Book Title: Marankandika
Author(s): Amitgati Acharya, Chetanprakash Patni
Publisher: Shrutoday Trust Udaipur
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य अमितगति प्रणीता मरणकण्डिका (हिन्दी टीका तथा प्रश्नोत्तर सहित) * मङ्गलभावना परम पूज्य आचार्य १०८ श्री वर्धमानसागरजी महाराज & टीकाकी ६ आर्यिका १०५ श्री विशुद्धमती माताजी सम्पादक डॉ. चेतनप्रकाश पाटनी, जोधपुर प्रकाशक श्रुतोदय ट्रस्ट श्री क्षेत्र सिद्धान्त तीर्थ संस्थान, नन्दनवन धरियावद-३१३ ६०५, जिला-उदयपुर (राजस्थान) Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म माल भावनाम जन्म और मरण जीवन के दो ध्रुव हैं। अनादि काल से दिन और रात्रि के समान क्रम से जन्म के बाद मरण और मरण के बाद जन्म को यह आत्मा इस संसार में सतत प्राप्त करता रहता है। मोही प्राणी जन्म को अच्छा मानता है तथा मृत्यु से भयभीत रहता है जबकि जिसका जन्म हुआ है उसकी मृत्यु अवश्यंभावी है। संसारचक्र में यही तो सब कुछ होता है। जन्म और मृत्यु दोनों ही दुखद हैं अतः इन दोनों दुःखों के साथ संसार के अन्य सभी दु:खों से छूटने के लिए मृत्युंजयो पुरुषार्थ करना नितान्त अपेक्षित है। संसार में अनेक कलाएँ हैं और उन सबको सीखने-सिखाने के अनेक उपाय हैं, उसी प्रकार मरण भी एक कला है। मरण की कला से अभिप्राय है “सम्यग्दर्शन पूर्वक, व्रत-संयम-तपपूर्वक जीवन जीते हुए अन्त में रत्नत्रय दीप के तेज सहित अपने प्राणों का विसर्जन करना!" मरण की इस कला को सल्लेखना विधि कहते हैं जिसमें कषाय और शरीर को भली प्रकार आत्मविशुद्धि पूर्वक कृश किया जाता है। शिवकोटि आचार्यदेव ने भगवती आराधना' में इस सल्लेखना विधि का विस्तारपूर्वक वर्णन किया है। मिथ्यात्तसेवन के साथ अव्रतपूर्वक तो इस जीव ने सदा ही मरण किया है, किन्तु सम्यग्दर्शन सहित सल्लेखना करने वाला प्राणी अधिक-से-अधिक सात-आठ भव तक संसार में रह सकता है, फिर तो निश्चित ही मोक्षसुख प्राप्त करता है। 'भगवती आराधना' गाथासूत्रों में रचित ग्रन्थ है। उसका प्रकाशन बहुत वर्षों पूर्व शास्त्राकार पन्नों में दो संस्कृत टीकाओं सहित 'मूलाराधना' नाम से हुआ था। उसी ग्रन्थ के गाथासूत्रों के नीचे अमितगति आचार्यदेव विरचित संस्कृत श्लोक भी प्रकाशित हैं। बस! वही संस्कृत श्लोकरूप रचना 'मरणकण्डिका' के नाम से प्रसिद्धि को प्राप्त ग्रन्थ है। परमपूज्य अभीक्ष्णज्ञानोपयोगी आचार्यरत्न श्री अजितसागरजी महाराज ने एक कॉपी में मरणकण्डिका के श्लोकों को लिख लिया था। उन्होंने आर्यिका जिनमतीजी से उनकी हिन्दी टीका लिखवायी थी और उसका प्रकाशन भी आचार्यदेव की महती कृपा से उनके जीवनकाल में हो गया था। ईस्वी सन् १९९० में आर्यिका श्री विशुद्धमती माताजी ने परमपूज्य आचार्यरत्न अजितसागरजी से१२ वर्षीय उत्कृष्ट सल्लेखना विधि को ग्रहण किया था। उसे सम्पन्न करने के उद्देश्य से उन्होंने इन १२ वर्षों में भगवती आराधना और मरणकण्डेिका ग्रन्थों का अधिक स्वाध्याय करते हुए अपने मन को विशुद्धतम और सुदृढ़ करने का सफलतम परम पुरुषार्थ किया था। यही पुरुषार्थ करते हुए उनके मन में भावना जगी कि इस समय प्रश्नोत्तर पद्धति से ग्रन्थ के रहस्य और सार को समझने का रिवाज चल गया है जोकि समयानुकूल है। अत: अनेक ग्रन्थों की टीकाकर्ती एवं सृजनकी विदुषी आर्यिका विशुद्धमती माताजी ने 'मरणकण्डिका' की प्रश्नोत्तरी टीका लिखना प्रारम्भ किया और सदेखना सम्पन्न होने के कुछ माह पूर्व ही उस टीका को पूर्ण भी किया। उसका प्रकाशन सम्पादन-कलामर्मज्ञ, सद्गृहस्थ डॉ. चेतनप्रकाशजी पाटनी के सम्पादकत्व में हो रहा है। जीवन के अन्तिम क्षणों तक श्रुताराधनारत आर्यिका श्री विशुद्धमती माताजी ने अपनी वर्तमान पर्याय में आगमोक्त विधि से समाधिसाधना का पुरुषार्थ किया था। उनका वह पुरुषार्थ और श्रुताराधना उनके संसार की सन्निकटता का निमित्त बनेंगे, ऐसी हम मंगल भावना करते हैं। अनेक ग्रन्थों के समान ही इस ग्रन्थ का सम्पादन करने में अपने मनोयोग को लगाने वाले डॉ. चेतनप्रकाशजी पाटनी भी अपनी इस वर्तमान पर्याय को सकल संयम धारण कर पंडितमरण रूप समाधिसाधना से संसार को अति सन्निकट करने का पुरुषार्थ करने में सक्षम हों, उनके लिए यही मंगल आशीर्वाद है। इति भद्रं भूयात्। अक्षय तृतीया, 2060 आचार्य वर्धमानसागर बावनगजा सिद्धक्षेत्र Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- सम्पादकीय जैन साहित्य में निःसङ्गयोगिराज अमितगति योगसारप्राभृतकार अमितगति ( प्रथम ) के रूप में ख्यात हैं। थे देवसेनसूरि के शिष्य और देश के एक हैं। इनका सं. (or ना जाता है। इनकी दो पीढ़ी के बाद 'सुभाषितरत्नसन्दोह' आदि अनेक ग्रन्थों के रचयिता अमितगति (द्वितीय) हुए जिनका समय वि.सं. १०५० है: इन अमितगति ने प्रथम अमितगति को 'त्यक्तनिःशेषसङ्ग: विशेषण देकर अपने को उनसे पृथक सिद्ध किया है और अपने ग्रन्थों में इनके महान् गुणों की स्तुति की है। अमितगति द्वितीय ने अपनी 'धर्मपरीक्षा' में जो प्रशस्ति दी हैं, उससे इनकी गुरुपरम्परा पर प्रकाश पड़ता है- वीरसेन देवसेन योगसारप्राभृतकार अमितगति प्रथम नेमिषेण माधवसेन धर्मपरीक्षादिप्रणेता अमितगति (द्वितीय) । वि. सं. की १४ वीं सदी के इन आचार्य को इतिहासज्ञ पं. विश्वेश्वरनाथ रेउ नं वाक्पतिराज मुज्ज की सभा के एक रत्न के रूप में स्वीकार किया है। ❤ - - निर्विवाद रूप से बहुश्रुतज्ञ आचार्यदेव अमितगति की प्रणीत रचनाएँ निम्नलिखित हैं : १. सुभाषितरत्नसन्दोह २. धर्मपरीक्षा ३. उपासकाचार (अमितगति श्रावकाचार ) ४. पञ्चसंग्रह ५ आराधना ६ भावना द्वात्रिंशतिका । इन प्रसिद्ध ग्रंथों के अतिरिक्त लघु एवं वृहत् सामायिक पाठ, जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सार्द्धद्ववद्वीपप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति और व्याख्याप्रज्ञप्ति ग्रन्थ भी इनके द्वारा रचित माने जाते हैं। सामायिक पाठ में १२० पद्म है। शेष चार ग्रन्थ अभी तक उपलब्ध नहीं हैं। : मरणकण्डिका 'आराधना' ('मरणकण्डिका' रूप में ख्यात) शिवार्यकृत प्राकृत आराधना का संस्कृत रूपान्तर है। आचार्य अमितगति ने मंगलाचरण रूप प्रथम श्लोक में पंचपरमेष्ठियों को नमस्कार कर चार आराधनाओं और उनका फल कहने की प्रतिज्ञा की है । अनन्तर कहा है कि आगम में विस्तारपूर्वक सत्तरह प्रकार के मरणों का वर्णन पाया जाता है, मैं केवल पाँच प्रकार के मरणों का संक्षेप से इस ग्रन्थ में वर्णन करता हूँ । सम्भवतः मरणों का वर्णन होने के कारण ही यह संस्कृत रूपान्तर 'भरणकण्डिका' के रूप में प्रसिद्धि पा गया है अन्यथा अद्यावधि प्राप्त हस्तलिखित प्रतियों में ग्रन्थ के प्रारम्भ में यह नाम नहीं मिलता है, अन्त में 'मरणकंडिका नक्खत्तगणनया सम्मता' ऐसा उल्लेख मिलता है। प्रशस्ति में भी भगवती आराधना (श्लोक ५), आराधना (श्लोक ६ ), भगवती (श्लोक ८) आदि का ही उल्लेख हुआ है। आचार्यदेव ने प्राकृत गाथाओं का संस्कृत रूपान्तर प्रायः अनुष्टुप् छन्द में किया है । यों ११ मात्रा से लेकर २१ मात्रा तक के २७ विविध छन्दों में भी रचना हुई है। पर इन छन्दों की संख्या अत्यल्प है। २२४० श्लोकों की विशालकाय रचना में केवल १३६ श्लोक ही अन्य छन्दों में हैं: शेष अनुष्टुप् हैं। जिन पाँच मरणों को आचार्यदेव ने अपने वर्णन का विषय बनाया है, वे हैं- बालमरण, बालबालमरण, बालपण्डितमरण, पण्डितमरण और पण्डित पण्डितमरण। व्रतरहित सम्यग्दृष्टि के मरण को बालमरण कहते हैं, मिध्यादृष्टि के मरण को बालबालमरण कहते हैं। अणुव्रती तथा आर्थिका, क्षुल्लक आदि का बालपण्डितमरण होता है। छठे गुणस्थान से ११ वें गुणस्थानवर्ती मुनिराजों का मरण पण्डितमरण कहलाता है और १४वें गुणस्थानवर्ती अर्हन्त देव का निर्वाण पण्डित पण्डितमरण है। पण्डितमरण के तीन भेद हैं: भक्तप्रत्याख्यान, इंगिनी Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और प्रापन ग्रन्थ में मुख्यत भक्तप्रत्याख्यान मरण का वर्णन है। इस वर्णन के चालीस अधिकार हैं, कोई छोटा है तो कोई बड़ा । अतः अधिकारों के समूह बनाकर यहाँ उन्हें बारह अधिकारों में विभक्त किया गया है। विषयानुक्रमणिका से यह विस्तृत जानकारी मिल जाती है। इंगिनी और प्रायोपगमन का वर्णन कुल ६६ श्लोकों में है। प्रसंगवश जैनधर्म के प्रायः सभी प्रमेय इसमें समाविष्ट हैं। अंत में, बालपण्डितमरण के वर्णन के १० श्लोक हैं और पण्डित पण्डितमरण के ६५ श्लोक । सिद्धों के सुख का सुन्दर वर्णन आचार्यदेव ने किया है। ग्रन्थसमाप्ति के बाद ३२ श्लोकों में आराधना स्तवन है और प्राकृत गद्य में नक्खत्तत्रणणा आचार्यदेव ने प्रशस्ति के भी सुन्दर ८ श्लोक लिखे हैं। प्रस्तुत संस्करण: शिवकोटि आचार्यप्रणीत मूलाराधना अपरनाम भगवती आराधना पूर्व प्रकाशित ग्रन्थ है जिसमें प्राकृत भाषाबद्ध २२७९ गाथाएँ हैं। पूज्य माताजी ने जिस प्रति को आधार बनाया है वह प्रति नवम्बर, १९३५ में श्री दिगम्बर जैन सिद्धक्षेत्र गजपंथाजी कार्यालय म्हसरूल जिला नासिक से श्री श्री १०८ श्री देवेन्द्रकीर्ति ग्रन्थमाला के दूसरे में प्रकाशित है। प्रस्तावना और अनुक्रम के १७ पृष्ठों के अतिरिक्त मूल ग्रन्थ के १८७८ पृष्ठ हैं। प्रकाशन का क्रम इस प्रकार है- पहले मूल प्राकृत गाथा ( आ. शिवकोटि), फिर अमितगति आचार्य का समानार्थक संस्कृत श्लोक, फिर अपराजितसूरि की संस्कृत विजयोदया टीका, अनन्तर आशाधरजी की मूलाराधनादर्पण पंजिका, फिर शिवजीलाल की भावार्थदीपिका टीका और अनन्तर पं. जिनदास पार्श्वनाथ फडकुले कृत हिन्दी अनुवाद। इसके अतिरिक्त भी अन्य मुद्रित संस्करण संस्कृत टीकाओं से रहित भी और सहित भी उपलब्ध हैं। परन्तु अमितगति आचार्य कृत समानार्थक संस्कृत श्लोकों का 'मरणकण्डिका' के रूप में स्वतंत्र प्रकाशन पहली बार सन् १९८९ में पूज्य आचार्य अजितसागर जी महाराज की प्रेरणा से आर्यिका जिनमतीजी कृत हिन्दी अनुवाद सहित हुआ। तब से इसके स्वतंत्रस्वाध्याय का क्रम भी चल निकला । पूज्य आर्यिका विशुद्धमती माताजी ने अपनी बारह वर्ष की सल्लेखना अवधि में अपने मार्गदर्शन हेतु इस ग्रन्थ का स्वाध्याय किया और उनकी भावना इसके श्लोकों के भावों को प्रश्नोत्तर रूप में विशद करने की बनी। इसी भावना स्वरूप मरणकण्डिका के इस संस्करण का उद्भव हुआ। 'अन्तर्ध्वनि' में उन्होंने लिखा है, " इस ग्रन्थ के लेखनकार्य से मुझे अत्यधिक सम्बल मिला। अनेक बार तो ऐसा अनुभव हुआ कि परमपूज्य निर्यापकाचार्य गुरु समक्ष बैठकर ही मानों मागर्दशन कर रहे हैं। शास्त्र - लेखन का जो यथार्थ मूल्य है, वह तो मुझे लेखनकार्य करते समय ही अनेक बार प्राप्त हो चुका है क्योंकि परिणामों की निर्मलता और कर्त्तव्यनिष्ठा की जो अनुभूति उस समय हुई वह अमूल्य तथा वचनातीत है।' पूज्य माताजी ने ग्रन्थ के संस्कृत श्लोकों का अर्थ भी लिखा है, फिर प्रत्येक श्लोक में उल्लिखित विषय पर उत्पन्न होने वाली जिज्ञासा का प्रश्नोत्तर शैली के माध्यम से समाधान किया है। ऐसा करते हुए उन्होंने लाक्षणिक पारिभाषिक शब्दावली को तो परिभाषित किया ही है, साथ ही प्रसंगवश अधुना प्रचलित जैन आचार-विचार की भी सहजभाव से समीक्षा की है। व्याख्या और प्रश्नोत्तर के साथ ही प्रत्येक श्लोक को एक शीर्षक भी दिया है जो विषय की सूचना देने में सक्षम है। 2 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आभार परम पूज्य आचार्य १०८ श्री वर्धमानसागर जी महाराज की मंगल भावना इस ग्रन्थ के लेखनप्रकाशन में हमारी प्रेरक रही है। मैं आपके श्रीचरणों में सविनय सादर नमन करता हुआ आपके स्वस्थ दीर्घ जीवन की कामना करता हूँ। प्रश्नोत्तर रूप भाष्यकी पूज्य आर्यिका विशुद्धमती माताजी का मैं अतिशय कृतज्ञ हूँ जिन्होंने मुझ पर अनुग्रह कर इस ग्रन्थ के सम्पादन-प्रकाशन का गुरुतर उत्तरदायित्व मुझे सौंपा। जो कुछ बन पड़ा है वह सब पूज्य माताजी के ही ज्ञान और श्रम का मधुर फल है। पूज्य माताजी रत्नत्रय से विभूषित हो २२ जनवरी २००२ को नन्दनवन (धरियावद-राज.) में समाधिस्थ हुईं। त्रिलोकसार, सिद्धान्तसारदीपक, तिलोयपण्णत्ती, क्षपणासार, योगसारप्राभृत, मरणकण्डिका आदि भाष्यग्रन्थों एवं अनेक संकलित-सम्पादित कृत्तियों के रूप में आपका अवदान चिरस्थायी रहेगा। मैं यही कामना करता हूँ कि पूज्य माताजी की पुनीत आत्मा स्वर्गिक सुखों के उपभोग के अनन्तर नर पर्याय धारण कर मुक्तिसुख की स्वामिनी बने। न्य आर्यिका प्रशान्तगती माताजी अपनी ब्रह्मचारिणी अवस्था से पूज्य माताजी के सान्निध्य में रही हैं और उन्हीं की शिक्षा-दीक्षा के अनुरूप आर्यिका व्रतों का सम्यक् रीत्या पालन कर रही हैं। वे माताजी की चतुर्विध आराधना और सारस्वताराधना की साक्षी और सहयोगिनी रही हैं। उन्होंने इस ग्रन्थ के लिए दो शब्द लिखे हैं, एतदर्थ मैं उनका भी आभारी हूँ। ग्रन्थ के प्रकाशन हेतु अर्थसहयोग किया है जिनधर्मानुरागी श्रीमान् सुमतिलालजी डागरिया पारसोला निवासी ने। विगत दस वर्षों से आप सर्वक्रतु विलास, उदयपुर में निवास कर 'वर्द्धमान ट्रेडर्स' नाम से सूर्या लाइटिंग डिवीजन का व्यवसाय संभाल रहे हैं। यों बीस वर्षों से 'ग्रीन फ्लेग ट्रेडिंग कम्पनी' के नाम से कुवैत में आपका इम्पोर्ट-एक्सपोर्ट का व्यवसाय चल रहा है। आपके परिवार में चार सुयोग्य पुत्र-विजय, संदीप, हितेश, शीतल और एक पुत्री सुलोचना - सभी विवाहित हैं। सहधर्मिणी श्रीमती कान्ताजी की जिनधर्म में अटूट श्रद्धा है। सच्चे देवशास्त्रगुरु की भक्ति में संलग्न रहने वाले इस परिवार की धर्मनिष्ठा निरन्तर वृद्धिंगत होती रहे, यही कामना है। श्रुतोदय ट्रस्ट ने ग्रन्थ का प्रकाशन किया है। मैं ट्रस्ट के नियामक श्रीयुत हँसमुख जैन का हार्दिक अभिनन्दन करता हूँ और श्रुताराधना व श्रुतसेवा के लिए उन्हें साधुवाद देता हूँ। त्वरित और शुद्ध एवं सुन्दर प्रकाशन के लिए निधि कम्प्यूटर्स, जोधपुर के श्री क्षेमंकर पाटनी एवं हिन्दुस्तान प्रिन्टिंग हाउस के कर्मचारियों को हार्दिक धन्यवाद देता हूँ। पुनः इन सभी श्रमशील पुण्यात्माओं के प्रति हार्दिक कृतज्ञता व्यक्त करता हूं और सम्पादन-प्रकाशन में रही कमियों के लिए सविनय क्षमा चाहता हूँ। 'अविरल ५४-५५, इन्द्रा विहार सेक्शन ७ विस्तार योजना न्यू पावर हाउस रोड, जोधपुर डॉ, चेतनप्रकाश पाटनी सम्पादक २५-१२-२००३ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्तर्ध्वनि भगवान जिनेन्द्र के मुखारविन्द से निःसृत दिव्यवाणी का ग्रन्थन गणधरदेव ने बारह अंगों में किया है। इनमें सर्वप्रथम अंग का नाम आचारांग है जिसका श्रुत अठारह हजार पद प्रमाण है । अनेकानेक आचार्यों की परम्परा से आगत यह अनुपम श्रुत अद्यावधि प्रवाहित है । ईसा की प्रथम शताब्दी में आचार्य समन्तभद्र के शिष्य शिवकोटि आचार्य हुए हैं। आपने परम्परागत आगम के आधार पर मूलाराधना अपरनाम भगवती आराधना की रचना की, यह सोलापुर से प्रकाशित हुई है, जिसमें प्राकृत भाषा बद्ध २२७९ गाथाएँ हैं। इस ग्रन्थ में श्री अपराजित सूरि कृत एवं पण्डितप्रवर आशाधर जी कृत संस्कृत टीकाएँ तथा मूल गाथाओं की प्रतिच्छाया स्वरूप अमितगति आचार्य कृत संस्कृत श्लोक छपे हैं। इन श्लोकों की संख्या २२४० है । ये श्लोक मरणकण्डिका नाम से प्रसिद्ध हुए हैं। मरणकण्डिका : सन् १९८९ के पूर्व तक तो यह ग्रन्थ पृथकरूपेण अप्रकाशित ही था और भगवती आराधना की प्रारम्भिक उन्नीस गाथाओं तक इसके उन्नीस श्लोक भी अनुपलब्ध थे। परमपूज्य अभीक्ष्णज्ञानोपयोगी आचार्य श्री अजितसागर जी महाराज अनुपलब्ध एवं त्रुटित गाथाओं आदि को पूर्ण करने में सदा संलग्न रहते थे। आप पुराने शास्त्र भण्डारों के देखने में और उपयोगी सामग्री का संग्रह करने में अत्यधिक रुचि रखते थे। आप विहार करते हुए नागौर पहुँचे। वहाँ का शास्त्रभण्डार बहुत विशाल है, आपने कई दिनों तक शास्त्र भण्डार देखा, उसमें अमितगति आचार्य कृत मरणकण्डिका की एक पूर्ण प्रति प्राप्त हो गई। आपने वह पूरा ग्रन्थ अपनी कॉपी में लिख लिया । पूर्ण प्रति प्राप्त होते ही आपके मन में ग्रन्थ के अनुवाद की एवं उसके प्रकाशन की भावना उत्पन्न हो गई। परम पूज्य परम तपस्वी आचार्य शिवसागर जी महाराज की सुयोग्य एवं विदुषी शिष्या आर्यिकारत्न १०५ जिनमती माताजी संस्कृत की विदुषी थी अतः गुरुभाई आचार्य अजितसागरजी महाराज ने विदुषी आर्यिका माताजी को ग्रन्थ के अनुवाद की प्रेरणा दी, जिसे पूज्य माताजी ने सहर्ष स्वीकार कर लिया और मात्र ढाई मास में पूरे ग्रन्थ का अनुवाद कर दिया, जिसका प्रकाशन सन् १९८९ में हो चुका है । परम पूज्य आचार्यरत्न अजितसागर जी महाराज से मैंने सन् १९९० में बारह वर्ष की सल्लेखना धारण की थी । समय समीप आता जा रहा था और मेरे निर्यापकाचार्य गुरु पूज्य आचार्य वर्धमानसागरजी दूर प्रदेश में अर्थात् जयपुर की ओर विराज रहे थे अतः मैंने अपनी सल्लेखना के मार्गदर्शन हेतु ग्रन्थ का स्वयं स्वाध्याय किया और प्रतिष्ठाचार्य श्री हँसमुख जी को भी स्वाध्याय कराया। पश्चात् प्रश्नोत्तर रूप में इसे लिखना प्रारम्भ कर दिया। इसके लेखन में मुझे मस्तिष्क का कोई विशेष परिश्रम नहीं करना पड़ा, क्योंकि संस्कृत श्लोक मूलाराधना से, अर्थ में अधिकाधिक सहयोग पूज्य १०५ आर्यिका जिनमती माताजी द्वारा अनूदित मरणकण्डिका से और प्रश्नोत्तर मरणकण्डिका एवं भगवती आराधना के विशेषार्थों का सहयोग लेकर लिखे हैं । इस प्रकार वि. सं. २०५८ वैशाख कृष्ण प्रतिपदा सोमवार, दिनांक ९.४.२००१ को प्रात:काल ग्रन्थलेखन पूर्ण हुआ । Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ! T 1 इस ग्रन्थ के लेखन कार्य से मुझे अत्यधिक सम्बल मिला। अनेक बार तो ऐसा अनुभव हुआ कि परम पूज्य निर्यापकाचार्य गुरु समक्ष बैठकर ही मानों मार्गदर्शन कर रहे हैं। शास्त्रलेखन का जो यथार्थ मूल्य है वह तो मुझे लेखनकार्य करते समय ही अनेक बार प्राप्त हो चुका है क्योंकि परिणामों की निर्मलता और कर्तव्यनिष्ठा की जो अनुभूति उस समय हुई वह अमूल्य तथा वचनातीत है । ग्रन्थ के प्रतिपाद्य विषय की संक्षिप्त सूचना : +9+ मरणकण्डिका ग्रन्थ में आचार्यदेव ने सर्व प्रथम २७ श्लोकों द्वारा पीठिका लिखी है, जिसमें मंगलाचरण, आराधना का लक्षण, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र और सम्यक् तप के भेद से आराधना के चार प्रकार, इन चारों का दो आराधनाओं में समावेश तथा इन आराधनाओं की सिद्धि के लिए द्योतन, मिश्रण, सिद्धि, व्यूदि एवं निर्व्यूढ़ ये पाँच हेतु कहे हैं। १. बाल - मरणाधिकार : इस अधिकार के प्रारम्भ में ही कहा गया है कि आगम में सत्रह प्रकार के मरण कहे गये हैं, उनमें से मैं यहाँ १. पण्डित पण्डित मरण अर्थात् निर्वाणप्राप्ति, २. पण्डितमरण, ३. बालपण्डित मरण, ४. बाल मरण और ५. बाल-बाल मरण, इन पाँच मरणों का संक्षिप्त वर्णन करूँगा । १. आवीचिमरण २. तदुद्भवमरण ३. अवधि मरण ४. आदि-अन्तमरण ८. बालपण्डित मरण ९. सशल्यमरण १०. बलाका मरण ११. वोसट्ट मरण १२. विप्पाणस मरण १३. गिद्धपुङ मरण १४. भक्तप्रत्याख्यान मरण १५. प्रायोपगमनमरण १६. इंगिनी मरण १७. पण्डित - पण्डित मरण या केवली मरण ५. बाल मरण ६. पण्डित मरण ७. अवसन्न मरण इन सत्रह प्रकार के मरणों में से बाल मरण, बाल पण्डित मरण, पण्डित मरण और पण्डित - पण्डित मरण इन चार का ग्रहण किया गया है । बाल-बाल मरण का बालमरण में ही अन्तर्भाव हो जाता है अतः उसका नाम सत्रह में नहीं आया है। इस अधिकार में पाँच प्रकार के मरणों के स्वामी, पण्डित मरण के तीन भेद और सम्यक्त्व आराधना का वर्णन किया गया है। २. बाल-बाल मरणाधिकार - इस अधिकार में दश श्लोकों के द्वारा इस मरण के लक्षणादि कहे गये हैं। - ३. भक्तप्रत्याख्यानमरणाधिकार इस अधिकार में अर्ह, लिंग तथा शिक्षा आदि चालीस अधिकारों का वर्णन है । इन चालीस अधिकारों को कतिपय अधिकारों का समूह बना कर कुल सात अधिकारों में विभक्त कर दिया गया है। Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यथा : (१) अर्ह - अधिकार : इस अधिकार में अह', लिंग, शिक्षा, विनय, समाधि', अनियत विहार, परिणाम, उपधित्याग', श्रिति' और भावना" इन दश अधिकारों का समावेश है । ४. (२) सल्लेखना आदि अधिकार : इस अधिकार में ११ से लेकर १६ पर्यन्त अर्थात् छह अधिकारों का समावेश है। यथा - सल्लेखना ११, दिशा १२, क्षमण १३, अनुशिष्टि १४, परगणचर्या १५ और मार्गणा । ५. (३) सुस्थितादि अधिकार इस अधिकार में निरूपण २०, पृच्छा २१, एकसंग्रह २२, आलोचना २३, गुण-दोष २४, अधिकारों का समावेश है। - ६. ( ४ ) निर्यापकादि अधिकार इस अधिकार में निर्यापक २७, प्रकाशन १८, हानि १९, प्रत्याख्यान ३०, क्षामण और क्षपण े २ इन छह अधिकारों का समावेश है। ३२ = सुस्थित १७ उत्सर्पण, परीक्षा १९, .२५ शय्या और संस्तर २६ इन दस - ७. (५) अनुशिष्टि महाधिकार अनुशिष्टि नाम का यह ३३ आकार स्वयं में अत्यधिक विशाल है। यह श्लोक ७५१ से प्रारम्भ हो १५६८ पर अर्थात् ८१८ श्लोकों में पूर्ण हुआ है अतः इसे महाधिकार संज्ञा दी गई है । भक्तप्रत्याख्यान के अर्हादि ४० अधिकारों में १४वें अधिकार का नाम भी अनुशिष्टि अधिकार है जो मात्र ११२ श्लोक प्रमाण है। इस अधिकार से उसे भिन्न दर्शाने हेतु भी सम्भवतः उसे महाधिकार संज्ञा दी गई है। इस महाधिकार के प्रारम्भ में ही आचार्यश्री ने दो श्लोकों द्वारा इस अधिकार के प्रतिपाद्य विषय को सूचित कर दिया है। यथा मिथ्यात्व - वमनं दृष्टिं, भावनां भक्तिमुत्तमाम् । रति भाष- नमस्कारे, ज्ञानाभ्यासे कुरूद्यमम् ॥ ७५४ ॥ यह श्लोक सूचना रूप है। मिध्यात्ववमन, सम्यक्त्व भावना, उत्तम भक्ति, पंच नमस्कार में रति और ज्ञानाभ्यास इन विषयों का वर्णन ५३ श्लोकों में किया गया है। मुने ! महाव्रतं रक्ष, कुरु कोपादि-निग्रहम् । हृषीक - निर्जयं द्वेधा, तपोमार्गे कुरूद्यमम् ॥७५५ ॥ यह श्लोक भी सूचना रूप है। इसमें मात्र चार विषयों के विवेचन की सूचना दी गई है। इनमें पाँच महाव्रतों की रक्षा का वर्णन श्लोक ८०९ से १४२२ तक, कृषायनिग्रह एवं इन्द्रियविजय का वर्णन श्लोक १४२३ से १५१९ तक और तप का वर्णन १५२० से १५४७ तक किया गया I इस महाधिकार में अनुमानत: चालीस कथाएँ दी गई हैं। इस अधिकार का अन्त निद्रा पर विजय प्राप्त करने के उपाय बता कर एवं तपस्या में संलग्न होने की प्रेरणा पूर्वक हुआ है। ८. (६) सारणादि - अधिकार : इस अधिकार में सारणा ३४, कवच ५ और समता २६ इन तीन अधिकारों का समावेश किया गया है। Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९. (७) ध्यानादि अधिकार : इस अधिकार में ध्यान ७, लेश्या३८, फल२९ एवं आराधक अंगत्याग इन चार अधिकारों का समावेश किया गया है। १०-११. इसके पश्चात् अवीचार भक्त प्रत्याख्यान, इंगिनी और प्रायोपगमनमरण तथा बालपण्डितमरण अधिकार कहे गये हैं। इनमें अधिकारगत निरुद्ध, निरुद्धतर और निरुद्धतम इन तीन भेदों के, इंगिनीमरण के, प्रायोपगमनमरण तथा बालपण्डितमरण के स्वरूप का तथा इनके स्वामी आदि का विवेचन ७६ श्लोकों में किया गया है। पश्चात् उपसर्गादि के निमित्त से तत्काल आराधनापूर्वक पण्डितमरण करने वाले महापुरुषों की चार कथाएँ दी गई हैं। इसके पश्चात् १२वें अधिकार में ८० श्लोकों द्वारा पण्डितपण्डित मरण का विवेचन किया गया है। पश्चात् आराधना का फल और ग्रन्थकार की लघुता का निर्देश करते हुए मरणकण्डिका ग्रन्थ पूर्ण हो गया है। सल्लेखना की कठिन साधना के साथ-साथ इस वृहद्काय ग्रन्थ के लेखन की शक्ति परम पूज्य, परम श्रद्धेय अहर्निश-स्मरणीय सर्व पूर्वाचार्यों के मंगल शुभाशीर्वाद से ही प्राप्त हो सकी है। इन परमोपकारी, गुरुजनों की आभारी मैं आप सबके पावन चरण-कमलों में कृतिकर्म पूर्वक शतश: नमस्कार करती हूँ। वर्तमान पट्टाधीश निर्यापकाचार्य गुरुदेव परम पूज्य, परम श्रद्धेय, प्रातः स्मरणीय आचार्य १०८ श्री वर्धमान गर जी महाराज का मगर: गुमाशीर्वाद ही इस लेखन का महान् सम्बल रहा है। आपके अविस्मरणीय उपकारों के प्रति मेरा अन्तस् अत्यन्त आभारी है। जर्जर नौका को पार कर किनारे तक पहुँचाने की कृपाकांक्षी मैं आपके पावन चरण-कमलों में कृतिकर्म पूर्वक शतश: नमोऽस्तु करती हुई आप के प्रति कृतज्ञ हूँ। परम पूज्य विदुषीरत्न आर्यिका १०५ श्री जिनमती माता जी की कृति के आधार पर ही मैं यह महान् कार्य पूर्ण कर सकी हूँ अत: उनके प्रति मेरा मन आभारी है। आपके पावन चरणों में बार-बार वन्दामि। आर्यिका १०५ श्री प्रशान्तमती माताजी ने मेरी लिखी पाण्डुलिपि संलग्नता पूर्वक देखी है। उनकी यह सम्यग्ज्ञान की रति एवं रत्नत्रय की निर्मलता उत्तरोत्तर वृद्धिंगत होती रहे, यही मेरी हार्दिक मंगल भावना है। जिनवाणी के परमभक्त और निर्लोभी डॉ. चेतनप्रकाश जी पाटनी, परम सहयोगी प्रतिष्ठाचार्य श्री हँसमुख जी एवं अन्य भी सहयोगी जनों के प्रति मेरा मन आभारी है। आप सब निर्मल ज्ञान प्राप्त कर शीघ्र ही इस संसारभ्रमण से छूटें, यही मेरी हार्दिक मंगल भावना है। ॐ शान्ति । भद्रं भूयात्। आर्यिका विशुद्धमती वि. सं. २०५८ गुरु पूर्णिमा, ५.७.२००१ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभीक्ष्णज्ञानोपयोगी, आर्षमार्गपोषक परम पू. १०५ आर्यिका श्री विशुद्धमती माताजी (संक्षिप्त जीवनवृत्त) गेहुँआ वर्ण, मझोला कद, अनतिस्थूल शरीर, चौड़ा ललाट, भीतर तक झांकती सी ऐनक धारण की हुई आँखें, हितमितप्रिय स्पष्ट बोल, संयमित सधी चाल और सौम्य मुखमुद्रा-बस, यही है उनका अंगन्यास । नंगे पाँच, लुंचित सिर, धवल शाटिका, मयूरपिच्छिका-बस, यही है उनका वेषविन्यास। विषयाशाविरक्त, ज्ञानध्यान तप जप में सदा निरत, करुणासागर, परदुःख कातर, प्रवचनपटु, निस्पृह, समता-विनय-धैर्य और सहिष्णुता की साकारमूर्ति, भद्रपरिणामी, साहित्य-सृजनरत, साधना में वज्र से भी कठोर, वात्सल्य में नवनीत से भी मृदु, आगमनिष्ठ, गुरुभक्तिपरायण, प्रभावनाप्रिय-बस, यही है उनका अन्तर आभास । जूली और जया, जानकी और जेबुन्निसा सबके जन्मों का लेखा-जोखा नगरपालिकायें रखती हैं पर कुछ ऐसी भी हैं जिनके जन्म का लेखाजोखा राष्ट्र, समाज और जातियों के इतिहास स्नेह और श्रद्धा से अपने अंक में सुरक्षित रखते हैं। वि. सं. १९८६ की चैत्र शुक्ला तृतीया को रीठी (जबलपुर, म. प्र.) में जन्मी वह बाला सुमित्रा भी ऐसी ही रही है - जो आज है आर्यिका विशुद्धमती माताजी! इस शताब्दी के प्रसिद्ध सन्त पूज्य श्री गणेशप्रसादजी वर्णी के निकट सम्पर्क से संस्कारित धार्मिक गोलापूर्व परिवार में सद्गृहस्थ पिता श्री लक्ष्मणलालजी सिंघई एवं भाता सौ, मथुराबाई की पाँचवी सन्तान के रूप में सुमित्राजी का पालन-पोषण हुआ। चूंटी में ही दयाधर्म और सदाचार के संस्कार मिले। फिर थोड़ी पाठशाला की शिक्षा, नस; सब कुछ सामान्य, विलक्षणता का कहीं कोई चिह्न नहीं। आयु के पन्द्रह वर्ष बीततेबीतते पास के ही गाँव बाकल में एक घर की वधू बनकर सुमित्राजी ने पिता का घर छोड़ा। इतने सामान्य जीवन को लखकर तब कैसे कोई अनुमान कर लेता कि यह बालिका एक दिन ठोस आगमज्ञान प्राप्त करके स्व-पर कल्याण के पथ पर आरूढ़ हो स्वीपर्याय का उत्कृष्ट पद प्राप्त कर लेगी। सच है, कर्मों की गति बड़ी विचित्र होती है। चन्द्रमा एवं सूर्य को राहु और केतु नामक ग्रह विशेष से पीड़ा, सर्प तथा हाथी को भी मनुष्यों के द्वारा बन्धन और विद्वद्जन की दरिद्रता देखकर अनुमान लगाया जाता है कि नियति बलवान है और फिर काल ! काल तो महाक्रूर है ! 'अपने मन कछु और है विधना के कछु और' दैव दुर्विपाक से सुमित्राजी के विवाह के कुछ ही समय बाद उन्हें सदा के लिए मातृ-पितृ वियोग हुआ और विवाह के डेढ़ वर्ष के भीतर ही कन्या-जीवन के लिए अभिशाप स्वरूप वैधव्य ने आपको आ घेरा। अब तो सुमित्राजी के सम्मुख समस्याओं से घिरा सुदीर्घ जीवन था । इष्टनियोग (पति और माता-पिता) से उत्पन्न हुई असहाय स्थिति बड़ी दारुण थी। किसके सहारे जीवन-यात्रा व्यतीत होगी? किस प्रकार निश्चित जीवन मिल सकेगा? अवशिष्ट दीर्घजीवन का निर्वाह किस विधि होगा? इत्यादि नाना प्रकार की विकल्प लतरियाँ मानस को मथने लगीं। भविष्य प्रकाशविहीन प्रतीत होने लगा। संसार में शीलवती स्त्रियाँ धैर्यशालिनी होती हैं, Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +११. प्रगट ह नाना प्रकार की विपत्तियों को वे हँसते-हँसते सहन करती हैं। निर्धनता उन्हें डरा नहीं सकती, रोगशोकादि से वे विचलित नहीं होतीं परन्तु पतिवियोगसदृश दारुण दुःख का वे प्रतिकार नहीं कर सकती हैं। यह दुःख उन्हें असह्य हो जाता है। ऐसी दुःखपूर्ण स्थिति के कारण उन्हें 'अबला' भी पुकारा जाता है। परन्तु सुमित्राजी में आत्मबल उनके अन्तरंग में स्फरणा हई कि इस जीत का शक मात्र सहायक या अवासन धर्म ही है! 'धर्मों रक्षति रक्षितः' । अपने विवेक से उन्होंने सारी स्थिति का विश्लेषण किया और 'शिक्षार्जन' कर स्वावलम्बी (अपने पाँवों पर खड़े) होने का संकल्प लिया। भाइयों श्री नीरजजी और श्री निर्मलजी, सतना के सहयोग से केवल दो माह पढ़ कर प्राइमरी की परीक्षा उत्तीर्ण की। मिडिल का त्रिवर्षीय पाठ्यक्रम दो वर्ष में पूरा किया और शिक्षकीय प्रशिक्षण प्राप्त कर अध्यापन की अर्हता अर्जित की और अनन्तर सागर के उसी महिलाश्रम में जिसमें उनकी शिक्षा का श्रीगणेश हुआ था- अध्यापिका बनकर सुमित्राजी ने स्व+अवलम्बन के अपने संकल्प का एक चरण पूर्ण किया। सुमित्राजी ने महिलाश्रम (विधवाश्रम) का सुचारु रीत्या संचालन करते हुए करीब बारह वर्ष पर्यन्त प्रधानाध्यापिका का गुरुतर उत्तरदायित्व भी संभाला। आपके सद्प्रयत्नों से आश्रम में श्री पार्श्वनाथ चैत्यालय की स्थापना हुई। भाषा और व्याकरण का विशेष अध्ययन कर आपने भी 'साहित्यरत्न' और 'विद्यालंकार' की उपाधियाँ अर्जित की। विद्वशिरोमणि डॉ. पन्नालालजी साहित्याचार्य का विनीत शिष्यत्व स्वीकार कर आपने 'जैन सिद्धान्त' में प्रवेश किया और धर्मविषय में 'शास्त्री' की परीक्षा उत्तीर्ण की। अध्यापन और शिक्षार्जन की इस संलग्नता ने सुमित्राजी के जीवनविकास के नये क्षितिजों का उद्घाटन किया। शनैः शनैः उनमें 'ज्ञान का फल' अंकुरित होने लगा। एक सुखद संयोग ही समझिये कि सन् १९६२ में परमपूज्य परमश्रद्धेय (स्व.) आचार्य श्री धर्मसागरजी महाराज का वर्षायोग सागर में स्थापित हुआ। आपकी परम निरपेक्षवृत्ति और शान्त सौम्य स्वभाव से सुमित्राजी अभिभूत हुईं। संघस्थ प्रवर वक्ता पूज्य १०८ (स्व.) श्री सन्मतिसागरजी महाराज के मार्मिक उद्बोधनों से आपको असीम बल मिला और आपने स्व+ अवलम्बन के अपने संकल्प के अगले चरण की पूर्ति के रूपमें चारित्र का मार्ग अंगीकार कर सप्तम प्रतिमा के व्रत ग्रहण किये। विक्रम संवत् २०२१, श्रावण शुक्ला सप्तमी, दि. १४ अगस्त, १९६४ के दिन परम पूज्य तपस्वी, अध्यात्मवेत्ता, चारित्रशिरोमणि, दिगम्बराचार्य १०८ श्री शिवसागरजी महाराज के पुनीत कर-कमलों से ब्रह्मचारिणी सुमित्राजी की आर्यिका दीक्षा अतिशय क्षेत्र पपौराजी (म.प्र.) में सम्पन्न हुई। अब से सुमित्राजी 'विशुद्धमत्ती' बनीं। बुन्देलखण्ड में यह दीक्षा काफी वर्षों के अन्तराल से हुई थी अतः महती धर्मप्रभावना का कारण बनी। आचार्यश्री के संघ में ध्यान और अध्ययन की विशिष्ट परम्पराओं के अनुरूप नवदीक्षित आर्यिकाश्री के नियमित शास्त्राध्ययन का श्रीगणेश हुआ। संघस्थ परम पूज्य आचार्यकल्प श्रुतसागरजी महाराज ने द्रव्यानुयोग और करणानुयोग के ग्रंथों में आर्यिकाश्री का प्रवेश कराया। अभीक्ष्णज्ञानोपयोगी पूज्य अजितसागरजी महाराज (बाद में पट्टाधीश आचार्य) ने न्याय, साहित्य, धर्म और व्याकरण के ग्रन्थों का अध्ययन कराया । जैन गणित के अभ्यास में और षटखण्डागम सिद्धान्त के स्वाध्याय में (स्व.) ब्र. पं. रतनचन्द्रजी मख्तार आपके सहायक Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + १२+ बने। सतत परिश्रम, अनवरत अभ्यास और सच्ची लगन के बल पर पूज्य माताजी ने विशिष्ट ज्ञानार्जन कर लिया। यहाँ इस बात का उल्लेख करना अप्रासंगिक न होगा कि दीक्षा के प्रारम्भिक वर्षों में आहार में निरन्तर अन्तराय आने के कारण आपका शरीर अत्यन्त अशक्त और शिथिल हो चला था पर शरीर में बलवती आत्मा का निवास था । श्रावकों वृद्धों ही नहीं अच्छी आँखों वाले युवकों की लाख सावधानियों के बावजूद भी अन्तराय आहार में बाधा पहुँचाते रहे। आर्यिका श्री की कड़ी परीक्षा होती रही। असाता के शमन के लिए अनेक लोगों ने अनेक उपाय करने के सुझाब दिये। आचार्यश्री ने कर्मोपशमन के लिए बृहत्शांतिमंत्र का जाप करने का संकेत किया पर आर्यिका श्री का विश्वास रहा है कि समताभाव से कर्मों का फल भोगकर उन्हें निर्जीर्ण करना ही मनुष्य पर्याय की सार्थकता है, ज्ञान की सार्थकता है। आपकी आत्मा उस विषम परिस्थिति में भी विचलित नहीं हुई, कालान्तर में वह उपद्रव कारण पाकर शमित हो गया। पर इस अवधि में भी उनका अध्ययन सतत जारी रहा। आर्यिका श्री द्वारा की गई 'त्रिलोकसार' की टीका के प्रकाशन के अवसर पर प. पू. आचार्य १०८ श्री अजितसागरजी महाराज ने आशीर्वाद देते हुए लिखा "सागर महिलाश्रम की अध्ययनशीला प्रधानाध्यापिका सुमित्राबाई ने अतिशय क्षेत्र पपौरा में आर्यिका दीक्षा धारण की थी। तत्पश्चात् कई वर्षो तक अन्तरायों के बाहुल्य के कारण शरीर से अस्वस्थ रहते हुए भी धर्मग्रन्थों के पठन प्रवृत्त रहीं। आपने चारों ही अनुयोगों के निम्नलिखित ग्रन्थों का गहन अध्ययन किया है। करणानुयोग सिद्धान्तशास्त्र धवल ( १६ खण्ड), महाधवल ( दो खण्डों का अध्ययन हो चुका है, तीसरा खण्ड चालू है ।) द्रव्यानुयोग समयसार, प्रवचनसार, नियमसार, पंचास्तिकाय, इष्टोपदेश, समाधिशतक, आत्मानुशासन, वृहद्रव्यसंग्रह । न्यायशास्त्रों में न्यायदीपिका, परीक्षामुख, प्रमेयरत्नमाला। व्याकरण में कातन्त्ररूपमाला, कलापव्याकरण, जैनेन्द्र लघुवृत्ति, शब्दार्णवचन्द्रिका | चरणानुयोग - रत्नकरण्ड श्रावकाचार, अनगार धर्मामृत, मूलाराधना, आचारसार, उपासकाध्ययन । प्रथमानुयोग - सम्यक्त्व कौमुदी, क्षत्रचूड़ामणि, गद्यचिन्तामणि, जीवन्धरचम्पू, उत्तरपुराण, हरिवंशपुराण, पद्मपुराण आदि ।" (त्रिलोकसार : आद्य पृ. ६) इसप्रकार पूज्य माताजी ने इस अगाध आगम वारिधि का अवगाहन कर अपने ज्ञान को प्रौढ़ बनाया | जिसका फल हमें साहित्यसृजन के रूप में उनसे अनवरत प्राप्त हुआ। 'जिनवाणी की सेवा' ही उनका व्रत हो गया था। उन्होंने आचार्यों द्वारा प्रणीत करणानुयोग के विशालकाय प्राकृत संस्कृत ग्रंथों की सचित्र सरल सुबोध भाषाटीकायें लिखीं, साथ ही सामान्य जनोपयोगी अनेक छोटी-बड़ी रचनाओं का भी प्रकाशन किया। उनके द्वारा प्रणीत साहित्य की सूची इस प्रकार है भाषाटीकाएँ : १. सिद्धान्तचक्रवर्ती नेमिचन्द्राचार्य विरचित त्रिलोकसार टीका । २. भट्टारक सकलकीर्ति विरचित सिद्धान्तसारदीपक टीका । ३. यतिवृषभाचार्य विरचित तिलोयपण्णत्ती की हिन्दी टीका (तीन खण्डों में ) ४. क्षपणासार ५. अमितगति आचार्यविरचित योगसार प्राभृत ( प्रश्नोत्तर टीका ) ६. मरणकण्डिका ( प्रश्नोत्तर टीका ) Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .१३. * मौलिक रचनाएँ : १. श्रुतनिकुंज के किंचित् प्रसून २. गुरु गौरव ३. श्रावक सोपान और बारह भावना ४. आनन्द की पद्धति अहिंसा ५. निर्माल्य ग्रहण पाप है प्रश्नोत्तर लेखन : १. धर्मप्रवेशिका प्रश्नोत्तर माला २. धर्मोद्योत प्रश्नोत्तर माला ३. छहढाला ४. इष्टोपदेश ५. स्वरूपसम्बोधनपंचविंशति * संकलन-सम्पादन : १. वत्थुविज्जा (प्रथम खण्ड-गृहशिल्प) २. वत्थुविज्जा (द्वितीय खण्ड-मन्दिरशिल्प) ३. श्रमणचर्या ४. समाधिदीपक ५. दीपावली पूजनविधि ६. श्रावक सुमन संचय ७. स्तोत्र संग्रह ८. श्रावक सोपान ९. आर्यिका आर्यिका है १०. संस्कार ज्योति ११. पाक्षिक श्रावक प्रतिक्रमण सामायिक विधि १२. वृहद् सामायिक पाठ एवं व्रती श्रावक प्रतिक्रमण १३. आचार्य शान्तिसागरजी महाराज का संक्षिप्त जीवनवृत्त १४. रात्रिक/देवसिक प्रतिक्रमण (अन्वयार्थसहित) १५. पाक्षिकादि प्रतिक्रमण (अन्वयार्थसहित) १६. वास्तुविज्ञान परिचय १७. नित्यनियमपूजा एवं दीपावली पूजन १८. शान्तिधर्मप्रदीप अपरनाम दानविचार १९. नारी बनो सदाचारी २०. महावीरकीर्ति स्मृति ग्रन्थ : एक अनशीलन २१. ऐसे थे चारित्र चक्रवर्ती २२. चारित्र चक्रवर्ती आचार्य शान्तिसागर चरित्र आपने दीक्षा वर्ष १९६४ में पपौरा, बाद में क्रमश: श्रीमहावीरजी, कोटा, उदयपुर, परतापगढ़, टोडारायसिंह, भीण्डर, उदयपुर, अजमेर, निवाई, रैनवाल, सवाईमाधोपुर, सीकर, रैनवाल, निवाई, निवाई, टोडारायसिंह, उदयपुर, उदयपुर, उदयपुर, भीण्डर, उदयपुर, कूण, भीलवाड़ा, उदयपुर, भीण्डर, पारसोला, अडिन्दा पार्श्वनाथ, फलासिया, ईडर, रामगढ़, गनोड़ा, गींगला, नन्दनवन, मुंगाणा, नन्दनवन, नन्दनवन और २००१ में पुन: नन्दनवन में वर्षायोग स्थापित किया । टोडारायसिंह, उदयपुर, भीण्डर, निवाई, रैनवाल, नन्दनवन में आपके क्रमशः २, ६, ३, ३, २, ४ बार चातुर्मास हुए | सर्वत्र आपने महती धर्मप्रभावना की और श्रावकों को सन्मार्ग में प्रवृत्त किया। श्री शान्तिवीर गुरुकुल जोबनेर को स्थायित्व प्रदान करने के लिए आपकी प्रेरणा से Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + १४ + श्री दि. जैन महावीर चैत्यालय का नवीन निर्माण हुआ है और वेदी प्रतिष्ठा भी हुई है। जन-धन आवागमन आदि अन्य साधनविहीन अलयारी ग्राम स्थित जिनमन्दिर का जीर्णोद्धार, नवीन जिनबिम्ब की रचना, नवीन वेदी का निर्माण एवं प्रति आपके ही सफल है। श्री हि जैन धर्मशाला टोडारायसिंह का नवीनीकरण एवं अशोकनगर उदयपुर में नवीन जिनालय और श्री शिवसागर सरस्वती भवन का निर्माण आपके मार्गदर्शन का ही सुपरिणाम है। वास्तुशास्त्र के अनुसार कई जगह आपके मार्गदर्शन से परिवर्तन हुए हैं एवं स्वाध्याय भवन आदि के निर्माण हुए हैं। श्री ब्र. सूरजबाई मु. ड्योढ़ी (जयपुर) की क्षुल्लिका दीक्षा, ब्र. मनफूलबाई (टोडारायसिंह) को आठवीं प्रतिमा, श्री कजोड़ीमल जी कामदार ( जोबनेर ) को दूसरी प्रतिमा, श्री सावित्री बाई रामगढ़ को पांचवीं प्रतिमा, श्री सोहनलालजी संगावत उदयपुर वालों की धर्मपत्नी को पति पुत्रों की उपस्थिति में गृह त्यागपूर्वक सातवीं प्रतिमा के व्रत आपके कर कमलों से प्रदान किये गये। कई श्रावक युगलों को आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत आपने प्रदान किया। अशुद्ध जल त्याग, रात्रिभोजन त्याग, जमीकंद त्याग, हिंसाजन्य सौन्दर्य-प्रसाधनों का त्याग आत्महत्या, भ्रूणहत्या करने का त्याग आदि नियम अनेक श्रावकों ने आपसे ग्रहण किये। प्रतिदिन अभिषेकपूजन, स्वाध्याय, दान (साधु प्रत्यक्ष में न हो तो घर में एक डिब्बा रखकर साधुओं का स्मरण करके उसमें दान डालना ), साधुओं के चर्यासमय को टालकर बाद में उनके स्मरणपूर्वक भावना करना कि सब साधुओं का निरन्तराय आहार हो गया होगा, बाद में स्वयं भोजन करना, इस प्रकार अनेक सरल नियमों की प्रतिज्ञा आपके पास अनेक श्रावकों ने ग्रहण की। आपकी भावना प्राय: ऐसी ही रहती थी कि प्रत्येक श्रावक को कुछ-न-कुछ संयम-नियम-त आदि से संयुक्त रहना चाहिए। बिना त्याग संयम के कल्याण नहीं है। इन्द्रियविषयों को भोगने के बाद नियम कर लेना चाहिए कि जब तक दुबारा काम में नहीं लेंगे तब तक के लिए त्याग है, जो अत्यन्त सरल नियम है। शास्त्रसमुद्र का आलोड़न करने वाली पूज्य माताजी की आगम में अटूट आस्था रहीं । क्षुद्र भौतिक स्वार्थों के लिए सिद्धान्तों को अपने अनुकूल तोड़-मोड़ कर प्रस्तुत करने वाले आपकी दृष्टि में अक्षम्य रहे । देवशास्त्र-गुरु की अविनय अवज्ञा आपके लिए असहनीय थी। आगम-सिद्धान्त में किसी प्रकार का समझौता करने के लिए आपकी आत्मा ने कभी गवाही नहीं दी। सज्जातित्व में आपकी पूर्ण निष्ठा रही। विधवा विवाह और विजातीय विवाह आपकी दृष्टि में कथमपि शास्त्रसम्मत नहीं रहे। आचार्य सोमदेव की इस उक्ति का आप पूर्ण समर्थन करती थी स्वकीयाः परकीयाः वा मर्यादालोपिनो नराः । नहि माननीयं तेषां तपो वा श्रुतमेव च ॥ अर्थात् स्वजन से वा परजन से, तपस्वी हो या विद्वान् हो किन्तु वह मर्यादाओं का लोप करने वाला है तो उसका कहना भी नहीं मानना चाहिए। (धर्मोद्योत प्रश्नोत्तरमाला, तृतीय संस्करण पृ. ६६ से उद्धृत ) आगम-परम्परा और गुरु-परम्परा का आप प्राण-पण से निर्वाह करती रहीं। एक शब्द भी इनके विरुद्ध यदि आता तो आपका मन क्षुब्ध हो जाता। आप उनका उत्तर प्रतीकार भी अवश्य करतीं ताकि मूल परम्परा की रक्षा हो । Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूज्य माताजी स्पष्ट और निर्भीक धर्मोपदेशिका रहीं। सत्य बात, चाहे कटु हो पर आगे-पीछे कहना आपके स्वभाव में नहीं रहा। उसी समय सबके सामने प्रत्यक्ष कहने में आपकी आत्मा किंचित् भी हिचकती नहीं थी। जनानुरंजन की क्षुद्रवृत्ति को आप अपने पास फटकने भी नहीं देती थी। अपनी चर्या में 'वज्रादपि कठोराणि' थी तो दूसरों को धर्ममार्ग में लगाने के लिए ‘मृदूनि कुसुमादपि' । स्वकल्याण के साथ पर-कल्याण की अति तीव्र भावना आपके भीतर थी। शारीरिक शक्ति अत्यन्त क्षीण होते हए भी श्रावक-श्राविकाओं को आत्मकल्याण संबंधी शिक्षा के दो शब्द बताने की आपकी भावना हमेशा बनी रहती थी। ज्ञानपिपासु माताजी ज्ञानाराधना में संलग्न रहती थीं। संयमरूपी मंदिर के शिखर पर समाधि रूपी कलश चढ़ाने की भावना आपकी प्रतिक्षण बनी रहती थी। आपके समीचीन मार्गदर्शन-निर्देशन में परम पूज्य आचार्यकल्प सन्मतिसागरजी महाराज श्री, प. पू. महेन्द्रसागर जी महाराजश्री, पू. आर्यिका विमलमती माताजी, पू. आर्यिका सिद्धमती माताजी. पू. आर्यिका पवित्रमती माताजी आदि एवं अन्य श्रावक-श्राविकाओं की समाधि सम्पन्न हुई। समाधि सम्पन्न कराने में क्षपक की वैयावृत्य आदि करने-कराने की आत्मिक क्षमता आपमें विशेष रूप से थी। शारीरिक दुर्बलता के कारण आप प्राय: यही कहती थीं कि इस काल में १२ साल की सल्लेखना नहीं लेनी चाहिए। पर आपकी आत्मा ने भीतर से एक ऐसी आवाज दी कि ६० वर्ष की वय में ही आपने अत्यन्त साहलपूर्वक १२ साल की सल्लेखना पूज्य आचार्य अजितसागरजी महाराज से ग्रहण की। सल्लेखना धारण करते ही आपका लक्ष्य परिवर्तित हो गया। आगमसेवा के साथ अब तपश्चरण की ओर भी ध्यान बढ़ता गया | सल्लेखना के साथ ऐसा नियम लिया कि प्रतिवर्ष कुछ-न-कुछ वस्तुओं का त्याग करना और प्रतिवर्ष एक नया व्रत ग्रहण करना | अपनी प्रतिज्ञानुसार आपने एक रस से, नीरस से और बाद में उपवास से व्रत प्रारम्भ किये। इस परित्याग के साथ बेला-बेला उपवास किये। १६ जनवरी, २००२ को बारह वर्षीय सल्लेखना अवधि पूर्ण होने पर माताजी ने जीवन पर्यन्त के लिए पेय-जल का भी त्याग कर दिया। साधना क्रम में अन्न का त्याग तो बहुत पहले हो चुका था। जलत्याग के बाद छह दिन की कठोर साधना के अनन्तर २२ जनवरी २००२ को पूज्य माताजी की पुनीत आत्मा ने प्रात: साढ़े चार बजे ब्राह्ममुहूर्त में आचार्य श्री वर्धमानसागर जी महाराज और गणिनी आर्यिका सुपार्श्वमती जी से पंच नमस्कार मंत्र सुनते हुए स्वर्ग की ओर महाप्रयाण किया। दृढ़ संयमी, आर्षमार्ग की कट्टर पोषक, निःस्पृह, परम विदुषी, अभीक्ष्णज्ञानोपयोगी, निर्भीक उपदेशक, आगममर्मस्पशी, मोक्षमार्ग की पथिक, स्व-पर उपकारी पूज्य माताजी की पुनीत आत्मा स्वर्गिक सुखों के लाभ के बाद नरपर्याय धारण कर मुक्तिरमा को यथाशीघ्र वरण करे, यही भावना भाता हूँ। उस पुनीत आत्मा को शतशत वन्दन। - डॉ. चेतनप्रकाश पाटनी Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 卐 दो शब्द संसार की प्राय: सभी धार्मिक और सांस्कृतिक मान्यताओं में जीवन को सँवारने की और शान से जीने की विधियों का बार-बार की किमाया है। जीवन को एक कला माना गया है पर मृत्यु की हर जगह उपेक्षा की गई है। कलाओं की लम्बी तालिका में मरने की कला का नाम कहीं नहीं आता। मरण जो जीवन का अनिवार्य परिणाम है, हर जगह इतना उपेक्षित रहा है कि प्रायः उसकी चर्चा भी वर्जित मानी गई है, परंतु जैन जीवन पद्धति में मृत्यु को उपेक्षणीय या तिरस्करणीय नहीं बताया गया। एक सच्चाई की सरह उसका सामना करने की शिक्षा दी गई है। संसारी मोही प्राणी जन्म के सत्य को स्वीकार कर खुशियाँ मनाते हैं और मरण के सत्य को अस्वीकार कर शोक करते हैं, यह बड़ा आश्चर्य है। "जातस्य हि ध्रुवो मृत्युः" जिसने जन्म लिया है उसका मरण अवश्यम्भावी है। आयु समाप्त होने पर मणि, मंत्र, तंत्र, ताबीज, औषधि कोई मरण से बचा नहीं सकते। अनन्तकाल तक इस जीव ने एकेन्द्रिय पर्याय में एक श्वास में १८ बार जन्म-मरण किया। एक अन्तर्मुहूर्त में ६६३३६ बार लब्ध्यपर्याप्त अवस्था प्राप्त कर जन्म-मरण किया। किसी कारणवश कर्मों का लघु विपाक हुआ तो द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असैनी पंचेन्द्रिय पर्यायों में मन के बिना हितअहित, हेय-उपादेय के विचार से शून्य आत्महित के विचारविमर्श की संभावना से रहित मरण किया। किसी पुण्य के उद्देश्य से पंचेन्द्रिय हुआ तो भी मिथ्यादर्शन और पंचेन्द्रियों की विषयवासना के वश होकर मरण करता रहा। इस प्रकार प्राय: सभी पर्यायों में संक्लेशपूर्वक, उद्वेगपूर्वक, आर्त्त-रौद्र ध्यान सहित संकल्प-विकल्प पूर्वक, आकुलता सहित मरण होने से जन्म-मरण की परम्परा बढ़ती ही रही । जन्म-मरण की इस परम्परा को समाप्त करने का एक मात्र उपाय है जैन जीवनपद्धति में निर्दिष्ट सल्लेखनापूर्वक समाधिमरण। शांति से धर्मध्यानपूर्वक समतामय परिणामों से कषायों को कृश करते हुए स्वेच्छा से शरीर छोड़ना ही समाधिमरण, मंगलमयमरण या मृत्यु महोत्सव है। सल्लेखनापूर्वक समाधिमरण अर्थात् सुमरण कैसे, किस विधि से, कौन उपायों से हो, उसका विस्तृत वर्णन हमारे आचार्यों ने बड़े-बड़े ग्रन्थों में किया है। शिवकोटि आचार्य विरचित भगवती आराधना प्राकृत भाषा का इसी विषय का एक महान् ग्रन्थ है। इसके संस्कृत (छायारूप) श्लोकों के माध्यम से अमितगति आचार्य ने मरणकण्डिका नामक ग्रन्थ की रचना की है। मरण का विशद वर्णन होने से इस ग्रन्थ का मरणकण्डिका नाम सार्थक है। इस ग्रन्थ के बारह अधिकारों में सरलतम श्लोकों के माध्यम से आराधना से लेकर अंतिम आराधना के फल निजतत्त्व की प्राप्ति तक का संपूर्ण विवेचन किया गया है। सर्वप्रथम चार आराधनाओं का वर्णन करते हुए बताया है कि ज्ञान और दर्शन का सार यथाख्यात चारित्र की प्राप्ति और यथाख्यात चारित्र का सार निर्वाण की प्राप्ति है। चिरकाल तक चारों आराधनाओं का पिरतिचार पालन करने वाले मुनिराज भी मरणकाल में यदि उन आराधनाओं की विराधना करके मरते Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं तो वे पुन: अनंत संसारी होते हैं। इसलिए मरण तक चारों आराधनाओं को निरतिचार ले जाने, पालन करने और निभाने के लिए आराधक मुनिराजों को सदा ही आराधनाओं के सहायभूत परिकर में प्रयत्नशील रहना चाहिए, जिससे साधक मरणसमय रत्नत्रय धर्म से च्युत न होवें। प्रथम अधिकार में प्रधानभूत पाँच मरणों का विस्तृत विवेचन है एवं उनके स्वामियों का कथन है। चार आराधनाओं के अन्तर्गत दर्शन आराधना का विशेष महत्त्व श्लोक ४२ में कहा है कि तत्त्वार्थ के प्रतिपादक अक्षर-समुदाय में से एक अक्षर का भी यदि अश्रद्धान किया जाता है तो वह व्यक्ति निश्चय से मिथ्यादृष्टि हो जाता है भले ही उस शेष सारे अक्षरों का श्रद्धान हो। तृतीय अधिकार में पंडितमरण के प्रथम भेद भक्तप्रत्याख्यान मरण का ४० सूत्राधिकारों में विस्तृत वर्णन किया गया है। भावना नामक अधिकार में भक्तप्रत्याख्यान मरण करने वाले मुनिजन पाँच प्रकार की खोटी भावनाओं का त्याग कर तपोभावना, ज्ञानभावना, सत्त्वभावना, एकत्व भावना और धृतिभावना भाते हैं। तपोभावना के भाने से मरणकाल में परी एवं धादि वेदना सहने में होते हैं। माना अर्थात् भली प्रकार शास्त्रज्ञान में लगे रहने से ज्ञान सदा जाग्रत रहता है। मरणकाल में शास्त्राभ्यासी साधु की स्मृति का नाश नहीं होता है। सत्त्वभावना के बल से उपसर्ग आदि आने पर विचलित नहीं होते हैं। एकत्व भावना से काम, भोग, संघ और शरीर से निस्पृह होते हैं एवं धृतिभावना से परीषह आदि पर विजय पाते हैं। सल्लेखनादि चौथे अधिकार में कषायों को आत्मभावना द्वारा कम करना कषाय या अभ्यन्तर सल्लेखना है और शरीर को अनशनादि द्वारा कृश करना काय या बाह्य सल्लेखना कहा है। क्षमण नामक अधिकार में वैयावृत्य को इतना महत्त्वपूर्ण बताया है कि जिसने वैयावृत्य किया उसने विशुद्ध चित्त से सभी तीर्थंकर, सभी सिद्ध एवं साधु परमेष्ठी की अर्चना की, ऐसा समझना चाहिए। पाँच प्रकार के पार्श्वस्थ मुनियों की संगति त्याज्य बताकर कहा है कि लाखों पार्श्वस्थ मुनियों की अपेक्षा एक ही संयमी मुनि श्रेष्ठ है। सुस्थितादि पाँचवें अधिकार में आचार्य के ४ गुणों का वर्णन है। शास्त्र के गूढ़ सिद्धान्त का जो निर्यापक मर्मज्ञ नहीं है वह क्षपक की लोकपूजित चार आराधनाओं को नष्ट कर देता है। निर्यापक क्षपक को प्रतिसमय श्रुतरूपी पान और हितकारी शिक्षा देते हैं। पैर से ताड़ित करके भी क्षपक के दोषों को निकलवाते हैं। आलोचना अधिकार में निर्यापक क्षपक को संबोधित करते हैं कि हे साधो! राग-द्वेष, कषाय, मोह, इन्द्रियविषय, संज्ञा से रहित होकर, ऋद्धि-रस-सात गारव को छोड़कर एवं द्रव्य-भाव शल्य रहित होकर जो अपने दोषों की आलोचना करते हैं वे ही परम सुख को प्राप्त होते हैं। अनुशिष्टि नामक सातवें महाधिकार में निर्यापक सर्वप्रथम क्षपक को मिथ्यात्व का वमन कराके सम्यक्त्व में दृढ़ करते हैं। पाँच महाव्रत, पाँच समिति और तीन गुप्ति इन तेरह प्रकार के चारित्र का Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .१८. अखंडरीत्या पालन करने वाले मुनि के चारित्र आराधना होती है। एक-एक व्रत की पाँच-पाँच भावना रूप २५ भावनाओं को भाने वाला मुनि सुप्त अवस्था में भी व्रतों का घात नहीं करता है, जाग्रत अवस्था में तो कैसे कर सकता है ? परंतु कषायों और इन्द्रियों के वश में रहने वाला मुनि सब के द्वारा दूषित होता हआ हँसी का पात्र होता है और उसका सारा ज्ञान नष्ट होता है। सारणादि अधिकार में हित, मित एवं प्रिय वचन बोलनेवाले निर्यापक बिना विश्राम के क्षपक को शिक्षा देते हैं, जिससे यथोक्त तप करता हुआ क्षपक कर्मों की बड़ी भारी निर्जरा करता है। आचार्य क्षपक को बार-बार धर्मस्नेह से सावधान करते हैं और व्रतादि का स्मरण दिलाते हैं। चारों गतियों के दुःखों का वर्णन सुना कर वर्तमान में थोड़े से कष्ट सहने के लिए धैर्य दिलाते हैं। "आपने चारों गतियों में परवशता से महावेदना सहन की, अब धर्मबुद्धि से अपनी स्वाधीनता पूर्वक अल्प दु:ख को समता भाव से सहन करना है।" यहाँ विशेष बात कही है कि संयमी साधु का मरण हो जाना श्रेष्ठ है परंतु वेदना को शांत करने के लिए अप्रासुक औषधि का सेवन कदापि योग्य नहीं है। ध्यानादि अधिकार में नेत्रों को परवस्तु से हटाकर नासाग्र दृष्टि से मन को एकाग्र करके अपनी आत्मा में विचार लगाकर के मुक्ति-प्राप्ति का विचार करने की शिक्षा दी है। बारह भावनाओं के वर्णन के अन्तर्गत अन्यत्व भावना में कहा है कि संसारी मोही प्राणी एक दूसरे को दुःख से आकुलित देखकर दुःखित होता है, शोक करता है। स्वयं का आत्मा जन्म-मत्यु के दुःख से युक्त होता है, नरकादि में दुःख पा रहा है उसका शोक क्यों नहीं करता है ? ध्यान को महत्त्व बताया है कि करोड़ों वर्षों में होने वाली कर्मनिर्जरा ध्यानस्थ साधु के अन्तर्मुहूर्त में होती है। अंत में, जो भव्य जीव सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र और सम्यक् तप रूप चार आराधनाओं का उत्कृष्ट रूप से सेवन करते हैं वे उसी भव से मुक्त होते हैं। जो मध्यम रूप से सेवन करते हैं वे तृतीय भव में तथा जघन्य रूप से आराधनाओं का सेवन करने वाले सातवें भव में मुक्त होते हैं। इस प्रकार आराधना का माहात्म्य बताकर उसका अंतिम फल बताया है। चारित्तं खलु धम्मो' कुन्दकुन्दाचार्य के इस सूत्र को जीवन में चरितार्थ करने की उत्कृष्ट भावना के फलस्वरूप ३५ वर्ष की अल्पवय में स्त्री पर्यायोचित उत्कृष्ट आर्यिका व्रत, ग्रहण करके पूज्य आर्यिका विशुद्धमती माताजी ने सर्वप्रथम साधु-आचार संबंधी मूलाराधना ग्रंथ का चिंतन-मननपूर्वक अध्ययन किया। प्रारम्भ से ही अपनी चर्या को आगमानुसार एवं गुरु-आज्ञानुसार बनाने का प्रयास किया। पूज्य माताजी हमेशा यही कहते थे कि अंतरंग परिणामों को तो आत-रौद्र आदि अशुभ ध्यानों से बचाना ही है परंतु हमारी बहिरंग क्रिया भी आगम के विपरीत न हो जिससे धर्म और धर्ममार्ग के प्रति अश्रद्धा के भाव पैदा न हों। पूज्य माताजी की अपने अन्तरंग परिणामों की ओर पैनी दृष्टि रहती थी एवं उनकी बहिरंग क्रिया इतनी अनुशासित थी, जो हम जैसे अज्ञानियों के लिए अनुकरणीय थी। पूज्य माताजी की चलने, बैठने, सोने, बोलने आदि की सभी क्रियाएँ गम्भीरता की सूचक थीं। संयमी जीवन के अंत तक पूज्य माताजी ने अपनी संपूर्ण क्रियाओं का दृढ़ता से पालन कर अपनी गुरुपरम्परा के गौरव को वृद्धिंगत किया। Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - ... उदयपुर में सीढ़ियों से गिर जाने से दोनों पैरों में फ्रेक्चर हुआ। किसी प्रकार का पक्का पट्टा या प्लास्टर नहीं बंधवाया। पैर ठीक नहीं हुए, प्रारम्भ में तो बिलकुल चलना नहीं हुआ। उस समय लगातार ३ वर्ष तक उदयपुर में रहकर 'तिलोयपण्णत्तो' जैसे महान ग्रंथ की टीका की। बाद में २-२, ३-३ कि.मी. चलकर विहार शुरू किया। चलने से पैरों में बहुत पीड़ा होती थी परंतु विहार के लिए अन्य किसी साधन को उपयोग में नहीं लिया। अंत तक थोड़ा-थोड़ा पैदल विहार करके ही अपनी साधना को समाप्त किया। अपने संकल्प पर दृढ़ रहे। __ शरीर की कमजोरी के कारण ज्यादा उपवास आदि नहीं कर पाते थे, इससे हमेशा यही कहते थे कि १२ वर्ष की उत्कृष्ट सल्लेखना तो मैं कभी नहीं लूंगी पर ६० वर्ष की अल्पवय में भीतर से आत्मा की ऐसी आवाज आई कि उसी समय पू. माताजी ने प. पू. आचार्य अजित्तसागर जी महाराजश्री के पास १२ वर्ष की सल्लेखमा को ग्रहण किया। पूज्य माताजी ने पूरे संयमी जीवन में अपने व्रतों में लगे हुए संपूर्ण दोषों की आलोचना अत्यन्त सरलता से बिना कुछ छिपाये यथावत् पूज्य आचार्य अजितसागर जी महाराजश्री के सामने की। प. पू. आचार्यश्री को इतनी विस्तृत आलोचना सुनकर प्रसन्नता हुई। सल्लेखना ग्रहण करते ही लक्ष्य बदल जाने से दृष्टि बदल गई। त्याग-तप वृद्धि में क्षमता बढ़ गई। उत्कृष्ट सल्लेखना के काल में निर्यापकाचार्य निकट नहीं होते हुए भी पूज्य माताजी अपनी साधना के प्रति सजग रहते थे। कभी कोई छोटी सी गलती हो जाती या मन में कोई ऐसे परिणाम बन जाते तो पूज्य माताजी मुझे तुरन्त कह देते थे। मैं कहती कि माताजी मैं तो बहुत छोटी हूँ, आप मुझे क्यों कहते हो? वे कहते थे कि छोटे हो या बड़े, दूसरों को कह देने से मन का भार हल्का हो जाता है। सल्लेखना के अंतर्गत आत्म-संस्कार काल के अंतिम वर्ष में त्याग और तप की अभिवृद्धि के कारण शरीर अत्यन्त कमजोर हो गया था। इस समय उपयोग की एकाग्रता के लिए पू. माताजी ने योगसार प्राभृत जैसे क्लिष्ट ग्रंथ की प्रश्नोत्तर रूप में टीका की। इसके पश्चात् मरणकण्डिका ग्रंथ का स्वाध्याय किया, उस समय आपको ऐसा लगा कि इस ग्रंथ को प्रश्नोत्तरी टीका के रूप में लिखने से प्रतिसमय परिणामों को सँभालने का अवसर मिलेगा। ग्रंथ में प्रतिपाद्य विषय को वर्तमान में जीवन में उतारने का समय है। संयमरूपी मंदिर के शिखर पर समाधिमरण रूपी कलश चढ़ाते समय कहीं फिसल न जाए | इस भावना को लेकर पज्य माताजी ने ६-७माह पर्व इस ग्रन्थ को 'भगवती आराधना'की विजयोदया टीका के विषय को साथ में रखकर प्रश्नोत्तर टीका के रूप में अपने परिणामों में अत्यन्त जागरूकता बनाये रखने के लिए लिखना प्रारम्भ किया। लिखते समय पूज्य माताजी को अत्यन्त आह्लाद का अनुभव होता था। मैं तो प्रत्यक्षदर्शी थी। उनको ऐसा अनुभव आता था कि निर्यापकाचार्य ही मेरे प्रत्यक्ष बैठकर प्रति समय मेरा मार्गदर्शन कर रहे हैं, संबोधन दे रहे हैं। महापुरुषों की कथाओं के माध्यम से अपना साहस और धैर्य बढ़ाया, बारह तपों में सबसे महान् ध्यान तप को बढ़ाने का अभ्यास किया। दिन में लेखन और रात्रि में अत्यन्त शांत एवं एकांत वातावरण में पिंडस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत ध्यान के माध्यम से अपनी आत्मा के निकट पहुँचने का पुरुषार्थ किया। णमो मणबलीणं, णमो वयबलीणं, णमो कायबलीणं आदि Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +२०+ ऋद्धिमंत्रों के माध्यम से उन उन ऋद्धिधारी मुनिराजों का स्मरण करके अपनी आत्मिक शक्ति को वृद्धिंगत किया। इस प्रकार समाधि के लगभग ५ माह पूर्व इस महान् ग्रंथ की प्रश्नोत्तरी टीका पूर्ण हुई। श्रुताराधना रूप लेखनी अभी भी चलती रही। प्रतिदिन के अपने अनुभव - चिन्तन को अपने प्रति ही संबोधन के रूप में लिखते रहे। इस समय पू. माताजी का भीतर से इतना उत्साह और आह्लाद दिखाई देता था कि उस आनंद में उन्होंने अपने ही मृत्यु महोत्सव के उपलक्ष्य में कई भजन बनाये। बेला-बेला, तेला-तेला उपवास होने के कारण शारीरिक कमजोरी बढ़ गई। शय्या ग्रहण करने के पूर्व तक अर्थात् १ माह २२ दिन पूर्व तक अनवरत जिनवाणी की सेवा में तत्पर लेखनी चलती रही। संस्तरारोहण के समय पूज्य माताजी का मृत्यु के आह्वान का अदम्य साहस और उनके भीतर का अतीव हर्ष उल्लास अत्यन्त सराहनीय था । इस सल्लेखना के काल में मैं पूज्य माताजी से कई बार पूछती कि माताजी ! आपको कभी ऐसा विचार नहीं आता है कि अब मेरा बहुत कम समय शेष है। पूज्य माताजी यही कहते कि जन्म के बाद मरण होना जब अकाट्य सत्य है और जिस मृत्यु को १२ वर्ष पूर्व हमने आमंत्रित करके कषाय एवं काय की कृशतापूर्वक तैयारी कर ली है, अब उस मरण से भय होने का प्रश्न ही नहीं है। अब तो मेरी अंतिम यही भावना है। कि अंत तक मेरे श्वास श्वास में, मेरी रग-रग में जिनेन्द्र भगवान ही बसे रहें। मेरे नेत्रों से देव-शास्त्रगुरु के दर्शन करती रहूँ। मेरे कानों से उन जिनेन्द्र भगवान की दिव्य वाणी का श्रवण करती रहूँ। मैं वचनों से अंत तक जिनेन्द्र भगवान के पवित्र नाम का उच्चारण करता रहूं, अंत तक मेरा कंठ अकुंठित रहे। संयमी जीवन में ज्ञानभावना, तपोभावना आदि भावनाओं को निरन्तर भाने से जीवन के अंत तक आपकी स्मृति सही बनी रही । १६ जनवरी २००२ को अंतिम जलग्रहण करने के दिन आहार हेतु पैदल गये । अंतिम जलग्रहण करके अत्यन्त हर्षपूर्वक चारों प्रकार के आहार जल का त्याग कर दिया। उस दिन भी २०-२५ मिनट तक पूज्य माताजी ने संबोधित किया। अंतरंग हृदय से पुन: पुन: सबसे क्षमायाचना की । अंतिम पाँच दिनों में अनवरत पंच परमेष्ठी के गुणानुवाद रूप स्तोत्र स्तुति आदि बराबर सुनते रहे । २२ जनवरी सन् २००२ प्रातः काल ४.२९ की घड़ी ऐसी आई कि उस घड़ी को पूज्य माताजी ने ' णमोकार 'मंत्र', 'अरिहंत सिद्ध' और 'सिद्धाय नमः' मंत्रों का श्रवण करते हुए अपने जीवन की मंगलमय घड़ी बना दी। पर वह घड़ी हम सबके लिए बड़ी असहनीय थी। वह महान् आत्मा हम सबके बीच से स्वर्गारोहण कर गई । अंत में, स्व-पर- कल्याणरत, दृढ़ संकल्पी, अनुशासनप्रिय, अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगी, निर्भीक उपदेशक, आगम एवं गुरु परम्परा की रक्षा में प्राण-पण से तत्पर परम पूज्य महान् विदुषी आर्यिकारत्न विशुद्धमती माताजी को कोटि-कोटि वंदन, कोटि-कोटि नमन । १७ सितम्बर २००३ खूंता (श्रीनगर) तहसील - धरियावद आर्यिका प्रशान्तमती S Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ # विषयानुक्रमणिका ॥ विषय श्लोक संख्या पृष्ठ संख्या १-२७ १-१० ३ ------- - ११ १२ १४-११ * पीठिका * मंगलाचरण * रत्नत्रय की सिद्धि के हेतु एवं आराधना का लक्षण * पाँच हेतुों के लक्षण* आराधना के भेद - दर्शनाराधना के साथ ज्ञानाराधना की प्रतिपत्ति का क्रम * मिथ्यादृष्टि जीव ज्ञान का आराधक नहीं होता * चारित्राराधना के साथ तपाराधना की प्रतिपत्ति का क्रम . अव्रती का तप गुणकारी नहीं होता * संक्षेप से आराधना के अन्य प्रकार * चारित्राराधना में दर्शन एवं ज्ञान आराधना होने का कारण * चारित्राराधना में तपाराधना का अन्तर्भाव * आराधना के भेदों का उपसंहार एवं सार * आराधना के फल का अतिशय * मरण के पूर्व आराधनाओं का प्रयास क्यों? * शंका के अनुरूप समाधान १. बाल-मरणाधिकार * मरण के सत्तरह भेद । * संक्षेप में मरण के पाँच भेद * पण्डितमरण के भेद * सम्यक्त्वाराधना २. बाल-बाल मरणाधिकार . सम्यक्त्व बिना मात्र बाह्य चारित्र से आराधक नहीं मिथ्यात्व का लक्षण, भेद और प्रभाव ३. भक्तप्रत्याख्यान मरण 'अर्ह' आदि अधिकार * भक्तप्रत्याख्यान मरण 'अर्ह' आदि अधिकार . भक्तप्रत्याख्यानमरण के भेद और स्वामी २० २२-२७ २८-५७ १२-२६ २८ २९-३१ ३२-३३ ३४-५७ ५८-६८ २६-२८ . ५९-६८ ६९-२१० ६९ २९-८४ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +२२+ विषय श्लोक संख्या पृष्ठ संख्या ७३-७८ ७९-१९ १००-११२ 3a 500 ur ur VM ८४-१४६ • भक्तप्रत्याख्यानमरण के चालीस सूत्र १. अर्ह अधिकार २. लिंग अधिकार ३. शिक्षा अधिकार ४. विनय अधिकार ५. समाधि अधिकार ६. अनियत विहार अधिकार ७. परिणाम अधिकार ८. उपधित्याग अधिकार ९. श्रिति अधिकार १०. भावना अधिकार ४. सल्लेखनादि अधिकार . ११, सल्लेखना अधिकार १२. दिशा अधिकार १३. क्षमण अधिकार १४. अनुशिष्टि अधिकार १५. परगणचर्या अधिकार १६. मार्गणा अधिकार ५. सुस्थितादि अधिकार १७. सुस्थित अधिकार १८. उत्सर्पण अधिकार १९. परीक्षा अधिकार २०. निरूपण अधिकार २१. पृच्छा अधिकार २२. एकसंग्रह अधिकार २३. आलोचना अधिकार २४. गुण-दोष अधिकार २५, शय्या अधिकार २६. संस्तर अधिकार १३९-१५० १५१-१६१ १६२-१६९ १७०-१७८ १७९- १८५ १८६-२१० २११-४३३ २११-२७८ २७९-२८३ २८४-२८६ २८७-३९९ ४००-४१६ ४१७-४३३ ४३४-६७६ ४३४-५३० ५३१-५३७ ५३८-५३९ १०५ १०६ १०७ १४२ १४६ १७९ १८० ५८१ ५४२-५४५ ५४६-५९० १८२ १८२ १८४ १९५ २१२ ६६०-६६८ ६६९-६७६ २१४ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय श्लोक संख्या पृष्ठ संख्या २१६-२३३ ६७७-७५० ६७७-७११ ७२०-७२६ ७२७-७३० २२६ २२८ ७३१-७४० ७४१-७४४ २२९ २३२ २३२ २३४-४३२ ४३२-४८५ ४३२ ६. निर्यापकादि अधिकार २७. निर्यापक अधिकार २८. प्रकाशनादि अधिकार २९. हानि अधिकार ३०. प्रत्याख्यान अधिकार ३१, क्षामण अधिकार ३२. क्षपण अधिकार ७. अनुशिष्टि महाधिकार ३३. ८. सारणादि अधिकार ३४. सारणा अधिकार ३५. कवच अधिकार ३६. समता अधिकार ९. ध्यानादि अधिकार ३७. ध्यान अधिकार ३८. लेश्या अधिकार ३९. आराधना फल अधिकार ४०, आराधक त्याग अधिकार १०. अवीचार भक्तत्याग, इंगिनी एवं प्रायोपगमन अधिकार ११. बालपण्डित मरणाधिकार १२. पण्डितपण्डित मरणाधिकार * आराधना स्तवन * नक्षत्र वर्णन * प्रशस्ति * श्लोकानुक्रम ७४५-७५० ७५१-१५६८ १५६९-१७८४ १५६९-१५८८ १५८२-१७६८ १७६९-१७८४ १७८५-२०८४ १७८५-१९८७ १९८८-२००५ २००६-२०४४ २०४५-२०८४ २०८५-२१५० २१५१-२१६० २१६१-२२४० १-३२ १-२७ १-८ ४८६-५७१ ४८६ ५४७ ५६१ ५७१-५८७ ५८७-५८९ ५९०-६०८ ६०९-६१६ ६१६-६१९ ६१९-६२० ६२१-६६० Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्रीवीतरागाय नमः || ॐ शास्त्रस्वाध्याय का प्रारम्भिक मंगलाचरण ॐ नमः सिद्धेभ्यः ! ॐ नमः सिद्धेभ्यः ! ॐ नमः सिद्धेभ्यः ! ओंकारं बिन्दुसंयुक्तं नित्यं ध्यायन्ति योगिनः । कामदं मोक्षदं चैव, ॐ काराय नमोनमः || अविरलशब्दघनौघ- प्रक्षालितसकल-भूतलकलङ्का । मुनिभिरुपासिततीर्था, सरस्वती हरतु नो दुरितम् ।। अज्ञानतिमिरान्धानां, ज्ञानाञ्जनशलाकया । चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ।। श्रीपरमगुरवे नमः, परम्पराचार्यगुरुभ्यो नमः । सकलकलुषविध्वंसकं, श्रेयसां परिवर्धक, धर्मसम्बन्धकं भव्यजीवमन: प्रतिबोधकारकं, पुण्यप्रकाशकं पापप्रणाशकमिदं शास्त्र 'मरणकण्डिका' नामधेयं अस्य मूलग्रन्थकर्तारः श्रीसर्वज्ञदेवास्तदुत्तरग्रन्थकर्तारः श्रीगणधरदेवाः प्रतिगणधरदेवास्तेषां वचोऽनुसारतामासाद्य पूज्य आचार्य श्रीअमितगति विरचितं इदं शास्त्रं । श्रोतार: सावधानतया शृण्वन्तु । मङ्गलं भगवान् वीरो, मङ्गलं गौतमो गणी । मत्रलं कुन्दकुन्दाद्यो, जैनधर्मोऽस्तु मङ्गलम् ॥ सर्वमबलमाङ्गल्यं, सर्वकल्याणकारणम् । प्रधानं सर्वधर्माणां जैनं जयति शासनम् ॥ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमदाचार्यामितगतिप्रणीता मराकण्डिका (आराधना विधि) (पीठिका-प्रारम्भ) इस शास्त्र में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र और सम्यक् तप, इन चार आराधनाओं के स्वरूप, भेद, उपाय, साधक, सहायक एवं फल का कथन किया जाएगा, अत: अपने द्वारा और श्रोताओं के द्वारा प्रारम्भ किये हुए कार्य में आगत विघ्नों को दूर करने के लिए मंगलाचरण करते हैं - मङ्गलाचरण सिद्धान् नत्वाईदादींश्च, चतुर्धाराधना-फलम् । क्रमेणाऽहं ध्रुवं वक्ष्ये, स्व-स्वरूपोपलब्धये ॥१॥ अर्थ - सिद्ध परमेष्ठी, अर्हन्त परमेष्ठी तथा आदि शब्द से आचार्य, उपाध्याय एवं साधु परमेष्ठियों को नमस्कार करके मैं (ग्रन्थकार) क्रमश: चार आराधनाओं और उनका फल अपने स्वरूप अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति के लिए निश्चय से कहता हूँ ||१|| प्रश्न - ग्रन्थ की आदि में मंगलाचरण क्यों किया जाता है? ___ उत्तर - ग्रन्थ की निर्विघ्न समामि, नास्तिकता का परिहार और शिष्टाचार प्रतिपालन हेतु मंगलाचरण किया जाता है। रत्नत्रय की सिद्धि के हेतु एवं आराधना का लक्षण द्योतनं मिश्रणं सिद्धिं, व्यूढिं निढिमञ्जसा। दर्शन-ज्ञान-चारित्र-सिद्धिहेतुं समाहिते ॥२॥ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका -२ अर्थ - सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की सिद्धि के पाँच हेतु हैं। यथा-द्योतन, मिश्रण, सिद्धि, व्यूढ़ि एवं निर्वृद्धि । इन पाँचों हेतुओं से रत्नत्रय की निरतिचार परिणति होना आराधना है ॥२॥ प्रश्न - इन द्योतन आदि के दूसरे नाम क्या हैं तथा इनके सामान्य लक्षण क्या हैं? उत्तर - द्योतन, मिश्रण, सिद्धि, न्यूढ़ि और निषूदि के दूसरे नाम क्रमश: उद्योतन, उद्यवन, निर्वहन, साधन एवं निस्तरण हैं। इनके लक्षण इस प्रकार हैं १. द्योतन अथवा उद्योतन - अतिचार दूर करने को द्योतन कहते हैं। २. मिश्रण या उद्यवन-आत्मा का बार-बार अपने विशिष्ट गुणरूप परिणत होना मिश्रण या उद्यवन है। ३. सिद्धि या निर्वहन-उपसर्ग या वेदना आदि आ जाने पर भी निराकुलता पूर्वक वहन करना सिद्धि है। ४. व्यूढ़ि या साधन - अन्य कार्यों में उपयोग संलग्न हो जाने पर पुन:पुन: उपयोग को उन्हीं गुणों में लवलीन करना व्यूदि या साधन है। ५. नियूँदि या निस्तरण - ग्राह्य गुणों को आगामी भव पर्यन्त या मरण पर्यन्त धारण किये रहना निद्रूढ़ि या निस्तरण है। प्रश्न - ये द्योतन आदि पाँचों हेतु किनके हैं ? उत्तर - ये द्योतन आदि पाँच हेतु सम्यक्त्व, ज्ञान, चारित्र एवं तप इनमें से प्रत्येक के होते हैं। अर्थात् सम्यग्दर्शन की सिद्धि के ये पाँच हेतु हैं। सम्यग्ज्ञान की सिद्धि के भी यही पाँच हेतु हैं। इसी प्रकार चारित्र और तप के भी यही पाँच हेतु हैं।। तीन श्लोकों द्वारा पाँच हेतुओं के लक्षण द्योतनं दर्शनादीनामलं मल-विसारणम् ।। आत्मनो मिश्रणं साधं, तैरेकीकरणं मतम् ।।