्र और अग्नि दोनों की सह तुष्टि के लिये की खाने वाली इष्टि को 'ऐन्द्रपथ' कहा जाता इस प्रकार आग्नेय, एन्द्रदर्शन और ऐिन्द्रपर इन तीन इष्टियों की सम को ही 'दर्श' नामक इष्टि कहा जाता है ।
पूर्णमासेष्टि - पौर्णमासी तिथि में अग्नि की स्थापना कर कृष्णपक्ष की प्रतिपद् तिथि में इस का अनुष्ठान विहित हैं। इसमें तीन देवता और दो द्रव्य होते हैं। देवता हैं, अम, अभि और सोम तथा विष्णु | द्रव्य हैं पुरोडाश और आय आय का अर्थ है | अग्निकी तुष्टि के लिये पुरोडाश से की जाने वाली इष्टिको 'आग्नेय', अग्नि और सोमकी सहनुष्टि के लिये मन्त्रों का ऊँचे स्वर से उच्चारण करते हुये आज्य से की जाने वाली इष्टिको अयोमी और विष्णु की तुष्टि के लिये मन्त्रों का अत्यन्त धीमे स्वर से उच्चारण करते हुये आज्य से की जानेवालो इष्टि को 'उपांशुयाज' कहा जाता है, इन तीनों इटियों की समाप्ति को ही पूर्णमास दृष्टि कहा जाता है ।
१ भाष्यकार शब्द से आवश्यक निर्युष्ति पर विशेषावश्यक भाष्य की रचना करने वाले नभणी क्षमाश्रमण (वि. सं. ६५० ) का संकेत किया गया है, उन्होंने बीस गाथा में 'सीसमइमंगलपरिमद्दत्थमेत तदभिहाणं' कह कर मङ्गलाचरण के उक्त प्रयोजन का प्रतिपादन किया है ।