३॥ सम्पूर्णीकरणं सिद्धियूंढिर्वा मतिरिष्यते । लाभ-पूजा-यशोर्थित्वं, व्यतिरेकेण योगिनः ।।४॥ परीषहोपसर्गादि, विनिपाते निराकुलम्। पर्यन्ते प्रापणं तेषां, निर्वृदिर्महिता सताम् ।।५।। अर्थ - सम्यग्दर्शन-आदि के मल अर्थात् अतिचारों का निराकरण करना द्योतन है, तथा आत्मा के साथ उन सम्यग्दर्शनादि का एकीकरण करना मिश्रण है।।३।। सम्यग्दर्शन आदि को पूर्ण करना सिद्धि है, तथा योगियों की लाभ, पूजा एवं यश की वांछा के बिना उन्हें वहन करने की जो बुद्धि है वह न्यूढ़ि है।॥४॥ परीषह या उपसर्ग आदि आ जाने पर भी आयु के अवसान पर्यन्त उन्हें निराकुलता पूर्वक ले जाना, सज्जनों को मान्य ऐसी नियूँदि है॥५॥ प्रश्न - 'दर्शनादीनाम् पद से क्या-क्या ग्रहण किया है और उनके लक्षण क्या हैं ? Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका ३ उत्तर इस पद से सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक्तप ग्रहण किये गये हैं। इनके संक्षिप्त लक्षण इस प्रकार हैं तत्त्वार्थश्रद्धान को सम्यग्दर्शन, स्व एवं पर के निर्णयात्मक ज्ञान को सम्यग्ज्ञान, पापबन्ध कराने वाली क्रियाओं का त्याग सम्यक्चारित्र तथा इन्द्रिय और मन के नियमन को सम्यक्तप कहते हैं। प्रश्न- सम्यग्दर्शन आदि और सम्यक्त्वाराधना / दर्शनाराधना आदि में क्या अन्तर है ? उत्तर - सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप के लक्षण ऊपर कहे गये हैं, ये प्रत्येक जब द्योतन से निर्व्यूढ़ अथवा उद्योतन से निस्तरण पर्यन्त का मार्ग निर्दोषतया प्राप्त करने योग्य विशुद्धि को प्राप्त कर लेते हैं तब दर्शनाराधना, ज्ञानाराधना, चारित्राराधना और तप आराधना नाम प्राप्त कर लेते हैं। सम्यग्दर्शन आदि चारों के द्योतन आदि क्या हैं? प्रश्न उत्तर - (१) शंका, कांक्षा आदि दोष दूर करना सम्यक्त्व का द्योतन है । संशय, विपर्यय एवं अनध्यवसाय आदि दोषों को दूर करना सम्यग्ज्ञान का द्योतन है। पाँच महाव्रतों की स्थिरता के लिए पच्चीस भावनाएँ कही गई हैं, इनके प्रति होने वाले उपेक्षादि रूप दोषों को दूर करना चारित्र का द्योतन है और असंयमजन्य परिणाम तप के दोष हैं, इन्हें दूर करना तप का द्योतन है । (२) सम्यक्त्वगुण का आत्मा के साथ बार-बार परिणत होना अथवा सम्यक्त्व गुण के साथ आत्मा की ऐक्य परिणति होना सम्यग्दर्शन का मिश्रण या उद्यवन है। इसी प्रकार ज्ञान आदि गुणों के साथ आत्मा की ऐक्य परिणति सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र और सम्यक् तप का मिश्रण या उद्यवन है । ܀ (३) सम्यक्त्व आदि चारों गुणों की पूर्णता सम्यग्दर्शन आदि चारों की सिद्धि है। अथवा निराकुलता पूर्वक इन चारों गुणों का वहन अर्थात् धारण करना इन सम्यक्त्व आदि चारों का निर्वहण है। (४) ख्याति या पूजा या अन्य किसी लौकिक इच्छा के बिना सम्यक्त्व आदि चारों गुणों को धारण करना क्रमशः सम्यक्त्व, ज्ञान, चारित्र एवं तप की व्यूढ़ि है । अथवा नित्य नैमित्तिक कार्यों की अधिकता के कारण सम्यक्त्व, ज्ञान, चारित्र या तप गुण से हट कर उपयोग किसी अन्य कार्य में लग जाए तो उसे पुनः उसी में संलग्न करना प्रत्येक का साधन है। (५) क्षुधा तृषादिजन्य वेदना, परीषह या उपसर्ग आदि उपस्थित हो जाने पर भी श्रद्धा, ज्ञान, चारित्र एवं तप से विचलित न होकर सम्यग्दर्शन एवं सम्यग्ज्ञान को आगामी भव पर्यन्त ले जाना। अथवा सम्यक्त्व आदि चारों को उसी भव में मरणपर्यन्त धारण किये रहना या मरण पर्यन्त ले जाना प्रत्येक की निर्व्यूढ़ या निस्तरण है। आराधना के भेद आराधना द्विधा प्रोक्ता, संक्षेपेण जिनागमे । दर्शनस्यादिमा तत्र, चारित्रस्यापरा पुनः ॥६॥ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका अर्थ - जिनागम में संक्षेप से आराधना दो प्रकार की कही गई है। प्रथम दर्शन आराधना और द्वितीय चारित्र आराधना ॥ ६ ॥ - ४ दर्शनाराधना के साथ ज्ञानाराधना की प्रतिपत्ति का क्रम सम्यक्त्वाराधने साधोः, ज्ञानस्याराधना मता । ज्ञानस्याराधने भाज्या, सम्यक्त्वाराधना पुरा ।। ७ ।। अर्थ - सम्यक्त्व की आराधना हो जाने पर ज्ञानाराधना नियमतः होती है किन्तु ज्ञान की आराधना होने पर सम्यक्त्व की आराधना भजनीय है अर्थात् होती भी है और नहीं भी होती। अतः सर्व प्रथम सम्यक्त्वाराधना कही गई है ॥ ७ ॥ प्रश्न- सम्यक्त्व आराधना के साथ ज्ञानाराधना का अविनाभाव और ज्ञानाराधना के साथ सम्यक्त्वाराधना का भजनीयपना क्यों कहा है, यहाँ अविनाभाव क्यों नहीं कहा गया ? उत्तर - समीचीन श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहते हैं। ऐसा श्रद्धान अज्ञात वस्तु में हो नहीं सकता अतः श्रद्धा का ज्ञान के साथ अविनाभाव है इसलिए तत्त्वश्रद्धान की आराधना करने पर सम्यग्ज्ञान की आराधना अवश्य होती है। इसी कारण इन दोनों का अविनाभाव कहा गया है। ज्ञान और दर्शन में अविनाभाव नहीं है। कारण कि मिथ्याज्ञान की आराधना करने पर सम्यग्दर्शन की आराधना कदापि नहीं होती किन्तु सम्यग्ज्ञान के साथ सम्यक्त्व की आराधना होती है अतः उसे भजनीय कहा गया है । 'सम्यग्ज्ञान' पद में सम्यग् विशेषण सम्यक्त्व का ही बोध कराता है अतः इन दोनों का अविनाभाव सम्बन्ध स्वभावतः सिद्ध है। मिथ्यादृष्टि जीव ज्ञान का आराधक नहीं होता ज्ञानं मिथ्यादृशोऽज्ञानमुक्तं शुद्धनयैर्यतः । विपरीतं ततस्तस्य, ज्ञानस्याराधना कुतः ॥ ८ ॥ अर्थ - जिस कारण से मिध्यादृष्टि जीव का ज्ञान शुद्धनय की दृष्टि से अज्ञान कहा गया है, तब विपरीत अर्थात् मिथ्याज्ञान वाले उस जीव के ज्ञान की आराधना कहाँ से होगी? अर्थात् नहीं होगी ॥८ ॥ प्रश्न- यहाँ 'शुद्ध नय' पद का क्या अभिप्राय है? उत्तर - अनन्त धर्मात्मक वस्तु के अनन्त धर्मों का निषेध न करके अपितु उन्हें गौण करके किसी एक धर्म को कहना नय है। 'जो जिस रूप नहीं है उसे उस रूप दिखाना' यह भ्रान्त ज्ञान का कार्य है। वस्तु का स्वरूप सापेक्ष है । उसे निरपेक्ष प्रदर्शित करने वाला ज्ञान भ्रान्त या मिथ्याज्ञान है। जो 'भ्रान्त' या 'मिथ्या' दोष से रहित है वह शुद्ध है। इससे यह सिद्ध होता है कि यहाँ निरपेक्ष अर्थात् मिथ्यानय या नयाभास का निराकरण करने के लिए नय में 'शुद्ध' विशेषण लगाया गया है। Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परणकण्डिका - ५ चारित्र आराधना के साथ तप आराधना की प्रतिपत्ति का क्रम चारित्राराधने व्यक्त, भवत्याराधनं तपः। तपस्याराधने भाज्या, चारित्राराधना पुन: ।।९।। अर्थ - चारित्र की आराधना हो जाने पर तप की आराधना नियमत: होती है, किन्तु तप की आराधना होने पर चारित्र की आराधना भजनीय है अर्थात् होतो भी है और नहीं भी होती॥९॥ प्रश्न - यहाँ चारित्राराधना के साथ तप आराधना का अविनाभाव और तप आराधना के साथ चारित्र आराधना को भजनीय क्यों कहा गया है? उत्तर - कर्मग्रहण में कारणभूत अशुभ क्रियाओं के त्याग को चारित्र कहते हैं। छह प्रकार के बाह्य और छह प्रकार के अन्तरंग, बारह प्रकार के ये सम्यक् तप अशुभ क्रियाओं के निरोधक हैं क्योंकि ये सब अविरति, प्रमाद और कषाय के त्याग रूप हैं, अत: जहाँ चारित्र की आराधना है वहाँ तप आराधना अवश्य है, मात्र अनशन आदि तप अर्थात् उपवास आदि करने वालों के अशुभ क्रियाओं का निरोध होता भी है और नहीं भी होता, अतः इसे भजनीय कहा है। अव्रती का तप गुणकारी नहीं होता महागुणमवृत्तस्य, सद्वृष्टेरपि नो तपः । गज-स्नानमिवास्येदं, मन्थरज्जुरिवाथवा ॥१० ।। अर्थ - अविरत सम्यग्दृष्टि का तप भी महा-उपकारी नहीं होता। उसका वह तप हाथी के स्नान सदृश या मथानी की रस्सी के सदृश होता है।१०।। प्रश्न - यहाँ दो दृष्टान्तों द्वारा क्या समझाया जा रहा है? उत्तर - यहाँ यह कहा जा रहा है कि - मिथ्यादृष्टि के तप की बात तो दूर, तत्त्वों की समीचीन श्रद्धा करने वाला भी यदि असंयमी है अर्थात् विषयभोगों में प्रवृत्त रहता है तो उसका तप भी मुक्ति के लिए अधिक उपकारी नहीं है। जैसे हाथी स्नान करके अपने गीले शरीर पर अपनी ही सूंड द्वारा धूल डाल कर बहुत अधिक नवीन मल का संचय कर लेता है, उसी प्रकार वह तप द्वारा जितनी निर्जरा करता है, असंयम द्वारा उससे अधिक कर्मबन्ध करता रहता है। दूसरे दृष्टान्त द्वारा यह दर्शाया गया है कि बन्ध सहित निर्जरा मोक्ष के लिए कार्यकारी नहीं है। छाछ बिलोते समय अर्थात् मथानी घुमाते समय जैसे एक ओर से रस्सी छूटती जाती है किन्तु साथ ही दूसरी ओर से उसी मथानी में लिपटतो भी जाती है, वैसे ही अविरत सम्यग्दृष्टि के तप द्वारा पुराने कर्म निजीर्ण होते जाते हैं और असंयम द्वारा नवीन कर्म बँधते जाते हैं। संक्षेप से आराधना के अन्य प्रकार आराधने चरित्रस्य, सर्वस्याराधनाऽथवा । शेषस्याराधना भाज्या, चारित्राराधना पुनः ॥११॥ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका -६ अर्थ - अथवा चारित्र की आराधना होने पर सर्व आराधनाएँ सम्पन्न हो जाती हैं किन्तु सम्यक्त्व एवं ज्ञान तथा तप की आराधना होने पर चारित्र आराधना भजनीय है अर्थात् वह होती भी है और नहीं भी होती।।११।। चारित्र आराधना में दर्शन एवं ज्ञान आराधना होने का कारण कृत्याकृत्ये यतो ज्ञात्वा, करोत्यादान-मोक्षणे । अन्तर्भाव: चरित्रस्य, ज्ञान-दर्शनयोस्ततः॥१२॥ अर्थ - यह करने योग्य है, यह करने योग्य नहीं है, इस प्रकार जान कर ही यह जीव ग्रहण और त्याग करता है, इसलिए चारित्र की आराधना में ज्ञान एवं दर्शन की आराधना का अन्तर्भाव हो जाता है।॥१२॥ प्रश्न - जहाँ चारित्र है वहाँ ज्ञान-दर्शन हैं ही, ऐसा क्यों कहा गया है? उत्तर - असुहादो विणिवित्ति, सुहे पवित्ती य जाण चारित्तं - अर्थात् संसार के कारणभूत, आस्रव तथा बन्ध के हेतु रूप अशुभ परिणामों का त्याग और मन, वचन, काय से संवर-निर्जरा के हेतु रूप व्रत, समिति, गुप्ति, धर्म, अनुप्रेक्षा तथा परीषहजय और तप को अंगीकार करने का नाम चारित्र है। इस प्रकार के हेय एवं उपादेय रूप पदार्थों का त्याग तथा ग्रहण समीचीन श्रद्धा और ज्ञान के बिना नहीं होता, इसलिए कहा गया है कि जहाँ चारित्र है वहाँ ज्ञान तथा दर्शन होते ही हैं। चारित्र आराधना में तप आराधना का अन्तर्भाव व्यापारस्तत्र चारित्रे, मनोवाक्कायगोचरः । यो दूरीकृत-साध्यस्य, तत्तपो गदितं जिनैः ॥१३॥ अर्थ - माया, छल आदि को दूर कर चारित्र में मन, वचन और काय सम्बन्धी जो प्रयत्न साध्य का होता है वही तप है, ऐसा जिनेन्द्र द्वारा कहा गया है। अर्थात् जो छल, कपट एवं माया को छोड़कर चारित्र में प्रयत्नशील होता है, मुखिया स्वभाव छोड़कर उपयोगपूर्वक चारित्र में उद्यमशील है वही उसका तप है। इसीलिए चारित्र की आराधना में तप का अन्तर्भाव किया गया है ।।१३ ।। आराधना के भेदों का उपसंहार एवं सर्वोत्कृष्ट सार चारित्रं पञ्चमं सारो, ज्ञान-दर्शनयोः परः । सारस्तस्यापि निर्वाणमनुत्तरमनश्वरम् ।।१४।। अर्थ - पाँच प्रकार के चारित्रों में पाँचवाँ यथाख्यात चारित्र है अत: कहा गया है कि ज्ञान और दर्शन का सार पाँचवाँ यधाख्यात चारित्र है और यथाख्यात-चारित्र का सार सर्वोत्कृष्ट एवं अविनश्वर निर्वाण प्राप्त होना है।॥१४॥ प्रश्न - चारित्र का सार निर्वाण है, ऐसा क्यों कहा गया है? उत्तर - केवलज्ञान और केवलदर्शन तेरहवें गुणस्थान में और सर्वोत्कृष्ट यथाख्यात चारित्र चौदहवें गुणस्थान के अन्त में होता है, उसके होते ही निर्वाण हो जाता है। इसलिए ज्ञान और दर्शन का सार यथाख्यात चारित्र है तथा उस साररूप चारित्र का भी सार निर्वाण कहा गया है। Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका -७ दुख के कारणों को दूर करना जान का फल है चक्षुद्दष्टेर्मत: सारः, सादीनां विवर्जनम् । व्यर्थी भवति सा दृष्ट्वा, विवरे पतत: सतः ॥१५॥ अर्थ - चक्षु से देखने का सार सर्प आदि से दूर रहना है। देखकर भी आगे विद्यमान सर्प आदि के बिल में गिरने वाले मनुष्य की आँख्न व्यर्थ है ।।१५ ।। प्रश्न - सम्यग्दृष्टि को चारित्र और तप की आराधना क्यों आवश्यक है? उत्तर - जैसे नेत्र से देखते हुए भी सावधानी रूप आचरण न हो तो वह व्यक्ति गर्त में गिर जाता है, वैसे ही श्रद्धा और ज्ञानरूप नेत्र होते हुए भी चारित्र रूप सावधानी न होने से जीव संसाररूप गर्त में गिर जाता से जलवे ज्ञान और प्रना भी चालो आते हैं, क्योंकि मात्र श्रद्धा तथा ज्ञान से मुक्ति नहीं होती। इससे यह सिद्ध होता है कि सम्यक्त्व तथा ज्ञान की आराधना के साथ चारित्र और तप भी अवश्य आराधनीय हैं ।। अव्याबाध सुख प्राप्त करने की प्रेरणा निर्वाणस्य सुखं सारो, निाबाधं यतोऽनघम् । चेष्टा कृत्या ततस्तस्याँ, तदर्थ स्वहितैषिणा ॥१६॥ अर्थ - निर्वाण का सार बाधारहित और निर्दोष सुख है, अतः आत्मा का हित चाहने वालों को उस अव्याबाध सुख की प्राप्ति के लिए चेष्टा अर्थात् पुरुषार्थ करना चाहिए ॥१६॥ आराधना ही सबका सार है रत्नत्रये यतो यत्नः, सा साध्याराधनागमे। आगमस्य तत: सारः, सर्वस्यैषा निरूपिता ।।१७॥ अर्थ - रत्नत्रय में प्रयत्नशील होना चारित्र है और आगम में चारित्र का सार आराधना कहा है, तथा सर्व आगमों का सार भी आराधना है। अर्थात् आगम का भी और चारित्र का भी सार मात्र एक आराधना है।।१७॥ मरणसमय भी आराधनाओं की विराधना अनन्त संसार का कारण है चतुरङ्ग प्रपाल्यापि, चिरकालमदूषणम् । विराध्य म्रियमाणानामनन्ताऽकथि संसृति: ।।१८।। अर्थ - चिर काल पर्यन्त सम्यक्त्व, ज्ञान, चारित्र और तप इन चारों - आराधनाओं का अतिचार रहित पालन करके भी यदि कोई मुनिराज मरणकाल में उन आराधनाओं की विराधना करके मरते हैं तो उनके अनन्तकाल पर्यन्त संसार-परिभ्रमण होता है, ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है।॥१८॥ निर्दोष और सदोष चारित्र-पालन में महान् अन्तर है समिति-गुप्ति-संज्ञान-दर्शनादि-त्रयेशिनाम् । प्रवर्तितापवादानां, जायते महदन्तरम् ।।१९।। Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका -८ अर्थ - सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और समिति गुप्ति आदि चारित्र रूप रत्नत्रय की निर्दोष प्रवृत्ति करने वाले एवं अपवाद रूप अर्थात् अतिचार युक्त प्रवृत्ति करने वाले साधुओं में महान् अन्तर है ।। १९ ।। प्रश्न उत्तर - समिति - गुप्ति रूप सम्यक् चारित्र, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यग्दर्शन अर्थात् रत्नत्रय की निर्दोष तथा सदोष प्रवृत्ति करने वाले साधुओं में जो नहार अन्तर कहा गया है उस महान् अन्तर' के दो अर्थ हो सकते हैं। यथा 1 इस 'महदन्तरं' अर्थात् महान् अन्तर के कितने अर्थ निकल सकते हैं? १. रत्नत्रय में निर्दोष प्रवृत्ति करने वाले साधु मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं। यहाँ तक कि उसी भव से भी मोक्ष जा सकते हैं किन्तु सदोष प्रवृत्ति करने वालों को मोक्ष की प्राप्ति कदापि नहीं हो सकती। दोनों में यह महान् अन्तर है 1 २. सल्लेखना ग्रहण कर मरण काल में जो साधु क्षुधा तृषादि परीषहों से घबरा कर या परीषह आदि के भय से रत्नत्रय में बार-बार दोष लगाते हुए संक्लेश परिणाम करते हैं उनका कुछ कम अर्धपुद्गल परावर्तन काल प्रमाण उत्कृष्ट अन्तर हो सकता है। अर्थात् मरते समय रत्नत्रय से च्युत होकर पुनः उतना काल व्यतीत होने के पश्चात् ही वे रत्नत्रय प्राप्त कर सकेंगे। आराधना के फल का अतिशय चारित्राराधने सिद्धाश्चिर - मिथ्यात्व - भाविताः । क्षणाद् दृष्टा यतः सूत्रे, चारित्राराधनाः ततः ॥ २० ॥ अर्थ - जो चिर अर्थात्, अनादिकाल से मिथ्यात्व से संयुक्त थे, वे भी अल्पकाल में सम्यग्दर्शन सहित चारित्र की आराधना के प्रभाव से सिद्ध-अवस्था को प्राप्त हुए हैं। इसी कारण आगम में चारित्र की आराधना को ( सारभूत ) कहा है ॥ २० ॥ प्रश्न - चारित्र की आराधना को सब आराधनाओं का सार क्यों कहा गया है? उत्तर - ." तस्मिन्नेव भवे असतामापन्नाः " भगवती आराधना गाथा १७ की टीका के इस अंश से सिद्ध होता है कि भरत चक्रवर्ती के भद्र-विवर्धन आदि ९२३ पुत्र अनादिकाल से नित्यनिगोद में मिथ्यात्व भाव से ग्रसित थे। भगवान ऋषभदेव के पादमूल में धर्म सुनकर बोध को प्राप्त हुए तथा चारित्र को धारण कर अल्पकाल में मोक्ष चले गये, इसी कारण आगम में चारित्र आराधना को सब आराधनाओं में सारभूत कहा है। ( शंका रूप गाथा) जब मरणकाल में ही आराधना का अतिशय प्राप्त हो जाता है। तब उसके पूर्व आराधनाओं का प्रयास क्यों ? मृतावाराधना-सारो, यदि प्रवचने मतः । किमिदानीं सदा यत्नश्चतुरङ्गे विधीयते ॥ २१ ॥ अर्थ- 'परणकाल में आराधना का सार प्राप्त होता है', यदि आगम में ऐसा कहा गया है तब फिर चारों प्रकार की आराधनाओं में सदा काल प्रयत्न करने की क्या आवश्यकता है? || २१ | Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परणकण्डिका - ९ (समाधान रूप गाथा) शंका के अनुरूप समाधान परिकर्म विधातव्यं, सर्वदाराधनार्थिना। सुसाध्याराधना तेन, भावितम्य प्रजायते ॥२२॥ अर्थ - आराधना सम्पन्न करने के इच्छुक मुनिजन को आराधना की सिद्धि के लिए आराधनाओं के सहायभूत परिकर्म अर्थात् परिकर में सर्वकाल प्रयत्नशील रहना चाहिए क्योंकि जिसने पूर्व में भली प्रकार आराधनाएँ भावित की हैं उसके मरणकाल में वे सहज सिद्ध हो जाती हैं ।।२२।। प्रश्न - परिकर्म किसे कहते हैं और यह क्यों करना चाहिए? उत्तर - सहायक सामग्री परिकर्म या परिकर है। कार्यसिद्धि के अनुकूल सहायक सामग्री जितनी अधिक शक्तिशाली होती है, कार्य उतनी ही सहजता से सम्पन्न हो जाता है अत: कार्य की सहज पूर्णता के इच्छुक जीवों को सहायभूत परिकर में सतत प्रयत्नशील रहना चाहिए। प्रश्न - यहाँ कौनसा कार्य सिद्ध करना है और उसके परिकर्म कौन-कौन से हैं? उत्तर - यहाँ समाधिमरण पूर्वक शरीर छोड़ने रूप कार्य सिद्ध करना है। इस कार्य की सिद्धि आराधनाओं से होती है अत: मुनिजन को समर्थ कारणस्वरूप सम्यक्त्व, ज्ञान, चारित्र और तप इन चार आराधनाओं में सतत उद्यमशील रहना चाहिए, जिससे मरणसमय वेदना अथवा क्षुधा-तृषादि परीषह अथवा उपसर्गादि उपस्थित हो जाने पर भी रत्नत्रय रूए धर्म अथवा गृहीत आराधनाओं से आत्मा च्युत शिथिल या विचलित न हो। प्रश्न - यहाँ 'सर्वदा' शब्द से कौनसा काल ग्रहण करना चाहिए ? उत्तर - आत्महितेच्छु भव्य जीव आराधना की सिद्धि अर्थात् समाधि-साधने हेतु ही दीक्षा ग्रहण करते हैं। अपने लक्ष्य की सिद्धि के लिए वे जीवनपर्यन्त प्रयत्नशील रहते हैं। दीक्षा से मरणपर्यन्त का जितना काल होता है, उसका दीक्षा काल, शिक्षाकाल, गणपोषण काल, आत्मसंस्कार काल, सल्लेखनाकाल और उत्तमार्थकाल के भेद से विभाजन किया गया है। सर्वदा पद से ये छहों काल अर्थात् दीक्षा काल से जीवनपर्यन्त इन आराधनाओं की विशुद्धि हेतु उद्यमशील रहना चाहिए। साध्य की सिद्धि के लिए साधन रूप दृष्टान्त राजन्यः सर्वदा योग्यां, विदधानः परिक्रियाम् । शक्तो जित-श्रमीभूतः, समरे जायते यथा ॥२३॥ अर्थ - जैसे राजपुत्र योग्य शस्त्र-संचालन रूप युद्ध का अभ्यास सर्वदा करता रहता है, तभी वह रणांगण में जाकर विजय प्राप्त करने में समर्थ होता है ।।२३।। दृष्टान्त की योजना रूप दाष्टान्त श्रामण्यं सर्वदा कुर्वन्, परिकर्म प्रजायते। अभ्यस्त-करण: साधुान-शक्तो मृतौ तथा ।।२४ ॥ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परणकण्डिका - १० अर्थ - वैसे ही श्राप गुप्ति, भूगल एवं गोग आदि गीलर्मला सतत अभ्यास करने वाला साधु मरणकाल की पीड़ा में भी ध्यानादि करने में समर्थ रहता है ।।२४ ।। प्रश्न - यहाँ श्रामण्य का क्या अर्थ है? उत्तर - श्रामण्य का अर्थ समता है। अर्थात् जीवन-मरण में, लाभालाभ में, सुख-दुख में एवं बन्धु और 3री में समान भाव रखना समता है किन्तु ऐसी समता गुमि, ध्यान एवं योग आदि परिकर की साधना के बिना प्राप्त नहीं होती। दृष्टान्त-दार्टान्त द्वारा अभ्यास का फल कृत-योग्य-क्रियो युद्धे, जगतीपति-देहजः । आदत्ते विद्विषो जित्वा, बलाद्राज्य-ध्वजं यथा ।।२५।। साधुर्भावित चारित्रो, गृह्णीते संस्तराहवे। आराधना-ध्वजं जित्वा, मिथ्यात्वादि-द्विषस्तथा ।।२६॥ अर्थ - जैसे राजा का पुत्र पहले शस्त्र-संचालन आदि की योग्य क्रिया का अभ्यास करता है, पश्चात् युद्धभूमि में जाकर तथा शत्रुओं को जीतकर बलात् उनकी राज्यध्वजा हस्तगत कर लेता है ।।२५।। वैसे ही जिसने जीवन में उत्तम रीति से चारित्र की आराधना की है वह साधु संस्तरारोहण करके मिथ्यात्व आदि शत्रुओं को जीत कर आराधनारूपी ध्वजा को हस्तगत कर लेता है ।।२६ ॥ बिना अभ्यास आराधना की सिद्धि हो जाने पर भी वह प्रमाणयोग्य नहीं है यद्यभावित-योगोऽपि, कोप्याराधयते मृतिम्। तत्प्रमाणं न सर्वत्र, स्थाणु-मूल-निधानवत् ॥२७ ।। अर्थ - ध्यान आदि परिकर का सतत अभ्यास न करने वाला भी यदि कोई मरण समय में आराधना की सिद्धि कर ले तो वह 'स्थाणुमूलनिधानवत्' है। वह सर्वत्र प्रमाण नहीं है॥२७॥ प्रश्न - 'स्थाणुमूलनिधानवत्' इस पद का अर्थ क्या है और यह दृष्टान्त किस प्रयोजन से दिया है ? उत्तर - इस पद का अर्थ है - (ठ की जड़ में रखा हुआ धन । यह दृष्टान्त और इसका प्रयोजन इस प्रकार है-मार्ग में गमन करने वाले किसी सूरदास का मस्तक दूंठ से टकरा गया, उसे पीड़ा तो अवश्य हुई किन्तु मस्तक का विकारी रक्त निकल जाने के कारण नेत्रों में ज्योति आ गई और वह जीर्ण ढूँठ उखड़ जाने से उसके मूल अर्थात् जड़ में रखा हुआ धन का घड़ा प्राप्त हो गया। ऐसा कार्य क्वचित् कदाचित् ही सम्भव है। सर्वत्र इसकी सम्भावना नहीं है। उसी प्रकार यदि किसी पुण्य पुरुष को ध्यानादि परिकर की सतत साधना के बिना ही आराधना की सिद्धि हो जाती है तो भी वह सब साधकों के लिए सम्भव नहीं है, अत: सभी को प्रमाद छोड़ कर आत्मसिद्धि के अनुकूल सतत साधना करनी चाहिए। ॥ इस प्रकार पीठिका समाप्त हुई। Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अर्थ आगम में विस्तार से सत्तरह प्रकार के मरण कहे गये हैं। मैं (ग्रन्थकार) उनमें से केवल पाँच प्रकार के मरणों को ही यहाँ संक्षेप से कहता हूँ ॥ २८ ॥ - मरणकण्डिका- ११ (१) बाल-मरणाधिकार भरण के भेद विस्तरेणागमोक्तेषु मध्ये सप्तदशस्वहम् । मरणान्यत्र पञ्चैव, कथयामि समासतः ॥ २८ ॥ प्रश्न मरण किसे कहते हैं ? अथवा मरण क्या है ? उत्तर - तत् पर्याय के विनाश का नाम मरण है किन्तु विनाश स्थिति के बिना नहीं होता, इसलिए मरण भी जीवनपूर्वक होता है, और जीवन जन्म पूर्वक होता है, क्योंकि जो उत्पन्न नहीं हुआ उसकी स्थिति नहीं होती। इसलिए आगम में प्राणग्रहण को जन्म और प्राणत्याग को मरण कहा है। प्रश्न सत्तरह प्रकार के मरण कौन-कौन से हैं और उनके लक्षण क्या हैं? उत्तर भगवती आराधना ग्रन्थ में उन मरणों के नाम और लक्षण इस प्रकार कहे गये हैं। यथा - १. आवीचिमरण - बीचिनाम तरंग का है। यहाँ आयु कर्म के उदय को वीचि कहा है क्योंकि आयु का उदय प्रति समय होता है अतः प्रति समय आयु का एक-एक निषेक उदय में आकर खिरना या समाप्त होना आवौचिमरण कहलाता है। - २. तद्भवमरण भवान्तर की प्राप्तिपूर्वक वर्तमान भव का विनाश तद्भवमरण है। ३. अवधिमरण - वर्तमान में जितनी और जैसी आयु भोग रहे हैं तथा वर्तमान पर्याय में जैसा मरण प्राप्त हुआ है, आगामी भव में उतनी, वैसी आयु एवं उसी प्रकार से मरण को प्राप्त होना अवधिमरण है। ४. आदि - अन्तमरण वर्तमान मरण से भावि भरण असमान होना । - ५. बालमरण - चारित्रहीन समीचीन तत्त्वश्रद्धानी का मरण बालमरण है। ६. पण्डितमरण - चारित्रवान सम्यग्दृष्टि का मरण पण्डितमरण है। ७. अवसन्न-मरण - ऋद्धियों के प्रेमी, रस युक्त आहार में आसक्त, कषायों में संलम, आहारादि संज्ञाओं के आधीन, पापवर्धक शास्त्रों के अभ्यासी, तेरह प्रकार की क्रियाओं में आलसी, भोजन और उपकरणों से प्रतिबद्ध, निमित्तशास्त्र, मंत्र एवं औषधि से आजीविका करने वाले, गुप्तियों और समितियों में उदासीन, संवेगभाव में मन्द, गृहस्थों को रंजायमान करने के मन वाले तथा उनकी वैयावृत्य करने वाले, गुणों से हीन, सदोष चारित्र वाले तथा जिन्हें संयमियों के संघ से निकाल दिया गया है ऐसे पार्श्वस्थ आदि साधुओं को अवसत्र कहते हैं और इनके मरण को अवसन्न मरण कहते हैं । Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - १२ ८. बालपण्डित मरण - स्थूल हिंसादि विरतिरूप देशचारित्र और सम्यक्त्व युक्त जीवों का जो मरण होता है वह बालपण्डित मरण है। ९. सशल्य मरण - मोक्षमार्ग में दोष लगाना, रत्नत्रय मार्ग का नाश करना, मिथ्यामार्ग का कथन करना या मोक्षमार्ग का कथन न करना, मोक्षमार्गी संघ में भेद डालना ये सब मिथ्यादर्शनशल्य हैं। चिरकाल तक पार्श्वस्थ आदि साधु के रूप में विचरण करके भी गुरु से आलोचना नहीं करना माया शल्य है तथा 'आगामी काल में यही होना चाहिए इस प्रकार के मानसिक उपयोग को निदान कहते हैं। इस प्रकार मिथ्या, माया और निदान शल्यों से युक्त मरण सशल्य भरण है। १०. बलाका मरण - जो विनय एवं वैयावृत्त्य आदि में आदरभाव नहीं रखता, प्रशस्त योग के धारण में आलसी है, प्रमादी है, समिति गुप्ति आदि में अपनी शक्ति छिपाता है, धर्मचिन्तन आदि के समय निद्रा के वशीभूत जैसा रहता है तथा उपयोग न लगने से जो ध्यानादि से दूर भागता है, उनका मरण बलाका मरण है। अथवा जो निःशल्य एवं विरक्त होकर चिरकाल तक रत्नत्रय का पालन करता है किन्तु जीवन के अवसान में संस्तर पर आरूढ़ होकर जो शुभोपयोग से दूर भागता है, उसका मरण बलाका या बलाय मरण है। ११. वोसट्टमरण - इन्द्रिय आदि के आधीन होकर मरण होना। १२. विप्पासणमरण - दुर्भिक्ष में, भयंकर जंगल में, शत्रु का या राजा का या चोर आदि का भय होने पर, एकाकी सहन करने में अशक्य ऐसे तिर्यंचकृत उपसर्ग होने या ब्रह्मचर्यव्रत का विनाश आदि रूप दूषित चारित्र होने पर संसार से विरत और पापों से भयभीत साधु संयम दूषित हो जाने के भय से कोई निदान नहीं करता हुआ अरहन्त के समीप आलोचना कर एवं प्रायश्चित्त लेकर शुभलेश्यापूर्वक श्वास निरोध कर जो मरण करता है वह विप्पासण मरण है। १३. गिद्धपृट्ट मरण - उपर्युक्त कारणों से और उपर्युक्त ही आत्मविशुद्धि से युक्त जो मुनि शस्त्र द्वारा प्राणत्याग करते हैं, वह गृद्धपुट्ट मरण है। इन दोनों मरणों का निषेध भी नहीं है और आज्ञा भी नहीं है। १४. भक्तप्रत्याख्यान मरण - काय एवं कषाय को कृश करते हुए विधिपूर्वक संन्यास धारण कर मरण करना या होना। १५. इंगिनीमरण - इसमें मुनिजन अपनी सेवा दूसरों से नहीं कराते। अपना कार्य स्वयं करते हुए आहार-जल-त्याग पूर्वक मरण होना इंगिनीमरण है। १६. प्रायोपगमन मरण - स्व-पर सेवा से रहित आहार-जल त्याग कर वन आदि एकान्त स्थान में अकेले रह कर काष्ठ सदृश शरीर का त्याग कर उत्तम ध्यान में लीन रहते हुए प्राण विसर्जन या मरण करना प्रायोपगमन मरण है। १७. केवली मरण या पण्डित-पण्डित मरण - चौदहवें गुणस्थान में केवली जिन का निर्वाण या मोक्ष होना केवली मरण या पण्डित पण्डित मरण है। Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - १३ पाँच मरणों का नाम निर्देश पण्डितं पण्डितादिस्थ सहितं बानाण्डितम् ! चतुर्थं मरणं बालं, बालबालं च पञ्चमम् ॥२९॥ अर्थ - (१) पण्डित-पण्डित मरण, (२) पण्डितमरण, (३) बाल-पण्डितमरण, (४) बाल मरण और (५) बाल-बालमरण, इस प्रकार मरण के पाँच भेदों के ये नाम हैं ||२९ ।। इनमें तीन मरण प्रशस्त हैं नि:श्रेयस-सुखादीनां, आसन्नीकरण-क्षमम्। आदिम जायते तत्र, प्रशस्तं मरण-त्रयम् ।।३०॥ अर्थ - पाँच प्रकार के मरणों में से आदि के तीन मरण प्रशस्त हैं क्योंकि ये निःश्रेयस् एवं अभ्युदय सुखों को सन्निकट करने में सक्षम हैं ।।३० ।। पण्डित-पण्डित और बालपण्डित मरण के स्वामी विज्ञातव्यमयोगानां, तत्र पण्डित-पण्डितम्। देशसंयत-जीवानां, मरणं बालपण्डितम् ।।३१॥ अर्थ - 'चौदहवें गुणस्थानवर्ती अयोगी जिन का मरण पण्डित-पण्डित मरण होता है और देशसंयतजीवों के बालपण्डित मरण होता है ।।३१ ॥ प्रश्न - पण्डित-पण्डित मरण के बाद पण्डितभरण आता है उसे छोड़कर बालपण्डित मरण के स्वामी क्यों कहे गये हैं ? उत्तर - पण्डेितमरण के सम्बन्ध में बहुत कुछ कहना है अत: उसे छोड़ कर अल्प कथन होने के कारण बालपण्डितमरण को ग्रहण किया गया है। पण्डितमरण के भेद पादोपगमनं भक्तप्रतिज्ञामिङ्गिणी-मृतिम् । वदन्ति पण्डितं त्रेधा, योगिनो युक्तिचारिणः ॥३२॥ अर्थ - निर्दोष चारित्र पालन करने वाले साधुजनों का पण्डितमरण होता है, उसके तीन भेद हैं, (१) प्रायोपगमन मरण, (२) इंगिनी मरण तथा (३) भक्तप्रतिज्ञा मरण ।।३२ ।। प्रश्न - पण्डितमरण कहाँ-कहाँ होता है और ये जीव कहाँ उत्पन्न होते हैं? उत्तर - छठे, सातवें, आठवें, नौवें, दसवें और ग्यारहवें गुणस्थानवी जीवों का पण्डितमरण ही होता है तथा इन गुणस्थानों में से किसी भी गुणस्थान में मरण करने वाले मुनिराज नियमतः वैमानिक देवों में ही उत्पन्न होते हैं। Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - १४ शेष दो मरणों के स्वामी भजते मरणं बालं, सम्यग्दृष्टिरसंयतः । मिथ्यात्वाकुलित-स्वान्तो, बालबालमपास्तधीः ॥३३॥ अर्थ - बालमरण असंयत सम्मानिसीबों के होटा है और मिनाक के इदा पो भकुलित चित्त वाले कुबुद्धि जीवों का बाल-बालमरण होता है।।३३।। प्रश्न - बाल-बाल, बाल और पण्डित आदि किसे कहते हैं? उत्तर - व्यवहार में हेयोपादेय के ज्ञान से शून्य, अज्ञानी अथवा मूर्ख बालक या शिशु को बाल तथा बुद्धिमान को पण्डित कहते हैं। उसी प्रकार जो समीचीन श्रद्धा एवं चारित्र से हीन हैं वे बाल-बाल कहलाते हैं। इसी प्रकार जिनमें श्रद्धा तो पूर्ण है किन्तु चारित्र नहीं हैं वे बाल, श्रद्धा के साथ एकदेश चारित्र है वे बालपण्डित (यद्यपि वे श्रद्धावान हैं किन्तु चारित्र एकदेश है), जो श्रद्धा एवं चारित्र से सम्पन्न हैं वे पण्डित हैं। इन्हीं गुणों के कारण उनके मरण को भी उसी नाम से कहा गया है। प्रश्न - किस गुणस्थान में कौनसा मरण होता है? उत्तर - प्रथम गुणस्थान में बाल-बाल मरण होता है। द्वितीय गुणस्थान में यद्यपि मिथ्यात्व नहीं है किन्तु अनन्तानुबन्धी कषायजन्य अध्यवसाय जीवित है अत: वहाँ भी बाल-बाल मरण है। तृतीय गुणस्थान में मरण नहीं होता। चतुर्थ गुणस्थान में बाल मरण है। पंचम गुणस्थान में बाल-पण्डित मरण है। छठे से ग्यारहवें गुणस्थानों में से प्रत्येक में पण्डित मरण होता है। बारहवें और तेरहवें गुणस्थानों में मरण नहीं है। चौदहवें गुणस्थान से मुक्ति प्राप्त होती है अतः वहाँ पण्डित-पण्डितमरण कहा गया है। प्रश्न - किस मरण से मरने वाले जीव कहाँ-कहाँ जाते हैं? उत्तर - बाल-बाल मरण करने वाले प्रथम गुणस्थानवर्ती चारों गतियों में जाकर जन्म ले सकते हैं। बाल-बाल सासादन गुणस्थानवी जीव नरकगति के अतिरिक्त शेष तीनों गतियों में जा सकते हैं। पूर्व में नरकायु, तिर्यंचायु या मनुष्यायु को बाँध लेने वाले बद्धायुष्क चतुर्थ गुणस्थानवर्ती मनुष्य नरकगति में प्रथम नरक पर्यन्त, मनुष्यगति एवं तिर्यंचगति में भोगभूमि के मनुष्य-तिर्यच होते हैं। बाल मरण करने वाले अबद्धायुष्क मनुष्य और तिर्यंच देवगति में वैमानिक देव ही होते हैं, तथा देव और नारकी कर्मभूमिज मनुष्य ही होते हैं। Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - १५ बालपण्डित मरण करने वाले पंचमगुणस्थानवर्ती मनुष्य एवं तिर्यंच तथा छठे गुणस्थान से ग्यारहवें गुणस्थान पर्यन्त के पण्डितमरण करने वाले मनुष्य वैमानिक देव होते हैं और पण्डितपण्डित मरण करने वाले शाश्वत सुख प्रदाता निर्वाण को प्राप्त करते हैं। प्रश्न - "चतुर्धाराधनाफलं क्रमेणाऽहं वक्ष्ये' पद द्वारा आचार्यदेव ने प्रतिज्ञा की थी कि मैं क्रम से चारों आराधनाएँ और उनका फल कहूँगा किन्तु उसे न कह कर बाल एवं पण्डित मरण के माध्यम से उनके स्वामियों का कथन क्यों किया गया है? उत्तर - आराधक के बिना आराधना और उसके फल की प्राप्ति असम्भव है और आराधक को आराधनाओं का फल मरण के बिना प्राप्त नहीं होता अत: आराधनाओं के पूर्व मरण के माध्यम से उनके स्वामियों का कधन करना आवश्यक है। पूर्ण आराधना का क्या फल है और आराधना की विराधना का क्या फल है, यह ज्ञात हो जाने पर "आराधक अधिक सावधानी पूर्वक आराधनाओं की आराधना करेगा" इस उद्देश्य से भी बाल आदि मरणों का विवेचन आवश्यक है। सम्यक्त्व आराधना के भेद शामिकी क्षायिकी दृष्टिं, वैदकीमपि च विधा। ...मगारापन , सम्म मायलनेष्यते ।।३४॥ अर्थ - पूर्व में आराधित होने से सर्वप्रथम सम्यक्त्व आराधना कही जाती है। उपशम सम्यक्त्व, क्षायोपशमिक सम्यक्त्व और क्षायिक सम्यक्त्व के भेद से वह आराधना तीन प्रकार की है।।३४ ।। प्रश्न - उपशम, क्षयोपशम और क्षायिक सम्यक्त्व के क्या लक्षण हैं और जीव को सर्वप्रथम कौनसा सम्यक्त्व होता है? उत्तर - अनादि मिथ्यादृष्टि जीव को काललब्धि आदि की सहयोगिता से सर्व प्रथम उपशम सम्यक्त्व ही होता है। इसका जघन्योत्कृष्ट काल मात्र एक अन्तर्मुहूर्त ही है। इसके बाद जीव मिथ्यात्व में भी जा सकता है और क्षयोपशम सम्यक्त्व भी कर सकता है। यह सम्यक्त्व अत्यन्त निर्मल होता है। जैसे कतक फल के संयोग से जल का कर्दम नीचे बैठ जाता है और जल निर्मल हो जाता है वैसे ही परिणाम विशेष से मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ इन पाँच प्रकृतियों के अधवा मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व प्रकृति तथा अनन्तानुबन्धी की चार इन सात प्रकृतियों के उपशम से आत्मा में जो विशुद्धि होती है उसे उपशम सम्यक्त्व कहते हैं। इस सम्यक्त्व के होते ही जीव के सत्यार्थ देव में अनन्य भक्ति, विषयों से विराग, तत्त्वों का श्रद्धान और विविध मिथ्यादृष्टियों के मतों में असम्मोह प्रगट हो जाता है। प्रश्न - क्षयोपशम सम्यक्त्व किसे कहते हैं? उत्तर - चार अनन्तानुबन्धी कषाय, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व इन छह प्रकृतियों के उदयाभावीक्षय और इन्हीं के सदवस्थारूप उपशम से तथा देशघाती स्पर्धक बाली सम्यक्त्व प्रकृति के उदय में जो तत्त्वार्थ श्रद्धान होता है उसे क्षायोपशमिक सम्यक्त्व कहते हैं। Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - १६ प्रश्न - उदयाभावीक्षय और सदवस्थारूप उपशम किसे कहते हैं और मिथ्यात्वादि छहों प्रकृतियों का उदयाभावी क्षय कैसे होता है? उत्तर - उदयाभावी क्षय - विवक्षित कर्म प्रकृति का उदय आने के एक समय पहले ही स्तिबुक संक्रमण द्वारा सजातीय अन्य कर्म प्रकृतिरूप होकर उदय में आना और निर्जीर्ण होना 'उदयाभावीक्षय' है। अनन्तानुबन्धी कषाय के उदयकाल प्राप्त कर्म निषेकों का प्रतिसमय एक-एक निषेक अप्रत्याख्यान आदि बारह कषायरूप संक्रमित होकर परमुख से उदय में आकर निर्जीर्ण होते रहना अनन्तानुबन्धी चारों कषायों का 'उदयाभावी क्षय' है। इसी प्रकार मिथ्यात्व और सम्यग्मिध्यात्व प्रकृतियों का भी उसी प्रक्रिया से सम्यक्त्व प्रकृतिरूप उदय में आकर निर्जीर्ण होना, उनका अपना-अपना उदयाभावी क्षय है। सदवस्थारूप उपशम - जो कर्म निषेक अभी वर्तमान में उदयप्राप्त नहीं हैं उनको सत्ता में ही अवस्थित रखना, असमय में उदय में नहीं आने देना अर्थात् उन्हें दबा कर रखना-सदवस्थारूप उपशम है। जैसे अनन्तानुबन्धी आदि प्रकृतियों का जो द्रव्य उदय प्राप्त था उसे तो पर में संक्रमित कर निर्जीर्ण कर दिया था। अब जो सर्वशेष द्रव्य है उसे बीच में उदयरूप नहीं होने देना ; यही उनका सदवस्था रूप उपशम है। क्षायिक सम्यक्त्व - दर्शन मोहनीय की तीन और अनन्तानुबन्धी चार इन सात प्रकृतियों के सर्वधा क्षय हो जाने से जो निर्मल श्रद्धान होता है उसे क्षायिक सम्यक्त्व कहते हैं। यह सम्यक्त्व निर्मल है, नित्य है एवं सर्व कर्मों के क्षय का कारण है। यह श्रद्धा भ्रष्ट करने वाले वचनों से, तर्क-कुतर्कों से, भयोत्पादक भयंकर रूपों से, बीभत्स और जुगुप्सित पदार्थों से यहाँ तक कि त्रैलोक्य के द्वारा भी चलायमान नहीं होता। अर्थात् यह सम्यक्त्व मेरु सदृश निष्कम्प है। सम्यग्दृष्टि शब्द से जो वाच्य है वह जीव इस प्रकार होता है मन्यते दर्शितं तत्त्वं, जन्तुना शुभ-दृष्टिना ! पूर्वं ततोऽन्यथापीदमजानानेन रोच्यते ।।३५ ।। अर्थ - दर्शन आराधना का आराधक जीव उपदिष्ट जिनागम में तो श्रद्धान करता ही है तथा अजानकार गुरु द्वारा अन्यथा प्रतिपादित तत्त्व पर भी 'गुरु-उपदिष्ट' मानकर श्रद्धा करता है ।।३५ ॥ प्रश्न - आगम से विपरीत तत्त्व पर श्रद्धा करने वाला जीव सम्यग्दृष्टि कैसे हो सकता है? उत्तर - 'गुरु द्वारा प्रतिपादित यह तत्त्व आगम के विरुद्ध है' ऐसा नहीं जानते हुए जो असत्य अर्ध का श्रद्धान करता है किन्तु सर्वज्ञ प्रणीत आगम का अर्थ आचार्य परम्परा से जो ठीक-ठीक सुनकर अवधारित किया है वही अर्थ आचार्यदेव ने मुझे समझाया है इस प्रकार सर्वज्ञ की आज्ञा में रुचि होने से वह सम्यग्दृष्टि है। ऐसी विपरीत श्रद्धा करने वाला सदा सम्यग्दृष्टि नहीं रहता दर्यमानं यदा सम्यक्, श्रद्दधाति न सूत्रतः । तमर्थं स तदा जीवो, मिथ्यादृष्टिनिंगद्यते ।।३६ ।। Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमिका - ९७ अर्थ - (अन्य आचार्य के द्वारा) सूत्र से समीचीन अर्थ दिखाये जाने पर भी जब वह श्रद्धा नहीं करता तब वह (सम्यग्दृष्टि जीव) उसी समय से मिथ्यादृष्टि हो जाता है ।।३६ ।। प्रश्न - सूत्र द्वारा दर्शित अर्थ पर श्रद्धा न करने से वह उसी क्षण मिथ्यादृष्टि क्यों हो जाता है जबकि तत्त्व का अर्थ तो वही है जो पूर्व में था? उत्तर - तत्त्व का जो विपरीत अर्थ पूर्व में था वहीं वर्तमान में है किन्तु पूर्व में यह तत्त्व सर्वज्ञ प्रतिपादित है' इस श्रद्धा के बल पर वह आज्ञा सम्यग्दृष्टि था। अब दर्शित सूत्रार्थ अवधारण न करने से सर्वज्ञ की आज्ञा की अवहेलना कर गुरु मात्र का पक्षधर हो गया अत: तत्काल मिथ्यादृष्टि हो गया । ___ जो गणधरादि द्वारा रचित है, वहीं सूत्र है ज्ञेयं प्रत्येक-बुद्धेन, गणेशेन निवेदितम् । श्रुतकेवलिना सूत्रमभिन्न-दशपूर्विणा ।।३७ ।। अर्थ - जो गणधर द्वारा, प्रत्येकबुद्ध मुनिराज द्वारा, श्रुतकेवली द्वारा और अभिन्नदशपूर्वियों द्वारा कहा हुआ है उसे ही 'सूत्र' जानना चाहिए ।।३७ ।। प्रश्न - गणधर, प्रत्येकबुद्ध, श्रुतकेवली और अभिन्नदशपूर्वी किसे कहते हैं? उत्तर - जो बारह गणों को धारण करते हैं, जिनेन्द्रोपदिष्ट अर्थ को ग्रन्थ रूप में गूंथते हैं और सात ऋद्धियों से सम्पन्न होते हैं वे गणधर होते हैं । जो श्रुतज्ञानावरण कर्म प्रकृति के क्षयोपशम विशेष से परोपदेश के बिना ही ज्ञानातिशय को प्राप्त होते हुए वैराग्य सम्पन्न भी होते हैं उन्हें प्रत्येकबुद्ध कहते हैं, जो समस्त श्रुत के धारी होते हैं वे श्रुतकेवली हैं और जो पूर्वज्ञान प्राप्त करने में संलग्न रहते हैं, विद्यानुवाद नामक दसवें पूर्व का अध्ययन करते समय विद्याओं की अधिष्ठात्री देवियों के उपस्थित होने, अपनी शक्ति प्रदर्शित करने और 'हमें आप कार्य बताइये ऐसा कहने पर भी उनके प्रलोभन में न फँस कर अचलचित्त रहते हैं तथा जिनका ज्ञान-वैराग्य कभी खण्डित नहीं होता, उन्हें अभिन्नदशपूर्वी कहते हैं। इनमें से किसी भी एक के द्वारा रचा गया जो आगम है, उसे सूत्र कहते हैं। निर्दोष चारित्रधारी मुनिश्रेष्ठों के वचन प्रमाण हैं प्राप्तार्थश्चारुचारित्र:, शंक्यते न महामनाः। शंक्यते मन्द-धर्माऽसौ, कुर्वाणस्तत्त्व-देशनाम् ॥३८॥ अर्थ - जिन्होंने आगम का अर्थ भली प्रकार ग्रहण किया है तथा जो दृढ़ एवं निर्दोष चारित्र युक्त हैं उनके वचनों में भव्य जीवों को शंका नहीं करनी चाहिए क्योंकि उनके वचन प्रामाणिक होते हैं), किन्तु जो मन्दचारित्री धर्मदेशना करते हैं उनके वचनों की प्रामाणिकता भजनीय है। अर्थात् वे वचन आगमप्रमाण हैं तो प्रामाणिक हैं और यदि आगमविरुद्ध हैं तो वे प्रामाणिक नहीं हैं ।।३८ ।। प्रश्न - साधुजनों में किसके वचन प्रामाणिक हैं ? उत्तर - गणधर, प्रत्येकबुद्ध, श्रुतकेवली और अभिन्नदशपूर्वी मुनिराजों द्वारा कथित वचन तो प्रामाणिक Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - १८ हैं ही; शेष जो संसार से भयभीत हैं, 'सर्वज्ञ की वाणी के विपरीत उपदेश देने से या शास्त्र लिखने से मुझे अनन्त संसार में परिभ्रमण करना पड़ेगा' इस विवेक से युक्त हैं, संसार-शरीर और भोगों से पूर्णतया विरक्त हैं, लौकिक प्रयोजन से निरपेक्ष हैं, यश, पूजा, ख्याति की चाह से रहित हैं, पिण्डशुद्धि पूर्वक आहार ग्रहण करते हैं, निज स्वार्थ के वशीभूत नहीं हैं, लोक को रंजायमान करने के इच्छुक नहीं हैं; ज्ञान, ध्यान और तप में अनुरक्त रह कर आत्महित के उद्यम में प्रयत्नशील हैं; आरम्भ, परिग्रह और विषयों की आशा से दूर हैं तथा जिन्होंने गुरुमुख से आगमज्ञान प्राप्त किया हैं उनके वचन भी प्रामाणिक हैं किन्तु जो उपर्युक्त गुणों में मन्द तथा निर्दोष आचरण में शिथिल हैं उनके वचन यदि आगमानुकूल हैं तो शंका करने योग्य नहीं हैं, यदि वे वचन आगम के प्रतिकूल हैं तो अमान्य हैं। आज्ञाश्रद्धानी भी सम्यक्त्व का आराधक है धर्माधर्म-नभः काल, पुद्गलाञ्जिन-देशितान् । आज्ञया श्रद्दधानोऽपि, दर्शनाराधको मतः ।।३९ ।। अर्थ - जिनोपदिष्ट धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाश द्रव्य, काल द्रव्य और पुद्गल द्रव्य को आज्ञा मात्र से श्रद्धान करने वाला भी सम्यक्त्व का आराधक होता है ।।३९ ।। प्रश्न - जिसे छह द्रव्यों का ज्ञान नहीं है वह श्रद्धा मात्र से सम्यक्त्व का आराधक कैसे हो सकता है? उत्तर - श्रुतज्ञानावरण कर्म प्रकृति का मन्द क्षयोपशम होने से जो प्रमाण-नय, निक्षेप एवं सत् संख्या आदि के द्वारा ऊहापोह करके छह द्रव्यों का स्वरूप स्वयं नहीं जान पाते, धारणा शक्ति कमजोर होने से गुरु द्वारा पढ़ाया हुआ स्मृति में नहीं रख सकते, तर्कणा करके भी निर्णय पर नहीं पहुँच सकते वे इन द्रव्यों का आप्त की आज्ञा मात्र से श्रद्धान कर लेते हैं तो भी सम्यक्त्वाराधना के आराधक हैं। अर्थात् इन तत्त्वों और द्रव्यों का स्वरूप या इनका अस्तित्व जिनेन्द्र द्वारा कहा हुआ है और जिनेन्द्र कभी अन्यथावादी होते नहीं हैं, ऐसे विश्वासपूर्वक जो आज्ञामात्र से तत्त्व में रुचि रखते हैं, वे भी सम्यक्त्वी हैं अतः दर्शनाराधना के आराधक हैं। जीय द्रव्य का श्रद्धान भी नियम से करना चाहिए सिद्धाः संसारिणो जीवाः, प्रयाताः सिद्धिमेकधा । आज्ञया जिननाथानां, श्रद्धेयाः शुद्धदृष्टिना ।। ४० ।। अर्थ - सिद्धि को प्राप्त सिद्ध जीव एक प्रकार के और संसार अवस्था को प्राप्त संसारी जीव छह प्रकार के हैं। जिनेन्द्रदेव की आज्ञा के बल से इन जीवों पर श्रद्धा रखने वाला भी सम्यक्त्व का आराधक है ।।४० ।। प्रश्न - संसारी और सिद्ध जीव किसे कहते हैं और वे कितने प्रकार के हैं? उत्तर - चतुर्गति-परिभ्रमण का नाम संसार है। द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव के भेद से यह संसार पाँच प्रकार का है। ऐसे संसार को जो प्राप्त करता है वह संसारी जीव है। संसारी जीव अच्छे-बुरे शरीर को ग्रहण करने एवं छोड़ने में लगे रहते हैं। अपने मन, वचन, काय रूप योग द्वारा बाँधे गये पुण्य-पाप के उदय से होने वाले सुख-दुख को भोगने में लीन रहते हैं। बस और स्थावर नामकर्म के वशवर्ती हो उन्हीं में जनमते-मरते Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परणकण्डिका - १९ रहते हैं। मतिज्ञानावरण कर्म प्रकृति के अनेक प्रकार के उदय एवं क्षयोपशम विशेष से एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय एवं पंचेन्द्रियों में ही बार-बार उत्पन्न होते हैं। पर्याप्ति-अपर्याप्ति नामकर्म के उदय से कभी पर्याप्त, कभी अपर्याप्त होते रहते हैं। आयुकर्म की मजबूत सांकल के कठोर बन्धन से निरन्तर कहीं-न-कहीं बँधे ही रहते हैं। नौ प्रकार की योनियों के आश्रयभूत शरीरों में उनकी अति-आसक्ति रहती है। मृत्युरूपीक्रूर वज्रपात से, जिसे टालना अशक्य है, उनके चित्त सदा भयभीत रहते हैं। ऐसे ये संसारी जीव पृथ्वीकाय आदि के भेद से छह प्रकार के होते हैं। जो अंजनसिद्धि तथा पादुका आदि सिद्धियों को छोड़ कर, जो एक ही प्रकार की है ऐसी आत्मसिद्धि को प्राप्त हैं तथा अष्ट कर्मों से रहित हैं, ऐसे परमात्मा सिद्ध जीव हैं। श्लोक ३९ में अजीव स्वरूप पाँच द्रव्यों की श्रद्धा करने वाले को एवं श्लोक ४० में जीव द्रव्य की श्रद्धा करने वाले को अर्थात् जीव और अजीव इन दो तत्त्वों की श्रद्धा करने वाले को दर्शनाराधक कहा गया है, अब आम्रव आदि पाँच तत्वों की तथा पुण्य और पाप की श्रद्धा करने वाले को दर्शनाराधक कहा जा रहा है - आसवं संवरं बन्धं, निर्जरां मोक्षमञ्जसा। पुण्यं पापं च सदृष्टिः, श्रद्दधाति जिनाज्ञया ।। ४१ ।। अर्थ - आस्रव, संवर, बन्ध, निर्जरा, मोक्ष, पुण्य और पाप इन सबकी जिनेन्द्राज्ञानुसार भली प्रकार श्रद्धा करने वाला भी सम्यक्त्व का आराधक होता है ।।४१ ।। प्रश्न - दर्शन-आराधक को किस-किस की श्रद्धा करने के लिए प्रेरित किया गया है? उत्तर - दर्शनाराधक को जीव, अजीव, आसव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन सात तत्त्वों की; पुण्य एवं पाप सहित नौ पदार्थों की; जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन छह द्रव्यों की और इनमें से काल द्रव्य को छोड़कर शेष पाँच अस्तिकाय द्रव्यों की जिनेन्द्राज्ञानुसार श्रद्धा करनी चाहिए। प्रश्न - इन सबके क्या लक्षण हैं ? उत्तर - उपयोग गुण वाला जीव तत्त्व है। जड़ स्वभाव वाला अजीव तत्त्व है। मन वचन काय रूप योग द्वारा कर्मों का आत्मा में प्रविष्ट होना आस्रव है। कर्म परमाणुओं का आत्मप्रदेशों के साथ संश्लेष सम्बन्ध होना बन्ध है। आते हुए कर्मों का रुक जाना संवर है । संचित कर्मों का तप द्वारा अंश-अंश रूप से निर्जीर्ण होना निर्जरा है और सम्पूर्ण कर्मों का आत्मा से पृथक् हो जाना मोक्ष है। ये सात तत्त्व हैं । इष्ट को प्राप्त कराने वाला पुण्य है और अनिष्ट का सम्पादन करने वाला पाप है। अथवा प्रशस्त कर्म को पुण्य और अप्रशस्त कर्म को पाप कहते हैं, सात तत्त्व और पुण्य एवं पाप ये नौ पदार्थ हैं। जिसमें जानने-देखने की शक्ति है वह जीव द्रव्य है। रूप, रस, गन्ध और स्पर्श गुण वाला पुद्गल द्रव्य है। जो गतिमान जीव और पुद्गल द्रव्यों की गति का उदासीन हेतु है वह धर्मद्रव्य है। जो ठहरे हुए इन दोनों द्रव्यों की स्थिति का उदासीन हेतु है वह अधर्म द्रव्य है। जो सर्व द्रव्यों को अवकाश देने की शक्ति से युक्त है वह आकाश द्रव्य है और जो सर्व द्रव्यों के वर्तन अर्थात् परिवर्तन का उदासीन हेतु है वह काल द्रव्य है, ये छह द्रव्य हैं। इनमें से काल द्रव्य के अतिरिक्त शेष पाँच द्रव्य अस्तिस्वरूप भी हैं और बहुप्रदेशी भी हैं अत: ये पंचास्तिकाय नाम से भी कहे जाते हैं। Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - २० जिनेन्द्रकथित एक अक्षर का अश्रद्धान करनेवाला भी मिथ्यादृष्टि है नैकमप्यक्षरं येन, रोच्यते तत्त्वदर्शितम् । स शेषं रोचमानोऽपि, मिटयादृष्टिरसंशयम् ॥४२॥ अर्थ - जो तत्त्व ऊपर दर्शाये गये हैं उनमें से किसी के द्वारा मात्र एक अक्षर पर भी यदि अश्रद्धान किया जाता है तो सर्व तत्वों की श्रद्धा होते हुए भी वह निःसन्देह मिथ्यादृष्टि है ।।४२ ।। प्रश्न - एक अक्षर का तो कोई अर्थ ही नहीं निकलता फिर उस क, ख, ग आदि अक्षर का अश्रद्धानी, मिथ्यादृष्टि कैसे हो जायेगा? उत्तर - यहाँ एक अक्षर से अभिप्राय थोड़े-से-थोड़े अक्षरों से निष्पन्न होने वाले द्रव्यश्रुत रूप उस आगमवाक्य से है जो जिनेन्द्रकथिन तत्त्व को दिखा रहा हो। इस प्रकार का आगमकथित थोड़ा सा भी अर्थ यदि किसी को नहीं रुचता तो वह मिथ्यादृष्टि ही है। जैसे बड़े कुण्ड में भरे हुए विपुल दृध को भी विष का एक कण दूषित कर देता है, उसी प्रकार अश्रद्धान का एक कण भी आत्मा को दूषित कर देता है। मिथ्यादृष्टि जीव की परिणति इस प्रकार होती है मोहोदयाकुलस्तत्त्वं, तथ्यमुक्तं न रोचते। जन्तुरुक्तमनुक्तं वा, विपरीतं तु रोचते ॥४३॥ मिथ्यात्वं वेदयन्नंगी, न तत्त्वे कुरुते रुचिम् । कस्मै पित्त-ज्वरा य, रोचते मधुरो रसः ॥४४।। अर्थ - मोह अर्थात् मिथ्यात्व कर्म के उदय से आकुलित चित्तवाले मनुष्य को जिनेन्द्रप्रणीत समीचीन तत्त्व रुचिकर नहीं होता। अर्थात् उस पर उसकी श्रद्धा नहीं होती किन्तु उसको उपदिष्ट अथवा अनुपदिष्ट विपरीत अर्थात् असमीचीन तत्त्व पर श्रद्धा हो जाती है ।।४३ ।। मिथ्यात्व का वेदन करने वाले अर्थात् अनुभव करने वाले जीव की जिनेन्द्रप्रणीत तत्त्व उसी प्रकार नहीं रुचता जिस प्रकार पित्तज्वर से दुखी मनुष्य को मधुर रस नहीं रुचता ॥४४ ।। मिथ्यात्व का फल अनेनाश्रद्दधानेन, जिन-वाक्यमनेकशः । बाल-बाल-मृतिः प्राप्ताः, कालेऽतीते (यतोऽङ्गिना)॥४५॥ अर्थ - जिस जीव ने जिनोपदिष्ट वचनों पर श्रद्धा नहीं की उस जीव ने अतीत काल में अनेक बार बालबाल मरण किये हैं।॥४५॥ प्रश्न - मिथ्यादृष्टि जीव समीचीन तत्त्व पर श्रद्धान क्यों नहीं कर पाता ? उत्तर - मिथ्यात्व प्रकृति का स्वभाव मद्य के सदृश है। जैसे मद्य अपने पीने वाले व्यक्ति की बुद्धि को मन्द, विपरीत और उच्छृखल बना देती है, उसी प्रकार मिथ्यात्व प्रकृति का विपाक जीव की बुद्धि को मन्द, विपरीत और भ्रामक बना देता है जिससे वह ग्यारह अंग का पाठी होते हुए भी जिनोपदिष्ट हितकारी वचनों पर समीचीन श्रद्धा नहीं कर पाता। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - २१ संसारभीरु भन्यों को अपनी बुद्धि इस प्रकार रखनी चाहिए इदमेव वचो जैनमनुत्तरमकल्मषम् । निर्ग्रन्थं मोक्ष-वर्मेति, विधेया धिषणा ततः ।।४६ ।। अर्थ - मिथ्या श्रद्धा का बहुत कटुक फल है, ऐसा जान कर भव्य-जीवों को ऐसी बुद्धि रखनी चाहिए कि ये जिनवचन ही उत्तम हैं, निर्दोष हैं, पापरहित हैं तथा निर्ग्रन्थ मोक्षमार्ग स्वरूप हैं॥४६ ।। प्रश्न - यहाँ 'निर्ग्रन्थ' पद किस अर्थ का वाची है ? उत्तर - जो संसार को रचते हैं और दीर्घ करते हैं उन्हें ग्रन्थ कहते हैं। मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, असंयम, कषाय और तीन अशुभ योगरूप परिणाम ये ग्रन्थ हैं। मिथ्यादर्शन के अभाव में सम्यक्त्व, मिथ्याज्ञान के अभाव में सम्यग्ज्ञान और असंयम, कषाय तथा तीन अशुभ योगों के हटने से सम्यक्चारित्र होता है और इन तीनों को रत्नत्रय कहते हैं, अतः यहाँ 'निर्ग्रन्थ' पद रत्नत्रय का वाची है। सम्यक्त्व के अतिचार शंका कांक्षाचिकित्सान्यदृष्टिशंसन - संस्तवाः । सदाचारैरतीचाराः, सम्यक्त्वस्य निवेदिताः॥४७॥ अर्थ - सदाचारी आचार्यदेव के द्वारा सम्यक्त्व के पाँच अतिचार कहे गये हैं- शंका, कांक्षा, विचिकित्सा. अन्यदृष्टि प्रशंसा और अन्यदृष्टि संस्तव ॥४७ ।। प्रश्न - शंका का अर्थ संशय है और संशय, मिथ्यात्व का एक भेद है। इसके लक्षण में कहा गया है कि "तत्त्व का निर्णय न करने वाले संशयज्ञान का सहचारी जो श्रद्धान है वह सांशयिक मिथ्यात्व है” फिर उसे यहाँ अतिचार में कैसे ग्रहण किया गया है ? उत्तर - यहाँ संशयज्ञान का सहकारी संशय ग्रहण नहीं किया है, अपितु श्रुतज्ञानावरण का क्षयोपशम विशेष न होने से, उपदेष्टा के अभाव से अथवा उनमें वचनों की निपुणता न होने से या निर्णयकारी शास्त्रवचन के प्राप्त न होने से या काललब्धि के अभाव से किसी विषय का निर्णय नहीं हो पाना ही यहाँ ग्राह्य है। सम्यग्दृष्टि को भी जब कभी रस्सी में सर्प की और स्थाणु में मनुष्य की शंका हो सकती है किन्तु ऐसी शंका भी सम्यक्त्व का अतिचार नहीं बनेगी। प्रश्न - काक्षा किसे कहते हैं ? संसारी जीवों को गमनागमन, भोजनपान, स्त्री-पुत्र, अलंकार आदि की एवं मोक्षप्राप्ति आदि की अनेक कांक्षाएँ उत्पन्न होती रहती हैं, इनमें कौन सी कांक्षा सम्यक्त्व का अतिचार उत्तर - गृद्धि या आसक्ति को कांक्षा कहते हैं। सम्यक्त्व से, व्रतधारण से, तपश्चरण से, देवपूजा से तथा आहार आदि दान से जो पुण्य हुआ है उससे मुझे उत्तम कुल, रूप, धन, बल, स्त्री, पुत्र और अन्य-अन्य भोगों की प्राप्ति हो, ऐसी कांक्षा करना ही सम्यक्त्व का अतिचार है। प्रश्न - विचिकित्सा, अन्यदृष्टिप्रशंसा और अन्यदृष्टि संस्तव अतिचार क्या हैं ? Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - २२ उत्तर - रत्नत्रयधारियों के शारीरिक मल या कोप आदि के निमित्त से होने वाली जुगुप्सा और रत्नत्रय के महत्त्व में अरुचि होना विचिकित्सा नाम का तीसरा अतिचार है। अतत्त्वदृष्टि व्यक्तियों को मन से श्रेष्ठ मानना अन्यदृष्टि-प्रशंसा है और ऐसे व्यक्तियों की वचन से प्रशंसा करना अन्यदृष्टि संस्तव है। सम्यक्त्व को शुद्ध करने वाल्ने गुण उपपृहः स्थितीकारो, वत्सलत्वं प्रभावना। चत्वारोऽमी गुणाः प्रोक्ताः, सम्यग्दर्शन-वधंकाः॥४८॥ अर्थ - उपगूहन, स्थितीकरण, वात्सल्य और प्रभावना ये चार गुण सम्यग्दर्शन की विशुद्धि को वृद्धिंगत करने वाले हैं ॥४८॥ प्रश्न - उपबृहण, स्थितीकरण, वात्सल्य और प्रभावना के क्या लक्षण हैं ? उत्तर - कान और मन को आह्लादकारी, अग्राम्य, स्पष्ट तथा वस्तु के यथार्थ स्वरूप-प्रकाशन में समर्थ धर्मोपदेश के द्वारा दूसरों की श्रद्धा को बढ़ाना, अथवा सर्वजनों को आश्चर्यकारी इन्द्रादि के द्वारा की जाने वाली पूजा के समान पूजा रचाकर अथवा दुर्धर तप और ध्यान आदि अनुष्ठान द्वारा आत्मा में श्रद्धा को दृढ़ करना उपबृंहण है। इसे उपगूहन भी कहते हैं। अन्य धर्मात्माओं के दोष प्रगट नहीं करना उपगृहन है। जिनेन्द्रदेव ने जैसा कहा है प्रमेय वैसा ही है, अन्यथा नहीं है क्योंकि वीतरागदेव समस्त पदार्थों के स्वरूप को यथार्थ जानते हैं और यथार्थ ही उपदेश देते हैं । वे दयालु अन्यथा प्रतिपादन नहीं करते, इस प्रकार की भावना से रत्नत्रय में अस्थिर को स्थिर करना स्थितीकरण है। धर्मात्माओं में गौ-वत्सवत् प्रीति रखना वात्सल्य है। अथवा अपने रत्नत्रय में आदरभाव रखना वात्सल्य है तथा रत्नत्रय का एवं रत्नत्रयधारियों का माहात्म्य प्रगट करना प्रभावना है। इनके साथ जिनेन्द्र के वचनों में शंका न होना निशंकितत्त्व, भोगाकांक्षा का अभाव नि:कांक्षितत्व, धर्म और धर्मात्मा से ग्लानि नहीं करना - निर्विचिकित्सा और परमत के चमत्कार आदि देखकर मूढ़ नहीं होना अमूढदृष्टित्व, ये चार गुण और हैं। इस प्रकार ये सब मिल कर सम्यक्त्व के आठ अंग या गुण कहलाते हैं। ___ सम्यग्दर्शन विनय जिनेश-सिद्ध-चैत्येषु, धर्म-दर्शन-साधुषु । आचार्येऽध्यापके संघे, श्रुते श्रुत-तपोधिके ।।४९ ॥ भक्तिः पूजा-यशोवादौ, दोषावज्ञा-तिरस्क्रिया। समासेनैष निर्दिष्टो, विनयो दर्शनाश्रयः ।।५० ।। अर्थ - अरहन्त परमेष्ठी, अरहन्त प्रतिमा, सिद्ध परमेष्ठी, सिद्ध की प्रतिमा, जैनधर्म, रत्नत्रय, साधु, आचार्य, उपाध्याय, चतुर्विध संघ, श्रुत और जो श्रुतज्ञान में अपने से अधिक हैं, तप और जो तप में अपने से अधिक हैं, इन सबकी भक्ति करना, पूजा-सत्कार करना, यशोगान करना, धर्मात्मा के दोषों को प्रगट नहीं करना Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - २३ तथा उनके दोषों को दूर करना, यह सब दर्शन के आश्रय से अर्थात् दर्शन विनय का संक्षेप से वर्णन किया गया है ।।४९-५०॥ प्रश्न - शरीर सहित आत्मा का प्रतिबिम्ब तो युक्त है, किन्तु शरीर रहित सिद्ध परमेष्ठी का प्रतिबिम्ब कैसे सम्भव है? उत्तर - पूर्व भात्र प्रज्ञापन नय की अपेक्षा जो आत्मा सयोगकेवली अवस्था में शरीर में थी वहीं सिद्ध की आत्मा है। शरीर के आकार सदर। यह वेतन आत्मा भी आकारबान ही है। वहीं सम्यक्त्व आदि आठ गुणों सहित है। इस प्रकार सिद्ध की स्थापना संभव है। प्रश्न - भक्ति और पूजा किसे कहते हैं ? उत्तर - "अर्हदादिगुणानुरागो भक्ति:" अर्थात् अर्हन्त आदि के गुणों में अनुराग होना भक्ति है। द्रव्य पूजा और भाव पूजा के भेद से पूजा दो प्रकार की है। अष्ट द्रव्य अर्पित करना, उनके आदर में खड़े होना. प्रदक्षिणा देना और शरीर से प्रणाम आदि रूप क्रिया करना तथा वचन से गुणों का स्तवन करना यह द्रव्य पूजा है और मन से उनके गुणों का स्मरण करना भाव पूजा है। प्रश्न - यशोगान किनका और कैसे किया जाता है? उत्तर - अर्हन्त देव अठारह दोषों से रहित वीतराग, सर्वज्ञ और हितोपदेशी होते हैं। इस प्रकार विद्वानों की सभा में अर्हन्तों के गुणों का माहात्म्य बताकर उनका यशोगान करना। कर्मरूपीलेप को जला डालने से उत्पन्न हुए निश्चल स्वास्थ्य से युक्त और अनन्तानन्त काल पर्यन्त अनन्तज्ञानरूप सुख से संतृप्त सिद्ध होते हैं । इस प्रकार सिद्धों का माहात्म्य प्रगट करना, उनका यशोगान है। जैसे अपने पुत्र सदृश व्यक्ति का दिखना पुत्र की स्मृति का निमित्त है उसी प्रकार अरहन्तादि के प्रतिबिम्ब भी त्रैलोक्य के चूड़ामणि वीतराग अर्हन्तदेव की स्मृति अर्थात् भव्यजीवों के शुभोपयोग के निमित्त हैं, क्योंकि बाह्य द्रव्य के अवलम्बन से शुभाशुभ परिणाम होते हैं। ___ अर्हन्त-सिद्ध परमेष्ठियों के गुणों का यह स्मरण नवीन अशुभ प्रकृति के आस्रव को रोकने में, नवीन शुभ कर्म के बन्ध में, बँधे हुए शुभ कर्म के अनुभाग की वृद्धि में और पूर्वबद्ध अशुभ प्रकृति समूह के अनुभाग को कम करने में समर्थ होता है, अतः समस्त इष्ट पुरुषार्थ की सिद्धि के कारणभूत जिनेन्द्र के प्रतिबिम्बों की उपासना करनी चाहिए। इस प्रकार जिन प्रतिबिम्बों की महत्ता का प्रकाशन करना चैत्य यशोगान है। श्रुतज्ञान केवलज्ञान सदृश जीवादि द्रव्यों का यथार्थ स्वरूप बताने में समर्थ है। कर्मरूपी ताप को नष्ट करने के लिए शीतल जल के समान है। शभध्यानरूपी चन्दन के लिए मलयपर्वत के समान है। शिघ्य ज द्वारा अन्तःकरण से प्रार्थनीय है। अशुभास्रव को रोकने में सक्षम है। अप्रमादपना लाने में उद्यमशील है। अन्य सभी परोक्ष-प्रत्यक्ष ज्ञानों को उत्पन्न करने का बीज एवं सम्यग्दर्शन-ज्ञान तथा चारित्र में प्रवर्तन करानेवाला है। इस प्रकार श्रुतज्ञान का माहात्म्य प्रगट करना श्रुतज्ञान का यशोगान है। इसी प्रकार आचार्य, उपाध्याय, साधु, संघ एवं धर्मादि का यशोगान करना चाहिए । Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - २४ प्रश्न - दोष-अवज्ञा और दोष तिरस्क्रिया किसे कहते हैं? उत्तर - मिथ्या दोष नहीं लगाना । अर्थात् अवर्णवाद नहीं करना यह 'दोषावज्ञा' का भाव है, किन्तु यदि कोई दोष लगा रहा है तो अपनी योग्यतानुसार उन दोषों का निराकरण करना 'दोष तिरस्क्रिया' का भाव है। ये दोनों गुण इस प्रकार हैं अर्हन्त - अर्हन्त भगवान में सर्वज्ञता और वीतरागता नहीं होती। जीव मात्र रागादि और अज्ञानता से युक्त होते हैं। ऐसा अवर्णवाद नहीं करना । यदि कोई ऐसे दोष लगा रहा है तो दूसरे असर्वज्ञों की प्रत्यक्ष और अनुमान प्रमाण से विरुद्धता दिखाकर सर्वज्ञता आदि की सिद्धि करना दोष-तिरस्क्रिया है। सिद्ध-सिद्ध भगवान भोजन, पान, स्त्रीभोग एवं वस्त्रालंकार आदि से रहित हैं अतः उन्हें वहाँ कोई सुख नहीं है । वे अतीन्द्रिय हैं अत: उन्हें कोई जान भी नहीं सकता, इत्यादि रूप से सिद्धों का अवर्णवाद नहीं करना। यदि कोई कह रहा है तब उन्हें युक्तिपूर्वक समझाना कि संसार में जो-जो वस्तुएँ दुख का प्रतिकार करनेवाली हैं उन्हें अज्ञानी जन सुख का साधन मान लेते हैं, यह भूल है। जैसे औषधि रोग का प्रतिकार करनेवाली है, सुख देनेवाली नहीं। इसी प्रकार अन्न, जल एवं स्त्री-भोग आदि भूखादिकी वेदना को मात्र शमन करनेवाले हैं। जिनके भूख आदि की वेदना ही नहीं है उन्हें आहार-जल से और जिनके शरीर नहीं है उन्हें वस्त्रालंकार आदि से क्या प्रयोजन है। अतीन्द्रिय होते हुए भी वे केवलज्ञान और श्रुतज्ञान द्वारा जाने जाते हैं । इस प्रकार यह सिद्धों के प्रति दोषतिरस्क्रिया करण है। चैत्य - जैसे बालिकाएँ खेल में गुड्डा-गुड्डी आदि में पुत्रादि की कल्पना कर रमती हैं उसी प्रकार अजीव मूर्तियों में अर्हन्त-सिद्ध की कल्पना प्रयोजनभूत नहीं है क्योंकि इनमें वे गुण नहीं हैं, इत्यादि रूप अवर्णवाद नहीं करना चैत्य की दोष अवज्ञा है। कोई ऐसा कर रहा हो तो उसे समझाना चाहिए कि जैसे अर्हन्त देव शुभोपयोग के निमित्त हैं वैसे ही उनके बिम्ब भी शुभोपयोग में निमित्त हैं। इसलिए यह मात्र बौद्धिक कल्पना नहीं है। इसी प्रकार अन्य सभी में लगा लेना चाहिए। असंयतसम्यग्दृष्टि भी अल्पसंसारी होता है मृतावाराधयन्नेवं, निश्चरित्रोऽपि दर्शनम्। प्रकृष्ट-शुभलेश्याको, जायते स्वल्प-संसृतिः॥५१॥ अर्थ - इस प्रकार सम्यक्त्व की आराधना करने वाला यद्यपि कोई मरण समय असंयत भी होता है, तो भी उत्कृष्ट एवं शुद्ध लेश्या वाला होने के कारण अल्प संसारी होता है।५१|| Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - २५ सम्यक्त्व के आराधक कौन-कौन होते हैं रोचका जन्तवो भक्त्या, स्पर्शका: प्रतिपादकाः । आगमस्य समस्तस्य, सम्यक्त्वाराधका मताः॥५२॥ अर्थ - समस्त आगमार्थ की रुचि वाले, भक्ति से स्पर्श करने वाले एवं उस अर्थ का प्रतिपादन करने वाले जीव सम्यक्त्व के आराधक माने गये हैं।॥५२॥ सम्यक्त्व आराधना रूप परिणामों के भेद एवं उनका फल उत्कृष्टा मध्यमा हीना, सम्यक्त्वाराधना त्रिधा। उत्कृष्ट-लेश्यया तत्र, सिद्धयत्युत्कृष्टया तया॥५३ ।। भवन्त्यन्ये भवा: सप्त, मध्यया मध्यलेश्यया । संख्याता वाप्यसंख्याता, हीनया हीनलेश्यया ।।५४॥ अर्थ - उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य के भेद से सम्यक्त्वाराधना तीन प्रकार की है। उत्कृष्ट शुक्ललेश्या सहित उत्कृष्ट सम्यक्त्वाराधना में मोक्ष प्राप्त करता है ।।५३ ।। मध्यम शुक्ल लेश्या के साथ मध्यम सम्यक्त्वाराधना से मात्र सात भव शेष रहते हैं और जघन्य लेश्या के साथ जघन्य सम्यक्त्वाराधना से संख्यात अथवा असंख्यात भव अवशेष रहते हैं ||५४|| उपर्युक्त तीनों आराधनाओं के स्वामी तत्र केवलिनो वर्या, मध्या सा शेषसदृशाम् । असंयतस्य सदृष्टीनं संक्लिष्ट-चेतसः ।।५५॥ अर्थ - उत्कृष्ट आराधना केवलियों के होती है, मध्यम आराधना (देशचारित्र एवं सकल चारित्र युक्त) शेष सम्यग्दृष्टियों के होती है और जघन्य सम्यक्त्व आराधना संक्लेश परिणामवाले अविरत सम्यग्दृष्टियों के होती है॥५५॥ प्रश्न - सम्यक्त्वाराधना की उत्कृष्टता कैसे होती है ? उत्तर - सम्यक्त्व के दो भेद हैं - (१) सराग सम्यक्त्व और (२) वीतराग सम्यक्त्व । राग के दो भेद हैं (१) प्रशस्त राग तथा (२) अप्रशस्त राग । अरहन्त-सिद्ध आदि पंच परमेष्ठी एवं उनके गुणों में, आगम में, चैत्य-चैत्यालय आदि में होने वाला अनुराग प्रशस्तराग है। अप्रशस्तराग के दो भेद हैं - एक तो मन को प्रिय लगने वाले इन्द्रियविषयों में होने वाला राग और दूसरा मिथ्या देवों में, उनके सिद्धान्तों में, उनके द्वारा दर्शाये गये मार्ग में एवं उनके अनुयायियों में प्रवर्तमान राग दृष्टिराग है। इनमें से प्रशस्तराग सहित जीवों का श्रद्धान सराग सम्यग्दर्शन एवं सर्व राग से रहित तथा जिनका मोह और आवरण क्षीण हो गया है उनका श्रद्धान वीतराग सम्यग्दर्शन है, उनकी आराधना उत्कृष्ट है। अर्थात् सम्पूर्ण राग एवं मल के अभाव से तथा त्रिकालवर्ती पदार्थों के यथार्थ स्वरूप को ग्रहण करने वाले केवलज्ञान से उस आराधना को उत्कृष्टता प्राप्त होती है। Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परणकण्डिका - २६ जघन्य सम्यक्त्वाराधना का माहात्म्य संख्यातामण्यसंख्यातामनुसृत्याथ संसृतिम् । मृत्युकालेऽनुगच्छन्तो, जीवा: सिध्यन्ति दर्शनम् ।।५६ ।। अर्थ - जो सम्यक्त्व के साथ मरते हैं वे संख्यात अथवा असंख्यात भव संसार-परिभ्रमण कर अवश्यमेव सिद्धि प्राप्त कर लेते हैं ।।५६ ॥ प्रश्न - जिस जीव को एक बार सम्यक्त्व हो जाता है वह तो अवश्य ही मोक्ष जाता है, फिर यहाँ सम्यक्त्व का क्या माहात्म्य दर्शाया गया है ? उत्तर - सम्यक्त्व होने की अपेक्षा मृत्यु के समय तक सम्यक्त्व बना रहना अति दुर्लभ है, क्योंकि मृत्यु के समय होने वाली वेदना एवं संक्लेश के कारण सम्यक्त्व, देशसंयम या सकलसंयम प्रायः छूट जाते हैं। अतः जीवन में सम्यक्त्व हुआ, यह महत्त्वपूर्ण है। किन्तु मरणोपरान्त स्थित रहा, यह इससे भी अनन्तगुणा महत्त्वपूर्ण है। इसी प्रकार जीवनभर देशव्रत या महाव्रत का पालन किया इस महत्त्व से सम्यक्त्व, सहित वह चारित्र प्राणान्त पर्यन्त बना रहे इसका महत्त्व बहुत अधिक है। विरले ही जीव सम्यक्त्व सहित मृत्यु प्राप्त कर पाते हैं तथा सम्यक्चारित्र सहित मृत्यु प्राप्त करने वाले जीव तो अति विरले हैं। सम्यक्त्व का माहात्म्य मुहूर्त पिलो जता, जीला मुञ्चन्ति दर्शनम् । नानन्तानन्तसंख्याता, तेषामद्धा भव-स्थितिः ॥५७ ।। ॥ इति बालमरणाधिकारं समाप्तम् ॥ ____ अर्थ - जो अन्तर्मुहूर्त मात्र भी सम्यक्त्व को प्राप्त कर सम्यक्त्व से गिर जाते हैं, उन जीवों के संसार में रहने का काल संख्या से अनन्तानन्तभव प्रमाण नहीं होता है अर्थात् अर्धपुद्गल परिवर्तन से अधिक नहीं होता ||५७|| ॥ इस प्रकार बालमरण का कथन समाप्त हुआ ॥ बालबाल मरणाधिकार: सम्यक्स बिना मात्र बाह्य चारित्र से आराधक नहीं होता संयतोऽसंयतो वा यो, मिथ्यात्व-कलुषी-कृतम्। विदधात्यधम: कालं, कस्याप्याराधको न सः ॥५८ ।। अर्थ - जो मिथ्यात्व से कलुषित होकर मरण को प्राप्त होता है वह बाह्य से संयमी हो या असंयमी हो किन्तु वह किसी भी आराधना का आराधक नहीं होता। अर्थात् आराधना सम्यक्त्व के सद्भाव में ही होती है।।५८ ॥ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका २७ मिथ्यात्व का लक्षण और भेद जिनैरभाणि मिथ्यात्वं तत्त्वार्थानामरोचनम् । इदं सांशयिकं जन्तोर्गृहीतमगृहीतकम् ।।५९ ।। अर्थ - तत्त्वार्थों में अवि होना वियत्व है, ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है। जीव का यह मिथ्या परिणाम तीन प्रकार का होता है - सांशयिक मिथ्यात्व गृहीत मिथ्यात्व और अगृहीत मिथ्यात्व ॥ ५९ ॥ तीनों मिध्यात्वों के लक्षण तत्र जीवादि - तत्त्वानां कथितानां जिनेश्वरैः । विनिश्चय-पराचीना, दृष्टि: सांशयिको मता ॥ ६० ॥ परोपदेश- सम्पन्नं, गृहीतमभिधीयते । निसर्ग सम्भवं प्राज्ञैर्मिथ्यात्वमगृहीतकम् ॥ ६१ ॥ अर्थ - जिनेन्द्र द्वारा प्रतिपादित जीवादि तत्त्वों का निश्चय नहीं होना अर्थात् जिनेन्द्रोपदिष्ट तत्त्व सत्य है या अन्य द्वारा कहा सत्य है, इस प्रकार का संशय होना सांशयिक मिथ्यात्व है || ६० || कुगुरु आदि के उपदेश एवं संगति आदि से जो अतत्त्व श्रद्धा होती है वह गृहीत मिथ्यात्व हैं तथा जो स्वभाव से ही मिथ्यात्वरूप भाव होता है प्राज्ञ पुरुषों ने उसे अगृहीत मिथ्यात्व कहा है ॥ ६१ ॥ मिथ्यात्व का प्रभाव अहिंसादि-गुणाः सर्वे व्यर्था मिध्यात्व - भाविते । कटुकेऽलाबुनि क्षीरं, सफलं जायते कुतः ॥ ६२ ॥ अर्थ - कड़वी तुम्बड़ी या तूम्बी में रखा हुआ दूध सफल अर्थात् मधुर कैसे हो सकता है ? अर्थात् नहीं हो सकता। उसी प्रकार मिथ्यात्व युक्त जीव के अहिंसा आदि सर्व गुण या व्रत व्यर्थ हैं। अर्थात् वे सफल नहीं हो सकते ॥ ६२ ॥ सर्वे दोषाय जायन्ते, गुणा: मिथ्यात्वदूषिताः । किमौषधानि निघ्नन्ति, सविषाणि न जीवितम् ॥ ६३ ॥ अर्थ - मिथ्यात्व से दूषित हुए अहिंसा आदि सर्वगुण दोष के लिए अर्थात् दूषित हो जाते हैं। क्या विषमिश्रित औषधियाँ जीवन का नाश नहीं करती हैं? अवश्य करती हैं ॥ ६३ ॥ निर्वृतिं संयमस्थोऽपि न मिथ्यादृष्टिरश्नुते । जवनोऽप्यन्यतो यायी, किं स्वेष्टं स्थानमृच्छति ॥ ६४ ॥ अर्थ - मिध्यादृष्टि जीव संयम में स्थित होकर भी मोक्ष प्राप्त नहीं कर पाता। विपरीत दिशा में वेग से गमन करने वाला भी पथिक क्या अपने इष्ट स्थान पर पहुँच सकता है? नहीं पहुँच सकता ॥ ६४ ॥ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - २८ प्रश्न - वेग से चलने वाला भी पथिक इष्ट स्थान को प्राप्त क्यों नहीं कर पाता? उत्तर - जैसे जयपुर से सम्मेदशिखर जाने की इच्छा रखने वाला पथिक यदि वेग से पश्चिम की ओर दौड़ रहा हो तो सम्मेदशिखर नहीं पहुँच सकता। उसी प्रकार मोक्ष का इष्ट और सहजमार्ग सम्यक्त्व सहित चारित्र एवं तप है, उस सम्यक्त्व से रहित मिथ्यादृष्टि जीव कितने भी उत्कृष्ट चारित्र का पालन करे तथा कठोर तप तपे किन्तु वह रत्नत्रय स्वरूप मोक्षमार्ग को और मोक्ष को प्राप्त नहीं कर सकता। तहीन मिथ्यादृष्टि दीर्घसंसारी होता है न विद्यते व्रतं शोलं, यस्य मिथ्यादृशः पुनः । न कथं दीर्घ-संसारमात्मानं विदधाति सः ।।६५ ।। अर्थ - जिस मिथ्यादृष्टि जीव के व्रत-शील आदि कुछ भी नहीं हैं वह दीर्घसंसारी कैसे नहीं होगा? वह तो अवश्य ही अपनी आत्मा को दीर्घसंसारी बना लेता है ।।६५ ।। मिथ्यात्व की कणिका भी दीर्घसंसार का कारण है अरोचित्वाज्जिनाख्यातं एकमप्यक्षरं मृतः। निमज्जति भवाम्भोधौ, सर्वस्यारोचको न किम् ॥६६॥ अर्थ - जिनोपदिष्ट आगम के एक अक्षर पर भी अश्रद्धा करने वाला व्यक्ति मरकर जब भवसमुद्र में डूब जाता है तब सम्पूर्ण आगम पर अश्रद्धा करने वाले के विषय में तो कहना ही क्या है! ॥६६॥ प्रश्न - आगम के एक अक्षर पर भी श्रद्धा न होने का विषय पूर्व में भी कहा जा चुका है, उसे पुनः क्यों कहा जा रहा है? उत्तर - श्लोक ४२ में कहा गया था कि जिसे सम्पूर्ण आगम पर तो श्रद्धा है किन्तु यदि जिनोपदिष्ट एक अक्षर पर श्रद्धा नहीं है तो वह मिथ्यावृष्टि है; यहाँ कहा जा रहा है कि एक अक्षर पर अश्रद्धा करने वाला भी जब दीर्घसंसारी होता है तब सर्वागम पर अश्रद्धा करने वाले के प्रति क्या कहा जाय ? इस प्रकार दोनों के कथन में विषयभेद है। संख्येयाः सन्त्यसंख्येया, बाल-बालमृतौ भवाः । भव्य-जन्तोरनन्ता वा, परस्य गणनातिगाः ।।६७।। अर्थ - बालबाल मरण से मरने वाले भव्य जीव के संख्यात, असंख्यात अथवा अनन्तभन्न शेष रहते हैं और अभव्य के गणनातीत अर्थात् अनन्तानन्त भव होते हैं ।।६७।। अनन्तेनापि कालेन, प्रभज्य भव-पञ्जरम् । सिद्धयन्ति भविनो भव्या, नाभव्यास्तु कदाचनम् ॥६८।। ॥ इति बालबालमरणाधिकारं समाप्तम् ।। अर्थ - भव्यजीव अनन्तकाल भवभ्रमण करके भी भव-पंजर का नाश कर मुक्त हो जाते हैं, किन्तु अभव्यजीव कदापि मोक्ष नहीं जाते। अर्थात् वे सदैव चतुर्गतियों में ही भ्रमण करते रहते हैं ।।६८ ॥ ॥ इस प्रकार बालबालमरण का वर्णन समाप्त हुआ ।। Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. में अर्थ - प्रशस्त मरणों में सर्वप्रथम भक्त प्रत्याख्यान का वर्णन किया जाता है क्योंकि वर्तमान काल यह मरण सम्भव है। शेष दो इंगिनी और प्रायोपगमनमरण का वर्णन आगे करूँगा ।।६९ ॥ मरणकण्डिका - २९ (३) भक्तप्रत्याख्यानमरण 'अर्ह' आदि अधिकार पण्डितमरण के अन्तर्गत भक्तप्रत्याख्यानमरण के कथन की सूचना भक्तत्याग: प्रशस्तेषु मध्ये मृत्युषु वर्ण्यते । आदावद्य भवत्वेन, शेषवर्णनमग्रतः ॥६९ ॥ अर्थ - भक्तप्रत्याख्यान दो प्रकार का कहा गया है। सवीचार और अवीचार। जिसकी दीर्घ आयु है उसके सवीचार और जिसकी अल्पायु है उसके अवीचार भक्तप्रत्याख्यानमरण होता है ॥ ७० ॥ प्रश्न- यहाँ दीर्घायु और अल्प आयु का क्या अभिप्राय है ? उत्तर - जिसके अकस्मात्, तत्क्षण आयुनाश के कारण उपस्थित नहीं हुए हैं, और जिसकी अभी इतनी आयु है कि वह बुद्धिपूर्वक शनै: शनै: आहार आदि के त्यागपूर्वक शरीर कृश कर सकता है वह दीर्घायु है, तथा जिसके आयुनाश के कारण सहसा उपस्थित हो गये हैं उसे अल्पायु कहा गया है। भक्तप्रत्याख्यान मरण के चालीस सूत्र हैं ? प्रश्न भक्तप्रत्याख्यान के भेद और स्वामी सवीचारमवीचार, भक्तत्यागं द्विधा विदुः । शक्यश्चिरायुषामद्यस्तत्रान्योऽन्यस्य कथ्यते ॥ ७० ॥ अर्थ - सवीचार भक्त प्रत्याख्यानमरण की विवक्षा करने के इच्छुक बुद्धिमान व्यक्ति को ये चालीस सूत्र जानने । अर्थात् इस मरण को समझने के लिए चालीस प्रकरण हैं ।। ७१ ।। - प्रस्तावना अह, लिंग, शिक्षा', विनय, समाधि, अनियतविहार, परिणाम", उपधित्याग', श्रिति, भावना, सल्लेखना ", दिक्", क्षमणा", अनुशिष्टि", परगणचर्या", मार्गणा", सुस्थित, उपसर्पण", निरूपण, प्रतिलेख, पृच्छा, " एकसंग्रह, आलोचना, गुणदोष, शय्या", संस्तर", निर्यापक, प्रकाशन, हानि, प्रत्याख्यान", क्षामण, क्षपणा, अनुशिष्टि, सारणा, कवच, समता, ध्यान, ' लेश्या", फल, आराधक", त्याग लक्षणानि चत्वारिंशत्सूत्राणि ॥ ७२ ॥ भक्तप्रत्याख्यान मरण के उपर्युक्त चालीस अधिकारों में से प्रत्येक के अतिसंक्षिप्त लक्षण क्या - भक्तत्यागं सवीचारं, मृत्युं तत्र विवक्षुणा । चत्वारिंशद्विबोध्यानि, सूत्राणीमानि धीमता ।।७१ ॥ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ३० उत्तर - उपयुक्त चालीस अधिकारों में से प्रत्येक के संक्षिप्त लक्षण इस प्रकार हैं १. अर्ह - अर्ह का अर्ध (लिङ्ग, शिक्षा, विनय, समाधि आदि धारण करने) योग्य है। यह जीव सवीचार भक्तप्रत्याख्यान के योग्य है और यह जीव योग्य नहीं है। यह प्रथम अधिकार है जो कर्ता के व्यापार से सम्बद्ध है। २. लिंग - लिंग शब्द चिह्न का वाची है। पिच्छिका ग्रहण, निर्ग्रन्थ मुद्रा एवं तैलादि के संस्कार से रहितता इत्यादि। जैसे सर्व सामग्री के एकत्र होने पर घट तैयार होता है उसी प्रकार व्यक्ति योग्य साधन-सामग्री के होने पर सल्लेखनादि करने में समर्थ होता है। ३ शिक्षा - शृत ज्ञान का आगगन । इसमें कहा जायेगा कि जिनवचन कालिमा को दूर करते हैं अतः उन्हें अहर्निश पढ़ना चाहिए। ४. विनय - दर्शन, ज्ञान, चारित्र एवं पंच परमेष्ठी की मर्यादापूर्वक व्यवस्था करमा विनय है। आगे ज्ञान आदि भावना की व्यवस्था ज्ञानादि की बिनय के रूप में करेंगे। ५. समाधि - सम का अर्थ एकीभाव है। शुभोपयोग एवं शुद्धोपयोग में मन की एकाग्रता होना समाधि ६. अनियत विहार - अनियत क्षेत्र में रहना। अथवा यत्र-तत्र विहार करना | ७. परिणाम - यहाँ साधु के द्वारा अपने कर्तव्य की आलोचना को परिणाम कहा गया है। ८. उपधि त्याग - परिग्रह का त्याग । ९. श्रिति - श्रिति का अर्थ सोपान है। अर्थात् शुभ परिणामों की उत्तरोत्तर वृद्धि । १०. भावना - अभ्यास या बार-बार प्रवृत्ति करना। या संक्लिष्ट भावना का त्याग और शुभ भावना का ग्रहण। ११. सल्लेखना - कषाय और काय को सम्यक्रोति से कृश करना । १२. दिशा - समाधि के इच्छुक आचार्य अपने स्थान पर (आचार्य पद पर) नवीन आचार्य को स्थापित कर कहते हैं कि यह आपको परलोक की दिशा दिखाते हुए मोक्षमार्ग का उपदेश देगा, यह दिशा प्रकरण का विषय है। १३. क्षमणा - क्षमा ग्रहण करने को क्षमणा कहते हैं। १४. अनुशिष्टि - शास्त्रानुसार शिक्षा देना। १५. परगणचर्या - समाधि के लिए अपने संघ का परित्याग कर दूसरे गण में जाना। १६. मार्गणा - अपने रत्नत्रय की विशुद्धि अथवा समाधिमरण कराने में समर्थ आचार्य की खोज करना। Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ३१ १७. सुस्थित - पर के उपकार और अपने प्रयोजन में भली प्रकार स्थित-आचार्य को सुस्थित कहते १८. उपसर्पण - आचार्य के पास जाना । अर्थात् समाधिमरण कराने में समर्थ आचार्य के चरणों में समर्पण कर देना। १९. निरूपण या परीक्षा - गण, परिचारक, आराधक, उत्साह शक्ति तथा यह आराधक आहार की अभिलाषा छोड़ने में समर्थ है या नहीं, इन सबकी परीक्षा करना निरूपण या परीक्षा है। २०. प्रतिलेख - आराधना की सिद्धि बिना बाधा होगी या नहीं ? तथा देश, राज्य, ग्राम, नगर आदि और वहाँ का प्रधान ये सब आराधना के योग्य हैं या नहीं ? २१. पृच्छा - जब कोई आराधक समाधिमरण के लिए आवे तब आचार्य का अपने संघ से पूछना कि हम इसे स्वीकार करें या नहीं? २२. एकसंग्रह - परिचारक मुनियों की स्वीकृति मिल जाने पर एक आचार्य एक ही क्षपक को समाधि के लिए संस्तरारूढ़ कराते हैं। २३. आलोचना - दीक्षाकाल से अद्यावधि लगे हुए दोषों को गुरु के समक्ष कहना। २४. गुणदोष - आलोचना के गुण-दोषों का कथन । २५. शय्या - आराधक के रहने का स्थान अर्थात् वसतिका कैसी हो। २६. संस्तर - तृण, काष्ठ आदि का संस्तर, जिस पर क्षपक लेटता है वह कैसा हो। २७. निर्यापक - आराधक की समाधि में सहायक आचार्य एवं मुनिजन कैसे हों। २८. प्रकाशन - आराधक के सामने अन्तिम आहार का प्रकाशन। २९. हानि - आराधक से क्रमशः आहार-जल का त्याग कराना। ३०. प्रत्याख्यान - तीनों प्रकार के आहार का त्याग करना । ३१. क्षामण - आराधक का आचार्य एवं संघ से क्षमा मांगना । ३२. क्षपणा - क्षपक द्वारा कर्मों की निर्जरा होने का कथन । ३३. अनुशिष्टि - निर्यापकाचार्य का क्षपक को उपदेश देना। ३४. सारणा - दुख से पीड़ित होकर बेहोश हुए आराधक को सचेत करना। ३५. कवच - जैसे कवच में सैकड़ों बाणों से होने वाले प्रहार को रोकने का सामर्थ्य है, वैसे ही निर्यापकाचार्य जो धर्मोपदेश देते हैं वह आराधक को दुखों से बचाता है अत: उसे कवच कहते हैं। ३६. समता - जीवन-मरण, लाभ-हानि, संयोग-वियोग, सुख एवं दुख आदि में राग-द्वेष नहीं करना, समभाव रखना, उपेक्षा बुद्धि रखना। Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ३२ ३७. ध्यान - धर्मध्यान आदि का सविस्तार वर्णन | ३८. लेश्या - लेश्या के लक्षण आदि एवं किस लेश्या में मरण होने पर आराधक किस गति में जाता है? आदि का वर्णन। ३९. फल - आराधनानुसार साध्य की सिद्धि । ४०. आराधक के शरीर का त्याग - समाधि के बाद आराधक के शरीर का त्याग एवं संघ का कर्तव्य। . इतने अधिकारों से भक्तप्रत्याख्यानमरण का प्रतिपादन किया जायेगा। १. अई शिकार अर्ह अर्थात् संन्यासमरण के योग्य कीन है रोगो दुरुत्तरो यस्य, जरा श्रामण्यहारिणी। तिर्यग्भिर्मानवैर्देवैरुपसर्गाः प्रवर्तिताः॥७३॥ अर्थ - जिसके दुस्साध्य व्याधि हो, या श्रमणता को हानि पहुँचाने वाली वृद्धावस्था आ गई हो या तिर्यचकृत, मनुष्यकृत और देवकृत उपसर्ग हो वह भक्तप्रत्याख्यान सल्लेखना करने के योग्य है ।।७३ ।। अनुकूलैर्गृहीतो वा, वैरिभिर्वृत्त-हारिभिः । योऽटव्यां पतितो घोरे, दुर्भिक्षे च दुरुत्तरे ॥७४॥ अर्थ - अनुकूल अर्थात् बन्धु या मित्र हों या शत्रु हों जो चारित्र का विनाश करने वाले हों, भयंकर दुर्भिक्ष हो अथवा भयंकर जंगल में भटक गया हो तो वह भक्तप्रत्याख्यान के योग्य होता है ।।७४॥ दुर्बलौ यस्य जायते, श्रवणौ चक्षुषी तथा। विहर्तुं न समर्थो यो, जवाबलविवर्जितः ।।७५ ॥ अर्थ - जिसके कान दुर्बल हो गये हों तथा चक्षु दुर्बल हो गये हों, या विहार करने में जो समर्थ न हो या जिसका जंघाबल हीन हो गया हो॥७५ ॥ ___ प्रश्न - यहाँ कर्ण और चक्षु की दुर्बलता का क्या अभिप्राय है? उत्तर - अल्पशक्तिवाली और सूक्ष्मवस्तु को न देख सकने वाली चक्षु दुर्बल है तथा शब्द का ज्ञान कराने में असमर्थ कर्ण दुर्बल हैं। दुर्वारं कारणं यस्य जायतेऽन्यदपीदृशम् । भक्तत्यागमृतेर्योग्यः, संयतोऽसंयतोऽपि सः ॥७६ ॥ अर्थ - उपर्युक्त कारणों के सदृश अन्य भी ऐसे दुर्निवार कारण उपस्थित हो जाने पर संयमी, (देशसंयमी) एवं असंयमी भी भक्त-प्रत्याख्यान संन्यासमरण के योग्य होता है ।।७६ ।। Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ř मरणकण्डिका - ३३ ये भक्तप्रत्याख्यान के अयोग्य हैं प्रवर्तते सुखं यस्य श्रामण्यमपदूषणम् । दुर्भिक्षान्न भयं योग्या, दुरापा न च सूरयः ॥ ७७ ॥ अर्थ - जिसका चारित्र बिना किसी क्लेश या अतिचार के सुख-शान्तिपूर्वक पालित हो रहा है, दुर्भिक्ष का भय नहीं है और समाधि कराने में सहायक निर्यापकाचार्य की प्राप्ति भी आगे दुर्लभ नहीं है तो ऐसे साधु भक्तप्रत्याख्यान मरण के अयोग्य हैं अर्थात् उन्हें उस समय समाधि धारण नहीं करनी चाहिए ॥ ७७ ॥ नासार्हति संन्यासमदृष्टे पुरतो भये । मरणं याचमानोऽसौ निर्विण्णो वृत्ततः परम् ॥ ७८ ॥ ॥ इति अर्हः ॥ अर्थ - जिसके सामने आगामी काल में भय उपस्थित नहीं है वह साधु अनर्ह है, उसका भक्तप्रत्याख्यान योग्य नहीं है। यदि भय न होने पर भी कोई मुनि भरण की प्रार्थना करता है तो वह मुनिधर्मरूप उत्तम चारित्र से विरक्त हुआ है ऐसा समझना चाहिए ॥ ७८ ॥ || इस प्रकार अर्ह अधिकार पूर्ण हुआ ।। - २. लिंगाधिकार लिंग के भेद तदत्सर्गिक-लिङ्गानां, लिङ्गमौत्सर्गिकं परम् । अनौरसर्गिक लिङ्गानामपीदं वर्ण्यते जिनैः ।। ७९ ।। अर्थ - जिनेन्द्रदेव ने लिंग के दो भेद कहे हैं। औत्सर्गिक लिंग और अनौत्सर्गिक लिंग। औत्सर्गिक लिंग वालों के औत्सर्गिक लिंग होता है। इसे उत्सर्ग भी कहते हैं, यह सर्वोत्कृष्ट लिंग है। अनौत्सर्गिक लिंग वालों के अनौत्सर्गिक लिंग होता है। इसे अपवाद लिंग भी कहते हैं ।। ७९ ।। प्रश्न औत्सर्गिक और अनौत्सर्गिक लिंग किसे कहते हैं और इनके स्वामी कौन हैं? उत्तर - सकल परिग्रह के त्याग को उत्सर्ग कहते हैं, और इससे होने वाले निर्ग्रन्थरूप को औत्सर्गिक या उत्सर्ग लिंग कहते हैं। जो इस औत्सर्गिक लिंग का धारी है और वह यदि भक्तप्रत्याख्यान मरण का इच्छुक है तो उसका वही लिंग रहता है जिसे उसने पूर्व में ग्रहण किया था । अर्थात् औत्सर्गिक लिंग ही रहता है। यह लिंग निर्ग्रन्थ मुनिराजों के ही होता है। परिग्रह को अपवाद कहते हैं, अतः परिग्रह सहित लिंगवाले को आपवादिक या अनौत्सर्गिक कहते हैं। ये यदि भक्तप्रत्याख्यान करना चाहते हैं तो उन्हें सकल परिग्रह का त्याग कर अर्थात् दीक्षा ग्रहण कर निर्ग्रन्थ होना पड़ता है, किन्तु यह नग्नता वही धारण कर सकता है जिसका पुरुष लिंग प्रशस्त हो । अर्थात् लिंग चर्म सहित हो, अति दीर्घ न हो, अति स्थूल न हो, बार-बार उत्तेजित न होता हो और अण्डकोष भी लटकते हुए लम्बे न हों। अर्थात् पुरुष लिंग अप्रशस्त न हो तो वह औत्सर्गिक लिंग धारण कर सल्लेखना ग्रहण कर सकता है I Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ३४ अप्रशस्त लिंग वाला भी औत्सर्गिक लिंग धारण कर सकता है यस्य त्रि-स्थानगो दोषो, दुर्निवारो विरागिणः। लिंगमौत्सर्गिकं तस्मै, संस्तरस्थाय दीयते ।।८।। अर्थ - जिसके लिंग और दोनों अण्डकोष इन तीन स्थानों में कोई ऐसा दोष हो जो औषधि आदि से भी दूर नहीं हो सकता हो और वह गृहस्थ वैराग्यवान हो तो उसे वसतिका में संस्तर ग्रहण करा देने के बाद औत्सर्गिक लिंग दिया जा सकता है।।८।। प्रशस्त लिंग वाला भी आपवादिक लिंगी होता है समृद्धस्य सलज्जस्य, योग्यं स्थानमविंदतः । मिथ्यादृक् प्रचुरज्ञातेरनौत्सर्गिक मिष्यते ।।८१॥ अर्थ - जो महान् सम्पत्तिशाली है, या लज्जाशील है या जिसके स्वजन अर्थात् बन्धुवर्ग मिथ्यादृष्टि या विधर्मी हैं या लोगों के आवागमन आदि के कारण स्थान अयोग्य है तो उस गृहस्थ को आपबादिक लिंग में अर्थात् वस्त्र सहित अवस्था में ही यथायोग्य सल्लेखना करा देनी चाहिए ॥८१॥ औत्सर्गिक लिंग का स्वरूप औत्सर्गिकमचेलत्वं, लोचो व्युत्सृष्ट-देहता। प्रतिलेखनमित्येवं, लिझामुक्तं चतुर्विधम् ।।८२ ।। अर्थ - अचेलता अर्थात् वस्त्रमात्र का त्याग, हाथ से शिर और दाढ़ी-मूंछ के केश उखाड़ना, व्युत्सृष्टदेहता अर्थात् शरीर से ममत्व त्याग तथा प्रतिलेखन अर्थात् पिच्छिका ग्रहण, औत्सर्गिक लिंग में ये चार बातें होना आवश्यक है। अर्थात् निर्ग्रन्थ मुनिराजों के ये चार चिह्न महत्त्वपूर्ण हैं। इन चार के बिना मुनिवेष असंभव है।।८२॥ उत्सर्ग लिंग के गुण यात्रासाधन-गार्हस्थ्य-विवेकात्मस्थितिक्रिया। परमो लोक-विश्वासो, गुणा-लिङ्नामुपेयुषः ॥८३॥ अर्थ - उत्सर्ग लिंग यात्रा का साधन है, गृहस्थ से पृथक्करणरूप है, आत्मस्थितिरूप है, श्रेष्टहै और जगत् के विश्वास का कारण है। उत्सर्ग लिंग में ये गुण प्रमुख हैं ।।८३ ।। प्रश्न - इन प्रमुख गुणों का विशेष क्या है? उत्तर - (१) यात्रा साधन - दिगम्बर मुद्रा मोक्षमार्ग की हेतु है, इसका हेतु साधु का शरीर है और शरीर स्थिति का हेतु आहार है तथा इस आहार का साधन उत्सर्ग लिंग है। अर्थात् गृहस्थ आदि के वेष में जनता गुणज्ञ नहीं मानती और उसके बिना आहार नहीं मिल सकता । ये रत्नत्रय धर्मधारी होने से मोक्षमार्ग के पथिक हैं, ऐसी श्रद्धा ही - गृहस्थ को आहारदान आदि की प्रेरक है अतः उत्सर्गलिंग यात्रा का साधन कहा गया है। (२) गृहस्थ से पृथक्करण - गृहस्थ आरम्भ-परिग्रह से युक्त होने के कारण वस्त्रधारी होते हैं अत: यह निर्ग्रन्थ लिंग उन गृहस्थों से भिन्नता का द्योतक है। Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ३५ (३) आत्मस्थिति - अपनी अस्थिर आत्मा को मोक्षमार्ग में स्थिर करना यह आत्मस्थिति है। उत्सर्ग लिंगवाला विचार करता है कि जब मैंने वस्त्रों का ही त्याग कर दिया है तब मुझे राग, रोष, मान, माया और लोभ से क्या प्रयोजन है। लोक में सब अलंकरण वस्त्रमूलक हैं, जब वस्त्रों का ही त्याग हो गया है तब मुझे राग से क्या प्रयोजन है। परिग्रह क्रोध का कारण होने से दुखदाई है। परिग्रह का त्याग करके भी यदि क्रोध नहीं छोडूंगा तो संघ मेरी हँसी करेगा और यह क्रोधरूपी अग्नि, ज्ञान रूपी जल के सिंचन से फले-फूले मेरे तपोवन को नष्ट कर देने वाली है अतः इससे भी मुझे कोई प्रयोजन नहीं है। इस प्रकार मान, माया एवं लोभादि के प्रति चिन्तन कर वह अपनी आत्मा को रत्नत्रय में स्थिर करता है। (४) जगत् के विश्वास का कारण - सकल परिग्रह का त्याग मुक्ति का मार्ग है, इसमें यह यधाजातरूप, सहज स्वाभाविक वेष भव्य जीवों के विश्वास एवं श्रद्धा में कारण होता है कि जो वस्त्रों को भी त्याग चुका है वह हमारी वस्तुएँ नहीं चुरायेगा। जो शरीर से भी निरपेक्ष है वह लोभ के वशीभूत होकर धन आदि से प्रयोजन नहीं रखेगा, निर्विकार होने से महिलाओं की ओर आकर्षित नहीं होगा, इत्यादि । उत्सगं लिंग के अन्य गुण परिकर्म-भय-ग्रन्थ-संसक्ति-प्रतिलेखनाः। लोभ-मोह-मद-क्रोधाः, समस्ता: सन्ति वर्जिताः॥८४ ॥ अर्थ - उत्सर्ग लिंग में परिकर्म, भय, ग्रन्थ, संसक्ति, प्रतिलेखन, लोभ, मद, मोह और क्रोध आदि दोषों का त्याग हो जाने से अनेक गुण प्रगट हो जाते हैं।।८४ ।। प्रश्न - इन परिकर्म आदि दोषों का नाश कैसे होता है और गुण कैसे प्रगट होते हैं? उत्तर - निष्परिग्रही साधु को वस्त्रों की याचना, उन्हें धोना, सुखाना, उठाना एवं सीना आदि परिकर्म में समय नहीं लगाना पड़ता अतः स्वाध्याय एवं ध्यान आदि निराकुलतापूर्वक सम्पन्न होते हैं, अतः परिकर्म नष्ट होने से गुण उत्पन्न होता है। परिग्रह के त्याग से चोर आदि का भय नहीं होता अत: निर्भयता प्रगट होती है। ग्रन्थ अर्थात् परिग्रह के त्याग से आसक्ति का अभाव हो जाता है और छाती पर से मानों पहाड़ ही हट गया हो ऐसा लाधव गुण प्रगट हो जाता है। वस्त्रों के सम्बन्ध से जूं, लीख आदि सम्मूर्छन जीवों का संसर्ग होता रहता है, वस्त्रत्यागी के इस संसक्ति दोष का अभाव हो जाता है। कोई पदार्थ पास में न रहने से उन्हें शोधन आदि नहीं करना पड़ता अतः अप्रतिलेखन गुण प्रगट हो जाता है। इसी परिग्रह से उत्पन्न होने वाले लोभ, मद, मोह और क्रोध आदि दोष परिग्रहत्याग के साथ ही नष्ट हो जाते हैं और शौच आदि गुण प्रगट हो जाते हैं। अङ्गाक्षार्थ-सुख-त्यागो, रूपं विश्वास-कारणम् । परीषह-सहिष्णुत्वमर्हदाकृति-धारणम् ॥८५।। अर्थ - उत्सर्ग लिंग शरीरसुख, इन्द्रियसुख और विषयसुख के त्याग का कारण है, विश्वास का हेतु है, परीषह सहिष्णुता का निमित्त है एवं अर्हन्त प्रभु की आकृति के अनुरूप है ।।८५ ॥ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ३६ स्ववशत्वमदोषत्वं, धैर्य-वीर्य-प्रकाशनम्। नानाकारा भवन्त्येवमचेलत्वे महागुणाः ॥८६ ।। अर्थ - इस लिंग में स्ववशता अर्थात् स्वाधीनता रहती है; राग, मोह एवं लोभादि दोष नष्ट हो जाते हैं और इस निर्ग्रन्थ वेष से आत्मा के धैर्य तथा वीर्य आदि गुण प्रगट हो जाते हैं। इस प्रकार अचेलत्व वेष में नाना प्रकार के महागुण निवास करते हैं ।।८६|| सम्यक्प्रवृत्त-निःशेष-व्यापारः समितेन्द्रियः । इत्थमुत्तिष्ठते सिद्धौ, नाग्न्य-गुप्तिमधिष्ठितः ।।८७ ।। अर्थ - इस प्रकार नग्नता एवं गुप्ति को धारण करने वाले इस लिंग में आसन, शयन, गमन एवं आहार आदि समस्त कार्य सम्यक् अर्थात् सावधानीपूर्वक होते हैं, सर्व इन्द्रियाँ सीमित अर्थात् वशीभूत हो जाती हैं और वह साधु सदैव आत्मसिद्धि के लिए उद्यमशील रहता है ।।८७ ।। __अपवादलिंगधारी भी शुद्ध हो सकता है आपवादिक लिङ्गोऽपि, निन्दा-गा-परायणः। जन्दावादकः शक्त:, सन्यासी विशुद्धाति अर्थ - अपवाद लिंग में स्थित होते हुए भी अपनी शक्ति को न छिपाते हुए और निन्दा-गर्दा करते हुए परिग्रह का त्याग करने पर शुद्ध होता है ।।८८ ।। प्रश्न - अपवादलिंगधारी कौन हैं और वे किसकी निन्दा-गर्दा करते हैं? उत्तर - अपवादलिंगधारी क्षुल्लक, क्षुल्लिका, श्रावक और श्राविका होते हैं। ये स्वयं की निन्दा करते हैं कि मुक्ति का साक्षात् कारण तो उत्सर्ग लिंग हैं किन्तु मैंने पूर्वजन्म में अवश्य कोई ऐसा पाप संचय किया है जिससे आज मैं उत्सर्ग लिंग धारण नहीं कर सकता। मुझ पापी ने परीषहों से डरकर ये वस्त्र आदि धारण कर रखे हैं, ऐसा अन्तः सन्ताप करता हुआ अपनी निन्दा करता है। गुरुजनों से कह कर गर्दा करता है और शक्तिप्रमाण परिग्रह का त्याग कर वह विशुद्ध परिणामों द्वारा अपनी आत्मा का शोधन करता है। प्रश्न - अपवाद लिंग में आर्यिका का ग्रहण क्यों नहीं किया गया? उत्तर - क्योंकि मुनि की भाँति आर्यिका भी उत्सर्ग लिंगधारी है। मूलाराधना में कहा है- "परमागम में स्त्रियों का अर्थात् आर्यिकाओं का और श्राविकाओं का जो उत्सर्गलिंग और अपवादलिंग कहा है वही लिंग भक्तप्रत्याख्यान के समय समझना चाहिए अर्थात् आर्यिकाओं का भक्तप्रत्याख्यान के समय उत्सर्गलिंग विविक्तस्थान में होना चाहिए अर्थात् वह भी मुनिवत् उस समय नग्नरूपता धारण करे ऐसी आगमाज्ञा है परन्तु श्राविका का उत्सर्ग लिंग भी है और अपवाद लिंग भी है। यदि वह श्राविका संपत्तिवाली अथवा लज्जावती होगी अथवा उसके बान्धवगण मिथ्यात्वी हों तो वह अपवादलिंग धारण करे अर्थात् पूर्व वेष में ही रह कर भक्तप्रत्याख्यान से मरण करे तथा जिस श्राविका ने अपना परिग्रह कम किया है वह एकान्त वसतिकास्थान में उत्सर्गलिंग-नग्नता धारण कर सकती है।" - मूलाराधना-भगवती आराधना पृ. २१०-११ गाथा ८१ की टीका का अनुवाद : जिनदास पार्श्वनाथ फड़कुले ॥ इस प्रकार उत्सर्ग लिंग अर्थात् अचेलगुण का वर्णन समाप्त हुआ। Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ३७ दोषों के निराकरण हेतु केशलोच किया जाता है संस्काराभावत: केशाः, सम्मूर्च्छन्ति निरन्तरम् । विशन्त्यागन्तवो जीवा, दूरक्षाः शयनादिषु ।।८९ ॥ अर्थ - संस्कार के अभाव में केश जूं, लीख आदि सम्पूर्छन जीवों के आधार होते हैं और वे सम्मूर्छन जीव शयन आदि के समय दुष्प्रतिकार होते हैं तथा अन्यत्र से आते हुए भी कीट आदि देखे जाते हैं।८९।। प्रश्न - केशलोच न करने में क्या दोष हैं ? उत्तर - साधुजन कभी पानी से बाल नहीं धोते, तेलादि का मर्दन नहीं करते एवं सुगन्धित वस्तु नहीं लगाते, अतः केशों में सम्मूर्च्छन जूं एवं लीखादि उत्पन्न हो जाते हैं, तब साधु के सोने पर, धूप में जाने पर एवं सिर के टकरा जाने पर उन जीवों को बाधा होती है। अर्थात् भिन्न देश, भिन्न काल एवं भिन्न स्वभाव होने से अथवा खुजली आदि करने से उन जीवों को पीड़ा होती है। जो जीव केशों में उत्पन्न होते हैं वे तो दुष्प्रतिकार हैं ही किन्तु अन्यत्र से आकर भी अनेक कीटाणु बालों में घुस जाते हैं। यदि दिगम्बर साधुओं की केशलोच व्यवस्था न होती तो अन्य मतावलम्बियों के साधुजनों में और इनमें भेद करना दुष्कर हो जाता। केशलोच न करने से ऐसे दोष उत्पन्न हो जाते हैं इसीलिए जिनेन्द्रदेव ने केशलोच करने की आज्ञा प्रदान की है। संक्लेश: पीड्यमानस्य, यूका-लिखेण दुःसहः। पीड्यते तच्च कण्डूतौ, यतो लोचस्ततो मतः ॥१०॥ अर्थ - जूं और लीखों से पीड़ित साधु के दुस्सह संक्लेश उत्पन्न होता है। खुजाने पर वे जूं आदि भी पीड़ित होते हैं, इस कारण यह केशलोच किया जाता है ।।९० ॥ केशलोच करने में अनेक गुण हैं मुण्डत्वं कुर्वतो लोचमस्त्यतो निर्विकारता। प्रकृष्टां कुरुते चेष्टां, वीतरागमनास्ततः ॥२१॥ अर्थ - लोच करने से सिर मुण्डा हो जाता है। सिर की मुण्डता से निर्विकारता आती है, विकार रहित क्रियाशील होने से प्रकृष्ट चेष्टा अर्थात् मुक्तिमार्ग सम्बन्धी ध्यानादि क्रिया में प्रवृत्ति हो जाती है और वीतरागभाव जाग्रत हो जाते हैं ॥११॥ प्रश्न - इस श्लोक का क्या अभिप्राय है ? उत्तर - मैं नग्न हूँ और शिर से मुण्डित हूँ, इस वेष में मेरा विलासपूर्ण गमन आदि देख कर लोग हँसेंगे कि नपुंसक के स्त्रीविलास के सदृश इस मुण्डित साधु की विलासिता कैसी शोभती है; ऐसा विचार कर तथा शृंगार, कथा, कटाक्षयुक्त निरीक्षण आदि विकारभावों को दूर कर वह साधु केवल मुक्ति के लिए उद्यम करता है। यह इस श्लोक का अभिप्राय है। दम्यमानस्य लोचेन, हषीकार्थेऽस्य नाग्रहः ।। स्वाधीनत्वमदोषत्वं, निर्ममत्वं च विग्रहे ॥१२॥ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ३८ अर्थ - केशलोच से मन दमित हो जाता है, इन्द्रियों के विषयों में प्रवृत्ति क्षीण हो जाती है, स्वाधीनता, निर्दोषता और निर्ममत्व भाव प्रगट हो जाते हैं।॥१२॥ आत्मीया दर्शिता श्रद्धा, धर्मे लोचं वितन्यता। भाषितं सकलं दुःखं, दुश्चरं चरितं तपः॥९३ ।। अर्थ - केशलोच करने से आत्मा की धर्म अर्थात् चारित्र में श्रद्धा प्रदर्शित होती है, शरीर कष्ट-सहिष्णु बनता है, दुश्चर चारित्र एवं कठोर तप में प्रवृत्ति होती है ।।९३ ।। प्रश्न - कष्ट-सहिष्णुता से क्या लाभ है? उत्तर - शारीरिक कष्ट सहज में सहन नहीं होता। बार-बार केशलोच करने से शरीर-निर्ममता और धर्म में श्रद्धा दृढ़ हो जाती है, दृढ़ श्रद्धा से उपवृंहण गुण वृद्धिंगत होता है, केशलोच की पीड़ा सहन कर लेने पर शारीरिक अन्य कष्ट सहन करने का सामर्थ्य प्रगट हो जाता है और कष्ट सहन करने से अशुभ कर्मों की निर्जरा होती है। ।। लोच प्रकरण पूर्ण ॥ __ व्युत्सृष्टशरीरता अर्थात् शरीर से ममत्व त्याग न भू-दन्तौष्ठ-कर्णाक्षि, नन-केशादिसंस्कृतिम् । भजन्त्युद्वर्तनं स्नानं, नाभ्यङ्गं ब्रह्मचारिणः ॥९४ ॥ अर्थ - ब्रह्मचर्यव्रत धारण करने वाले साधुजन अपने भौं, दाँत, ओठ, कान, आँख, नन एवं केशादि का संस्कार नहीं करते, उबटन नहीं लगाते तथा अभ्यंग स्नान नहीं करते हैं ।।९४ ।। प्रश्न - भौं, दाँत आदि के संस्कार किस प्रकार किये जाते हैं ? उत्तर - विकट रूप से उठे हुए रोमों को उखाड़ना, उन्हें व्यवस्थित करना एवं लटकती हुई भौं को ऊँचा करना भौं का संस्कार है । दाँत का मैल दूर करना, रगड़ना, घिसना और रंगना आदि दाँतों का संस्कार है; ओठों का मल दूर करना या रंगना ओठों का संस्कार है; छोटे कानों को बड़ा और बड़े कानों को छोटे करना, मैल निकालना, रोग के बिना भी तैल डालना, इत्र लगाना कर्ण का संस्कार है; नेत्र धोना और अञ्जन आदि लगाना आँखों का संस्कार है; काटना, छाँटना. रगड़ना और रंगना नख का संस्कार है तथा शरीर में तेल आदि का मालिश करना अभ्यंग स्नान है। पापवर्धक ऐसे कोई संस्कार साधु नहीं करता। न स्कन्धकुट्टनं वासं, माल्यं धूप-विलेपनम् । कराभ्यां मलनं चूर्ण, चरणाभ्यां च मर्दनम् ॥९५ ।। अर्थ - कन्धों को दृढ़ बनाने हेतु उन्हें कूटना, मुख को सुवासित करने हेतु जातिफल आदि का प्रयोग; पुष्प, रत्न, मोती एवं स्वर्ण की माला, कालागरु आदि धूप, सुगन्धित पदार्थों का विलेपन, हाथों से शरीर की मालिश करना एवं पैरों से मर्दन आदि करना, इत्यादि कार्य ब्रह्मचर्य व्रत में तत्पर साधु कदापि नहीं करते हैं ।।९५॥ या रूक्षा लोच-बीभत्सा, सर्वाङ्गीण-मला तनुः । सा रक्षा ब्रह्मचर्यस्य, प्ररूढ-नख-लोमिका ।।९६ ।। Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ३९ ॥ व्युत्सृष्ट-देहता ।। अर्थ - रूक्ष, लोच करने से बीभत्स, सम्पूर्ण शरीर मल से लिप्त तथा बढ़े हुए नख एवं रोमों से युक्त शरीर ही ब्रह्मचर्य की रक्षा है।।१६।। ।। इस प्रकार व्युत्सृष्टदेहता गुण का प्रकरण पूर्ण हुआ॥ __पीछी ग्रहण आवश्यक है आसने शयने स्थाने, गमने मोक्षणे ग्रहे। आमर्शन-परामर्श, प्रसाराकुञ्चनादिषु ॥९७ ।। स्वपक्षे चिह्नमालम्ब्यं, साधुना प्रतिलेखनम्। विश्वास-संयमाधारं, साधु-लिङ्ग-समर्थनम् ।।१८।। अर्थ - आसन में, शयन में, स्थान में, गमन में, वस्तु रखने में, ग्रहण करने में, शरीर स्पर्श में, परामर्श में, अंगोपाङ्ग पसारने अर्थात् फैलाने में और संकोच करने में पीछी से परिमार्जन करना चाहिए ।।९७॥ स्वपक्ष में अर्थात् अपनी प्रतिज्ञा में पीछी चिह्न स्वरूप है। साधु द्वारा पूर्वकथित स्थानों पर प्रतिलेखन होना चाहिए। यह पीछी दिगम्बर निर्गन्ध मुद्रा की समर्थक है, मनुष्यों को विश्वास कराने वाली है और संयम का आधार है ।।९८॥ प्रश्न - स्वपक्ष का क्या अभिप्राय है ? उत्तर - स्वपक्ष अर्थात् मैं सब जीवों पर दया करूँगा, ऐसी मुनिराज द्वारा की हुई प्रतिज्ञा। यह पीछी उस प्रतिज्ञा का चिह्न अर्थात् प्रमाण है। अर्थात् यह अभयप्रदान का प्रतीक है। यह पीछी सर्व मनुष्यों में विश्वास उत्पन्न कराती है कि जब यह साधु अतिसूक्ष्म कीट आदि जीवों की रक्षा के लिए पीछी लिये हुए है तब हमारे जैसे बड़े-बड़े जीवों को बाधा कैसे पहुँचायेगा ? इत्यादि। पाँच गुण युक्त पीछी ग्रहण करनी चाहिए लघ्वस्वेद-रजोग्राहि, सुकुमार-मृदूदितम् । इति पञ्चगुणं योग्यं, ग्रहीतुं प्रतिलेखनम् ॥९९।। ।। इति प्रतिलेखनं । इति लिंगं॥ अर्थ - जो लघुत्व अर्थात् हल्की है, अस्वेदत्व अर्थात् पसीना ग्रहण नहीं करता, रजो अग्रहण अर्थात् धूलि आदि को ग्रहण नहीं करती, सुकुमार अर्थात् नाजुक अंगों वाली है और कोमल अर्थात् सुन्दर और मनोहर है। इस प्रकार इन पाँच गुण युक्त मयूर पंख की पीछी ग्रहण करने योग्य है ।।९९॥ ॥ इस प्रकार प्रतिलेखन प्रकरण पूर्ण हुआ॥ इस प्रकार अचेलत्व, केशलोच, व्युत्सृष्टशरीरता और प्रतिलेखनत्व इन चार गुणों से युक्त लिंग नाम का दूसरा अधिकार पूर्ण हुआ। Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ४० ३. शिक्षा अधिकार जिन पचन प्रशंसा निपुणं विपुलं शुद्धं, निकाचितमनुत्तरम्। पापच्छेदि सदा ध्येयं, सार्वीयं वाक्यमार्हतम् ॥१०॥ अर्थ - जिनेन्द्र भगवान के वचन निपुण, विपुल, शुद्ध, अर्थ से परिपूर्ण, सर्वोत्कृष्ट, पापनाशक, सबका हित करने वाले और सदा ध्येय रूप हैं ॥१०० ।। प्रश्न - जिन वचन के विशेषणों का अर्थ क्या है? उत्तर - प्रत्येक विशेषण का संक्षिप्त अर्थ इस प्रकार है - १. निपुण - जीवादि पदार्थों का नय एवं प्रमाणानुसार विवेचन करने से निपुण हैं। २. विपुल - निक्षेप, निरुक्ति एवं अनुयोगद्धार आदि द्वारा जीवादि तत्त्वों का विस्तार पूर्वक निरूपण करने से विपुल हैं। ३. शुद्ध - पूर्वापरविरोध, पुनरुक्ततादि दोष एवं राग-द्वेष से रहित होने से शुद्ध हैं। ४. निकाचित - अर्थ से भरपूर हैं। ५. अनुत्तर - प्रतिपक्ष रहित एवं सर्वोत्कृष्ट हैं। ६. पापच्छेदि - ज्ञानावरणादि द्रव्य कर्मरूप मल एवं अज्ञानादि भाव मल अथवा धातिया कर्मरूप पाप का नाश करने वाले हैं। ७. सार्वीय - सब प्राणियों के हितकारी हैं और - ८. सदा ध्येय - अहर्निश ध्येय रूप हैं। गद्य - जिनवचन के अभ्यास से प्रकट होने वाले गुण सर्वभाव-हिताहितावबोध-परिणामसंबर-प्रत्यग्रसंवेग-रत्नत्रयस्थिरत्व-तपोभावना - परदेशकत्व लक्षण-गुणा: सप्त संपद्यन्ते जिनवचन-शिक्षया ।।१०१।। अर्थ - जिनेन्द्रदेव के वचनों का अभ्यास करने से १. हिताहित का ज्ञान, २. भावसंवर, ३. नवीननवीन संवेग, ४. रत्नत्रय में स्थिरता, ५. तप, ६. भावना और ७. परोपदेश में कुशलता; ये सात गुण प्रगट होते हैं ||१०१॥ प्रश्न - आत्मा का हित इन्द्रिय-सुख में है या आत्मिकसुख में? उत्तर - इन्द्रियसुख तो आत्मा का अहित करने वाला है क्योंकि वह सुख (१) मात्र दुख के प्रतिकार स्वरूप है। (२) अल्पकाल रह कर नष्ट हो जाने वाला है। (३) इन्द्रिय और पदार्थों के आधीन है। (४) रागभाव Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . मरणकण्डिका - ४१ उत्पन्न करके आत्मा को कर्मों से बद्ध करता है। (५) उसकी प्राप्ति भी दुर्लभ है। (६) दुर्गति का मार्ग है। (७) शारीरिक आयाम से उत्पन्न होता है। (८) अपवित्र शरीर से उत्पन्न होता है। (९) दुखों से मिश्रित रहता है। (१०) कर्मों के आधीन है और (११) पाप का बीज है, अतः इस इन्द्रियसुख से आत्मा का हित कदापि नहीं होता। आत्मिक सुख कर्मों के नाश से स्वयमेव आत्मा में उत्पन्न होता है, आत्मा के साथ शाश्वत रहने वाला है और इस सुख की प्राप्ति के लिए ही हितेच्छु भव्यजन सदा प्रयत्न करते हैं क्योंकि यही सुख आत्मा का हित है। जिनवचन के अभ्यास से ही हितरूप आत्मिक सुख का और अहितरूप इन्द्रियसुख का ज्ञान होता है। प्रश्न - भावसंवर आदि सब गुणों का क्या लक्षण हो । (२) उत्तर - परिणाम-संवर - इसका भाव है कि जिन पाप-परिणामों से अशुभ कर्मों का आस्रव होता है उन परिणामों का त्याग भाव संवर है। सरागी जीव जिनवचन के अभ्यास से ही पापपरिणामों को छोड़ते हैं। वीतराग मुनिराजों की अपेक्षा जिनवचन शुद्धोपयोग में कारण हैं क्योंकि वहाँ पुण्यास्रव के कारणभूत परिणामों के त्याग रूप भावंसवर होता है। जिनवचन के अभ्यास से ही आसव के निमित्त रूप शुभाशुभ परिणामों का त्याग होता है अत: भावसंवर जिनवचन का गुण है। (३) प्रत्यग्र संवेग इसका अर्थ है, प्रतिदिन नवीन-नवीन संवेग। अर्थात् जिनवचन के अभ्यास से प्रतिदिन धर्म में श्रद्धा होती जायेगी और संसार के स्वरूप का ज्ञान वृद्धिंगत हो जाने से संसार-भीरुता रूप नयेनये परिणाम जाग्रत होते जायेंगे। (४) रत्नत्रय स्थिरत्व जिनवचन के अभ्यास से रत्नत्रय में सिद्धि एवं निश्चलता प्राप्त होती है। (५) तप - जिनवचन से स्वाध्याय नामक अभ्यन्तर तप की वृद्धि एवं सिद्धि होती है। (६) भावना - गुप्तियों में भावना दृढ़ होती है और - (७) परदेशकत्व - भव्यों को धर्मोपदेश देने का सामर्थ्य उत्पन्न हो जाता है। इस प्रकार जिनवचन के अभ्यास से आत्मा में ये सात गुण स्वयमेव स्फुरायमान होते जाते हैं। (८) हिताहित का ज्ञान सर्वे जीवादयो भाषा, जिनशासन-शिक्षया। तत्त्वतोऽत्रावबुध्यन्ते, परलोके हिताहिते ।।१०२।। अर्थ - जिनशासन की शिक्षा से अर्थात् ज्ञान के प्रभाव से जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष आदि सर्व पदार्थों के सत्य स्वरूप का बोध हो जाता है, तथा इसके सामर्थ्य से इस लोक एवं परलोक में हिताहित का भी परिज्ञान हो जाता है।।१०२।। प्रश्न - आत्महित के लिए क्या करना चाहिए और आत्मा का यथार्थ हित क्या है? उत्तर - जैसे जंगल में उत्पन्न होने वाली वनस्पति रूप औषधि रोगी का हित करती है वैसे ही इस लोक में दान एवं तप आदि उत्तम कार्य आत्मा का हित करते हैं अत: इसलोक में उन्हें ही हित कहा जाता है। क्योंकि Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ४२ दानदाता की कीर्ति जगत् में चिरस्थायी रहती है। दान से वैर का नाश हो जाता है और शत्रु भी मित्र बन जाते हैं। इसी प्रकार जिनके पास तपरूपी धन है उन्हें चक्रवर्ती और इन्द्र आदि भी नमस्कार करते हैं। अनन्त पदार्थों को जानने वाला केवलज्ञान ही सुखमय है। अर्थात् सुख ज्ञान रूप ही है अत: वही आत्मा का यथार्थ हित है। आत्मा और उसके हित का ज्ञान न होने से दोष उत्पन्न होते हैं हिताहितमज्जानानो, जीवो मुह्यति सर्वथा । मूढो गृह्णाति कर्माणि ततो भ्राम्यति संसृत्तौ ॥ १०३ ॥ अर्थ - जिसे आत्मा के हित एवं अहित का ज्ञान नहीं हुआ वह जीव मोहित होता है और उस मोह से वह अनन्त संसार में भ्रमण करानेवाले अशुभकर्मों का बन्ध कर लेता है ।। १०३ ॥ आत्महित के ज्ञान का उपयोग हितादानाहित त्यागी, हिताहित-विबोधने । यतस्ततः सदा कार्य, हिताहित- विबोधनम् ।। १०४ ।। अर्थ - जो भव्यजीव हित-अहित को जान लेता है, वह हित में प्रवृत्ति और अहित का त्याग करने में समर्थ हो जाता है, अतः सदा अपनी आत्मा के हित, अहित को जानने का प्रयत्न करना चाहिए ॥ १०४ ॥ जिनवचन के अध्ययन से अशुभ भावों का संबर होता है स्वाध्यायं पञ्चश: कुर्वस्त्रिगुप्तः पञ्च संवृतः । एकाग्रो जायते योगी, विनयेन समाहितः ॥ १०५ ॥ अर्थ- जो बाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय और उपदेश रूप पाँच प्रकार का स्वाध्याय करता है, उसके पाँचों इन्द्रियों का निरोध होता है और तीन गुप्तियों का पालन होता है। वह विनय युक्त साधु एकाग्रचित्त अर्थात् ध्यान के योग्य होता है और ध्यान से संदर होता है || १०५ ॥ - प्रश्न स्वाध्याय से संवर कैसे होता है ? उत्तर - गति में पहुँचते ही इस जीव को देह मिलता है, देह से इन्द्रियाँ बनती हैं, इन्द्रियों से विषयों का ग्रहण होता है और उससे रागद्वेष होते हैं। अर्थात् आस्रव होता है, किन्तु जो साधु विनयपूर्वक स्वाध्याय करते हैं उनकी पाँचों इन्द्रियाँ संवृत्त हो जाती हैं, मन अप्रशस्त रागादि के विकारों से रहित हो जाता है, वे वचन नहीं बोलते। अर्थात् रूक्ष, कठोर, कर्कश, झूठ, स्वप्रशंसा और पर निन्दा रूप वचन नहीं बोलते और शरीर से कोई भी पापरूप हिंसात्मक कार्य नहीं करते अर्थात् गुप्तियों का पालन करते हैं। जिससे अनुप्रेक्षादि रूप स्वाध्याय में मन एकाग्र हो जाता है अर्थात् प्रवृत्ति ध्यानरूप हो जाती है जिससे संवर होता है। नवीन संवेग के उत्पन्न होने का क्रम अदृष्टपूर्वमुच्चार्थमभ्यस्यति जिनागमम् । यथा यथा यतिर्धर्मे, प्रहृष्यति तथा तथा ॥ १०६ ॥ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ४३ अर्थ - अपूर्व - अपूर्व अर्थ से अर्थात् श्रेष्ठ गूढ़ अर्थ से भरे हुए जिनागम का जैसे-जैसे अभ्यास करता है, वैसे-वैसे मुनिधर्म में विशिष्ट अनुराग वृद्धिंगत होता जाता है ।। १०६ ।। प्रश्न- जिनवचन से संवेग और संवेग से आत्महित कैसे होता है? उत्तर - जैसे आम्रफल स्वादिष्ट रस से भरा रहता है वैसे ही जिनवचन रूपी शब्दात्मक श्रुत में अर्थरूपी सर्वोत्कृष्ट रस भरा हुआ है। अतः जिनवचन का अध्ययन करने से अपूर्व- अपूर्व अर्थात् नये-नये अर्थों का तथा प्रमेयों का बोध हो जाता है। आत्मा सहित अन्य पदार्थों के यथार्थ बोध से आत्मा में संवेग अर्थात् संसार से भय उत्पन्न हो जाता है जिससे धार्मिक श्रद्धा दृढ़ हो जाती है। यह श्रद्धा मन को निरन्तर प्रफुल्लित रखती है तथा यही धार्मिक श्रद्धा - जन्य प्रफुल्लता आत्महित की साधक है। स्वाध्याय से लय में निष्कम्पता आती है। शुद्धया निःकम्पनो भूत्वा, हेयादेय- विचक्षणः । रत्नत्रयात्मके मार्गे, यावज्जीवं प्रवर्तते ॥ १०७ ॥ अर्थ - शास्त्राभ्यास द्वारा जिन्हें हेय-आदेय अर्थात् हानि-ल -लाभ को जानने की विचक्षणता प्राप्त हो गई है वे मुनिराज शुद्धि के बल से रत्नत्रयमार्ग में निष्कम्पता पूर्वक जीवन पर्यन्त प्रवर्तन करते हैं ॥ १०७॥ रत्नत्रय मार्ग में निष्कम्पता कैसे आतो है? प्रश्न - उत्तर - शास्त्राभ्यास के बिना गुण-दोषों का ज्ञान नहीं होता, तब बिना जाने गुणों को कैसे ग्रहण किया जा सकता है और दोषों को कैसे छोड़ा जा सकता है। स्वाध्याय के माध्यम से रत्नत्रय की हानि एवं वृद्धि का परिज्ञान कर मुनिजनों के द्वारा हानिरूप कारणों का त्याग और वृद्धिरूप कारणों का संचय तथा अतिचारों का परिहार और दर्शन, ज्ञान, चारित्र की विनय करने से रत्नत्रय विशुद्ध होता है, इस विशुद्धि की वृद्धि में उद्यमशील साधु ही रत्नत्रय में निश्चलतापूर्वक प्रवर्तन कर सकते हैं। सम्यग्दर्शनादि की हानि - वृद्धि इस प्रकार होती है-आगमाभ्यास से सम्यग्दर्शन के निःशंकितादि आठों गुण बढ़ते हैं और अभ्यास के अभाव में शंकादि दोष बढ़ते हैं जिससे उसकी हानि होती है। अर्थशुद्धि, व्यंजन शुद्धि एवं उभयशुद्धि आदि के भेद से ज्ञानविनय आठ प्रकार की है। इस विनय के आश्रय से श्रुतज्ञान में मन एकाग्र हो जाता है; यह सम्यग्ज्ञान की वृद्धि है। मन एकाग्र न होने से जीवादि पदार्थों का समीचीन ज्ञान नहीं हो पाता अतः यह उसकी हानि है। सतत ज्ञानाभ्यास के बिना पूर्वकालीन ज्ञान भी विस्मृत या शंकास्पद हो जाता है, यह भी सम्यग्ज्ञान की हानि ही है। संयम की भावना से तप वृद्धिंगत होता है, तप करने में अपनी शक्ति न छिपाना, ज्ञानाभ्यास में सदा तत्पर रहना, ऐहिक कार्यों में सदा अनासक्त रहना, ये सब तपवृद्धि के कारण हैं और इनसे विपरीत होने वाली साधु की क्रियाएँ तप की हानि करती हैं। पापक्रियाओं से विरक्त होना संयम हैं तथा मनोयोग, वचनयोग और काययोग की अशुभ प्रवृत्ति का त्याग करना चारित्र है। इनमें अहिंसादि पाँचों व्रतों में से प्रत्येक की पाँच-पाँच भावनाएँ हैं, इन पच्चीस भावनाओं Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ४४ के अभ्यास से चारित्र की वृद्धि होती है और इन भावनाओं की उपेक्षा करने से चारित्र की हानि होती है। इस प्रकार सम्यग्दर्शनादि के वृद्धिंगत होने पर ही रत्नत्रय में निश्चलतापूर्वक प्रवर्तन हो सकता है अतः आगमाभ्यास आवश्यक है। अर्थ सर्वज्ञ प्रणीत बाह्य और अभ्यन्तर भेद सहित बारह प्रकार के तपों में स्वाध्याय के सदृश तप पूर्व में था, न वर्तमान में है और न भविष्य में कभी होगा। अर्थात् तीनों कालों में स्वाध्याय ही सर्व श्रेष्ठ तप है । । १०८ ।। - जिनवचन की शिक्षा तप है तपस्यभ्यन्तरे बाह्ये, स्थिते द्वादशधा तपः । स्वाध्यायेन समं नास्ति, न भूतं न भविष्यति ।। १०८ ।। प्रश्न बाह्य और अभ्यन्तर तप किसे कहते हैं ? उत्तर - जो लोग समीचीन मार्ग से बाह्य हैं, वे भी जिन्हें जानते हैं अथवा बाह्य अर्थात् गृहस्थों द्वारा भी जिनका आचरण किया जाता है अथवा जो बाह्य जनों के दृष्टिगोचर होता है ऐसे अनशन, ऊनोदर आदि को कहते हैं और जो सन्मार्ग अर्थात् रत्नत्रय स्वरूप मुक्तिमार्ग को जानते हैं ऐसे मुनिजन जिनका आचरण करते हैं ऐसे विनय, स्वाध्याय एवं प्रायश्चित्त आदि को अभ्यन्तर तप कहते हैं । अन्य तपों की अपेक्षा स्वाध्याय तप में अतिशयता हैं बह्वीभिर्भवकोटिभिर्यदज्ञानेन हन्यते । 1 हन्ति ज्ञानी त्रिभिर्गुप्तस्तत्कर्मान्तर्मुहूर्ततः ।। १०९ । अर्थ - सम्यग्ज्ञान से रहित अज्ञानी जिस कर्म को करोड़ भवों में नष्ट करता है, उस कर्म को सम्यग्ज्ञानी तीन गुप्तियों से युक्त होता हुआ अन्तर्मुहूर्त मात्र में क्षय कर देता है || १०९ || षष्ठाष्टमादिभिः शुद्धिरज्ञानस्यास्ति योगिनः । ज्ञानिनो वल्भमानस्य, प्रोक्ता बहुगुणास्ततः ।। ११० ।। अर्थ - सम्यग्ज्ञान रहित साधु षष्ठोपवास अर्थात् बेला एवं अष्टमोपवास अर्थात् तेला आदि करके जितनी विशुद्धि प्राप्त करता है उससे बहुत गुणी विशुद्धि आहार ग्रहण करते हुए ज्ञानी के होती है ॥ ११० ॥ प्रश्न - कोटि भवों में जो कर्मक्षय हो वह अन्तर्मुहूर्त में हो जाय और बेला-तेला उपवास करने वाले की विशुद्धि से आहार करने वाली की विशुद्धि बहुगुणी हो, ये दोनों बातें कैसे सम्भव होती हैं ? उत्तर - सम्यग्ज्ञान रहित जीव को कर्मक्षय में करोड़ों भव लगते हैं। उसका कारण है कि उसके पास समीचीन श्रद्धा और समीचीन चारित्र भी नहीं है, किन्तु उसी कर्मपटल को अन्तर्मुहूर्त में नाश करने वाला रत्नत्रयधारी है और तीन गुप्तियों का भी स्वामी है। तात्पर्य यह है कि सम्यग्ज्ञानी के स्वाध्याय तप में जो सामर्थ्य है वह उसके अन्य तपों में नहीं है। दूसरी बात का भी यही कारण है कि सम्यग्ज्ञान रहित अनशन तप करने वाले तपस्वी की आत्मा Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ४५ मिथ्यात्व मल से दूषित होने के कारण उस विशुद्धि से विशुद्ध हो ही नहीं सकती क्योंकि उसका तप समीचीन • श्रद्धा और समीचीन ज्ञान पर अधिष्ठित नहीं है किन्तु आहार करनेवाले स्वाध्यायरत योगी को सम्यग्दर्शन के साथ सम्यग्ज्ञान का भी साहाय्य प्राप्त है अतः उसका अल्प तप भी उसकी आत्मा को उत्तरोत्तर अधिकाधिक विशुद्ध करता जाता है। उसके कर्मबन्ध अल्प होता है और निर्जरा उत्तरोत्तर असंख्यात गुणित क्रम से होती है। रत्नत्रय की निश्चलता का कारण स्वाध्यायेन यतः सर्वा, भाविताः सन्ति गुप्तयः । भवत्यराधना मृत्यौ, गुप्तीनां भावने सति ॥ १११ ॥ अर्थ- स्वाध्याय से सर्व गुप्तियाँ भावित होती हैं और गुमियों की भावना होने से मरण समय में भी रत्नत्रयरूप परिणामों की आराधना में तत्पर रहता है ॥ १११ ॥ प्रश्न स्वाध्यान में की निश्चलता प्राप्त कर पाता है, इसका अभिप्राय या कारण क्या है ? उत्तर- अनन्तकाल से मन, वचन, काय रूप इन तीन अशुभ योगों का ही अभ्यास इस जीव ने किया है और कर्मोदय ने सदा इसे इस कार्य में बल प्रदान किया है अतः इनसे अलग होना या छुटकारा पाना अत्यन्त कठिन कार्य है। मात्र स्वाध्याय की भावना ही इनसे छुटकारा दिलाने में समर्थ है, कारण कि कर्मों को लाने में जो समर्थ कारण मन, वचन, काय का व्यापार है वह व्यापार स्वाध्यायरत साधु का स्वभावतः बन्द हो जाता है। अर्थात् तीनों गुप्तियाँ भावित हो जाती हैं, तब तीनों योगों का निरोध करने वाला योगी मरणपर्यन्त रत्नत्रय में ही निश्चल रहता है। पवन के अभाव में जैसे समुद्र- निस्तरंग रहता है वैसे अशुभ योगों की चंचलता के अभाव में आत्मा रत्नत्रय में निश्चल रहती है। स्वाध्याय से धर्मोपदेश की पात्रता प्राप्त होती है जिनाज्ञा स्व- परोतारा, भक्तिर्वात्सल्य वर्धनी । तीर्थ प्रवर्तिका साधोर्ज्ञानतः परदेशना ।। ११२ ।। ॥ इति शिक्षा-सूत्रम् ॥ अर्थ- स्वाध्याय रत साधु जिनाज्ञापालन, स्व-पर उद्धार, भक्ति, वात्सल्य वृद्धि, तीर्थप्रवर्तन और परदेशना अर्थात् धर्मोपदेश रूप गुणगणों को प्राप्त कर लेते हैं ।। ११२ ।। प्रश्न - धर्मोपदेश से उत्पन्न होने वाले इन गुणों के क्या लक्षण हैं? उत्तर- जिनाशा- 'जिनमत में प्रीति रखने वाले मोक्षेच्छु साधुओं को नियम से धर्मोपदेश करना चाहिए' ऐसी जिनेन्द्रदेव की आज्ञा है। धर्मोपदेशक साधु में इस आज्ञागुण का द्योतन होता है। स्व-पर- उद्धार - धर्मोपदेश देने से जिनेन्द्र की आज्ञा का पालन होता है जिससे उसका स्वयं का उद्धार होता है और जिनवचन सुन कर अन्य साधु एवं श्रावकजन हितमार्ग का बोध प्राप्त करते हैं, अतः पर का भी उपकार होता हैं। भक्ति - जिनवचन का अभ्यास करके उपदेश देनेवाले मुनिराजों का जिनमत में अनुराग प्रगट होता है, क्योंकि गुणों में अनुराग होना ही भक्ति का लक्षण है। Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ४६ वात्सल्यवृद्धि - संसार के दुखी प्राणियों पर, अज्ञान अन्धकार में भटकनेवाले अज्ञ प्राणियों पर एवं साधर्मिक बान्धवों पर वात्सल्य भाव वृद्धिंगत होता है, क्योंकि वात्सल्य भाव के बिना दूसरों को धर्मोपदेश देकर समीचीन मार्ग में लगाने का पुरुषार्थ बन ही नहीं सकता। तीर्थप्रवर्तन - रत्नत्रय का वर्णन करने में तत्पर होने से जिनागम तीर्थ है एवं सम्यग्दर्शन-शान चारित्र में निहित रहनेवाला मोक्षमार्ग भी तीर्थ है। धर्म रूपी उपदेशदान से श्रुत की एवं मोक्षमार्ग की परम्परा सदा प्रवाहित होती रहती है। परदेशना - सतत उपदेश देते रहने से पचन कला में एक हो जाता है और समझाने की चतुरता वृद्धिंगत हो जाती है। इस प्रकार शिक्षा प्रकरण पूर्ण हुआ॥३॥ ४. विनय अधिकार विनय के भेद विनयो दर्शने ज्ञाने, चारित्रे तपसि स्थितः । उपचारे च कर्तव्यः, पञ्चधापि मनीषिभिः ॥११३॥ अर्थ - दर्शन विनय, ज्ञान विनय, चारित्र विनय, तप विनय और उपचार विनय, इस प्रकार बुद्धिमानों को पाँच प्रकार की विनय करनी चाहिए॥११३॥ दर्शन विनय उपबृंहादि तात्पर्य, भक्त्यादि-करणोधमः । सम्यक्त्व-विनयो ज्ञेयः, शङ्कादीनां च वर्जनम् ।।११४ ।। अर्थ - शंकादि दोषों का त्याग कर उपबृंहण या उपगृहन आदि गुणों में एवं भक्ति आदि करने में जो उद्यम है उसे सम्यक्त्व विनय जानो ।।११४ ।।। प्रश्न - विनय किसे कहते हैं और सम्यक्त्व विनय क्या है? उत्तर - “विनयत्यपनयति यत्कर्माशुभं तद्विनयः' अर्थात् जो अशुभ कर्मों को या अष्ट कर्मों को नष्ट करती है उसे विनय कहते हैं। शंका आदि दोषों का त्याग, अरहन्तदेव आदि की भक्ति और उपबृंहण, स्थितीकरण, वात्सल्य और प्रभावना, इन गुणों को धारण करना सम्यग्दर्शन की विनय है। इससे पहले श्लोक ४८, ४९, ५० के द्वारा इन सबका कथन किया जा चुका है। ज्ञान विनय ज्ञानीयो विनयः काले, विनयेऽवग्रहे मतः। बहुमानेऽनपलत्यां, व्यञ्जनेऽर्थे हुयेऽष्टधा ॥११५ ।। Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ४७ अर्थ - श्रुत एवं श्रुत्वानों को विनय, काल, अवग्रह, बहुमान, अनिव, व्यंजन शुद्धि, अर्थ शुद्धि और उभय शुद्धि ये आठ प्रकार की ज्ञान विनय हैं।।११५ ।। प्रश्न - इन विनय एवं काल आदि के क्या लक्षण हैं? उत्तर - ५. विनय-श्रुत एवं श्रुतधारीजनों की भक्ति, आदर एवं उनके माहात्म्य का स्तवन करना। २. कालशुद्धि-सन्ध्या, पर्व, दिग्दाह, उल्कापात आदि असमय में स्वाध्याय नहीं करना काल विनय है। ३, अवग्रह - ‘जब तक आगम का यह अनुयोग अथवा यह शास्त्र पूर्ण नहीं होगा, तब तक मैं अमुक वस्तु नहीं खाऊँगा।' इत्यादि रूप से नियम लेकर स्वाध्याय करना। ४. बहुमान - बहुमान का अर्थ सम्मान है। अर्थात् पवित्रता पूर्वक, दोनों हाथ जोड़ कर सादर नमस्कार पूर्वक, मन को निश्चल करके, ग्रन्थराज को लाते-ले जाते समय या विराजमान करते समय नाभि के ऊपर ही रखना, ग्रन्थ टोने हाथ मे राना एवं प्राय पनोरोग पूर्वक पढ़ना यह सब बहुमान विनय है। ५. अनिलव - गुरु का या ग्रन्थ का नाम नहीं छिपाना । ६. व्यंजन शुद्धि - श्रुतज्ञान की मूल जड़ ककारादि व्यंजन अर्थात् शब्द हैं, क्योंकि शब्द ही द्रव्यश्रुत हैं, दूसरों को ज्ञान कराने में हेतु हैं, अर्थशुद्धि के आधार हैं तथा इस शब्द श्रुत से ही वस्तु का यथार्थ स्वरूप ज्ञात होता है अत: ककारादि व्यंजनों का शुद्ध उच्चारण करना व्यंजन शुद्धि है। ७. अर्थ शुद्धि - जिस शब्द का जो अर्थ है उसे वहाँ वैसे ही प्रकरण आदि के अनुसार लगाना अर्थात् शब्दों के अर्थ का अविपरीत निरूपण करना अर्ध शुद्धि है। ८. उभय शुद्धि - व्यंजन और अर्थ की शुद्धि को तदुभय शुद्धि कहते हैं, अत: व्यंजन शुद्धि तथा अर्थ शुद्धि पूर्वक ग्रन्थ पढ़ना उभयशुद्धि है। ज्ञानाभ्यास का यह आठ प्रकार का परिकर आठ प्रकार के कर्मों को दूर करने में सहयोगी है अत: इन शुद्धियों की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। चारित्र विनय कुर्वतः समितीर्गुप्ती:, प्रणिधानस्य वर्जनम् । चारित्र-विनयः साधोर्जायते सिद्धिसाधकः ।।११६ ।। अर्थ - समिति एवं गुप्तियों का पालन तथा प्रणिधान का परित्याग, यह चारित्र विनय है। यह चारित्र विनय साधुओं की सिद्धि का मूल साधक है।।११६॥ प्रणिधान के भेद और उनके लक्षण प्रणिधानं द्विधा प्रोक्तमिन्द्रियानिन्द्रियाश्रयम्। शब्दादि-विषयं पूर्व, परं मानादि-गोचरम् ॥११७॥ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ४८ अर्थ - (इन्द्रिय और कषाय रूप आत्म-परिणति होना प्रणिधान है।) प्रणिधान दो प्रकार का है। इन्द्रिय प्रणिधान और अनिन्द्रिय अर्थात् मन प्रणिधान । शब्द, रस आदि विषय रूप आत्म-परिणति इन्द्रिय प्रणिधान है, तथा मान, मदादि कषाय विषयक आत्म-परिणति अनिन्द्रिय प्रणिधान है ।।११७।। उक्तं शब्दे रसे रूपे, स्पर्श गन्थे शुभेऽशुभे - रागद्वेष-विधानं यत्तदाय प्रणिधानकम् ॥१८॥ अर्थ - शुभ या अशुभ अथवा मनोज्ञ या अमनोज्ञ शब्द, रस, रूप, स्पर्श और गन्ध में राग-द्वेष होना इन्द्रिय प्रणिधान है ।।११८॥ मान-माया-मद-क्रोध-लोभ-मोहादि-कल्पनम् । अनिन्द्रियाश्रयं ज्ञेयं, प्रणिधानमनेकधा ॥११९॥ अर्थ - मान, माया, मद, क्रोध, लोभ एवं मोहादि भाव मन में उत्पन्न होना अनिन्द्रिय अर्थात् कषाय प्रणिधान है। यह अनेक प्रकार का है।।११९ ।। प्रश्न-इन्द्रिय प्रणिधान और कषाय प्रणिधान से आत्मा का अर्थात् चारित्र का क्या अविनय होता है? उत्तर-पंचेन्द्रियों के मनोज्ञ-अमनोज्ञ विषयों में रागद्वेष होना इन्द्रिय-प्रणिधान है, तथा आत्मा को जो कषती है अर्थात् कष्ट देती है उसे कषाय कहते हैं। जैसे वृक्ष की छाल का रस वस्त्र से सम्बद्ध हो जानेपर उसकी सफेदी और स्वच्छता को आच्छादित कर देता है, वस्त्र को टिकाऊ कर देता है और उसका वस्त्र से दूर हो जाना भी अशक्य होता है वैसे ही आत्मा से सम्बद्ध होनेवाली कषाय आत्मा की ज्ञान-दर्शन-रूप शक्ति को आच्छादित करती रहती है, आत्मा में कर्मों की स्थिति को दृढ़ करती रहती है और आत्मा से बड़े कष्ट अर्थात् प्रबल पुरुषार्थ पूर्वक छूटती है। इस प्रकार के इन दोनों प्रणिधानों में मन की एकाग्रता होना अर्थात् रागद्वेषनिवृत्तिरूप आत्मपरिणति न होना ही चारित्र का अविनय है। प्रश्न - पाँच महाव्रत, पाँच समिति और तीन गुप्ति ये चारित्रात्मक ही हैं, फिर यहाँ समिति तथा गुप्ति को चारित्र का विनय कह कर इन्हें चारित्र से पृथक् क्यों किया गया है? तथा इनका स्वरूप क्या है? उत्तर - यहाँ चारित्र शब्द से पाँच महाव्रत ही ग्राह्य हैं। गुप्ति और समितियाँ तो उन व्रतों की परिकर हैं और परिकर की विनय द्वारा ही मूल वस्तु का द्योतन होता है। समिति - जो प्रवृत्ति जीवसमूहों के स्वरूप के ज्ञान एवं श्रद्धान पूर्वक की जाती है उसे सम्यक् प्रवृत्ति कहते हैं और इसी सम्यक प्रवृत्ति का नाम समिति है। ईर्या, भाषा, एषणा, आदाननिक्षेपण और उत्सर्ग के भेद से ये समितियाँ पाँच प्रकार की हैं। गुप्ति - संसार के कारणों से आत्मा के गोपन को अथवा मन, वचन, काय की क्रियाओं की स्वच्छन्दता के निग्रह को गुप्ति कहते हैं। मन, वचन और काय के भेद से ये तीन प्रकार की होती हैं। मनगुप्ति - मन का रागद्वेष आदि से प्रभावित न होना मनोगुप्ति है। Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'मरणकण्डिका - ४९ बचनगुप्ति - असत्य, कर्कश, कठोर तथा मिथ्यात्व एवं असंयम पोषक वचन नहीं बोलना वचनगुप्ति है कायगुप्ति - काय से ममत्व का त्याग अथवा उठने, बैठने, चलने, बोलने, खाने-पीने एवं वस्तु को रखने-उठाने रूप शारीरिक क्रियाएँ अप्रमाद पूर्वक करना कायगुप्ति है। समितियाँ प्रवृत्ति रूप और गुप्तियाँ निवृत्ति रूप होती हैं। इस प्रकार इन्द्रिय-अप्रणिधान, कषायअप्रणिधान, समिति एवं गुप्ति रूप आत्म-परिणति चारित्र-विनय है। तप विनय परीषह-सहिष्णुत्वं श्रद्धोत्तरगुणोद्यमः । योग्यावश्यक-सम्बन्धे, हान्युत्सेध-निराकृतिः ।।१२० ।। अर्थ - सम्यक् प्रकार से अर्थात् संक्लेश एवं दीनता बिना परीषह सहन करना, उत्तरगुण अर्थात् संयम में उद्यमशील रहमा तथा हीनाधिकता के परिहारपूर्वक योग्य समय में आवश्यकों का पालन करना तप विनय है।।१२०॥ प्रश्न - संयम को उत्तरगुण क्यों कहा, चारित्र क्यों नहीं कहा और तप विनय में इसका ग्रहण क्यों किया गया है? उत्तर - चारित्र ही संयम है और संयम ही चारित्र है। इनमें मात्र शब्दभेद है। सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान के उत्तरकाल में चारित्र की उत्पत्ति होती है अतः चारित्र या संयम को उत्तरगुण कहते हैं। श्रद्धा और ज्ञान के बिना असंयम का त्याग नहीं होता और यदि कोई कर भी दे तो उसे सम्यक् चारित्र नाम प्राप्त नहीं होता । संयमरहित तपश्चरण का श्रम व्यर्थ है। संयम का उद्योत करने वाला तपश्चरण ही निर्जरा का कारण होता है, अत: संयम को तप का परिकर कहा गया है। तप विनय में संयम को ग्रहण किया गया है। प्रश्न - तप विनय में परीषह सहिष्णुत्व' पद क्यों दिया गया है और परीषह-सहिष्णु बनने के लिए क्या करना चाहिए? उत्तर - अनशन, अवमौदर्य एवं रस-परित्याग आदि ये तप के भेद हैं। इन तपों के आचरण में क्षुधातृषा आदि की वेदना होना स्वाभाविक है। उस वेदना को शान्तिपूर्वक सहन करना, संक्लेशित नहीं होना ही परीषहजय है। यहीं संकेत देने हेतु श्लोक में 'परीषहसहिष्णुत्वं' पद दिया गया है। उपवास आदि तप ग्रहण कर लेने के पश्चात् भूख-प्यास की वेदना से व्याकुल न होना कि मैं इसे कैसे सहूँगा, भोजनकथा में आदरभाव न रखना, व्याकुलता पूर्वक यहाँ-वहाँ न घूमना, खान-पान के चिन्तन में मन नहीं लगाना, मैं भूख-प्यास से पीड़ित हूँ ऐसी वाणी नहीं बोलना, पारणा के दिन भी याचना नहीं करना, 'उपवास से कमजोर मैं रूखा-सूखा भोजन नहीं कर सकता, मुझे दूध-घी आदि मिलना चाहिए ऐसी याचना अथवा चिन्तन नहीं करना, दूध आदि की ओर आँख आदि से संकेत नहीं करना, दूध आदि इष्ट पदार्थ दिये जाने पर मुख प्रफुल्लित नहीं करना, न दिये जाने पर मुख पर क्रोध न लाना, 'मैं महान तपस्वी हूँ फिर भी ये धर्मात्माजन Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. .मरपाकाण्डका मेरा आदर-सम्मान नहीं करते, इन्होंने एक भी दिन मेरी पूजा नहीं की या कोई प्रभावना नहीं की', इस प्रकार का कोप या संक्लेश नहीं करना । इस प्रकार समताभाव से क्षुधा, तृषा एवं सत्कार-पुरस्कार आदि परीषहों को सहन करना चाहिए। यदि रसपरित्याग किया है तो रसयुक्त आहार की कथा, चिन्तन या उस रस आदि में आदर भाव न रखना, रसत्याग से उत्पन्न शरीर के सन्ताप को समता भाव से सहन करना। आतापन योग में धूप आदि आ जाने पर चित्त संक्लेशित नहीं करना एवं उसका प्रतिकार करने वाली वस्तुओं में आदर भाव न रखना। शून्य प्रदेश में निवास करते हुए सर्प, सिंह, व्याघ्र एवं पिशाच आदि से भयभीत नहीं होना । इस प्रकार अरति परीषह को जीतना। प्रायश्चित्त करते समय “गुरु ने मेरा बलाबल नहीं देखा और मुझे महान् प्रायश्चित्त दे दिया। इस प्रकार कोप न करना अथवा प्रायश्चित्त तप से उत्पन्न श्रम में संक्लेशित नहीं होना। ज्ञान विनय के प्रसंग में "क्षेत्रशुद्धि एवं कालशुद्धि आदि के निरीक्षण में गुरु मुझे ही लगाते हैं" इस प्रकार कोप न करना । अथवा उससे होने वाले श्रम में संक्लेशित न होते हुए उसे समतापूर्वक सहन करना। दर्शन विनय के प्रसंग में ‘सन्मार्ग से गिरते हुए को उठाना या स्थिर करना बड़ा कठिन है', 'जब अपने मन को भी सरल या सम्बोधित करना कठिन है तब दूसरों का तो कहना ही क्या?' इस प्रकार के संकल्प-विकल्प न कर उस श्रम को समतापूर्वक सहन करना। चारित्र विनय में भी 'ईर्या आदि समितियों का पालन अति दुष्कर है, यह जगत् जीवों से भरा है, उन्हें कहाँ तक बचाया जा सकता है?' अथवा 'ईर्यापथ से चलने में धूप आदि की बाधा अधिक सहन करनी पड़ती है।' 'जिस प्रकार दुर्जनों में कृतज्ञता मिलनी कठिन है उसी प्रकार इस कलिकाल में नौ कोटि से शुद्ध आहार मिलना कठिन है' इस प्रकार के विचार न करना चारित्र विनय है। तप विनय में उपवास आदि तप के अनुष्ठान में लगे मेरे अप्रासुक जल के प्रयोग से अथवा अशुद्ध भिक्षाग्रहण आदि से लगे असंयम के दोष 'मेरे इस तप से नष्ट हो जाते हैं इस प्रकार का चिन्तन न कर उसे समता पूर्वक सहन करना। उपचार विनय में बार-बार खड़े होना, उठना, पीछे जाना, प्रतिक्षण आज्ञा पालन करना, उपकरण आदि शुद्ध करना, इतना सब और इस प्रकार से कौन प्रतिदिन कर सकता है? इस प्रकार के मलिन विचार म कर प्रफुल्लता पूर्वक विनय आदि करनी चाहिए। तप की उपकारता साम्यक् तप नवीन कर्मों को रोकता है, चिरकाल से संचित कर्मों की निर्जरा करता है, एवं इन्द्र, चक्रवर्ती आदि की सम्पदाएँ देता है। सम्यक्तप के अलाभ से ही मुझे जन्म-मरण के चक्र तथा दुखों से भरे संसार-समुद्र में भ्रमण करना पड़ा है तथा करना पड़ेगा। इस प्रकार तप के द्वारा होनेवाले उपकारों का चिन्तन कर एवं तप में अनुराग कर उसी के लिए उद्यमशील रहना चाहिए। Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ५१ आवश्यक जो आत्मा में आवास कराते हैं ऐसे सामायिक, चतुर्विशति स्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और व्युत्सर्ग को आवश्यक कहते हैं। सर्व सावध के त्याग रूप समता परिणाम को सामायिक कहते हैं। वृषभादि चौबीस तीर्थंकरों के गुणों को, उनके स्तवनों को ज्ञान-श्रद्धानपूर्वक पढ़ना चतुर्विंशतिस्तव है। रत्नत्रय विभूषित आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक और स्थविर मुनिराजों के गुणातिशयों को जानकर श्रद्धा-भक्ति से अभ्युत्थान पूर्वक उनकी विनय में प्रवृत्ति करना वन्दना आवश्यक है। प्रश्न - अभ्युदयादि रूप विनय कौन करता है और इससे क्या लाभ हैं? उत्तर - मान रहित, संसार से विरक्त, निरालस, सरल हृदय, दूसरों के गुणों को प्रगट करने में तत्पर और संघप्रेमी अथवा धर्मप्रेमी ही विनय करते हैं। जिनेन्द्र देव ने विनय को प्रथम कर्तव्य कहा है क्योंकि विनय से मान कषाय का विनाश होता है, गुरुजनों में बहुमान, तीर्थंकरों की आज्ञा का पालन, श्रुतोपदिष्ट धर्म की आराधना, परिणामविशुद्धि तथा आर्जव और सन्तोषादि गुणों की प्रकर्षता होती है। प्रश्न - जो दीक्षा में अपने से छोटे हैं क्या उनकी भी विनय करनी चाहिए ? उत्तर - जो रत्नत्रय एवं तप में सदा तत्पर रहते हैं, या वाचना करते हैं या अनुयोग का शिक्षण कराते हैं । यदि "अवमरत्नत्रयस्याभ्युत्थातव्यं" अपने से रत्नत्रय में न्यून भी हों तब भी उनके पास अध्ययन करने वालों को उनके सम्मान में उठ कर खड़े होना चाहिए। प्रश्न - प्रतिक्रमण किसे कहते हैं और उसके कितने भेद हैं? उत्तर - दोषों की निवृत्ति को प्रतिक्रमण कहते हैं। नाम प्रतिक्रमण - अयोग्य नामों का उच्चारण नहीं करना नाम प्रतिक्रमण है। स्थापना प्रतिक्रमण - लिखित, चित्रित, खोदी हुई या उकेरी हुई त्रस-स्थावरों की आकृतियों को नष्ट न करना, मर्दन न करना, तोड़ने-फोड़ने आदि रूप क्रियायें न करना तथा आप्ताभासों की अर्थात् हरि-हरादिकों की प्रतिमाओं के सामने हाथजोड़ कर खड़े न होना, मस्तक न झुकाना और गन्धादि द्रव्यों से उनकी पूजन न करना स्थापना प्रतिक्रमण है। द्रव्य प्रतिक्रमण - वास्तु, क्षेत्रादि दस प्रकार के बाह्य परिग्रहों का त्याग करना, उद्गम- उत्पादनादि दोषयुक्त वसतिका, उपकरण एवं आहार आदि पदार्थ अभिलाषा, उन्मत्तता एवं संक्लेशादि परिणामों की वृद्धि के कारण हैं अत: दोषयुक्त ऐसे पदार्थों को ग्रहण न करना द्रव्य प्रतिक्रमण है। क्षेत्र प्रतिक्रमण - जहाँ ज्ञानवृद्ध या तपोवृद्धादि गुणयुक्त साधुजन नहीं रहते अथवा जिस स्थान पर रहने से रत्नत्रय की हानि होती है, अथवा जो स्थान स-स्थावर जीवों से या पानी कीचड़ आदि से व्याप्त हैं ऐसे स्थानों का त्याग करना क्षेत्र प्रतिक्रमण है। काल प्रतिक्रमण - रात्रि में, तीनों सन्ध्याओं में, स्वाध्याय काल में एवं सामायिक आदि षड़ावश्यकों के समय में यत्र-तत्र आना-जाना, गप्पाष्टक करना तथा अन्य-अन्य क्रियायें करने का त्याग करना काल प्रतिक्रमण है। Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणण्डिका - ५२ भाव प्रतिक्रमण - मिथ्यात्व, असंयम, कषाय, राग, द्वेष, आहारादि चारों संज्ञाएँ, निदानबन्ध और आर्त-रौद्र आदि रूप अशुभ-परिणामों का और पुण्यास्रवभूत शुभ परिणामों का भी त्याग करना भाव प्रतिक्रमण प्रश्न - प्रत्याख्यान किसे कहते हैं और उसके कितने भेद हैं ? उत्तर - "मैं भविष्य में यह-यह कार्य नहीं करूँगा", इस प्रकार के संकल्प को प्रत्याख्यान कहते हैं। नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के भेद से इसके छह भेद हैं। यथा नाम प्रत्याख्यान - 'मैं अयोग्य नामों का उच्चारण नहीं करूंगा' ऐसा संकल्प करना नाम प्रत्याख्यान है। इसी प्रकार स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव प्रतिक्रमण के जो-जो लक्षण ऊपर दिये गये हैं उन्हें भविष्य में भी नहीं करने की प्रतिज्ञा करना तद्-तद् प्रत्याख्यान का लक्षण है। प्रश्न - कायोत्सर्ग किसे कहते हैं ? उत्तर - औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजस और कार्माण ये पाँच शरीर हैं। इनमें से संयम का, केवलज्ञान का और मोक्ष का साधन होने से जीव का सबसे बड़ा उपकारी यह औदारिक शरीर ही है, किन्तु अन्य शरीरों की अपेक्षा यही शरीर सबसे अधिक अपवित्र है, क्योंकि इसका बीज माता-पिता का रजवीर्य है जो महा अपवित्र है। यह शरीर सप्त धातुओं से निर्मित है, जड़ स्वभावी है, अनित्य है, विनाशीक है, असार है, दुख का कारण है और दुख से ही धारण करने योग्य है। कायोत्सर्ग शब्द में काय और उत्सर्ग ये दो शब्द हैं। काय का अर्थ है औदारिक शरीर और उत्सर्ग का अर्थ है त्याग। अर्थात् औदारिक शरीर का त्याग यह कायोत्सर्ग का अर्थ है। प्रश्न - औदारिक शरीर का त्याग तो मनुष्यायु समान होने पर ही हो सकता है फिर इसके त्याग का उपदेश कैसे दिया गया ? उत्तर - स्पर्शन, रसना आदि पाँचों इन्द्रियाँ इस शरीर की अवयव स्वरूप हैं, ये इन्द्रियाँ अपने-अपने विषय को ग्रहण कर इसे पुष्ट करती हैं तथा इसी औदारिक शरीर के माध्यम से जीव विषयों को भोग कर अपने को सुखी मानता है, अत: उसका इस शरीर से ममत्व भाव हो रहा है, यही ममत्व भाव जीव के संसार-परिभ्रमण का कारण है, अतः आचार्यदेव ने इस शरीर से ममत्वभाव छोड़ने का उपदेश दिया है, शरीर को छोड़ने का नहीं। अर्थात् काय से ममत्वभाव का त्याग करना, यह कायोत्सर्ग का अर्थ है। प्रश्न - कायोत्सर्ग कैसे, कहाँ और कितने काल पर्यन्त करना चाहिए ? उत्तर - शरीर से निस्पृह होकर, स्थाणु की तरह शरीर को सीधा करके दोनों हाथों को लटका कर अथवा पद्मासन आदि मुद्रा में निश्चल बैठकर, शरीर को ऊँचा-नीचा न करके परीषहों और उपसों को जीतते हुए अर्थात् सहन करते हुए प्रशस्त ध्यान में लीन होकर कर्मों को नष्ट करने की अभिलाषा से जन्तुरहित एकान्त स्थान में कायोत्सर्ग करना चाहिए। Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ५३ इसका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल एक वर्ष प्रमाण है। सायंकालीन प्रतिक्रमण में सौ उच्छ्वास प्रमाण, प्रात:कालीन प्रतिक्रमण में पचास उच्छ्वास प्रमाण, पाक्षिक प्रतिक्रमण में तीन सौ उच्छवास प्रमाण, चातुर्मासिक प्रतिक्रमण में चार सो उच्छ्वास प्रमाण और वार्षिक प्रतिक्रमण में पाँच सौ उच्छ्वास प्रमाण काल पर्यन्त कायोत्सर्ग करना चाहिए | कायोत्सर्ग क्रिया में यदि उच्छ्वास का या परिणाम का स्खलन हो जावे तो आठ उच्छ्वास प्रमाण अधिक काल तक कायोत्सर्ग और करना चाहिए। तप विनय किनकी करना चाहिए तपस्तपोऽधिके भक्तिर्यच्छेषाणामहेडनम् । स तपो विनयोऽवाचि, ग्रन्थोक्तं चरतो यतेः॥१२१ ।। अर्थ - अनशन आदि बारह प्रकार के तपों की और जो साधुजन अपने से अधिक तपस्वी हैं उनकी भक्ति एवं विनय अवश्य करनी चाहिए किन्तु जो साधुजन तप में अपने से कम हैं किन्तु ज्ञान, श्रद्धान और चारित्र सम्पन्न हैं, उनका पराभव नहीं करना भी तप विनय है। शास्त्रोक्त आचरण करने वाले साधु के इस प्रकार तप का विनय होता है ।।१२१॥ प्रश्न - जो साधु तप में अपने से कम हैं उनकी विनय क्यों करनी चाहिए ? उत्तर - सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के अनुगत किया जाने वाला तप ही सम्यक्तप है। जो साधुगण ज्ञान, श्रद्धान और चारित्र से सम्पन्न होने पर भी तप में अपने से कम हैं उनका तिरस्कार नहीं करना, क्योंकि उनकी अवहेलना करने से ज्ञानादि सद्गुणों का तिरस्कार होता है अर्थात् ज्ञानादि का बहुमान न होने से अपने ज्ञान में अतिचार लगता है। अवहेलना से वात्सल्यगुण का नाश होने से अपने सम्यग्दर्शन में दोष उत्पन्न होता है तथा सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान सदोष होने पर सम्यक् चारित्र भी सदोष हो जाता है जो महा अनर्थ है, अत: ज्ञान, श्रद्धान एवं चारित्रसम्पन्न किन्तु तप में अपने से हीन साधु की अवहेलना अपने अहित का ही कारण है ऐसा जान कर उनका भी सम्मानादि करना चाहिए। पूर्व गाथा (१२०) में और इस गाथा में कहे हए गुणों का पालन करने से तथा शास्त्रानुसार आचरण करने से ही साधुजनों को तप विनय की प्राप्ति होती है। उपचार विनय के भेद कायिको वाचिकश्चैतः. पञ्चमो विनयस्त्रिधा। सर्वोप्यसौ पुनर्द्वधा, प्रत्यक्षेतर - भेदतः ।।१२२ ।। अर्थ - कायिक, वाचिक और मानसिक के भेद से उपचार विनय तीन प्रकार की है तथा यह तीनों प्रकार की विनय प्रत्यक्ष और परोक्ष विनय के भेद से दो-दो प्रकार की है।।१२२ ।। प्रत्यक्ष कायिक विनय संभ्रमो नमनं सूरेः, कृतिकाजलि-क्रिया। सम्मुखं यानमायाति, यात्यनुव्रजनं पुनः ॥१२३ ।। Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ५४ अर्थ - आचार्य आदि गुरुजनों के आगमन के समय या प्रस्थान करते समय खड़े होना, नमस्कार करना, नम्र होना, अञ्जलि बाँध कर आचार्यभक्ति आदि विधिपूर्वक कृतिकर्म करना। आचार्य, तपोधिक या अन्य महर्षियों के आने पर सम्मुख जाना, अन्यत्र विहार कर रहे हों तो कुछ दूर तक उनके साथ जाना या स्वयं भी उनके साथ विहार करना हो तो मार्ग में उनके पीछे-पीछे चलना आदि।।१२३ ।। नीचं यानमवस्थानं, नीचं शयनमासनम्। प्रदानमवकाशस्य, विष्टरस्योपकारिणः ॥१२४ ।। अर्थ - नीचे गमन, नीचे खड़े होना, नीचे शयन, नीचा आसन, उपकरणदान, अवकाशदान एवं शय्या तथा आसनदान आदि कायिक विनय के भेद हैं ।।१२४ ॥ प्रश्न - नीचे अवस्थान, नीचे शयनासन और अवकाशदान आदि का क्या अभिप्राय है? उत्तर - नीचं यानं अर्थात् नीचा स्थान - गुरु के स्थान से शिष्य का स्थान बिलकुल बराबरी का न हो, 'कुछ नीचा, कुछ पीछे और उनसे कुछ का हो नीचा अमान - गोपी इस प्रकार है कि अपने हाथ-पैर या श्वास आदि का स्पर्श गुरु को न हो। यदि सामने बैठने का अवसर प्राप्त हो तो थोड़ा हटकर और उनके वामभाग में बैठे। नीचे शयन - शयन करते गुरु के नाभिप्रदेश के समकक्ष शिष्य का मस्तक हो और बाजू में भी गुरु की शय्या से दो-पौने दो हाथ का अन्तर हो। यदि बाजू में स्थान न हो तो नीचे उनके चरणों की ओर सिर करके सोना । नीचा आसन - गुरु के आसन पर विराजमान हो जाने के बाद अपना मस्तक किंचित् नम्रकर, उद्धतता रहित जमीन पर बैठना । उपकरण दान - जिससे ज्ञान और संयमादि गुणों का उपकार होता है उसे उपकरण कहते हैं। उद्गम एवं उत्पादन आदि दोषों से रहित प्राप्त हुए उपकरण गुरु को प्रदान करना । अथवा गुरु के उपकरणों का सावधानीपूर्वक मार्जन करना। आसन दान - गुरु बैठना चाहते हैं ऐसा अभिप्राय जानकर मार्जन योग्य आसन देखना और उसे अथवा गुरु जहाँ नित्य विराजते हैं उसे कोमल पीछी से अत्यन्त धीरे-धीरे पोंछना या साफ करना । अवकाश दान - शीत ऋतु में अथवा शौत से पीड़ित गुरुजन को वायु रहित या उष्णता सहित स्थान देना, तथा ग्रीष्म ऋतु में या उष्णता से पीड़ित को शीतल स्थान देना। देश-काल-वयो-भाव-धर्मयोग्य-क्रियाकृतिः । करणं प्रेषणादीनामुपधेः प्रतिलेखनम् ।।१२५ ।। व्यापारः क्रियते नित्यं, यः कायेनैवमादिकः । कायिको विनयोऽवाचि, साधूनां स यथोचितः ।।१२६ ॥ अर्थ - गुरुजनों की सेवा करते समय यह देखना योग्य है कि प्रदेश रूक्ष है या स्निग्ध है या जल बहुल है। शीत काल है या उष्ण काल है अथवा अन्य प्रकार से भी देश एवं काल के अनुकूल सेवा करनी चाहिए। गुरु की वय बाल है या यौवन है या वृद्ध है या अतिवृद्ध है उसके अनुसार सेवा करनी चाहिए। उनके व्रत एवं संयम में दूषण अथवा अतिचार आदि न लगे इस प्रकार उनके ग्राह्यधर्म की रक्षा करते हुए सेवा करनी चाहिए। उनके भावों के अनुकूल अथवा जैसी उनकी भावना या इच्छा हो, उनके शरीर को अपने शरीर का स्पर्श आदि न हो इस प्रकार बैठकर सेवा करनी चाहिए। उन्होंने जैसा सन्देशा अन्यत्र भेजने की आज्ञा दी हो उसे विनयपूर्वक Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ५५ -- ग्रहण कर स्वयं भेजे एवं आचार्य आदि के शास्त्र, पीछी तथा कमण्डलु आदि उपकरणों का शोधन दोनों सन्ध्याओं में करना चाहिए ।।१२५ ।। इन भेदों को आदि करके और सभी प्रकार की उपचार विनय अपने शरीर के द्वारा साधुवर्ग में सदा यथायोग्य की जाती है। यह कायिक विनय कही गई है।।१२६ ।। वाचिक विनय पूजा-सम्पादकं वाक्यमनिष्ठुरमकर्कशम् । अक्रिया-वर्णकं श्रव्यं, सत्यं सूत्रानुषीचिकम् ॥१२७ ।। अर्थ - पूजा सम्पादक, अनिष्ठुर, अकर्कश, पापारम्भ अकारक, कर्ण-प्रिय, सत्य एवं आगमानुकूल वचन नोजाना वाचिक विनय है !:५२५८ ।। उपशान्तमगार्हस्थ्य, हितं मितमहेडनम् । योगिनो भाषमाणस्य, विनयोऽवाचि वाचिकः ॥१२८॥ अर्थ - उपशान्तवचन, जो गृहस्थों के योग्य नहीं हैं ऐसे वचन, हित वचन, मित वचन और अवज्ञा आदि न करने वाले जो वचन योगिजन द्वारा बोले जाते हैं, उन्हें वाचिक विनय कहते हैं ।।१२८ ।। प्रश्न - पूजा सम्पादक आदि वचनों के क्या लक्षण हैं? उत्तर - हे स्वामिन् ! मैं सुन रहा हूँ। हे भगवन् ! आपकी आज्ञा हो तो मैं जाऊँ, इत्यादि रूप से आदरसूचक वचन बोलना पूजा सम्पादक वचन हैं। अनिष्ठुर अर्थात् जो वचन दूसरों के मन को दुखी न करें। अकर्कश अर्थात् मधुर वचन । अक्रिया वर्णक वचन अर्थात् असि, मसि, कृषि एवं अन्य भी आरम्भ आदि में प्रवृत्ति न करानेवाले या जीवों को बाधा न देने वाले वचन | श्रव्य अर्थात् कर्णप्रिय वचन । उपशान्त वचन अर्थात् राग-द्वेष रहित वचन । अगार्हस्थ्य वचन अर्थात् मिथ्यादृष्टि या असंयमी जन जो शिष्ट वचन नहीं बोलते ऐसे वचन | हित अर्थात् उभय लोकों में हितकारी वचन। मित अर्थात् जितना बोलने से विवक्षित अर्थ का बोध हो जावे उतना वचन तथा अहेडन अर्थात् दूसरों का निरादर न करने वाले वचन। उपर्युक्त कहे अनुसार वचन बोलना वाचिक विनय है। मानसिक विनय हित-मित-परिणामं, विदधानस्य मानसः । पापासव-परिणाम, मुञ्चतो विनयो मतः ।।१२९ ।। अर्थ - पाप लानेवाले अशुभ परिणामों का त्याग करना और जो गुरु को प्रिय एवं हितकर हो उसी रूप परिणाम करना मानसिक विनय है ।।१२९ ।। प्रश्न - गुरु के प्रति किये जाने वाले कौन-कौन से परिणामों से पापानव होता है? उत्तर - गुरु द्वारा अपनी स्वेच्छाचारिता का निवारण किये जाने पर, परिणामों में क्रोध उत्पन्न हो जाने पर, शिष्य अविनयी या उद्दण्ड देखकर उसके प्रति गुरु की कृपादृष्टि उठ जाने पर, अर्थात् ‘मुझे मेरे गुरु अब पूर्ववत् Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ५६ नहीं पढ़ाते हैं, मुझे पूर्ववत् अपने समीप नहीं बैठाते हैं, मुझसे अब कोई वार्तालाप भी नहीं करते हैं।' इस प्रकार और अन्य-अन्य कारणों से गुरु के प्रति क्रोध, माया या मानरूप परिणाम रखने पर गुरु की विनय में प्रमाद, अवज्ञा वा अवहेलना करने पर या निन्दा करने पर या उनके विपरीत चलने पर तथा इसी प्रकार की अन्य भी कुचेष्टाएँ करने पर पापास्रव होता है जो उसके दुखसमूह को बढ़ानेवाला ही है, अत: ऐसे पापानब के कारणभूत परिणामों का त्याग कर देना तथा गुरु को जो प्रिय हो, जिससे स्वपर का हित हो एवं रत्नत्रय की वृद्धि हो ऐसे परिणाम मानसिक विनय रूप होते हैं जो सदा करने चाहिए। परोक्ष विनय इत्ययं विनयोऽध्यक्षः, परोक्षः स मतो गुरोः। अप्रत्यक्षेऽपि या वृत्तिराज्ञा-निर्देश-चर्ययोः ॥१३०॥ अर्थ - इस प्रकार उपर्युक्त विवेचित सब प्रकार की विनय यदि गुरु के प्रत्यक्ष रहते की जाती है तब वह प्रत्यक्ष विनय कही जाती है और उनके प्रत्यक्ष नहीं रहते की जाती है तो वह परोक्ष विनय कही जाती है। तथा गुरु के अभाव में भी उनकी आज्ञा-निर्देश रूप आचरण करना परोक्ष विनय है ।।१३०॥ गुरु के अतिरिक्त अन्य की भी विनय करनी चाहिए संयत्तानां गृहस्थानां, आर्यिकाणां यथायथम् । विनयः सर्वदा कार्यः, संसारान्तं यियासुना॥१३१॥ अर्थ – संसार-भ्रमण नष्ट करने के इच्छुक भव्य जीवों को साधुओं की विनय तो करनी ही चाहिए किन्तु जो अपने से छोटे साधु हैं उनका उनके योग्य प्रिय वचन तथा प्रिय आचरण द्वारा, आर्यिकाओं का एवं गृहस्थों का शुभाशीर्वाद आदि उनके योग्य वचनों द्वारा उन्हें सन्तुष्टि प्रदान करना भी विनय की कोटि में है जो अवश्य करना चाहिए।।१३१।। बिनय ही सब सिद्धि का कारण है विनयेन विना शिक्षा, निष्फला सकला यतेः। विनयो हि फलं तस्याः, कल्याणं तस्य चिन्तितम् ॥१३२ ॥ अर्थ - विनय के बिन! अर्थात् विनयरहित साधु की सब शिक्षा व्यर्थ होती है, शिक्षा का फल विनय ही तो है। (फिर विनय का फल क्या है ? ऐसा प्रश्न होने पर ग्रन्थकार कहते हैं कि) सर्व अभ्युदय निश्रेयसरूप कल्याण ही उसका फल है अर्थात् पंचकल्याणक रूप ऐश्वर्य की प्राप्ति तथा इन्द्रिय-अनिन्द्रिय सुख की प्राप्ति ये सब विनय के सुविचारित फल हैं ।।१३२ ।। विमुक्तिः साध्यते येन, श्रामण्यं येन वयते॥ सूरिराराध्यते येन, येन संघ: प्रसाद्यते ।।१३३॥ विनयेन विना तेन, निर्वृति यो यियासति । तरण्डे न विना मन्ये, स तितीर्षति वारिधिम् ॥१३४॥ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका -५७ अर्थ - जिसके द्वारा मुक्ति साध्य की जाती है, जिसके द्वारा श्रमणता वृद्धिंगत होती है, जिसके द्वारा आचार्य की आराधना होती है और जिसके द्वारा संघ प्रसन्न किया जाता है, वह विनय है। अर्थात् विनयवान जीव को ये उपलब्धियाँ सहज प्राप्त हो जाती हैं ॥१३३ ।। ऐसी विनय के बिना जो मोक्षसुख प्राप्त करना चाहता है, वह मानों जहाज के बिना ही समुद्र को पार करना चाहता है।।१३४।। विनय के माध्यम से उत्पन्न होने वाले अन्य गुण कल्पाचार-परिज्ञानं, दीपनं मानभञ्जनम्। आत्मशुद्धिरवैचित्त्यं, मैत्री मार्दवमार्जवम् ।।१३५ ।। अर्थ - विनयवान का कल्पशास्त्र और आचारशास्त्र का परिज्ञान वृद्धिंगत हो जाता है, मान कषाय नष्ट हो जाती है; आत्मशुद्धि, चित्त में स्थिरता, सब के प्रति मैत्रीभाव, मार्दवभाव और आर्जव भान विकसित हो जाते हैं॥१३५॥ प्रश्न - कल्पशास्त्र और आचारशास्त्र किसे कहते हैं और इनका ज्ञान हो जाने से क्या लाभ होता है? उत्तर - जो शास्त्र अपराध के अनुरूप दण्ड विधान की संयोजना का प्रकाशन करता है उसे कल्पशास्त्र कहते हैं। विनयवान साधुओं को इस शास्त्र का तलस्पर्शी ज्ञान हो जाता है। कल्पशास्त्र अविनयी साधु के लिए दण्डविधान का निर्धारण करता है, अत: वह विनय का हो निरूपण करता है। उसके भय से साधुजन विनय करने में तत्पर रहते हैं, यह इस शास्त्र का ही उपकार है। रत्नत्रय के आचरण का कथन करने में तत्पर होने से द्वादशांग के प्रथम अंग को आचारांग कहते हैं। अर्थात् जिसमें मुनिजनों के आचरण का कथन हो वह आचार शास्त्र है। इसका अभिप्राय यह है कि कायिक और वाचिक विनय करने से आचारांग में कहे गये क्रम का प्रकाशन होता है। यही कारण है कि विनय करने से श्रुत की और चारित्र की अर्थात् दोनों की आराधना हो जाती है। भक्तिः प्रह्लादनं कीर्तिलाघवं गुरु-गौरवम् । जिनेन्द्राज्ञा गुण-श्रद्धा, गुणा वैनयिका मताः॥१३६ ॥ अर्थ - देव, शास्त्र और गुरु में प्रगाढ़ भक्ति, प्रह्लाद अर्थात् हार्दिक प्रसन्नता, यश, लाघव, गुरु के गौरव की वृद्धि, जिनेन्द्राज्ञा का पालन और गुणसमूह में श्रद्धा भाव, ये सब गुण विनय करने वाले को स्वयमेव प्राप्त हो जाते हैं॥१३६॥ प्रश्न - प्रह्लाद गुण और लाघव गुण का क्या अभिप्राय है? उत्तर - प्रकृष्ट गुण को प्रह्लाद कहते हैं अर्थात् जिनकी विनय की जाती है उनका मन प्रफुल्लित हो जाता है अर्थात् उन्हें बहुत सुख होता है। इस प्रकार विनययोग्य को सुखी करना यह विनय का प्रह्लाद गुण है। लाघव का अर्थ है लघु या भार रहित । विनीत साधु अपना भार गुरु को सौंप कर हल्का या लघु हो जाता है। अर्थात् उसका मन चिन्तामुक्त हो जाता है क्योंकि आचार्यदेव स्वयं उसकी चिन्ता करने लगते हैं; इसकारण उसके मन पर कोई भार नहीं रहता। Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका -५८ विनयं न विना ज्ञानं, दर्शनं चरितं तपः। कारणेन विना कार्य, जायते कुत्र कथ्यताम् ।।१३७ ।। अर्थ - कारण बिना कार्य होना क्या सम्भव है? नहीं। जैसे कारण बिना कार्य नहीं होता उसी प्रकार विनय के बिना ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप ये कदापि नहीं हो सकते । अतः साधुओं को विनयगुण अवश्य धारण करना चाहिए ||१३७॥ समस्ताः सम्पदः सद्यो, विधाय वशवर्तिनीः। चिन्तामणिरिवाभीष्टं, विनयः कुरुते न किम् ।।१३८ । इति विनयः॥ अर्थ - इस प्रकार समस्त सम्पदाओं को शीघ्र ही अपने वश में करनेवाले चिन्तामणि रत्न के समान इस अभीष्ट विनय को क्यों न किया जाय? अर्थात् विनय अवश्य ही करना चाहिए।१३८ । ।। इस प्रकार विनय गुण का कथन पूर्ण हुआ । ५. समाधि अधिकार समाहित चित्त का लक्षण और उसका फल समाहितं मनो यस्य, वश्यं त्यक्ताशुभाम्रवम्। उह्याते तेन चारित्रमश्रान्तेनापदूषणम् ।।१३९ ।। अर्थ - जिसका मन अशुभास्रव के प्रवाह से रहित है और वशवर्ती है, वह मन समाहित कहा जाता है। वह समाहित मन बिना थके निरतिचार चारित्र के भार को धारण करता है ।।१३९ ।। तितवाविव पानीयं, चारित्रं चल-चेतसः । वपुषा वचसा सम्यक्, कुर्वतोऽपि पलायते ॥१४०॥ अर्थ - कोई साधु काय से और वचन से शास्त्रानुसार सम्यक् आचरण कर रहा है किन्तु यदि उसका चित्त चंचल है तो उसका चारित्र चलनी में रखे हुए जल के सदृश गल जाता है अर्थात् पलायमान हो जाता है ।।१४०॥ प्रश्न - समाहित मन और चित्त किसे कहते हैं? यह वशवती कैसे होता है और उस वशवर्तिता का ज्ञान कैसे होता है? उत्तर - जिसका मन अशुभ परिणामों के प्रवाह को रोक देता है और जहाँ उसे लगाया जाय वहीं ठहरा रहता है वह मन समाहित कहा जाता है। मन को ही चित्त कहते हैं। जैसे नट एवं नटी-नर्तकी आदि के हावभावों के उतार-चढ़ाव पूर्वक किया गया नृत्यादि कार्य देखकर उसी के अनुरूप प्रेम, कोप, भय एवं दुखादि रूप परिणाम दर्शकों की आत्मा में उत्पन्न हो जाते हैं और उस समय उनके शरीर के रोमांच, मुख के विकास, मन्द Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ५९ मन्द हास्य, ग्लानि, भय एवं कोप आदि की चेष्टाएँ देख कर सहज ही यह अनुमान हो जाता है कि दर्शकों का मन इन नाट्य आदि दृश्यों के वशवर्ती हो चुका है। उसी प्रकार नोइन्द्रिय मतिज्ञानावरण कर्म प्रकृति के क्षयोपशम विशेष से आत्मा के नोइन्द्रिय अर्थात् भावमन होता है, वह आत्मा के वशवर्ती है। रागादि सहित और रागादि रहित के भेद से मन की यह वशवर्तिता दो प्रकार की होती है। भावमन आत्मा की इच्छा से अब किसी विषयवासना में या क्रोधादि विकारी भावों में किसी एक विषय पर एकाग्र होता अनुभव में आता है तब नवीन राग-द्वेष अदि की उत्पत्ति होती रहती है । यह विकारी परिणति भी पूर्व कर्मोदय के निमित्त से होती है और नवीन कर्मशृंखला के बन्ध का निमित्त बनती है, अत: यह सिद्ध होता है कि रागादि सहित भावमन की यह वशवर्तिता ही संसार चंक्रमण का मूल कारण है। राग-द्वेष से अबाधित मन जब सभता के वशवर्ती हो जाता है तब श्रमण के काय और वचन की सौम्यता से उसका ज्ञान हो जाता है और यही मन निर्मल चारित्र के भार को निराकुलता पूर्वक धारण करता हुआ मोक्ष प्राप्त कर लेता है। मन की दुष्टता का निरूपण परितो धावते चेतश्चरण्युरिव चञ्चलम् । परमाणुरिव क्षिप्रं, दूरं यात्यनिवारितम् ॥१४१॥ अर्थ - वायुवत् चंचल यह मन अपने विषय के चारों ओर दौड़ता है, बिना किसी रुकावट के परमाणु के सदृश शीघ्र ही अत्यन्त दूर पहुँच जाता है ।।१४१ ।। वाञ्छिताभिमुखं स्वान्तं, निषेधुं केन शक्यते । नगापगा पयो निम्ने, प्राप्तं तद्रुध्यते कथम् ॥१४२ ।। ___ अर्थ - अपने इष्ट विषय के सम्मुख जाते हुए इस मन को किसके द्वारा रोका जाना शक्य है? भला, पर्वत से नीचे गिरते हुए नदी के जल को किस प्रकार रोका जा सकता है? ||१४२।। न मूको बधिरोऽन्धो, वा ब्रूते शृणोति पश्यति । वस्तु हेयमुपादेयं, विषयाकुलितं मनः ।।१४३ ॥ अर्थ - जैसे गूंगा बोल नहीं सकता, बहिरा सुन नहीं सकता और अन्धा देख नहीं सकता, वैसे ही विषयों से आकुलित मन हेय-उपादेय तत्त्व को नहीं जानता ।।१४३ ।। विकल्पैर्विविधैर्लोक, पूरयित्वा मलीमसैः। मेघवृन्दमिव स्वान्तं, क्षणेनैव विनश्यति ।।१४४ ।। अर्थ - जैसे मेघसमूह अनेक आकार-प्रकार द्वारा आकाश को पूरित कर क्षणभर में ही नष्ट हो जाता है, वैसे ही अशुभ एवं मलिन विविध-संकल्प विकल्पों द्वारा सम्पूर्ण लोक को पूरित कर यह मन शीघ्र ही नष्ट हो जाता है ।।१४४॥ न प्रवर्तयितुं मार्गे, दुष्टो वाजीव शक्यते। ग्रहीतुं शक्यते चेतो, न मत्स्य इव बीलनः॥१४५ ॥ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ६० अर्थ- जैसे दुष्ट अश्व को मार्ग पर चलाना और अति स्निग्ध बीलन मत्स्य को पकड़ना शक्य नहीं है वैसे हो मन को वश में करना शक्य नहीं है ।। १४५ ।। मन के वशीभूत होनेवाले और मन को वशीभूत करने वालों का फल यस्य दुःख - सहस्राणि, भजन्तं वशवर्तिनः । संसार सागरे घोरे, बंभ्रम्यन्ते शरीरिणः ।। १४६ ।। अर्थ - इस मन के वशीभूत होनेवाले ये संसारी प्राणी सहस्रों दुख सहते हैं और घोर संसार सागर में परिभ्रमण करते हैं ॥ १४६ ॥ - संसार- कारिणो दोषा, राग-द्वेष-मदादयः । जीवानां यस्य रोधेन, नश्यन्ति क्षण - मात्रतः ।। १४७ ।। तद् दुष्टं मानसं येन, निवार्याशुभ-वृत्तित: । प्रवृत्त - शुभ संकल्पं, स्वाध्याये क्रियते स्थिरम् ॥ १४८ ॥ अर्थ - उपर्युक्त उस दुष्ट मन को वशीभूत कर लेने से जीवों के राग, द्वेष एवं मद आदि संसार के कारणभूत समस्त दोष क्षण मात्र में नष्ट हो जाते हैं, उस दुष्ट मन को अशुभ प्रवृत्तियों से रोक कर शुभ संकल्पों में प्रवृत्त कर स्वाध्याय में स्थिर किया जाता है | १४७-१४८ ॥ प्रश्न स्वाध्याय में मन कैसे स्थिर होता है और उसका क्या फल है? उत्तर- दुष्ट मन को विकारी भावों से हटा कर रत्नत्रय में स्थापित करने से मन स्वाध्याय में अर्थात् समीचीन तत्त्वचिन्तन में स्थिर हो जाता है और स्वाध्याय' मन स्थिर हो जाने से साधु के समता भाव जाग्रत हो जाते हैं। मन को स्थिर करने का उपाय अभितो धावमानं तद्विचारेण निवर्त्यते । निगृह्य क्रियते चित्तं, दुर्वृत्त इव लज्जितम् ॥१४९ ।। अवशं क्रियते वश्यं येन दास इव व्रतम् । श्रामण्यं निश्चलं तस्य, सर्वदाप्यवतिष्ठते ॥ १५० ॥ इति समाधिः । अर्थ - जिस प्रकार दुराचारी कुपुत्र को दुराचरण के फलप्रदर्शन द्वारा लज्जित कर दुराचरण से विमुख किया जाता है, उसी प्रकार चारों ओर दौड़ते हुए मन को तत्त्वविचार द्वारा अपनी आत्मा की ओर लौटाना चाहिए ॥ १४९ ॥ जैसे अवश हुए स्वेच्छाचारी दास को उपायपूर्वक वशीभूत कर स्थिर किया जाता है, उसी प्रकार साधु अपने अवश मन को वशीभूत कर लेता है जिससे उसका श्रामण्य अर्थात् समता भाव निश्चल हुआ सदैव अवस्थित रहता है || १५० ।। इस प्रकार मन को वशीभूत एवं श्रामण्य को स्थिर करनेवाला समाधि अधिकार पूर्ण हुआ || ५ || Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ६१ ६. अनियत-विहार अधिकार अनियत विहार के गुण दृष्टिशुद्धि-स्थिरीकारी, भावना शास्त्र-कौशलम् । क्षेत्रस्य मार्गणा साधोर्गुणा नित्य-विहारिणः ॥१५१ ॥ अर्थ - सम्यक्त्व की शुद्धि, स्थितीकरण, भावना, शास्त्र में अतिशय निपुणता और क्षेत्र का अन्वेषण, साधु के अनियत विहार मे ये गुण हैं ।।१५१ ॥ ___ दर्शन शुद्धि पद का निरूपण विशुद्धं दर्शनं साधोर्जायते पश्यतोऽर्हताम्। जन्म-निष्क्रमण-ज्ञान-तीर्थ-चिह्न-निषिद्धिकाः ।।१५२॥ अर्थ - विहार करते समय जिनेन्द्रदेव के जन्मस्थान, दीक्षास्थान, केवलज्ञान की उत्पत्ति के स्थान, निर्वाण सम्बन्धी तीर्थस्थान, समवसरण के चिह्न स्वरूप मानस्तम्भ और निषीधिका स्थान देखने से साधु के सम्यग्दर्शन में निर्मलता आ जाती है।।१५२ ।। प्रश्न - जन्मकल्याणक की ऐसी क्या अतिशयता है, जिस देखकर सम्यक्त्व निर्मल हो जाता है? उत्तर - जब तीर्थंकर जन्म लेते हैं तब अनियत विहार करने वाले यतिजन तथा तीन ज्ञान के धारी स्वर्ग से अवतरित होने वाले देव विशिष्ट पूजा को प्राप्त जिनदेव का जन्माभिषेक कल्याणक देखते हैं। वह जन्मोत्सव लोक रूपी घर में छिपे हुए अन्धकार के फैलाव को नष्ट कर देता है। अमृतपान के सदृश समस्त प्राणियों को आरोग्य लाभ देता है। देवांगनाओं के नृत्य के सदृश समस्त जगत् को आनन्दमयी है। यह महोत्सव प्रिय वचन के सदृश मन को प्रफुल्लित करता है। प्रशस्त पुण्यकर्म के सदृश अगणित पुण्य को देने वाला है। लक्ष्मी अपनी परिचारिकाओं के साथ इस महोत्सव को साश्चर्य देखती है। गुह्यक जाति के देव आकाश से पुष्पवृष्टि करते हैं। सतत नगारों और शंखों की ध्वनि होती है। इन्द्र का आसन कम्पायमान होता है, इन्द्र भेरो बजवाता है जिसके शब्द सुनकर इन्द्रादि प्रमुख और सामानिक आदि सर्व देवगण सौधर्मेन्द्र के पास आ जाते हैं। वैक्रियिक शरीर धारण कर आकाश मार्ग से जाते हुए गृहांगण में प्रवेश करते हैं। इन्द्राणी राजभवन में जाकर बालक प्रभु को लाती है। इन्द्र उन्हें लेने के लिए अपने दोनों हाथ पसारता है, हजार नेत्रों से देखते हुए भी वह तृप्त नहीं होता। इन्द्रों का समूह शुभ चमर दोरता है, छत्र लगाता है । इन्द्रनील मणियों से रचे सोपानों पर पैर रखकर देवों का समूह सुमेरु पर्वत की ओर आकाश मार्ग से गमन करता है। उस समय द्वारपाल देव क्षुद्र देवगणों को वहाँ से दूर करते हैं। हजारों आत्मरक्षक देव रक्षा का कार्य तत्परता से करते हैं। इन्द्र सहित सब देव सुमेरु की प्रदक्षिणा करते हैं। भगवान को सिंहासन पर विराजमान कर देवकुमारों की परम्परा से लाये गये क्षीरसमुद्र के जल से भरे रत्नमयी कलशों से जिन भगवान का अभिषेक करते हैं। इन्द्राणी प्रभु के अनुरूप उनका शृंगार करती है। इन्द्र के सहस्रों वैतालिकदेव अर्थात् भाट देव प्रभु की स्तुति करते हैं। जन्मोत्सव के इस शुभावसर पर इन्द्र ताण्डव नृत्य करता है। ऐसे जन्माभिषेक कल्याणक को जो-जो देखते हैं उनका सम्यग्दर्शन अति निर्मल हो जाता है। Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका प्रश्न- सम्यग्दर्शन की निर्मलता में भगवान के अन्य कल्याणकों की कौन-कौन सी अतिशयता कारण पड़ती है? उत्तर - जन्माभिषेक के बाद इन्द्र की आज्ञानुसार कुबेर महाआदर के साथ योग्य और दिव्य ऐसे उबटन, वस्त्र, भोजनपान, वाहन एवं अलंकार आदि वस्तुओं रूपी सम्पदाएँ प्रस्तुत करते हैं। मनोनुकूल क्रीड़ा करने वाले देवकुमारों का समूह भक्तिपूर्वक प्रभु की सेवा करता है। पूर्व पुण्योदय से कितने ही जिनदेव चक्रवर्तित्व, कितने ही महामण्डलीक और कितने ही मण्डलीक आदि राजपदों की सम्पदाओं का उपभोग करते हैं। - - ६२ तीर्थंकर नाम कर्मोदय से और चारित्र मोहनीय की क्षयोपशमता की प्रकर्षता से वे अनादि से आत्मा के साथ बँधे हुए स्वयं के और अन्य जीवों के कर्मों को नष्ट करने हेतु कटिबद्ध हो जाते हैं। उस समय वे जिनदेव विचार करते हैं कि यह मोह की कैसी महत्ता है कि दुरन्त संसार समुद्र के दुखरूपी भँवरों को प्रत्यक्ष अनुभव करने वाले हम जैसों को भी आरम्भ-परिग्रह में फँसाता है। हमने चिरकाल तक अहमिन्द्रों के सुख का भोग किया है, जो अणिमादि आठ महाऋद्धियों से सम्पन्न होते हैं, आपत्ति के अविषय हैं, अभिलाषाओं से दूर हैं, अकल्पनीय हैं, नागोर हैं, अन्य क्षेत्रों की क्या, कृशम्ग्रबुद्धि इन्द्र को भी वह सुख प्राप्त नहीं होता, अर्थात् इन्द्र भी उस सुख को जानने में असमर्थ है, अपराधीन है, जिसमें जीवन पर्यन्त न्यूनता नहीं आती ऐसा अहमिन्द्रपद का सुख चिरकाल तक भोग चुकने पर भी मनुष्य की इस क्षणिक भोगसम्पदा में हमारी कैसी उत्कण्ठा बन रही है ? मनुष्यलोक की यह भोग-सम्पदा दुष्टजन की मैत्री के सदृश दुखों की परम्परा उत्पन्न करनेवाली है, चंचल है, पराधीन है, कुकवि की रचना सदृश सारहीन है, अनेक बाधाओं से युक्त है, इसे हमने अनन्त बार भोगा है, किन्तु तृमि कभी नहीं हुई, इत्यादि । उसी समय शंख सदृश श्वेतवस्त्रधारी लौकान्तिक देवों ने अपने अवधि चक्षु से देखा कि जिनदेव स्वयं को और दूसरे भव्यजीवों को संसार समुद्र से पार उतारने के लिए एकदम तत्पर हैं, भगवान ने अनेक भव्य जीवों पर अनुग्रह करनेवाले महत् कार्य पूर्ण करने का बीड़ा उठाया है। हमें भी इसकी अनुमोदना करनी चाहिए, क्योंकि पूज्य पुरुषों की पूजा न करना भी स्वार्थ का घातक है। तत्काल आकर उन्होंने भगवान के वैराग्य की स्तुति की। उसी समय इन्द्र का आसन कम्पायमान हुआ। सिंहासन से उठ एवं सात पद आगे जाकर उन्होंने उसी दिशा में समीचीन धर्मतीर्थ के प्रवर्तन करने में उद्यत, शरणागत भव्यजीवों की रक्षा करने वाले एवं अलौकिक नेत्रों से विशिष्ट जिनदेव को नमस्कार किया। पश्चात् भेरी बजवाई और नाना प्रकार के छत्र, शस्त्र, वस्त्राभूषण और वाहनों के साथ वहाँ से चले । अन्य इन्द्रों और राजाओं के साथ सौधर्मेन्द्र ने राजमहल के द्वार पर पहुँच चमरछत्र आदि इन्द्रत्व के सब चिह्नों को दूर कर द्वारपाल से अपने आने का समाचार निवेदन कराया। आज्ञा मिलने पर इन्द्र तत्काल धर्मचक्र के प्रवर्तक जिनदेव के समीप पहुँचा। उसने अत्यन्त आदरपूर्वक उन्हें नमस्कार कर निवेदन किया- भगवन् ! अच्युतेन्द्र आदि समस्त इन्द्रगण आपके निष्क्रमण कल्याणक की परिचर्या करने के अभिलाषी हैं। हे प्रभो ! हम देवगुण मुक्ति का मार्ग जानते हैं और अनन्तसुख का अनुभव करने के लिए आतुर हैं तथा इन्द्रियसुख को खेदरूप जान कर उसकी उपेक्षा भी करते हैं किन्तु संयम का घात करनेवाले कर्म का क्षयोपशम हमें प्राप्त नहीं है, अतः हम स्वयं भी चारित्र में प्रवृत्त नहीं होते और न दूसरों को ही प्रवृत्त करना पसन्द Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ६३ - करते हैं। जैसे शिशु उठना चाहते हुए भी गिरता है, वैसे ही हम लोग चारित्र के अभिलाषी होते हुए भी उसे धारण करने में असमर्थ हैं। चारित्रमोह का क्षयोपशम होने से आपके निवृत्तिरूप परिणाम हुए हैं। आप पूज्यतम हैं। आपके प्रसाद से और आपकी अनुमोदना करने से आगामी भव में हमें भी समस्त आरम्भ-परिग्रह के त्याग की शक्ति प्राप्त हो। हे देव ! इस सुसज्जित विमान को सुशोभित करें। इन्द्र की विज्ञप्ति के बाद भगवान ने अन्तःपुर, परिवार एवं ज्ञातिवर्ग को हर्ष-विषाद युक्त देखा। उन्हें नाना प्रकार से सम्बोधन दिया और कहा कि वृथा प्रमाद मत करो, संसार-समुद्र को पार करने का उद्यम करो और प्रमाद से हमारे द्वारा जो अपराध हुए हों उन्हें क्षमा करो। पश्चात् सुन्दर वस्त्राभूषणों से अलंकृत हो भगवान ने मोक्षपुरी के द्वार सदृश सुसज्जित विमान में प्रवेश किया। अपने कन्धों पर ले जाये जानेवाले विमान को देवों ने किसी रम्य प्रदेश में उतारा । उत्तर की ओर मुख कर तथा सिद्धों को नमस्कार कर भगवान ने अंतरंग-बहिरंग परिग्रह का त्याग कर मन, वचन और काय से रत्नत्रय धारण कर लिया। इस प्रकार के निष्क्रमण कल्याणक को जो यतिजन देखते हैं उनका सम्यक्त्व विशुद्ध हो जाता ज्ञान कल्याणक जिन्होंने मोहनीय कर्म का भार उतार कर फेंक दिया है तथा शेष तीनों घातिया कर्मों को नष्ट कर तद्भव में ही मोक्षफल को फलित करने वाला केवलज्ञान प्राप्त कर लिया है उनके दर्शन से एवं ज्ञानकल्याणक के दर्शन से जिनेन्द्रप्रणीत मार्ग की दृढ़ श्रद्धा उत्पन्न हो जाती है जिससे सम्यक्त्व निर्मल हो जाता है। स्थितीकरण रूप उपकार इस प्रकार होता है संविग्नो वृत्त-सम्पन्न:, शुद्धलेश्यस्तपोधनः। देशान्तरातिथिः साधुः, संवेजति तद्वतः ॥१५३ ॥ अर्थ - देश-देशान्तर का अतिथि होने वाला साधु संसार से भयभीत होता हुआ वैराग्य सम्पन्न हो जाता है। उसके व्रत, चारित्र और लेश्या की शुद्धि हो जाती है तथा तप वृद्धिंगत हो जाता है॥१५३ ।। प्रश्न - देशान्तर में विहार करने वाले साधु के तप आदि की वृद्धि कैसे हो जाती है? उत्तर - देश-देशान्तर में विहार करने से परम तपस्वी, दृढ़ चारित्री, संसारभीरु, वैराग्यसम्पन्न, महात्मा एवं समताधारी साधुजन का समागम प्राप्त होता रहता है। उनका उत्कृष्ट आचरण देखकर अपने मन में विचार आता है कि-अहो ! धन्य है इन्हें ! ये कितने तपस्वी हैं ! या कितने तत्त्वज्ञ हैं, समतारूपी रस में तो मानों मज्जन ही कर रहे हैं, इनकी लेश्या-विशुद्धि कितनी अनुपम है। ये साधुजन भी तो वर्तमान काल में इस प्रकार के निर्दोष चारित्र से सम्पन्न हैं, फिर हम लोग दृढ़ चारित्री एवं लेश्या-विशुद्धिपूर्वक ऐसा तपश्चरण क्यों नहीं कर पा रहे हैं? इससे ज्ञात होता है कि हमारी आत्मा संसार के दुखों से भयभीत नहीं है। इस प्रकार विशिष्ट साधुजनों के दर्शन एवं सम्पर्क से अपने में तप और वैराग्य आदि की वृद्धि होती है। Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ६४ अनियत विहार से उत्पन्न अन्य गुण प्रियधर्माशयः साधुरागमार्थ-विचक्षणः। भ्रमन्नषद्य-वित्रस्त:, मंत्रिग्नं कुरुते परम् ।।१५४!! अर्थ - अनियत बिहार करने वाला साधु प्रियधर्मा, आगम के अर्थ में कुशल, विहार में अभ्यस्त रहने के कारण निरालस, कष्टसहिष्णु हो जाने से निराकुल चित्त होता हुआ अपने को अतिशय रूप से वैराग्यशील करता है।।१५४॥ अवद्य-भीरु संविग्ने, प्रियधर्मतरेक्षणे। अवद्य-भीरुः संविग्नः, प्रियधर्मतरोऽस्ति सः ॥१५५ ॥ __ अर्थ - देशान्तर में विहार करते समय पार्यों से अत्यन्त भयभीत, वैराग्यवान और अतिशय धर्मप्रिय महान् साधुओं के दर्शन होते हैं। उन्हें देख कर ये विहार-रत साधु भी पापभीरु, वैराग्यसम्पन्न और धर्म में प्रीति करने वाले बन जाते हैं ॥१५५ ॥ प्रश्न - संविग्नः, प्रियधर्मा और अवद्यभीरु किसे कहते हैं? उत्तर - जो पंच परावर्तन के आगमन से अत्यन्त भयभीत होते हैं वे साधु अथवा अत्यन्त वैराग्यशील साधु संविग्न होते हैं। उत्तम क्षमादि धर्मों का पालन करनेवाले प्रियधर्मा कहे जाते हैं। जो थोड़ा सा भी अशुभयोग नहीं होने देते अथवा जो पाप से डरते हैं वे अवद्यभीर कहे जाते हैं। शीतातप-क्षुधा-तृष्णा, निषद्याद्याः परीषहाः। यतिनाटाव्य-मानेन, समस्ताः सन्ति भाविताः ।।१५६॥ अर्थ - देश-देशान्तर में विहार करने वाले साधुओं के द्वारा शीत, उष्ण, क्षुधा, तृषा एवं निषद्या आदि समस्त परीषह सहन किये जाते हैं ॥१५६।। शृण्वतो भूरि-सूरीणां, व्याख्यां नानार्थ-दर्शिनीम् । देशान्तरातिथे: साधोरस्ति सूत्रार्थ-कौशलम् ॥१५७॥ अर्थ - देश-देशान्तर का अतिथि होता हुआ साधु अनेक आचार्यों के द्वारा शास्त्रों की नाना प्रकार की व्याख्या सुनता है जिससे उसे सूत्र एवं उनके अर्थों में महान् कुशलता प्राप्त हो जाती है।।१५७।। विनिष्क्रम-प्रवेशादि, समाचार-विचक्षणः । सूरीणां बहुभेदानां, जायते पाद-सेवया ॥१५८ ।। अर्थ - विहार में बहुत भेदवाले आचार्यों के चरण-कमलों की सेवा से निकलने और प्रवेश करने रूप समाचार विधि में अतिशय कुशलता प्राप्त हो जाती है ।।१५८ ।। प्रश्न - बहुत भेद वाले आचार्य कौन-कौन हैं और निकलने तथा प्रवेश रूप समाचार विधि में किस प्रकार की कुशलता प्राप्त हो जायेगी ? Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकाण्डका - ६५ उत्तर -- कुछ आचार्य शास्त्रविहित समाचार को ही जानते हैं। कोई आचार्य दूसरों के साथ आचरण करने से आचरण का क्रम जानते हैं और कोई आचार्य दोनों प्रकार से प्रबुद्ध होते हैं। इस प्रकार आचार्यों के बहुत भेद होते हैं । अनियतविहारी साधु को विहारकाल में अनेक प्रकार के आचार्यों की चरण सेवा का सुअवसर प्राप्त होता है। अर्थात् अनेक आचार्य-संघों में रहने का सौभाग्य प्राप्त होता है। उन्हीं सब की समाचार-विधि देखकर वह साधु भी उस निष्क्रमण एवं प्रवेशादि समाचार में कुशल हो जाता है। यथा - वसतिका आदि से बाहर जाते समय अथवा प्रवेश करते समय वसतिका का स्थान अथवा शरीर शीतल हो या गर्म हो अथवा पीछी गरम या ठण्डी हो उस समय विवेकपूर्वक ऐसा मार्जन हो ताकि शीतकायिक एवं उष्णकायिक जीवों को बाधा न पहुँचे। अथवा लाल, काले तथा श्वेत रंगवाली भूमियों में एक में से निकल कर दूसरी में प्रवेश करते समय कटि भाग से नीचे सम्मान करना चाहिए । अन्यथा विरुद्ध योनि के संक्रम से पृथिवीकायिक जीवों को और उस भूमि में उत्पन्न त्रस जीवों को भी बाधा उत्पन्न होती है। जल-प्रवेश करते समय पैरों में लगी हुई सचित्त-अचित्त धूलि का पीछी से भली प्रकार मार्जन करना चाहिए। जल से निकल कर जब तक पैर सूख न जाये तब तक जल के समीप ही ठहरना चाहिए | इसी प्रकार जिनमन्दिर में, साधुनिवास में, आहार हेतु गृहस्थ के गृह में, नदी में एवं नौका आदि में प्रवेश करते समय और निकलते समय क्या-क्या सावधानियाँ रखनी आवश्यक हैं, इसका ज्ञान भगवती आराधना गाथा १५२ की टीका से समझ कर उसी प्रकार आचरण करना चाहिए। मैं सब जानता हूँ 'गुरुकुल का वासी और विद्वान् हूँ' 'मुझे दूसरों से कोई आचारक्रम नहीं सीखना है' इत्यादि, ऐसा अभिमान नहीं करना चाहिए। किसी भी स्थान में प्रवेश करते समय 'निःसही' शब्द का प्रयोग और निकलते समय 'अस्सही' शब्द का प्रयोग अवश्यमेव करना चाहिए। शिक्षा में अन्त-पर्यन्त उद्योग करना चाहिए कर्तव्या यत्नतः शिक्षा, प्राणैः कण्ठगतैरपि। आगमार्थ समाचार-प्रभृतीनां तपस्विना ॥१५९॥ अर्थ - प्राण कण्ठगत होने पर भी साधुजनों को आगम के अर्थ की एवं समाचार-विधि सम्बन्धी शिक्षा प्रयत्नपूर्वक ग्रहण करनी चाहिए ॥१५९॥ सल्लेखना योग्य क्षेत्र परिमार्गणा प्रासुकं सुलभाहारं, संयतैर्गोचरी-कृतम्। सल्लेखनोचितं क्षेत्रं, पश्यत्यनियत-स्थितिः॥१६०॥ अर्थ - इस क्षेत्र में संयमी जनों को गोचरी में प्रासुक आहार सुलभता से प्राप्त हो जाता है, अत: यह क्षेत्र सल्लेखना के योग्य है, ऐसी जानकारी देशान्तर विहार करनेवाले साधुओं को सहज ही हो जाती है।।१६० ।। Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकाण्डका - ६६ प्रश्न - सल्लेखना-रत साधु को तो आहार आदि का त्याग ही करना है फिर आहार की सुलभता पूर्ण क्षेत्र सल्लेखना के योग्य क्यों कहा गया है? उत्तर - सल्लेखना-रत साधु आहार का त्याग अवश्य करते हैं किन्तु वह त्याग शनैःशनैः क्रम-पूर्वक ही होता है। इसके अतिरिक्त सल्लेखनारत साधु की सेवा में जो परिचारक साधुजन एवं ब्रह्मचारी आदि होते हैं उन्हें यदि सुलभतापूर्वक शुद्ध आहार प्राप्त न होगा तो सल्लेखनारत साधु की वैयावृत्य में व्यवधान पड़ेगा, अत: साधु को सल्लेखना वहीं ग्रहण करना चाहिए जहाँ के श्रावक श्रद्धावान् और विवेकी हों, तथा आहारदान आदि षड़ावश्यकों का निष्ठापूर्वक पालन करते हों। देश-देशान्तरों में विहार करने से ऐसे स्थानों का अन्वेषण सहज ही हो जाता है। अनियतविहारी अप्रतिबद्ध होता है श्रावके नगरे ग्रामे, वसतावुपधौ गणे। सर्वत्राप्रतिबद्धोऽस्ति, योगी देशान्तरातिथिः॥१६१ ॥ ॥ इति अनियतविहारः॥ अर्थ - देश-देशान्तर का अतिथि होने वाला साधु श्रावकजनों में, नगर में, ग्राम में, वसतिका में, उपकरणों में और संघ में सर्वत्र ही अप्रतिबद्ध होता है। अर्थात् 'यह मेरा है' इस प्रकार के संकल्प से रहित होता है ।।१६१॥ ।। इस प्रकार अनियत विहार नाम का छठा अधिकार पूर्ण हुआ। ७. परिणाम अधिकार आत्महित चिन्तन पर्यायरक्षितो दीर्घ, वितीर्णा वाचना मया। शिष्या निष्पादिता; श्रेयो, विधातुमधुनोचितम् ।।१६२।। अर्थ - मैंने दीर्घकाल तक ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तपरूप पर्याय का पालन किया है, वाचनाएँ भी दी हैं, अर्थात् आगमानुसार निर्दोष ग्रन्थ और उनके अर्थ का दान भी दिया है तथा शिष्यों को भी व्युत्पन्न किया है। अब मुझे अपना हित करना उचित है ।।१६२।। प्रश्न - परिणाम शब्द का क्या अर्थ है? उत्तर - 'अभी तक मेरा समय स्व-पर कल्याण में व्यतीत हुआ है, किन्तु अब आज से मुझे अपना ही हित करना चाहिए' इस प्रकार के मनोभाव को यहाँ परिणाम शब्द से कहा गया है। Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ६७ किमालन्दं परीहारं, भक्तत्यागमुतेङ्गिनीम् । पादोपगमनं किं किं, जिनकल्पं श्रयाम्यहम् ।।१६३॥ अर्थ - क्या मैं आत्महित करने हेतु आलन्द विधि का या परिहार-विशुद्धि चारित्र का या भक्तत्याग का या इंगिनीमरण का या पादोपगमन/प्रायोपगमन का या जिनकल्प का आश्रय ग्रहण करूँ? ॥१६३ ।। प्रश्न - आत्महितेच्छु साधु ने स्वहित के लिए कितने विकल्प उठाये हैं? उनके क्या लक्षण हैं? उत्तर - आलन्द विधि, परिहार विधि, भक्तत्याग, इंगिनी, प्रायोपगमन और जिनकल्प, इस प्रकार यहाँ आत्महित के लिए छह विकल्प अर्थात् संन्यास विधि के छह प्रकार कहे गये हैं। इनमें से भक्तत्याग विधि का विवेचन आचार्यदेव कर ही रहे हैं, इंगिनी और प्रायोपगमन की विधियों का वर्णन इसी ग्रन्थ में आगे किया जायेगा। शेष आलन्द विधि, परिहार विधि और जिनकल्प विधि इन तीनों का पालन इस काल में असम्भव है। क्योंकि ये तीनों अतिशयरूप से उच्चकोटि के साधु का आचार हैं जो महामुनियों की अतिश्रेष्ठ सल्लेखना के अभ्यास का साधकतम हेतु है। इनका वर्णन भगवती आराधना गाथा १५७ की टीका में है, जिसे अवश्यमेव पढ़ना चाहिए। भक्तप्रत्याख्यान के लिए प्रयत्नशीलता सत्येव स्मृतिमाहात्म्ये, विचार्ये सति जीविते । भक्तत्यागे मतिं धत्ते, बल-वीर्यानिगूहकः ।।१६४।। अर्थ - उपर्युक्त प्रकार से विचार कर स्मृति का माहात्म्य होने पर और आयु के अल्प रह जाने पर अपने बल एवं वीर्य को न छिपाते हुए मुनिराजों को भक्तप्रत्याख्यान में अपनी बुद्धि लगानी चाहिए ॥१६४॥ प्रश्न - स्मृति-माहात्म्य का क्या आशय है? उत्तर - जिनागम के रहस्य का उपदेश सुनने से जो उसका संस्कार रहा उसके प्रभाव में 'मैं आयु अवसान के समय अवश्य ही विधिपूर्वक सल्लेखना करूंगा' ऐसा जो संकल्प किया था, उसका स्मरण भी भक्तप्रत्याख्यान का कारण होता है। यह स्मृति-माहात्म्य का आशय है। भक्तप्रत्याख्यान लेने का कारण संन्यास-कारणे जाते, पूर्वोक्तान्यतमे सति । करोति निश्चितं बुद्धिं, भक्तत्यागे तथैव सः॥१६५ ॥ अर्थ - पूर्व में कहे गये सल्लेखना के कारणों में से किसी एक कारण के उपस्थित होने पर उसी प्रकार निश्चय से भक्तप्रत्याख्यान में अपनी बुद्धि लगानी चाहिए ॥१६५॥ आराधक के मन की दृढ़ता योगा यावन हीयन्ते, यावनश्यति न स्मृतिः। श्रद्धा प्रवर्तते यावद्, यावदिन्द्रिय-पाटवम् ॥१६६॥ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकाण्डका - ६८ क्षेमं यावत्सुभिक्षं च, सन्ति नष्टास्त्रिगारवाः । यावन्निापका योग्या, रत्न-त्रितयसुस्थिताः ।।१६७ ।। तावन्मे देहनिक्षेपः, कर्तुं युक्तो बुधे हितः। भक्तत्यागो मतः सूत्रे, व्रत-यज्ञे ध्वजग्रहः ।।१६८ ॥ अर्थ - जब तक मेरे आतापन आदि योग धारण की शक्ति कम नहीं होती, जब तक स्मृति नष्ट नहीं होती, जब तक श्रद्धा यथावत् प्रवर्तन कर रही है, जब तक इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयग्रहण में सजग हैं, जब तक क्षेम और सुभिक्ष है और जब तक तीन गारवों से रहित और योग्य अर्थात् समयानुकूल दर्शन, ज्ञान एवं चारित्रवाले निर्यापकाचार्य अवस्थित हैं, तब तक ही मुझे शरीर के त्याग हेतु विद्वानों से स्तुत. आगम में कहीं हुई आराधनारूपी पताका का ग्रहण, व्रतयज्ञ एवं भक्तप्रत्याख्यान करना योग्य है ||१६६-१६८ ।। प्रश्न - उपर्युक्त कथन का क्या अभिप्राय है? उत्तर - अभिप्राय यह है कि आतापन अर्थात् तपश्चरण की शक्ति नष्ट हो जाने से कर्मनिर्जरा नहीं होगी, रत्नत्रय के धारण योग्य स्मृति नष्ट होते ही रत्नत्रय सदोष हो जायेगा, श्रद्धा नष्ट होते ही मिथ्यात्व आ जावेगा, चक्षु और कर्ण आदि इन्द्रियों की शक्ति क्षीण हो जाने से असंयम का परिहार नहीं हो सकेगा, देश में क्षेम और सुभिक्ष न होने से अर्थात् देश में शत्रु सेना के उपद्रव तथा मारी आदि रोगों का सद्भाव और दुर्भिक्ष आदि होने से वातावरण अशान्त रहेगा और यदि निर्यापकाचार्य रत्नत्रय से रहित एवं ऋद्धि गारव, रस गारव तथा सात गारव से युक्त होंगे तो वे क्षपक को भी असंयम की ओर ले जावेंगे। इन कारणों से क्षपक सल्लेखना की वेदना को सहन नहीं कर सकेगा, जिसके फल-स्वरूप वह दुर्गति का पात्र होगा और धर्म की अप्रभावना होगी, अत: उपर्युक्त कारण समुदाय की सुलभता में ही भक्तप्रत्याख्यान सल्लेखना धारण करना बुद्धिमानों के द्वारा हितकर कहा गया है। सिद्धान्त में आराधना को ही पताका और व्रतयज्ञ कहा है। 'जीविताशा विनाश' गुण विज्ञापन एवं स्मृतिपरिणामो, निश्चितो यस्य विद्यते । तीव्रायामपि बाधायां, जीविताशास्य नश्यति॥१६९॥ ॥ इति परिणामः।। अर्थ - 'मैं शरीर का त्याग करूँगा ही ऐसा जो दृढ़ निश्चय कर लेता है वह तीव्र वेदना होने पर भी 'उसका प्रतिकार करके मैं जीवित रहूँ' ऐसी चिन्ता नहीं करता अतः ‘जीवन की आशा का विनाश' उसका गुण सूचित किया गया है॥१६९।। प्रश्न - ‘जीविताशा विनष्ट' गुण अलग से क्यों कहा गया है? उत्तर - "मैं शरीर का त्याग करूँगा ही" और रोग आदि का प्रतीकार करके 'मैं जीवित रहूँ। ये दोनों संकल्प अग्नि और जल के स्वभाव सदृश विरोधी हैं। क्षपक में अन्य सब गुण हों किन्तु यदि ‘जीविताशा' विनष्ट Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ६९ न हुई हो तो सल्लेखना की सफलता कदापि नहीं हो सकती, और यदि जीविताशा विनष्ट नाम का गुण विद्यमान है तो अन्य सर्वगुण स्वयमेव प्रगट हो जाते हैं, इसलिए इस गुण का कथन अलग से किया गया है। ।। इस प्रकार परिणाम अधिकार पूर्ण हुआ॥७॥ ८. उपधित्यागअधिकार द्रव्य परिग्रह त्याग का निर्देश उपधिं मुञ्चतेऽशेषं मुक्त्वा संयम-साधकम् । मुमुक्षु[गयन्मुक्ति, शुद्धलेश्यो महामनाः ।।१७० ।। अर्थ - मुक्ति की खोज करने वाला, विशुद्धलेश्याधारी महामना साधु संयम के साधन मात्र परिग्रह के अतिरिक्त शेष परिग्रह को मन, वचन, काय से त्याग देता है ।।१७० ।। प्रश्न - शेष परिग्रह कौन-कौन सा है? उत्तर - जो परिग्रह संयम की साधना में साधकतम कारण होता है उसके अतिरिक्त जो-जो है वह सब शेष शब्द से ग्राह्य होता है। सल्लेखनारत 'साधु को वर्तमान में मात्र पीछी और कमण्डलु ही साधकतम कारण हैं। अथवा शेष परिग्रह में ज्ञान के उपकरण शास्त्र आदि कहे गये हैं, क्योंकि समाधि के समय उनका उपयोग नहीं रहता। तथा दूसरी पीछी और दूसरा 'कमण्डलु भी उस समय संयम की सिद्धि में कारण न होने से संयम का साधन नहीं है, अतः कर्मविनाश का इच्छुक साधु एक पीछी और एक कमण्डलु के अतिरिक्त शेष परिग्रह का मन, वचन और काय से त्याग कर देता है साधुर्गवेषयन्मुक्ति, शुद्धलेश्यो महामनाः। - विमुञ्चत्युपधिं सर्वमल्पानल्प-परिक्रियम् ॥१७१॥ अर्थ - मुक्ति का अन्वेषण करने वाले शुद्धलेश्या युक्त महामना साधु अल्प परिकर्मवाली और अधिक परिकर्मवाली ऐसी सर्व ही उपधि का त्याग कर देते हैं ॥१७१ ।। प्रश्न - उपधि किसे कहते हैं और अल्प परिकर्म तथा अधिक परिकर्म का क्या लक्षण है? उत्तर - परिग्रह को उपधि कहते हैं। जिसमें देखना, शोधना, झाड़ना आदि कम करना होता है वह परिग्रह अल्पपरिकर्मवाला और जिसमें शोधन-निरीक्षण आदि अधिक करना पड़े वह परिग्रह अधिक परिकर्मवाला कहा जाता है। भाव परिग्रह न्याय का क्रम औत्सर्गिक-पदान्वेषी, शय्या-संस्तरकादिकम्। पञ्चधा शुद्धिमप्राप्य, ये विवेकं च पञ्चधा ।।१७२॥ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ७० अर्थ - जो औत्सर्गिक पद के अन्वेषक हैं किन्तु शय्या एवं संस्तर आदि के विषय में पाँच प्रकार की शुद्धि और पाँच प्रकार के विवेक को प्राप्त नहीं करते वे मुनेि समाधेि को प्राप्त नहीं कर सकते ॥१७२ ॥ विपद्यन्ते समाधि ते, लभन्ते न विमोहिनः । शुद्धिं ये पञ्चधा प्राप्ता, ये विवेकं च पञ्चधा ||१७३।। अर्थ - जो निर्मोह साधु पाँच प्रकार की शुद्धि और पाँच प्रकार के विवेक को प्राप्त कर लेते हैं, वे समाधि को प्राप्त कर लेते हैं ।।१७३ ।। शुद्धि के पाँच भेद शुद्धिरालोचना शय्या-संस्तरोपधि-गामिनी। वैयावृत्यकराहार-पान-जाता च पञ्चधा ॥१७४ ।। अर्थ - आलोचना की, शय्या-संस्तर की, उपधि की, वैयावृत्य करनेवालों की और आहार-पान की ये पाँच प्रकार की शुद्धियाँ हैं ।।१७४ ।। ज्ञान-दर्शन-चारित्र-विनयावश्यकाश्रया। अथवा पञ्चधा शुद्धिर्विधेया शुद्धबुद्धिना ॥१७५ ।। अर्थ - अथवा शुद्ध बुद्धिवाले साधु को दर्शन शुद्धि, ज्ञान शुद्धि, चारित्र शुद्धि, विनय शुद्धि और षड़ावश्यक शुद्धि ये पाँच प्रकार की शुद्धियाँ रखनी चाहिए ।।१७५॥ प्रश्न - इन दस प्रकार की शुद्धियों के क्या लक्षण हैं? उत्तर - कर्मग्रहण के कारणभूत जिन-जिन पदार्थों में जिनका आदर भाव अथवा ममत्व भाव होता है उसके लिए वह सब उपधिरूप होता है। अन्तरंग परिग्रह होने से माया कषाय तो उपधिरूप है ही किन्तु कर्मबन्ध का कारण होने से असत्य भाषण भी परिग्रह स्वरूप है। आलोचना शुद्धि-माया कषाय और असत्य का त्याग कर आलोचना करना आलोचना शुद्धि है। शय्या-संस्तर शुद्धि - उद्गम, उत्पादन आदि दोषों से रहित एवं 'यह मेरी है' इस प्रकार के परिग्रह भाव से रहित शय्या-संस्तर अर्थात् वसतिका शुद्धि है। उपधि शुद्धि - पीछी कमण्डलु भी उद्गम-उत्पादन दोष से रहित ही ग्रहण करने योग्य हैं, अन्यथा नहीं, क्योंकि अशुद्ध उपकरण असंयम के कारण हैं। उनमें 'ये मेरे हैं ऐसा मूर्छाभाव पैदा हो जाता है अत: उनका त्याग करना उपधि शुद्धि है। वैयावृत्य करनेवालों की शुद्धि - वैयावृत्य करनेवालों का संयमी होना और वैयावृत्य के क्रम का ज्ञाता होना वैयावृत्यकारी की शुद्धि है। इस शुद्धि में 'असंयमी और क्रम को न जाननेवाले अक्रमज्ञ लोग मेरी वैयावृत्य करने वाले नहीं हैं' ऐसा स्वीकार करने पर उनका त्याग हो जाता है। आहार-पान शुद्धि - उद्गम और उत्पादनादि दोषों से रहित आहार-पान लेना भक्तपान शुद्धि है। Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परणकण्डिका - ७२ दर्शन शुद्धि - निःशंकित आदि गुणों के अनुरूप आत्मा की परिणति होना । ज्ञान शुद्धि - योग्य काल में अध्ययन और गुरु तथा शास्त्र आदि का नाम नहीं छिपाना, इत्यादि गुणों के अनुकूल आत्म-परिणति होना । चारित्र शुद्धि - प्रत्येक व्रत की पाँच-पाँच भावनाएं हैं, इन पच्चीस भावनाओं का पालन करना चारित्र की शुद्धि है। विनय शुद्धि - कीर्ति,यश, आदर-सत्कार आदि दृष्ट फलों की अपेक्षा न करके साधर्मी जन और गुरुजन आदि की विनय करना। आवश्यक शुद्धि - सावध योग का त्याग, जिनेन्द्र के गुणों में अनुराग, वन्धमान श्रुत एवं आचार्यादि के गुणों का अनुसरण करना, स्व-कृत अपराधों की निन्दा करना, मन से प्रत्याख्यान करना तथा शरीर की असारता और उसके अनुपकारीपने का चिन्तन यह आवश्यक शुद्धि है । इन शुद्धियों के होने से उनके अपने-अपने दोषों का त्याग हो जाता है। पाँच प्रकार के विवेक का कथन विवेको भक्तपानाङ्ग-कषायाक्षोपधि-श्रितः। पञ्चधा साधुना कार्यो, द्रव्य-भाव गतो द्विधा ।।१७६ ।। सोऽथवा पञ्चधा शय्या-संस्तरोपधि-गोचरः। वैयावृत्यकराहार-पान-विग्रह-संश्रयः ॥१७७ ।। अर्थ - भक्तपान विवेक, शरीर विवेक, कषाय विवेक, इन्द्रिय विवेक और उपधि विवेक इस प्रकार साधुओं के द्वारा करने योग्य यह विवेक पाँच प्रकार का है। तथा प्रत्येक विवेक द्रव्य विवेक और भाव विवेक के भेद से दो-दो प्रकार का है।।१७६॥ अथवा शय्या-संस्तर विवेक, उपधि विवेक, वैयावृत्यकर विवेक, आहार-पान विवेक और शरीर विवेक के भेद रूप अन्यथा प्रकार से विवेक पाँच प्रकार का है॥१७७ ।। प्रश्न - इन विवेकों के क्या लक्षण हैं? उत्तर - भक्तपान विवेक - शास्त्रोक्त विधि से शुद्ध आहार-जल ग्रहण करना, प्राण कण्ठगत होने पर भी अयोग्य भोजन-पान ग्रहण नहीं करना यह द्रव्यरूप भक्तपान विवेक है और अयोग्य भोजनपान का मन से भी विचार नहीं करना भावरूप भक्तपान विवेक है। शरीर विवेक - आँख मटकाना, चुटकी बजाना तथा ओष्ठ डसना आदि रूप शारीरिक कुचेष्टाएँ नहीं करना द्रव्यरूप शरीर विवेक है तथा कुचेष्टा करने के भाव ही नहीं होने देना भाव शरीर विवेक है। अथवा - शरीर पर होने वाले किसी भी प्रकार के उपद्रव दूर नहीं करना, 'मेरे ऊपर उपद्रव मत करो' ऐसा वचन से नहीं कहना। बिच्छु, सर्प, कुत्ता, डाँस एवं मच्छर आदि को हाथ से, पीछी से या अन्य किसी उपाय से दूर नहीं करना। अथवा पीछी, चटाई या छाता आदि से शरीर नहीं ढकना शरीर विवेक है। Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणाकण्डिका - ७२ कषाय विवेक - शरीर में क्रोध-मान आदि के आवेश रूप प्रवृत्ति नहीं होने देना और क्रोध, मान, माया और लोभ आदि के सूचक वचन नहीं बोलना द्रव्यरूप कषाय विवेक है तथा चित्त में किसी भी कषाय रूप भाव को उत्पन्न नहीं होने देना भाव रूप कषाय विवेक है। न्द्रिः विवेक -- पाँतों इन्द्रियों के विषयों में आदरभाव रूप या क्रोध आदि के वशीभूत होकर दुष्प्रवृत्ति नहीं करना तथा मैं मनोहर वस्तु का स्पर्श करता हूँ, रसपान करता हूँ, मुखरूपी कमल की सुगन्ध सूंचता हूँ, मनोहर रूप देखता हूँ और सावधानी पूर्वक गीतादि सुनता हूँ, ऐसे वचन नहीं बोलना द्रव्यरूप इन्द्रिय विवेक है तथा विषयों का ज्ञान हो जाने पर भी उन विषयों के अनुरूप मानस ज्ञान का परिणमन न होना भावरूप इन्द्रिय विवेक है। उपधिविवेक - श्रामण्य के अयोग्य वस्तुएँ ग्रहण नहीं करना द्रव्यरूप उपधि विवेक है और ऐसी अयोग्य वस्तुओं की ओर चित्त का आकर्षित नहीं होना या उन्हें ग्रहण करने का भाव उत्पन्न नहीं होना भाव रूप उपधि विवेक है। __ शय्या-संस्तर विवेक - यहाँ शय्या का अर्थ वसतिका है। पूर्व की वसतिका में नहीं रहना तथा पूर्व के संस्तर पर न सोना और न बैठना यह काय से, 'मैं पूर्व वसतिका और संस्तर का त्याग करता हूँ ऐसा कहना वचन से और उनमें 'ये मेरे हैं' ऐसा अनुराग नहीं रखना भाव से शय्या एवं संस्तर विवेक है। इसी प्रकार उपकरण और भक्तपान में लगा लेना चाहिए। वैयावृत्यकर विवेक - अपने शिष्यों आदि के साथ वास न करना काय से, 'मैंने अब तुम्हारा त्याग किया है ऐसा कहना वचन से तथा 'यह शिष्य समुदाय मेरा है ऐसा अनुराग नहीं रखना भाव से वैयावृत्यकर विवेक है। परिग्रह त्याग का क्रम समस्त-द्रव्य-पर्याय-ममता-सङ्ग-वर्जितः। नि:प्रेम-स्नेह-रागोस्ति, सर्वत्र सम-दर्शनः ॥१७८ ।। ।। इति उपधि-त्यागः॥ अर्थ - समस्त जीव-पुद्गलादि द्रव्य और उनकी पर्यायों में ममता रूपी परिग्रह से रहित प्रेम, प्रणय और राग से रहित सर्वत्र सम भाव होना, यह सब परिग्रह त्याग का क्रम है।।१७८ ।। प्रश्न - समता भाव को कौन प्राप्त करता है? उत्तर - जो वस्तु स्वरूप को जानने में लीन रहता है, जीव और पुद्गल में एवं उनकी पर्यायों में ममत्व रहित है, जीव द्रव्य अर्थात् शिष्य एवं वैयावृत्य करनेवालों की नीरोगता, प्रतिष्ठा तथा विद्वत्ता आदि पर्यायों में, अपनी आत्मा की देव, चक्रवर्ती तथा अहमिन्द्रादि पर्यायों में, तथा पुद्गलद्रव्य अर्थात् शरीर में, आहार-पान औषधादि में, भोग एवं सुख की अनुभूति करानेवाले साधनों में और उनकी शुभता रूप स्पर्श, रस, गन्धादि पर्यायों में प्रेम, स्नेह तथा राग अर्थात् आसक्ति रूप परिणामों से रहित है वह सर्वत्र समताभावी होता है। अर्थात् सम्पूर्ण पदार्थों में समताभाव होना ही परिग्रहत्याग का मूल है, इस समता भाव से परिग्रह का त्याग सहज ही हो जाता है। इस प्रकार उपधित्याग नामक अधिकार पूर्ण हुआ॥८॥ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ७३ ९. श्रति अधिकार भाव श्रिति एवं द्रव्य थिति का लक्षण उपर्युपरि शुद्धेषु गुणेष्वारुह्यते यया । भावश्रितिरभाष्येषा, विशुद्धाजीव - वासना ॥ १७९ ॥ मन्दिरादिषु तुगेषु, सुखेनारुह्यते यया । द्रव्यश्रितिर्मता प्राज्ञैः, सा सोपानादि-लक्षणा ॥ १८० ॥ अर्थ- जीव के जिन भावों से रत्नत्रय की उन्नति के हेतुभूत सम्यक्त्वादि गुणों में प्रतिदिन ऊपर-ऊपर शुद्धि वृद्धिंगत होती रहती है, उन भावों को भावश्रिति कहते हैं। अथवा जीव के रत्नत्रय रूप विशुद्ध परिणामों को भावश्रिति कहते हैं ॥ १७९ ॥ मन्दिर आदि उच्च स्थानों पर जिसके द्वारा सुखपूर्वक चढ़ा जाता है वह सोपानरूप द्रव्यथिति है ऐसा प्राज्ञ पुरुषों ने कहा है ॥ १८० ॥ शरीरादिरूप द्रव्य श्रिति का त्याग और रत्नयरूप भावनिति का ग्रहण मधितिंगर, भावनितमधिश्रितः चारित्रे चेष्टतां शुद्धे, त्यक्तुकामः कलेवरम् ॥ १८१ ॥ अर्थ - शरीर का त्याग करने में समुत्सुक मुनिराज को द्रव्यनिति का त्याग कर भावत्रिति का आश्रय लेना चाहिए और शुद्ध चारित्र में चेष्टा करनी चाहिए ॥ १८१ ॥ द्रव्यभावश्रिति ज्ञानाः, सन्त्युत्तर पदोद्यताः । नरोधः प्रशंसन्ति, पदमूर्ध्वं यियासवः ।। १८२ ।। अर्थ - द्रव्यथिति और भावश्रिति के स्वरूप को विशेषरूप से जाननेवाले महापुरुष उपरिम-उपरिम पद अर्थात् रत्नत्रय की उन्नति के लिए ही उद्यमशील रहते हैं, क्योंकि ऊर्ध्व पद में गमन के इच्छुक पुरुष नीचे-नीचे के पदों की प्रशंसा नहीं करते ।। १८२ ।। प्रश्न- द्रव्यनिति और भावविति के क्या लक्षण हैं और उपरिम पद के लिए उद्यमशीलता आदि का क्या अभिप्राय है? उत्तर - जैसे सीढ़ी या नसैनी ऊपर चढ़ने का साधन है और ऊपर पहुँच जाना उसका फल है। उसी प्रकार द्रव्यनिति रूप शरीर, आहार एवं पीछी- कमण्डलु आदि साधन हैं और भावनिति रूप रत्नत्रय की विशुद्धता साध्य है। अर्थात् शरीर द्रव्यनिति है और सम्यक्त्व आदि गुण भावश्रित हैं। सल्लेखनात किन्तु शरीर से विरक्त मुनिराज अपनी सल्लेखना की सिद्धि हेतु प्रत्येक पर्याय में सुलभ, अपवित्र, असार, कृतघ्न, भाररूप, रोगों के खजाने, जन्म-मरण के माध्यम और अत्यन्त दुखदायी शरीर से निस्पृह होकर सोना, उठना, बैठना, आहार -पान आदि की सर्वसुख भावनाओं के अनुरूप द्रव्यनिति को छोड़कर, Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ७४ सम्यक्त्वादि परिणाम स्वरूप भावश्रिति का आश्रय लेते हैं। उपरिम पद की उद्यमशीलता का आशय यह है कि शुभ परिणामवालों को शुभ परिणामों की उत्कृष्टता के लिए ही उद्यम करना चाहिए, जघन्य परिणामों के प्रवाह में कदापि नहीं बहना चाहिए, क्योंकि जिसके शुभ परिणाम उत्तरोत्तर मन्द-मन्द होते जाते हैं वह घने और विशाल कर्मरूपी अन्धकार को नाश के अभिमुख दीपक के सदृश दूर नहीं कर सकता । अर्थात् जैसे बुझता हुआ दीपक तीव्र प्रकाश देता है कि समन्द होट अ बुझान और धीरे धीरे अन्धकार से ढक जाता है ; उसी प्रकार मन्द-मन्द होता हुआ शुभ परिणाम भी अशुभ परिणामों की परम्परा का जनक होता है और उससे कर्मों की स्थिति एवं अनुभाग उत्तरोत्तर बढ़ते हैं, जिसके फलस्वरूप वही दीर्घ संसारीपना प्राप्त होता है। इसके विपरीत सम्यग्ज्ञान रूपी वायु से प्रेरित शुभ परिणामरूप अग्नि उत्तरोत्तर वृद्धिंगत होती हुई कर्मरूपी वृक्ष के रस को सुखाकर उसे जड से नष्ट कर देने में सहायक होती है। भावश्रिति के विनाश से बचने के उपाय गणिनैव समं जल्पः, कार्यार्थ यतिभिः परैः । कुदृष्टिभिः समं मौनं, शान्तै: स्वैश्च विकल्पते ।।१८३ ।। अर्थ - शुभ परिणामों की रक्षा हेतु साधु को आचार्य के साथ ही धर्म-सम्बन्धी वार्तालाप करना चाहिए। विशेष कार्यवश अन्य साधुजनों से बोले, अन्यथा नहीं। मिथ्यादृष्टि जनों में मौन रखे । शान्त-परिणामी जनों में और ज्ञातिजनों में यदि ऐसा विश्वास है कि 'ये मेरे वचन सुनकर धर्म धारण कर लेंगे' तो ही उनसे वार्तालाप करे, अन्यथा मौन रखे ||१८३ ।।। शुभ परिणामधारी मुनि की प्रवृत्ति का क्रम कार्याय स्वीकृतां शय्यां, विमुच्याचारपण्डितः । परिकर्मवीं वृत्ते, वर्तते देह-निस्पृहः ।।१८४॥ दुश्चरं पश्चिमे काले, भक्तत्यागं सिषेविषुः । धीरैःनिषेवितं बाढ़, चतुरङ्गे प्रवर्तते ।।१८५ ।। ॥ इति श्रितिसूत्रम्॥ अर्थ - आचारशास्त्र में प्रवीण और अपने शरीर से निस्पृह सल्लेखना-रत साधु ने पूर्व जीवन में जो वसतिका आदि स्वीकार की थी, उसे त्याग कर वह चारित्र और तपश्चरण आदि में संलग्न होता है ।।१८४ ।। जीवन के अन्त में आहार त्याग करने का इच्छुक साधु सम्यक्त्वादि चार आराधनाओं में प्रवृत्ति करता है। आहार का त्याग करना अति दुष्कर है, अत: धीर-वीर पुरुष ही जीवन पर्यन्त के लिए आहार का त्याग कर सकते हैं। ऐसा कठिन त्याग कायर जीव नहीं कर सकते ॥१८५ ।। प्रश्न - यहाँ मात्र शय्या-त्याग का आदेश क्यों दिया गया है? तथा परिकर्मवती का क्या अर्थ है? उत्तर - यहाँ शय्या उपलक्ष है, अत: शय्या शब्द से वसतिका, संस्तर एवं उपकरण आदि सबका ग्रहण Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - 194 कर लेना चाहिए । अर्थात् स्वाध्याय या धर्मोपदेश हेतु जो शास्त्रआदि, आचार्यादि की वैयावृत्य हेतु अन्य कोई परिग्रह, औषधियाँ तदतिरिक्त ज्ञानोपकरण एवं संयमोपकरण संगृहीत कर रखे हों तो उनका त्याग कर दें। यहाँ परिकर्मवती का अर्थ है स्वयं के उद्देश्य से वसतिका, संस्तर या उपकरण आदि रखे हैं, उनका भी त्याग कर दें। इस प्रकार श्रिति अधिकार पूर्ण हुआ || ९ || १०. भावना अधिकार नवीन- आचार्य की स्थापना समयनुदिशं सर्व, गणं संक्लेश वर्जितः । कियन्तं कालमात्मानं, गणी भावयते तराम् ।। १८६ ॥ अर्थ - समाधि के इच्छुक आचार्य अनतुर्विध को के लिए समर्पित करते हैं। और संक्लेश रहित अर्थात् संघभार से मुक्त होते हुए वे आचार्य कुछ समय तक अतिशय रूप से अपने आत्मा की भावना करते हैं ॥१८६ ॥ उत्तर- "अनुगुरो: पश्चादृिशति विधत्ते... प्रश्न- यहाँ अनुदिश का क्या अर्थ है और नवीन आचार्य स्थापन का क्या मार्ग है ? ....... अनुदिक् एलाचार्यः " । अर्थात् गुरु के पश्चात् जो मुनि चारित्र का क्रम सर्व संघ को निर्देशित करते हैं उन्हें अनुदिश अर्थात् एलाचार्य कहते हैं। जो आचार्य सल्लेखना ग्रहण करना चाहते हैं वे सर्व संघ को एकत्र कर आचार्य पद के योग्य शिष्य को सर्वसंघ के मध्य बैठा कर तथा स्वयं संघ के बाहर खड़े होकर एलाचार्य को सर्वसंघ समर्पित करते हुए कहते हैं कि ये एलाचार्य रत्नत्रय का निरतिचार पालन करते हैं, स्व को और सर्व संघ को संसार समुद्र से तारने में समर्थ हैं। ये ही अब आपके गुरु हैं ऐसी मेरी सम्मति है, अतः इनकी आज्ञानुसार ही आप सबकी प्रवृत्ति होनी चाहिए, इत्यादि । तत्पश्चात् परोपकार करने का आयास छोड़कर अर्थात् निर्द्वन्द्व होकर आत्मध्यान की भावना से अपनी आत्मा को संस्कारित करना चाहिए। प्रश्न त्यागने योग्य पाँच भावनाएँ कान्दर्पी कॅल्विषी प्राज्ञैराभियोग्यासुरी सदा । साम्मोही पञ्चमी हेया, संक्लिष्टा भावना ध्रुवम् ॥ ९८७ ॥ अर्थ - प्राज्ञ यतियों को निश्चय से कान्दप, कैल्विषी, आभियोग्या, आसुरी और पाँचवीं साम्मोही इन संक्लिष्ट भावनाओं का सदा के लिए त्याग कर देना चाहिए || १८७ ॥ भावनाओं का कान्दर्पी आदि नामकरण किस कारण से किया गया है ? Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ७६ उत्तर - 'अन्नं वै प्राणाः' अन्न ही प्राण है। इस प्रकार यहाँ भी कारण में कार्य का उपचार करके कन्दर्पदेवगति, किल्विषदेवगति, आभियोग्य देवगति, असुर देवगति और सम्मोहदेवगति के कारणभूत आत्मपरिणामों को कन्दर्प भावना आदि के नाम से कहा गया है। कन्दर्प भावना हास्य कान्दर्प कौत्कुच्य, पर-विस्मय-कोविदः। कान्दी भावनां दीनो, भजते लोलमानस: ।।१८८ ।। अर्थ - जो चंचल चित्तवाला दीन मुनि दूसरों को विस्मय उत्पन्न कराने में चतुर होता है और हास्य, कन्दर्प तथा कौत्कुच्य आदि करता रहता है वह कन्दर्प भावना करनेवाला कहा गया है |११८८ ॥ प्रश्न - हास्य एवं कान्दर्प आदि किसे कहते हैं? उत्तर - गन्दी हँसी हँसना हास्य, राग की अधिकता से हास्य मिश्रित असभ्य वचन बोलना कन्दर्प और राग की अधिकता युक्त हँसते हुए दूसरों को लक्ष्य कर शरीर से कुचेष्टा करना कौत्कुच्य है। इन कन्दर्प एवं कौत्कुच्य पूर्वक कुछ कौतुक दिखाकर दूसरों को आश्चर्य में डालना ये सब कन्दर्प भावनाएँ हैं। किल्विष भावना सर्वज्ञ-शासन-ज्ञान-धर्माचार्य-तपस्विनाम् । निन्दापरायणो मायी, कैल्विर्षी श्रयतेऽधमः ।।१८९ ।। अर्थ - सर्वज्ञभगवान के शासन की, जिनागम की, वीतरागमयी जैनधर्म की, आचार्यों की एवं तपस्वियों की निन्दा में परायण और मायावी अधम मुनि कैल्विषी भावनावाले होते हैं ।।१८९॥ प्रश्न - इस भावना का क्या आशय है ? उत्तर - इसका आशय यह है कि जो मुनि सर्वज्ञदेव या जिनागम या चारित्रमयी धर्म, आचार्य, उपाध्याय, साधुजन एवं तपस्वी आदि के बाह्य आचरण में आदर भाव दर्शाते हैं किन्तु अभ्यन्तर में उन्हें तिनके के सदृश तुच्छ समझते हैं और उनकी निन्दा करते हैं, अर्थात् धर्मात्माओं के साथ अन्तरंग में मायाचारी रखते हुए बाह्य में श्रद्धा, भक्ति एवं आदर का दिखावा करते हैं उन्हें किल्विष भावनावाला समझना चाहिए । आभियोग्य भावना मन्त्र-कौतुक-तात्पर्य भूतिकर्मीषधादिकम् । कुर्वाणो गौरवाद्यांमाभियोगीमुपैति ताम् ॥१९०।। अर्थ - जो मुनि मन्त्र-कौतुक तत्परता, भूतिकर्म एवं औषधादि का प्रयोग अपने गौरव एवं तीनों गारव के लिए करते हैं वे आभियोग्य भावना युक्त होते हैं ॥१९० ॥ प्रश्न - मन्त्रादि करने वाले को आभियोग्य भावनावाला क्यों कहा है ? Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ७७ उत्तर - मन्त्रशक्ति से कुमारी-कन्या आदि के शरीर में भूत का आवेश उत्पन्न करना, अकाल में जलवृष्टि या अमावस्या के दिन चन्द्रमा के दर्शन कराकर कौतुक दिखाना, स्त्री-पुरुष को वश करना अथवा उनका उच्चाटन करना, बालकादि के रक्षण हेतु भूतिकर्म आदि करना अथवा भूतों की क्रीड़ा दिखाना आदि क्रियाएँ जो साधु अपना ऐश्वर्य दिखाने के लिए अथवा शक्ति-सम्पदा दिखाने के लिए, मिटाहार के लिए अथवा इन्द्रियजन्य सुखों के लिए एवं ऋद्धि, रस एवं सात गारव के लिए करता है, वह आभियोग्य भावना वाला होता है। इसके प्रभाव से उस साधु का जन्म वाहनजाति के देवों में होता है। यदि कोई मुनिराज स्व-पर की आयु आदि ज्ञात करने के लिए अथवा साधुओं की वैयावृत्य करने हेतु मन्त्र प्रयोग करते हैं तथा धर्मप्रभावना हेतु कौतुक दिखाते हैं, उनके वे सब कार्य दोषयुक्त नहीं हैं। अर्थात् दर्शन, ज्ञान एवं चारित्रादि परिणामों में आदरपूर्ण प्रवृत्ति होने से दोषपूर्ण नहीं है। आसुरी भावना निष्कृपो निरनुक्रोशः, प्रवृत्त-क्रोध-विग्रहः। निमित्तसेवको धत्ते, भावनामासुरी यतिः॥१९१ ॥ अर्थ - जो मुनि दया रहित है, निरंकुश आक्रोशी है, क्रोध एवं कलह में ही प्रवृत्त रहता है तथा निमित्तसेवक अर्थात् ज्योतिष और सामुद्रिक लक्षण आदि बता कर आहार आदि की प्राप्ति करता है उसे आसुरी भावना से युक्त जानना चाहिए ||१९१ ॥ सम्मोही भावना उन्मार्ग-देशको मार्ग-दूषको मार्ग-नाशकः । मोहेन मोहयंलोकं, साम्मोहीं तां प्रपद्यते ॥१९२ ।। अर्थ - उन्मार्ग का उपदेश देनेवाला, रत्नत्रयमयी मोक्षमार्ग को दूषित करनेवाला, मोक्षमार्ग का नाश करनेवाला और मोह अर्थात् कुज्ञान या अज्ञान से जीवों को मोहित करनेवाला मुनि सम्मोही भावना वाला जानना चाहिए।१९२॥ संक्लिष्ट भावनाओं का फल और उनके त्याग की प्रेरणा रत्ननयं विराध्याभिर्भावनाभिर्दिवं गतः । भीषणे भव-कान्तारे, चिरं बंभ्रम्यते च्युतः ॥१९३॥ पञ्चेति भावनास्त्यक्त्वा, संक्लिष्टः समितो यतिः। षष्ट्यां प्रवर्तते गुप्तः, संविग्रः सङ्ग-वर्जितः ॥१९४ ॥ अर्थ - जो मुनि इन खोटी भावनाओं द्वारा रत्नत्रय की विराधना करते हैं वे मरण कर देवदुर्गति अर्थात् भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवों में उत्पन्न होते हैं, पश्चात् वहाँ से च्युत होकर संसाररूपी भीषण अटवी में बार-बार भ्रमण करते हैं।।१९३ ।। इस प्रकार इन संक्लिष्टरूप पाँचों भावनाओं का त्याग कर जो मुनि पाँच समितियों को पालता है, तीन Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ७८ गुमियों को धारण करता है, सर्व परिग्रह की आसक्ति से रहित है और संसार से भयभीत है वह छठी भावना में प्रवृत्ति करने योग्य होता है।।१९४॥ छठी ग्राह्य भावना के भेद असंक्लिष्ट-तप:-शास्त्र-सत्यैकत्व धृति-श्रिता। 'पञ्चधा भाधना भात, भष प्रमा-भोरणा ॥१९५॥ अर्थ - संक्लेश रहित भावनाएँ पाँच प्रकार की हैं - तपो भावना, ज्ञान भावना, सत्त्व भावना, एकत्व भावना और धृति भावना | संसार से भयभीत साधुओं को यही भावनाएँ भानी चाहिए ॥१९५॥ तपो भावना समाधि की साधक है। दान्तान्यक्षाणि गच्छन्ति, तपो भावनया वशं । विधानेनेन्द्रियाचार्य:, समाधाने प्रवर्तते ।।१९६ ।। अर्थ - तपो भावना से दमित हुई इन्द्रियाँ तपस्वी के वश हो जाती हैं। तप भावनारूप विधान के द्वारा साधु इन्द्रियाचार्य अर्थात् इन्द्रियों को शिक्षा देनेवाला हो जाता है और वह रत्नत्रय में प्रवृत्त हो जाता है।।१९६ ।। तपो भावना बिना सल्ल्लेखना सम्भव नहीं है इन्द्रियार्थ-सुखासक्तः, परीषह-पराजितः । जीवोऽकृतक्रियाः क्लीवो, मुह्यत्याराधना-विधौ ॥१९७॥ अर्थ - जो साधु इन्द्रियों के विषयसुख में आसक्त है, क्षुधा-तृषा आदि परीषहों से पराजित हो चुका है और साधु के करने योग्य तपश्चरण आदि क्रियाओं को नहीं कर पाता है वह नपुंसक अर्थात् दीन सदृश होता हुआ आराधना की आराधन-विधि में विमोहित सदृश हो जाता है। अर्थात् सल्लेखना की साधना में समर्थ नहीं हो पाता ॥१९७॥ लालितः सर्वदा सौख्यैरकारित-परिक्रियः। कार्यकारी यथा नाश्वो, बाह्यमानो रणामाणे ॥१९८ ।। अकारित तपो योग्यश्चिरं विषय-मूर्छितः। न जीवो मृत्युकालेऽस्ति, परीषह-सहस्तथा ॥१९९।। अर्थ - शब्दों या संकेतों को ध्यान में रखना, संकेतानुसार चलना, वेग से घूमना एवं कूदने आदि की शिक्षा नहीं दी गई है अर्थात् जिसे इस प्रकार का अभ्यास नहीं कराया गया है, अपितु चिरकाल तक सुखपूर्वक लालन-पालन कर उसे पुष्ट किया गया है ऐसा घोड़ा युद्ध-भूमि में ले जाने पर शत्रु को जीतने में अपने स्वामी की सहायता करना तो दूर किन्तु भय से भाग कर स्वामी का कार्य नष्ट कर देता है।।१९८ ।। उसी प्रकार जिसने पूर्व काल में तप नहीं किया अपितु सदा विषयसुखों में आसक्त रहा वह साधु मरणसमय में परीषह आदि की वेदना को सहन नहीं कर सकता ॥१९९।। Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ७९ तप। भाधना से सल्लेखना सहज सिद्ध होती है विधापित: क्रिया योग्यां सर्वदा दुःख-वासितः। बाह्यमानो यथा वाजी, कार्यकारी रण-क्षितौ ।।२०० ।। विधापितस्तपो योग्यं, हृषीकार्थ-पराङ्मुखः । जायते मृत्युकालेगी, परीषह-सहस्तथा ।।२०१॥ 1 तपो भावना॥ अर्थ - जिस अश्व को पहले भ्रमण करना तथा कूदने आदि का अभ्यास कराया गया है तथा क्षुधा, तुषा, शीत, उष्ण आदि दुखों से चिरकाल तक संस्कारित किया गया है, ऐसा अश्व रणभूमि में शत्रु को जीतने में स्वामी की सहायता करता है।।२०० ।। उसी प्रकार जो साधु पूर्वकाल में इन्द्रियविषयों से विरक्त रहता है और अनशन आदि योग्य तप तपता है वह मरणकाल में परीषह सहन करने में समर्थ होता है अर्थात् शरीर एवं विषय सुख में आसक्त नहीं होता ।।२०१।। ॥ इस प्रकार तपो भावना पूर्ण हुई। ज्ञान भावना चतुरङ्ग परीणाम, श्रुतभावनया परः । निर्व्याक्षेपः प्रतिज्ञातं, स्वं निर्वाहयते ततः ॥२०२॥ स्वन्यस्त-जिनवाक्यस्य, रचितोचित-कर्मणः। परीषहापदः शक्ता, न कर्तुं स्मृति-लोपनम् ॥२०३॥ इति श्रुतम्॥ अर्थ - श्रुतभावना से अर्थात् आगमार्थ के सतत अभ्यास से साधु सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, तप एवं चारित्र इन चारों रूप परिणमन करता है, तथा विकल्प या आकुलता रहित अपनी प्रतिज्ञा का निर्वाह स्वयं कर लेता है॥२०२।। जिनेन्द्रकथित आगमार्थ में जिसने अपने को लगाया है, तथा जो पठन एवं मनन आदि क्रियाओं में अपने चित्त को संलग्न रखता है उसकी स्मृति का लोप करने में परीषहरूपी आपदाएँ कदापि समर्थ नहीं होती ।।२०३ ॥ प्रश्न - श्रुतभावना किसे कहते हैं और इससे चारों आराधनाओं में परिणमन कैसे हो सकता है? उत्तर - द्रव्यश्रुत के अर्थविषयक ज्ञान में बार-बार प्रवृत्ति होना श्रुतभावना है। अथवा आगम वाक्य सुनकर उसके अर्थ का बार-बार चिन्तन होना ज्ञानभावना है। ज्ञान भावना होने पर तप और संयम भजनीय हैं। अर्थात् होते भी हैं और अविरत सम्यग्दृष्टि तथा देशव्रती के नहीं भी होते हैं, किन्तु जहाँ तप और संयम है वहाँ ज्ञान-दर्शन भावनाएँ अवश्य होती हैं, क्योंकि तप और संयम कार्य हैं। ये चारित्रमोह के क्षयोपशम विशेष की अपेक्षा सहित ज्ञान के होने पर ही होते हैं। Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ८० प्रश्न - यहाँ किस प्रकार की स्मृति ग्रहण की गई है और उसके रक्षण का क्या उपाय है? उत्तर - यहाँ वह स्मृति ग्रहण की गई है जो सदा रत्नत्रय रूप परिणामों को सम्पन्न करने में उद्यमशील रहती है। तपश्चरण से और सतत निर्मल तथा प्रबल श्रुताभ्यास के बल से स्मृति बिना खेद के रत्नत्रय रूप को सुचारुरीत्या सम्पन्न कर देती हैं, अत: उसका रक्षण श्रुतज्ञान के सतत अभ्यास से ही हो सकता है। वचन और शरीर की सर्व प्रवृत्तियाँ स्मृति पर ही निर्भर हैं। इस प्रकार श्रुतभावना पूर्ण हुई। सत्र गाना के गुणों का मान भीष्यमाणोऽप्यहो-रात्रं, भीमरूपैः सुरासुरैः । सत्त्वभावनया साधु, धुरि-धारयतेऽखिलम् ।।२०४॥ विमुह्यत्युपसर्गे नो, सत्त्वभाषनया यतिः । युद्ध-भावनया युद्धे, भीषणेऽपि भटो यथा ।।२०५।। ॥ सत्त्वभावना॥ अर्थ – भयंकर रूप धारण करनेवाले देव एवं असुरों द्वारा दिनरात डराये जाने पर सत्त्व भावना के बल से दुख सहन करते हुए भी वे महामुनि संयम के समस्त भार को वहन कर लेते हैं ॥२०४ ।। युद्धभावना के बल से जैसे सुभट भीषण युद्ध में भी नहीं डरता, वैसे ही सत्त्व भावना के बल से मुनिराज भयंकर उपसर्ग आदि आ जाने पर भी मोहित अर्थात् संयम से विचलित नहीं होते॥२०५॥ प्रश्न - सत्त्व भावना का लक्षण और फल क्या है, तथा इस भावना को कैसे दृढ़ किया जाता है? उत्तर - मूलगुणों और उत्तरगुणों का प्रतिपालन करते समय भयरहित वर्तन करना सत्त्व भावना है। घोर उपसर्ग आदि आने पर भी निर्भयता एवं उत्साहपूर्वक संयम में दृढ़ रहने से उसी भव में मोक्ष प्राप्त होता है, यह इसका उत्कृष्ट फल है। भयंकर उपसर्ग एवं परीषहों की वेदना सोत्साह सहन करने हेतु महामुनिराज चतुर्गति के दुखों का चिन्तन करते हुए सत्त्वभावना को दृढ़ करते हैं। यथा - अनादिकाल से संसार-परिभ्रमण करते हुए मैंने नरकगति में अनेक बार असह्य वेदनाएँ भोगी हैं। तिर्यंचगति में पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक पर्यायों में जन्म ले-लेकर नाना प्रकार के दुख भोगे हैं। लट, चींटी, भौरा, गिद्ध आदि पक्षियों में, व्याघ्र, कुत्ता तथा सूकर आदि पशु पर्यायों में अनन्त बार अनिर्वचनीय दुख्ख भोगे हैं। मनुष्य पर्याय में मैंने इन्द्रियों की हीनाधिकता से, दरिद्रता से, असाध्य रोगों से, इष्टवियोग से, इष्ट वस्तु की अप्राप्ति से, अप्रिय के संसर्ग से एवं दूसरों की चाकरी आदि से अनेक प्रकार की आपत्तियाँ भोगी हैं। इसी प्रकार देवपर्याय में भी-दूर हटो, शीघ्र चलो, स्वामी के प्रस्थान का समय है, प्रस्थान के नगारे बजाओ, ध्वजा लो, निराश देवियों की देख-भाल करो, स्वामी को जो इष्ट है ऐसे वाहन का रूप धारण कर खड़े रहो। क्या अति पुण्यशाली इन्द्र की दासता को भूल गये हो जो चुपचाप खड़े हो, आगे नहीं दौड़ते.......। इस प्रकार देवों के प्रधानों के अति कठोर वचनरूपी कीलों Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ८१ से कर्ण छेदने रूप पीड़ा से, इन्द्र के अन्त:पुर की देवांगनाओं के प्रचुर विलास को देख कर उत्पन्न हुई उन देवांगनाओं की अभिलाषारूपी आग सन्ताप से और छ:मास आयु के अवशेष रहने का ज्ञान हो जाने से होनेवाले महान् दुख भोगे हैं। इस प्रकार मैंने अनादि काल से अद्यावधि दुखों का ही अनुभव किया है तब उपसर्गजन्य दुख आने पर विषाद कैसा? विषाद करने से दुख व्यक्ति को छोड़ता नहीं है, दुख का कारण कर्म है, जब तक कर्मों का संयोग है, तब तक दुख आवेगा, इसे धैर्य पूर्वक सहन करने में ही कल्याण है। इस शरीर से मेरा अनादिकालीन परिचय है। परिचितों से भय कैसा? ऐसे शरीर मैंने अनन्त बार धारण किये हैं और देखे हैं, इत्यादि । यह सब सत्त्व भावना है। इस प्रकार के चिन्तन से ही सत्त्वभावना दृढ़ होती है। एकत्व भावना कामे भोगे गणे देहे, विवृद्धकत्वभावनः । करोति नि:स्पृहीभूय, साधुर्धर्ममनुत्तरम् ।।२०६ ॥ अर्थ - काम में, भोग में, संघ में और शरीर में जिसने एकत्व भावना को वृद्धिंगत किया है वह साधु निस्पृह होकर उत्कृष्ट धर्म का प्रतिपालन करता है ।।२०६ ।। प्रश्न – एकत्वभावना का क्या स्वरूप है ? उत्तर - मैं अनादि काल से जन्म, जरा और मरण आदि के भयंकर दुखों का उपभोग कर रहा हूँ किन्तु मेरे दुख में अद्यावधि किसी ने भी हिस्सा नहीं बँटाया, मैं अकेला ही इन दुखों का अनुभव कर रहा हूँ। लोकमान्यता ऐसी है कि जो अपने दुख का विभाग कर सुख देता है वह स्वजन है और जो मेरे दुख में हाथ नहीं बंटाता वह परजन है किन्तु यदि मेरे सातावेदनीय कर्म का उदय नहीं है तो दूसरे मुझे सुखी करने में कदापि समर्थ नहीं हो सकते और यदि साता का उदय है तो शत्रु भी सुखदायी हो जावेंगे, अतः ये स्वजन हैं, ये परजन हैं, ऐसा विभाग करना व्यर्थ है। मैं सर्वावस्थाओं में एकाकी हूँ। न कोई मेरा है और न मैं किसी का हूँ; इत्यादि रूप से चिन्तन करना एकत्व भावना है। प्रश्न - काम, भोग, सुख, संघ और शरीर आदि में आसक्ति न हो, इसके लिए कैसा चिन्तन करना चाहिए? उत्तर - स्वेच्छा से जिन पदार्थों का उपभोग कर सकते हैं ऐसे पदार्थों को कामभोग कहते हैं। जैसे आहार, पान, वस्त्र, शय्या, स्त्री आदि । 'ये पदार्थ ही सुखदायक हैं' मैंने सदा ऐसा ही संकल्प किया है किन्तु यह मेरी मिथ्या कल्पना है। मेरा इनमें राग करना उचित नहीं है, इन पदार्थों से मेरी आत्मा का कोई सम्बन्ध नहीं है, मैं तो एकाकी हूँ। ऐसा अभ्यास करना चाहिए। बाह्य पदार्थों के सम्बन्ध से मन में जो प्रीति या आह्लाद होता है उसे सुख कहते हैं, किन्तु ये पदार्थ तो उत्तरोत्तर लोभ की वृद्धि करते हैं और लोभ से मन व्याकुल होता है, अतः सिद्ध होता है कि ये पदार्थ चित्त को स्वस्थ करने में समर्थ नहीं हैं। रत्नत्रय ही मेरी सर्वोपयोगी सम्पत्ति है। इस भोग-सम्पत्ति से मेरा कोई प्रयोजन सिद्ध होनेवाला नहीं है। Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ८२ मेरे परिणामों पर अवलम्बित बन्ध या मोक्ष ही मेरे हैं, अतः इस संघ से भी मुझे क्या ? इससे राग करना भी उचित नहीं है। मेरा यह शरीर भी अकिञ्चितकर है। यह स्वयं कुछ नहीं कर सकता, कर्मों के आश्रय से ही यह कार्यकारी दिखाई दे रहा है। अन्य जीव और अजीव पदार्थ मेरा उपकार करते हैं अथवा अनुपकार करते हैं, ऐसा संकल्प ही राग-द्वेष का जनक है, अतः इस संकल्प को हृदय से निकाल कर सतत शुद्धात्मा के चिन्तन का अभ्यास करना योग्य है। 'मेरा आत्मस्वरूप असहाय है' ऐसे अनुभव की वृद्धि के लिए ही मुझे सतत प्रयत्न करना चाहिए, इसी में मेरा हित निहित है। इस एकत्व भावना के सतत अभ्यास से किसी भी पदार्थ में मन आसक्त नहीं होता, जिससे वैराग्य वृद्धिंगत होता है । वैराग्य से संसार के बीजभूत परिग्रह का त्याग होता है, परिग्रहत्याग से उत्कृष्ट चारित्र होता है और यह उत्कृष्ट चारित्र सम्पूर्ण कर्मों को नष्ट कर देता है। यह सब एकत्व भावना का ही गुण है। इसी एकत्व भावना के बल से जिनकल्पी साधु मोहरहित होते हैं। यथा स्वसुर्विधर्मतां दृष्ट्वा जिनकल्पीय संयतः । एकत्वभावनाभ्यासो, न मुह्यति कदाचन ॥ २०७ ॥ ॥ इति एकत्वं ॥ अर्थ - जिस पर अयोग्य आचरण हो रहा था ऐसी अपनी बहिन पर भी जैसे जिनकल्पी नागदत्त मुनिराज एकत्व भावना के बल से मोहयुक्त नहीं हुए वैसे ही क्षपक भी मोह को कदापि प्राप्त नहीं होता ॥ २०७ ॥ * जिनकल्पी नागदत्त मुनिराज की कथा उज्जयिनी के राजा नागधर्म और उसकी प्रिया नागदत्ता के नागदत्त नाम का एक पुत्र था। वह सर्पों के साथ क्रीड़ा करने में अत्यधिक चतुर था। उसके मित्र एक देव ने गारुड़िक का वेष धारण कर जो प्रक्रिया की उसके निमित्त नागदत्त को वैराग्य हो गया। उन्होंने जिनदीक्षा ग्रहण कर घोर तपश्चरण किया जिससे वे दिनप्रतिदिन चारित्र को निर्मल करते हुए जिनकल्पी हो गये। जिनेन्द्र भगवान सदृश वे एकाकी विहार करने लगे। तीर्थयात्रा को जाते हुए एक दिन वे एक वन में पहुँच गये, वहाँ चोरों का अड्डा था। 'यह साधु हमारा भेद अन्य लोगों को कह देगा' ऐसा मानकर चोरों ने उन्हें पकड़ लिया और त्रास देने लगे, यह देख चोरों के सरदार सूरदत्त ने कहा कि "आप लोगों ने इन्हें क्यों पकड़ा ? ये तो बड़े सीधे और सरल स्वभावी हैं। ये किसी पर राग-द्वेष नहीं करते, ये कोई भी ऐसी बात नहीं करते जिससे किसी को कष्ट हो, अतः आपकी शंका निर्मूल है, आप इन्हें शीघ्र छोड़ दो।" प्रधान की आज्ञा से चोरों ने उन्हें छोड़ दिया और वे आगे विहार कर गये । उसी समय नागदत्त की माँ अपनी यौवनवती पुत्री को तथा उसके दहेज में देने हेतु विपुल धनराशि लेकर परिजनों के साथ कौशाम्बी नगरी जारही थी। उसे मार्ग में अपने पुत्र नागदत्त मुनि के दर्शन हुए। उसने भक्तिभाव से नमस्कार कर पूछा कि प्रभो ! आगे मार्ग में कोई भय तो नहीं है? शत्रु-मित्र में समदृष्टि रखने वाले मुनिराज ने कोई उत्तर नहीं दिया और वे मौनपूर्वक वहाँ से आगे चले गये। आगे जानेवाली नागदत्ता को चोरों ने पकड़ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ८३ लिया, उसका सब धन और कन्या को भी उन्होंने छीन लिया। उस समय चोरों का वह प्रधान चोरों से बोला कि "देखी आपने मुनिराज की उदासीनता और निस्पृहता। जैसे जकड़ कर बाँध लेने वाले आप लोगों को उन्होंने कुछ नहीं कहा वैसे ही नमस्कार करनेवाली इस महिला को और इसके परिकर को भी कुछ नहीं कहा। वे चाहते तो संकेत दे सकते थे कि जहाँ आप जा रहे हैं वहाँ चोरों का समुदाय बैठा है।" प्रधान के ऐसे वचन सुनते ही नागदत्ता अत्यन्त कुपित हो उठी और बोली कि “हे प्रधान ! मुझे शीघ्र ही अपनी छुरी दो, जिससे मैं अपनी इस कोख को चीर कर शान्तिलाभ लूँ जिसमें मैंने उस पापी मुनि को नवमास पर्यन्त पेट में रखकर अपवित्र किया है। जिस मुनि की आप प्रशंसा कर रहो हो वह मेरा ही पुत्र है उसी ने मेरे साथ इतमी निर्दयता की। अपनी बहिन पर भी उसे दया नहीं आई ? पूछने पर भी वह संकेत नहीं दे सका?" इत्यादि वचन सुनकर और यह जानकर कि ये उन मुनिराज की माँ एवं बहिन हैं', सरदार बोला कि "हे माता ! तुम धन्य हो, तुम जगत्माता हो, तुम्हारी कुक्षि धन्य है। वह अत्यन्त पवित्र है जिसने ऐसे वैरागी महात्मा को जन्म दिया।" इत्यादि वचनों से सान्त्वना दे कर और उन्हें अपनी माँ-बहिन बराबर सम्मान देकर वैभव एवं सुरक्षा के साथ कौशाम्बी नगर भेज दिया और स्वयं ने भी चौर्यकर्म का परित्याग कर दिया। एकत्वभावना की दृढ़ता दर्शानेवाली नागदत्त मुनिराज की यह कथा अत्यन्त वैराग्यप्रद है। ॥ एकत्व भावना पूर्ण हुई॥ धृतिभावना उपसर्ग-महायोधां, परीषह चमू पराम् । कुर्वाणामल्प-सत्वानां, दुर्निवार-रयां भयम् ।।२०८॥ धीरता-सेनया धीरो, विवेकशर-जालया। जायते योधयन्नाशु, साधुः पूर्ण-मनोरथः ॥२०९॥ ॥ इति धृतिः ॥ अर्थ - जो अल्पशक्ति वालों को भय उत्पन्न करनेवाली है एवं उपसर्गरूपी महा योद्धाओं से युक्त है ऐसी दुर्वार वेगवाली बावीस परीषहरूपो भारी सेना सम्मुख खड़ी देखकर धीर-वीर महामुनिराज विवेकरूपी बाणों से पूर्ण धृतिभावनारूपी सेना द्वारा युद्धकर शीघ्र ही अपना मनोरथ पूर्ण कर लेते हैं। अर्थात् उपसर्ग-परीषहों पर विजय प्राप्त कर अपनी सल्लेखना के मनोरथ को पूरा कर लेते हैं ।।२०८, २०९।। ।। इस प्रकार धृतिभावना पूर्ण हुई॥ विधाय विधिना दृष्टि-ज्ञान-चारित्र-शोधनम्। चिरं विहरतां षष्ट्या , यति वनयाऽनया ॥२१॥ ॥ इति भावनासूत्रं ॥ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ८४ अर्थ - तप आदि भावनाओं के भेद-प्रभेदों से युक्त है ऐसी छठी भावना द्वारा विधिपूर्वक सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र का शोधनकर साधुजन चिरकाल पर्यन्त विहार करें।।२१०॥ इस प्रकार भावना अधिकार पूर्ण हुआ ॥१०॥ ॥ भक्तप्रत्याख्यानमरण का अर्ह आदि अधिकार पूर्ण हुआ ।। (४) सहलेखनादि अधिकार भावनाओं के साथ सल्लेखनाधिकार का सम्बन्ध दर्शन साधुः सल्लेखनां कर्तुमित्थं भाषित-मानसः। तपसा यतते सम्यक्, बाहोनाभ्यन्तरेण च ॥२११॥ अर्थ - उपर्युक्त प्रकार की तप आदि भावनाओं से भावित मनवाला साधु बाह्य और अभ्यन्तर सम्यक्तपों के द्वारा सल्लेखना करने में प्रयत्नशील होता है ।।२११ ॥ सल्लेखना के भेद सल्लेखना द्विधा साधोरन्तरानन्तरेण्यते । तत्रान्तरा कषायस्था, द्वितीया काय-गोचरा ॥२१२।। अर्थ - अभ्यन्तर और बाह्य के भेद से सल्लेखना दो प्रकार की होती है। इनमें साधु की कषाय मल्लेखना अभ्यन्तर और दूसरी काय-सल्लेखना बाह्य सल्लेखना कही जाती है।।२१२॥ प्रश्न - कषाय और काय सल्लेखनाओं के क्या लक्षण हैं? उत्तर - आत्मभावना एवं शुभ भावनाओं द्वारा कषायों को निरन्तर कृश, कृशतर और कृशतम करते जाना कषायसल्लेखना है, इसे ही अभ्यन्तर सल्लेखना कहते हैं। मोक्षमार्ग में यही सल्लेखना प्रयोजनभूत है। नाना प्रकार के तपों द्वारा उत्तरोत्तर शरीर को कृश करते जाना कायसल्लेखना है। इसे ही बाह्य-सल्लेखना कहते हैं। यह बाह्य सल्लेखना अभ्यन्तर सल्लेखना की सहायक है और अनशन आदि बाह्य तप, काय सल्लेखना के सहायक हैं। बाह्य तप के भेद अभुक्तिरवमोदर्य, वृत्तिसंख्या-रसोज्झनम्। कायक्लेशो विविक्ता च, शय्या षोढा बहिस्तपः ।।२१३ ।। Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका -८५ अर्थ - अनशन, अवभौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रस-परित्याग, काय-क्लेश और विविक्त-शय्यासन रूप बाह्य तप छह प्रकार का है ।।२१३ ।। अनशन तप के भेद और उनकी अवधि सार्वकालिकमन्यचा, हेनाशनमीरितम् । प्रथमं मृत्युकालेऽन्यद्वर्तमानस्य कथ्यते ॥२१४ ।। एक द्वि त्रि चतुः पञ्च, षट् सप्लाष्ट-नवादयः। उपवासा: जिनैस्तत्र, षण्मासावधयो मताः ॥२१५॥ अर्थ - सार्वकालिक और असार्वकालिक के भेद से अनशन तप दो प्रकार का है। इनमें से पहला सार्वकालिक अनशन मरण-समय में होता है। दूसरा असार्वकालिक अनशन वर्तमान में अर्थात् दीक्षा दिन से सार्वकालिक अनशनग्रहण के पूर्व समय तक होता है ।।२१४ || एक, दो, तीन, चार, पाँच, छह, सात, आठ और नव आदि उपवास करना असार्वकालिक अनशन है। इन उपवासों को निरन्तर करने की उत्कृष्ट अवधि छह माह की है, ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है ।।२१५ ।। अनशन तप से लाभ बहुदोषाकरे ग्रामे, प्रवेशो विनिवारितः । संयमो वर्धितः पूतः, कुर्वतानशनं तपः ।।२१६ ॥ अर्थ - अनशन तप अर्थात् उपवास करने से बहुत दोर्षों का आकर ऐसे ग्राम आदि का प्रवेश रुक जाता है, संयम की वृद्धि होती है और आत्मा में पवित्रता आ जाती है।।२१६ ॥ प्रश्न - ग्राम आदि के प्रवेश को दोषों का खजाना क्यों कहा गया है? उत्तर - आहारार्थ ग्राम आदि में जाने से समय बहुत लग जाता है, राग-द्वेष के निमित्तभूत नाना प्रकार के दृश्य दिखाई देते हैं, विविध जनसम्पर्क होने से विविध प्रकार के ही संकल्प-विकल्पों की उत्पत्ति होने लगती है। अज्ञानी या दुष्ट जनों द्वारा बोले हुए अपशब्द या गाली आदि को सुनकर कषायवृद्धि होने के अवसर प्राप्त हो जाते हैं तथा समिति आदि का पालन करते हुए भी प्रमाद आदि के कारण असंयम भी हो जाता है। इस कारण ग्राम आदि के प्रवेश को दोषों का खजाना कहा गया है। अवमौदर्यतप के कारणभूत आहार का प्रमाण आहारस्तृप्तये पुंसां, द्वात्रिंशत्कवाला जिनैः। अष्टाविंशतिरादिष्टा, योषितः प्रकृतिस्थितः ।।२१७॥ अर्थ - पुरुष का स्वाभाविक आहार बत्तीस ग्रास प्रमाण और महिलाओं का स्वाभाविक आहार अट्ठाईस ग्रास प्रमाण है। इतने आहार से ही इनकी तृप्ति हो जाती है, ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है।।२१७ ॥ प्रश्न - एक ग्रास का क्या प्रमाण है? और यह प्रमाण यहाँ क्यों कहाँ गया है? Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ८६ उत्तर - शाली धान्य के एक हजार चावलों का जो भात बनता है वह सब भात एक ग्रास प्रमाण कहा जाता है। ऐसे बत्तीस एवं अट्ठाईस ग्रास का आहार क्रमशः पुरुष और महिला का कहा गया है। प्रमाण से कम आहार प्रहा कराना, यह अनौदर्य तनमाण है, अनु: यहाँ आहार का प्रमाण निर्धारित किया गया है किन्त यह प्रमाण प्रकृतिस्थ पुरुष और महिला का है, सभी स्त्री-पुरुषों के ग्रास और आहार का प्रमाण समान नहीं होता। प्रश्न - किसी व्यक्ति की उदर पूर्ति पच्चीस ग्रासों से हो जाती है। बत्तीस ग्रासों की अपेक्षा पच्चीस ग्रास कम हैं, तब क्या उसका वह आहार भी अवमौदर्य तप कहा जायगा ? उत्तर - नहीं, यहाँ ‘अवम' का अर्थ न्यून और उदर' का अर्थ पेट है, अत: स्वाभाविक आहार से न्यून आहार उदर को देना ही अवमौदर्य तप का लक्षण होगा । अवमौदर्य तप के प्रकरण में बत्तीस और अट्ठाईस ग्रासों का ग्रहण नहीं किया जायेगा क्योंकि सभी पुरुषों का आहार का प्रमाण समान नहीं होता। (धवल पुस्तक १३ पृष्ठ २६) अवमौदर्य तप का लक्षण और उससे होने वाले लाभ तस्मादेकोत्तर-श्रेण्या, कवलः शिष्यते परः। मुच्यते यत्र तदिदमवमौदर्यमुच्यते ॥२१८॥ अर्थ - पुरुष और स्त्री के (वर्तमानकालीन स्वाभाविक) आहार में से एक दो आदि ग्रास की हानि क्रम से जब तक एक ग्रास मात्र भी शेष होता है वह सब अवमौदर्य तप कहलाता है ॥२१८ ।। निद्राजय; समाधान, स्वाध्यायः संयमः परः। हृषीक-निर्जय: साधोरवमोदर्यतो गुणा: ।।२१९ ।। अर्थ - अवमौदर्य तप करने वाले साधु निद्रा पर विजय प्राप्त कर लेते हैं, उन्हें जितना और जैसा आहार प्राप्त होता है उसी में सन्तुष्टता हो जाती है, स्वाध्याय में प्रमाद नहीं आता, संयम की पालना भली प्रकार हो जाती है और इन्द्रियविजय गुण की भी प्राप्ति हो जाती है ।।२१९ ॥ चार महाविकृतियों के नाम एवं उनके दोष चतस्रो गृध्नुतासक्ति-दर्पासंयमकारिणीः। नवनीत-सुरा-मांस-मध्वाख्या विकृतिर्विदुः ॥२२० ।। अर्थ - मक्खन, मद्य, मांस और मधु ये चार महाविकृतियाँ कही गई हैं। ये चारों पदार्थ बार-बार अभिलाषा उत्पन्न करके गृद्धता बढ़ाते हैं, आसक्ति वृद्धिंगत करते हैं, इन्द्रियों को उन्मत्त करते हैं और इन्द्रियअसंयम तथा प्राणी-असंयम को बल प्रदान करते हैं ।।२२० ।। । महाविकार-कारिण्यो, भव्येन भव-भीरुणा। अिनाज्ञाकाङ्क्षिणा स्याज्या, यावज्जीवं पुरैव ताः ॥२२१॥ अर्थ - जिनाज्ञा-पालन की इच्छा रखनेवाले, पापभीरु भव्य जीव सल्लेखना ग्रहण के पूर्व ही इन चारों महाविकृतियों का त्याग कर देते हैं ।।२२१।। Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ८७ रस-परित्याग तप गुड-तैल-दधि-क्षीर-सर्पिषां वर्जने सति । देशतः सर्वतः ज्ञेयं, तपः साधो रसोज्झनम् ।।२२२ ॥ अर्थ - साधु के द्वारा गुड़, तेल, दधि, दूध और घृत आदि रसों का पूर्णरूप से या एक-दो आदि का त्याग करना रसत्याग तप कहलाता है ।।२२२ ॥ अशनं नीरसं शुद्धं, शुष्कमस्वादु-शीतलम् । भुञ्जते सम-भावन, साधवो निर्जितेन्द्रियाः॥२२३॥ अर्थ - जिन्होंने इन्द्रियों को अपने वश में कर लिया है वे साधुजन भोजन नीरस हो, शुद्ध हो, अर्थात् अन्य शाक दाल आदि के मिश्रण से रहित हो, रुक्ष अर्थात् घी, तेल आदि से रहित हो, स्वाद रहित हो या ठण्डा हो उसे समता भाव से ग्रहण कर लेते हैं ।।२२३ ।। येऽन्येऽपि केचनाहारा, वृष्या विकृति-कारिणः । ते सर्वे शक्तितस्त्याज्या, योगिना रस-वर्जिना ॥२२४ ।। अर्थ - रसत्याग तप के इच्छुक योगी को गरिष्ट आहार, परिणामों में विकृति उत्पन्न करनेवाला आहार अथवा अन्य भी कोई ऐसा आहार हो, इन सब का अपनी शक्ति के अनुसार त्याग कर देना चाहिए ।।२२४ ।। सन्तोषो भावित: सम्यग-ब्रह्मचर्य प्रपालितम्।। दर्शितं स्वस्य वैराग्यं, कुर्वाणेन रसोज्झनम् ।।२२५ ।। अर्थ - रस परित्याग करनेवाला साधु सन्तोष प्राप्त कर लेता है, भली प्रकार ब्रह्मचर्य व्रत का पालन कर लेता है और अपने वैराग्य की वृद्धि करता रहता है ।।२२५ ।। वृत्ति परिसंख्यान तप गृह्णाति प्रासुकां भिक्षा, गत्वा प्रत्यागतो यतः। शम्बुकावर्त-गोमूत्र-पुटेषु शलभायनः ।।२२६ ।। अर्थ - (आहारचर्या को जाते समय साधुजन विविध प्रकार के नियम लेते हैं उसे व्रतपरिसंख्यान कहते हैं। यथा-) जिस मार्ग से पहले गया उसी मार्ग से लौटते हुए यदि प्रासुक आहार प्राप्त होगा तो ग्रहण करूँगा ऐसी प्रतिज्ञा करना 'गतप्रत्यागत' है। शंख के आवों के सदृश ग्राम के भीतर आवर्ताकार भ्रमण करके बाहर निकलते हुए यदि शुद्ध आहार मिलेगा तो ग्रहण करूँगा, ऐसी प्रतिज्ञा करना ‘शम्बुकावर्त है। चलती हुई गाय जो मूत्र करती है और उसका जो आकार बनता है वैसे ही मोड़ेदार भ्रमण करते हुए आहार मिलेगा तो ग्रहण करूँगा, ऐसी प्रतिज्ञा करना 'गोमूत्रिका' है। वस्त्र एवं स्वर्णादि रखने की ढक्कन युक्त चार कोणवाली बाँस की बनी पेटी के अनुरूप चतुष्कोण भ्रमण करते हुए आहार मिलेगा तो ग्रहण करूँगा, ऐसी प्रतिज्ञा करना 'पुट' है, बाण सदृश सीधी गली में जाते हुए आहार मिलेगा तो ग्रहण करूँगा ऐसी प्रतिज्ञा करना 'इषु' है तथा पतंगवत् अर्थात् एक निश्चित अमुक गृह में आहार मिलेगा तो ग्रहण करूँगा, ऐसी प्रतिज्ञा करना शलभायन' है ।।२२६॥ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ८८ पाटकावसथ-द्वार-दातृ-देयादि-गोचरम् । संकल्पं विविधं कृत्वा, वृत्तिसंख्यापरो यतिः ॥ २२७ ॥ अर्थ फाटक में प्रवेश करते ही आहार मिलेगा तो ग्रहण करूँगा, घर में प्रवेश नहीं करूँगा; ऐसा संकल्प करना 'पाटकावसथ' है । अमुक द्वार से प्रवेश करते आहार मिलेगा तो ग्रहण करूँगा, एक दाता या दो दाताओं से या अमुकदाता से ही प्राप्त आहार ग्रहण करूँगा, दाता दाल देगा या मोठ देगा या अमुक पदार्थ देगा तो ही आहार ग्रहण करूँगा, ऐसा संकल्प करना तथा आदि शब्द से अन्य प्रतिज्ञाएँ भी ग्राह्य हैं। यथा-दाता द्वारा दिये जानेवाले आहार में एक ग्रास ही ग्रहण करूँगा या दो ग्रास ही ग्रहण करूँगा अथवा पेय पदार्थ ही या पिण्डरूप पदार्थ ही ग्रहण करूँगा। लासी मिलेगी तो ही ग्रहण करूँगा, चना या गेहूँ या मसूर मात्र ही ग्रहण करूँगा, या शाक से मिश्रित या जिसके चारों ओर दाल या शाक हो और बीच में भात हो, या चारों ओर व्यंजन और मध्य में अन्न हो, या व्यञ्जनों के मध्य पुष्पावली के सदृश भात रखा गया हो, या बिना शाक-दाल आदि मिलावट के शुद्ध भात मिले, या जो हाथ में लिपट जावे, या जो पदार्थ हाथ से लिप्त न हों, या चावल के दानों सहित पेय हो या चावल के दानों से रहित मांड सदृश पेय हो, या स्वर्ण, था चाँदी, या काँसी, या मिट्टी का ही पात्र हो, या दाता पुरुष ही हो, या स्त्री हो, या दो या तीन स्त्रियाँ हों या पुरुषों के द्वारा ही दिया हुआ हो, या स्त्रीपुरुष दोनों हो तो आहार ग्रहण करूंगा अन्यथा वसतिका में लौट कर आ जाऊँगा । इस प्रकार से अन्य अन्य भी अभिग्रह अपनी शक्ति के अनुसार संकल्पित करना व्रतपरिसंख्यान तप है ॥ २२७ ॥ व्रत परिसंख्यान तप का फल लूना तृष्णा-लतारूढा, चित्रसंकल्प पल्लवाः । कुर्वता वृत्तिसंख्यानं परेषां दुश्चरं तपः || २२८ ॥ अर्थ - अन्यजनों को दुष्कर ऐसे इस वृत्तिसंख्यान तप को धारण करनेवाले साधुजनों द्वारा विचित्रविचित्र संकल्प-विकल्प रूप पत्तेवाली तृष्णारूपी लता को काट कर फेंक दिया जाता है अर्थात् यह तप जिह्वा की लालसा को समाप्त कर देता है ।। २२८ ॥ कायक्लेश तप तिर्यगर्कमुपर्यर्कमन्वर्कं प्रतिभास्करम् । याति ग्रामान्तरं गत्वा, प्रत्यागच्छति वा यतिः ॥ २२९ ॥ अर्थ - कड़ी धूप में सूर्य को आजू-बाजू में से किसी एक ओर रख कर गमन करना 'तिर्यगर्क' है। सूर्य के ऊपर आ जाने पर गमन करना उपर्युर्क है। पूर्व दिशा से पश्चिम की ओर विहार करना अनु अर्क है और पश्चिम दिशा से पूर्व की ओर विहार करना 'प्रतिभास्कर' है तथा आहार आदि के लिए दूसरे ग्राम जाकर बिना विश्राम तत्काल वापिस आना, यह सब साधु का कायक्लेश तप है || २२९ ।। सावष्टम्भं तनूत्सर्गं, ससंक्रममसंक्रमम् । गृद्धोड्डीनमवस्थानं, समपादैक - पादकम् ॥ २३० ॥ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ८९ पर्यङ्कमर्धपर्यङ्क-वीर - पद्म - गवासनम् । आसनं हस्तिशुण्डं च, गोदोह - मकराननम् ।।२३१ ।। समस्फिगमसमस्फिक्कं, कृत्यं कुक्कुटासनम् । बहुधेत्यासनं साधोः, कायक्लेश- विधायिनः ॥ २३२ ॥ अर्थ - (कायोत्सर्ग मुद्रा में अर्थात् खड़े होकर कायक्लेशतप करना ।) चिकने स्तम्भ या दीवाल आदि का सहारा लेकर खड़े होना 'सावष्टंभ' है, पूर्व स्थान से जाकर दूसरे स्थान पर कुछ काल का प्रमाण कर खड़े रहना, यह 'संक्रमण' है, अपने स्थान पर ही निश्चल खड़े रहना यह 'असंक्रमण' है, गृद्ध पक्षी जैसे दोनों पंख hair कर उड़ता है वैसे ही दोनों बाहु फैला कर खड़े होना 'गृद्धोड्डीनमवस्थान' है, भूमि पर दोनों पैर समान रखकर खड़े होना यह 'समपाद' है, और एक पैर से खड़े होना यह 'एकपाद' है। इस प्रकार खड्गासन मुद्राओं का कायक्लेश तप है ।। २३० ॥ दोनों पैरों को गोद में लेकर मूर्तिवत् बैठना 'पर्यंकासन' है, एक पैर गोद में रखकर बैठना 'अर्धपथकासन' है, पर्यंकासन को ही पद्मासन कहते हैं, दोनों जंघाएँ दूर अन्तर पर स्थापन कर बैठना वीरासन हैं, दोनों पैर पीछे मोड़ कर गाय सदृश बैठना 'गवामन' है। हाथी जैसे अपनी सुंड फैलाता है वैसे ही एक हाथ अथवा एक पैर फैलाकर बैठना ‘हस्तिशुण्डासन' है, गाय का दूध निकालते समय जैसे बैठते हैं वैसे बैठना 'गोदुहासन' है, मगर के मुख सदृश पैरों की आकृति बनाकर बैठना 'मकरासन' है, जंघा और कटिभाग को समान कर बैठना 'समस्फिगासन' है, जंघा और कटिभाग को विषम कर बैठना 'असमस्फिगासन' है। मुर्गे सदृश आकृति बनाकर बैठना 'कुक्कुटासन' है। इन अनेक प्रकार के आसनों से बैठकर ध्यान करते समय साधु के शरीर को कुछ-नकुछ कष्ट अवश्य होता है अतः इसे कायक्लेश तप कहते हैं ।। २३१-२३२ ॥ शयन मुद्रा रूप कायक्लेश तप कोदण्ड - लगुडादण्ड - शत्रशय्या-पुरस्सरम् | कर्तव्या बहुधा शय्या, शरीरक्लेश - कारिणा ॥ २३३ ॥ अर्थ- धनुषवत् सोकर ध्यान करना 'कोदण्ड शयन' है, डण्डे के सदृश शरीर को लम्बा कर सोना 'लगुड दण्ड' है एवं मुर्दे के समान ऊपर मुख करके चित सोना 'शवशय्या' है। इसी प्रकार अन्य अन्य प्रकार से सोकर ध्यान करना साधु का कर्तव्य है । यह कायक्लेशकारी कायक्लेश तप है || २३३ ॥ काष्ठाश्म - तृण-भू-शय्या, दिवानिद्रा विपर्ययः । दुर्धराभ्रावकाशादि-योग- त्रितय-धारणम् ॥ २३४ ॥ अर्थ- काष्ठ पर, पाषाण पर, तृण या चटाई आदि पर तथा भूमि पर शयन करना, दिन में नहीं सोना और अभ्रावकाश आदि तीनों योगों को धारण करना भी कायक्लेश तप है ।। २३४ ॥ प्रश्न- अभ्रावकाशादि तीनों योगों के क्या लक्षण हैं ? उत्तर - शीत ऋतु में खुले मैदान अथवा नदी किनारे आदि शीतप्रद स्थानों पर दिन, मास या चार मास Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ९० पर्यन्त ध्यानस्थित एक ही मुद्रा में अवस्थित रहना अवकास कग है, ग्रीष्म ऋतु में पर्वत पर इसी प्रकार ध्यान करना ग्रीष्मावकाश आतापन योग है और वर्षा ऋतु में वृक्ष के नीचे स्थित होकर ध्यान करना वृक्षमूल योग है। तीनों या दो या एक योग के क्लेशों को शान्त भाव से एवं सोत्साह स्वेच्छा पूर्वक सहन करना कायक्लेश तप दन्तधावन-कण्डूति, स्नान-निष्ठीवनासनम्। यामिनी-जागरो लोचः, कायक्लेशोयमीरितः ॥२३५॥ अर्थ - दाँत नहीं धोना, खुजलाना नहीं, स्नान नहीं करना, थूकना नहीं, रात्रि में भी सोना नहीं और केशलोंच करना, ये सब कायक्लेश तप हैं ।।२३५॥ कायक्लेश तप का फल सूत्रानुसारतः साधोः, कायक्लेश वितन्यतः । चिन्तिता: सम्पदः सर्वाः, सम्पद्यन्ते कर-स्थिताः ।।२३६॥ अर्थ - जो साधु जिनागमानुसार कायक्लेश तप करते हैं उनके सम्पूर्ण चिन्तित सम्पदाएँ हस्तगत हो जाती हैं।।२३६ ॥ विविक्त शय्यासन तप विविक्त वसति: सास्ति, यस्यां रूप-रसादिभिः। सम्पद्यते न संक्लेशो, न ध्यानाध्ययने क्षतिः॥२३७ ॥ अर्थ - जिस वसतिका में रूप, रस, स्पर्श आदि से संक्लेश नहीं होता और ध्यान-अध्ययन में क्षति नहीं होती वह वसतिका विविक्त कहलाती है ।।२३७॥ ___ वसतिका इस प्रकार होनी चाहिए अन्तर्बहिषां शय्यां, विकटां विषमां समाम्। वाञ्छत्य-विकदां सेव्यां, रामाषण्ढ-पशूज्झिताम् ।।२३८ ॥ उद्गमोत्पादना बल्भा, दोषमुक्तामपक्रियाम् । अविविक्त-जनागम्यां गृहशय्या-विवर्जिताम् ॥२३९॥ अर्थ - वसतिका ग्राम के बाहर हो या भीतर हो, उसकी भूमि सम हो या ऊँची-नीची हो तथा खुले द्वार बाली हो या बन्द द्वार वाली हो किन्तु स्त्री, नपुंसक और पशुओं से रहित हो; उद्गम, उत्पादन एवं एषणादि दोषों से मुक्त हो, सम्मार्जन आदि क्रियाविहीन हो, अविविक्त मनुष्यों के अगम्य हो और गृहस्थों के संसर्ग से रहित हो। साधु की वसतिका इस प्रकार होनी चाहिए ॥२३८-२३९ ।। विविक्त वसतिकाओं के नाम शून्यवेश्म शिलावेश्म, तरुमूल-गुहादयः। विविक्ता भाषिताः शय्या, स्वाध्याय-ध्यान-वर्धिकाः ॥२४०॥ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ९१ अर्थ - शून्यघर, शिलाओं से बने घर या पर्वतों की गुफाएँ, वृक्षों के मूल तथा अन्य गुफाएँ, आदि शब्द से शिक्षागृह, देवमन्दिर एवं व्यापारार्थ बनाये गये निवासस्थान आदि जो ध्यान और स्वाध्याय की वृद्धि में सहायक हों, वे सब विविक्त वसतिकाएँ कही जाती हैं।।२४० ।। अविविक्त वसतिका के दोष अयोग्यजन-संसर्ग-राटी-कलकलादयः । अविविक्तस्थितेः सन्ति, समाधान-निषूदिनः ॥२४१॥ अर्थ - अयोग्य एवं असंयत लोगों का संसर्ग, राड़ अर्थात् शब्दों की बहुलता, कलकल शब्द एवं यह वसति मेरी है, तेरी नहीं है इत्यादि प्रकार के कलह आदि दोष अविविक्त वसतिका में निवास करने वाले साधु की शान्ति को नष्ट-भ्रष्ट कर देते हैं ।।२४१॥ विविक्त तमतिका के गुण प्रारभाराकृत्रिमाराम-देवतादि-गृहादिषु। जायते वसतः साधोः समाधानमखण्डितम् ।।२४२॥ एवमैकाग्यमापन्नो, ध्यानैः शुद्ध-प्रवृत्तिभिः। समितः पञ्चभिर्गुप्तस्त्रिभिरस्ति हितोद्यतः ।।२४३ ।। अर्थ - प्राग्भार (पर्वतशिखर), अकृत्रिम बाग-बगीचा एवं देवमन्दिर आदि में निवास करनेवाले साधु की शान्ति अखण्ड बनी रहती है।।२४२।। विविक्त वसतिका में रहने से शुद्ध प्रवृत्ति द्वारा ध्यान में एकाग्रता आ जाती है, पाँचों समितियों का पालन भली प्रकार हो जाता है और तीनों गुप्तियाँ सिद्ध हो जाती हैं। इस प्रकार वह साधु अपने हित में उद्यमशील हो जाता है ।।२४३ ।। संवरपूर्वक निर्जरा की प्रशंसा तन्निर्जरयते कर्म-संवृतोऽन्तर्मुहूर्ततः । षष्ठाष्टमादिभिः साधुस्तपसा यदसंवृतः ।।२४४॥ अर्थ - असंवृत अर्थात् अशुभयोग का निरोध न करनेवाला साधु षष्ठोपवास, अष्टोपवास अर्थात् बेला, तेला आदि तप द्वारा जितने कर्म नष्ट करता है उतना कर्म संवृत हुआ अर्थात् गुप्नियों का पालन करने वाला साधु अन्तर्मुहूर्त में नष्ट कर देता है ।।२४४ ।। एवं भावयमानः संस्तपसा स्थिरमानसः । अप्रशस्तं परीणाम, नाशयश्चेष्टते तराम्॥२४५ ।। अर्थ - इस प्रकार सम्यक्तप से मन को स्थिर कर लेनेवाला साधु उत्कट तप की भावना करता हुआ अशुभ परिणामों को नष्ट कर देता है और मुक्ति के साधनभूत चारित्र में सतत प्रयत्नशील रहता है ।।२४५ ।। Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ९२ - - - - - - तप इस प्रकार करना चाहिए तत्तपोऽभिमतं बाह्य, मनो येन न दुष्यति। योगा येन न हीयन्ते, येन श्रद्धा प्रवर्तते ।।२४६ ।। अर्थ - उसी का नाम बाह्य तप है, जिससे मन दूषित नहीं होता अर्थात् क्लेशित नहीं होता. जिससे पूर्व गृहीत आताफ्न आदि योग हीन नहीं होते और जिससे अभ्यन्तर तप में श्रद्धा बनी रहती है ।।२४६ ।। बाहा तप के गुण बाह्येन तपसा सर्वा, निरस्ता: सुख-वासनाः। सम्यक् तनू-कृतो देहः, स्व: संवेगेऽधिरोपितः ।।२४७ ।। अर्थ - बाह्य तप से सुखशीलता के समस्त संस्कार नष्ट हो जाते हैं, शरीर भली प्रकार से कृश हो जाता है और स्वयं आत्मा संसार की भीरुता में स्थापित हो जाती है ॥२४७॥ प्रश्न - सुखशीलता का संस्कार ना ना क्यों आवश्यक है? उत्तर - सुखशीलता शरीर में आलस्य उत्पन्न करती है और आलस्य चारित्र का प्रबल शत्रु है। सदा सुख की भावना जाग्रत रहने से मन में रागभाव उत्पन्न होता है, वह रागभाव कर्मबन्ध के कारणभूत दोषों को उत्पन्न करता है; कर्मबन्ध, कर्मस्थिति का कारण है और कर्मस्थिति संसार-परिभ्रमण का कारण है, अतः बाह्य तप के माध्यम से आत्महित के लिए सुख-शीलता के संस्कार नष्ट करना अत्यावश्यक है। सन्तीन्द्रियाणि दान्तानि, स्पृष्टा योगसमाधयः । जीविताशा परिच्छिन्ना, बल-वीर्यमगोपितम् ॥२४८॥ अर्थ - बाह्य तप द्वारा इन्द्रियाँ वश में रहती हैं, योग एवं समाधि में एकाग्रता प्राप्त होती है, जीवन की आशा नष्ट हो जाती है तथा बल और वीर्य प्रगट हो जाते हैं ।।२४८ ।। प्रश्न - 'इन्द्रियाँ दान्त होती हैं' इत्यादि पदों का क्या आशय है? उत्तर - अनशन, अवमौदर्य, रसपरित्याग और वृत्तिपरिसंख्यान तपों से जिला इन्द्रिय वश में हो जाती है। विविक्तशय्यासन तप से अर्थात् इन्द्रियों के प्रिय विषयों के अभाववाली वसतिका होने से स्पर्शनादि इन्द्रियों का दमन हो जाता है। रत्नत्रय में मन के एकाग्र होने को समाधि कहते हैं। बाह्य तप से ऐसी समाधि में योग अर्थात् सम्बन्ध स्पष्ट होते रहते हैं। आहारादि का त्याग होते जाने से विषय-प्रेम भी नष्ट हो जाता है, क्योंकि विषयराग से सताये हुए साधु का मन रत्नत्रय में एकाग्र नहीं होता. फलत: वह रत्नत्रय में न लग पाने से व्याकुल होता हुआ अशुभ परिणामों में ही संलग्न रहता है। बाह्य तप से आत्मिक शक्ति स्फुरायमान हो जाती है जिससे मुनिराज वीर्याचार में ही प्रवृत्त रहते हैं। जिनकी जीविताशा जीवित है, अर्थात् जिनका जीवितपने पर स्नेह है वे आहार आदि का त्याग करना Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - १३ पसन्द नहीं करते। जीवितार्थी साधु असंयमादि के योग से भी प्राणरक्षण में उद्योगशील रहता है किन्तु बाह्य तप में अनुरक्त साधुओं की जीविताशा नष्ट हो जाती है। रस-देह-सुखोनास्था, जायते दुःख-भावना। प्रमर्दनं कषायाणामिन्द्रियार्थेष्वनादरः ।।२४९ ॥ अर्थ - बाह्य तपों से मधुर आदि रसों में और शरीर आदि सुखों में आस्था नहीं रहती, दुख सहन करने की भावना बलवती होती जाती है, कषायों का मर्दन हो जाता है और इन्द्रियों के विषयों में अनादर भाव हो जाता है।।२४९ ।। प्रश्न - दुख भावना बलवती होने से आत्मा को क्या लाभ होता है? उत्तर - दुख भावना बलवती होने से ही दुख सहन हो जाता है, बिना संक्लेश के अर्थात् समता-पूर्वक दुख सहन करने से ही कर्मों की निर्जरा होती है और क्रम से होनेवाली कर्मनिर्जरा ही समस्त कर्मों के विनाश का उपाय है, अत: मोक्षार्थी को दुख भावना बहुत उपयोगी है। इसके अतिरिक्त बार-बार दुख-भावना करनेवाला साधु ही ध्यान में निश्चल हो पाता है। (स, शरार और सुख में होनेवाली आसक्ति समाधि में विघ्न करती है, दुख भावना से इस आसक्ति का निरास हो जाता है। आहार-खर्वता दान्तिः समस्तत्याग-योग्यता। गोपनं ब्रह्मचर्यस्य, लाभालाभ-समानता ॥२५० ।। अर्थ - अनशनादि तप से आहार की वाञ्छा नष्ट हो जाती है, यावज्जीवन आहारत्याग की योग्यता आ जाती है, ब्रह्मचर्य की रक्षा होती है और लाभ तथा अलाभ, इन दोनों में समभाव प्राप्त हो जाता है ।।२५० ।। प्रश्न - अनशन तप से क्या-क्या लाभ हैं ? उत्तर - मरणकाल में क्षपक को चारों प्रकार के आहार-जल का त्याग करना होता है, जो अति दुष्कर कार्य है। अनशन तप के अभ्यास से यह दुष्कर कार्य भी सहज साध्य हो जाता है। आहार और सुख में जो अनुराग उत्पन्न होता है वह इस तप से प्रशमित हो जाता है और आत्मदमन नामक गुण प्रगट हो जाता है। इस तप से आहार-इच्छा त्याग का संस्कार या अभ्यास वृद्धिंगत होता-जाता है, आत्मा का मद नामक दोष नष्ट हो जाता है, आहार-निरासता नामक गुण प्रगट हो जाता है तथा आत्मा इस गुण को यावज्जीवन धारण करने में समर्थ हो जाती है। इस तप से आहार की लम्पटता नष्ट हो जाती है, लाभ-अलाभ में समता भाव जाग्रत रहता है। अर्थात् आहार प्राप्त हो जाने पर हर्ष नहीं होता और न मिलने पर क्रोध नहीं आता । तपस्वी जब प्राप्त आहार को भी छोड़ देता है तब भला अप्राप्ति में खेद-खिन्न क्यों होगा? रसयुक्त आहार का त्याग हो जाने से नवीन वीर्य का संचय नहीं होता और पुराना संचितवीर्य नष्ट होता जाता है, अतः बाह्य तपों से ब्रह्मचर्य का रक्षण हो जाता है। अनशन तप से ये महान् लाभ हैं। निद्रा-गृद्धि-मद-स्नेह-लोभ-मोह-पराजयः । ध्यान-स्वाध्याययोर्वृद्धिः, सुख-दुःख-समानता ।।२५१॥ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्ठिका - ९४ अर्थ - बाह्य तप तपनेवाला तपस्वी निद्रा, गृद्धता, मद, स्नेह, लोभ और मोह को परास्त कर देता है, उनके ध्यान एवं अध्ययन में निशदिन वृद्धि तथा सुख और दुख, दोनों अवस्थाओं में समता की अभिवृद्धि होती रहती है ॥२५१॥ प्रश्न - अनशन आदि तपविहीन साधु को निद्रा आदि से क्या-क्या हानियाँ होती हैं? उत्तर - अनशन आदि तप न करनेवाला साधु प्रतिदिन आहार करता है, रसयुक्त आहार में तत्पर रहता है और बहुत आहार ग्रहण करता है, अतः उसे वायु आदि उपद्रवों रहित, मृदु स्पर्श युक्त तथा निरुपद्रव स्थान में सोने की इच्छा एवं चिन्ता होती है। ऐसे स्थान की खोज में व्याकुल रहता है अथवा अनुकूल स्थान मिल जाने पर गुरुजनों से छिप कर वहाँ एकान्त में जाकर चटाई आदि ओढ़कर आराम से सो जाता है, दीर्घ काल तक खर्राटे लेता है, प्रेत सदृश निश्चल पड़ा हुआ सोता रहता है और अशुभ परिणामों के प्रवाह में बह जाता है। अधिक भोजन करनेवाला तो बैठ भी नहीं पाता, वह ऊपर को मुख करके ही सोता है। रसीले पदार्थों का आहार करनेवाला गरिष्ठाहार की ऊष्मा से इधर-उधर करवटें बदलता हुआ व्याकुलता के आधीन पड़ा रहता है। बहुजनवाली वसतिका में रहनेवाला साधु दूसरों की वार्ता सुनने में और उनसे सम्भाषण करने में ही अपना समय व्यतीत कर देता है। दूध, घी, शक्कर आदि रसों से युक्त आहार प्राप्त होने पर राग एवं गर्व आदि करता है और स रूखा-सखा आहार मिलने पर देष करता है। इस प्रकार अनशनादि तपों की उपेक्षा करनेवाले साध निद्रादि दोषों पर विजय प्राप्त नहीं कर पात, निराकुलता पूर्वक सौत्साह से स्वाध्याय एवं ध्यान नहीं कर पाते तथा गुरुजनों की विनय एवं उनकी आज्ञापालन भी नहीं कर पाते । इस प्रकार अनशनादि तपों में प्रवृत्त न होने से और भी अनेक हानियाँ होती हैं, जिनका फल दीर्घ संसार है। बाह्य तप से होनेवाले लाभ आत्मा प्रवचनं सङ्घः, कुलं भवति शोभनम् । समस्तं त्यक्तमालस्यं, कल्मषं विनिवारितम् ।।२५२॥ अर्थ - बाह्य तप के द्वारा साधु अपनी आत्मा, प्रवचन अर्थात् जैन मत, अपने संघ और अपने कुल को अर्थात् अपनी शिष्यपरम्परा को सुशोभित करता है। उसका समस्त आलस्य छूट जाता है और पापों का निरोध हो जाता है।।२५२॥ मिथ्यादर्शनिनां सौम्य, संवेगो भूयसां सताम् । मुक्तेः प्रकाशितो मार्गो, जिनाज्ञा परिपालिता । २५३ ।। अर्थ - मुनिराजों का उग्र तप देखकर मिथ्यादृष्टि जीव अपनी उग्रता छोड़कर सौम्य हो जाते हैं, अन्य मुनिजन भी संसार से अत्यन्त भयभीत हो तप में प्रवर्त हो जाते हैं, इस तप से मुक्ति का मार्ग प्रकाशित होता है और जिनेन्द्रदेव की आज्ञा का पालन होता है ।।२५३॥ सन्तोषः संयमो देह-लाघवं शम-वर्धनम् । तपसः क्रियमाणस्य, गुणाः सन्ति यथायथम् ।।२५४॥ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ९५ अर्थ - तपस्वी के सन्तोष, संयम, शरीर में हल्कापन और उपशम भावों की वृद्धि होती है। इस प्रकार अनशनादि तप करनेवालों को यथासम्भव अनेक गुण प्राप्त हो जाते हैं ।। २५४ ॥ प्रश्न- तपस्वी के शरीर में लाघवता एवं उपशम भावों की वृद्धिआदि गुण कैसे उत्पन्न हो जाते हैं ? उत्तर - पुष्टाहार मांसवृद्धि का कारण है। इससे शरीर भारी हो जाता है, मोटापा बढ़ जाता है, शरीर का भारीपन आलस्य का मूल है, अतः अनशन आदि तप अवश्य ही करने चाहिए। इस तप से शरीर का भारीपन नष्ट हो जाता है जिससे आवश्यकादि क्रियाएँ सुलभता से सम्पन्न हो जाती हैं तथा स्वाध्याय और ध्यान आदि बिना क्लेश के से सम्पन्न हो जाते हैं। अनादिकाल से इस जीव को अपने प्राप्त शरीर में ही सबसे अधिक मोह या स्नेह रहा है। इस शरीर - स्नेह के कारण ही लोग असंयम में प्रवृत्ति कर रहे हैं, शरीर का स्नेह ही अनर्थकारी है। यह शारीरिक स्नेह कितने ही जीवों को दीक्षा में और दीक्षित भी हैं तो तपश्चरण में प्रवृत्त नहीं होने देता। इसके स्नेह में कितने ही तपस्वी मुनि तप को छोड़ बैठते हैं किन्तु जो भुनिराज दुष्कर तप में दृढ़तापूर्वक प्रवृत्त रहते हैं उनके रागादि भाव उपशमित हो जाते हैं। जैसे-जैसे तपश्चरण में प्रखरता आती है, वैसे-वैसे उपशम भावों की वृद्धि होती जाती है। वे मुनिराज विचार करते हैं कि - यह रागभाव उपद्रव करनेवाला है, यह आत्मा में नवीन कर्मबन्ध उत्पन्न करता है और पूर्व संचित कर्मों के रस में वृद्धि करता है। यदि मन रागभाव को आश्रय देगा तो नियमतः मेरा यह तपश्चरण व्यर्थ हो जावेगा, अतः ऐसे उपद्रवकारी राग से मुझे क्या प्रयोजन है? इसके होने पर तो मेरा अद्यावधि तपश्चरण का सर्व परिश्रम या कष्टसहन निष्फल हो जायेगा। इस प्रकार के चिन्तन से उपशम भावों की वृद्धि होती रहती है। उक्त प्रकरण का उपसंहार उद्गमोत्पादनाहार-दोषभक्तं मितं लघु । विरसं गृह्णताहारं, क्रियते विविधं तपः ॥ ( पाठान्तर ) अर्थ - मुनिराज उद्गम, उत्पादन और एषणा आदि छियालीस दोषों का त्याग कर मित अर्थात् अल्प, लघु, रसादिरहित एवं रूक्ष आहार- पान लेते हुए नित्य ही बाह्य तप करते हैं। शुद्ध आहार लेकर ही तप करना चाहिए, अशुद्ध आहार लेकर नहीं || ( पाठान्तर ) आहारमल्पयन्नेवं वृद्धो वृद्धेन संयतः । तपसा संलिखत्यङ्गं वृद्धेनेकान्ततोऽथवा ।। २५५ ॥ अर्थ - इस प्रकार मुनिराज आहार को अल्प करते हुए वृद्धिंगत तप द्वारा तप की वृद्धि करते हैं । तप की वृद्धि से ही शरीर को कृश करते हैं। अथवा कभी-कभी हीयमान तप से भी प्रवृत्ति करते हैं । २५५ ।। प्रश्न - 'वर्धमानतप भी करते हैं और हीयमान भी करते हैं' इस प्रकार ये दोनों तप एक ही साधु द्वारा कैसे सम्भव हैं ? उत्तर - एक दिन में भोजन की दो बेला कही गई है। एक बेला धारणा के दिन की, दो बेला उपवास के दिन की और एक बेला पारणा के दिन की, इस प्रकार चार भोजन बेला का त्याग चतुर्थ भक्त अथवा एक Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ९६ उपवास, छह बेला के भोजन का त्याग षष्ठभक्त अथवा बेला कहलाता है। इसी प्रकार आगे भी तेला, चोला आदि के क्रम से बढ़ते हुए छह मास के उपवास पर्यन्त जानना चाहिए। चतुर्थ, षष्ठ अर्थात् एक उपवास, बेला एवं तेला आदि के क्रम से अनशन तप की वृद्धि होती है। एक, दो, तीन एवं चार ग्रास कम करते जाने से अवमौदर्य तप की वृद्धि होती है। एक रस, दो रस, तीन रस आदि क्रम से रसों का त्याग करने से रसपरित्याग तप की वृद्धि होती है। मैं सात, पाँच, तीन या एक ही घर तक भिक्षावृत्ति के लिए जाऊँगा, अथवा भिक्षा के ग्रासों के परिमाण कम-कम करते जाना वृत्ति- परिसंख्यान तप की वृद्धि है। दिन में आतापनयोग करके रात्रि में प्रतिमायोग धारण करना कायक्लेश तप की वृद्धि है। इस प्रकार वर्धमान तप करते-करते जब महान् श्रम हो जाता है तब कभी अनशन आदि तप में कुछ कमी कर देता है। अर्थात् कुछ समय तक हीयमानतप करता है, पश्चात् पुन: वर्धमान तप के लिए उद्यमशील हो जाता है। इस प्रकार तप करते हुए क्षपक-साधु अपने शरीर को शनैः शनैः कृश करता है। प्रकारान्तर से सल्लेखना विधि क्रमेण संलिखत्यङ्गमाहारं खर्वयन्यतिः । प्रत्यहं वा गृहीतेन, तपसा विधि: कोविदः ॥२५६॥ अर्थ - क्रमश: आहार को घटाते हुए शरीर को कृश करता जाय । अथवा प्रतिदिन विविध प्रकार के तप को करते हुए तप की विधि को जाननेवाला साधु काया को कृश करता है।॥२५६ ॥ प्रश्न - 'प्रत्यहं' पद का क्या अर्थ है? उत्तर - 'प्रत्यहं वा' पद से यह अर्थ भी ग्राह्य है कि एक-एक तप से अर्थात् एक दिन अनशन, एक दिन अवमौदर्य, एक दिन रसपरित्याग और एक दिन वृत्तपरिसंख्यान आदि क्रम से शरीर को कृश करता है। आहार-गोचरैरुप्रै नाकारैरवग्रहः । मुमुक्षुः संलिखत्यङ्ग, संयमस्याविरोधकम् ।।२५७ ।। अर्थ - इन्द्रिय संयम और प्राणी संयम की जिसमें विराधना न हो इस प्रकार रूक्ष, नीरस, अल्प एवं आचाम्ल आदि द्वारा और उग्र-उग्र अवग्रह अर्थात् नियमों द्वारा मुमुक्षु क्षपक अपना शरीर कृश करते हैं ।।२५७ ।। या भिक्षु-प्रतिमाश्चित्रा, बले सति च जीविते। पीडयन्ति न ताः कायं, संलिखं तं यथाबलम् ॥पाठान्तर।। अर्थ - यदि आयु हो और शारीरिक शक्ति हो तो नाना प्रकार की भिक्षु-प्रतिमाओं का स्वीकार कर क्षपक यथाशक्ति शरीर को कृश करता है, उससे उसे पीड़ा नहीं होती, किन्तु यदि शक्ति के उपरान्त इन प्रतिमाओं को धारण कर लिया अर्थात् तीव्रगति से शरीर कृश करने का उद्यम किया तो महासंक्लेश परिणाम उत्पन्न हो सकते हैं, अत: तप में यथाशक्ति प्रवृत्ति करना ही श्रेयस्कर है।। (पाठान्तर) प्रश्न - भिक्षु-प्रतिमाएँ कौन धारण कर सकता है और उनका संक्षिप्त स्वरूप क्या है ? उत्तर - सल्लेखना करनेवाला धैर्यशाली, महासत्त्व से सम्पन्न, परीषहों का विजेता, उत्तम संहनन से Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गरणाकण्डिका - ९७ विशिष्ट, क्रमशः धर्मध्यान और शुक्लध्यान की पूर्णता का प्रयास करनेवाला क्षपक मुनि जहाँ ठहरा है उसी देश में उत्कृष्ट और दुर्लभ आहार का व्रत ग्रहण करता है कि यदि एक मास में ऐसा आहार मिलेगा तो ग्रहण करूँगा, अन्यथा नहीं। ऐसी प्रतिज्ञा करके उस माह के अन्तिम दिन वह प्रतिमायोग धारण करता है, यह एक भिक्षु प्रतिमा ___ पूर्वोक्त आहार से शतगुणित उत्कृष्ट और दुर्लभ ऐसे भिन्न-भिन्न आहार का व्रत अर्थात नियम वह क्षपक ग्रहण करता है। ये नियम दो, तीन, चार, पाँच, छह और सात माह पर्यन्त ग्रहण करता है और प्रत्येक माह के अन्तिम दिन में प्रतिमायोग धारण करता है। ये सात भिक्षु प्रतिमाएँ हैं। पुनः पूर्व आहार से शतगुणित उत्कृष्ट और दुर्लभ आहार को प्रत्येक सात-सात दिनों में केवल एक बार अर्थात् इक्कीस दिनों में मात्र तीन बार ग्रहण करता है। वह भी आहार की प्राप्ति होने पर तीन ग्रास, दो ग्रास और एक ग्रास ही ग्रहण करता है। ये तीन भिक्षु प्रतिमाएँ हैं, पश्चात् अहर्निश प्रतिमायोग से खड़ा रह कर अनन्तर प्रतिमायोग से ध्यानस्थ खड़ा रहता है। ये दो भिक्षु प्रतिमाएँ हैं। इसको धारण करने पर प्रथम अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान की प्राप्ति होती है, अनन्तर सूर्योदय होने पर वह क्षपक केवलज्ञान को प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार ये बारह भिक्षु प्रतिमाएँ होती हैं। आचाम्ल तप सर्वोत्कृष्ट है देह-सल्लेखना हेतु-बहुधा वर्णितं तपः। वदन्ति परमाचाम्लमर्हता यत्र योगिनः॥२५८॥ अर्थ - शरीर-सल्लेखना के निमित्त अनेक प्रकार के तपों के विकल्प पूर्व श्लोकों में वर्णित किये गये हैं। महर्षि योगियों ने उन तपों में आचाम्ल तप को ही सर्वोत्कृष्ट कहा है ।।२५८ ।। जो सब तपों में सर्वोत्कृष्ट है उस आचाम्ल का लक्षण षष्टाष्टमादिभिश्चित्रैरुपवासैरतन्द्रितः । गृह्णाति मितमाहारमाचाम्लं बहुशः पुनः ।।२५९॥ अर्थ - बेला, तेला आदि विविध उपवास करके निष्प्रमादी क्षपक क्रमशः अल्प आहार करता है, पश्चात बहुत प्रकार से आचाम्ल करता है ।।२५९।। प्रश्न - आचाम्ल किसे कहते हैं, आचाम्ल और कांजी में क्या अन्तर है तथा आचाम्लाहार में क्या गुण हैं ? उत्तर - मात्र चावल का मांड ग्रहण करना आचाम्ल है। या थोड़े चावल मिला हुआ चावल का मांड आचाम्ल है। या थोड़ा जल और चावल अर्थात् भात अधिक भी आचाम्ल है। या मात्र भात ग्रहण करना आचाम्ल है। या भात और इमली का पानी ग्रहण करना आचाम्ल है। या कांजी सहित भात का ग्रहण आचाम्ल है। Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ९८ मूलाराधना गाथा २५१ की दूसरी टीका में 'आयंबिलं कजिकाहारे' पद के द्वारा आचाम्ल को ही कांजिका कहा है। या खटास से युक्त एक प्रकार के पेय को कांजी कहते हैं। या भात और जल मिला कर पीना कांजी आहार है। या केवल चावलों का मांड पीना कांजी आहार है। उपर्युक्त लक्षणों से ज्ञात होता है कि आचाम्ल और कांजी पर्यायवाची हैं। आचाम्ल से लाभ आचाम्ल से कफ का क्षय होता है, पित्त शान्त होता है और वात से रक्षा होती है, अतः आचाम्ल सेवन में प्रयत्न करना चाहिए। भक्तप्रत्याख्यान का उत्कृष्ट काल और उसे पूर्ण करने की विधि कालो द्वादश-वर्षाणि, काले सति महीयसि । भक्तत्यागस्य पूर्णानि, प्रकृष्टः कथितो जिनैः ॥२६०॥ अर्थ - यदि आयुष्य काल अधिक है तो जिनेन्द्रदेव ने उत्कृष्ट से भक्त-प्रत्याख्यान का पूर्ण काल बारह वर्ष प्रमाण कहा है।।२६०॥ विचित्रैः संलिखत्यग, योगैर्वर्ष-चतुष्टयम्। समस्त-रस-मोक्षेण, परं वर्ष-चतुष्टयम् ॥२६१॥ आचाम्ल-रस-हानिभ्या, वर्षे द्वे नयते यतिः। आचाम्लेन विशुद्धेन, वर्षमेकं महामनाः ॥२६२॥ षण्मासीमप्रकृष्टेन, प्रकृतेन समाधये । षण्मासी नयते धीरः, कायक्लेशेन शुद्ध-धीः ॥२६३॥ अर्थ - बारह वर्ष प्रमाण काल में वे क्षपक मुनिराज विविध प्रकार के आतापन आदि योग अर्थात् कायक्लेश तप तपते हुए प्रथम चार वर्ष व्यतीत करते हैं। आगे के चार वर्ष दूध, दधि, गुड़, नमक आदि रसों का त्याग करते हुए व्यतीत करते हैं ॥२६१ ।। आचाम्ल भोजन और रसहानि अर्थात् नीरस भोजन करके महामना क्षपक दो वर्ष पूर्ण करते हैं। पश्चात् मात्र आचाम्ल आहार ग्रहण करते हुए एक वर्ष पूर्ण करते हैं ।।२६२।। अवशेष बचे एक वर्ष के प्रथम छह मास में मध्यम तपों द्वारा और द्वितीय अर्थात् अन्तिम छह मास में वे शुद्ध बुद्धिवाले धीर-वीर क्षपक मुनिराज उत्कृष्ट तपों द्वारा शरीर को क्षीण करते हैं ।।२६३॥ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ९९ उपर्युक्त आधार क्रम के अतिरिक्त अन्य-अन्य प्रकार द्रव्यं, क्षेत्रं, सुधी: कालं, धातुं ज्ञात्वा तपस्यति। तथा क्षुभ्यन्ति नो जातु, वात-पित्त-कफा यथा ॥२६४॥ अर्थ - बुद्धिशाली साधु द्रव्य, क्षेत्र, काल और अपने शरीर की प्रकृति को जान कर उस प्रकार तप करते हैं जिस प्रकार के तप से उनसे वात, पित्त, कफ आदि दोष कभी क्षुभित न हों ॥२६४ ।। प्रश्न - क्षपक को द्रव्य, क्षेत्र एवं काल आदि का ज्ञान कैसे करना चाहिए, इनके क्या- कैसे भेद हैं? उत्तर - इस प्रकरण में द्रव्य का अर्थ आहार से है। आहार अनेक प्रकार का होता है। यथा-शाक बहुल-जिस आहार में शाक अधिक है, रस बहुल-जिसमें घी, दूध, नमक, शक्कर आदि अधिक हैं,कुल्मासप्राय-जिस आहार में कुलथी आदि धान्य अधिक हैं, सेम के बीज एवं कच्चे चने आदि से मिला हुआ गहार या इन पदार्थों से और शाक. व्यंजन से रहित आहार, केवल भात-रोटी का आहार, निर्विकृति आहार अर्थात् जिन पदार्थों के सम्मिश्रण से भोजन में स्वाद उत्पन्न होता है ऐसे जीरा, धनिया, मिर्च आदि, सागादि, रसादि तथा चटनी आदि से रहित आहार और आचाम्ल या कांजी अर्थात् भात या मांड बहुल आहार। क्षेत्र भी अनेक प्रकार का है। यथा- अनूप क्षेत्र-जलबहुल क्षेत्र । जांगल-जहाँ दो इन्द्रिय आदि त्रस जीवों की उत्पत्ति अधिक होती है किन्तु जल कम होता है ऐसा क्षेत्र या देश आदि। वर्षाऋतु, शीतऋतु और ग्रीष्मऋतु आदि के भेद से काल भी अनेक प्रकार का होता है। प्रकृति-किसी साधु की प्रकृति कफ प्रधान, किसी की पित्त प्रधान और किसी की वायु प्रधान प्रकृति होती है। कोई साधु देहबली किन्तु धैर्यहीन होते हैं, कोई देह से दुर्बल किन्तु धैर्यशाली होते हैं, कोई दोनों से बली और कोई दोनों बलों से हीन होते हैं। साधु धीर-वीर हो, कफ आदि दोषों से रहित हो, क्षेत्र अनूप अर्थात् जलबहुल या समशीतोष्ण हो, वर्षाकाल हो तो महा उत्कृष्ट अर्थात् मास, दो मास के उपवास आदि भी निराकुलता पूर्वक हो सकते हैं। इसी प्रकार द्रव्य, क्षेत्रादि की अनुकूलता देखकर बाह्यतपों में निराकुलता पूर्वक प्रवृत्त होना चाहिए। अभ्यन्तर सल्लेखना बाह्य अर्थात् शरीर सल्लेखना के साथ अभ्यन्तर सल्लेखना का सम्बन्ध इत्थं सल्लेखना-मार्ग, कुर्वाणेनाप्यनेकधा। नैव त्याज्यात्म-संशुद्धिः, क्षपकेण पटीयसा ॥२६५ ।। अर्थ - इस प्रकार अनेक प्रकार की तपविधि द्वारा काय सल्लेखना करते हुए भी चतुर क्षपक अपने आत्मपरिणामों की विशुद्धि को एक क्षण के लिए भी न छोड़े॥२६५ ॥ ___ आत्मशुद्धि के अभाव में दोष भावशुद्ध्या विनोत्कृष्टमपि ये कुर्वते तपः। बहिर्लेश्या न सा तेषां, शुद्धिर्भवति केवला ॥२६६ ॥ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका १०० - अर्थ - जो साधुजन भावशुद्धि के बिना भी उत्कृष्ट तप करते हैं उन्हें आत्मशुद्धि की प्राप्ति नहीं होती, उनकी वह तप-क्रिया, केवल बाह्य लेश्या मात्र के लिए होती है || २६६ ॥ - प्रश्न भाव शुद्धि से क्या अभिप्राय है? उत्तर - काय सल्लेखना और कषाय सल्लेखना इन दोनों के संयोग से ही मोक्षार्थी क्षपक के प्रयोजन की सिद्धि होती है। यदि आयु अवशेष है तो बारह वर्ष पर्यन्त अनेक प्रकार के तप द्वारा काय सल्लेखना का उपक्रम किया जाता है, क्योंकि ली हुई अवधि के भीतर ही काय कृश करनी होती है। यदि काय कृश नहीं होगी तो समय पर शरीर नहीं छूटेगा, तब प्रतिज्ञा भंग होगी; अतः अधिकतम ध्यान या उपयोग बाह्यतपों की ओर आकर्षित होता रहता है । ये अनशनादि तप बाह्य में प्रदर्शित होते हैं और आत्मा के साथ लगे हुए कषाय अध्यवसान स्थान असंख्यात लोकप्रमाण हैं। इन तपों की प्रकर्षता को देखकर यदि संघ या समाज बहुमान प्राप्त होता है तब क्षपक का मन आह्लाद से भर उठता है। अर्थात् राग एवं अभिमान की उद्भूति हो उठती है और यदि बहुमान या विशेष सत्कार या वैयावृत्य आदि नहीं हो पाया तो मन खेद खिन्न हो उठता है या कभी ख्याति, पूजा, लाभ की चाह रूपी दाह में दग्ध हो जाता है। इस प्रकार राग-द्वेष आदि विकारी भावों के वेग में बहता हुआ मन आत्मविशुद्धि सम्बन्धी अपने लक्ष्य को भूल जाता है। तब जैसे ताप के फैलते शीतलता भाग जाती है वैसे ही राग-द्वेष की उत्पत्ति होते ही भावसंयम पलायमान हो जाता है। उस समय निस्सार कदली स्तम्भ सदृश मात्र बाह्यतप के भार को ढोता हुआ क्षपक आत्मविशुद्धि के अभाव में तप करते हुए भी कर्मनिर्जरा नहीं कर पाता, जबकि तप का कार्य कर्मनिर्जरा ही है। कषाय सल्लेखना का अर्थ है आत्मा की मलिनता के कारणभूत कषाय परिणामों को अर्थात् राग, द्वेष, अभिमान आदि विकारी भावों को कृश करना। अर्थात् उनका उपशमन होना, इसी का नाम भाव-विशुद्धि या आत्मविशुद्धि है। जैसे अग्नि के बाह्य ताप से स्वर्ण के अभ्यन्तर की किट्ट कालिमा नष्ट हो जाती है और वह स्वर्ण शुद्ध हो जाता है वैसे ही बाह्य तप के ताप से आत्मा के साथ तादात्म्य सम्बन्ध को प्राप्त राग-द्वेष रूपी किट्ट कालिमा का अभाव हो जाना और आत्मा का स्व-स्वभाव में स्थित हो जाना; इसी का नाम भावशुद्धि या आत्मविशुद्धि है । कषायों को कृश करने की आवश्यकता कषायाकुल- चित्तस्य, भावशुद्धिः कुतस्तनी । यतस्ततो विधातव्या, कषायाणां तनूकृतिः ॥ २६७ ।। अर्थ - जिस क्षपक का चित्त कषायों से आकुलित है, उसके भावशुद्धि कहाँ से हो सकती है? अतः कषायों को अवश्य ही कृश करना चाहिए || २६७ ॥ कषायों को कृश करने के उपाय जेतव्या क्षमया क्रोधो, मानो मार्दव सम्पदा । आर्जवेन सदा माया, लोभः सन्तोष-योगतः ॥ २६८ ॥ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका १०१ अर्थ - क्रोध को क्षमा से, मान को मार्दव रूपी सम्पदा से, माया को आर्जव से और लोभ को सदा सन्तोष से जीतना चाहिए ॥ २६८ ॥ चतुर्णां स कषायाणां, न वशं याति शुद्धधीः । उत्पत्तिस्त्यज्यते तेषां सर्वदा येन स तत्त्वतः ।। २६९ ।। 4 अर्थ - जो शुद्ध बुद्धिशाली क्षपक हैं, वे उन कषायों की उत्पत्ति को ही रोक देते हैं, अतः वे उन क्रोध, मान, माया और लोभ के तप में नहीं होते ॥ २६९ ।। तद्धेयं सर्वदा यत्र, कषायाग्निरुदीयते । यत्र शाम्यत्यस वस्तु, तदादेयं पटीयसा ।। २७० ।। अर्थ- विचारशील चतुर क्षपक को वह वस्तु या वह द्रव्य क्षेत्रादि सर्वदा छोड़ देना चाहिए जहाँ कि क्रोधादि कषायरूप अग्नि उत्पन्न होती है, तथा जहाँ कषायों का शमन होता है, उस द्रव्यादि को ग्रहण करना चाहिए || २७० ॥ - - अर्थ - यदि थोड़ी भी कषायरूप अग्नि उठती है तो उसे तत्काल बुझा देना चाहिए। जो कषायों को शान्त कर देते हैं, उनके यथार्थतः समस्त दोष उपशमित हो जाते हैं ॥ २७१ ॥ प्रश्न कषाय - उत्पत्ति के क्या चिह्न हैं और कषायों से क्या-क्या हानियाँ होती हैं ? उत्तर कषाय उत्पन्न होते ही मुख विरूप हो जाता है, नेत्र लाल हो जाते हैं, शरीर काँपने लगता है, शराबी मनुष्य के समान बड़बड़ाने लगता है और पिशाचग्रस्त मनुष्य के सदृश कुछ का कुछ कार्य करने लगता है। यह कषाय नीचों की संगति के सदृश हृदय को जलाती है, समीचीन ज्ञानरूपी दृष्टि को मलिन कर देती है, सम्यग्दर्शनरूपी बाग को उजाड़ देती है, चारित्ररूपी सरोवर को सुखा देती है, तपरूपी वन को जला देती है, अशुभ कर्मरूपी बेल की जड़ को गहरी जमा देती है, शुभ कर्मरूपी फलों को रसहीन कर देती है, पवित्र मन को मलिन कर देती है, हृदय को कठोर कर देती है, वाणी को असत्य की ओर ले जाती है, महान् गुणों का निरादर करती है, महापुरुषों के गुणों को ढक देती है, यशरूपी धन को नष्ट कर देती है, दूसरों पर दोषारोपण करती है, मित्रता की जड़ खोद देती है, किये हुए उपकारों को विस्मरण करा देती है, दुखों के भँवर में फँसा देती है, प्राणियों का घात करा देती है और अन्त में नरकरूपी भयंकर गर्त में पटक देती है। इस प्रकार कषाय ही सब प्रकार के अनर्थ करती है। ऐसा चिन्तन कर कषाय को शीघ्र ही शान्त कर लेना चाहिए। कारण बिना कार्य सम्भव नहीं यद्युदेति कषायानिर्विध्यातव्यस्तदा लघुः । शाम्यन्ति खिला दोषाः, शमिते तत्र तत्त्वतः ॥ २७९ ॥ रागद्वेषादिकं साधोः, सङ्गाभावे विनश्यति । कारणाभावतः कार्यं किं कुत्राप्यवतिष्ठते ।। २७२ ।। अर्थ - परिग्रह का अभाव हो जाने पर साधु के राग-द्वेष भी विनष्ट हो जाते हैं, क्या कारण के अभाव में भी कहीं कार्य होता देखा गया है ? || २७२ ॥ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - १०२ प्रश्न - यहाँ कार्य-कारण भाव से क्या दर्शाया गया है? उत्तर - कारण विद्यमान होने पर कार्य हो भी और न भी हो, किन्तु कारण के बिना कार्य कदापि नहीं होता। जैसे मिट्टीरूप कारण के रहते ही घटरूप कार्य और तन्तुरूप कारणों से पटरूप कार्य उत्पन्न होता है, उसी प्रकार परिग्रह रूप कारण ही राग-द्वेष परिणामरूप कार्य के निमित्त हैं, परिग्रह के अभाव में साधु के रागद्वेष नहीं होते, अत: कल्याणेच्छु साधु को सर्व परिग्रह का त्याग कर देना चाहिए । क्रोधरूप अग्नि प्रज्वलित होने का कारण और उसका फल वाक्यासहिष्णुता-वात्या-प्रेरित: कोप-पावकः । उदेति सहसा चण्डो, भूरि-प्रत्युत्तरेन्धनः ॥२७३॥ स दग्ध्वा ज्वलित: क्षिप्रं, रत्नत्रितय-काननम्। विदधाति महातापं, संसारागार-सञ्चयैः ॥२७४ ।। अर्थ - शिष्य के असह्य एव प्रतिकूल वचनरूपी वायु से प्रेरित क्रोधाभि गुरु के हृदय में सहसा उत्पन्न हो जाती है। पश्चात् प्रत्युत्तर रूप महान् ईंधन को प्राप्त कर वह कोपाग्नि प्रचण्डरूप धारण कर लेती है, जो शीघ्र ही गुरुदेव के रत्नत्रय रूप वन को जला देती है, जिससे संसार रूप प्रज्वलित अंगार दीर्घ काल पर्यन्त भयंकर सन्ताप देते रहते हैं ।।२७३-२७४ ।। . प्रश्न - इस रूपक का क्या भाव है? उत्तर - इस रूपक से यह दर्शाया गया है कि साधु एवं आचार्य आदि गुरुजनों को क्रोध क्यों और कैसे उत्पन्न होता है तथा उसका फल क्या होता है। यथा - शिष्य की कोई अयोग्य प्रवृत्ति देख कर गुरु उसे सारणवारण रूप उपदेश देते हैं। शिष्य अभिमानी या उच्छृखल है, अथवा गुरु का उपदेश पक्षपाती है या तिरस्कार मिश्रित है या कटाक्षरूप है, जिस किसी भी कारण से शिष्य प्रतिकूल वचन कहता है, जो गुरु को सह्य नहीं। यहीं एक प्रकार की वायु हुई, इससे गुरु के मन में कोपाग्नि भभक उठी। गुरु ने पुनः शिष्य को समझाने का प्रयास किया। शिष्य ने पुनः प्रतिकूल उत्तर दिये । वे प्रतिकूल वचन गुरु की क्रोधाग्नि में ईंधन का काम कर गये, जिससे वह आग और अधिक उद्दीप्त हो उठी जिसने गुरु का रत्नत्रय रूपी उपवन जला दिया क्योंकि कषाय प्रवेश करते ही महाव्रतादि पलायमान हो जाते हैं। रत्नत्रय का उपवन भस्म होते ही वहाँ अनन्तानुबन्धी या अप्रत्याख्यान नामधारी धधकते हुए अंगार एकत्र हो गये जो चिरकाल पर्यन्त महाभयंकर सन्ताप देने में समर्थ हैं। अर्थात् गुरुजी के उसी क्षण अप्रत्याख्यान या अनन्तानुबन्धी कषाय का उदय आ गया जो अनन्तभवों तक संसार-परिभ्रमण का कारण है। कभी गुरु की कठोर आज्ञा आदि का निमित्त पाकर साधर्मी एवं शिष्य की क्रोधाग्नि भी प्रज्वलित हो जाती है। उत्पन्न हुई कषाय को शान्त करने का उपाय जायमान: कषायाग्निः, शमनीयो मनीषिणा। इच्छा-मिथ्या-तथाकार-प्रणिपातादि-वारिभिः ॥२७५ ॥ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - १०३ अर्थ - बुद्धिमानों को कषायाग्नि के उत्पन्न होते ही उसे बुझा देना चाहिए | उसको बुझाने का जल है - इच्छाकार, मिथ्याकार, तथाकार एवं नमस्कार आदि। इस जल के पड़ते ही क्रोधाग्नि शान्त हो जाती है॥२७५ ।। प्रश्न - इच्छाकार, मिथ्याकार आदि किसे कहते हैं और इनसे गुरु आदि की क्रोधाग्नि कैसे शान्त हो जाती है? उत्तर - इच्छाकार - हे भगवन् ! मैं आपका उपदेश या आज्ञा शिरोधार्य करता हूँ और इस उपदेशामृत की निरन्तर वाञ्छा करता हूँ। शिष्य द्वारा कहे हुए नम्रता के ऐसे वचनों को इच्छाकार कहते हैं। मिथ्याकार - मैंने आपको प्रत्युत्तर दिया, प्रतिकूल वचन कहे और आपकी अवज्ञा की मेरे वे सब पातक आपकी अनुकम्पा से मिथ्या हों। तथाकार - हे भगवन् ! आपकी शिक्षा यथार्थतः सत्य है। आप मुझ अल्पमति पर प्रसन्न हों, मैं आपके पावन चरणकमलों में नम्रीभूत होकर बार-बार नमस्कार करता हूँ। शिष्य की उद्दण्डता से गुरु की कोपाग्नि प्रज्वलित हुई थी। जब शिष्य ने अनुभव किया कि इस क्रोधरूपी अग्नि के ताप से मेरा तो अहित होगा ही किन्तु मेरे परमोपकारी गुरु को और रत्नत्रय रूप फलों से सुशोभित संघ को संताप होगा लथा प्रमाण की निन्दा हेगी, हब वह विवेकी एवं धर्मवत्सल शिष्य इच्छाकारादि उत्तमजल से उस अनिष्टकारी क्रोधाग्नि को शीघ्र ही बुझा देता है। प्रश्न - गुरु की कठोर आज्ञा या कोई ताड़ना युक्त कटु वचन सुनकर यदि शिष्यादि को क्रोधाग्नि प्रज्वलित हो जाय तब गुरुजन उसे कैसे शमन करते हैं? उत्तर - महापुरुष सर्व प्राणियों के निर्व्याज बन्धु होते हैं । वे कभी अपने शिष्यों पर अभ्यन्तर से कुपित नहीं होते, क्योंकि उनके पावन हृदय में शिष्य का हित करने के भाव ही छिपे रहते हैं, अतः वे कोपायमान शिष्य को एकान्त में ले जाकर अपने शीतल वचनरूपी जल से उपशान्त कर उसे विश्वास में ले लेते हैं। अर्थात् उसकी श्रद्धा को पूर्ववत् दृढ़ कर देते हैं। शिष्य भी गुरु की वात्सल्यमयी अमृतवाणी को कर्णपुटों से पीकर सन्तुष्ट हो जाता है और तत्काल गुरुचरणों में नम्र होकर प्रायश्चित्त मांग अपने हृदय की पवित्रता को प्रदर्शित कर देता है। ___ शिष्य की क्रोधाग्नि शान्त करने के लिए गुरु को समाचार नीति का अवलम्बन नहीं लेना पड़ता क्योंकि "मुखदानं हि मुख्यानां, लघूनामभिषेचनम्'। अर्थात् महापुरुषों का सम्मुख होकर बोलना ही छोटों को राज्याभिषेक के सदृश आनन्ददायक होता है। संलिख्यं गौरवं संज्ञा, नोकषाया महाभटाः। समस्ता निन्दिता लेश्या, समाधानं यता सता ।।२७६ ।। अर्थ - इस प्रकार सज्जनों को अपना चित्त समाधानरूप अर्थात् शान्त रखने के लिए कषायों के सदृश गारव, संज्ञा एवं नौ नोकषाय रूपी महाभटों को तथा अशुभ लेश्याओं को भी निन्दित करना चाहिए। अर्थात् छोड़ देना चाहिए ॥२७६॥ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरणकोण्डका - १०४ प्रश्न - गारव आदि किसे कहते हैं और ये कितने-कितने होते हैं ? उत्तर - शब्द गारव, ऋद्धिगारव और सात गारव के भेद से गारव तीन प्रकार के हैं। शब्दगारव-वर्णों के उच्चारण का गर्व करना। ऋद्धिगारव - शिष्य, शास्त्र, पीछी, कमण्डलु एवं पट्ट आदि परिग्रह के द्वारा अपने को ऊँचा प्रगट करना। सात गारव - आहार-पान आदि से उत्पन्न सुख की लीला से मस्त होकर मोहमद करना। संज्ञा - आहारादि विषयों की अभिलाषा को संज्ञा कहते हैं। अथवा जिनसे बाधित होकर जीव इस लोक में दारुण दुख पाते हैं और जिनका सेवन करने से जीव दोनों ही भवों में दारुण दुख प्राप्त करते हैं उन्हें संज्ञा कहते हैं। आहार संज्ञा, भय संज्ञा, मैथुन संज्ञा और परिग्रह संज्ञा के भेद से ये चार प्रकार की होती हैं। नोकषाय - ईषत् अर्थात् किंचित् कषाय को नोकषाय कहते हैं। हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसक वेद के भेद से ये नौ प्रकार की हैं। कषार्यों के सदृश ये चारित्र का विनाश नहीं कर पातीं, चारित्र में मल उत्पन्न करती हैं, अतः इन्हें ईषत् कषाय कहते हैं। लेश्या - कषाय से अनुरंजित योगों की प्रवृत्ति को लेश्या कहते हैं। कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म और शुक्ल के भेद से ये छह प्रकार की हैं। इनमें से प्रारम्भ की तीन अशुभ और शेष तीन शुभ हैं। संसार-त्याग का इच्छुक उत्कृष्ट तप करता है वर्धितावग्रहः साधुः, प्रकटास्थि-सिरादिकः । तनूकृत-समस्ताङ्गो, भवत्यध्यात्म-निष्ठितः ।।२७७ ।। बाह्याभ्यन्तरी कृत्वा, योगी सल्लेखनामिति । संसार-त्यजनाकाञ्छी, प्रकृष्टं कुरुते तपः॥२७८॥ इति सल्लेखना- सूत्रम्॥ अर्थ - जो प्रतिदिन अपने अवग्रह-अर्थात् नियमों को वृद्धिंगत कर रहा है और सारा शरीर कृश होने से जिसका नसाजाल एवं अस्थियाँ स्पष्ट दिखाई देने लगी हैं ऐसे अंगोपांगों को कृश करनेवाला साधु अपनी आत्मा में निष्ठ हो जाता है ।।२७७ ।। इस प्रकार बाह्याभ्यन्तर अर्थात् काय-सल्लेखना तथा कषाय-सल्लेखना करने पर संसारत्याग का दृढ़ निश्चय करके वह योगी उत्कृष्ट तप अर्थात् धर्मध्यान, शुक्लध्यान करता है ।।२७८ ।। सल्लेखना सूत्र पूर्ण हुआ। Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - १०५ १२. दिशा अधिकार शरीर-त्याग का विचार न शक्नोम्यशुचि त्याज्यमिदं वोढुं महत्क्षयि । विचिन्त्येति वपुस्त्यक्तुं, गणं याति कृतक्रियः ।।२७९ ।। अर्थ - यह शरीर अपवित्र है, नष्ट होनेवाला है, त्याज्य है, अब मैं इस शरीर के भार को धारण करने में समर्थ नहीं हूँ। इस प्रकार शरीर-त्याग का विचार कर, समाधिमरण की तैयारी करता हुआ वह आचार्य या साधु अपने संघस्थ शिष्यों के पास जाता है ।।२७९ ।। संघहित-चिन्तन अपि संन्यस्यता चिन्त्यं, हितं सङ्घाय सूरिणा। परोपकारिता सद्धिः, प्राणादिन नुच्यते ॥२८।। अर्थ - सल्लेखना करने के लिए उद्यत क्षपक आचार्य को अपने संघ के हित का विचार करना चाहिए, क्योंकि सज्जन पुरुष प्राणान्त में भी परोपकार नहीं छोड़ते ॥२८० ।। विज्ञाय कालमाहूय, समस्तं गणमात्मना । आलोच्य सदृशं भिक्षु, समर्थ गणधारणे ।।२८१ ।। प्रदेशे पावनीभूते, चारु-लग्नादिके दिने। गणं निक्षिपते तत्र, स्वल्पां कृत्वा कथां सुधीः ॥२८२ ।। अर्थ - अपनी आयु और समाधिकाल का विचार कर आचार्य अपने संघ को और संघ को धारण करने में समर्थ जिस बालाचार्य को पूर्व में स्थापित किया था उन्हें किसी पवित्र स्थान पर बुलाकर सौम्य तिथि, वार, करण, नक्षत्र, योग एवं लग्न में उन बालाचार्य को संघ समर्पित कर देते हैं और थोड़ा सा उपदेश भी देते हैं ।।२८१-२८२ ।। उक्तं च ज्ञान-विज्ञान-सम्पन्नः, स्वगुरोरभिसम्मतः। विनीतो धर्म-शीलश्च, यः सोऽर्हति गुरोः पदम् ॥क्षेपक॥ अर्थ - जो ज्ञान-विज्ञान सम्पन्न है, अपने गुरु को मान्य है, विनीत है, रत्नत्रय धर्म और शील का पालक है, वह शिष्य आचार्य पद के योग्य है। (मूलाराधना दर्पण से उद्धृत) दिशाबोध अर्थात् शिक्षा अविच्छेदाय तीर्थस्य, तं विज्ञाय गुणाकरम्। अनुजानाति संबोध्य, दिगयं भवतामिति ।।२८३॥ इति दिक् सूत्रम्। Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका अर्थ - दर्शन - ज्ञान - चारित्रात्मक धर्मतीर्थ की व्युच्छित्ति न हो, वह सदा प्रवर्तित होता रहे, इस हेतु 'यह गुणज्ञ है' ऐसा जान कर बालाचार्य को पूर्वाचार्य दिशाबोध अर्थात् शिक्षा देते हैं। बालाचार्य को दिशा बोध देना ही 'दिशा' कहलाती है ॥ २८३ ॥ प्रश्न - बालाचार्य कैसा हो और उसको क्या शिक्षा दी जाती है? उत्तर - बालाचार्य आत्तार्यत्व के गुणों से सम्पन्न, सहिष्णु, गंभीर, बहुज्ञानी, धर्मानुपालक, धर्मप्रेमी, वात्सल्यगुण से भरपूर, अपने गुरु का विश्वासपात्र, उनका आज्ञानुवर्ती, संघ का भारवहन करने में समर्थ और सर्व संघ की श्रद्धा का पात्र हो । पुराने आचार्य नवीनाचार्य को शिक्षा देते हैं कि यह संघ रूपी नौका रत्नत्रय रूपी रत्न समूह से भरी है, अब आप इसके खेवटिया बन रहे हो, इसका इस प्रकार अनुग्रह करना कि यह नौका संसारसमुद्र से उत्तीर्ण हो जावे। संघ को भी शिक्षा देते हैं कि अब ये आपके आचार्य हैं, यही अब आपके मान्य हैं, इनके आज्ञानुवर्ती बन कर ही आप सबको अपने प्रयोजन की सिद्धि करनी है। अनुशासित रहते हुए ही आप सबको धर्म की एवं अपनी-अपनी आत्मा की उन्नति करना है। यदि मैं अपनी योग्यता के सदृश ही इन नवीनाचार्य की स्थापना किये बिना ही संघ को छोड़कर सल्लेखना हेतु चला जाऊँ, तो इस सम्पूर्ण संघ के रत्नत्रय धर्म का नाश होने से धर्मतीर्थ का ही विच्छेद हो जायेगा। आप सबके धर्म के रक्षण एवं वृद्धि हेतु ही मैंने इनका स्थापन किया है, अतः आप सबको आज से इनकी आज्ञानुसार ही प्रवर्तन करना है। 'दिशा' नामक अधिकार पूर्ण हुआ ।। १२ ।। - १०६ १३. क्षमण अधिकार आचार्य द्वारा क्षमा-याचना सकलं गणमामन्त्र्य, कृत्वा गणि- निवेशनम् । स त्रिधा क्षमयत्येवं, बालन - वृद्धाकुलं गणम् ॥ २८४ ॥ अर्थ - नवीन आचार्य और सर्व संघ को बुलाकर, नूतनाचार्य को गण के मध्य स्थापित कर तथा स्वयं पृथक् होकर बालमुनि, वृद्धमुनि आदिकों से पूर्ण ऐसे संघ से पूर्व आचार्य मन, वचन और काय से क्षमा माँगते हैं ॥ २८४ ॥ यद्दीर्घकाल संवास - ममत्व - स्नेह - रागतः । अप्रियं भणितं किंचित्तत्सर्वं क्षमयामि वः ॥ २८५ ॥ अर्थ - हे मुनिगण ! आप सबके साथ मेरा दीर्घ काल तक संवास रहा है, इस बीच मैंने ममता, स्नेह, राग या द्वेष से आपको जो अप्रिय या कटु वचन कहे हैं, उनकी मैं क्षमा माँगता हूँ ॥ २८५ ॥ आचार्य द्वारा क्षमा-याचना करने पर गण का कर्तव्य प्रणम्य पतितः सङ्घस्त्रातारं वत्सलं यतिम् । धर्माचार्यं निजं सर्व, सम्यक् क्षमयति त्रिधा ॥ २८६ ॥ इति क्षमणा-सूत्रम् ॥ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका अर्थ - सर्वप्रथम नमस्कार कर अनन्तर भूतल पर बैठ कर किया है पंच नमस्कार जिन्होंने ऐसे वे गण सर्व साधुजन संसार के दुख से रक्षा करनेवाले, सबके ऊपर वात्सल्य भाव रखनेवाले तथा दश धर्मों में स्वयं प्रवृत्त होकर गण को प्रवृत्त करनेवाले ऐसे अपने पूर्वाचार्य से अपने सर्व अपराधों के प्रति भली प्रकार मन, वचन, काय से क्षमा माँगते हैं ॥ २८६ ॥ - १०७ | क्षमणा प्रकरण पूर्ण हुआ ।। अणुसिट्टि अर्थात् अनुशिष्टि अधिकार संघ को उपदेश स सूत्रार्थ - रहस्यज्ञः, स्वार्थ-निष्ठोऽपि यत्नतः । संविप्रश्चिन्तयत्येवं, गणं धीरो जिनाज्ञया ।। २८७ ॥ अर्थ संसार से भयभीत, धीर, सिद्धान्त ग्रन्थों का अर्थ करने में निपुण तथा प्रायश्चित्त ग्रन्थ के ज्ञाता ऐसे पूर्वाचार्य अब अपने स्वार्थ अर्थात् समाधिनिष्ठता अर्थात् आत्महित की चिन्ता में तत्पर होते हुए भी जिनाज्ञानुसार चतुर्विध संघ की चिन्ता करते हैं ।। २८७ ॥ गम्भीरां मधुरां स्निग्धां, ग्राह्यामानन्ददायिनीम् । अनुशिष्टिं ददात्येवं स गणस्य गणेशिनः || २८८ | अर्थ - पूर्वाचार्य गम्भीर अर्थात् सारभूत, मधुर, स्नेहपूरित, ग्राह्य और आनन्ददायक वचनों द्वारा नवीन आचार्य को और सर्व संघ को शिक्षा देते हैं । १२८८ ॥ रत्नत्रये विधातव्यं, वर्धमानं प्रवर्तनम् । कल्पाकल्प - प्रवृत्तानां सर्वेषामागमिष्यति ॥ २८९ ॥ अर्थ - सर्वेषां अर्थात् निवृत्ति और प्रवृत्ति मार्ग में प्रवर्तन करनेवाले इस चतुर्विध संघ को आगामी अर्थात् भविष्य में कल्पाकल्प अर्थात् योग्य और अयोग्य वस्तुओं में यथायोग्य प्रवृत्ति करते हुए रत्नत्रय मार्ग में ऐसा आचरण करना चाहिए जिससे रत्नत्रय वृद्धिंगत होता रहे ॥ २८९ ॥ नवीन आचार्य को शिक्षा संक्षिप्तेहादितोऽम्भोधिं, गच्छन्तीव महानदी । विस्तरन्ती विधातव्या, गुण-शील- प्रवर्तना ।। २९० ।। अर्थ - उत्पत्ति स्थान में सँकरी सी भी उत्तम महानदी जैसे विस्तार के साथ बढ़ती हुई समुद्र पर्यन्त जाती है, वैसे ही हे बालाचार्य ! आपको भी प्रारम्भ में अल्प प्रमाण से धारण किये गये गुणों, व्रतों एवं शीलादि को उत्तरोत्तर वृद्धिंगत करते रहना चाहिए ॥ २९० ॥ मास्म कार्षीर्विहारं त्वं, मार्जाररसितोपमम् । मानीनशो गणं स्वं च, कदाचन कथञ्चन ।। २९१ ।। Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - १०८ अर्थ - जैसे माजरि की आवाज पहले तीव्र फिर क्रमशः मन्द-मन्द हो जाती है, रत्नत्रय के आचरण में वैसा तुम कदापि और किसी प्रकार भी नहीं करना, न संघ से कराना । ऐसा आचरण कर अपना और संघ का नाश मत करना।।२९१॥ प्रश्न - किस प्रकार के आचरण से स्व-पर का नाश होता है? उत्तर - आत्मा और शरीर का अनादिकालीन सम्बन्ध है। प्रत्येक पर्याय में इस शरीर का पोषण ही किया गया है, तथा 'इसे किंचित् भी कष्ट न हो' इस पर पूर्ण सतर्कता बरती गई है। इस मनुष्य पर्याय में कोई महान् पुण्योदय से व्रत-संयम ग्रहण के परिणाम बने हैं। अर्थात् आत्मा और शरीर के भिन्नत्व की भावना बनी है। इस भावना को यथावत् बनाये रखना आवश्यक है। नवीन दीक्षाग्रहण के हर्षोत्साह में बिल्ली के प्रारम्भिक स्वर सदृश यदि दुर्द्धर तपों का अनुष्ठान स्वयं कर लिया या शिष्यों से करा लिया तो कष्टसहिष्णु संस्कार के अभाव में या तो शरीर में कोई रोग उत्पन्न हो जायेगा, या शारीरिक दौर्बल्य सहन न होने से व्रतोत्साह मन्द पड़ जायेगा, श्रद्धा शिथिल हो जायेगी, उसके फलस्वरूप वह उग्रतप और चारित्र भी मन्द-मन्द होता जायेगा, जो स्वयं के और संघ के नाश का कारण होगा। अर्थात् स्वपर रत्नत्रय की हानि होगी, कर्म बन्ध होगा, संसार परिभ्रमण वृद्धिंगत होगा और जगहँसाई होगी। जिसने कभी हाथी नहीं देखा वह यदि एकाएक हाथी को उठाने का प्रयास करेगा, तो मारा जायेगा, किन्तु जन्मजात गज शिशु को दिन-प्रतिदिन उठाता रहे तो एक दिन हाथी भी उठा लिया जायेगा। उसी प्रकार पूर्व पर्यायों में अनभ्यस्त ऐसे कठोर तपों को अनायास धारण करने से हानि की सम्भावना है, दीक्षा के बाद ही उनका प्रारम्भ मन्द-मन्द गति से करें। पश्चात् जैसे-जैसे शरीर अभ्यस्त होता जाय, अर्थात् कष्टसहिष्णु बनता जाय, श्रद्धा एवं आत्मदृढ़ता वृद्धिंगत होती जाय वैसे-वैसे तपादि में वृद्धि करते हुए कठोर आचरण पर पहुँच जाना चाहिए। विध्यापयति यो वेश्म, नात्मीयमलसत्वतः। पर-वेश्म-शमे तत्र, प्रतीति: क्रियते कथम् ।।२९२ ॥ अर्थ - जो आलस्यवश जलते हुए अपने घर को भी नहीं बचाना चाहता, उस पर कैसे विश्वास किया जा सकता है कि वह दूसरों के जलते हुए घर को बचावेगा ।।२९२।। प्रश्न - इस श्लोक का क्या भाव है ? उत्तर - यहाँ नवीन आचार्य को शिक्षा दी जा रही है कि जो आलसी मनुष्य अपने जलते हुए घर की आग बुझाने में भी सक्रिय नहीं हो पाता उससे कैसे आशा की जाय कि वह दूसरों के जलते हुए घर की आग बुझाने का पुरुषार्थ करेगा ? अर्थात् जो आचार्य स्वयं आलसी हो, प्रमादी हो, शबल चारित्री हो, लोक-रंजना में तन्मय हो, ख्याति, पूजा, लाभ की चाह से ग्रसित हो और ध्यान-अध्ययन से उदासीन हो वह संघ के रत्नत्रय की वृद्धि कैसे करा सकेगा ? जो आचार्य उपर्युक्त दोषों से रहित होंगे वे ही अपने संघ को मोक्षमार्ग पर सहजता पूर्वक चला सकेंगे, अत: आपको भी इन दोषों से अपनी रक्षा करनी है। Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है । मरणकण्डिका बालाचार्य की प्रवृत्ति इस प्रकार होनी चाहिए मुञ्च च्यवनकल्पं त्वं, विरोधं स्वान्य-पक्षयोः । असमाधिकरं वादं, कषायाग्निसन्निभान ॥ २९३ ॥ - अर्थ - हे बालाचार्य ! तुम च्यवनकल्प को, स्व पक्ष और पर पक्ष में विरोध करानेवाले कार्यों को, अशान्तिकारक वाद-विवाद को और अभि सदृश कषायों को छोड़ा ॥ २९३ ॥ - १०९ प्रश्न बालाचार्य द्वारा छोड़ने योग्य च्यवनकल्प आदि के क्या लक्षण हैं? उत्तर - शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, मिथ्यादृष्टियों की प्रशंसा और संस्तव ये सम्यग्दर्शन के अतिचार अकाल में वाचना और स्वाध्याय करना, द्रव्यशुद्धि, क्षेत्रशुद्धि और कालशुद्धि बिना वाचनादि करना. निह्नव, ग्रन्थ अशुद्ध पढ़ना, अर्थ अशुद्ध करना एवं आदर का अभाव ये सम्यग्ज्ञान के अतिचार हैं। समिति की भावनाएँ न करना चारित्र का अतिचार है। इन सब अतिचारों को ही च्यवनकल्प कहते हैं। स्व पक्ष अर्थात् जैन धर्मस्थ मुनिगण एवं श्रावक जन, पर पक्ष अर्थात् मिथ्यादृष्टि जन, इनमें परस्पर विसंवाद होना विरोध है । चित्त की शान्ति भंग करनेवाले विसंवाद को बाद कहते हैं। वाद करनेवाला अपनी जय और अन्य की पराजय का ही प्रयत्न करता है, वह यथार्थ तत्त्व का समाधान नहीं कर पाता । कषायें स्व और पर को मारनेवाली हैं अतः इन्हें अग्नि सदृश कहा गया है। आचार्य को रत्नत्रय के रक्षणार्थ इन सबका त्याग करना चाहिए। आचार्य पद की अयोग्यता एवं योग्यता दर्शने चरणे ज्ञाने, श्रुतसारेषु यस्त्रिषु । निधातुं गणमात्मानमसमर्थो गणी न सः ॥ २९४ ।। अर्थ - आगम के सारभूत तीन रत्न दर्शन, ज्ञान और चारित्र अर्थात् रत्नत्रय में जो अपने आप को एवं संघ को स्थापित करने में समर्थ नहीं है, वह आचार्य पद के योग्य नहीं है ।। २९४ ॥ दर्शने चरणे ज्ञाने, श्रुतसारेषु यस्त्रिषु । निधातुं गणमात्मानं शक्तोऽसौ गदितो गणी ।। २९५ ।। अर्थ- आगम के सारभूत तीन रत्न दर्शन, ज्ञान और चारित्र में जो अपने आप को और संघ को स्थापित करने में समर्थ है. वह आचार्य पद के योग्य है ।। २९५ ।। यः पिण्डमुपधिं शय्यां, दूषणैरुद्रमादिभिः । गृह्णीते रहितां योगी, संयतः स निगद्यते ॥ २९६ ।। अर्थ - जो आहार, उपकरण और वसतिका को उद्गम, उत्पादन एवं एषणा आदि दोषों से रहित ग्रहण करता है, अर्थात् दोषयुक्त को ग्रहण नहीं करता वह योगी ही संयत कहा जाता है ।। २९६ ।। Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ११० समये गणि-मर्यादा, तेषामाचार-चारिणाम् । स्वच्छन्देन प्रवर्तेत, लोक-सौख्यानुसारिणा ।।२९७ ।। अर्थ - ज्ञानाचार आदि पाँच प्रकार के आचार का आचरण अर्थात् पालन करनेवाले जो गणी हैं, उन गणियों की यह गणधर-मर्यादा आगम में कही है। जो लोकसुख के अनुसार अथवा लोक के अनुसार चलनेवाले तथा स्वच्छन्दता से प्रवर्तन करनेवाले हैं उनकी 'गणधर' यह मर्यादा सूत्र में नहीं कही है।।२९७ ।। प्रश्न - सूत्र में गणधर की क्या मर्यादा कही है? लोकसुख और स्वच्छन्द प्रवर्तन का क्या भाव है? उत्तर - ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार इन पंचाचारों का निर्दोष रीत्या जो स्वयं पालन करते हैं और दूसरों को पालन कराते हैं, उन्हें गणधर अर्थात् आचार्य कहते हैं। गणधर की यही मर्यादा आगम में कही गई है। अर्थात जो स्वयं पंचाचार का पालन करता है. लौकिक सुख में नहीं प्रवर्तता है तथा आगमानुसार आचरण करता है वही आचार्य बन सकता है अन्यथा नहीं, क्योंकि जो स्वयं शिथिल आचारवाला है वह अन्य साधु-जनों को निर्दोष चारित्र पालन नहीं करा सकता, अत: वह आगम की मर्यादा के बहिर्भूत है। लोकसुख या लौकिक सुख हैं मिष्टाहार का यथेष्ट भोजन करना, कोमल शय्या पर शयन करना, मनोहर वसतिकाओं में निवास करना, मेत्रों को तृप्त करनेवाले चल-चित्रादि देखना और कर्णप्रिय संगीत आदि सुनना, इन्हीं विषयों में रत रहना या इन्हीं की अभिलाषा पूर्ति के उपक्रम करना । शास्त्र में असंयमी और विधर्मी लोगों के साथ संसर्ग और गृहस्थ जैसे सुखों में आदर, ये बातें आचार्यों और मुनियों के लिए निषिद्ध कही गई हैं, किन्तु जो आगमाज्ञा की अवज्ञा कर इन्हीं बातों को श्रेय देते हैं एवं जो इनमें ही अहर्निश अनुरक्त रहते हैं वे स्वच्छन्द कहे जाते हैं। आगम की आज्ञा को लोप करने वाले एवं विषयासक्त ऐसे मुनि आचार्यत्व के योग्य नहीं हैं। ममत्वं कुरुते हित्वा, यो राज्यं नगरं कुलम् । तस्य संयम-हीनस्य, केवलं लिङ्ग-धारणम् ।।२९८ ॥ अर्थ - जो राज्य, नगर एवं कुल आदि को छोड़ कर दीक्षित हुआ है, फिर उससे ममत्व करता है कि मेरा राज्य, मेरा नगर एवं मेरा कुल है, वह संयमरहित है। अर्थात् असंयतों में या परिग्रह में आदरभाव या ममत्व भाव होने से वह संयमी नहीं है, उसका मुनि बनना मात्र वेष धारण करना है ।।२९८ ॥ ___ संघरक्षा की शिक्षा त्वं कार्येष्वपरिस्रावी, समदयखिलेष्वपि । भूत्वा विधानतो रक्ष, बाल-वृद्धाकुलं गणम् ।।२९९ । अर्थ - हे बालाचार्य ! 'मेरा यह गुरु अपरिनावी है' ऐसा समझ कर शिष्यगण आपको अपना अपराध कहें तो उन्हें आप प्रगट नहीं करना, सब कार्यों में समदर्शी रहना और बाल-वृद्ध यतियों से भरे गण की विधिपूर्वक रक्षा करना ॥२९९ ॥ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - १११ प्रव्रज्या संयम-ध्वंसी, दूराजमपराजकम्। न क्षेत्रमात्मनीनेन, सेवनीयं कदाचन ॥३०० ।। अर्थ - जिस क्षेत्र में संयम का नाश होता हो, जिसमें राजा दुष्ट हो या देश राजा रहित हो और जिस . क्षेत्र में दीक्षा लेनेवाले न हों, उस क्षेत्र में आप कदापि नहीं रहना ॥३०० ।। संस्थाओं को प्राचार्य की शिक्षा माषश्यके कृथा जातु, प्रमादं वृत्त-वर्धके । विज्ञाय दुर्लभा बोधि, नि:सारे मानुषे भवे ।।३०१॥ अर्थ - इस नि:सार मनुष्य भव में रत्नत्रय स्वरूप बोधि को दुर्लभ जान कर भो मुनिगण ! चारित्रवर्धक आवश्यकों में कभी प्रमाद नहीं करना ॥३०१ ॥ प्रश्न - आवश्यकों को चारित्रवर्धक क्यों कहा गया है ? उत्तर - जब मुनिराज सामायिक आदि आवश्यकों में सावधानीपूर्वक प्रवृत्त होते हैं, तब उनको संयम प्राप्त होता है। सावध क्रिया का त्याग होने पर जो कर्मों को सन्तप्त करता है, वही तप संज्ञा को प्राप्त होता है, क्योंकि संयम के बिना मात्र तप मुक्तिदायक नहीं होता। यह मनुष्यपर्याय सार रहित, अनित्य और अपवित्र है। इसमें दीक्षा लेना दुर्लभ है। यदि दीक्षा भी हो जाय तो प्रमादरहित आवश्यकों का अनुष्ठान दुर्लभ है और आवश्यकों में प्रमाद होने से संयम तथा तप में निर्मलता नहीं आती, तथा संयम एवं तप की निर्मलता न होने से चारित्र की वृद्धि नहीं होती। इसलिए ही प्रमादरहित आवश्यकों का अनुष्ठान चारित्रवर्धक कहा गया है। संज्ञा-गौरव-रौद्रार्तध्यान-कोपादि-वर्जिताः। समिताः पञ्चभिर्गुप्तास्त्रिभिर्भवत सर्वदा॥३०२।। अर्थ - हे मुनिगण ! आप सदा पाँच समितियों से एवं अशुभ मन, वचन, काय रूप तीन गुप्तियों से युक्त तथा चार संज्ञा, तीन गारव, आर्तरौद्र ध्यान और क्रोधादि कषायों से रहित प्रवर्तन करें ॥३०२।। हृषीक-दन्तिनो दुष्टान्विषयारण्यगामिनः । जिनवाक्याङ्कुशेनाशु, वशे कुरुत यत्नतः ।।३०३।। अर्थ - आप सब विषयरूपी वन में विचरण करनेवाले इस इन्द्रिय रूपी दुष्ट हाथी को जिनवचन रूपी अंकुश द्वारा शीघ्र ही वश में करें ॥३०३ ।। प्रश्न - यहाँ गज आदि के रूपक द्वारा क्या शिक्षा दी गई है? उत्तर - जंगलों में स्वच्छन्द विचरण करनेवाले मदोन्मत्त हाथी को भी चतुर मनुष्य जैसे अंकुश के बल से वश में कर लेते हैं, वैसे ही पंचेन्द्रियों के स्पर्श, रस, गन्धादि मनोहर विषय रूपी वन में स्वच्छन्द विचरण करने के स्वभाववाले इन्द्रिय रूपी हाथी को आप सब जिनेन्द्र भगवान के वचनरूप अंकुश से अपने वश में रखना, तब आपका साधुपन सार्थक होगा। अर्थात् पंचेन्द्रियों के विषयों की लोलुपता के कारण अद्यावधि संसार-भ्रमण हो Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ११२ रहा है अत: आप सब अब सावधान रह कर स्वाध्याय में ही सदा लवलीन रहें ताकि जिनेन्द्र वचन रूपी अंकुश से आपका यह दुष्ट इन्द्रियरूपी हाथी आपके वशीभूत रह सके । आचार्य अपने शिष्यों को इस प्रकार की शिक्षा दे रहे हैं। धन्यास्ते मानवा लोके, मन्ये ये विषयाकुले। विचरन्ति गतग्रन्थाश्चतुरने निराकुलाः ।।३०४ ।। अर्थ - मैं ऐसा मानता हूँ कि पंचेन्द्रियों के स्पर्श, रस, रूप एवं शब्दादि विषयों से व्याप्त इस लोक में वे ही मनुष्य धन्य हैं, जो परिग्रह का अर्थात् पंचेन्द्रिय के विषयों की आसक्ति का त्याग कर चतुरंगे अर्थात् चार आराधनाओं में निराकुल प्रवृत्त हो रहे हैं ।।३०४॥ प्रश्न - गुरु की इस मान्यता का क्या अभिप्राय है ? उत्तर - अपने शिष्य समुदाय को सन्मार्ग का उपदेश देते हुए आचार्यदेव जो अपनी मान्यता या अपना दृष्टिकोण व्यक्त कर रहे हैं उसका अभिप्राय यह है कि प्रत्येक साधु को अपने-अपने साधुत्व रूपी मन्दिर पर कलशारोहण करने हेतु ख्याति-पूजा और लाभ की वांछा का, बाह्याभ्यन्तर परिग्रहों का, लोकरंजना का, अशुद्ध आहार, पान एवं वसतिका आदि का, रागवर्धक उपकरणों का तथा आगमविरुद्ध आचरण करनेवाले साधुओं की एवं असंयमीजनों की संगति का त्याग कर मन एवं इन्द्रियों का निग्रह करते हुए और चारों आराधनाओं का निरतिचार पालन करते हुए समाधिपूर्वक मरण करना चाहिए। विनीता गुरुशुश्रूषा-कारिणश्चैत्य-भक्तयः। वत्सला भवत ध्याने, स्वाध्यायोद्यत-चेतसः॥३०५।। अर्थ - आप सभी साधुजन सदा विनय में संलग्न रहो, गुरुजनों की सेवा-वैयावृत्य करो, जिनप्रतिमाओं की भक्ति में उद्यत रहो, गुरु के प्रवचन में और सर्व संघ पर वात्सल्य भाव रखो, ध्यान में अनुराग रखो और मन की विशुद्धिपूर्वक स्वाध्याय में उद्यमशील रहो।।३०५॥ प्रश्न - विनय किसे कहते हैं, वह कितने प्रकार की है और विनय न करने का क्या फल है? उत्तर - जो कर्ममल का नाश करता है, ऐसे कर्तव्य को विनय कहते हैं। आप सब दर्शनविनय, ज्ञानविनय, चारित्रविनय, तपविनय और उपचारविनय, इन पाँचों प्रकार की विनय में सदा संलग्न रहो। शंका,कांक्षा, विचिकित्सा आदि सम्यक्त्व के दोषों को दूर करना दर्शनविनय है। आपको प्रयत्नपूर्वक सम्यक्त्व विनय को प्राप्त करना चाहिए। आप अहर्निश इसी में उद्यमशील रहो। अन्यथा ये शंकादि दोष मिथ्यात्व को उत्पन्न कर देंगे, जिससे दर्शन मोहनीय कर्म का आस्रव होगा, उससे मिथ्यादर्शन में निमित्त मिथ्यात्व कर्म के कारण आप जैसे दुखभीरु जनों को अनन्तकाल पर्यन्त संसार में भ्रमण करायेगा। शास्त्रों में स्वाध्याय का जो काल कहा है उसी काल में शुद्धि पूर्वक स्वाध्याय करो, श्रुतदान देने वाले गुरु की भक्ति करो । शास्त्र एवं गुरु का नाम छिपा कर 'स्वयं मैंने और मेरी ही बुद्धि से यह सब श्रुत ज्ञान प्राप्त किया है" ऐसा अभिमान करना छोड़ दो। कुछ नियम कर आदरपूर्वक स्वाध्याय प्रारम्भ करो, अर्थशुद्धि, व्यंजनशुद्धि और उभयशुद्धि पूर्वक अध्ययन करो । इस प्रकार आठ अंगों के साथ विनयपूर्वक भाया हुआ श्रुतज्ञान Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ११३ कर्मों का संवर तथा निर्जरा करता है। यदि इस प्रकार की ज्ञानविनय न करोगे तो दोष सहित श्रुतज्ञान ज्ञानावरण कर्म के आस्रवादि का निमित्त होगा। जिनसे कर्म ग्रहण होता है ऐसी मानसिक, वाचनिक एवं कायिक क्रियाओं का अभाव होने पर या इन्हें रोकने पर चारित्र उत्पन्न होता है। तथा इट-अनिष्ट मर्श, रस, गन्ध, रूप और शब्दों में अनन्त-काल से जीव अभ्यस्त है। इनके निमित्त से राग-द्वेष उत्पन्न होते हैं। बाह्याभ्यन्तर कारण पाकर कषायें भी उदय में आ जाती हैं: इनसे चारित्र का घात होता है । चारित्र का घात होते ही राग-द्वेष तथा मोह परिणाम होने लगते हैं, इन परिणामों से और मन, वचन, काय की अशुभ क्रियाओं से आत्मा में नबीन कर्मों का आगमन होता है। इसी प्रकार छह काय के जीव समूह को बाधा पहुंचाते हुए गमन करना, मिथ्यात्व और असंयम में प्रवृत्ति करानेवाले वचन बोलना, साक्षात् या परम्परा से जीवों को बाधा या उनका घात करनेवाला आहार-जल ग्रहण करना, बिना देखे - शोधे वस्तुओं को ग्रहण करना और रखना तथा बिना देखी-शोधी भूमि पर मलमूत्र त्याग करना, ये सब क्रियाएँ जीवपीड़ा कारक हैं, अतः कर्मग्रहण में निमित्त हैं। इन सबका त्याग कर गुप्ति एवं समिति रूप वर्तन करना चारित्रविनय है। आप सबको सदा इसी के लिए उद्यमशील रहना चाहिए क्योंकि जो अशुभक्रियाओं का त्याग नहीं कर सकते वे चारित्र भी धारण नहीं कर सकते । ऐसे जीव चिरकाल तक संसार-भ्रमण करते हैं। अनशन, अवमौदर्य आदि तपों से उत्पन्न होनेवाले परिश्रम को शान्ति पूर्वक सहन करना तपोविनय है। यदि तप करते समय आत्मा में संक्लेश परिणाम उत्पन्न हो जायेगा तो निर्जरा अल्प होगी और कर्मों का आस्रव महान् होगा, अत: कष्टसहिष्णु होने का उद्यम करते हुए तप करना चाहिए। उपचार विनय करनेवाला साधु विद्वानों द्वारा भी पूजित होता है और अविनयी साधु निन्दा का पात्र होता है। मानसिक, वाचनिक तथा कायिक इस प्रकार उपचार विनय तीन प्रकार की कही गई है। जो मन, वचन, काय से उपचार विनय नहीं करता वह मन से गुरु की अवज्ञा करता है। जो गुरु के आने पर उठकर खड़ा नहीं होता, उनके जाने पर पीछे नहीं जाता, हाथ नहीं जोड़ता, उनकी स्तुति एवं विज्ञप्ति नहीं करता, गुरु के सम्मुख आसन पर चढ़कर बैठता है, उनके आगे चलता है, निन्दा करता है, कठोर वचन बोलता है और गाली देता है वह साधु नीचगोत्र का बंध करता है। उस कर्म का उदय आने पर मातंग, चाण्डाल और धीवरादि नीच कुली में जन्म लेता है, कुत्ता एवं सूकर आदि निन्द्य पशु-पर्याय प्राप्त करता है। निन्दा करनेवाले मुनियों को गुरुओं से रत्नत्रय का लाभ नहीं होता। किन्तु जो मुनिजन नम्र स्वभावी होते हैं उन्हें गुरुजन प्रयत्न तथा प्रेरणा पूर्वक पढ़ाते हैं और उनका आदर करते हैं, अतः हे मुनिगण ! आप सब प्रयत्न पूर्वक दोषभरे अविनय का त्याग कर महान् गुणों की भण्डार स्वरूप विनय को अंगीकार करो अर्थात् विनयी बनो। प्रश्न - गुरु किसे कहते हैं और गुरु की शुश्रूषा के लिए आचार्यदेव ने क्या शिक्षा दी है ? उत्तर - आचार्य, उपाध्याय और साधु ये तीनों परमेष्ठी गुरु हैं। या जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्रादि गुणों से बड़े हैं उन्हें गुरु कहते हैं। आचार्यदेव शिक्षा देते हैं कि हे मुनिगण! लाभ, कीर्ति एवं आदर आदि की अपेक्षा न करके आप गुरुओं की सेवा में सदैव तत्पर रहो। गुरु-शुश्रूषा से रत्नत्रय रूपी गुणों Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ११४ में प्रेम बढ़ता है, गुणों में अनुपम होने से सम्मपनि विशुद्ध होता है और उनके रत्नत्रय की अनुमोदना होती है। यह अनुमोदन पुण्य उपार्जन करने का सरल उपाय है। प्रश्न - चैत्य की भक्ति क्यों करनी चाहिए ? इस विषय में आचार्यदेव ने क्या उपदेश दिया है ? उत्तर - आचार्यदेव दृष्टान्तपूर्वक समझा रहे हैं कि - देखो ! शत्रुओं और मित्रों की प्रतिकृति अर्थात् उनके चित्र या मूर्ति दिखाई देते ही मन में द्वेष या राग उत्पन्न हो जाता है, यद्यपि त्रे प्रतिकृतियाँ वर्तमान में हमारा कोई अपकार या उपकार नहीं कर रही हैं तथापि उन शत्रुओं या मित्रों ने पूर्व में जो अपकार या उपकार किये होते हैं उनके स्मरण में वे प्रतिकृतियाँ निमित्त होती हैं। उसी प्रकार यद्यपि अर्हन्त एवं सिद्ध प्रभु के प्रतिबिम्बों में अरहन्त और सिद्ध भगवान के अनन्त चतुष्टयादि गुण नहीं हैं तथापि उन जिनेन्द्रों से सादृश्य होने के कारण और तदाकार स्थापना निक्षेप से वे अरहन्त और सिद्ध के गुण स्मरण कराने में परम निमित्त होते हैं। वह गुणों का स्मरण अनुरागात्मक होता है, अत: वह भक्त को ज्ञान और दर्शन में लगाता है और त्रे ज्ञान-दर्शन महान् संवर तथा निर्जरा करते हैं, अतः आप सब चैत्य अर्थात् अर्हन्त और सिद्धों के कृत्रिम एवं अकृत्रिम प्रतिबिम्बों की भावपूर्वक भक्ति करो। प्रश्न - वात्सल्य का क्या भाव है और इसके लिए गुरु का क्या निर्देश है ? उत्तर - यहाँ वात्सल्य का अभिप्राय प्रवचनवात्सल्य से है। इसके लिए गुरु कहते हैं कि हे मुनिगण! जिन ग्रन्थों में जीवादितत्त्वों का वर्णन है, जो जिनेन्द्र द्वारा कथित और संसारभीरु आचार्यों द्वारा लिखित हैं ऐसे ग्रन्थों का स्वाध्याय करने में आप सब सदा प्रयत्नशील रहना । सोना, हँसना, खेलना, आलस्य और लोकव्यवहार इन सबका परित्याग कर मात्र स्वाध्याय करो और जिनेन्द्रकथित आगम पर ही अपना वात्सल्य रखो । स्वाध्याय में रत रहने के लिए संकल्प करो कि मैं हास्य, क्रीड़ा तथा गल्पवाद का त्याग करता हूँ। मैं आलस्य का त्याग कर मुनिधर्म के योग्य क्रियाओं में ही उद्यत रहने का संकल्प करता हूँ। मैं निद्रा को अच्छी नहीं मानता, अतः उस पर विजय प्राप्त कर त्रैलोक्य में महान् ऐसे जिनागम पर हृदय से प्रफुल्लित होते हुए स्वाध्याय में रत होता हूँ, इत्यादि। परीषह सहन करने का उपदेश मा स्म धर्मधुरं त्याक्षुरभिभूताः परीषहैः । दुस्सहै: कण्टकैस्तीक्ष्णैर्गामेयक-वचो-मयैः॥३०६॥ अर्थ - भो मुनिगण ! आप दुःसह परीषहों से और ग्रामीणों द्वारा बोले गये तीक्ष्ण आक्रोश वचन रूपी काँटों से पराभूत होकर भी धर्म की धुरा के भार को मत त्यागो ॥३०६ ।। प्रश्न - परीषहों में आक्रोशक्चनजय परीषह का भी अन्तर्भाव हो जाता है, फिर उसे अलग से क्यों कहा गया है? उत्तर - क्षुधा-तृषा आदि परीषह सहन करना सहज है किन्तु हृदय को तीक्ष्ण काँटों सदृश विदीर्ण करनेवाले आक्रोश वचन सुनकर समता परिणाम रखना कठिन है, अत: आचार्य समझा रहे हैं कि अन्य परोषहों Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ११५ के समान आक्रोश वचन सुनकर भी समता रखना । वचनों की मार से पीड़ित होकर कभी धर्म की धुरा सदृश क्षमा एवं चारित्र आदि गुणों का त्याग नहीं कर देना। तपश्चरण में उद्यत रहने का उपदेश ध्रुव-सिद्धिश्चतुर्ज्ञानस्तीर्थकृत् त्रिदशार्चितः। अनिगृह्य बलं वीर्यमुद्यतः कुरुते तपः ।।३०७॥ अर्थ - जो मति, श्रुत, अवधि और मन:पर्ययज्ञान के धारी हैं, तपकल्याणक पर्यन्त अर्थात् तीन कल्याणकों में देवगणों से पूजा को प्राप्त हो चुके हैं तथा जिन्हें सिद्धि की प्राप्ति नियमतः होनी ही है, वे तीर्थंकर प्रभु भी अपने बल और वीर्य को न छिपा कर तप-विधान में उद्यम करते हैं।।३०७॥ प्रश्न - तीर्थंकर किसे कहते हैं ? उत्तर - जिसके द्वारा भव्यजीव संसार-समुद्र से तिरते हैं उसे तीर्थ कहते हैं। या कुछ भव्य जीव श्रुत एवं श्रुतधारी गणधरों का अवलम्बन लेकर भी संसार-समुद्र को तिरते हैं, अतः श्रुत और गणधरों को भी तीर्थ कहते हैं। या रत्नत्रय मार्ग से भी संसार तिरा जाता है, अत: रत्नत्रयमय मोक्षमार्ग भी तीर्थ है। जो ऐसे तीर्थ को प्रचलित करते हैं उन्हें तीर्थंकर कहते हैं। ऐसे तीर्थंकर भी जब तप करते हैं तब अन्य मुनिजनों को तो वह तप अवश्य ही करना चाहिए। मुमुक्षूणां किमन्येषां, दुःखक्षपण-काङ्क्षिणाम् । न कर्तव्यं तपो घोरं, प्रत्यावायाकुले जने ॥३०८ ॥ अर्थ - (जब तीर्थंकरों को भी तप में उद्यम करना होता है तब) दुखों का क्षय करने के इच्छुक अन्य मुमुक्षु जनों की क्या बात है ! विघ्नों से भरे हुए इस लोक में सामान्य मुनियों को तप क्यों नहीं करना चाहिए ? अवश्य ही करना चाहिए ।।३०८ ।। प्रश्न - लोक में मुख्यत: ऐसी कौन-कौन सी बाधाएँ हैं, जिस हेतु आचार्य ने तप में उद्यमशील रहने की प्रेरणा दी है ? उत्तर - यह लोक मृत्यु, शरीर-बलनाश, व्याधि और राग-द्वेषादि अपरिमित बाधक कारणों से भरा हुआ है। इसके अतिरिक्त सबसे बड़ा कष्ट यह है कि इन मृत्यु एवं व्याधि आदि के आने का समय ज्ञात नहीं होता। मृत्यु के रहने का कोई देश, प्रान्त, नगर, ग्राम और प्रदेश नियत नहीं है। यह सर्वाकाश में भ्रमण करती है। जहाँ सूर्य की किरण भी प्रवेश नहीं कर पाती वहाँ भी मृत्यु का प्रवेश सहज-साध्य है। तथा ग्रीष्म, शीत, वर्षा एवं हेमन्तादि ऋतु, सोमवार आदि वार, रात्रि या दिन, प्रातः या सन्ध्या, घण्टा, मिनिट या सेकेण्ड आदि कोई काल नियामक नहीं है कि वह क्षेत्र में, किस काल में और किस जीव को ग्रसित कर ले। मृत्यु आ जाने पर संसार में ऐसी कोई शक्ति नहीं है जो उस जीव को उससे बचा सके । मार्जार की दाढ़ों के बीच दबा हुआ चूहा तो कथंचित् बचाया जा सकता है किन्तु मृत्यु के मुख में प्रवेश किये हुए को बचाना सम्भव नहीं है। Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ११६ यदि किसी की मृत्यु आने में दस-बीस या पच्चीस वर्ष की देर भी हो तो जैसे पर्वत आदि पर अचानक वज्रपातादि हो जाता है वैसे ही मानवशरीर में अचानक किसी-न-किसी रोग का आक्रमण हो जाता है। जैसे डण्ठल में फल तभी तक स्थित रहता है जब तक वायु का प्रबल झोंका नहीं आता; उसी प्रकार शरीर में आयु, बल, वीर्य, रूप एवं नीरोगता तभी तक स्थिर रहते हैं जब तक शरीर में रोग नहीं आता । शरीर में व्याधि उत्पन्न हो जाने के बाद सहज सुख-शान्ति एवं निराकुलता पूर्वक व्रत, नियम तथा संयम आदि के द्वारा आत्म-कल्याण भी नहीं किया जा सकता। राग रूपी प्रबल शत्रु का संसर्ग तो इस जीव के साथ अनादिकाल से है। यदि कुछ समय तक व्याधियों का आक्रमण भी न हो तो भी यह भीतर बैठा हुआ राग रूपी शत्रु अवा की आग के सदृश मानव मन को अहर्निश संतापित करता रहता है। जैसे मकान के चारों ओर धधकती हुई अग्नि गृह स्वामी के चित्त को भी पीड़ित करती है उसी प्रकार रागरूपी धधकती हुई अग्नि साधुओं के चित्त को भी पीड़ित करती रहती है। इस प्रकार राग रूप यह शत्रु, मित्र का वेष धारण कर शत्रु से बढ़कर जब मुनिजनों के चित्त को पीड़ा देता है तब समता भाव में स्थिर रहना कठिन होता है। पित्त का विकार वैद्य के कुशल प्रयोगों से शान्त हो जाता है किन्तु सबसे अधिक अहित करनेवाले इस राग के उदय को शान्त करने के लिए प्रशम भाव की प्राप्ति दुर्लभ है। जैसे पित्तशमन हो जाने पर काम में चित्त लग जाता है उसी प्रकार रागोत्पादक कर्म का उपशम होने पर प्रशम भाव जाग्रत हो जाता है और उसी समय आत्मकल्याण करने की शक्ति प्रगट हो जाती है। इस प्रकार हे साधुजन ! अवसर मत चूको । जब तक मृत्यु, व्याधि और राग ये बाधक कारण उपस्थित नहीं हुए तब तक अवश्य करणीय ऐसे सम्यक्तप में उद्योग कर कर्मनिर्जरा कर लो। । वैयावृत्य करने का उपदेश शक्तितो भक्तितः सथे, वत्सलास्ते चतुर्विधे। वैयावृत्यकराः शश्वज्जिनाज्ञा-निर्जरार्थिनः ।।३०९॥ अर्थ - बालमुनि और वृद्धमुनियों से युक्त ऐसे चतुर्विध संघ की वैयावृत्य करने में हे मुनिवृन्द! आप अपनी शक्ति एवं भक्ति से सदा उद्यत रहो । सर्वज्ञदेव की आज्ञापालन तथा कर्मनिर्जरा की सिद्धि के लिए आप सबको वात्सल्य भाव से वैयावृत्य करना चाहिए, क्योंकि वैयावृत्य तप है और तप से निर्जरा होती है ।।३०९ ।। वैयावृत्य करने की विधि उपधीनां निषद्यायाः, शय्यायाः प्रतिलेखनम् । उपकारोऽन्न-भैषज्य-मलत्यागादि-गोचरः ॥३१०॥ मार्गे चोरापगा-राज-दुर्भिक्ष-मरकादिषु ।। वैयावृत्यं विधातव्यं, सरक्षा-संग्रहं सदा ।।३११॥ अर्थ - पीछी-कमण्डलु आदि उपकरणों का, बैठने के स्थान और आसन आदि का तथा शिला, तृण, चटाई, फलक अर्थात् पाटे आदि की शय्या का शोधन करके, निर्दोष आहार-पान तथा निर्दोष औषधि की व्यवस्था करके तथा अशक्त साधु के मल-मूत्र को साफ करके उनका उपकार करना वैयावृत्य है ।।३१०॥ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ११७ जो मुनि मार्ग के श्रम से थक गये हैं उनके पैर आदि दबाना, चोरों ने सताया है या नदी अथवा नदी को रोकनेवालों ने सताया है, या दुष्ट राजा आदि ने पीड़ित किया है तो उन्हें सान्त्वना देकर शान्ति पहुँचाना, दुर्भिक्ष तथा महामारी आदि रोगों से व्याप्त क्षेत्र से विहार कराकर सुभिक्ष एवं निरापद देश में लाना, तथा अन्य भी ऐसे अनेक कारण उपस्थित हो जाने पर उनका सटा संरक्षण करना वैयावृत्य है।३११ ।। वैयावृत्त्य न करने में दोष समर्थों न विधत्ते यो, वैयावृत्यं जिनाज्ञया। अप्रच्छाद्यं बलं वीर्यमतो निर्धर्मकः स-कः? ॥३१२।। आज्ञाकोपो जिनेन्द्राणां, श्रुत-धर्म-विराधना। अनाचारः कृतस्तेन, स्वपरागम-वर्जनम् ।।३१३ ।। अर्थ - अपने बल और वीर्य को न छिपानेवाला जो मुनि समर्थ होते हुए भी जिन भगवान के द्वारा निर्देशित क्रमानुसार यदि वैयावृत्त्य नहीं करता है, तो वह निधर्मा अर्थात् धर्म से बहिष्कृत है। उससे अन्य अधार्भिक और कौन हो सकता है? ॥३१२ ।। । वैयावृत्य न करने से जिनेन्द्राज्ञा का उल्लंघन, आगम में कहे हुए धर्म का नाश, अनाचार और उस साधु की आत्मा का, पर का अर्थात् साधुवर्ग का एवं आगम का परित्याग होता है।।३१३ ।। प्रश्न - इन दोनो श्लोकों का स्पष्ट भाव क्या है ? उत्तर - इन दोनों का स्पष्ट भाव इस प्रकार है - आज्ञाकोष - 'वैयावृत्य करना चाहिए' ऐसी जिनेन्द्र की आज्ञा है। इसके उपरान्त भी जो वैयावृत्य नहीं । करता, वह जिनेन्द्र की आज्ञा को भंग करता है। यह आज्ञाकोप है। श्रुत-धर्मविराधना - वैयावृत्य न करने से शास्त्र में कहे गये धर्म का नाश होता है। अर्थात् यदि वैयावृत्य करनेवाले नहीं होंगे तो साधुजन मुनिधर्म का पालन नहीं कर सकेंगे। इस प्रकार शास्त्रोक्त धर्म की विराधना होगी। अनाचार - जिनेन्द्र ने वैयावृत्यरूप तप को आचार कहा है। जिसने वैयावृत्यरूप तप नहीं किया उसे अनाचार का दोष लगा। स्व-परागम-वर्जन - वैयावृत्य करना अभ्यन्तर तप है। इस तप में उद्यम न करने से स्वयं की आत्मा का, आपत्ति में अर्थात् संकट-ग्रस्त अवस्था में उपकार न करने से साधुवर्ग का और आगमविहित आचरण न करने से आगम का त्याग हुआ। वैयावृत्य करने में सोलह गुण हैं. गद्य - १. गुणपरिणाम, २. श्रद्धा, ३. वात्सल्य, ४. भक्ति, ५. पात्रलाभ, ६. सन्धान, ७. तप, ८. पूजा, १. तीर्थ-अविच्छित्ति, १०. समाधि, ११. जिनाज्ञा, १२. संयम-साहाय्य, १३. दान, १४. निर्विचिकित्सा, १५. प्रभावना, १६. संघकार्याणि वैयावृत्यगुणाः । Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ११८ १. गुणपरिणाम दाते सकलो लोको, महता मोह - वह्निना । धग्धगित्येष कुर्वाणो, महावेदनया स्फुटम् ।।३१४॥ अर्थ - अति महान मोह रूपी अग्नि से यह सम्पूर्ण लोक धग धग् जल रहा हैं और महाघोर वेदना से उसके अंग फूट रहें हैं ।। ३९४ ॥ तत्र विध्यापिते सद्यो, भूयसा ज्ञानपाथसा । मना दम-पयो राशौ, सुखायन्ते तपोधनाः ॥३१५॥ अर्थ - उस मोहरूपी अग्नि को विशाल ज्ञानरूपी जल से तत्काल बुझा देने पर वे तपोधन इन्द्रिय-दमन रूपी महासागर में निमग्न होते हुए सुखी हो जाते हैं॥ ३९५ ॥ निगृहीतेन्द्रिय-द्वारैः सर्वचेष्टा - समाहितैः । धन्यस्तपः समीरण, धूयन्ते कर्म - रेणवः ॥ ३१६ ॥ अर्थ - जिनमें सर्व चेष्टाएँ समाहित हैं ऐसे इन्द्रियद्वारों को रोकनेवाले धन्य पुरुषों द्वारा तपरूपी कर्म - धूलि उड़ा दी जाती है ॥ ३१६ ॥ इत्थं गुणपरिणामो, विद्यते यस्य निश्चित: । साधूनां भव्य बन्धूनां वैयावृत्यं तनोति सः ॥ ३१७ ॥ 'वायु से अर्थ - इस प्रकार के गुण परिणाम नियमतः उसी के होते हैं जो भव्यजीवों के बन्धु स्वरूप साधुजनों की वैयावृत्य करता है ॥ ३१७ ॥ प्रश्न - मोहरूपी अग्नि, दमरूपी महासमुद्र और तपरूपी समीरण आदि रूपकों द्वारा गुणपरिणाम के विषय में क्या कहा गया है। उत्तर - यह लोक अज्ञानरूपी अग्नि से अर्थात् 'यह मेरा है' और 'मैं इसका स्वामी हूँ' इस प्रकार का अज्ञान समस्त वस्तुओं में अग्नि के समान फैलाव से जल रहा है। इस अज्ञान ने समस्त वस्तुओं को अपने में समाहित कर लिया है। इस अग्नि में मात्र तिर्यंच और मनुष्य ही नहीं अपितु चतुर्निकाय के देव भी जल रहे हैं। अर्थात् वे गाढ़ अज्ञान से ग्रसित होने के कारण वस्तु का यथार्थ स्वरूप जानने में असमर्थ हैं। इनमें महामुनीश्वर ज्ञानमय जलप्रवाह से अज्ञानरूपी अग्रि को बुझाकर संशय, विमोह और अनध्यवसायादि वेदना से मुक्त हो चुके हैं। 'देह ही मैं हूँ' अनादिकालीन यह मिथ्या भ्रान्ति उनके हृदय से नष्ट हो चुकी है। 'देह और आत्मा सदैव भिन्नभिन्न ही हैं' ऐसा ज्ञान प्रगट हो चुका है। वे जितेन्द्रिय मुनिजन सम्यग्ज्ञान रूप जलप्रवाह से अज्ञानाग्नि को समूल शान्त कर उपशम रूपी महासमुद्र में निमज्जित हो चुके हैं। उपयोगात्मक भावेन्द्रियों के आश्रय से जगत् के जीव राग-द्वेष करते हैं जिससे इन्द्रियाँ इष्टानिष्ट स्पर्शादि विषयों में प्रवृत्त हो जीव को दुखित करती हैं किन्तु मुनिजन इन्द्रिय-विषयों में होनेवाले राग-द्वेष को उपशान्त कर अपने मन को रत्नत्रय में एकाग्र करते हैं, जो भी चलने, बोलने, आहार लेने, वस्तु रखने उठाने एवं मल Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ११९ मूत्र आदि निक्षेपण करने की क्रियाएँ उन्हें करनी पड़ती हैं वे सब प्राणी रक्षण पूर्वक करते हैं तथा सत्कार और लाभ आदि की अपेक्षाओं से पराङ्मुख हो अपने मन को समता भावों में निश्चल रखते हैं। निरपेक्षस्वभावी वे मुनिराज धन्य हैं। ऐसे हों यतिराज अपनी आत्मा स संसर्गित कर्मरज की तपश्चरणरूपी समीरण अर्थात् महावायु से उड़ा देते हैं। जिन यतियों की वैयावृत्य कर रहे हैं उनके महान् गुणों में वैयावृत्त्य करनेवाले का जो दृढ़ अनुराग उत्पन्न होता है उसे ही गुणपरिणाम कहते हैं । अभिप्राय यह है कि इन मुनिराज में जितेन्द्रियता, रत्नत्रय में एकाग्रता, समितियों का पालन, पूजा-सत्कारादि से निरपेक्षता और कर्मनाश करने में समर्थ ऐसे तप में तल्लीनता या तत्परता आदि महान् गुण हैं, यदि मैं दत्तचित्त हो इनकी सेवा नहीं करूंगा तो इनके ये महनीय गुण नष्ट हो जावेंगे ऐसा विचार गुणों में होने वाले अनुराग को प्रगट करता है। इस प्रकार जिनका वैयावृत्य किया जाता है, वे यति उन गुणों से च्युत नहीं हो पाते और वैयावृत्य करनेवाले स्वयं उन महनीय गुणों से सुवासित हो जाते हैं अतः स्वपर के उपकार हेतु ही जिनेन्द्रदेव ने वैयावृत्य करके गुणपरिणामरूपी गुण को प्राप्त करने की आज्ञा दी है। २. श्रद्धा गुण यथा-यथाऽनिशं साधोवर्धते गुणवासना । जिनेश-शासने श्रद्धा, परोदेति तथा-तथा॥३१८॥ अर्थ - जैसे-जैसे अहर्निश साधु की गुणवासना वृद्धिंगत होती है, वैसे-वैसे ही जिनेन्द्रदेव के शासन में उत्कृष्ट श्रद्धा वृद्धिंगत होती जाती है ।।३१८॥ प्रश्न - यह श्रद्धा कैसे बढ़ती है और इसकी वृद्धि से क्या लाभ है? उत्तर - वैयावृत्त्य करते समय उन मुनिराज के गुणों का जैसे-जैसे स्मरण होता है अर्थात् स्मरण द्वारा उनके गुणों में बहुमान आता है वैसे-वैसे ही उन गुणों में रुचि वृद्धिंगत होती है। उस समय वह प्रफुल्लित होते हुए सोचता है कि-अहो ! यह जिनशासन महान है जिसने हमें ऐसे गुणज्ञ-तपस्वियों की वैयावृत्य करने की आज्ञा प्रदान कर इन गुणों से सुवासित होने का मार्ग दर्शाया । यह श्रद्धा यतियों को रत्नत्रय में दृढ़ करती है और संसार से भय उत्पन्न कराती है। ३. श्रद्धा वृद्धि से वात्सल्य गुण की उत्पत्ति विना गुणपरीणामं, वैयावृत्यं करोति नो । यतस्ततो मुमुक्षूणां, वैयावृत्यं व्यनक्ति सः॥३१९॥ प्रवृद्ध-धर्म-संवेगः, श्रद्धया वर्धमानया। यतिः करोति वात्सल्यं, लोकव्य-सुखप्रदम् ।।३२०॥ अर्थ - गुणपरिणाम से ही वैयावृत्त्य व्यक्त अर्थात् प्रकट होता है, क्योंकि गुणपरिणाम के बिना मुमुक्षुओं की वैयावृत्त्य कोई नहीं कर सकता॥३१९ ।। श्रद्धागुण की वृद्धि से संवेग भाव रूपी धर्म वृद्धिंगत होता है, ऐसे वृद्धिंगत भाववाला साधु इस लोक और परलोक में सुख देनेवाले वात्सल्य भाव को करता है ।।३२० ॥ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - १२० ----- ..---.-. ४. भक्तिगुण भक्तिरर्हत्सु सिद्धेषु, धर्म-सूरिषु, साधुषु । वैयावृत्त्य-कृतोत्कृष्टा, पूजा भवति सेविता ।।३२१ ।। अर्थ - जो वैयावृत्त्य करते हैं, वे मानों अरहन्त परमेष्ठी, सिद्ध परमेष्ठी, रत्नत्रयरूप धर्म के पालक आचार्य, उपाध्याय एवं सर्व साधुओं में परमोत्कृष्ट भक्ति रखते हैं और मानों उनकी पूजा ही करते हैं। अर्थात् वैयावृत्त्य करने से उनकी भक्ति और पूजा की गई है ऐसा जानना ।।३२१ ।। अर्हद्भक्तिः परा यस्य, बिभीते भवतो न सः। येनावगाहिता गङ्गा, स किं नश्यति वह्नितः ।।३२२॥ अर्थ - जिसके हृदय में अरहन्त देव की उत्कृष्ट भक्ति विद्यमान है उसको संसार का भय नहीं होता। जिसने गंगा नदी में अवगाहन किया है वह क्या अग्नि-सन्ताप से नहीं छूट जाता? अवश्यमेव छूट जाता है ||३२२।। प्रश्न - केवल अरहन्त की भक्ति का माहात्म्य क्यों कहा? और 'संसार का भय नहीं होता' इसका क्या अभिप्राय है? उत्तर - दृष्टान्त में जैसे गंगा नदी उपलक्षण है। अर्थात् जैसे मात्र गंगा नदी में अवगाह करने से ताप दूर होगा, ऐसा नहीं है किन्तु किसी भी नदी में अवगाहन करनेवाले का ताप दूर होगा ही। उसी प्रकार यहाँ अरहन्त भक्ति उपलक्षण है। पंच परमेष्ठियों में की हुई भक्ति से संसार का भय दूर होता है। 'संसार का भय नष्ट करती है', अर्थात् जो अरहन्तदेव आदि की भक्ति करता है वह नियमतः संसार के परिभ्रमण से छूट जाता है। संसार-भीरुतोत्पन्ना, निःशल्या मन्दराचला। जिनभक्तिर्दृढा यस्य, नास्ति तस्य भवाद्भयम् ।।३२३॥ अर्थ - जिसके हृदय में संसार के संवेग से उत्पन्न हुई, तीन शल्यों से रहित और मन्दर मेरुवत् दृढ़ जिनभक्ति विद्यमान है, उसे संसार-परिभ्रमण का भय नहीं रहता ||३२३॥ प्रश्न - यहाँ नि:शल्या, मन्दराचला और जिनभक्ति पदों का क्या अभिप्राय है? उत्तर - मिथ्या, माया और निदान इन तीनों शल्यों में से प्रत्येक शल्य संसार-परिभ्रमण का कारण है, दूसरी बात वैनयिक मिथ्यादृष्टि सर्वत्र भक्ति करता है किन्तु मिथ्या शल्य रहित न होने के कारण मात्र उस भक्ति से संसार-परिभ्रमण नहीं छूट सकता। अतः 'निःशल्या' पद से यह सिद्ध होता है कि सम्यग्दृष्टि, देशव्रती या सकलव्रती की भक्ति ही संसारनाश का हेतु है। 'मन्दराचला' पद से यह सिद्ध होता है कि जैसे सुमेरु पर्वत शाश्वत अचल है, वैसे ही जिनका हृदय सर्वकाल उस निश्छल भक्ति से आप्लावित रहता है और कठिन से कठिन परीक्षा के समय भी जिनकी श्रद्धा-भक्ति कम्पायमान नहीं होती उन्हीं का संसार-परिभ्रमण छूटता है। सासादन सम्यग्दृष्टियों के सदृश अल्पकालिक और भव्यसैन मुनिराज सदृश चलायमान भक्ति से संसार नहीं छूटता।। 'जिन' शब्द से पंच परमेष्ठियों का और रत्नत्रयरूप धर्म का ग्रहण होता है, क्योंकि अरहन्त भगवान के Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - १२१ सदृश सिद्ध भगवान के भी चार घातिया कर्म नष्ट हो चुके हैं। शेष आचार्य, उपाध्याय और साधुजन उनका नाश करने के लिए उद्यमशील हैं। रत्नत्रयरूप धर्म भी कर्मों का पराभव करता है अतः उसे भी जिन कह सकते हैं। ५. पात्रलाभ गुण निः कषायो यतिर्दान्त:, पात्रभूतो गुणाकरः । महाव्रतधरो धीरो, लभते श्रुतसागरम् ॥३२४॥ अर्थ - वैयावृत्य करने वाले साधु को कषायों का निग्रह करने वाला, इन्द्रियों का दमन करने वाला, अन्य गुणों का आकर, महाव्रती, धीर और अनेक शास्त्रों का ज्ञाता, ऐसे पात्र का लाभ होता है ।।३२४ ।। प्रश्न - इस पात्रलाभ का फल किसे प्राप्त होता है? उत्तर - जैसे पात्र अनेक वस्तुओं को रखने का आधार होता है, वैसे ही जो आत्मा अनेक गुणों को धारण करता है उसे सत्पात्र कहते हैं। ऐसे सत्पात्र की उपलब्धि के आधार दोनों हो सकते हैं। यथा-आत्मा को संतप्त करनेवाली कषायों को जिसने शमन कर लिया है, राग भाव से उत्पन्न होनेवाले दोषों को शान्त कर लिया है, हिंसादि पाँचों पापों का नवकोटि से त्याग कर महाव्रतों के द्वारा पापास्रव का मार्ग बन्द कर दिया है, जो श्रुतज्ञान रूपी रत्नों का सागर है, धैर्यशाली है और भी अनेक गुणों का भण्डार है ऐसे पात्र का लाभ वैयावृत्य करनेवाले को प्राप्त होता है। अथवा वैयावृत्य करनेवाला साधु उपर्युक्त गुणों का भण्डार है जिसकी प्राप्ति वैयावृत्य करानेवाले साधु को होती है। इस प्रकार परस्पर में दोनों को पात्रलाभ का प्रसंग प्राप्त हाते हुए भी यहाँ 'वैयावृत्य करनेवाले को पात्रलाभ होता है', यही अर्थ इष्ट है। ६. सन्धान गुण दर्शन-ज्ञान-चारित्र-सन्धानं क्रियते यतः। रत्नत्रयात्मके मार्गे, स्थाप्येते स्वपरौ ततः॥३२५ ।। अर्थ - सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक् तप में सन्धान अर्थात् नियुक्त किया जाता है। यदि किसी कारण से सम्यग्दर्शन, चारित्र, तप या संयम आदि का विच्छेद हो गया हो या छिन्न हो गये हों या इनमें कोई त्रुटि हो गई हो तो वैयावृत्य के द्वारा उन्हें रत्नत्रयात्मक मोक्षमार्ग में अपनी स्वयं की आत्मा का और जिनकी वैयावृत्य कर रहे हैं उनको पुनःस्थापित किया जाता है। अर्थात् रत्नत्रय से च्युत हुए साधु को पुनः रत्नत्रय में जोड़ने का परम सौभाग्य वैयावृत्य करनेवाले को प्राप्त होता है ।।३२५ ।। प्रश्न - रत्नत्रय आत्मीक गुण हैं, ये पर के द्वारा कैसे जोड़े जा सकते हैं ? उत्तर - रत्नत्रय आत्मीक गुण हैं, इनमें स्वयं का पुरुषार्थ - कार्यकारी होता है यह सत्य है, फिर भी पर का निमित्त आवश्यक होता है। जैसे कोई साधु रोग से या उपसर्ग से या किसी परीषह से ग्रसित हो गये, इस विवशता में यदि रत्नत्रय आत्मा से छूट गया या शिथिल हो गया तो वह वैयावृत्य करनेवालों के द्वारा रोग आदि को शमन कर या उपसर्ग आदि को दूर कर पुनः स्थापित कर दिया जाता है। अर्थात् वैयावृत्य करनेवाले रोग आदि का शमन कर देते हैं जिससे वे स्वस्थ होकर पुनः रत्नत्रय से जुड़ जाते हैं। यदि वैयावृत्य न किया जाय Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - १२२ तो सम्भवत: रत्नत्रय के पुन: जुटाने का सौभाग्य उन्हें प्राम न हो, इसीलिए सन्धान को वैयावृत्य का गुण माना ७. तपगुण वैयावृत्यं तपोऽन्तस्थं, कुर्वतानुत्तरं मुदा वेदनाश्चापदाधारा, भिद्यन्ते कर्म-भूधराः ।।३२६ ॥ ___ अर्थ - वैयावृत्य नामक अभ्यन्तर उत्कृष्ट तप को अत्यन्त हर्षपूर्वक करनेवाले साधु के कर्मरूपी पर्वत छिन्न-भिन्न हो जाते हैं और रुग्ण साधु की आपत्ति की आधारभूत वेदना शान्त हो जाती है।।३२६ ॥ प्रश्न - वैयावृत्य से रोगी साधु की वेदना शमन हो जायगी, यह तो सत्य है किन्तु कर्मनिर्जरा कैसे होगी? क्योंकि निर्जरा तो उपवास आदि तप से होती है ? उत्तर - तपश्चरण से कर्मनिर्जरा होती है। बाह्य और अभ्यन्तर के भेद से तप दो प्रकार का है। उपवास आदि बाह्य तप हैं, इनसे केवल उपवास आदि करनेवालों के कर्मों की निर्जरारूप एक ही लाभ होता है। वैयावृत्य अन्तरंग तप है। अपने कार्यों को गौण कर अर्थात् समय निकाल कर दूसरों की सेवा करना, ग्लानि जीत कर दूसरों का मल-मूत्र एवं दान आदि साप माना, रोगी साथ के गलिन पापीर की शुद्धि आदि करना, उनको शान्तिपूर्वक उठाना-बैठाना आदि कार्य हर्षपूर्वक बिना विसंवाद के कर लेना अति दुर्लभ है। इस तप से अपने कर्मों की निर्जरा तो होती ही है किन्तु साथ-साध रोगी साधु की रोगवेदना शान्त हो जाती है। इस प्रकार इस तप से स्व एवं पर के उपकार रूप दो लाभ होते हैं। ८. पूजा गुण त्रेधा विशुद्ध-चित्तेन, काल-त्रितय-वर्तिनः। सर्व-तीर्थकृतः सिद्धाः, साधवः सन्ति पूजिताः ।।३२७ ।। अर्थ - वैथावृत्य करनेवाले साधु ने वैयावृत्य करके विशुद्ध चित्त से त्रिकालवर्ती सभी तीर्थकर, सभी सिद्ध और सभी साधुओं की पूजा की है, ऐसा मैं मानता हूँ॥३२७ ।। प्रश्न - वैयावृत्य करने मात्र से तीर्थंकरों आदि की पूजा मानना कैसे सम्भव है ? उत्तर - आज्ञा का पालन करना ही यथार्थतः पूजन है। यदि आज्ञापालन न करे और पूजा, आरती आदि करते रहें तो वह पूजा, पूजा नहीं कही जाती । सर्व तीर्थंकरों ने, आचार्यों एवं साधु परमेष्ठियों ने यही आज्ञा दी है कि आप सब साधुजन यथाशक्ति वैयावृत्य तप का आचरण करो। अर्थात् रोगी, अशक्त एवं उपवास आदि तपों से श्रम को प्राप्त साधुओं की शुद्ध मन से एकाग्रतापूर्वक वैयावृत्य करो। जो साधु इस आज्ञा का पालन करते हैं वे मानों त्रिकाली तीर्थकर आदिकों की पूजा ही करते हैं। इतना ही नहीं, अपितु दश धर्मों के अन्तर्गत तप भी है और वैयावृत्य एक प्रकार का तप है, अत: वैयावृत्य करनेवाले साधु ने मानों तीर्थंकरों, सिद्धों और साधुपरमेष्ठियों की ही पूजा की है, ऐसा समझना चाहिए। Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका- १२३ ९. तीर्थ अव्युच्छित्ति गुण सूरि-धारणया सङ्घ, सर्वो भवति धारितः । न साधुभिर्विना सङ्घो, भूरुहैरिव काननम् ।।३२८ ।। अर्थ - जैसे वृक्षों के बिना वन नहीं होता, वैसे ही साधुओं के बिना संघ नहीं होता, अतः आचार्य को धारण करने से सर्वसंघ धारण कर लिया गया है, ऐसा साझा नाहिए ॥ १२८ ॥ साधु-धारणया सङ्घः, सर्वो भवति धारितः । न साधुभिर्विना सङ्ग्रो, भूरुहैरिव काननम् ॥ ३२९ ॥ अर्थ- जैसे वृक्षों के बिना वन नहीं होता, वैसे ही साधुओं के बिना संघ नहीं होता, अतः साधु के सन्धारण से भी सर्वसंघ का संधारण हो जाता है ।। ३२९ ।। प्रश्न- आचार्य के संधारण से सर्वसंघ का संधारण कैसे हो सकता है ? उत्तर - आचार्यदेव संघ के स्तम्भ और संरक्षक होते हैं। वे शिष्यों को रत्नत्रय ग्रहण कराते हैं, जो साधु रत्नत्रय धारण कर चुके हैं, वे उन्हें उसमें दृढ़ करते हैं और उत्पन्न हुए अतिचारों को दूर कर उनका रत्नत्रय निर्मल करते हैं। आचार्य की अमृत वाणीमय उपदेश के प्रभाव से ही संघ गुणों के समूह को धारण करता है, अतः आचार्य परमेष्ठी की वैयावृत्य कर उनका संधारण करने से अर्थात् वैयावृत्य द्वारा उन्हें रत्नत्रय में स्थिर कर देने से सर्व संघ को शान्ति हो जाती है, अतः सर्वसंघ का संधारण हो जाता है और संघ का संधारण हो जाने से अभ्युदय एवं निःश्रेयस् सुख प्राप्ति के साधन स्वरूप धर्म-तीर्थ का बिच्छेद नहीं होता । अर्थात् धर्म का प्रवाह अविच्छिन्न रूप से चलता रहता है। प्रश्न- एक साधु के संधारण से सर्वसंघ का संधारण कैसे हो जायेगा ? उत्तर - आचार्य, उपाध्याय, तपस्वी, शिक्षक, ग्लान, गण, कुल, संघ, साधु और मनोज्ञ ऐसे दश प्रकार साधु होते हैं। साधुओं के भेद के कारण वैयावृत्य के भी दस भेद कहे गये हैं। आचार्य की वैयावृत्य का माहात्म्य श्लोक ३२८ में कहा गया है। श्लोक ३२९ में साधु के संधारण से सर्वसंघ का संधारण होना कहा गया है । यहाँ साधु शब्द से उपाध्याय, तपस्वी एवं शैक्ष आदि सभी का ग्रहण करना चाहिए। अर्थात् तपस्त्री, शैक्ष आदि किसी एक का धारण करने से सर्वसंघ का संधारण हो जाता है क्योंकि साधु ही संघ है, साधु से संघ और संघ से साधु सर्वदा भिन्न नहीं होते। समुदाय और अवयव परस्पर में कथंचित् अभिन्न होते हैं, इस प्रकार संघ की या किसी एक - एक साधु की भी वैयावृत्य करने से रत्नत्रय की धारा अविच्छिन्न प्रवहमान रहती है। १०. समाधिगुण एवं गुणपरीणाम - प्रमुखैर्विविधैः परैः । प्राप्यते वर्तमानेन समाधिः सिद्धि-शर्मणा ॥ ३३० ॥ अर्थ - इस प्रकार उपर्युक्त क्रम से कहे गये गुणपरिणाम आदि नौ गुणों के द्वारा सिद्धिसुख में प्रवर्तनरूप 2 Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - १२४ समाधि अर्थात् एकाग्रता नामक गुण की प्राप्ति होती है ।।३३०॥ प्रश्न - कार्यसिद्धि के लिए कारण आवश्यक क्यों हैं और गुणपरिणाम आदि नौ कारण समाधि रूप कार्य की सिद्धि कैसे करते हैं ? उत्तर - कारणों का संग्रह किये बिना इष्ट कार्य की सिद्धि कदापि नहीं होती और कारणों का संग्रह तब किया जाता है, जब कार्य करने का भाव जाग्रत होता है। जैसे मन में बड़ा बनाने का विचार आने पर ही कुम्भकार उसे बनाने के लिए दण्ड, चक्र, मृत्तिकादि कारण समुदाय की प्राप्ति में प्रवृत्ति करेगा । यहाँ समाधि गुण का प्रकरण है। सिद्धिसुख में चित्त की एकाग्रता होना समाधि है। वैयावृत्य करने से इस एकाग्रता रूप समाधि का संरक्षण होता है, यह सिद्धान्त है। जब साधु के सिद्धिसुख में एकाग्रता नामक गुण-प्राप्ति के भाव बनते हैं तब वे गुणपरिणाम, श्रद्धा, वात्सल्य, भक्ति, पात्रलाभ, सन्धान, तप, पूजा और तीर्थाव्युच्छित्ति ऐसे नौ क्रमों से उत्कृष्ट आचरण करते हैं और जब इन कारणों में आचरण रूप विशिष्ट आदर किया जाता है तब वैयावृत्य करनेवाली भावना सिद्धिसुख की एकाग्रता में परिणत हो जाती है। अर्थात् वैयावृत्य करनेवाले को, शुद्ध चित्त से वैयावृत्य करने के कारण उपर्युक्त नौ गुण प्राप्त हो जाते हैं, तब उनकी वैयावृत्य करनेवाली अभ्यन्तर परिणति स्वयमेव सिद्धिसुख की एकाग्रता में परिणत हो जाती है, क्योंकि गुणपरिणामादि नौ गुण सिद्धिसुख की प्राप्ति के उपाय हैं, अत: वे आत्मा से सिद्धिसुख की एकाग्रता रूप समाधि को जोड़े बिना नहीं रहेंगे। ९१-१२. जिनाज्ञा गुण और संयम-साहाय्य गुण जिनाज्ञा पालिता सर्वा, विजित्य गुणहारिणः। कृतं संयम-साहाय्यं, कषायेन्द्रिय-वैरिणः ॥३३१ ।। अर्थ - वैयावृत्य करनेवाला साधु सर्व जिनेन्द्रदेवों की आज्ञा का पालन करता है और गुणों को नष्ट करनेवाले कषाय तथा इन्द्रिय रूपी वैरियों को जीत कर संयम-रक्षण में सहायक बनता है॥३३१ ॥ __ प्रश्न - वैयावृत्य करनेवाले को जिनेन्द्रदेवों की आज्ञा का पालक क्यों कहा जाता है? उत्तर - भगवान जिनेन्द्र की आज्ञा है कि साधुजन अवसर आने पर परस्पर वैयावृत्य करके अपने वैयावृत्य नामक अभ्यन्तर तप की वृद्धि करें और जिनकी वैयावृत्त्य का अवसर प्राप्त हुआ है उनके रत्नत्रय का संरक्षण एवं संवर्धन करें। यही कारण है कि वैयावृत्य करनेवाले को जिनाज्ञा का पालक कहा जाता है। प्रश्न - संयम-साहाय्य गुण से क्या अभिप्राय है ? उत्तर - जैसे दीपक स्वयं जलता है, स्व-पर को प्रकाशित करने के लिए उसे अन्य की आवश्यकता नहीं पड़ती, किन्तु जब वायु के झोंके आते हैं तब हाथ की आड़ देकर दूसरे जन उसके संरक्षण में सहायक होते हैं। इसी प्रकार आचार्य, उपाध्याय एवं अन्य साधुजन संयम एवं तप आदि के भण्डार होते हैं किन्तु यदि कदाचित् कषायादि का उद्वेग उत्पन्न हो जाय तो वैयावृत्य करनेवाले कषाय और इन्द्रियों के दोष बताकर कषाय एवं इन्द्रियों के निग्रह में सहायक होते हैं। यदि कभी आचार्य या अन्य साधुजन व्याधि आदि से पीड़ित हो जाते हैं तथा बिना संक्लेश के रोग Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - १२५ परीषह को सहने में असमर्थ होते हैं, तब उनकी वैयावृत्य करने से तप एवं संयम का रक्षण होता है। अन्य दूसरों से स्वयं की वैयावृत्य करा कर अथवा वैयावृत्य करनेवालों की अनुमोदना करके स्वास्थ्य लाभ करनेवाला अर्थात् रोगादि से निवृत्त हो जानेवाला साधु दूसरों की आपत्तियों को दूर कर स्वयं के सदृश उनके संयम एवं तप की भी रक्षा करता है। इस प्रकार संयम के रक्षण में सहायक होने से वैयावृत्य करनेवाले में संयम-साहाय्य गुण प्रगट होता है। १३-१६. दान, निर्विचिकित्सा, प्रभावना एवं संघकार्य नाम के शेष चार गुण दत्तं सातिशयं दानमचिकित्सा च दर्शिता। सङ्घस्य कुर्वता कार्य, वाक्यं भावयतार्हताम् ।।३३२ ॥ अर्थ - सर्व दानों में रत्नत्रय का दान सर्वश्रेष्ठ है। वैयावृत्य करनेवाला रत्नत्रय रूप सातिशय दान देता है। निर्विचिकित्सा गुण का प्रदर्शन होता है। अर्थ-त प्रभु के वाकयों की अर्थात जनन की भावना होती है और संघ के करने योग्य कार्य का सम्पादन होता है ।।३३२॥ प्रश्न - इन चारों गुणों का विशेष भाव क्या है ? उत्तर - सातिशयदान - अन्य सब दानों की अपेक्षा रत्नत्रय का दान सर्वश्रेष्ठ है, कारण कि रत्नत्रय से जीव संसार-समुद्र को पारकर मोक्षसुख प्राप्त कर लेता है। रोग आदि के कारण विचलित होने वाले साधु को वैयावृत्य करनेवाले तप आदि में स्थिर कर देते हैं, अत: उनके इस महान कार्य को सातिशय दान देना कहा गया है। वैयावृत्य करनेवालों में ही ऐसा दान देने का सामर्थ्य है। अचिकित्सा अर्थात् निर्विचिकित्सा - निर्विचिकित्सा गुण सम्यग्दर्शन का एक अंग है और अनिर्विचिकित्सा सम्यक्त्व के पच्चीस दोर्षों में एक दोष है। रुग्ण साधु की सेवा करते समय उनके शरीर से निकला हुआ मल-मूत्र, वमन एवं फोड़े-फुन्सियों से निकलनेवाली पीव आदि को बिना जुगुप्सा के साफ कर देने से द्रव्यविचिकित्सा का त्याग हो जाता है और उसके निर्विचिकित्सा गुण का बाह्य में भी स्पष्ट प्रदर्शन हो जाता है तथा निर्विचिकित्सा अंग दृढ़ हो जाता है। प्रभावना - प्रभावना भी सम्यक्त्व का एक अंग है। जिनागम में वैयावृत्य करने का उपदेश दिया गया है। वैयावृत्य करनेवाला अपने हृदय में जिनेन्द्र के वाक्यों को भावित कर अर्थात् जिनागम के उपदेश को हृदय में धारण कर उसके अनुसार वैयावृत्य करता है, अत: धर्म की प्रभावना होती है। इससे भी सम्यक्त्व दृढ़ होता संघ कार्य - संघ का प्रमुख कार्य धर्मपालन है । यह धर्मपालन स्वतः तो होता ही है किन्तु रुग्ण आदि हो जाने पर वैयावृत्य करनेवाले साधुजन उसका पालन कराते हैं, इसलिए संघ को अपना कर्त्तव्य सम्पादन करने का श्रेय प्राप्त होता है। वैयावृत्य के फल का माहात्म्य एवं गुणाकरीभूतं, वैयावृत्यं करोति यः । लभते तीर्थकृन्नाम, त्रैलोक्य-क्षोभ-कारणम् ।।३३३॥ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - १२६ अर्थ - इस प्रकार जो साधु गुणपरिणाम आदि गुणों की खान स्वरूप वैयावृत्य करता है, वह तीन लोक में हलचल कर देनेवाले तीर्थंकर नामकर्म को प्राप्त करता है ।।३३३ ।। प्रश्न - क्या वैयावृत्य करनेवाले सभी साधुजन तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध करते हैं? उत्तर - नहीं, वैयावृत्य करने का यह उत्कृष्ट फल कहा गया है। किसी भी कर्मप्रकृति के बन्ध में द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव का साहाय्य आवश्यक है। कार्य करते समय भावों की विशुद्धि एवं द्रव्य, क्षेत्र आदि उत्कृष्ट, मध्यम एवं जघन्य जैसे-जैसे प्राप्त होते हैं वैसा-वैसा फल प्राप्त होता है। यदि तीर्थकर प्रकृति का बन्ध न भी हो तो भी नीरोग और रूपवान शरीर, बल, वीर्य, धैर्य एवं तेज आदि तो सहज ही प्राप्त हो जाते हैं। लभमानो गुणानेव, वैयावृत्य-परायणः । स्वस्थः सम्पद्यते साधुः, स्वाध्यायोद्यत-मानसः ॥३३४ ।। अर्थ - वैयावृत्य में तत्पर साधु बहुत से महान् गुण प्राप्त कर लेता है, जब कि केवल स्वाध्याय में रत साधु अपने ही प्रयोजन में लगा रहता है ।।३३४ ।। प्रश्न - वैयावृत्यरत और स्वाध्यायरत इन दोनों में कौन साधु श्रेष्ठ है और क्यों ? उत्तर - स्वाध्याय में तत्पर रहनेवाले साधु से वैयावृत्य करनेवाला साधु श्रेष्ठ है, कारण कि स्वाध्याय में संलग्न साधु मात्र स्वयम् की ही आत्मोन्नति करता है, जबकि वैयावृत्य में तत्पर साधु स्वयं को भी और अन्य को भी उन्नत बनाता है। स्वाध्याय करनेवाले साधु पर यदि कोई विपत्ति आ जाती है तो उसे भी अपनी विपत्ति दूर कराने के लिए वैयावृत्य करनेवाले का मुखापेक्षी होना पड़ता है। आर्यिका संसर्ग दोष त्याज्या-सङ्गतिर्गरवद, वह्निज्वालेव तापिका। दुर्जीतेरिव निन्द्यायाः, दुष्कीति लभते ततः ।।३३५ ।। अर्थ - साधुजनों को आर्यिका की संगति नहीं करनी चाहिए, क्योंकि यह संगति विषसदृश प्राण नाशक और अग्नि की ज्वाला सदृश सन्तापकारी है। अन्याय और निन्दा करने से जैसे अपयश होता है, वैसे ही आर्यिका की संगति करनेवाले मुनि का अपयश होता है॥३३५ ।। प्रश्न - आर्या-संगति को विष और अग्निज्वाला तुल्य क्यों कहा है? और अपयश हो जाने से क्या हानि है? उत्तर - जैसे विष प्राणहरण कर लेता है और अग्नि सन्ताप देती है, उसी प्रकार आर्यिका की संगति साधु के संयमरूपी प्राणों का नाश कर देती है, इसलिए विषतुल्य है और चित्त में सन्ताप उत्पन्न करती है, अत: अग्नितुल्य है। आर्यिका का अनुसरण करनेवाला साधु नियमत: अपकीर्ति का पात्र बनता है। प्रायः पाप एवं अपकीर्ति से भयभीत मिथ्यादृष्टि असंयमी सामान्य जन भी जब उत्तम आचरण करते हैं, तब योग्यायोग्य को भली प्रकार जाननेवाले साधु को तो अवश्य ही आर्यिका की संगति छोड़ देनी चाहिए। जितने त्याज्य पदार्थ हैं उन सबको त्यागने के लिए जब मुनिजन उद्यत हुए हैं तब उन्हें पाप और अपयश को ही देनेवाली आर्यिका की संगति अवश्य ही त्याग देनी चाहिए। Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - १२७ पतनशील शरीर का नाश तो अवश्यम्भावी है, उसका रक्षण करने में कोई समर्थ नहीं है, किन्तु यश का संरक्षण करना हमारा परम कर्त्तव्य है। करोड़ों वर्ष पूर्व जिनका शरीरनाश हो चुका है वे महापुरुष यश रूपी शरीर से अद्यावधि जीवित हैं, इसीलिए कीर्तिमान मानव को अमर कहा जाता है। अपयशी मनुष्य शरीर से जीवित रहते हुए भी मृतक के समान है क्योंकि अपयश ही मानव का यथार्थ मरण है। स्थविरस्य प्रमाणस्य, शास्त्रज्ञस्य तपस्विनः । आर्यिका-सङ्गतेः साधोरपवादो दुरुत्तरः॥३३६॥ अर्थ - जो स्थविर अर्थात् वृद्ध हैं, प्रमाणभूत हैं, शास्त्रज्ञ हैं और तपस्वी हैं वे भी आर्यिकाओं की संगति से दुस्तर अपवाद को प्राप्त हो जाते हैं ।।३३६ ॥ न किं यूनोऽल्प-विद्यस्य, मन्दं विदधतस्तपः। कुर्वाणस्यार्यिका-सङ्ग, जायते जन-जल्पनम् ।।३३७ ।। अर्थ - (जब वृद्ध और शास्त्रज्ञ आदि गुणविशिष्ट साधु की यह गति होती है तब) जो युवा है, अल्प बुद्धिवाला है अर्थात् जिसे हिताहित का विचार कम है और जो विशेष तपस्वी नहीं है, वह साधु आर्यिका की संगति से लोकापवाद का भागी क्यों नहीं होगा? ॥३३७ ।। आर्यिका-मानसं सद्यो, यति-सङ्गे विनश्यति । सर्पिर्वतेः समीपे हि, काठिन्यं किं न मुञ्चति ॥३३८॥ स्वयं साधो: स्थिरत्वेऽपि, संसर्ग-प्राप्त-धृष्टता । क्षिप्रं विभावसोः सङ्गे, सा लाक्षेव विलीयते ।।३३९ ।। अर्थ - मुनि की संगति से आर्यिका का परिणाम शीघ्र ही विकृत हो जाता है। घृत को अग्नि के समीप रख देने पर क्या वह घृत अपना काठिन्यपना नहीं छोड़ देता है? अवश्य छोड़ देता है ।।३३८ ॥ जैसे अग्नि के सम्पर्क से लाख शीघ्र ही विलीन हो जाती है, वैसे ही स्वयं अपने आप एकदम स्थिरचित्त साधु भी आर्यिका की संगति प्राप्त कर धृष्टता को प्राप्त हो जाता है। अर्थात् शीघ्र ही चंचल हो उठता है, अत: मुनि एवं आर्यिका दोनों को ही अन्योन्य परिचय या संसर्ग छोड़ देना चाहिए ।।३३९॥ अविश्वस्तोऽङ्गना-वर्गे, सर्वत्राप्यप्रमादकः। ब्रह्मचर्य यतिः शक्तो, रक्षितुं न परः पुनः॥३४० ॥ अर्थ - जो साधु स्त्रीवर्ग में सर्वत्र प्रमादरहित होता है और कभी उनका विश्वास नहीं करता, वही साधु जीवन पर्यन्त ब्रह्मचर्य व्रत की रक्षा करने में समर्थ हो सकता है, किन्तु जो इससे विपरीत प्रवृत्ति वाला है वह साधु ब्रह्मचर्यव्रत का अन्त-पर्यन्त निस्तार नहीं कर सकता ||३४० ॥ प्रश्न - अप्रमादी रहने का क्या भाव है और स्त्रीवर्ग से कौन-कौनसी स्त्रियों का ग्रहण होता है ? उत्तर - यहाँ स्त्रीवर्ग से बाला, कन्या, तरुणी, समवयस्का, वृद्धा, भिक्षुणी, तपस्विनी, सुरूपा, कुरूपा एवं गूंगी आदि सभी प्रकार की स्त्रियों का विश्वास नहीं करना चाहिए। उनमें अप्रमादी रहना चाहिए। अर्थात् Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका- १२८ कभी किसी भी स्त्री की संगति नहीं करनी चाहिए। चलने, बैठने, रहने, आहार करने एवं स्वाध्याय आदि में कदाचित् सम्पर्क हो जावे, या प्रसंगवश कोई कार्य करना भी पड़े तो अप्रमादी होकर अर्थात् अत्यन्त सावधानीपूर्वक एवं उदासीन वृत्ति से करे ताकि उनका आकर्षण न बने । आर्यिकाओं के अनुचरण में दोष विमुक्तः सर्वतो जातः, सर्वत्र स्ववशो यतिः । आर्यिकानुचरीभूतो जायते ऽन्य -वशः पुनः ॥ ३४१ ॥ अर्थ- जो साधु धन-धान्य एवं गृहादि समस्त परिग्रहों से मुक्त है, वह सर्वत्र अपने को अपने वश में रखता है, किन्तु वही साधु आर्यिका का अनुगामी होकर पुनः स्त्री, धन एवं धान्यादि परिग्रह के वश हो जाता है ॥ ३४१ ।। आर्यिका - वचने योगी, वर्तमानो दुरुत्तरे । शक्तो मोचयितुं न स्वयं, श्लेष्ममग्नेव मक्षिका ।। ३४२ ।। अर्थ - जैसे कफ में फँसी हुई मक्खी का उससे अपने को छुड़ा पाना शक्य नहीं है, वैसे ही जिसके हृदय का पार पाना कठिन है ऐसी आर्यिका के वचनों को स्वीकार कर लेनेवाले साधु का उसके स्नेह बन्धन छुटकारा पा लेना शक्य नहीं है || ३४२ ॥ नार्या बन्धेन बन्धोऽन्यस्तुल्यो वृत्तच्छिदा यतेः । वज्रलेपः स नो तुल्यो, यो याति सह चर्मणा ॥ ३४३ ॥ अर्थ - साधु के चारित्र का नाश करनेवाला आर्यिका के साथ सहवास ऐसा बन्धन है जिसकी किसी अन्य बन्धन से उपमा नहीं दी जा सकती । चर्म के साथ ही उतरनेवाला वज्रलेप भी उस बन्धन के समान नहीं है ॥ ३४३ ॥ ब्रह्मव्रतं मुमुक्षूणां स्त्री - संसर्गेण निश्चितम् । मण्डूकः पन्नगेनेव, भीषणेन विनाश्यते ॥ ३४४ ॥ अर्थ - जैसे भीषण सर्प द्वारा मेंढक नष्ट कर दिया जाता है, वैसे ही स्त्री-संसर्ग से मुमुक्षु मुनिराजों का ब्रह्मचर्य व्रत नियमतः विनष्ट हो जाता है ॥ ३४४ ॥ चौराणामिव सङ्गत्यं पुंसा सर्वस्वहारिणाम् । , योगिना योषितां त्याज्यं, ब्रह्मचर्य - प्रपालिना ।। ३४५ ।। इत्यार्यासङ्ग-त्यागः । अर्थ - जैसे सर्वस्व हरण कर लेनेवाले चोरों का सम्पर्क सदा त्याज्य है, वैसे ही साधुओं को ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए स्त्रियों का सम्पर्क सर्वथा त्याज्य है। अर्थात् ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए स्त्री-संसर्ग सर्वथा त्याग करने योग्य है ।। ३४५ ॥ इस प्रकार आर्यिका संगत्याग प्रकरण पूर्ण हुआ ।। Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - १२९ अन्य भी वस्तुओं के त्याग का निर्देश यद्यदन्यदपि द्रव्यं किञ्चिद्बन्धन - कारणम् । तत्तत्त्रिधा निराकृत्य, यतध्वं दृढ संयमाः ॥ ३४६ ।। अर्थ - (साधुओं को मात्र आर्यिकाओं के संसर्ग से ही दूर नहीं रहना चाहिए अपितु ) अन्य भी जोजो वस्तुएँ साधुओं के किंचित् भी बन्धन का कारण हैं, अर्थात् उन्हें परतन्त्र करती हैं, उन उन वस्तुओं को मन, वचन और काय से त्याग कर संयम को दृढ़ रखने का प्रयत्न करना चाहिए ॥ ३४६ ॥ भ्रष्ट मुनियों के संसर्ग-त्याग का निर्देश पार्श्वस्थासन्न - संसक्त- कुशील - मृगचारिणः । मलिनी - क्रियते शश्वत्कज्जलेनेव सङ्गतम् ॥ ३४७ ॥ अर्थ- जैसे काजल का संसर्ग नियमतः मलिन करनेवाला होता है, वैसे ही पार्श्वस्थ, आसन्न, संसक्त, कुशील और मृगचारी इन भ्रष्ट मुनियों का संसर्ग सदा ही चरित्र आदि को मलिन करनेवाला होता है ॥ ३४७ ॥ प्रश्न - पार्श्वस्थ आदि मुनियों का क्या स्वरूप है? उत्तर - पार्श्वस्थ संयम का निर्दोष स्वरूप जानते हुए भी जो निरतिचार संयम का पालन नहीं करते किन्तु संयमी या संयममार्ग के समीप रहते हैं उन्हें पार्श्वस्थ साधु कहते हैं। ये एकान्त से असंयमी नहीं होते किन्तु मिथ्यामत में रुचि रखते हैं, दोषयुक्त आहार ग्रहण करते हैं, सदा एक ही वसतिका में रहते हैं, एक ही क्षेत्र में रहते हैं, एक ही संस्तर पर सोते हैं, गृहस्थों के घर पर अपनी बैठक लगाते हैं, जिसका शोधन अशक्य है या शोधा ही नहीं गया उसे भी ग्रहण कर लेते हैं; सुई, कैंची आदि वस्तुएँ रखते हैं; सीना, धोना, रंगाना, टाँगना; आदि कार्यों में तत्पर रहते हैं, कारण न होने पर भी अपने पास क्षार चूर्ण, सुहाग चूर्ण, नमक, घी आदि पदार्थ रखते हैं तथा उपकरणों से अपनी आजीविका करते हैं परन्तु मुनियों के समीप रहते हैं उन्हें पार्श्वस्थ कहते हैं। आसन्न - ये चारित्र में सदा शिथिल रहते हैं, सुख-स्वभावी होते हैं, मूल एवं उत्तरगुणों में सदा अतिचार लगाते हैं, परलोक के विषय में निस्पृह और ऐहिक कार्यों में तत्पर रहते हैं, स्वाध्याय आदि कार्यों में उदासीन रहते हैं, पन्द्रह प्रमादों से पूर्ण रहते हैं, आत्मकल्याण के कार्यों से एवं समिति गुप्ति की भावनाओं से कोसों रहते हैं तथा रत्नत्रय की शुद्धि में उदासीन किन्तु गृहस्थ सदृश आरम्भादि करने में संलग्न रहते हैं। दूर संसक्त ये अयोग्य और अशिष्ट कार्यों में प्रवृत्त रहते हैं; चारित्र से भ्रष्ट, संघ से अलग, इन्द्रिय और कषाय जन्य दोषों से युक्त, तीनों प्रकार के गारवों में आसक्त, स्त्रीविषय में संक्लेश परिणाम वाले तथा गृहस्थों पर विशेष प्रेम रखने वाले होते हैं। ये राजा या राजनेताओं की सेवा करते हैं; मन्त्र, तन्त्र, वैद्यक एवं ज्योतिष आदि के माध्यम से अपनी आजीविका करते हैं और चारित्रप्रिय साधुओं के साथ चारित्र-प्रिय तथा चारित्रअप्रिय साधुओं की संगति प्राप्त कर चारित्र अप्रिय बनकर नट के सदृश आचरण करते हैं। कुशील - ये इन्द्रिय-चोरों से पीड़ित और कषाय रूपी श्वापदों से ग्रसित होते हैं, साधुमार्ग का त्याग कर उन्मार्ग में पलायन करते हैं, भ्रष्ट मुनि के सदोष आचरणरूप वन में उन्मार्ग में भागते हुए आहार, भय, मैथुन Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - १३० और परिग्रह की वांछा रूप नदी में पड़ कर दुखरूप प्रवाह में डूबते रहते हैं, संच का अविनय करनेवाले, व्रत, गुण और शीलों से रहित तथा प्रगट में ही कुशील का सेवन करनेवाले होते हैं। मृगचारी - जो संघ छोड़कर अकेले ही स्वच्छन्द्र रूप से विहार करते हैं और जिनेन्द्रदेव के वचनों को दूषित करनेवाले हैं उन्हें मृगचारी अथवा स्वच्छन्दाचारी कहते हैं। ये आगमविरुद्ध और पूर्वाचार्यों द्वारा अकथित आचारों का प्ररूपण करते हैं, सिद्धान्त का स्वरूप अन्यथा ही समझते हैं और अन्यथा ही आचरण करते एवं कराते हैं। ये पदार्थों के स्वरूप का या श्रमण संस्कृति के सिद्धान्तों का विवेचन आगमविरुद्ध, स्वेच्छा कल्पित कल्पना के माध्यम से करते हैं। घोर संयम में प्रवृत्त होते हुए भी ये सम्यक्त्वरूपी रत्न से रहित होते हैं, इनका चारित्ररूपी रत्नों से भरा भण्डार भी इन्द्रिय और कषायरूपी डाकुओं के द्वारा लूट लिया जाता है, तब ये शीलदरिद्री, मिथ्यात्व को प्राप्त होकर जिनप्रणीत सिद्धान्त को अप्रमाण मानते हुए तीव्र दुखों की परम्परा को प्राप्त हो जाते हैं, तब इनका संयमरूपी अभिमान प्रगट में ही नष्ट-भ्रष्ट हो जाता है। कषायाकुल-चित्तानां, पार्श्वस्थानां दुरात्मनां । भुजङ्गानामिव त्याज्य:, सङ्गच्छिद्र-गवेषिणाम् ।।३४८ ॥ अर्थ - जैसे सपों का सहवास सदा ही त्याज्य है, वैसे ही कषाय से आकुलित चित्तवाले, दुष्ट स्वभावी और पर-छिद्रान्वेषी पार्श्वस्थ मुनियों का सहवास सर्वदा छोड़ने योग्य है ।।३४८ ।। पार्श्वस्थ मुनियों के सम्पर्क से हानि लज्जां जुगुप्सनं योगी, प्राराभं निर्विशङ्कताम्। आरोहन्प्रियधर्मापि, क्रमेणेत्यस्ति तन्मयः ।।३४९।। अर्थ - पार्श्वस्थ साधु की संगति करते समय पहले लज्जा और ग्लानि करता है, पश्चात् धर्मप्रेमी साधु भी क्रमश: लज्जा आदि को छोड़कर परिग्रह आदि में निश्शंक होकर तन्मयतापूर्वक प्रवृत्ति करने लगता है॥३४९॥ प्रश्न - धर्मप्रिय साधु लज्जा आदि कैसे करता है ? उत्तर - धर्मप्रिय अर्थात् अपने चारित्र में दृढ़ साधु भी जब पार्श्वस्थादि साधुओं के संसर्ग में आने लगता है तब सर्वप्रथम तो उसे लज्जा आती है कि इनका आचरण आगमविरुद्ध है, मैं इनके पास कैसे बै? मेरे हितैषी मुझे यहाँ देखकर क्या सोचेंगे ? इस प्रकार लज्जा करता है किन्तु बार-बार साथ में उठने-बैठने से लज्जा दूर हो जाती है। पश्चात् अधिक सम्पर्क बढ़ जाता है तब उनका असंयमपूर्ण आचरण दृष्टिगत होता है, तब उसे असंयम के प्रति ग्लानि उत्पन्न होती है कि मैं इस अमूल्य संयम का नाश करने में कैसे उद्यत होऊँ? यह मेरा व्रतनाश का कार्य तो दुख-दायक और दुरन्त संसार में गिरानेवाला होगा, इत्यादि। पश्चात् बार-बार असंयमप्रवृत्तिजन्य सम्पर्क से ग्लानि भी समाप्त हो जाती है, तब चारित्रनाशक नोकर्म, चारित्रमोहकर्म की उदीरणा में कारण पड़ते हैं जिससे चारित्रमोह प्रकृति के उदय की वशवर्तिता से अतिचारों की उपेक्षा करते हुए व्रतभंग रूप अनाचार के लिए उद्यत हो जाता है तथा व्रतभंग होते ही वह साधु आरम्भ-परिग्रह आदि में मन से तन्मय होने लगता है। Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - १३१ तेषु संसर्गतः प्रीतिर्विसम्भः परमस्ततः। ततो रतिस्ततो व्यक्तं, संविनोऽप्यस्ति तन्मयः ॥३५० ॥ अर्थ - संसार से भयभीत भी मुनि पार्श्वस्थादि के बार-बार संसर्ग से सर्वप्रथम प्रीतियुक्त होता है अर्थात् उनसे प्रीति करने लगता है। प्रीति हो जाने से उनके प्रति विश्वास बन जाता है, उस विश्वास से उसका मन उन भ्रष्ट साधुओं के प्रति अनुरक्त हो जाता है और उनमें अनुराग हो जाने से अन्त में स्वयं वैसा ही भ्रष्ट हो जाता है अर्थात् मन से भ्रष्ट होते ही वचन एवं काय से भी भ्रष्ट हो जाता है ।।३५० ।। शुभाशुभेन गन्धेन, मृत्तिका यदि वास्यते । तदा नान्य-गुणैरत्र, कथ्यतां पुरुषः कथम् ।।३५१ ।। अर्थ - यदि सुगन्ध अथवा दुर्गन्ध के संसर्ग से मिट्टी भी सुगन्धित या दुर्गन्धित हो जाती है अर्थात् अन्य वस्तुओं के गुणों या दुर्गुणों से जब जड़ पदार्थ में भी परिवर्तन आ जाता है तब चेतन-आत्मा में परिवर्तन कैसे नहीं आवेगा? अवश्य ही आयेगा ।।३५१।। शिष्टोऽपि दुष्ट-सङ्गेन, विजहाति निज गुणम्। नीरं किं नाग्नि-योगेन, शीतलत्वं विमुञ्चति ॥३५२॥ अर्थ -- दुष्टजन के संसर्ग से सज्जन भी अपने गुण छोड़ देता है। क्या अग्नि के संसर्ग से जल निज शीतलत्व गुण को नहीं छोड़ देता है ? छोड़ ही देता है ।।३५२ ।। लाघवं दुष्ट-सङ्गेन, शिष्टोऽपि प्रतिपद्यते। किं न रत्नमयी माला, स्वल्पार्धा शव-सङ्गता ॥३५३ ।। अर्थ - दुष्ट के सम्पर्क से शिष्ट पुरुष भी लघुता को प्राप्त हो जाता है। क्या रत्ननिर्मित माला भी शव के सम्पर्क से अल्प मूल्य वाली नहीं हो जाती ? अवश्य हो जाती है ||३५३ ।।। संयतोऽपि जनैर्दुष्टो, दुष्टानामिह सङ्गतः। क्षीरपा ब्राह्मणः शौण्डः, शौण्डानामित्र शंक्यते ॥३५४ ॥ अर्थ - दुष्टों की संगति में आया हुआ संयमी मुनि भी लोगों द्वारा दुष्ट ही माना जाता है। जैसे कि दुग्ध पीनेवाला ब्राह्मण मद्यपायी के सम्पर्क से मद्यपायी रूप से ही शंकित किया जाता है॥३५४ ।। पर-दोष-परीवाद-ग्राही लोको यतोऽखिलः। अपवादपदं दोषं, मुञ्चध्वं सर्वदा ततः।।३५५॥ अर्थ - हे यतिगण ! यह सम्पूर्ण लोक पर के दोष कहने को सदा ही उत्सुक रहता है, अत: अपवाद का स्थान ऐसा दोष तुम लोग सर्वथा छोड़ दो॥३५५ ।। Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - १३२ प्रश्न - यहाँ कौन-कौन से अपवाद स्थान छोड़ने का निर्देश दिया जा रहा है? उत्तर - आर्यिकाओं का संसर्ग, अन्य महिला वर्ग का संसर्ग, गृहस्थों से अति स्नेह एवं संसर्ग, चारित्रभ्रष्ट साधुओं का संसर्ग और भी ऐसे चारित्रघातक संसर्गों का तथा ऐसी वस्तुएँ अपने पास रखना जो चारित्रपालन में अनावश्यक हैं, असंयमीजन द्वारा वांछनीय हों, पापास्रव का कारण हो, जिनेन्द्र आज्ञा से बहिर्भूत हो तथा लोक में अपकीर्ति का कारण हो। ये सब अपवाद के स्थान हैं अत: इनका त्याग कर देना चाहिए। दुर्जनेन कृते दोषे, दोषमाप्नोति सज्जनः । कादम्ब: कौशिकेनेव, दोषिकेणापदूषणः ।।३५६ ।। अर्थ - दुर्जन द्वारा दोष किये जाने पर वह सज्जन को प्राप्त हो जाता है। जैसे दुष्ट स्वभावी उल्लू के द्वारा किया हुआ दोष निर्दोष हंसपक्षी पर आ पड़ा। अर्थात् महान तपस्वी भी दुर्जन के दोषों से अनर्थ में पड़ जाते हैं।।३५६॥ उल्लू और हंसपक्षी की कथा पाटलीपुत्र नगर के गोपुग्द्वार उपरिम भाग में एक साल रहता था किमी एक दिन वह उल्लू किसी एक हंस के पास पहुंच गया और दोनों में गाढ़ मित्रता हो गई। हंसपक्षी उस उल्लू को अतिश्रेष्ठ पक्षी मानता था अत: उसकी बातों में आकर किसी एक दिन वह उस गोपुर द्वार पर उल्लू के साथ आकर बैठ गया। उसी समय उस नगर का राजा प्रजापाल, चतुरंग सेना को लेकर दिग्विजय हेतु उस गोपुरद्वार से बाहर निकल रहा था। उल्लू ने राजा के दक्षिणभाग में जाकर विरस शब्द किया। उस दुष्ट पक्षी का बह अपशकुन सूचक शब्द सुनकर राजा को क्रोध आ गया। उसने धनुष पर बाण चढ़ाकर निशाना बाँधा। उल्लू चालाक था, वह वहाँ से शीघ्र ही उड़ गया और वह बाण वहाँ बैठे निर्दोष हंस को लगा तथा वह उसी क्षण मर गया। इस प्रकार नीच की संगति से निर्दोष हंसपक्षी का प्राणनाश हुआ, अत: दुष्टों की संगति कभी नहीं करनी चाहिए। दुर्जनस्यापराधेन, पीड्यन्ते सज्जना जने । अपराध-पराचीनाः, पृदाकोरिव डुण्डुभाः॥३५७ ॥ अर्थ - लोक में दुर्जन के अपराध से सज्जन पुरुष पीड़ा को प्राप्त होते हैं। जैसे पृदाको के अपराध से निर्दोष डुडुभ पीड़ा को प्राप्त हुआ था ||३५७ ।। प्रश्न - पृदाको और डुड्भ कौन थे ? तथा पृदाको ने क्या अपराध किया था, जिसके फलस्वरूप डुडुभ को पीड़ा हुई ? उत्तर - जो सर्प अवगाहना में बहुत छोटा, चंचल और महाविषैला होता है उसे पृदाको सर्प कहते हैं। इसके विपरीत जो अवगाहना में बहुत बड़ा एवं निर्विष होता है उसे डुडुभ सर्प कहते हैं। विषैला सर्प किसी को Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - १३३ काट कर छोटा होने के कारण तत्काल छिप जाता है और वहीं पड़े हुए बड़े सर्प को लोग मार डालते हैं। वे समझते हैं कि इसी सर्प ने काटा है। इसी प्रकार अपराध तो करता है दुर्जन किन्तु उसकी संगति में आया हुआ सज्जन पुरुष उस अपराध का दण्ड भोगता है। असंयतेन चारित्रं, संयतस्यापि लुप्यते। सङ्गतेन समृद्धस्य, सर्वस्वमिव यस्युमा ।।३५८ ।। अर्थ - जैसे सम्पर्क में आये हुए चोर के द्वारा समृद्धिशालियों का सर्व धन हरण कर लिया जाता है, वैसे ही असंयमी पुरुष के सम्पर्क से संयमीजन का भी चारित्र लुप्त हो जाता है।।३५८ ॥ दुष्टानां रमते मध्ये, दुष्ट-सङ्गेन वासितः। विदूरीकृत-वैराग्यो, न शिष्टानां कदाचन ॥३५९॥ अर्थ - जिसने अपना वैराग्य भाव छोड़ दिया है ऐसा व्यक्ति दुष्टों की संगति से वासित हुआ दुष्टों की गोष्ठी में ही रमता है। दुष्टों की संगति में फंसा हुआ व्यक्ति शिष्टों की गोष्ठी में कभी नहीं रमता ॥३५९॥ सज्जनों की संगति के गुण दुष्टोऽपि मुञ्चते दोषं, स्वकीयं शिष्ट-सङ्गतः। किं मेरुमाश्रितः काको, न धत्ते कनकच्छविम् ॥३६०॥ अर्थ - सज्जनों की संगति से दुष्ट पुरुष भी अपने दोष छोड़ देता है। क्या, सुमेरु पर्वत का आश्रय लेनेवाला काक स्वर्ण की कान्ति को प्राप्त नहीं करता ? अवश्यमेव करता है॥३६० ।। पूजां सज्जन-सङ्गेन, दुर्जनोऽपि प्रपद्यते। देवशेषा विगन्धापि, क्रियते किं न मस्तके ।।३६१ ।। अर्थ - सज्जन की संगति से दुर्जन भी पूजा अर्थात् आदर को प्राप्त कर लेता है। क्या, सुगन्धरहित भी फूल "यह देव का आशीर्वाद है" ऐसा मान कर सिर पर धारण नहीं किया जाता? अवश्य किया जाता है ||३६शा वैराग्यशील संयमी साधुओं की संगति से लाभ कातरोऽप्रिय-धर्माऽपि, व्यक्तं संविप्र-मध्यगः। भी-प्रपा भावनामानैश्चारित्रे यतते यति: ।।३६२ ।। अर्थ - जिसे धर्म से प्रेम नहीं है तथा जो संयमजन्य दुख सहन करने में कायर है वह साधु भी वैराग्यवान और संसारभीरु साधुओं के मध्य में रहने से भय, लज्जा, भावना एवं मान आदि से चारित्र पालने के लिए व्यक्त रूप से प्रयत्नशील हो जाता है।३६२ ।। प्रश्न - जिसे धर्म से प्रेम नहीं है और जो कायर है उसे साधु बनने से क्या लाभ है? उत्तर - जिसे रत्नत्रय में अभ्यन्तर से रुचि नहीं है किन्तु ख्याति-पूजा की ओर विशेष आकर्षित रहता Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - १३४ है तथा मात्र वचन और काय-सम्बन्धी आसवों को रोकनेवाला द्रव्य संयम ही जिसने ग्रहण कर रखा है ऐसा साधु भी जब संसारभीरु तथा वैराग्यशील साधुओं के बीच रहता है तब वह भी अन्य साधुओं की संसारभीरता देखकर स्वयं संसार के दुखों से भयभीत होकर, अथवा अपने हीनाचरण से लज्जायमान होकर, अथवा अहो ! ये साधु धन्य हैं जो अपने चारित्र में दृढ़ हैं, मुझे दृढ़चारित्री बनना चाहिए, इस भावना से अथवा जैसा द्रव्य, क्षेत्र और काल इनके लिए है वैसा ही मेरे लिए है फिर मैं कायर क्यों बन रहा हूँ? मैं भी इसी प्रकार का चारित्र पालन कर संसारसागर से पार होने रूप अपने कुलधर्म का निर्वाह करूँगा? इस प्रकार के गौरव से वह अपनी पापक्रियाओं से निवृत्त होने का उद्योग करता है। द्रव्य संयम धारण करने का यह लाभ हुआ कि वह चारित्रवानों की संगति प्राप्त होते ही स्वतः भाव संयमी बन गया। संविग्नः परमां कोटिं, साधुः संविग्न-मध्यगः। . गन्धयुक्तिरिवायाति, सुरभि-द्रव्य-कल्पिताम् ॥३६३॥ अर्थ - जैसे बनावटी अर्थात् कल्पित गन्ध से युक्त द्रव्य सुगन्धित द्रव्य के संसर्ग से और भी अधिक सुगन्धित हो जाता है, वैसे ही संवेगसम्पन्न मुनियों के मध्य निवास करनेवाला साधु उत्कृष्ट परम कोटि के वैराग्य को प्राप्त हो जाता है ॥३६३।। एकोऽपि संयतो योगी, वरं पार्श्वस्थ-लक्षतः। साद गदीपेड, रतुझं विवर्धते ।।३६४ ।। अर्थ - चारित्रभ्रष्ट या चारित्रहीन पार्श्वस्थादि लक्ष साधुओं की अपेक्षा एक ही सुशील एवं संयमी मुनि श्रेष्ठ है क्योंकि उस एक उत्तम साधु की संगति से ही सम्यक्त्व आदि चारों आराधनाएँ वृद्धिंगत हो जाती हैं॥३६४।। वरं संयततः प्राप्ता, निन्दा संयम-साधनी। न स्वसंयततः पूजा, शील-संयम-नाशिनी ॥३६५ ।। अर्थ - संयमी तपस्वियों के द्वारा की गई निन्दा और अपमान असंयमी जनों द्वारा की गई पूजा या सत्कार से अधिक श्रेष्ठ है, क्योंकि असंयमी का सहवास शील एवं संयम का नाश करनेवाला है और संयमी का सहवास या उसके द्वारा की गई निन्दा संयम की वृद्धि में कारण है ॥३६५ ।। प्रश्न - यह शिक्षा किसे लक्ष्य करके दी जा रही है? उत्तर - जो साधु दृढ़ संयमी होने के साथ-साथ परोपकारी भी होते हैं वे संघस्थ चारित्रहीन साधु को सर्वप्रथम वात्सल्य एवं प्रेम से समझाते हैं किन्तु जब वह अपना हीनाचरण या स्वतन्त्रवृत्ति नहीं छोड़ता तब वे उसे ताड़ना आदि देकर या उसे निन्दात्मक शब्द बोल कर समझाते हैं, जिसे वह अपना अपमान मानता है। तब वह विचार करता है कि "ये संयमी साधु तो मेरा तिरस्कार करते हैं, डाँटते हैं, सदा मुझे कुछ-न-कुछ कहते ही रहते हैं, किन्तु वे चारित्रहीन साधु मुझे कभी कुछ नहीं कहते अतः वे बहुत अच्छे हैं। मैं तो अब उन्हीं के पास जाकर रहूँगा'। इत्यादि विचार करनेवाले साधु को लक्ष्य करके आचार्यदेव कहते हैं कि चारित्रहीन साधु Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - १३५ द्वारा प्राप्त सम्मान तेरे चारित्र की शुद्धि एवं वृद्धि नहीं कर सकता, वे भले संख्या में एक लाख से भी अधिक हों और सच्चारित्री एक ही क्यों न हो, तुझे अपनी आत्मा का हित करने के लिए ताड़ना या कटुवचन कहनेवाले साधु के पास ही रहना चाहिए। प्रस्तुत प्रकरण का उपसंहार गुण-दोषी प्रजायेते, संसर्ग-वशतो यतः। संसर्ग: पावन: कार्यो, विमुच्यापावनं ततः ।।३६६ ।। अर्थ - अच्छे बुरे आश्रय के कारण पुरुष गुण और दोषों को प्राप्त हो जाते हैं, अत: दुष्ट जनों का संसर्ग त्याग कर पवित्र अर्थात् प्रशस्त गुण युक्त पुरुषों का ही आश्रय ग्रहण करना चाहिए ||३६६ ।। वाच्यो गणस्थितः पथ्य-मनभीष्टमपि स्फुटम् । तत्तस्य कटुकं पाके, भैषज्यमिव सौख्यदम् ।।३६७।। अर्थ - अपने गण के वासी साधु को हितकारी किन्तु हृदय को अनिष्ट भी लगनेवाले वचन अवश्य बोलने चाहिए क्योंकि वे वचन कडुवी औषधि के सदृश उसके लिए मधुर फलदायक होते हैं ।।३६७ ।। प्रश्न - भले हितकारी ही हों किन्तु दूसरों को अनिष्ट वचन बोलने से क्या प्रयोजन सिद्ध होनेवाला है? उत्तर - चार घातिया कर्मों का नाश कर देनेवाले परम वीतरागी अर्हन्तदेव भी भव्यजनों का उपकार करने के लिए जब तीर्थविहार करते हैं तब अन्य सब को भी परोपकार करने में तत्पर रहना चाहिए। "जब उसने दीक्षा ली है तब क्या यह अपना हित नहीं जानता ? उसे कटुक वचनों द्वारा शिक्षा देने से मेरा क्या प्रयोजन सिद्ध होनेवाला है" ऐसा विचार कर दूसरों की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए क्योंकि परोपकार के कार्यों में कमर कसके तत्पर रहना ही बड़प्पन है। अत: तत्काल कडुवे लगने पर, जिनका विपाक मधुर है, ऐसे हितकारी और पथ्यभूत वचन समय-समय पर संघस्थ साधुओं को अवश्य ही कहते रहना चाहिए। किसी कवि ने कहा है कि इस जगत् में अपना कार्य करने में ही तत्पर रहनेवाले मनुष्य हजारों की संख्या में विद्यमान हैं किन्तु परोपकार ही जिनका स्वार्थ है ऐसा सत्पुरुषों में अग्रणी पुरुष एकाध ही होता है। स्वान्तानिष्टमपि ग्राह्य, पथ्यं बुद्धिमता वक्षः। हठत: किं न बालस्य, दीयमानं घृतं हितम् ॥३६८॥ इति दुर्जनसङ्ग-वर्जनम्॥ अर्थ - हृदय को अनिष्ट भी वचन गुरुजनों के द्वारा कहे जाने पर बुद्धिमान मनुष्य को पथ्य रूप से अवश्य ही ग्रहण करने चाहिए। क्या, बालक को जबरदस्ती मुख खोलकर पिलाया गया घृत हितकारी नहीं होता ? अवश्य ही होता है ।।३६८॥ इस प्रकार दुर्जनसंगतिवर्जन प्रकरण पूर्ण हुआ। Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - १३६ स्व-प्रशंसा के दोष मा छेदयन्तु स्व-यशो, मा कार्युः स्वं प्रशंसनम् । लघवः स्वं प्रशंसन्तो, जायन्ते हि तृणादपि ॥३६९ ॥ अर्थ - हे साधुजन ! तुम अपने मुख से अपनी प्रशंसा मत करो। स्वयं की प्रशंसा करके अपने यश को छिन्न-भिन्न मत करो। अर्थात् समीचीन गुणों के कारण फैला हुआ यश स्वयं की प्रशंसा करने से नष्ट हो जावेगा अत: उसे बचाओ। जो व्यक्ति अपने मुख से अपनी प्रशंसा करता है वह तृण से भी अति लघु अर्थात् तुच्छ हो जाता है ॥३६९ ।। स्व-स्तवेन गुणा यान्ति, काज्ञिकेनेव सीधुनि। स दोषः परमस्तेषां, कोप: संयमिनामिव ।।३७० ।। अर्थ - 'मुझ में ऐसे-ऐसे गुण हैं' इस प्रकार अपनी प्रशंसा करने से विद्यमान भी गुण उसी प्रकार नष्ट हो जाते हैं, जैसे कांजी पीने से मदिरा का नशा नष्ट हो जाता है, क्योंकि संयमी को क्रोध आना जैसे बड़ा दोष है, वैसे ही अपनी प्रशंसा करना बड़ा दोष है ।।३७० ॥ अनुक्तोऽपि गुणो लोके, विद्यमानः प्रकाशते प्रकटीक्रियते केन, विषस्वानुदितो जनैः॥३७१॥ अर्थ - स्वयम् अपने गुण न कहने पर भी वे विद्यमान रहते हैं और लोक में प्रसिद्धि को भी प्राप्त होते हैं। देखो ! सूर्य प्रगट हुआ है. ऐसा किन लोगों के द्वारा प्रगट किया जाता है ? ||३७१ ।। कथ्यमाना गुणा वाचा, नासन्त: सन्ति देहिनः। षण्डका न हि जायन्ते, योषा वाक्य-शतैरपि ।।३७२।। अर्थ - मनुष्यों में जो गुण असत् हैं अर्थात् जिस मनुष्य में जो गुण नहीं हैं वे वचन द्वारा कहने मात्र से सत्रूप नहीं हो जाते हैं। जैसे किसी नपुंसक को यह स्त्री है, स्त्री है" ऐसा सैकड़ों वचनों द्वारा कहे जाने पर भी वह स्त्री नहीं बन जाता, वह तो नपुंसक ही रहता है ।।३७२ ।। विद्यमानं गुणं स्वस्य, कोयमानं निशम्य यः । महात्मा लज्जते चित्ते, भाषते स कथं स्वयम् ॥३७३॥ अर्थ - सज्जन मनुष्यों के बीच में अपने विद्यमान भी गुणों की प्रशंसा सुन कर जो लज्जित हो जाता है, वह स्वयं ही अपने गुणों की प्रशंसा कैसे कर सकता है? कदापि नहीं कर सकता ॥३७३।। स्व-प्रशंसा न करने के गुण निर्गुणोऽपि सतां मध्ये, सगुणोऽस्ति स्वमस्तुवन्। न श्लाघते यदात्मानं, गुणस्तस्य स एव हि ॥३७४॥ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका- ९३७ अर्थ - अपनी प्रशंसा न करनेवाला स्वयं गुणरहित होते हुए भी सज्जनों के मध्य में गुणवान सदृश होता है, क्योंकि अपनी प्रशंसा नहीं करना यही उसका गुण है || ३७४ || प्रश्न- गुणरहित को गुणवान कहना यह तो विरुद्ध कथन है ? उत्तर - संसार का कोई भी पदार्थ ऐसा नहीं है जिसमें कोई-न-कोई गुण न हो, फिर भी सम्यग्ज्ञान आदि विशिष्ट गुणों का अभाव होने के कारण वह गुणरहित है किन्तु अपनी प्रशंसा नहीं करना इस गुण से वह गुणवान है । यदि उसमें गुण हैं तो वे बिना कहे स्वयं ही कसौटी पर कसे जायेंगे। कस्तूरी को अपनी गन्ध के लिए शपथ नहीं लेनी पड़ती है। गुणानां नाशनं वाचा, क्रियमाणं निवेदनम् । प्रकाशनं पुनस्तेषां चेष्टयास्ति निवेदनम् || ३७५ ॥ से अर्थ - वचनों द्वारा स्व-गुणों को कहना मानों उन गुणों का नाश ही करना है। गुण तो अपने शुभाचरण प्रगट होते हैं, अतः जिन्हें अपने गुणों का प्रकाशन करना हो उन्हें अपनी सब प्रवृत्तियाँ सदाचार रूप ही करनी चाहिए ॥ ३७५ ॥ अजल्पन्तो गुणान् वाण्या, जल्पन्तश्चेष्टया पुन: । भवन्ति पुरुषाः पुंसां, गुणिनामुपरि स्फुटम् ॥ ३७६ ॥ अर्थ - जो वचन से न कह कर अपने आचरण से अपने गुणों को कहता है वह पुरुष सब से ऊपर होता है। अर्थात् सबसे अधिक श्रेष्ठ होता है || ३७६ ॥ निर्गुणो गुणिनां मध्ये, ब्रुवाण: स्वगुणं नरः । सगुणोऽप्यस्ति वाक्येन निर्गुणानामित्र ब्रुवन् ॥ ३७७ ॥ अर्थ - गुणीजनों के मध्य अपने गुण स्वयं कहनेवाला मनुष्य निर्गुण बन जाता है क्योंकि सगुण होकर भी वह निर्गुण ही कहा जाता है जो मात्र वचनों से अपने गुण कहता है ॥ ३७७ ।। सगुणो गुणिनां मध्ये, शोभते चरितैर्गुणम् । ब्रुवाणो वचनैः स्वस्य, निर्गुणानामिवागुण: ।।३७८ ।। अर्थ - गुणी मनुष्यों के बीच अपने गुणों को आचरण द्वारा प्रगट करता हुआ मनुष्य शोभा को प्राप्त होता है और निर्गुण मनुष्यों के समान वचनों द्वारा अपने गुणों को कहनेवाला मनुष्य गुणरहित है || ३७८ || आसादना न करने का निर्देश यूयमासादनां कृध्वं मा जातु परमेष्ठिनाम् । दुरन्ता संसृतिर्जन्तोर्जायते कुर्वतो हि ताम् ॥ ३७९ ।। Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . मरणकण्डिका - १३८ अर्थ - हे यतिजन ! तुम सब कभी पंचपरमेष्ठियों की आसादना नहीं करना, क्योंकि उस आसादना को करनेवाला जीव दुरन्त संसारी बन जाता है ।।३७९ ॥ त्यजतासंयम त्रेधा, मुक्ति-लक्ष्मी जिघृक्षवः । सा दूरीक्रियते तेन, व्याधिनेव सुखासिका ।।३८० ।। अर्थ - मोक्षलक्ष्मी को प्राप्त करने के इच्छुक हे मुनिगण ! तुम सब मन, वचन और काय से असंयम का त्याग करो, क्योंकि जैसे व्याधिग्रस्त व्यक्ति का सुखपूर्वक बैठना नष्ट हो जाता है, वैसे ही असंयम से मोक्ष दूर हो जाता है ।।३८० ।। मा ग्रहीषु परीवाद, स्वसध-परसङ्घयोः । संसारो वर्धतेऽनेन, सलिलेनेव पादपः ॥३८१ ।। अर्थ - भो मुनिगण ! जैसे जल से वृक्ष वृद्धिंगत होता है, वैसे ही अपवाद अर्थात् निन्दा करने से संसारपरिभ्रमण बढ़ता है अत: आप सब कभी भी अपने संघ की या पर-संघ की निन्दा नहीं करना ||३८१॥ शोक-द्वेषासुखायास-वैर-दौर्भाग्य-भीतयः । विशिष्टानिष्टया पुंसां, जन्यन्ते परनिन्दया ||३८२ ।। अर्थ - पर-निन्दा शोक, द्वेष, दुख, आयास और भय को उत्पन्न करती है, वैर को बढ़ाती है, दुर्भाग्य को लाती है और सज्जन पुरुषों को अप्रिय है ।।३८२ ॥ उत्थापयिषरात्मानं, परनिन्दा विधाय यः। अपरेणौषधे पीते, स निरोगत्वमिच्छति ।।३८३॥ अर्थ - जो मनुष्य पर की निन्दा करके अपना उत्थान या अपने को गुणज्ञ मानता है वह मानों, दूसरों के द्वारा कड़वी औषधि पान कर लेने पर अपनी नीरोगता चाहता है ।।३८३ ॥ प्रश्न - ‘अन्य में अमुक गुण नहीं हैं ऐसा कहने से ही सिद्ध हो जाता है कि वे गुण मेरे में हैं, ऐसा कहने में क्या दोष है ? उत्तर - 'अमुक में कोई गुण नहीं है। ऐसा कहना निन्दा ही है। इस प्रकार की पर-निन्दा से अपने को गुणवान मानना यह उल्टे मार्ग पर चल कर स्वस्थान पर पहुँचने की कल्पना के सदृश है, क्योंकि जो स्वस्थान की दिशा में गमन करेगा वही वहाँ पहुँचेगा, या जो औषधि खायेगा वही नीरोग होगा, उसी प्रकार जो गुण प्राप्त कर लेगा वही गुणी होगा। योऽन्यस्य दोषमाकर्ण्य, चित्ते जिहेति सज्जनः । परापवादतो भीतः, स्वदोषमिव रक्षति ।।३८४॥ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - १३९ अर्थ - सत्पुरुष दूसरों के दोष सुन कर मन में लज्जित होता है, वह उन्हें प्रगट नहीं करता प्रत्युत लोकापवाद के भय से उनके दोषों को अपने दोषों के सदृश छिपाता है ।।३८४ ।। स्वल्पोऽप्यन्य-गुणो धन्यं, तैलबिन्दुरिवोदके। विवर्धते तमासाद्य, पर-दोषं न वक्ति सः ॥३८५ ॥ अर्थ - जैसे तेल की बूंद, जल के आश्रय से फैल कर महान् हो जाती है, वैसे ही दूसरों का छोटा सा भी गुण सत्पुरुष को पाकर धन्य हो जाता है अर्थात् महान् हो जाता है अर्थात् लोकप्रसिद्धि में आ जाता है। ऐसे अल्पगुण की भी प्रशंसा करनेवाला सज्जन पुरुष पर के दोषों को कभी नहीं कहता ॥३८५।। सदुपदेश का सार ग्राह्यस्तथोपदेशोऽयं, सर्यो युष्माकमजसा। यथा गुणकृता कीर्तिलॊके भ्रमति निर्मला ।।३८६ ।। अर्थ - हे मुनिजन ! अब तुम सबको भली प्रकार से उपर्युक्त सर्व-उपदेश का सार इस प्रकार ग्रहण करना चाहिए जिससे तुम्हारे गुणों से उत्पन्न हुई निर्मल कीर्ति इस लोक में सर्वत्र फैले ॥३८६ ।। उस कीर्ति का स्वरूप अनन्यतापकोऽखण्ड-ब्रह्मचर्यो बहुश्रुतः। शान्तो दृढचारित्रोऽयमेषा धन्यस्य घोषणा ॥३८७ ॥ अर्थ - उस कीर्ति का विस्तार इस प्रकार हो कि-अहो ! इस संघ के साधुजन किसी को भी सन्ताए नहीं देते, ये बहुत शान्त हैं, इनका ब्रह्मचर्य अखण्ड है, ये बहुत ज्ञानी हैं और चारित्र में भी अति दृढ़ हैं। ये धन्य हैं, धन्य हैं ।।३८७।। शिष्य समुदाय की प्रतिक्रिया इदं नो मङ्गलं बाढमेष मुक्त्वा गणोऽप्यसौ। तोष्यमाणो गुणैः सूरेरानन्दाश्रु विमुञ्चति ॥३८८ ॥ अर्थ - यह सर्व उपदेश हम लोगों के लिए मंगलभूत है अर्थात् श्रेष्ठ है और ग्राह्य है अर्थात् 'हमें स्वीकार है' ऐसा कह कर सर्वसंघ आचार्यश्री के गुणों से सन्तुष्टता को प्राप्त होता हुआ आनन्द के आँसू गिराता है ।।३८८ ।। प्रश्न - गुरु के किन गुणों से संघ सन्तुष्ट हुआ और संघ ने आँसू क्यों गिराये ? उत्तर - आचार्यश्री ने अपने आचार्यत्व काल में सर्वसंघ को पंचाचार में संलग्न रख कर बहुत उपकार किया है। अब समाधि के इच्छुक वे आचार्य, अपने समान गुणज्ञ आचार्य को सर्वसंघ सौंप कर जाना चाहते हैं। जाने के पूर्व उन्होंने पुनः अपने संघ को पूर्वोक्त प्रकार से विस्तारपूर्वक उपदेश दिया। गुरु के इस प्रकार के स्व-परोपकारक अत्यन्त शुद्ध रत्नत्रय का वर्धन करनेवाले वचन सुनकर संघस्थ मोक्षार्थियों के हृदय सन्तुष्टता को प्राप्त होकर प्रफुल्लित हो उठे और हर्षातिरेक से उनके आंसू गिरने लगे। उन्होंने प्रसन्नता पूर्वक गुरु की सब आज्ञा शिरोधार्य कर कृतज्ञता प्रगट की। Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - १४० आराधनाकांक्षी आचार्य के प्रति शिष्यों की कृतज्ञता अयं नोऽनुग्रहोऽपूर्वो, यत्स्वाङ्गमिव पालिताः। सारणा-वारणादेशा, लभ्यन्ते पुण्यभागिभिः ।।३८९॥ अर्थ - हे भगवन् ! हम लोगों के ऊपर आपका यह अपूर्व अनुग्रह है, जो आपने अपने शरीराङ्गों के सदृश हमारा पालन किया है। यह करो', 'यह मत करो' तथा 'यह करना ही है इत्यादि गुरु की शिक्षा भाग्यशाली जीवों को ही प्राप्त होती है।।३८९॥ प्रश्न - आचार्य सारण, वारण और आदेशरूप शिक्षा क्यों देते हैं और इनका क्या अर्थ है? उत्तर - लौकिकज्ञान में अग्नणी भी मनुष्य जब दीक्षा लेता है तब मोक्षमार्ग अर्थात् साधुमार्ग के अनुष्ठान में अनभिज्ञ ही रहता है। उस समय गुरु सारण, वारण और आदेशादि रूप शिक्षा देकर उसे अपने अनुष्ठान में निष्णात कर देते हैं। कर्तव्य का उपदेश देना कि आपको इस-इस प्रकार की क्रिया करना अथवा अज्ञात क्रियाएँ बताना सारणा है। अमुक-अमुक कार्य अर्थात् इस-इस प्रकार के अनुष्ठान या समाचर्या नहीं करना, यह वारणा है और अपने-अपने कार्य के नियम का प्रतिपादन करना, जैसे यतिगण उद्दिष्टाहार ग्रहण न करें, यह आदेश है। क्षमयामो वदं तद् यद्, रागाजान-प्रमादतः । आदेशं ददतामाज्ञा, भवतां प्रतिकूलिता।।३९०॥ अर्थ - आपके द्वारा हितकारी आज्ञा एवं उपदेश दिये जाने पर हमने रागवश, अज्ञानतावश या प्रमादवश उसके प्रतिकूल जो-जो आचरण किया है उसके लिए हे आचार्यदेव ! हम सब क्षमायाचना करते हैं, आप हमें क्षमा प्रदान कीजिए ।।३९० ।। लब्ध-सिद्धिपथा जाताः, सचित्त-श्रोत्र-चक्षुषः। युष्मद्वियोगतो भूयो, भविष्यामस्तथाविधाः ।।३९१ ॥ अर्थ - हे प्रभो ! आपने हमें लब्धसिद्धिपथ वाला किया है। आपने हमें हृदय, कर्ण और नेत्र दिये हैं। आप अब समाधि के सम्मुख हैं, आपके वियोग से अब हम दिग्भ्रमित होकर भविष्य में पुन: वैसे ही हो जावेंगे ||३९१॥ प्रश्न - इस श्लोक का क्या भाव है, आचार्यश्री ने हृदय आदि सब कैसे क्या दिये हैं? उत्तर - दीक्षा के पूर्व व्यक्ति संसारमार्गी होता है और उसका मन तथा कर्णादि इन्द्रियाँ विषयों की ओर संलग्न रहती हैं, अत: शिष्यगण अपने परमोपकारी गुरु से कह रहे हैं कि-हे प्रभो! हम संसारमार्ग में निमग्न थे। आपने दीक्षा देकर हमें मोक्षमार्ग प्राप्त कराया है, हम पहले अज्ञानी थे, विचारशून्य थे, अत: हृदयशून्य थे क्योंकि हृदय से होनेवाले धर्मलाभ को नहीं जानते थे। आपने हमें विचारशील बनाया, अर्थात् आपके उपदेश से हमारा हृदय हिताहित का विवेक करने में समर्थ हो गया है, अत: आपने ही हमें हृदययुक्त किया था। पहले हमारे कर्ण, कर्ण ही नहीं थे क्योंकि वे गुरु का उपदेश नहीं सुनते थे, हमारे नेत्र भी नेत्र नहीं थे क्योंकि वे स्वाध्याय नहीं करते Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परणकण्डिका - १४१ थे। आपने हमें शास्त्र गुना र ऋर्ण युक्त नियः भौ. वार का का रूप लोचन प्रदान किये अर्थात् हमें आगमचक्षु बनाया है, अतः हम ऐसा मानते हैं कि आपने ही हमें हृदय, कर्ण और चक्षु दिये हैं। सर्व-जीवहिते वृद्धे, सर्व-लोकैकनायके। प्रोषिते वा विपन्ने वा, देशा: शून्याः भवन्ति ते ॥३९२॥ अर्थ - भो गुरुदेव ! आप सब जीवों का हित करनेवाले हैं, आप ज्ञान एवं तप से भी वृद्ध हैं, जगत् में सब जीवों के स्वामी हैं, आप अब प्रवास करनेवाले हैं। अथवा संन्यासमरण करने वाले हैं, अतः अब हमें सर्वदेश शून्य दिखते हैं ||३९२।। अनन्य-तापिभिः सर्वैर्गुण-शील-पयोथिभिः। हीना बहुश्रुतैर्देशाः, सान्धकारा भवन्ति ते ||३९३ ।। अर्थ - दूसरों को सन्ताप न देनेवाले, समस्त शील और गुणों के सागर तथा बहुश्रुतज्ञ ऐसे आपके प्रवास कर जाने पर या समाधिस्थ हो जाने पर आप जैसे महर्षियों से हीन ये सर्वदेश अन्धकारमय हो जायेंगे ॥३९३ ।। सर्वज्ञैरिव यैर्वृद्धैर्जन्यन्ते तत्त्व-निश्चयाः। देह-नाशे प्रवासे वा, तेषामन्धा भवन्ति ते ॥३९४ ॥ अर्थ - सर्वज्ञ सदृश ज्ञानवृद्ध आपके द्वारा संघ एवं देश के भव्यजन तत्त्वनिश्चय को प्राप्त हुए थे, अब आपके अन्यत्र प्रवास कर जाने पर या आपकी देह का विनाश हो जाने पर संघ एवं देश तत्त्व-निश्चयविहीन अन्ध सदृश हो जायेगा ।।३९४ ।। वाक्यरात्यायिता लोका, चैर्मेघा इव वारिभिः। येभ्यस्ते निर्गता वृद्धास्ते देशाः सन्ति खण्डिताः ॥३९५॥ अर्थ - जैसे जल द्वारा मेघ पूर्ण रहते हैं, वैसे ही आपके धर्मवाक्यों द्वारा हम लोग भी सन्तोष से परिपूर्ण थे। जैसे जलपूर्ण मेघ निकल जाने पर वे देश धान्यविहीन एवं जनशून्य हो जाते हैं, ऐसे ही आप जैसे वृद्ध महात्मा के निकल जाने पर ये देश खण्डित अर्थात् धर्मशून्य हो जायेंगे ॥३९५ ॥ दायकानामशेषस्य, सूरिणामुपकारिणाम्। समान-सुख-दुःखानां, वियोगो दुःसहश्चिरम् ॥३९६ ।। अर्थ - सम्पूर्ण ज्ञानादि गुणों के प्रदाता, परमोपकारी एवं सुख-दुख में समान भाव रखनेवाले ऐसे आचार्यों का वियोग अत्यन्त दुःसह है। अहो ! चिरकाल पर्यन्त दुःसह है॥३९६ ।। __ वंशस्थ छन्द पवित्र-विद्योद्यत-दान-पण्डितैस्तनूभृतां ताप-विषादनोदिभिः। गणाधिपैर्भाति विना न मेदिनी, निरस्त-पत्रैः सरसीव वारिभिः ।।३९७॥ अर्थ - जीवों को पवित्र विद्या रूप श्रेष्ठ दान देने में निपुण एवं ताप और विषाद को दूर करनेवाले ऐसे Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डेिका - १४२ आचार्यदेव के बिना यह पृथ्वी उसी प्रकार शोभायमान नहीं होती जिस प्रकार कीचड़ रहित अर्थात् निर्मल जल के बिना सरोवर शोभायमान नहीं होता || ३९७ ॥ वंशस्थ छन्द बुधैर्न शीलैः रहिता नितम्बिनी, न्पस्विदानैः रहिना गृहरुथता । गुरूपदेश: रहिता तपस्विता, प्रशस्यते नित्य सुखप्रदायिनी ।। ३९८ ।। - अर्थ - शीलरहित नारी, साधुजनों को आहारदान किये बिना गृहस्थपना तथा गुरु के नित्य सुखप्रद उपदेश बिना तपश्चरण बुद्धिमानों द्वारा प्रशंसनीय नहीं माना जाता है ।। ३९८ ॥ वंशस्थ छन्द मनीषितं वस्तु समस्तमङ्गिनां, सुरद्रुमाणामिव यच्छतां सदा । गुणैर्गुरूणां विरहो गरीयसां न शक्यते सोढुमपास्त- रेफलाम् ।। ३९९ ।। इति अनुशिष्टि-सूत्रम् । अर्थ - कल्पवृक्षों के सदृश जीवों को समस्त मनोवांछित वस्तु को देनेवाले और गुणों से गुरु ऐसे महान् पापरहित गुरुओं का विरह सहन करना शक्य नहीं है ।। ३९९ ।। इस प्रकार अनुशिष्टि प्रकरण पूर्ण हुआ ।। १४ । १५. परगण चर्या आपृच्छ्येतिगणं सर्व, करोत्याराधनाकांक्षी, गन्तुं परगणं प्रति ॥४०० ।। चतुरङ्ग - महोद्यमम् । अर्थ - इस प्रकार अपने सर्वसंघ को पूछ कर चार आराधना रूप महान् उद्यम में प्रयत्नशील और आराधनाकांक्षी आचार्य अन्य संघ के प्रति गमन में उत्सुक होते हैं || ४०० || स्वसंघ में रहने से दोष आज्ञाकोपो गणेशस्य परुषः कलहोऽसुखम् । निर्भय-स्नेह- - कारुण्य-ध्यान-विघ्नासमाधयः || ४०१ || अर्थ - (अपने संघ में रह कर ही समाधि करें तो ) आचार्य की आज्ञाभंग, कठोर वचन, कलह, दुख, निर्भयता, स्नेह, कारुण्य, ध्यान में विघ्न और असमाधि ये दोष होते हैं || ४०१ ॥ आज्ञाभंग उपजाति छन्द परापवादोद्यतयो जरन्तः, शैक्ष्याः खरा युद्धपरानधीनाः । आज्ञाक्षति मंक्षु गणे स्वकीये कुर्वन्ति सूरेरसमाधि - हेतुम् ॥ ४०२ ॥ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका अर्थ - संघ में अनेक प्रकार के साधु रहते हैं। उनमें से कोई वृद्ध साधु पर का अपवाद करने में उद्यत हो जाते हैं, कोई शैक्ष्य साधु या कोई कठोर परिणामी साधु कलह में तत्पर रहते हैं, कोई स्वच्छन्द हो जाते हैं, इस प्रकार के शिष्य आचार्य की आज्ञा का भंग कर देते हैं तब वह आज्ञाभंग ही आचार्य की असमाधि का कारण बन जाता है ||४०२ ॥ - १४३ प्रश्न- शिष्य, आचार्य की आज्ञा का उल्लंघन क्यों करते हैं और यदि आज्ञा उल्लंघन हो भी जाय तो आचार्य की समाधि बिगड़ने की सम्भावना क्यों होती हैं ? उत्तर - संघ में बाल, वृद्ध, रुग्ण, उद्दण्ड, कोपी एवं अभिमानी अनेक प्रकार के साधु रहते हैं। कोई अपराध या श्रमण संहिता का उल्लंघन देख कर आचार्य यदि हितकारी किन्तु कटु या अनुशासन युक्त वचनों द्वारा कुछ कहते हैं, या कोई आज्ञा देते हैं, तब कोई शिष्य आचार्य या संघ का अपयश करते हैं, कोई क्षुद्र अज्ञानी कलह करते हैं, कोई संघत्याग की धमकी देते हैं, कोई कोप करते हैं, कोई वाद-विवाद करते हैं और कोई कटुतापूर्ण उत्तर देते हैं। इस प्रकार आज्ञाभंग आदि होते देख आचार्य के मन में सन्ताप हो सकता है कि देखो, मैंने जीवन भर इनका सम्पोषण कर योग्य बनाया और आज ये मेरा जीर्ण अवस्था देख अवज्ञा कर रहे हैं। यह सन्ताप उनकी समाधि में बाधक बन सकता है। इन्द्रवज्जाछन्द व्यापार- हीनस्य ममत्व - हाने:, संतिष्ठमानस्य गणेऽन्यदीये । नाज्ञा - विघाते विहितेऽपि सूरेरेतैरशेषैरसमाधिरस्ति ।।४०३ ॥ अर्थ - समाधि की इच्छा से पर संघ में पहुँच जाने पर वहाँ भी आज्ञा भंग हो सकती है किन्तु संघ का कोई उपकारादि कार्य न किये जाने से और ममत्वभाव की हीनता से आचार्य को सन्ताप नहीं होता, अतः उनकी असमाधि नहीं होती ||४०३ ॥ परुष दोष शालिनी छन्द बालान्वृद्धान्शैक्षकान्दुष्टचेष्टान् दृष्ट्वा सूरिर्निष्ठुरं वक्ति वाक्यम् ।। किञ्चिद्राग-द्वेष- मोहादि युक्ताः, ते वा ब्रूयुः संस्तव प्राप्त - धायः ॥ ४०४ ॥ अर्थ - अपने संघ में रहनेवाले बाल, वृद्ध एवं शैक्ष्य आदि साधुओं की दुष्ट चेष्टा को देखकर आचार्य उन्हें निष्ठुर वचन बोल देते हैं, अथवा अपनी प्रसिद्धि के कारण राग, द्वेष एवं मोहादि से युक्त वे मुनि धृष्टतापूर्वक आचार्यदेव को कठोर वचन बोल देते हैं। इस प्रकार परस्पर कठोर वचनों के आदान-प्रदान से असमाधि होने की सम्भावना रहती है ॥ ४०४ ॥ कलह दोष उपजाति छन्द वाक्याक्षमायामसमाधिकारी, सूरेः समं तैः कलहो दुरन्तः । 1 दोषास्ततो दुःख - विषाद-खेदाः भवन्ति सर्वेष्वनिवारणीयाः ||४०५ ।। Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणोण्डका -१४४ अर्थ - गुरु के शिक्षावाक्यों को सहन न कर सकने के कारण आचार्य की उन उद्दण्ड शिष्यों के साथ आचार्य की असमाधि करानेवाला महान् कलह हो सकता है। यह कलह अनिवार्य रूप से दुख, विषाद और खेद आदि दोषों को उत्पन्न कर देता है।।४०५ ।। प्रश्न - कलह नामक दोष कैसे होता है? उत्तर - स्व संघ में रहनेवाले समाधिस्थ आचार्य द्वारा शिक्षा के वचन कहे जाने पर या कोई आज्ञा प्रसारित किये जाने पर संघ के स्थविर आदि कोई भी साधु कलह कर उठते हैं कि ये आचार्य सदैव हमें ही डाँटते हैं, या आज्ञा देते हैं, या उपदेश देते हैं, हम क्या अज्ञानी हैं? हम क्या श्रमण संहिता अथवा समाचार विधि नहीं जानते हैं ? इत्यादि। ऐसे कलह से आचार्य के मन में असमाधि करानेवाले दुख, खेद या विषाद का प्रादुर्भाव हो सकता है। अथवा 'ये आचार्य हमें कष्ट देते हैं ऐसा सोचकर शिष्य समुदाय में भी खेद, दुख आदि का प्रादुर्भाव हो सकता है, वह भी आचार्य की असमाधि का कारण है। गणेन साकं कलहादि-दोष, कुर्वत्सु बालादिषु दुर्धरेषु। गणाधिपस्य स्वगण-प्रवृत्तेर्ममत्व-दोषादसमाधिरस्तु ।।४०६ ।। अर्थ - संघ के साथ कलह आदि करने में तत्पर बाल-वृद्धादि धृष्ट मुनियों को देखकर असमाधि करानेवाला ममत्व भाव आचार्य के मन में उत्पन्न हो सकता है। अर्थात् स्वगण को झगड़ते देख कर स्नेह-वश भी आचार्य का मन अशान्त हो सकता है, अत: आचार्य को स्व संघ में रह कर समाधि नहीं करनी चाहिए ।।४०६ ।। दुख दोष उपेन्द्रवजा छन्द परीषहै?रतमैः स्व-संघ, निरीक्ष्यमाणस्य निपीड्यमानम्। गणे स्वकीये परमोऽसमाधिः, प्रवर्तते सङ्घपतेरवार्यः ।।४०७ ।। अर्थ - घोरतम परीषहों द्वारा अपने संघ को पीड़ित देखकर स्त्र संघ में रहनेवाले संघाधिपति आचार्य के मन में अशान्ति अर्थात् दुख होना अनिवार्य है, जो उनकी असमाधि का ही कारण है ॥४०७ ।। निर्भय दोष परीषहेषु विश्वस्त:, स्वगणे निर्भयो भवन् । याचते किञ्चनाकल्पं, सेवते भाषते स्फुटम् ॥४०८॥ अर्थ - समाधिस्थ आचार्य यदि अपने ही संघ में रहते हैं तो भूख-प्यास, ठण्डी, गर्मी आदि परीषह आ जाने पर स्वगण में अर्थात् अपने ही शिष्यगण होने से विश्वस्त होते हुए निर्भयतापूर्वक अर्थात् भय और लज्जा को छोड़कर कुछ भी अयोग्य वस्तु की याचना अथवा त्यागी हुई वस्तु का सेवन कर सकते हैं, तथा समझाये जाने पर निर्भय होकर कुछ भी अयोग्य वचन स्पष्टरूप से कह सकते हैं॥४०८ ।। स्नेह दोष बालाः स्वाङ्कोचिता दृष्टा, वृद्ध्या विह्वल-विग्रहाः। अनाथाशार्यिकाः स्नेह, जनयन्ति गुरोस्तदा ॥४०९॥ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकाण्डका - १४५ __ अर्थ - जिन्हें बचपन से अपनी गोद में बैठा कर पालन किया है ऐसे बालमुनि, वृद्धमुनि एवं आर्यिकाओं को अपने वियोग से अनाथ जैसे विह्वल होते देख गुरु के मन में स्नेह उमड़ सकता है, जो उनकी असमाधि का कारण है।।४०९॥ करुणा एवं ध्यान में विघ्न नामक दोष आर्यिकाः क्षुल्लिकाः क्षुल्लाः, कारुण्यं कुर्वते यतः। ध्यानविघ्नोऽसमाधिश्च, जायते गणिनस्ततः ।।४१० ॥ अर्थ - बाल मुनि, आर्यिका, क्षुल्लक और क्षुल्लिका आदि गुरु को समाधिस्थ देख या उनका वियोग होते देख रो पड़ते हैं, जिन्हें देख कर गुरु को करुणा उमड़ पड़ती है, उससे ध्यान में विघ्न आ जाता है और आचार्य को अशान्ति हो जाती है ।।४१० ॥ असमाधि दोष गणिन: प्रैष्य-शुश्रूषा-भक्तपानादि-कल्पने। स्व-गणेप्यसमाधानं, शिष्यवर्गे प्रमाद्यति ॥४११॥ आई - प्रैट का अर्थात् आमार्य के द्वारा कार्यवशात् अन्यत्र कहीं भेजे जाने में, या हस्त, पैर एवं शरीरादि का मर्दन करने में या आहार, पान तथा औषधि आदि की व्यवस्था में शिष्य वर्ग प्रमाद करता है तो आचार्य की असमाधि हो सकती है अर्थात् स्वसंघ में समाधिग्रहण में ऐसे प्रसंगों पर आचार्य के मन में विकल्प उठना स्वाभाविक है कि 'हमने इन शिष्यों का जीवन भर उपकार किया और आज अक्सर आने पर ये हमारी इतनी भी सेवा नहीं करते' । इस प्रकार के आर्त-रौद्र ध्यान से समाधि बिगड़ सकती है, अत: आचार्य को स्वसंघ में समाधि नहीं करनी चाहिए ॥४११॥ स्व संघ में समाधि करने से अन्य साधुओं को भी दोष लगते हैं एते दोषाः सन्ति सङ्घ स्वकीये, सूरेः साधोस्तादृशस्यापि यस्मात् । तस्मात् त्यक्त्वा त्वं समाधानकांक्षी, धीरः सचं स प्रयात्यन्यदीयम् ।।४१२ ॥ अर्थ - ये दोष विशेष रूप से अपने संघ में रह कर समाधि करनेवाले आचार्य के होते हैं। आचार्य के ही सदृश अन्य भी उपाध्याय एवं प्रवर्तक आदि संघ का उपकार करनेवाले जो-जो साधु अपने गण में रह कर समाधिमरण करते हैं उन्हें भी ये दोष होते हैं, अत: समाधि के इच्छुक धीर आचार्य स्वसंघ को छोड़कर दूसरे संघ में जाते हैं॥४१२ ।। अन्य संघ में इन दोषों की सम्भावना नहीं है भवन्ति दोषा न गणेऽन्यदीये, संतिष्ठमानस्य ममत्व-बीजम्। गणाधिनाथस्य ममत्वहानेविना निमित्तेन कुतो निवृत्तिः? ॥४१३॥ अर्थ - अन्य संघ में जानेवाला आचार्य वहाँ ममत्वहीन होकर रहता है, अत: ममत्व का बीज अर्थात् ममत्व का कारण न होने से पूर्वोक्त दोष भी वहाँ नहीं लगते, क्योंकि बिना निमित्त निवृत्ति कैसे हो ॥४१३|| Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - १४६ प्रश्न - 'बिना निमित्त निवृत्ति कैसे हो इसका क्या भाव है? उत्तर - इसका भाव यह है कि कारण के बिना कार्य नहीं होता। ममता का निमित्त स्वसंघ-निवास है क्योंकि अपनत्व भाव बिना ममता का भाव जाग्रत नहीं होता। यह मेरा है' यही भाव तो ममता का उत्पादक है। इसी प्रकार ममता के अभाव का निमित्त परसंघनिवास है क्योंकि वहाँ ममता का कारण मम भाव नहीं है। यह ममता का अभाव ही मोक्ष का कारण है। इसीलिए कहा गया है कि बिना निमित्त निवृत्ति अर्थात् मोक्ष कैसे"। पर-गण-प्रवेश श्रेष्ठ है गणे स्वकीयेऽपि गुणानुरागी, सत्यस्मदीयं गणमागतोऽयम् । मत्येति भक्त्या निजया च शक्त्या, प्रवर्तते तस्य गणः स्व-कृत्ये ॥४१४॥ अर्थ - अपना गण होते हुए भी ये हमारे गुणों में अनुरागी होकर यहाँ आये हैं, ऐसा मान कर परगणवासी मुनिसमुदाय पूर्ण आदर-भक्ति और अपने सामर्थ्य के अनुसार उनकी सेवा करने के लिए कटिबद्ध हो जाते हैं, अतः पर-गण में प्रवेश करना ही श्रेष्ठ है ||४१४।। निर्यापकाचार्य ऐसा होना चाहिए गृहीतार्थो गणी प्रार्थ्यः, क्षपकस्योपसेदुषः। निर्यापकश्चरित्रादयो, जायते सर्व-यत्नतः॥४१५॥ अर्थ - उस क्षपक का निर्यापकाचार्य अनेक समाधिकाक्षी मुनियों द्वारा प्रार्थ्य हो, जीवादि पदार्थों का वेत्ता हो और चारित्र में दृढ़ हो, सर्व प्रयत्नपूर्वक ऐसा निर्यापकाचार्य खोजना चाहिए ।।४१५ ।। संविग्नस्याघ-भीतस्य, पादमूले व्यवस्थितः। अहंदागम-सारस्य, भवत्याराधको यतिः॥४१६॥ इति परगण-चर्या-सूत्रम् ॥१५ ।। अर्थ - जो संसार और पाप से भयभीत है तथा अर्हन्त प्रणीत आगम के हार्द का ज्ञाता है, ऐसे निर्यापकाचार्य के पादमूल को प्राप्त होनेवाला साधु ही आराधनाओं का अर्थात् समाधि का साधक होता है।४१६॥ इस प्रकार परगण-चर्या नामक सूत्र पूर्ण हुआ ॥१५॥ १६. मार्गणा सूत्र पञ्च षट् सप्त वा गत्वा, योजनानां शतानि सः। निर्यापकमनुज्ञातुं, समाधानाय मार्गति ।।४१७ ॥ अर्थ - समाधि का इच्छुक साधु पाँच सौ, छह सौ, सात सौ योजन अथवा उससे भी अधिक जाकर अपनी आत्मसंतुष्टि के लिए या कार्यसिद्धि के लिए शास्त्रोक्त गुणों से युक्त निर्यापकाचार्य को खोजता है॥४१७ ॥ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - १४० मार्गण का काल प्रमाण एक द्वि- त्रीणि चत्वारि, वर्षाणि द्वादशापि च । निर्यापकमनुज्ञातं स मार्गयति निःश्रमः || ४१८ ॥ अर्थ - एक वर्ष, दो वर्ष, तीन वर्ष या चार वर्ष पर्यन्त अथवा श्रम का अनुभव न करते हुए वे समाधिइच्छुक आचार्य बारह वर्ष पर्यन्त निर्यापकाचार्य की खोज करते रहते हैं ॥४१८ ॥ निर्यापकाचार्य अन्वेषी के पाँच विशिष्ट कर्तव्य एकरात्र - तनूत्सर्ग, प्रश्न - स्वाध्याय पण्डितः । सर्वत्रैवाप्रतीबन्धः, स्थाण्डिलः साधु-संयुतः ॥४१९ ॥ अर्थ - एक रात्रि प्रतिमायोग, प्रश्न कुशलता, स्वाध्याय कुशलता, स्थानादि में अप्रतिबद्धता और साधु- संयुक्तता ये पाँच विशिष्ट कर्तव्य निर्यापकाचार्य की खोज करनेवाले आचार्य के होते हैं ।।४१९ || यद्यपि प्रस्थितो मले, सुरेरालोचनापर: । सम्पद्यते तरां मूकस्तथाप्याराधको मतः ॥ ४२० ॥ अर्थ - "मैं गुरु के निकट जाकर आलोचना करूँगा”, ऐसा संकल्प करके गुरु के समीप जाने के लिए जो आचार्य निकले हैं, वे यदि मार्ग में ही दैववशात् मूकावस्था को प्राप्त हो जायें तो भी वे आराधक ही माने जाते हैं ||४२० ॥ यद्यपि प्रस्थितो मूले, सूरेरालोचना परः । विपद्यतेऽन्तरालेऽपि तथाप्याराधकोस्ति सः ।।४२१ ।। गुरु जाने के लिए अर्थ - "मैं गुरु के पास जाकर आलोचना करूँगा” ऐसा संकल्प लेकर जो निकला है वह यदि मार्ग में ही मर जाय तो भी वह आराधक अर्थात् समाधिमरण करनेवाला माना जाता है ।। ४२१ ।। आलोचना- प्रवृत्तस्य गच्छतः सूरि-सन्निधिम् । यद्यप्यस्त्यमुखः सूरिस्तथाप्याराधकोऽस्ति सः ।।४२२ ॥ के पास अर्थ - आलोचना करने के संकल्प से जो गुरु के पास पहुँच रहा है और यदि अनायास वह आचार्य बोलने में असमर्थ हो जावे तो भी वह आराधक है ।। ४२२ ॥ आलोचना- प्रवृत्तस्य, गच्छतः सूरि- सन्निधौ । यद्यपि म्रियते सूरिस्तथाप्याराधकोस्ति सः ||४२३ ॥ अर्थ - आलोचना करने के संकल्प से जिस गुरु के पास आलोचना करने जा रहा था वे गुरु अर्थात् आचार्य यदि मरण को प्राप्त हो जावें तो भी वह आराधक है ॥४२३ ॥ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - १४८ आलोचना किये बिना भी आराधक होने का कारण संवेगोद्वेग-सम्पन्नः, शुद्ध्यर्थं गच्छत्यसौ यतः। मनःशल्यं निराकर्तु, भवत्याराधकस्ततः॥४२४ ॥ अर्थ - जो माया शल्य को निकाल कर रत्नत्रय की शुद्धि के लिए आचार्य के समीप जा रहा है तथा संवेग और उद्वेग से सहित है वह यदि कारण विशेष से आलोचना न भी कर पावे तो भी वह आराधक है।।४२४ ।। प्रश्न - संवेग, उद्वेग एवं माया शल्य किसे कहते हैं और आलोचना किये बिना साधु आराधक कैसे हो सकता है? उत्तर - संसार से भयभीत होना संवेग है। शरीर की अशुचिता, असारता और दुखदायकता देखकर तथा इन्द्रियजन्य सुखों को अतृप्तिकारक एवं तृष्णावृद्धि का कारण जान कर उनसे विरक्त होना उद्वेग है। तथा किये हुए अपराधों की आलोचना न करना मायाशल्य है। हृदय में मायाशल्य रहते रत्नत्रय की शुद्धि नहीं होती और रत्नत्रय की शुद्धि बिना सुसमाधि नहीं होती। समाधिकांक्षी जो आचार्य ऐसे संवेग और उद्वेग-से सम्पन्न हैं तथा मायाशल्य का विसर्जन करने का दृढ़ संकल्प लेकर ही गुरु के पास जा रहे हैं, भाग्यवशात् गुरु न मिल सके और आलोचना न हो सके तो भी अभिप्राय शुद्ध होने से उनकी समाधेि में कोई बाधा उत्पन्न नहीं होती गुरु-अन्वेषक को मार्ग में प्राप्त होने वाले गुण आचार-जीद-कल्पानां, जायते गुणदीपना। गुणाः स्वशुद्ध्यसंक्लेशौ, मार्दवार्जव-चतुष्टयम् ।।४२५॥ अर्थ - गुरु-अन्वेषक आचार्य को मार्ग में आचार-शास्त्र, जीदशास्त्र और कल्पशास्त्र के गुणों का प्रकाशन, अपनी परिणाम-शुद्धि, संक्लेश का अभाव, मार्दव एवं आर्जव इन चार गुणों की प्रामि होती है।४२५॥ प्रश्न - इन गुणों के लक्षण क्या हैं? उत्तर - निर्यापक अन्वेषक आचार्य रत्नत्रय की शुद्धि का प्रयत्न कर रहे हैं और आचार विशेष के प्रतिपादक आचार, जीद और कल्प ग्रन्थ निरतिचार रत्नत्रय का ही प्रकाशन करते हैं, अतः अन्वेषक का प्रयत्न इन शास्त्रोक्त आचरणों का ही प्रगटीकरण कर रहा है। रत्नत्रय की शुद्धि का लक्ष्य होने से आत्मा की शुद्धि होती है। संक्लेश परिणाम तो नष्ट होते ही हैं किन्तु गुरु-अन्वेषण में मार्ग-गात जो कष्ट हो रहा है उसमें भी वे संक्लेश नहीं करते हैं। कपटरहित आलोचना करने के लिए ही गुरु की खोज कर रहे हैं अत: आर्जव गुण प्रगट हो रहा है। तथा परसंघ में जाने से और वहाँ जाकर 'दोष प्रगट करूंगा' इस संकल्प से मार्दव गुण प्रगट होता Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परणकण्डिका - १४१ अतिथि क्षपक को देख पर-गणवासी साधुओं की समाचारी का क्रम आलोक्य सहसायान्तमभ्युत्तिष्ठन्ति संयताः।। आना-संगह-सात्सल्य-मा-कृत बिलाः॥४२६ ॥ अर्थ- अन्वेषक अतिथि मुनि को आता देख आज्ञापालन, संग्रह, वात्सल्य तथा प्रणाम हेतु सब संयत जन शीघ्र ही खड़े हो जाते हैं ।।४२६॥ प्रश्न - खड़े हो जाने मात्र से आज्ञापालन आदि का द्योतन कैसे हो जायेगा ? उत्तर - अतिथि मुनि को आता देख यदि परगणवासी साधु सहसा खड़े हो जाते हैं तो वे जिनेन्द्राज्ञानुवर्ती हैं, आगत मुनि को आपने स्वीकार कर लिया, यह प्रगट हो जाता है। आपका उनके प्रति वात्सल्य भाव है, यह भी ज्ञात हो जाता है, आप अतिथि के चरणों में नमन करने के लिए खड़े हुए हैं ऐसा आभास हो जाता है और आनेवाले साधु का आचरण भी इस उपाय से जाना जाता है, इसलिए आगत मुनि को देख कर शीघ्र ही खड़े हो जाना चाहिए। वास्तव्यागन्तुकाः सम्यक्, विविधैः प्रतिलेखनैः। क्रिया-चारित्र-बोधाय, परीक्षन्ते परस्परम् ।।४२७ ।। अर्थ - वास्तव्यमुनि और आगन्तुक मुनि एक दूसरे की क्रिया और चारित्र का ज्ञान करने के लिए नाना प्रकार के प्रतिलेखनों द्वारा भली प्रकार से परस्पर परीक्षा करते हैं ॥४२७ ॥ प्रश्न - ये दोनों परस्पर परीक्षा क्यों और किसकी करते हैं ? उत्तर - आगत क्षपक और गण के वास्तव्य ये दोनों मुनि एक दूसरे के आचरण को परीक्षा पूर्वक देखते हैं। यहाँ क्रिया से छह आवश्यकों का और चारित्र से समितियों तथा गुप्तियों का ग्रहण किया गया है अर्थात् एक दूसरे की क्रिया एवं चारित्र की सदोषता या निर्दोषता की परीक्षा करते हैं। अथवा आचार्यों के उपदेश में भेद होने से साधुओं का समाचार अनेक प्रकार का है अत: दुरवगम है, उसका जानना कठिन है, उसे जानने के लिए एक दूसरे की परीक्षा करते हैं। अथवा यह साधु हमारे संघ में रहने योग्य है या नहीं, यह जानने के लिए परीक्षा करते हैं। परीक्षा के प्रकार आवश्यके ग्रहे क्षेपे, स्वाध्याये प्रतिलेखने। परीक्ष्यन्ते वचोमार्गे, विहाराहारयोरपि ॥४२८॥ अर्थ - छह आवश्यक क्रिया, वस्तुओं का उठाना और रखना, स्वाध्याय में तत्परता, प्रतिलेखन अथवा कमण्डलु आदि का शोधन, वार्तालाप अर्थात् गृहस्थजैसे या मिथ्यात्ववर्धक आदि वचन बोलते हैं या संयमी के योग्य बोलते हैं; विहार समितिपूर्वक है या नहीं, नीहार प्रासुक एवं गूढ़ भूमि पर करते हैं या नहीं तथा आहार में शुद्धता एवं गृद्धता आदि क्या कैसी है, इन सबका परस्पर में परीक्षण करते हैं।।४२८ ।। Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - १५० आगन्तुक मुनि को साहाय्य देना चाहिए देयः सङ्घाटकोऽलयमागताय दिन-गया। असंस्तुतस्य यत्नेन, शय्या-संस्तरकावपि ॥४२९॥ अर्थ - संघाटक का अर्थ है सहायता प्रदान करना। आगत मुनि को तीन दिन तक सहाय प्रदान अवश्य करना चाहिए। तथा रहने को वसतिका और चटाई आदि संस्तर देना चाहिए । यद्यपि अभी उनकी परीक्षा नहीं ली है इससे वह साथ में आचरण योग्य नहीं है तथापि उन्हें साहाय्य देना चाहिए ॥४२९ ।। तीन दिन के उपरान्त का कर्तव्यय सङ्घाटको न दातव्यो, नियमेन ततः परम् । यतेर्युक्त-चरित्रस्य, शय्या-संस्तरकावपि।।४३० ।। अर्थ - आगत मुनि का चारित्र युक्त भी हो तो भी बिना परीक्षा किये तीन दिन के बाद उन्हें साहाय्य नियमतः नहीं ही देना चाहिए, वसतिका एवं संस्तर भी नहीं देना चाहिए ।।४३० ॥ प्रश्न - चारित्र युक्त होते हुए भी तीन दिन बाद साहाय्य क्यों नहीं देना चाहिए ? उत्तर - मार्ग की थकावट आदि के कारण तीन दिन तक परीक्षादि लेने का निषेध है, अत: तीन दिन के बाद यदि वह गण में रखने योग्य नहीं है तब तो साहाय्य देना योग्य ही नहीं है किन्तु यदि उनका आचरण तो योग्य दिखता है परन्तु अभी परीक्षा पूर्ण नहीं हो पाई है तो भी उन्हें संघ में आश्रय, वसतिका एवं संस्तर नहीं देना चाहिए। बिना परीक्षा साहाय्य देने में दोष गृह्णानस्य यते: सूरेरनिराकृत-दूषणम् । उद्गमोत्पादनाहार-दोष-शुद्धिर्न जायते॥४३१ ॥ अर्थ - आगत मुनि के उद्गमादि दोषों को दूर किये बिना ही यदि उसे ग्रहण कर लिया जाता है तो ग्रहण करनेवाले आचार्य के भी उद्गम, उत्पादन और एषणा आदि दोषों की शुद्धि नहीं होती। अर्थात् यदि आगत मुनि दोषी होते हुए भी आलोचना नहीं करता है और आचार्य उन्हें ग्रहण कर लेते हैं तथा संघ को उनके साथ रहने की अनुमति देते हैं तो उनकी अनुमोदना के भागीदार हो जाने से आचार्य और उनका संघ भी अशुद्ध ही होगा ।।४३१॥ स प्रणम्य गणनायकं विधा, भाषते निशि दिवाथ संश्रितः । आगमस्य विनयेन कारणं, सिद्धये न विनयं विना क्रिया ।।४३२ ।। अर्थ - आगत मुनि मन, वचन, काय से आचार्य को नमस्कार कर तथा दिन-रात उनके आश्रय में रह कर विनयपूर्वक अपने आने का कारण कहता है, क्योंकि विनय के बिना की गई क्रिया कार्यसिद्धि के लिए नहीं होती ॥४३२॥ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - १५१ विश्राम्यासा सत्यमुतुकामः, श्रान्त: स्थित्वा वासरं तं द्वितीये। तत्राचार्य ढोकते वा तृतीये, न प्रारब्धं साधवो विस्मरन्ति ॥४३३ ।। ॥ इति मार्गणा सूत्रम् ॥१६॥ अर्थ - मार्ग के श्रम से थका हुआ आगत मुनि प्रथम दिन तो विश्राम करता है। पश्चात् दूसरे या तीसरे दिन अपनी शल्य को दूर करने के लिए वहाँ के आचार्य के समीप उपस्थित होता है। ठीक ही है, क्योंकि साधुजन प्रारम्भ किये हुए कार्य को भूलते नहीं हैं अर्थात् जिस कार्य के लिए आये हैं उसका विस्मरण नहीं होने देते ॥४३३॥ इस प्रकार मार्गणा सूत्र पूर्ण हुआ।।१६।। सुस्थितादि अधिकार १७. सुस्थित उपसम्पदा निर्यापकाचार्य के गुण आचारी सूरिराधारी, व्यवहारी प्रकारकः । आयापश्यदृगुत्पीद्धि, सुखकार्यपरिसवः ॥४३४ ।। अर्थ - आचारवान्, आधारवान्, व्यवहारवान्, प्रकारक अर्थात् कर्ता, आयापायदृग्, उत्पीड़क, सुखकारी और अपरिस्रावी ये आठ गुण निर्यापकाचार्य में होने चाहिए ||४३४ ।। एभिर्निर्यापकः सूरिर्गुणैरष्टभिरन्वितः । दातुमाराधनामीशः, पृथु-कीर्तिरुपेयुषे ॥४३५॥ अर्थ - निर्यापक आचार्य इन आठ गुणों से समन्वित होता है, वह विशाल कीर्ति युक्त होता है और आगत साधु को आराधना अर्थात् समाधि देने में समर्थ होता है ।।४३५ ।। आचारवत्त्वगुण का विवेचन आचारी स मतः सूरिरतिचार-निराकृतम् । चर्यते चार्यते येन, पञ्चाचारोऽनुमन्यते ॥४३६ ।। अर्थ - जो निरतिचार पंचाचार का स्वयं पालन करता है और दूसरों से भी पालन कराता है वह आचार्य आचारवान् कहा जाता है ।।४३६ ।। Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - १५२ प्रश्न - पंचाचार किसे कहते हैं ? उत्तर - पाँच प्रकार के स्वाध्याय में तत्पर रहना ज्ञानाचार है, जीवादि तत्त्वों के श्रद्धानरूप परिणत होना दर्शनाचार है। हिंसादि से निवृत्तिरूप परिणत होना चारित्राचार है, बारह प्रकार के तपों में परिणत रहना तपाचार है और तप में अपनी शक्ति न छिपाना वीर्याचार है। अन्य प्रकार से आचारवत्त्व गुण का निर्देश दशधा स्थितिकल्पे वा, सुस्थितो गत-दूषणे। आचारी कथ्यते युक्तः, सूरिरागम-मातृभिः ।।४३७ ॥ अर्थ - दोष रहित दश प्रकार के स्थितिकल्प में जो स्थित रहता है तथा तीन गुप्ति और पाँच समिति रूप अष्ट प्रवचन माता से युक्त होता है, वह आचार्य आचारवान् कहा जाता है ।।४३७ ।। दश प्रकार के स्थितिकल्प अचेलकत्वमुद्दिष्ट-शय्येशाहार-वर्जने । राजपिण्ड-विवर्जित्वं, कृतिकर्म-प्रवर्तनम् ।।४३८॥ व्रतप्ररोहणाहत्त्वं, ज्येष्ठत्वं च प्रतिक्रमः। मासैकत्र स्थितिः पर्या, स्थितिकल्पा दशेरिताः ।।४३९॥ अर्थ - अचेलकत्व, उद्दिष्टत्याग, शय्याधर आहारत्याग, राजपिंडत्याग, कृतिकर्मप्रवृत्त, व्रतारोपण अर्हत्व, ज्येष्ठत्व, प्रतिक्रम, मासैकवासिता और पर्या ये दश स्थिति कल्प हैं॥४३८-४३९॥ प्रश्न - इन दश कल्पों के क्या लक्षण हैं? उत्तर - १. अचेलकत्व स्थिति कल्प - चेल नाम वस्त्र का है। वस्त्र का त्याग अचेलक है किन्तु यह उपलक्षण है क्योंकि सर्व परिग्रह के त्याग को ही अचेलक्य कहते हैं। सर्व परिग्रह का त्याग करनेवाले यति विरागभाव को प्राप्त हो जाने से उत्तम क्षमादि दश धर्मों के पालक होते हैं। १. वस्त्रग्रहण महान् असंयम का कारण है अतः अचेलता में संयमशुद्धि नाम का गुण है। २. विद्याहीन पुरुष सी से त्र्याप्त वन में जैसे अत्यन्त सावधानी पूर्वक रहता है, उसी प्रकार अचेलक यति इन्द्रियों को वश में रखने की पूर्ण सावधानी रखते हैं, अत: अचेलता में इन्द्रिय-विजेता नाम का गुण है। ३. वस्त्रग्रहण क्रोध, मान, माया और लोभ इन चारों कषायों की उत्पत्ति का कारण है, अत: अचेलता में कषायनिग्रह नाम का गुण है। ४. अचेल हो जाने पर स्वाध्याय और ध्यान में निर्विघ्नता रहती है। ५. अचेलता में परिग्रहत्याग नाम का महान् गुण है। ६. राग-द्वेष बाह्य द्रव्य के अवलम्बन से होते हैं, अतः अचेलता में राग-द्वेष का अभाव नाम का गुण Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - १५३ ७. शरीर से रागभाव होने के कारण मनुष्य असंयम एवं परिग्रह में प्रवृत्ति करता है, अत: शरीर में अनादर भाव अचेलता का गुण है। ८. चेलधारी को देशान्तर जाने के लिए साहाय्य की आवश्यकता होती है और सहायता पराधीन होती है, अत; अचेलता में स्वाधीनता नामक गुण होता है। ९. वस्त्रधारी को भावशुद्धि का ज्ञान नहीं हो पाता, अतः अचेलता में चित्त की विशुद्धि को प्रगट करने का भी गुण है। १०. इस प्रकार अचेलता में निर्भयता, प्रतिलेखना का अभाव, वस्त्र को सीना, बाँधना, सुखाना, उठाना आदि रूप परिकर्म का अभाव, निष्परिग्रही होने से लघुता और तीर्थंकरों के मार्ग का उद्योत, ये सभी गुण समाविष्ट हैं। इस प्रकार वस्त्रधारण में अपरिमित दोष और अचेलता में अपरिमित गुण होने से अचेलता को स्थितिकल्प रूप से कहा गया है। २. औद्देशिक त्याग स्थितिकल्प - श्रमणों के उद्देश्य से बनाये गये भोजन आदि को औद्देशिक कहते हैं। अध:कर्म आदि के भेद से उसके सोलह प्रकार हैं। प्रथम और अन्तिम तीर्थंकरों के तीर्थगत साधुओं द्वारा यह सोलह प्रकार का औद्देशिक त्याग करने योग्य है। ३. शय्याधर पिण्डत्याग स्थितिकल्प - शय्याधर तीन प्रकार के होते हैं। वसतिका बनाने वाले, वसतिका का जीर्णोद्धार करानेवाले और जो मात्र वसतिका देते हैं कि आप यहाँ ठहरिये। इन तीनों प्रकार के दाताओं द्वारा दिया हुआ आहार, पीछी, कमण्डलु आदि शय्याधर पिण्ड है, उसका त्याग करना चाहिए। ४. राजपिण्डत्याग स्थितिकल्प - प्रजा का पालन और दुष्टों से रक्षण कर जो प्रजा का अनुरंजन करता है उसे, तथा उसी के सदृश महाऋद्धि या सम्पत्तिवान् को राजा कहते हैं। ऐसों का पिण्ड ग्रहण करना राजपिण्ड है। यह आहार, अनाहार और उपधि के भेद से तीन प्रकार का है। आहार - खाद्य, स्वाद्य, लेह्य और पेय के भेद से आहार चार प्रकार का है। अनाहार - तृण, फलक, आसनादि पदार्थ अनाहार हैं। उपधि - पीछी, कमण्डलु एवं वस्त्रादि उपधि हैं। ऐसा राजपिण्ड लेने में बहुत दोष आते हैं, अत: राजपिण्ड का त्याग कर देना चाहिए, किन्तु यदि कोई ऐसा कारण उपस्थित हो जाय कि आहार के बिना साधु का प्राणान्त हो रहा हो और साधु के मरण से श्रुत का विच्छेद हो रहा हो तो श्रुत की रक्षा हेतु राजपिण्ड ग्रहण किया जा सकता है। ५. कृतिकर्मप्रवृत्त स्थितिकल्प - छह आवश्यक क्रियाएँ आवर्त, शिरोनति, दण्डक और कायोत्सर्ग आदि से युक्त होती हैं, उन सब आवश्यकों को यथाविधि करना, अथवा चारित्रसम्पन्न मुनि का, गुरु का एवं अपने से बड़े साधुओं का विधिपूर्वक विनय करना कृतिकर्मप्रवृत्त स्थितिकल्प है। ६. व्रतारोपण अर्हत्व स्थिति कल्प - यह शिष्य व्रत धारण के योग्य हैं या नहीं इस प्रकार के परीक्षण की बुद्धि आचार्यों में अवश्य होनी चाहिए। जो अचेलकपने में स्थित रह सकता है, उद्दिष्ट आदि दोषों Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - १५४ का त्याग कर सकता है, गुरुभक्ति से ओत-प्रोत है और विनीत है, वहीं व्रतों को धारण करने का पात्र है। ऐसे योग्य मुमुक्षु भव्य जीवों को पाँच महाव्रत और पाँच समिति आदि व्रों से सम्पन्न कर देना व्रतारोपण अर्हत्व स्थितिकल्प है। पाँच महाव्रतों की निर्दोष पालना हेत रात्रिभोजन त्याग नामक छठे व्रत का भी पालन करना चाहिए। अहिंसा' व्रत का विषय सम्पूर्ण जीवराशि है। अर्थात् इस व्रत में सब जीवों की हिंसा का त्याग किया जाता है। अचौर्य महाव्रत और अपरिग्रह महाव्रत का विषय सम्पूर्ण द्रव्य है क्योंकि जिसका कोई स्वामी है ऐसा कोई भी द्रव्य बिना दिये ग्रहण नहीं करना ही अचौर्य-महाव्रत है। सर्वद्रव्य का त्याग करना ही पाँचवाँ महाव्रत है। शेष दो महाव्रत द्रव्यों के एकदेश को विषय करते हैं। प्रश्न - दो महाव्रत द्रव्यों के एकदेश को विषय करते हैं, ऐसा क्यों कहा गया है ? उत्तर - इसका कारण ग्रन्थ में नहीं दिया गया है किन्तु चिन्तन से ऐसा अनुभव हो रहा है कि सब द्रव्यों का यथार्थ और प्रत्यक्ष जानना केतलज़ान का विषय है। यहाँ क्षयोपशम ज्ञान है, अत: सब द्रव्य ग्रहण नहीं किये गये हैं, इतना अवश्य है सत्यमहाव्रती साधु बुद्धिपूर्वक नौ कोटि से असत्य-भाषण का त्याग करता शील के अठारह हजार गुण चौदहवें गुणस्थान में पूर्ण होते हैं। सम्भवत: इसी कारण ब्रह्मचर्य महाव्रत का विषय भी द्रव्य का एकदेश कहा गया है। ७. ज्येष्ठ स्थितिकल्प - संग्रह, उपकार और रक्षा करने के सामर्थ्य को पुरुषत्व कहते हैं । यह पुरुषत्व पुरुष में होता है, धर्मप्रवर्तन पुरुष के द्वारा होता है तथा पुरुषार्थ के अन्तिम फल मोक्ष को भी पुरुष ही प्राप्त करता है, अत: चिरकाल से दीक्षित और पाँच महाव्रतों की धारी आर्यिका से तत्काल का दीक्षित भी पुरुष ज्येष्ठ होता है। इसलिए सब आर्यिकाओं को साधु की विनय करनी चाहिए। अथवा चारित्रादि की विशिष्टता के कारण मुनि समुदाय में आचार्य की ज्येष्ठता होती है। ८. प्रतिक्रम स्थितिकल्प - अचेलता आदि स्थितिकल्पों में दोष लग जाने पर साधु को प्रतिक्रम करना चाहिए। दैवसिक, रात्रिक, इत्तिरिय अर्थात् ईपिथिक भिक्षाचर्या, पाक्षिक, चातुर्मासिक, साम्वत्सरिक और उत्तमार्थ के भेद से प्रतिक्रमण के सात भेद हैं। आदिनाथ और महावीर स्वामी के तीर्थगत साधुओं को प्रतिक्रमण प्रतिदिन करना ही चाहिए. ऐसा आगम का उपदेश है। ९. मासैकवासिता स्थितिकल्प - वसन्त आदि ऋतुओं में से प्रत्येक ऋतु में एक मास पर्यन्त मुनि एक स्थान पर निवास कर सकते हैं और एक माह विहार करते हैं। एक ही स्थान पर चिरकाल तक रहने से उद्गमादि दोषों का परिहार अशक्य हो जाता है, वसतिका पर और भक्तों पर प्रेम हो जाता है, सुख में लम्पटता हो जाती है, आलस्य भर जाता है, सुकुमारता आ जाती है और जिन श्रावकों के यहाँ पूर्व में आहार हो चुका है पुनरपि वहाँ-वहाँ ही आहार लेना पड़ता है। १. पढमम्मि सव्वजीवा, तदिये परिये य सव्व-दव्वाई। सेसा महव्चदा खल. तदेकदेसम्मेि दवाणं ।। भगवती आ. पृष्ठ ३३१।। २. पञ्चमहाव्रतधारिण्याश्चिरप्रव्रजिताया........। भगवती आ. पृष्ठ ३३१ ।। Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका १५५ 7 १०. पर्या या पाद्य स्थितिकल्प वर्षा काल के चार माह में एक ही स्थान पर रहना, विहार नहीं करना, यह पाद्य नाम का दसवाँ कल्प है। हिंसादि दोषों से बचने के लिए साधुजन आषाढ़ी पूर्णिमा से कार्तिक पूर्णिमा पर्यन्त अर्थात् एक सौ बीस दिन एक ही स्थान पर रहते हैं, यह उत्सर्ग नियम है। कारणवश इससे कम या अधिक समय तक भी ठहर सकते हैं। आषाढ़ शुक्ला दशमी से कार्तिक पूर्णिमा के बाद आगे एक मास तक और रह सकते हैं। शास्त्रपठन, शक्ति का अभाव, वैयावृत्य तथा वर्षा आदि की अधिकता होने पर इससे अधिक समय तक भी वहाँ ठहर सकते हैं। इसी प्रकार दुर्भिक्ष, महामारी आदि रोग, भय आदि के निमित्त ग्राम या नगरवासी ही अपना स्थान छोड़कर देशान्तर जा रहे हों अथवा संघ नाश का कोई निमित्त उपस्थित हो रहा हो तो संघ की और रत्नत्रय की रक्षा के लिए चातुर्मास में भी अन्यत्र विहार कर सकते हैं। ये दस कल्प यत्याचार के भेद हैं। अवद्य - भीरुको नित्यं, दशस्वेतेषु यः स्थितः । क्षपकस्य समर्थोऽसौ वक्तुं चर्यामदूषणाम् ॥ ४४० ॥ अर्थ - जो आचार्य सदा पापों से भयभीत रहता है और उपर्युक्त दश स्थितिकल्पों में स्थित रहता है, वही आचार्य क्षपक के लिए निर्दोष चर्या का प्रतिपादन करने में समर्थ होता है ॥४४० ॥ आचार्य आचारवान् होना चाहिए उद्यतः पञ्चधाचारं यः कर्तुं समितक्रियः । क्षपकः पञ्चधाचारे, प्रेर्यते तेन सर्वदा ॥४४१ ।। अर्थ - जो आचार्य पाँच प्रकार के आचार में उद्यमशील रहता है और जिसकी सर्व क्रियाएँ सम्यक्रूप से होती हैं, वही आचार्य क्षपक को सदा पंचाचार में प्रेरित कर सकता है ||४४१ ।। अशुद्धमुपधिं शय्यां भक्तं पानं च संस्तरम् । सहायानप्यसंविग्नान्, विधत्ते च्यवनस्थितिः ॥ ४४२ ।। अर्थ - जो आचार्य क्षपक के लिए उद्गमादि दोषों से अशुद्ध उपकरण, वसतिका, आहार, जल और संस्तर आदि की व्यवस्था करता है, तथा ऐसे ही अशुद्ध आहार आदि ग्रहण करनेवाले एवं वैराग्य भावना से विहीन परिचारक मुनियों को क्षपक की वैयावृत्य के लिए नियुक्त करता है तो वह नियम से क्षपक को समाधि से च्युत कर देगा, अतः आचार्य आचारवान् ही होना चाहिए || ४४२ ॥ सल्लेखनायाः कुरुते प्रकाशनां कथामयोग्यां क्षपकस्य भाषते । स्वैरं पुरस्तस्य करोति मन्त्रं, गन्ध- प्रसूनादि - विधिं च मन्यते ॥४४३ ॥ अर्थ - आचारविहीन अयोग्य आचार्य क्षपक की सल्लेखना को लोगों के सामने असमय में ही प्रकाशित कर देगा, क्षपक के समक्ष अशुभ परिणाम करनेवाली अयोग्य कथा वार्ता करने लगेगा, योग्य-अयोग्य का विचार किये बिना क्षपक के समक्ष स्वच्छन्दतापूर्वक बात करेगा और लोगों को गन्ध - पुष्पादि लाने को कहेगा, अथवा क्षपक को गन्धादि सेवन करने की अनुमति देगा ||४४३ || Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - १५६ सारणां वारणां नास्य, कुरुते च्यवन-स्थितः। क्षपकस्य महारम्भं, कञ्चित्कारयते गणी।।४४४ ।। अर्थ - जो निर्यापक स्वयं च्यवनस्थित है अर्थात् भ्रष्ट है वह सारणा अर्थात् रत्नत्रय में प्रवृत्ति और वारणा अर्थात् रत्नत्रय से च्युत होने का निषेध नहीं करेगा और क्षपक का निमित्त लेकर अथवा क्षपक से महारम्भ करवायेगा अर्थात् वसतिका, पट्टकशाला आदि बनाने का तथा महापूजा-विधानादि का कार्य करवायेगा॥४४४।। आचारस्थः पुनर्दोषान्यत: सर्वान्विमुञ्चति । निर्यापकस्तत: सूरिराचारस्थोऽभिधीयते ।।४४५ ।। इति आचारी ॥ अर्थ - आचारवत्त्व गुण युक्त आचार्य उपर्युक्त दोषों का त्याग करते हैं, क्योंकि दोशे से रहित और गुणों में प्रवृत्त होनेवाले आचार्य ही निर्यापक होने योग्य हैं, ऐसा कहा गया है ।।४४५ ।। इस प्रकार आचारवत्त्व गुण का वर्णन पूर्ण हुआ। आधारवान् गुण का कथन धीरोऽखिलाना-पूर्वज्ञो, यः कालव्यवहारवित् । आधारी स महाप्रज्ञो, गम्भीरो मन्दरस्थिरः ॥४४६ ॥ अर्थ - जो आचार्य सम्पूर्ण अंगों और पूर्वो का ज्ञाता है, समय और व्यवहार को जाननेवाला है; महाप्रज्ञ, सुमेरु सदृश स्थिर मनवाला, धीर एवं गम्भीर है वह आधारवान् कहा जाता है ।।४४६ ।। प्रश्न - आधारवान् को किसका आधार है और क्षपक के लिए उनकी क्या उपयोगिता है? उत्तर - ज्ञान आधार है अतः जो ज्ञानवान् है वही आधारवान् है। ये क्षपक को समझाते रहते हैं कि देखो! अशुभ, शुभ और शुद्ध के भेद से परिणाम तीन प्रकार का है। मन, बचन, काय सम्बन्धी विकल्परूप परिणाम अशुभ हैं, पुण्यास्रव के कारणभूत परिणाम शुभ हैं और शुभ एवं अशुभ कर्मों के संवर में कारणभूत परिणाम शुद्ध हैं, अत: आपको अपने परिणामों में सावधानी बरतनी है, इत्यादि । इस प्रकार जो दिन-रात श्रुत का उपदेश करते हुए क्षपक को शुभ या शुद्ध परिणामों में लगाये रहते हैं, तथा दर्शन, चारित्र और तप का आधार होने से वे क्षपक को इन गुणों में भी स्थिर रखने का उपक्रम करते रहते हैं। यही उनकी उपयोगिता है। ज्ञानहीन आचार्य का आश्रय लेने में दोष हैं चतुरङ्गमगीतार्थो, नाशयेल्लोक-पूजितम्। संसृतौ लप्स्यते भूयो, नाशितं तच्च दुःखतः ॥४४७॥ अर्थ - जो निर्यापक सिद्धान्त का मर्मज्ञ नहीं है वह क्षपक के लोक-पूजित चतुरंग को नष्ट कर देता है और एक बार चतुरंग का नाश हो जाने पर संसार में उसका पुनः प्राप्त होना अत्यन्त कठिन है ।।४४७ ।। Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - १५७ प्रश्न - इस उपर्युक्त कथन का क्या तात्पर्य है ? उत्तर - दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप ये चारों मोक्षमार्ग के अंग हैं अतः इन्हें चतुरंग कहते हैं। यह चतुरंग लोकपूज्य निर्वाण का उपकारक है किन्तु सिद्धान्त से अनभिज्ञ निर्यापक क्षपक के इस चतुरंग को नष्ट कर देता है। एक बार नष्ट हो जाने पर यह चतुरंग पुनः प्राप्त होना सुलभ नहीं है, क्योंकि जो चतुरंग को नष्ट कर देता है वह विवादमा ! होगर गीत में चला जाता है, यह उक्त कथन का तात्पर्य अर्थ अर्थात् अभिप्राय है। संसार-सागरे घोरे, दुःख-नक्र-कुलाकुले। दुःखतोऽटाट्य-मानेन, प्राप्यते जन्म-मानुषम् ।।४४८ ।। ____ अर्थ - जिसमें दुखरूपी मगरमच्छों का समुदाय भरा हुआ है ऐसे घोर संसार सागर में भ्रमण करता हुआ यह जीव अत्यन्त कठिनाई से मनुष्यभव को प्राप्त करता है ।।४४८ ॥ देशो जातिः कुलं रूपं, कल्पता जीवितं मतिः। श्रवणं ग्रहणं श्रद्धा, संयमो दुर्लभो भवेत् ।।४४९।। अर्थ - इस संसार में देश, कुल, जाति, रूप, आरोग्यता, आयु, बुद्धि, धर्मश्रवण, उसका ग्रहण, उस पर श्रद्धा और संयम की प्राप्ति ये सब एक से एक अतिदुर्लभ हैं॥४४९ ।। प्रश्न - जब जीव जन्म लेता है तब कोई-न-कोई देश, कुल, जाति एवं बुद्धि आदि तो सहज प्राप्त हो जाते हैं, इनमें दुर्लभता की क्या बात है ? उत्तर - जैसे साधु के मुख से कठोर वचन निकलना दुर्लभ है, सूर्य में अन्धकार, क्रोधी में दया, लोभी में सत्यवचन, मानी में परगुणकथन, स्त्रियों में सरलता, दुष्टों में कृतज्ञता और विधर्मियों में तत्त्वबोध दुर्लभ है, वैसे ही मनुष्य-भव दुर्लभ है क्योंकि तीन सौ तैंतालीस घन राजू प्रमाण इस विशाल विश्व में ढाई द्वीप सम्बन्धी पैंतालीस लाख योजन मात्र मनुष्य के लिए हैं, अतः मनुष्यभव की दुर्लभता है। स्थान की अपेक्षा अनन्तकाल व्यतीत हो जाने के बाद ऐसा स्थान प्राप्म होता है। यदि मनुष्य भव भी मिल जाय तो आर्यक्षेत्र मिलना, इसमें भी धर्माराधन योग्य देश में जन्म होना दुर्लभ है, उसमें भी सज्जातित्व मिलना दुर्लभ है। प्रश्न - सज्जाति किसे कहते हैं ? उत्तर - पिता के कुल और माता की जाति का शुद्ध होना सज्जाति है। अर्थात् जातिसंकर, वीर्यसंकर आदि जिस जाति में नहीं होते वह सज्जाति है। अर्थात् जिस जाति में कन्या का ही विवाह होता है। पुनर्विवाह, विधवा-विवाह, अन्तरजातीय एवं विजातीय विवाह नहीं होता और जो व्यभिचारी की परम्परा के अन्तर्गत नहीं है। इस प्रकार के गुणविशिष्ट को सज्जातित्व कहते हैं। __ यदि सज्जाति प्राप्त हो गई तो उत्तम कुल, प्रशस्त रूप, दीर्घायु, हेयोपादेयरूप बुद्धि, शारीरिक और मानसिक नीरोगता, जैनधर्मोपदिष्ट तत्त्वों का स्वरूप सुनना, उन्हें ग्रहण करना, उन पर श्रद्धा करना और संयम Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - १५८ धारण करना ये सब उत्तरोत्तर दुर्लभ हैं। अर्थात् कभी एक मिलता है तो दूसरा नहीं, दूसरा मिला तो तीसरा नहीं, एक साथ सबके सब योग मिलना अतिदुष्कर कार्य है। इस प्रकार क्षपक मुनिराज को जो संयम प्राप्त हुआ है वह अत्यधिक कठिनाई से प्राप्त हुआ है, अत: उसका रक्षण अत्यावश्यक है। बहु-दुर्लभ-सन्तत्या, साधुलब्ध्वापि संयमम्। लभते नाज्ञ-सान्निध्ये, देशनां धृति-वर्द्धनीम् ।।४५० ।। अर्थ - इस प्रकार उस क्षपक साधु को अतिदुर्लभ परम्परा से संयम की प्राप्ति हुई है फिर भी यदि किसी अज्ञानी निर्यापक का सान्निध्य प्राप्त हो गया तो उसे धैर्य को वृद्धिंगत करनेवाला उपदेशामृत प्राप्त नहीं हो सकता॥४५० ॥ प्रपाल्यापि चिरं वृत्तमश्रुताधार-सन्निधौ । अलब्ध-नेशनो पत्यकाले प्रभंशाने नतः॥४५१॥ अर्थ - और जिसे धर्मोपदेश नहीं मिला ऐसा वह क्षपक श्रुतज्ञान से रहित अर्थात् अज्ञानी निर्यापक के निकट मृत्युकाल में अपना चिरकाल से पालित चारित्र नष्ट कर देता है।४५१ ।। दोषेभ्यो वार्यते दुःखं, संन्यस्त: क्रियते सुखम् । छिद्यते सुखतो वंशः, कृष्यते दुःखतस्ततः॥४५२॥ __ अर्थ - समाधि में उद्यत उस क्षपक को सदुपदेश के द्वारा ही दोषों से रोका जा सकता है और उससे ही उसका शारीरिकादि दुख भुलाकर सुखी किया जा सकता है। जैसे अंकुर रूप छोटा बाँस सुख से उखाड़ा जा सकता है किन्तु बड़ा हो जाने पर वह दुख से-कठिनाई से उखड़ता है।४५२।। प्रश्न - आचार्यदेव बाँस के दृष्टान्त से क्या शिक्षा देना चाहते हैं? उत्तर - आचार्यदेव कह रहे हैं कि जैसे बाँस के समुदाय में से एक छोटे बाँस को छेद कर निकाल लेना सुलभ है किन्तु उसको उखाड़ लेना बहुत कठिन है। वैसे ही भूख-प्यास आदि की वेदना के समय क्षपक के मन को पंचेन्द्रियों के विषयों से निकाल कर संयम में स्थापन करना कठिन है। यद्यपि क्षपक ने ही रागद्वेष का नाश या शमन करने की प्रतिज्ञा की थी, तथापि सल्लेखना के अन्तर्गत होनेवाले क्षुधादि परीषहों से पीड़ित एवं अल्पशक्ति-धारक उस क्षपक के मन को श्रुतज्ञान में एकाग्र न कर सकने के कारण अज्ञानी निर्यापक उसकी चारित्राराधना में सहयोगी नहीं हो सकता। अर्थात् अज्ञानी आचार्य के सान्निध्य में रहनेवाला क्षपक उपदेश के अभाव में संक्लेश को प्राप्त होता हुआ संयम का घात कर देता है। अयमन्नमयो जीवस्त्याज्यमानत्वसौ कदा। आर्तरौद्राकुलीभूतश्चतुरने न वर्तते ॥४५३॥ अर्थ - यह जीव अत्रमय है, मानों अन्न से उत्पन्न हुआ है क्योंकि अन्न ही प्राणरक्षण का मूल है। क्षपक ऐसे अन्न का त्यागी है। उस समय कभी-कभी क्षपक आर्त-रौद्र ध्यान से आकुलित होता हुआ चारों आराधनाओं रूप वर्तन नहीं कर पाता ।।४५३ ।। Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - १५९ शिक्षान्न-श्रुति-पानाभ्यां, साधुराप्यायित: पुनः। क्षुधा-तृष्णाभिभूतोऽपि, शुद्धध्याने प्रवर्तते ॥४५४ ।। अर्थ - हित की शिक्षारूप उत्कृष्ट अन्न और शास्त्र-श्रवणरूप पान के द्वारा क्षपक को सन्तुष्ट अर्थात् तृप्त कराया जाता है, उससे वह भूख-प्यास से पीड़ित होने पर भी पुनः शुद्ध या शुभ ध्यान में प्रवृत्त हो जाता है। अर्थात् बहुश्रुतज्ञ आचार्य के आश्रय से तो क्षपक वेदना से आकुलित होता हुआ भी आत्मध्यान में स्थिर हो जाता है किन्तु वहीं क्षपक अज्ञानी आचार्य के आश्रय से आर्तरौद्रध्यानी बन जाता है ।।४५४ ॥ क्षुधया तृष्णया साधोर्बाधितस्य ददाति न। उपदेशमशास्त्रज्ञः समाधि-जनन-क्षमम् ।।४५५ ।। अर्थ - भूख-प्यास से पीड़ित उस क्षपक को अल्पज्ञानी आचार्य समाधि के साधनभूत उत्कृष्ट उपदेशादि देने में समर्थ नहीं हो सकता, अत: निर्यापक शास्त्रज्ञ ही होना चाहिए ।।४५५ ॥ ताभ्यां प्रपीडितो बाढं, भिन्नभावस्तनुश्रुतः । रोदनं याचनं दन्यं, करुणं विदधाति सः ।।४५६ ।। अर्थ - वह अल्पज्ञानी क्षपक भूख-प्यास से पीड़ित होता हुआ शुभ भावों को छोड़ देता है और भोजन-पान की याचना करता है, दीनता प्रगट करता है तथा ऐसा रुदन करता है कि सुनने वालों को दया आ जाती है।।४५६॥ पूत्कुर्यादसमाधान-पानं पिबति पीडितः। मिथ्यात्वं क्षपको गच्छेद्विपद्येतासमाधिना ।।४५७ ।। अर्थ - भूख-प्यास से पीड़ित क्षपक सहसा चिल्लाने लगता है, असमाधान पानक पीने लगता है, सदुपदेश के अभाव में मिथ्यात्व भाव को प्राप्त हो जाता है और पश्चात् असमाधि से मृत्यु को प्राप्त हो जाता है।।४५७॥ प्रश्न - असमाधान पानक किसे कहते हैं? उत्तर - स्वयं खड़े होकर, अपने दोनों हाथों से आहार के समय, दाता के द्वारा प्रदत्त जो योग्य पान किया जाता है उसे समाधिपान कहते हैं, और इससे विपरीत बिना दिये, बैठकर तथा असमय में जो जल पी लिया जाता है उसे असमाधान पानक कहते हैं। हित्वा निर्भय॑मानोऽसौ, संस्तरं गन्तुमिच्छति। पूत्कुर्वत्ययशस्तत्र, त्याज्यमाने च जायते ॥४५८॥ अर्थ - क्षपक का असमाधान पानक आदि अयुक्त कार्य देखकर यदि उसका तिरस्कार किया जाएगा तो वह संस्तर छोड़कर भागने की चेष्टा करेगा, और यदि रोने-चिल्लानेवाले क्षपक को संघ छोड़ देगा तो धर्म का महान् अपयश होगा। इससे स्पष्ट ज्ञात होता है कि शास्त्रज्ञान से रहित निर्यापक क्षपक का नाश कर देता है।।४५८॥ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ - शास्त्रों में पारंगत निर्यापक क्षपक की प्रत्येक समस्या की समाधानविधि करता है तथा उसके कानों में धर्मोपदेश की आहुति देकर उसकी दीपित ध्यान रूपी अग्नि को और भी अधिक दीप्त करता है। अर्थात् क्षपक धर्मध्यान में लीन रहे, ऐसा ही उपदेश देता है ।।४५९ ।। मरणकण्डिका - १६० शास्त्रज्ञ निर्यापक से होने वाले लाभ समाधानविधिं तस्य, विधत्ते शास्त्रपारग: । दीप्यते दीपितः कर्णाहुतिभिर्ध्यान- पावकः ॥ ४५९ ॥ प्रश्न - उपर्युक्त श्लोक का सहज-सरल अर्थं या भाव क्या है ? उत्तर - शास्त्रज्ञ निर्यापक क्षपक के समाधिमरण की सर्व क्रिया आगमानुसार करते हैं और यदि क्षपक क्षुधादि वेदना से पीड़ित दिखाई देता है तो कर्णप्रिय, मधुर एवं हृदयग्राही उपदेशामृत पिलाकर धर्मध्यान में लीन रखते हैं, आर्तध्यान से रक्षा कर उसकी समुचित सल्लेखना कराते हैं। अर्थ - शास्त्रज्ञ निर्यापक क्षपक की इच्छानुसार उनकी शारीरिक प्रक्रियाओं को करते हुए रत्नत्रय में स्थिर रखते हैं और अन्य अन्य समीचीन उपायों द्वारा क्षपक की समाधि करा देते हैं ||४६० || - क्षपकेच्छा - विधानेन, शरीर - प्रतिकर्मणा । समाधिं कुरुते सम्यगुपायैरपरैरपि ।।४६० ।। प्रश्न क्षपक की इच्छाविधान की पूर्णता का क्या भाव है? क्या वे उसे इच्छानुसार जलादि पिला देते हैं ? तथा सम्यक् उपाय कौन-कौन से हैं ? उत्तर - शास्त्रज्ञ आचार्य क्षपक की इच्छापूर्ति आगमानुसार ही करते हैं अन्यथा नहीं। जैसे प्यास आदि की तीव्र बाधा उत्पन्न हो जाने पर शीतोपचार आदि के द्वारा उनकी इच्छा को शान्त कर देते हैं। हृदय का उमड़ता हुआ धर्मवात्सल्य, परिचारकों का सम्यक् समर्पण, अनुकूल वैयावृत्य, शान्तिदायक वचन, उत्तम उपकरणदान और प्राचीन क्षपकों के हृदयग्राही आख्यान आदि सम्यक् उपाय हैं। वैयावृत्यकरैस्त्यक्तं मा भैषीरिति भाषते । 2 निषिध्य संसृतिं तस्य समाधानं करोति सः ॥ ४६१ ॥ अर्थ - वैयावृत्य करनेवाले यदि क्षपक को छोड़ देते हैं तो शास्त्रज्ञ निर्यापक कहते हैं तुम डरो मत, हम तुम्हारी सेवा करेंगे। जिससे संसार बढ़ता है ऐसे कार्य या ऐसे परिणामों का निषेध कर ज्ञानवान् निर्यापक क्षपक और परिचारक दोनों का समाधान कर देते हैं ।। ४६१ ॥ - प्रश्न- परिचारक मुनि क्षपक का परित्याग क्यों कर देते हैं और गुणज्ञ निर्यापक दोनों का समाधान कैसे करते हैं ? उत्तर यदि क्षपक परीषह आदि सहन नहीं कर पाता है तो परिचारक साधुगण उनकी भर्त्सना करते हैं कि "तुम कायर हो, परीवह सहन तो नहीं करते हो और रोते-चिल्लाते हो, तुम्हारा मन बहुत चंचल है, हमारा Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका · - १६१ तुमसे अब कुछ प्रयोजन नहीं है, ” ऐसा कह कर परिचारक मुनि जब क्षपक का त्याग कर देते हैं तब निर्यापकाचार्य 'तुम डरो मत, हम हैं' ऐसा कह कर उसे निर्भयता प्रदान करते हैं, आश्वासन देते हैं और उसे रत्नत्रय में स्थिर करते हैं, तथा जो परिचारक कटु भाषण कर क्षपक का उत्साह भंग करते हैं, उनका निवारण कर आचार्य उन्हें भी समझाते हैं कि "हे मुनिजन ! इस संसार में शरीर और आहार ये दो पदार्थ दुस्त्याज्य हैं फिर भी इस क्षपक का साहस देखो ! जो इसने उन दोनों से मोह छोड़ दिया है, अतः यह क्षपक महापुरुष हैं, इसकी अवज्ञा मत करो और इससे कटु वचन मत कहो। आपका यह व्यवहार दोनों के संसार की अभिवृद्धि करनेवाला है।" इस प्रकार आचार्य दोनों का समाधान कर दोनों को अपने-अपने कार्य में उत्साहित कर देते हैं । जानाति प्रासुकं द्रव्यं, गीतार्थो व्याधि-नाशनम् । श्लेष्म-मारुत-पित्तानां विकृतानां च विग्रहम् ।।४६२ ।। अर्थ शास्त्रज्ञ निर्यापक व्याधिनाशक अर्थात् भूख-प्यास की वेदना को नष्ट करने में समर्थ प्रासुक द्रव्य देना जानते हैं तथा कफ, वात और पित्त का प्रकोप हो जाने पर उनका प्रतिकार करना भी जानते हैं । ४६२ ॥ श्रुतपानं यतस्तस्मै दत्ते शिक्षण-भोजनम् । क्षुत्तृष्णाकुल- चित्तोऽपि ततो ध्याने प्रवर्तते ॥ ४६३ ॥ अर्थ - ज्ञानवान् निर्यापक क्षपक को शास्त्रोपदेश रूपी पेय और हितकारी शिक्षा रूपी भोजन देते हैं, उस भोजन - पान से भूख और प्यास से भी पीड़ित क्षपक ध्यान में एकाग्रचित्त होकर प्रवर्तन करता है ।।४६३ ।। गुणा: स्थितस्येति बहु-प्रकारा, गीतार्थ-मूले क्षपकस्य सन्ति । सम्पद्यते काचन नो विपत्तिः, संक्लेश-जालं न च किञ्चनापि ।। ४६४ ।। इति आधारी ॥ अर्थ - इस प्रकार शास्त्रज्ञनिर्यापक के चरण-मूल में स्थित क्षपक के बहुत से गुण होते हैं । उस क्षपक को योग्य निर्यापक के निकट न कोई विपत्ति आती है और न कुछ संक्लेश भाव होता है, वह शान्तभाव से समाधिमरण में अग्रसर होता है || ४६४ ॥ इस प्रकार आधारी गुण का कथन पूर्ण हुआ । व्यवहारी गुण का विवेचन जानाति व्यवहारं यः, पञ्चभेदं सविस्तरम् । दत्तालोकित - शुद्धिश्च, व्यवहारी स भण्यते ॥ ४६५ ॥ अर्थ - जो पाँच भेदवाले व्यवहार को विस्तारपूर्वक जानता है, जिसने बहुत बार शिष्यों को प्रायश्चित्त Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकटिका .१६२ दिया है तथा अपने गुरु के प्रायश्चित्त देने के क्रमादि को भी देखा है, ऐसे निर्यापकाचार्य को व्यवहारी कहते हैं।।४६५।। प्रश्न - व्यवहारज्ञ आचार्य में प्रायश्चित्त सम्बन्धी कौन-कौन से गुण होने चाहिए ? उत्तर - प्रायश्चित्त शास्त्र का ज्ञान, गुरुओं द्वारा दिये हुए प्रायश्चित्त का दर्शन और प्रायश्चित्त देने का अभ्यास, ये तीन गुण जिसमें होते हैं उसे ही व्यवहारवान् आचार्य कहते हैं। प्रायश्चित्तशास्त्र के ज्ञान से रहित जो आचार्य अपनी इच्छानुसार प्रायश्चित्त देते हैं उससे दूसरों की शुद्धि नहीं होती। प्रायश्चित्त शास्त्र का ज्ञाता होते हुए भी यदि उसने कभी अन्य आचार्यों को प्रायश्चित्त देते हुए नहीं देखा है तो वह प्रायश्चित्त देते समय स्वयं खेदखिन्न हो जायेगा तब दूसरे की शुद्धि क्या करेगा। पाँच प्रकार के व्यवहार के नाम व्यवहारो मतो जीद-श्रुताज़ागम-धारणा । एतेषां सूत्र-निर्दिष्टा, ज्ञेया विस्तर-वर्णना ।।४६६।। अर्थ - यहाँ व्यवहार शब्द का अर्थ प्रायश्चित्त है। यह प्रायश्चित्त जीद, श्रुत, आज्ञा, आगम और धारण के भेद से पाँच प्रकार का है, जिसका सविस्तर वर्णन सूत्रों में निर्दिष्ट है, अत: वहीं से जानना चाहिए ||४६६॥ प्रश्न - यहाँ सूत्रों से ही जीद आदि प्रायश्चित्त का अर्थ जानने को क्यों कहा गया है? उत्तर - क्योंकि किन्हीं आरातीय आचार्यों ने कहा है कि - सव्वेण वि जिण-बयणं, सोदव्वं सड्ढिदेण पुरिसेण। छेद-सुदस्स हु अत्थो, ण होदि सव्वेण सोदव्वो। भगवती आ. पृ. ३५५ ।। अर्थात् समस्त श्रद्धालु पुरुषों को जिनागम सुनना चाहिए किन्तु छेद अर्थात् प्रायश्चित्त शास्त्र का अर्थ सबको नहीं सुनना चाहिए। प्रश्न - इन जीद आदि प्रायश्चित्तों का संक्षिप्त लक्षण क्या है ? उत्तर - बहत्तर आचार्यों द्वारा जिसका विधान किया गया है, उसी को जब वर्तमान के आचार्य ग्रहण करते हैं तब उस प्राचीन प्रायश्चित्तविधि को जीद प्रायश्चित्त कहते हैं। अथवा केवली या चौदहपूर्वधरों के द्वारा जो व्यवहार प्रवर्त हुआ था, वही पुन:पुनः प्रवर्त होता रहा, उसी को वर्तमान आचाय ने ग्रहण किया उसे जींद प्रायश्चित्त कहते हैं। चौदह पूर्वधरों के द्वारा या चौदहपूर्वो में कहे हुए को श्रुत-प्रायश्चित्त कहते हैं। अन्य स्थान में स्थित आचार्य द्वारा अन्य स्थान स्थित किन्हीं अन्य आचार्य के द्वारा आलोकित अपने गुरु के दोष ज्येष्ठ शिष्य के हाथ भेजना, उक्त आचार्य दोषानुसार प्रायश्चित्त विधि बताकर उस शिष्य को जब Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका- १६३ वापिस भेजते हैं तब वह आज्ञा प्रायश्चित्त होता है। अर्थात् किन्हीं आचार्य को कोई दोष लग गये किन्तु वे शक्ति या समयाभाव के कारण अन्य आचार्य के समीप नहीं जा पाते तब वे अपने ज्येष्ठ शिष्य को दोषों का विवरण देकर अन्य आचार्य के समीप भेज देते हैं। वहाँ जाकर वह शिष्य गुरु के अभिप्रायानुसार सब बात कह देता है और जो प्रायश्चित्त वे देते हैं उसे गुरु से कह देता है । यह आज्ञा प्रायश्चित्त है। ग्यारह अंगों में कहे गये प्रायश्चित्त को आगम प्रायश्चित्त कहते हैं। कारणवशात् एकाकी रहनेवाले कोई आचार्य या साधु जंघाबलादि क्षीण हो जाने से जब अन्यत्र नहीं जा पाते तब वे पूर्व में सुनी, देखी या अनुभव में आई हुई प्रायश्चित्त विधि के अनुसार जो प्रायश्चित्त ग्रहण करते हैं उसे धारणा प्रायश्चित्त कहते हैं । प्रायश्चित्त देने को विधि द्रव्यं क्षेत्रं परिज्ञाय, कालं भाव- - कृतोद्यमम् । सम्यक् संहननमुत्साहं, पर्यायं पुरुषं श्रुतम् ॥ ४६७ ।। अर्थ द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, उद्यमशीलता, संहनन, उत्साह, पर्याय, - विचार कर आचार्य को प्रायश्चित्त देना चाहिए ॥४६७ ॥ पुरुष और श्रुतज्ञान का प्रश्न द्रव्य, क्षेत्र आदि का परिज्ञान कैसे करना चाहिए ? उत्तर - साधुजन अपने गृहीत महाव्रतादि में अतिचार लग जाने पर प्रायश्चित लेते हैं। आचार्य परमेष्ठी द्रव्य, क्षेत्रादि परिस्थितियों को जानकर ही प्रायश्चित्त देते हैं। सचित्त, अचित्त एवं मिश्र के भेद से द्रव्य तीन प्रकार का है। साधु को त्रस स्थावर जीवों के अर्थात् सचित्त द्रव्य के या तृण, फलक आदि अचित्तद्रव्य के या शास्त्र, पीछी, कमण्डलु युक्त साधु के आश्रयों में से किस कारण दोष लगे हैं, यह ज्ञान होना आवश्यक है, तथा उन्हें आहार के पदार्थों का ज्ञान होना भी आवश्यक है। कोई आहार रस- बहुल, कोई धान्य- बहुल, कोई शाक - बहुल, कोई मात्र हलुआ एवं लपसी तथा शाक मात्र या पानक मात्र आहार होता है। इस आहार के दोषी साधु की प्रकृति जान कर ही उसे आहार सम्बन्धी प्रायश्चित्त देना चाहिए । वर्षा ऋतु में अर्ध कोस अथवा अर्ध योजन जाना ही शास्त्रसम्मत है। उससे अधिक क्षेत्र में जाना, या वर्जित क्षेत्र में जाना, या विरुद्ध राज्य में जाना, या टूटे-फूटे मार्ग से जाना, उन्मार्ग से जाना, अन्तःपुर में प्रवेश कर जाना तथा वर्जित गृहभूमि में जाना दोष है। साथ ही जलबहुल या रुक्ष आदि क्षेत्र सम्बन्धी जो दोष हुए हों उन्हें जान कर प्रायश्चित्त देना । गर्मी, सर्दी, वर्षा के समय का ध्यान न रखना, छह आवश्यक समय पर न करके अन्य समय में करना तथा वर्षायोग के नियमों का उल्लंघन करना दोष है। गर्व, प्रमाद, आलस्य, अनाभोग, भय, प्रदोष एवं क्रोधादि भाव रूप परिणमन करना दोष है। यह प्रमादादिजन्य कार्यों में उद्यमशील है या समीचीन कार्यों में सावधानी पूर्वक उद्यमशील रहते हुए भी किसी कारणवश दोष लगे हैं। इस दोषी साधु का संहनन कैसा है? कमजोर है या मजबूत है ? प्रायश्चित्त लेने में या Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - १६४ उसका पालन करने में इसका उत्साह कैसा है? यह प्रायश्चित्त क्यों लेना चाहता है ? साथ रहना चाहता है या यश या लाभ या कर्मों की निर्जरा के लिए प्रायश्चित्त लेना चाहता है। शरीर बल कैसा है, चिरदीक्षित है या अल्पकाल का दीक्षित है, शास्त्रज्ञ है या अल्पज्ञ है एवं वैराग्यवान् है या सुखिया स्वभावी है ; इत्यादि अनेक प्रकार के ऊहापोहात्मक ज्ञान से परिपक्व आचार्य ही प्रायश्चित्त देने के योग्य हैं। राग-द्वेषावपाकृत्य, व्यवहार-विशारदः । व्यवहारी ददात्यस्मै, प्रायश्चित्तं विधानतः ।।४६८।। अर्थ - व्यवहार विशारद अर्थात् प्रायश्चित्तज्ञ आचार्य राग और द्वेष भावना को छोड़कर अर्थात् मध्यस्थ भाव धारण कर विधिपूर्वक दोषी मुनिराजों को प्रायश्चित्त देते हैं ।।४६८ ।। व्यवहारापरिच्छेदी, व्यवहारं ददाति यः। अवाप्यासोऽयशो घोरं, संसारमवगाहते ॥४६९॥ अर्थ - जो आचार्य व्यवहार अर्थात् प्रायश्चित्त शास्त्र को नहीं जानता, वह यदि प्रायश्चित्त देता है तो वह अपयश को प्राप्त कर अन्त में घोर संसार में डूबता है।।४६९ ॥ प्रश्न - इस श्लोक का क्या अभिप्राय है? उत्तर - जो प्रायश्चित्त शास्त्र को ग्रन्थ रूप से, अर्थरूप से एवं कर्मरूप से नहीं जानता वह आचार्य यदि अतिचार विनाश के इच्छुक मुनि को आलोचना आदि नौ प्रकार का प्रायश्चित्त देता है तो वह संसाररूपी कीचड़ में फँस कर दुख उठाता है और यहाँ अपयश पाता है। लोग कहते हैं कि यह तुण्डाचार्य है, इसके मुख पर जो आता है वही प्रायश्चित्त दे देता है। कौन सा प्रायश्चित्त कहाँ देना चाहिए जब इसे इसका ज्ञान ही नहीं है तब यह मुनियों को अपराधों से मुक्त कैसे करेगा? संसारभीरु साधुओं को यह व्यर्थ ही कष्ट दे रहा है, जगत् में ऐसी अपकीर्ति होगी। इच्छानुसार प्रायश्चित्त देने से जिनाज्ञा का उल्लंघन होता है, उन्मार्ग का उपदेश करने से सन्मार्ग का नाश होता है जो दर्शनमोहनीय कर्म के बन्ध का कारण है, अत: अज्ञ आचार्य या मुनि प्रायश्चित्त देने का प्रयत्न न करें ऐसी आगम की आज्ञा है। जो आचार्य प्रायश्चित्त शास्त्र के ज्ञाता हैं उन्हें भी प्रायश्चित्त देते समय सावधानी रख कर ही प्रायश्चित्त देना चाहिए और जैसे न्यायाधीश धारा के माध्यम से दण्ड व्यवस्था लिखता है वह ऐसा कभी नहीं लिखता या कहता है कि मैं न्यायाधीश हैं, मैं कहता हूँ कि इसे फाँसी दे इसी प्रकार 'हम आचार्य हैं, हमने जो प्रायश्चित्त दिया है उसे करो' इस प्रकार नहीं बोलना चाहिए क्योंकि किस अपराध में क्या प्रायश्चित्त देना है यह निर्धारण आगम का है। इस प्रकार व्यवहारज्ञ आचार्यों को ही सावधानी पूर्वक प्रायश्चित्त देना चाहिए, अज्ञ-आचार्यों को नहीं। श्लोक का यही अभिप्राय है। ___ व्यवहाराबुधः शक्तो, न विशोधयितुं परम्। किं चिकित्सामजानानो, रोगग्रस्तं चिकित्सति ॥४७० ॥ अर्थ - प्रायश्चित्त की विधि न जाननेवाला आचार्य रत्नत्रय विशुद्धि के इच्छुक को शुद्ध नहीं कर सकता । क्या चिकित्साविधि को न जाननेवाला अनिपुण वैद्य रोगग्रस्त की चिकित्सा कर सकता है? ||४७० ।। Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - १६५ प्रश्न - इस श्लोक के दृष्टान्त द्वारा क्या शिक्षा दी जा रही है ? उत्तर - इस श्लोक द्वारा परमोपकार आचार्य शपक को शिक्षा दे रहे हैं कि हे क्षपक ! तुम अपराध अर्थात् रत्नत्रय की शुद्धि के लिए ऐसे अज्ञ आचार्य का आश्रय ग्रहण कभी मत करो जो वाचाल है, मूर्ख एवं नवीन शिष्य मण्डली से सदा घिरे रहने के कारण गर्वोन्नत है तथा मूर्ख और अज्ञानी लोगों से ही पूज्य है, क्योंकि जैसे अनिपुण-अनाड़ी वैद्य रोगी को नीरोग नहीं कर सकता उसी प्रकार ऐसा आचार्य तुम्हारे अपराधों की शुद्धि कदापि नहीं कर सकता। तत: समीपे व्यवहार-वेदिनः, स्थितिर्विधेयाक्षपकेण धीमता। सिसिक्षुणा बोधि-समाधि-पादपो, मनीषितानेक-फल-प्रदायिनौ ।। ४७१ ।। इति व्यवहारी॥ अर्थ - इसलिए ज्ञान-चारित्र युक्त जो बुद्धिमान क्षपक मनोवांछित अनेक फल देनेवाले बोधि और समाधि रूप वृक्षों को वृद्धिंगत करना चाहता है, उसे व्यवहारज निर्यापकाचार्य के समीप ही रहना चाहिए।।४७१ ॥ इस प्रकार आचार्य के व्यवहारत्व गुण का वर्णन पूर्ण हुआ। ____ आचार्य के प्रकारकत्व गुणों का निर्देश प्रवेशे निर्गमे स्थाने, संस्तरोपधि-शोधने। उद्वर्तने परावर्ते, शय्यायामुपवेशने ।।४७२ ।। उत्थापने मल-त्यागे, सर्वत्र विधि-कोविदः । परिचर्या-विधानाय, शक्तितो भक्तितो रतः ॥४७३।। आत्मश्रममनालोच्य,क्षपकस्योपकारकः । प्रकारको मतः सूरिः, स सर्वादर-संयुतः ।।४७४ ।। अर्थ - जो आचार्य क्षपक के वसतिका से निकलने में, प्रवेश में, वसति, संस्तर और उपकरण के शोधन में, कमजोर क्षपक को करवट दिलाने में, सीधा-उलटा सुलाने में, शय्या पर बैठाने में, खड़ा करने में और मलमूत्र आदि त्याग कराने में तथा क्षपक की अन्य भी सब क्रियाओं को कराने में चतुर हैं, पण्डित मरण सम्बन्धी परिचर्या की विधि सम्पन्न कराने में सदा शक्ति और भक्ति से संलग्न रहते हैं, अपने श्रम का अर्थात् थकान आदि पर ध्यान न देकर सदा क्षपक का ही आदरपूर्वक उत्कृष्ट उपकार करते हैं, वे आचार्य प्रकारक या प्रकुर्वक कहे जाते हैं ।।४७२, ४७३, ४७४ ।। निपीड्यमानः क्षपकः परीषहै:, सुखासिकां याति सहाय-कौशलैः। यतस्ततस्तेन समाधिमिच्छता, निषेवणीया गुरवः प्रकारकाः ॥४७५ ।। इति प्रकारकः॥ अर्थ - क्षुधादि परीषहों से पीड़ित क्षपक सेवा एवं वैयावृत्य करने में कुशल आचार्यादि द्वारा ही सुख Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका -१६६ शान्ति को प्राप्त कर सकता है,अतः समाधिमरण के इच्छुक क्षपक को प्रकारक गुण युक्त आचार्य के निकट ही समाधिमरण करना चाहिए ।।४७५ ॥ इस प्रकार प्रकारक-वर्णन पूर्ण हुआ। आय-अपाय विदर्शित्व गुण निरूपण अस्ति तीरं गतस्यापि रागद्वेषोदयः परः । परिणामश्च संक्लिष्टः क्षुत्तृष्णादि-परीषहैः ।।४७६ ।। अर्थ - यद्यपि क्षपक संसार-समुद्र के किनारे पहुंच चुका है अथवा उसका मनुष्य पर्याय का तीर आ चुका है फिर भी उसे रागद्वेष का तीव्र उदय आ सकता है जिससे भूख-प्यास की परीषहों के कारण क्षपक के परिणाम संक्लेशयुक्त भी हो जाते हैं ।।४७६ ॥ आलोचनां प्रतिज्ञाय, पुनर्षिप्रतिपद्यते। लज्जते गौरवाकांक्षी, स तां कर्तुमपास्तथीः ।।४७७ ।। अर्थ - क्षपक प्रतिज्ञा करता है कि मुनिदीक्षा से अद्यावधि रत्नत्रय में जो दोष लगे हैं, गुरु के समक्ष उनकी यथावत् आलोचना करूँगा, किन्तु आलोचना करते समय अपने बड़प्पन का आकांक्षी वह क्षपक जिस प्रकार अपराध किये हैं उसी प्रकार से कहने में लज्जा करता है।।४७७॥ तत्त: स्थापनाकारी, त्यागावज्ञानभीलुकः। क्षपको गुण-दोषौ नो, पूजाकामो विवक्षति ॥४७८ ।। अर्थ - तत्पश्चात् वह क्षपक अपने को सम्यक् आचार में स्थापित तो करना चाहता है किन्तु 'आलोचना करना गुण है तथा आलोचना न करना दोष है' यह नहीं जानता, अत: मैं यदि यथावत् दोष कह दूंगा तो ये मेरी अवज्ञा कर मुझे त्याग देंगे, इस प्रकार डरता है। अथवा पूजा, प्रतिष्ठा का आकांक्षी वह क्षपक अपने अपराध और शरीर के त्याग में तत्पर होता हुआ भी गुरु से अपने अपराध यथावत् नहीं कह पाता ।।४७८ ।। आयापाय-विधिर्येन, हेयोपादेय-वेदिना। दिश्यते क्षपकस्यासावायापायदिगुच्यते ॥४७९॥ अर्थ - पूजा-सत्कार की आकांक्षा से, लज्जा से या भय से जो क्षपक शुद्ध आलोचना नहीं कर पाता उसे हेयाहेय को जाननेवाले निपुण आचार्य आय एवं अपाय की विधि का उपदेश देते हैं, अत: उस आचार्य को आयोपायदर्शी कहते हैं।।४७९॥ प्रश्न - आयापाय किसे कहते हैं और आचार्य क्षपक को इसकी क्या विधि समझाते हैं ? उत्तर - रत्नत्रय के लाभ को अथवा उसकी विशुद्धि को आय या उपाय कहते हैं तथा रत्नत्रय के विनाश को अपाय कहते हैं। आचार्यदेव इसकी यही विधि क्षपक को समझाते हैं कि हे क्षपक ! यदि तुम अपने दोषों की आलोचना नहीं करोगे या मायाचारीपूर्वक मात्र सामान्य ही दोष कहोगे तो तुम्हारे रत्नत्रय का नाश हो जायेगा जिससे तुम चारित्रभ्रष्ट कहलाओगे और यदि बालकवत् सरल हुदय से यथावत् आलोचना कर लोगे Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - १६७ तो तुम्हें रत्नत्रय धर्म की प्राप्ति हो जायेगी अथवा तुम्हारा रत्नत्रय निर्मल हो जायेगा। ततो वक्रमतेस्तस्य, सामान्यालोचनाकृते । आपायादिशा वाच्यौ, गुणदोषी गणेशिना ।।४८० ॥ अर्थ - यदि कोई वक्रबुद्धि क्षपक मायाचारपूर्वक विशेष दोषों को छिपाकर मात्र सामान्य दोषों की आलोचना करता है तो आयोपायदर्शी आचार्य उसे आलोचना के गुण-दोष कहते हैं ।।४८० ।। आचार्य का क्षपक को उपदेश दुःखत: संयमं लब्ध्वा , शरीरी भवसागरे। सशल्य-मृत्युना सारं, नाशयत्यपचेतनः ॥४८१॥ अर्थ - यह संसारी प्राणी इस भवसागर में अत्यन्त कठिनता से संयम को प्राप्त कर पाता है किन्तु अज्ञानी प्राणी मायाशल्ययुक्त मरण करके उस संयम को नष्ट कर देता है।।४८१॥ द्रव्यशल्ये यथा दुःखं, सर्वाङ्गीण-व्यथोदयः। भावशल्ये तथा जन्तोर्विज्ञातव्यमनुद्भुते ॥४८२ ।। अर्थ - जैसे शरीर में लगे बाण एवं काँटा आदि द्रव्यशल्य को न निकालनेवाला प्राणी पीड़ित और दुखी होता है, वैसे ही मायाचार रूप भाव-शल्य से युक्त साधु तीव्र दुखी होता है अर्थात् मायाचार युक्त आलोचना करके भावशल्य द्वारा अपने भव-भ्रमण को वृद्धिंगत करता हुआ दुखी होता है ।।४८२ ।। कंटकेऽनुद्धृते प्राप्तो, यथा त्वक्-कील नालिकाम् । पूति-वल्मीक-रन्ध्राणि, प्राप्याङ्घ्रि सटति स्फुटम् ॥४८३ ।। अर्थ - जैसे काँटा पहले चर्म में प्रवेश करता है उससे पैर में छिद्र हो जाता है। अनन्तर पैर में अंकुरवत् मांसवृद्धि होती है, पश्चात् वह काँटा नाड़ी तक घुसने से वहाँ का मांस सड़ता है, पुनः बहुत से छिद्र होकर वह पैर निरुपयोगी हो जाता है।।४८३ ।। विविधं दोषमापन्न:, संयमोऽनुद्धृते तथा। भय-गौरव-लज्जाभिः, भावशल्ये विनश्यति ॥४८४ ।। अर्थ - इसी प्रकार भय,गारव एवं लज्जा से प्रतिबद्ध साधु यदि माया रूप भावशल्य को नहीं निकालता है तो अनेक दोषों से युक्त होता हुआ संयम को नष्ट कर देता है ॥४८४ ।। प्रश्न - साधु किस प्रकार भय, गारव और लज्जा से प्रतिबद्ध होता है ? ____ उत्तर - यदि मैं सब अपराध कह देता हूँ तो गुरु मुझ पर बहुत क्रुद्ध होंगे, या मुझे बहुत बड़ा प्रायश्चित्त देंगे या मेरा त्याग कर देंगे, इस प्रकार भयभीत होता है। इसी प्रकार कभी लज्जा के कारण भी अपने दोष नहीं कह पाता। अथवा मैं बड़ा ज्ञानी हूँ, महान् तपस्वी हूँ एवं जगत् में मेरी महान कीर्ति है, दोष प्रगट हो जाने पर मेरे सारे ज्ञान एवं तप पर पानी फिर जाएगा तथा जगत् में मेरा अपयश फैल जाएगा। इस प्रकार वह गारव से प्रतिबद्ध हो जाता है। Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - १६८ प्रभ्रष्ट-बोधिलाभोऽतश्चिरकालं भवार्णवे। जन्म-मृत्यु-जरावर्ते, जीवो भ्रमति भीषणे ।।४८५॥ अर्थ - हे क्षपकराज ! मायाशल्य पूर्वक आलोचना करने से समाधि नहीं होती। समाधि न होने से जो बोधि का लाभ पूर्व में हुआ था. नइ नाप हो जाता है, जिससे जन्म, मरण और जरा रूपी भँवरों से युक्त भयंकर भवसमुद्र में चिरकाल तक भ्रमण करना पड़ता है ।।४८५ ।। तीव्र-व्यथासु योनीषु, पच्यमानः स सन्ततम् । तत्र दुःख-सहस्राणि, दीनो वेदयते चिरम् ।।४८६ ।। अर्थ - समाधि नष्ट कर देनेवाले क्षपक का वह जीव उस भव समुद्र में भयंकर महावेदमा वाली चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करता हुआ अनन्तकाल पर्यन्त दीन हुआ दुख भोगता है।।४८६ ।। मुहूर्तमप्यत: स्थातुं, सशल्येन न शक्यते। आचार्यपादयोर्मूले, तदुद्धर्तव्य-मञ्जसा ॥४८७॥ अर्थ - इसलिए हे क्षपक ! तुम्हें एक मुहूर्त भी शल्य सहित रहना योग्य नहीं है। आचार्यदेव के पादमूल में उस भाव शल्य को भली प्रकार शीघ्र ही निकाल देना चाहिए ।।४८७ ।। जिनेन्द्र-वचनश्रद्धा, जरा-मरण-भीरवः । निराकृत भय-व्रीडाः, सम्पन्नाव-मार्दवाः॥४८८॥ पुनर्भव-लतामूलमुत्पाट्य निखिलं बुधाः । संवेगोत्पन्न-वैराग्यस्तरन्ति भववारिधिम् ।।४८९॥ अर्थ - जो जिनागम के श्रद्धालु हैं; जन्म, बुढ़ापा और मरण के दुखों से भयभीत हैं; भय और लज्जा को छोड़ चुके हैं, आर्जव एवं मार्दव भावों से सम्पन्न हैं और संवेग तथा वैराग्य को प्राप्त हो चुके हैं ऐसे बुद्धिमान् क्षपक निर्दोष आलोचना करके पुनर्भव रूपी लता की जड़ को उखाड़कर फेंक देते हैं और संसार-सागर से पार हो जाते हैं ।।४८८, ४८९॥ यतः प्रसूचने (न सूचने) दोषं, दोषाणां सूचने गुणम् । एवं न तु दर्शयते, सूरिरायापाय प्रदर्शकः ॥४९० ॥ तदानी क्षपको नूनं, हेयादेय-विमूढधीः । निवर्तते न दोषेभ्यो, न गुणेषु प्रवर्तते ।।४९१ ॥ अर्थ - अपने दोष न कहने से संसार भ्रमणरूप भारी दोष है और गुरु को अपने दोष बता देने से रत्नत्रय विशुद्धि नामक महान गुण है, आयाषायदर्शी आचार्य यदि ऐसा नहीं समझाते हैं, तब वह क्षपक हेय और उपादेय के विषय में विमूढबुद्धि होता हुआ दोर्षों से दूर नहीं हो पायेगा और गुणों में प्रवृत्ति नहीं कर पायेगा।।४९०, ४९१॥ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकाण्डका -१६९ आयापाय दिशस्तु समीपे, स्थेयं बुद्धिमता क्षपकेण । तत्राराधयते चतुरङ्गम्, नूनं विघ्नमशेषमपास्य ॥४९२॥ इति आपायदिक् ।। अर्थ - अतः बुद्धिमान् क्षपक मुनि को चाहिए कि वह आय-अपायदर्शक आचार्य के निकट रहे। उनके निकट में ही निश्चय से चार आराधमा सर्व विघ्नरहित सम्पन्न होती है ।।४९२॥ इस प्रकार आयापायदर्शी वर्णन पूर्ण हुआ। आचार्य के अवपीड़क या उत्पीड़ी गुण का कथन कश्चनाकथने दोषे, दोषाणां कथने गुणे। वक्रात्मा कथ्यमानेऽपि, नालोचयति तत्त्ववित् ॥४९३॥ __ अर्थ - आयापायदर्शी निर्यापक के द्वारा आलोचना के अभाव में होनेवाले दोष और आलोचना से होनेवाले गुण समझा दिये जाने पर भी कोई कुटिल बुद्धि क्षपक अपने दोर्षों की आलोचना नहीं करता है।।४९३ ॥ एकान्ते मधुरं स्निग्धं, गम्भीरं हृदयङ्गमम् । स वाच्यः सूरिणा वाक्यं, प्राञ्जली-कुर्वता मनः॥४९४ ।। अर्थ - जो क्षपक अपने अपराध नहीं कहता है उसे आचार्य किसी रमणीक एकान्त प्रदेश में ले जाकर अत्यन्त मधुर, स्नेह भरे, गम्भीर और हृदय का हरण करनेवाले सुन्दर वचन कह कर समझाते हैं और उसके मन को निर्मल करते हैं।।४९४ ॥ प्रश्न - आचार्यदेव कैसे वचनों का प्रयोग कर क्षपक के मन को आलोचना के लिए उद्यत करते हैं? उत्तर - अपने दोष न कहनेवाले क्षपक को आचार्यदेव एकान्त में ले जाकर मधुर वाणी से समझाते हैं कि प्राप्त सन्मार्ग में रत्नत्रय के निरतिचार-पालन में सावधान हे आयुष्मन् ! लज्जा, भय और मान छोड़ कर आप अपने दोष निर्भय होकर कहो। गुरुजन तो माता-पिता के सदृश होते हैं, उनसे दोष कहने में क्या भय और क्या लज्जा ? क्या बालक अपनी माँ से सब बात नहीं कहता है ? गुरुजन अपने दोषों के समान दूसरे साधुओं के दोष भी किसी से नहीं कहते हैं। वे तो प्रगट होते हए यतिधर्म के दोषों को दूर करने में सदैव तत्पर रहते हैं, अत; क्या वे आपकी अपकीर्ति की इच्छा करेंगे ? कदापि नहीं करेंगे, क्योंकि मोक्षमार्ग में सम्यक्त्व प्रधान है और यतिजनों में दोष लगाना या उनके दोष प्रगट करना सम्यग्दर्शन का अतिचार है। यदि रत्नत्रय रूपी कमलों का वन अतिचाररूपी हिमपात से नष्ट हो तो वह सुशोभित नहीं होता । परनिन्दा से तो नीचगोत्र का आम्नव होता है। निन्दा करके दूसरों के मन को असह्य सन्ताप देनेवालों को असातावेदनीय कर्म का भी बन्ध होता है और संघस्थ साधुजन भी उस आचार्य की निन्दा करते हैं कि देखो ! अपने धर्मपुत्र को यह अपयशरूपी कीचड़ से लिप्त कर रहा है। इस प्रकार दूसरों के दोष प्रगट करना अनेक अनर्थों की जड़ है, कौन समझदार ऐसा पाप करेगा ? अतः आप हमारा विश्वास करो और निःशंक होकर आलोचना करो। हम तुम्हारे दोष किसी के समक्ष प्रगट नहीं करेंगे। Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - १७० कथायामकथायां च, दोषाणां गुण-दोषयोः। कथायामपि नो कश्चिदालोचयति वक्रधीः ।।४९५ ।। अर्थ - 'गुरु के समक्ष अपने दोषों की आलोचना कर देने में बहुत गुण हैं और आलोचना न करने में बहुत दोष हैं' आचार्य के द्वारा ऐसा समझाये जाने पर भी कोई बक्रबुद्धि क्षपक आलोचना नहीं करता ।।४९५ ।। दोषमुद्गाल्यते तत्स्थमुत्पीड्योत्पीडनो यतिः । मांसं कण्ठीरवेणेय, शृगालः कुर्वता भयम् ॥४९६ ॥ अर्थ - क्षपक द्वारा आलोचना न किये जाने पर जैसे सिंह स्यार के पेट में गये हुए मांस को उगलवा लेता है, जैसे ही अवपांडक गुण यार: आचार्य क्षयक के अन्तर में छिपे हुए दोषों को ताड़ना देकर बाहर निकाल लेता है।।४९६॥ प्रश्न - आचार्यदेव किस प्रकार की ताड़ना देकर क्षपक के दोष निकाल लेने में सफल होते हैं? उत्तर - क्षपक के हृदयंगत दोष उगलवाने हेतु आचार्य ताड़ना देते हुए कठोर वाणी में कहते हैं कि हे मायावी क्षपक ! आप हमारे सामने से दूर हट जाओ। आपको हमसे अब क्या प्रयोजन है? जो अपने शरीर का मल धोना चाहता है वही काच सदृश निर्मल जलयुक्त सरोवर पर जाता है। अथवा महान् रोग से मुक्त होकर जो व्यक्ति नीरोग होना चाहता है वहीं वैद्य की शरण लेता है। इसी प्रकार जो क्षपक रत्नत्रय में लगे हुए अपने दोषों को अर्थात् अतिचारों को दूर कर रलत्रय को विशुद्ध करना चाहता है वहीं गुरुजनों की शरण में जाता है। आपको तो अपने रत्नत्रय की शुद्धि करने में आदर भाव है ही नहीं, तब क्षपक का यह वेष धारण करने से क्या लाभ ? केवल चार प्रकार के त्याग से सल्लेखना नहीं होती, सल्लेखना तो कषायों को कृश करने से होती है और तभी संवर, निर्जरा होती है। कषायों से तो नवीन कर्मों का ग्रहण एवं स्थिति-अनुभाग बन्ध ही होता है, अत: ये तो त्यागने योग्य हैं। उन कषायों में माया कषाय अत्यन्त खराब है और आप इसी को लिये बैठे हो, यह माया ही जीव को तिर्यञ्चगति में ले जाती है। आप इसे छोड़ने में असमर्थ हैं, अत: आए संसार-समुद्र के तिर्यञ्च भवरूपी भंवर में फंसने का उद्यम कर रहे हो। ध्यान रखो कि इस भंवर में से निकलना अत्यन्त कठिन होगा। मात्र वस्त्र के त्याग से अपने को निर्ग्रन्थ मानने का अभिमान करना व्यर्थ है । चौदह प्रकार के अभ्यन्तर परिग्रह के त्याग से ही भाव नैर्ग्रन्थ्य होता है और यही मुक्ति का उपाय है। दस प्रकार के बाह्य परिग्रह का त्याग भाव नैर्ग्रन्थता का उपाय है, अतः वह भी मुमुक्षु के लिए अत्यन्त उपयोगी है। जीव और पुद्गल के सम्बन्ध मात्र से कर्मबन्ध नहीं होता किन्तु उनके निमित्त से होनेवाले जीवके परिणामों से कर्मबन्ध होता है। आपके परिणाम अभी शुद्ध नहीं हैं। हे अपराधी क्षपक ! ध्यान दो कि सातिचार सम्यग्दर्शन आदि मुक्ति के उपाय नहीं हैं। 'सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र मोक्ष का मार्ग है।' क्या यह जिनागम वचन आपके कानों में अभी तक नहीं पहुँचा ? जो अभी तक अतिचार छिपा रहे हो, ध्यान रखो! गुरु द्वारा प्रदत्त प्रायश्चित्त का पालन करने से ही रत्नत्रय निरतिचार होता है और गुरु भी प्रायश्चित्त उसी को देते हैं जो निर्दोष आलोचना करता है। इतना समझाने पर भी जब तुम दोष नहीं उगल पा रहे हो तब मुझे लगता Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - १७१ है कि तुम दूरभव्य या अभव्य हो। यदि तुम आसन्न भव्य होते तो इस प्रकार का महा मायारूप शल्य अपने हृदय में संजो कर क्यों रखते ? अब तुम यतिजनों के द्वारा वन्दना करने योग्य नहीं हो, क्योंकि आगम में कहा है कि बुद्धिमानों को उसी श्रमण की वन्दना करनी चाहिए, जो लाभ-अलाभ में, जीवन-मरण में और निन्दा-प्रशंसा आदि में अपने चित्त को समान रखता हो। दोष कह देने पर लोग 'मेरी निन्दा करेंगे, प्रशंसा नहीं करेंगे' इसलिए आप आलोचना नहीं कर रहे हो तब आप कैसे समचित्तधारी हो, समता बिना कैसे श्रमण हो और कैसे वन्दनीय हो ? इस प्रकार की कठोर ताड़नापूर्वक अवपीड़क आचार्य क्षपक के सब व्रताद्यतिचारों को बाहर निकलवाते हैं। अवपीड़क आचार्य के गुण कण्ठीरव-इवौजस्वी, तेजस्वी भानुमानिष । चक्रवर्तीव वर्चस्वी, सूरिरुत्पीडकोऽकथि ॥४९७ ॥ अर्थ - जो सिंह के सदृश ओजस्वी-बलवान, सूर्य सदृश तेजस्वी-प्रतापवान् और चक्रवर्ती सदृश वर्चस्वी-प्रश्नों का उत्तर देने में कुशल होते हैं वे आचार्य उत्पीड़क नाम से कहे जाते हैं ।।४९७ ।। यथावष्टभ्य हस्ताभ्यां, विदार्य वदनं घृतम् । बालं पाययते माता, रटन्तं हितकारिणी ।।४९८ ।। अवपीड्य तथोत्पीड़ी, हितारोप-परायणः । अनृणु क्षपकं सूरिर्दोषं त्याजयतेऽखिलम् ॥४९९ ॥ अर्थ - जिस प्रकार हितकारिणी माता रोते-चिल्लाते हुए बालक को पकड़कर और अपने दोनों हाथों से उसका मुख फाड़ कर घृत पिलाती है। उसी प्रकार क्षपक का हित करने में तत्पर उत्पीड़क आचार्य अत्यन्त भी पीड़ित करके बलात् उस कुटिल परिणामी क्षपक के सब दोषों को निकाल लेते हैं।४९८-४९९ ।। भद्रः सारणया हीनो, न लिहन्नपि जिह्वया। ताडयन्नपि पादेन, भद्रः सारणया पुनः॥५००। अर्थ - जो गुरु शिष्यों के दोषों का निवारण नहीं करते वे जिह्वा से मधुर बोलते हुए भी श्रेष्ठ, भद्र या कल्याणकारी नहीं हैं और जो गुरु दोषों का निवारण करते हैं वे शिष्यों को पैरों से मारते हुए भी कल्याणकारी हैं ।।५०० ।। परकार्य-पराचीनाः, सुलभाः स्वार्थकारिणः । आत्मार्थमिव कुर्वाणा:, परार्थमपि दुर्लभाः ।।५०१॥ अर्थ - अपने कार्य में तत्पर किन्तु दूसरों के हित आदि कार्यों से विमुख पुरुष तो सुलभ हैं, किन्तु अपने कार्यों के सदृश दूसरों के हितकारी कार्यों की चिन्ता करनेवाले मनुष्य अतिदुर्लभ हैं ।।५०१ ।। ये स्वार्थ कर्तुमुद्युक्ताः, परार्थमपि कुर्वते । कटुकैः परुषैर्वाक्यैस्ते तरां सन्ति दुर्लभाः॥५०२ ।। Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणाकण्डिका - १७३ अर्थ - जो स्वकार्य में उद्यमशील होते हुए दूसरों के कार्य को भी कठोर और कटु वचनों से साधते हैं वे पुरुष तो लोक में अत्यन्त दुर्लभ हैं ।।५०२॥ निवर्तनं न दोषेभ्यो, न गुणेषु प्रवर्तनम् । विधत्ते क्षपकः सर्व-दोषमत्याजितो यतः ।।५०३ ।। अर्थ - आचार्य यदि क्षपक को पीड़ित न करें तो वह मायाशल्यरूपी दोष से न निकले और दोष से निकले बिना निरतिधार रत्नत्रय गुण में प्रवृत्त न हो ।।५०३।। नित्योत्पीड़ी पीडयित्वा समस्तांस्तस्माद्दोषांस्त्याजयेत्तं हितार्थी । व्याथिध्वंसं किं विधत्ते न वैद्यः तन्वन्बाधां व्याधितस्येष्टकारी ॥५०४॥ अर्थ - क्षपक के हित का इच्छुक उत्पीड़ी आचार्य क्षपक को कठोर वचनादि से पीड़ा पहुँचा कर उससे समस्त दोष उगलवा लेता है। अर्थात् उसका रत्नत्रय शुद्ध कर देता है। ठीक है, क्योंकि रोगी का हितचिन्तक वैद्य रोगी को कड़वी औषधि का सेवन एवं पथ्यपालन द्वारा रोगी को बाधा या पीड़ा पहुँचा कर व्याधि का नाश नहीं करता है क्या ? अवश्यमेव करता है ।।५०४ ।। इस प्रकार अवपीड़क गुण का कथन पूर्ण हुआ। अपरिस्रावी गुण का विवेचन दोषो निवेशितो यत्र, तप्ते तोयमिवायसि। न निर्याति महासारे, स ज्ञातव्योऽपरिस्रधः ॥५०५ ।। अर्थ - जैसे तपाये हुए लोहे के द्वारा पिया हुआ जल कभी बाहर नहीं निकलता, वैसे ही क्षपक द्वारा महासारभूत आचार्यदेव को निवेदित किए गए दोष अन्य मुनिजनों पर कभी प्रगट नहीं होते, वे आचार्य अपरिस्राव गुण से युक्त होते हैं ।।५०५ ।। अतिचारास्तपो वृत्त-ज्ञान-सम्यक्त्व-गोचराः। मनो वाक्काय-योगेन, जायन्ते त्रिविधा यतेः॥५०६ ।। अर्थ - मन, वचन और काय इन योगों से यदि क्षपक के सम्यग्दर्शन में अथवा सम्यग्ज्ञान में या सम्यक्चारित्र में या सम्यक् तप में एकदेश से या सर्वदेश से जो-जो अतिचार लगे हों वे सब अतिचार आचार्य से कहने चाहिए॥५०६।। प्रश्न - सम्यग्दर्शन, ज्ञान-चारित्र और तप आदि के कौन-कौन से अतिचार हैं ? उत्तर - चौथे विनय अधिकार में इन अतिचारों का निरूपण किया जा चुका है, फिर भी प्रश्नानुसार कहते हैं - सम्यग्दर्शन के अतिचार - शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, मिथ्यादृष्टि की प्रशंसा और उसका संस्तव । सम्यग्ज्ञान के अतिचार - असमय में स्वाध्याय, श्रुत एवं श्रुतधारियों का अविनय, अनुयोग आदि Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका -१७३ के प्रारम्भ में उसके योग्य अक्ग्रह न करना, गुरु का नाम छिपाना, स्वर-व्यंजनों का हीनाधिक करके पढ़ना एवं अर्थ का अन्यथा कथन करना। चारित्र के अतिचार - पाँच महाव्रत के अतिचार ही चारिन के अतिचार हैं। अथवा प्रत्येक महाव्रत की पाँच-पाँच भावनाएँ हैं इन भावनाओं से रहित व्रत पालन करना । अनशन तप के अतिचार - स्वयं का उपवास होते हुए भी दूसरों को भोजन कराना; मन, वचन काय से दूसरों के भोजन की अनुमति देना, उपवास की वेदना से पीड़ित होने पर मन से आहार की अभिलाषा करना, मुझे पारणा कौन करायेगा अथवा मेरा पारणा कहाँ होगा ? इत्यादि चिन्ता करना । अथवा रसीले पदार्थों या रसीले आहार के बिना मेरी थकान दूर नहीं होती इत्यादि, उपवास के कारण प्रचुर निद्रा में पड़-कर छहकाय के जीवों की बाधा में मन, वचन और काय की प्रवत्ति होना। मैंने यह क्लेशकारी उपवास व्यर्थ ही किया. यह तो सन्तापकारी है अब मैं इसे कभी नहीं करूँगा, इस प्रकार का संकल्प करना । अवमौदर्य तप के अतिचार - मन से उदरभर भोजन में आदर, दूसरों को उदर भर भोजन कराने की चिन्ता, 'जब तक आपकी तृप्ति न हो तब तक भोजन करना ऐसे वचन कहना, 'मैंने आज बहुत भोजन किया' ऐसा किसी के द्वारा कहे जाने पर 'आपने बहुत अच्छा किया ऐसा कहना तथा हाथ के संकेत से कण्ठप्रदेश को स्पर्श करके बतानः नि म आक-उपोज किया अपना आप आकाठ भोजन कर लेना। वृत्तिपरिसंख्यान तप के अतिचार - घर, मुहल्ला, गली, दाता पुरुष या दात्री स्त्री की संख्या आदि का संकल्प करके दूसरों को भोजन कराना है' इस उद्देश्य से किये हुए संकल्प का उल्लंघन कर चर्या को जाना, या अन्य किसी कारण से संकल्प तोड़कर चर्या करना। रसपरित्याग तप के अतिचार - रसों में अति आसक्ति, दूसरे को रस युक्त आहार का भोजन कराना अथवा रसयुक्त आहार की अनुमति देना, या प्रेरणा देना। विविक्तशय्यासन तप के अतिचार - यथायोग्य लक्षणों से हीन वसतिका में शयनासन तथा योग्य लक्षणों से युक्त वसतिका में अरति, इत्यादि। कायक्लेश तप के अतिचार - गर्मी आदि के सन्ताप से पीड़ित हो शीतल द्रव्य-प्राप्ति की इच्छा करना. मेरा सन्ताप कैसे दर हो ऐसी चिन्ता करना. पर्व में भोगे हए शीतल्ल द्रव्य और शीतल प्रदेशों का स्मरण करना, तीव्र धूप से द्वेष करना, पीछी से शरीर का मार्जन किये बिना गर्म प्रदेश से शीतल प्रदेश में या शीतल प्रदेश से गर्म प्रदेश में आना-जाना, वृक्ष के मूल में जाकर हाथ, पैर या शरीर से जलकायिक जीवों को पीड़ा देना, शरीर में लगे जल कणों को हाथ आदि से पोंछना, शिलातल आदि पर पड़े हुए जलकणों को हाथ, पैर आदि से दूर करना, कोमल एवं गीली भूमि पर सोकर शान्ति का अनुभव करना, जलबहाव वाले निचले प्रदेशों में ठहरना, निश्चित स्थान पर रहते हुए वर्षा कब होगी या यह वर्षा कब बन्द होगी ऐसी चिन्ता करना एवं वर्षा से बचने के लिए छाता या चटाई आदि का उपयोग करना। प्रायश्चित्त तप के अतिचार - अपने लगे हुए दोषों में मन से ग्लानि न होना अतिचार है। अज्ञान से, प्रमाद से, आलस्य से और कर्मों की गुरुता से मैंने अशुभ कर्म के बन्ध में कारणभूत जो यह कार्य किया है वह बुरा किया है, ऐसे भाव होना जुगुप्सा है। इस प्रकार के भाव न होना प्रायश्चित्त तप के और अतिचारों Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - १७४ की शुद्धि के भाव न होना आलोचना के अतिचार हैं। आलोचना और प्रायश्चित्त के अतिचार तदुभय प्रायश्चित्त के अतिचार है। भावपूर्वक विवेक न होना विवेक प्रायश्चित्त तप के अतिचार हैं, शरीर से ममत्व न हटाना कायोत्सर्ग के तथा अशुभ ध्यान रूप परिणाम होना व्युत्सर्ग के अतिचार हैं। ऐसे अन्य भी अतिचार आगम से ज्ञातव्य हैं। क्षपक के अपराध प्रगट करना महान् दोष है विश्वस्तो भाषते सर्वानाचार्याणामसी न सः । आचार्यो भाषतेऽन्येभ्यस्तां स्तुवन् स्विदधार्मिकः ।।५०७ ।। अर्थ - क्षपक मुनि आचार्य को विश्वसनीय मानकर अपने दोष उनसे कहता है किन्तु जिनेन्द्रकथित धर्म से भ्रष्ट यदि कोई आचार्य शिष्य द्वारा कथित उन दोषों को दूसरों पर प्रगट कर देता है तो ऐसा आचार्य जिनधर्म से बहिर्भूत है ।।५०७॥ . रहस्य-भेदिना तेन, त्यक्ताः कल्मष-कारिणा। साधुरात्मा गणसङ्घो, मिथ्यात्वाराधना कृता ॥५०८॥ अर्थ - क्षपक के गुप्त दोषों को प्रगट कर देनेवाले उस पापकारी आचार्य ने मानों चार आराधनाएँ ही नष्ट कर दी। इतना ही नहीं अपितु उसने उस साधु का त्याग, संघ का त्याग, गण का त्याग और अपनी आत्मा कभी न कर निकी कार दी, ऐसा समझना चाहिए ॥५०८॥ दोष कहने मात्र से साधु का त्याग हो जाता है रहस्यस्य कृते भेदे, पृथग्भूयावतिष्ठते । कोपतो मुञ्चते वृत्तं, मिथ्यात्वं वा प्रपद्यते ॥५०९॥ अर्थ - अपने दोषों को प्रगट हुआ जान कर क्षपक साधुसंघ छोड़ कर चला जायेगा, या क्रोधावेश में दीक्षा ही छोड़ देगा अथवा मिथ्यात्व को प्राप्त हो जाएगा ।।५०९ ।। प्रश्न - क्षपक साधु इस प्रकार की क्रिया क्यों करेगा ? उत्तर - अपने गुप्त दोषों का प्रकाशन देखकर व्यथित होता हुआ वह सोचेगा कि अहो ! विश्वासपात्र जान कर मैंने इन्हें अपने दोष कहे थे किन्तु इसने मेरे साथ विश्वासघात किया है, अब यह मेरा गुरु नहीं है। यदि मैं इसे प्रिय होता तो यह मेरे दोष दूसरों से क्यों कहता ? मैंने अद्यावधि जो माना था कि "ये गुरु ही मेरे प्राण हैं" आज मेरी वह श्रद्धा नष्ट हो गई। अब मैं एक-क्षण भी इसके संघ में नहीं रह सकता । लज्जित होकर या आत्मगौरव खोकर संघ में रहने की अपेक्षा तो असंयमी जीवन ही उत्तम है। ऐसा सोच कर क्षपक संयम छोड़ देगा, या अन्य संघ में चला जायेगा या मिथ्यात्व का सेवन करने लगेगा। क्षपक के दोष दूसरों के प्रति व्यक्त करने से आचार्य की स्वयं की आत्मा का त्याग हो जाता है मारयत्यथवा सूरि, साधुर्मान-ग्रहाकुलः। संसारकानन-भ्रान्तिं, न मन्यन्ते हि मानिनः ।।५१० ।। Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - १७५ अर्थ- अथवा अपने दोों को प्रगट होते देख कर मानरूपी पिशाच से आकुलित होता हुआ वह क्षपक आचार्य को ही मार डालता है, क्योंकि मानी मनुष्य संसार-भ्रमण को नहीं मानते॥५१०।। दोष कहनेवाले आचार्य का मानों गण ने त्याग कर दिया विश्वस्तो भाषते शिष्यः, सूरेरग्रे स्वदूषणम्। परस्याथ पुनबूंते, पदनाद-बहिनः ।।१२।। यथायं दूषितोऽनेन, दूषयिष्यति नस्तथा। इति क्रुद्धो गणः सर्वः, पृथक्त्वं प्रतिपद्यते ।।५१२॥ अर्थ - आचार्य द्वारा क्षपक के दोष प्रगट किये जाने पर गण के साधु विचार करते हैं कि अहो! आचार्य के समक्ष शिष्य तो विश्वस्त होकर अपने दोष प्रगट करता है और सदाचार से बहिर्भूत यह आचार्य उन दोषों को दूसरों से कह रहा है। इसने जैसे इस क्षपक का दोष प्रगट किया उसी प्रकार यह हमारे दोष भी प्रगट कर देगा, ऐसा विचार कर क्रोधित होता हुआ सर्व गण आचार्य को छोड़ कर चला जायगा अथवा आचार्य को छोड़ देगा ||५११-५१२॥ दोष प्रगट करने से संघत्याग एतस्याचार्यकं समो, विच्छिनत्ति चतुर्विधः । निर्घाटयति वा रुष्टो, रोषतः क्रियते न किम् ।।५१३॥ अर्थ - दोष प्रगट करने वाले आचार्य का चतुर्विध संघ नष्ट होता है या क्रोधावेश में संघ आचार्य को निकाल देता है क्योंकि क्रोध से क्या-क्या नहीं किया जाता? ||५१३ ।। प्रश्न - संघ किसे कहते हैं ? उत्तर - जिसमें रत्नत्रय का उपदेश किया जाता है ऐसे मुनि, आर्यिका, श्रावक और श्राविका के समुदाय को संघ कहते हैं। दोष प्रगट करने से मिथ्यात्व की आराधना होती है आचार्यो यत्र शिष्यस्य, विदधाति विडम्बनाम् । धिक् तानिर्धर्मकान्साधूनिति वक्ति जनोऽखिलः॥५१४॥ विश्वासघातका एव, दुष्टाः सन्ति दिगम्बराः। ईदृशीं कुर्वते निन्दां, मिथ्यात्वाकुलिता जनाः ॥५१५॥ अर्थ - क्षपक के दोष प्रगट करने से सर्व लोग कहने लग जाते हैं कि देखो ! इस जैन धर्म के आचार्य ही अपने शिष्य की विडम्बना कर रहे हैं। धिक्-धिक ऐसे धर्म विहीन साधुओं को। ये जैन साधु ऐसे होते हैं ? ये दिगम्बर दुष्ट हैं, अपने शिष्यों के साथ ही विश्वास-घात करते हैं, इस प्रकार मिथ्यादृष्टि लोग जैनधर्म की निन्दा करते हैं ।।५१४-५१५॥ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परणकण्डिका - १७६ पृष्टोऽपृष्टोऽपि यो ब्रूते, न रहस्यं कदाचना। इत्यादयो न विद्यन्ते, दोषास्तस्य गणेशिनः ॥५१६ ॥ अर्थ - जो अपरिस्रावी गुणज्ञ आचार्य क्षपक के दोष सुन कर मन में गुप्त रखते हैं, पूछने पर या न पूछने पर भी वह दोषरूप रहस्य कदापि दूसरों को नहीं कहते उस श्रेष्ठ निर्यापकाचार्य को गणत्याग आदि उपर्युक्त दोष नहीं लगते ।।५१६॥ इति विमुच्य रहस्य-विभेदकं, भजत गुल्य-निगूहक-मञ्जसा। न हि विशुद्ध-हिताहितवस्तवो, हितमपोहा भजन्त्यहितं जनाः ॥५१७॥ इति अपरिमेयः॥ अर्थ - ग्रन्थकार निर्यापकाचार्य को उपदेश देते हैं कि आप अपने अपरिस्रावी गुण को जानकर क्षपक के दोषों का प्रगटी-करण कभी नहीं करना। आप गुप्त दोषों को प्रगट करना छोड़ दो, क्षपक के दोष छिपाओ, क्योंकि हिताहित को सानोवाले महापुरुष दिन को लोड कर. अहितजन्य प्रवृत्ति कभी नहीं करते ।।५१७।। इस प्रकार अपरिस्रावी गुण का वर्णन पूर्ण हुआ । सुखकारी गुण कथन शुश्रूषक-प्रमादेन, शय्यायामासनादिके। सम्पन्ने दीन-वाक्येन, शिष्यकाणामसंवृते ॥५१८॥ अर्थ - क्षपक की सेवा-वैय्यावृत्य करनेवालों के प्रमाद से, संस्तर, आसन एवं भोजन-पानादि अनुकूल न होने से या उनकी व्यवस्था में विलम्ब कर देने से अथवा सल्लेखना विधि से अनजान साधुजनों के कठोर या प्रतिकूल या अपमानजनक वचन बोल देने से या असंयमी गृहस्थों के निमित्त से क्षपक कुपित हो सकता है ।।५१८॥ वेदनायामसयायां, क्षुत्तृष्णोष्ण-हिमादिभिः। क्षपकः कोपमासाद्य, मर्यादा विविभित्सति ॥५१९॥ अर्थ - अथवा असह्य वेदना से, भूख, प्यास, गर्मी एवं सर्दी की पीड़ा से क्षपक कुपित हो सकता है और अपनी मर्यादा का उल्लंघन कर सकता है।५१९ ।। निपकेण शान्तेन, शमनीयः स सूरिणा! क्षमापरेण वीरेण, कुर्वता चित्त-निर्वृतिम् ॥५२०॥ अर्थ - क्षमाशील एवं धैर्यशाली निर्यापकाचार्य कुपित अथवा मर्यादा उल्लंघन करने को तत्पर क्षपक की चित्तवृत्ति को शान्तभाव से शमन करते हैं ।।५२० ।। प्रश्न - निर्यापकाचार्य यदि क्षमाशीलादि भावों से युक्त न हों तो क्या हानि है? उत्तर - आचार्य क्रोधी क्षपक के सदृश ही कुपित होकर उसे डाँटने लगेगा। अभिमानी आचार्य क्षपक को प्रसन्न करने का प्रयास ही नहीं करेगा। Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - १७७ अक्षमाभाववाला आचार्य क्षपक पर क्षमाभाव नहीं रख पायेगा । तेजस्विता के अभाव में आचार्य क्षपक पर अपने वचनों का प्रभाव ही नहीं डाल पायेगा, तब भूखप्यास से पीड़ित क्षपक असमाधि कर दुर्गति का पात्र बन जायेगा, अतः निर्यापकाचार्य को शान्तपरिणामी, निरभिमानी, क्षमाशील, धैर्यशाली और तेजस्वी होना चाहिए । बहुप्रकार पूर्वाङ्ग - श्रुत- रत्नकरण्डकः । सर्वानुयोग - निष्णातो, वक्ता कर्ता महामतिः ॥ ५२१ ॥ अर्थ - जैसे पिटारे में रत्न भरे रहते हैं, वैसे ही जो आचार्य बहुत प्रकार के अंग और पूर्व रूप रत्नों के खजाने हैं, सर्व अनुयोगों में निपुण हैं, वक्ता हैं, कर्ता हैं और महाबुद्धिशाली हैं वे ही कलुषचित्त क्षपक को शान्त कर सकते हैं ॥ ५२१ ॥ प्रश्न आचार्य के इन विशेषणों का विशेष अर्थ क्या है ? उत्तर- श्रुतज्ञान के अंग प्रविष्ट और अंग बाह्य नामक दो भेद हैं। अंग प्रविष्ट के आचारांग आदि बारह भेद हैं। अंग बाह्य के भी बहुत भेद हैं। जैसे -सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, वैनयिक, कृतिकर्म, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, कल्पव्यवहार, कल्प, महाकल्प, पुण्डरीक, महापुण्डरीक इत्यादि । आचार्यदेव सर्वश्रुत के अथवा समयानुसार जितना श्रुत उपलब्ध होता है उसके ज्ञाता होते हैं, अत: उन्हें श्रुत का पिटारा कहा गया है। - सर्वानुयोग निष्णात जो-जो वस्तुविषय प्रस्तुत हैं, उस उस विषय में सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व आदि अनुयोगों की योजना करने में जो आचार्य कुशल होते हैं, वे आचार्य ही क्षपक की अशान्ति का शमन कर सकते हैं। - - वे आचार्य वक्तृत्व कला में अर्थात् व्याख्यान करने में कुशल होते हैं। वक्ता कर्ता - जो विधिपूर्वक सम्पूर्ण विनय एवं वैयावृत्य करने में निष्णात होते हैं और प्रथमानुयोग आदि चारों अनुयोगों में अत्यन्त कुशल होते हैं। वे ही कुपित शिष्य को शान्त कर पाते हैं। कथानां कथने दक्षो, हेयादेय-विशारदः । क्रुद्धं शास्ति यतिर्धीरः, प्रकृत- प्रतिपादकः ॥ ५२२ ॥ अर्थ - आराधना एवं वैराग्य वर्धक कथाएँ कहने में दक्ष, हेय और उपादेय का भली प्रकार विवेचन करने में निपुण तथा प्रकृत अर्थात् समाधि के विषय का प्रतिपादन करने में प्रयत्नशील धीर नियपिकाचार्य ही कुपित हुए क्षपक को शान्त एवं प्रसन्न कर सकते हैं ॥ ५२२ ॥ गम्भीरां मधुरां श्रव्यां, शिष्य-चित्त-प्रसादिनीम् । सुखकारी ददात्यस्मै, स्मृत्यानयनकारिणीम् ॥५२३ ।। अर्थ - वे निर्यापक अर्थ की प्रगाढ़ता होने से गम्भीर, कठोराक्षर न होने से मधुर, प्रिय वचनों की Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - १७८ बहुतायत होने से स्निग्ध, कर्णप्रिय, शिष्य के चित्त में पूर्व अभ्यास किये हुए श्रुत के अर्थ का स्मरण करा देने में समर्थ ऐसी श्रेष्ठ वाणी द्वारा क्षपक के लिए कथा कहते हैं या दिव्य देशना देते हैं॥५२३ ।। सुखकारी दधात्येनं, मज्जन्तं दुस्तरे भवे। पूत-रत्नभृतं पोतं, कर्णधार इवार्णवे ।।५२४।। शील-संयमरत्नान्यं, यति-नावं भवार्णवे। निमज्जन्तीं महाप्राज्ञो, विभर्ति सूरि-नाषिकः ॥५२५ ॥ अर्थ - जिस प्रकार उत्तम रत्नों से भरी हुई किन्तु समुद्र में डूबती हुई नौका की रक्षा नाविक अर्थात् खेवटिया करता है, उसी प्रकार शील एवं संयमरूपी श्रेष्ठ रत्नों से भरी हुई किन्तु भूख-प्यास आदि परीषह रूपी तरंगों से दुस्तर भवसमुद्र में डूबने के सम्मुख हुई क्षपक यति रूपी सुखकारी नौका की रक्षा महाप्राज्ञ निर्यापकाचार्य रूपी नाविक अर्थात् कर्णधार करते हैं। वे परीषहों से शिथिल-परिणामी क्षपक को घोर संसार-सागर में पतित होने से बचा लेते हैं ।।५२४-५२५ ॥ कर्णाहुतिं न चेद्दत्ते, धृति-स्थामकरी गणी। आराधनां सुखाहतीं, जहाति क्षपकस्तदा ॥५२६॥ अर्थ - यदि आचार्य धैर्य एवं स्मृति की स्थिरता रूप मधुरवाणी की कर्णाहुति न दें अर्थात् क्षपक के कानों में न सुनावें तो वह क्षपक सुखावह आराधना को छोड़ देता है ।।५२६॥ क्षपकस्य सुखं दत्ते, कुर्वन्यो हित-देशनाम् । निर्यापकं महाप्राज्ञं, तमाहुः सुखकारणम् ॥५२७॥ अर्थ - महाप्राज्ञ निर्यापकाचार्य हित का उपदेश देकर क्षपक को सुख देते हैं, अतः उस आचार्य को 'सुखकारी' इस नाम से कहते हैं॥५२७ ।। ददाति शर्म क्षपकस्य, सूरिनिर्यापकः सर्वमपास्य दुःखम् । यतस्ततोऽसौ क्षपकेण सेव्यः, सर्वे भजन्ते सुखकारिणं हि ॥५२८॥ इति सुखकारी ॥ अर्थ - निर्यापकाचार्य क्षपक के सर्व दुख दूर करके उसे सुख देते हैं, इस कारण वे आचार्य क्षपक के द्वारा सेवनीय होते हैं, क्योंकि सभी जीव सुखकारी पदार्थों का आश्रय लेते हैं॥५२८ ।। इस प्रकार आचार्य के सुखकारी विशेषण का कथन पूर्ण हुआ। शशिकला छन्द शिवसुखमनुपममपरुजममलं, व्रतवति शमवति हितकृति सकलम् । वितरति यतिपतिरिति गुणकलितः, शम-यम-दममय-मुनिजन-महितः॥५२९॥ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका- १७९ अर्थ - जो निर्यापकाचार्य शम अर्थात् शान्ति, यम अर्थात् व्रत- नियम और दम अर्थात् इन्द्रियदमन रूपगुणों से युक्त मुनिजनों द्वारा पूजित हैं और अनेक गुणों से संयुक्त हैं, वे आचार्य महाव्रतधारी तथा प्रशमभाव वाले क्षपक के लिए अनुपम, आरोग्य, निर्दोष एवं हितकारी शिवसुख देते हैं ।। ५२९ ॥ वंशस्थ छन्द गुणैरमभिः कलितोष्टभिर्जनैः, समेत्यकीर्तिः शशिरश्मि-निर्मलाम् । आराधना सिद्धि-वराङ्गना- सखीं, ददाति सूरिः क्षपकाय निश्चितम् ||५३० ॥ इति सुस्थितः ॥ १७ ॥ अर्थ - आचारवत्व आदि आठ गुणों से मण्डित निर्यापकाचार्य की कीर्ति सर्वत्र फैलती है और वे चन्द्रकिरण सदृश निर्मल आराधना की सिद्धि रूपी श्रेष्ठ स्त्री की सखी अर्थात् उत्तम समाधि नियमतः क्षपक के लिए देते हैं || ५३० ॥ इस प्रकार 'अर्ह' आदि चालीस अधिकारों में से 'सुस्थित' नाम का सत्तरहवाँ अधिकार पूर्ण हुआ ॥ १७ ॥ १८. उत्सर्पण - अधिकार गुरुकुल में क्षपक के आत्मोत्सर्ग का क्रम निर्यापकं गुणोपेतं, मार्गयित्वातियत्नतः । उपसर्पत्यसौ सूरिर्ज्ञान - चारित्र - मार्गकः ॥ ५३१ ॥ अर्थ - इस प्रकार ज्ञान और चारित्र मार्ग पर आरूढ़ क्षपक बड़े यत्न से आचारवत्व आदि आठ गुणों से युक्त आचार्य का अन्वेषण कर उनके निकट जाता है ॥ ५३१ ॥ कृतिकर्म विधायासौ, परिपूर्ण त्रिशुद्धितः । आचार्य - वृषभं वक्ति, मस्तकारोपिताञ्जलिः ॥५३२ ।। अर्थ- मन, वचन और काय इन तीनों की शुद्धिपूर्वक आवर्त, शिरोनति और कायोत्सर्ग सहित सिद्धश्रुताचार्य भक्तिरूप कृतिकर्म को परिपूर्ण करके अभ्यागत मुनि अपने मस्तक पर अंजलि रख कर आचार्य श्रेष्ठ को कहता है ।। ५३२ ॥ तीर्ण श्रुत पयोधीनां समाधान - विधायिनाम् । - युष्माकमीश पादान्ते द्योतयिष्यामि संयमम् ॥५३३ ॥ > अर्थ- हे ईश ! आपने द्वादशांग श्रुतज्ञानरूपी समुद्र का दूसरा किनारा प्राप्त कर लिया है एवं आप समाधान अर्थात् समाधिमरण प्राप्त करानेवाले हैं, मैं आपके चरणों का आश्रय लेकर अपना संयम उज्ज्वल करूँगा ||५३३॥ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ win8p दीक्षा - प्रभृति निःशेषं, विधायालोचनामहम् । विजिहीर्षामि निःशल्यश्चतुरङ्गे निराकुलः ॥ ५३४ ॥ अर्थ- दीक्षाग्रहण काल से अद्यावधि महाव्रतादिकों में जो-जो दोष लगे हैं, उन सबकी मैं आकंपित, अनुमानित आदि दश दोषों से रहित आलोचना करके दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप इन चारों आराधनाओं में निशल्य होकर प्रवृत्ति करने की इच्छा करता हूँ ।। ५३४ ॥ एवं कृते स्वनिक्षेपे ततो ब्रूते गणेश्वरः । निर्विघ्नमुत्तमार्थं त्वं साधयस्व महामते || ५३५ || अर्थ - इस प्रकार विनयपूर्वक अपने आप को समर्पित कर देने पर आचार्यदेव कहते हैं कि हे महामते ! तुम बिना किसी विघ्न-बाधा के उत्तम अर्थ अर्थात् रत्नत्रय रूप द्रव्य की साधना करो || ५३५ || धन्यः स त्वं वन्दनीयो बुधानां साधो ! बुद्धिर्निश्चिता चास्तमोह ! यस्यासन्नाराधनां सिद्धि-दूती, तीक्ष्णां जन्मारामशास्त्रीं ग्रहीतुम् ||५३६ ॥ अर्थ - निर्यापकाचार्य क्षपक मुनि से कहते हैं कि मोक्ष रूपी स्त्री की दूती के सदृश, जन्मरूपी उद्यान को नष्ट करने के लिए तीक्ष्ण शस्त्र के सदृश आराधना ग्रहण करने हेतु जिसकी बुद्धि निश्चित हो चुकी है ऐसे तुम धन्य हो । हे साधो ! तुम ज्ञानी पुरुषों द्वारा वन्दनीय हो । अहो ! तुम मोहरहित हो || ५३६ ॥ महामते ! तिष्ठ निराकुलः त्वं, प्रयोजनं यावदिदं त्वदीयम् । समं सहायैरवधारयामस्तत्त्वेन कृत्यं हि परीक्ष्य सद्भिः ॥ ५३७ ॥ इति उपसर्पण - सूत्रम् ॥ १८ ॥ अर्थ - आचार्य क्षपक को कहते हैं कि जब तक यह तुम्हारा प्रयोजन है तब तक के लिए हे महामते ! तुम निराकुलतापूर्वक हमारे संघ में ठहरो । हम वैयावृत्य करनेवालों के साथ तुम्हारे इस विषय पर भली प्रकार से विचार-विमर्श करते हैं, क्योंकि सज्जन पुरुषों को परीक्षा करके ही कार्य करना चाहिए ।। ५३७ ॥ इस प्रकार उपसर्पण अधिकार पूर्ण हुआ ॥ १८ ॥ १९. परीक्षा अधिकार आचार्य द्वारा क्षपक मुनि की परीक्षा का निर्देश आचार्य : करणोत्साहं, विज्ञातुं तं परीक्षते । जिघृक्षाऽविचिकित्साभ्यामुत्तमार्थे समाधये ॥ ५३८ ॥ अर्थ - मार्गज्ञ आचार्य परीक्षा करते हैं कि यह क्षपक रत्नत्रयाराधन की क्रिया में उत्साही है या नहीं। यह क्षपक समाधि के लिए उद्यत तो हुआ है किन्तु मनोज्ञ आहार में अभिलाषावान और अमनोज्ञ आहार में इसे ग्लानि है या नहीं। तथा उत्तमार्थ की चार आराधनाओं के आराधन में इसका कितना उत्साह है । इत्यादि प्रकार से निर्विघ्न समाधि हेतु परीक्षा करते हैं । ५.३८ ।। Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - १८१ आराधनागतं क्षेम, क्षपकस्य समीयुषः । दिव्येन नि:प्रमादोऽसौ, निमित्तेन परीक्षते ॥५३९ ॥ इति परीक्षणम् ॥१९ ।। अर्थ - आराधना हेतु आगत क्षपक की आराधना के समय क्षेम अर्थात् सुख-शान्ति रहेगी या नहीं? इस विषय की परीक्षा, निमित्तज्ञान एवं दिव्यज्ञान द्वारा आचार्य निःप्रमादी होकर करते हैं॥५३९ ।। प्रश्न - आचार्य यह परीक्षा क्यों और कैसे करते हैं? उत्तर - आचार्यदेव क्षपक के हितार्थ और धर्म की वृद्धि आदि के लिए सर्वप्रथम क्षपक की परीक्षा करके ही उसे स्वीकार करते हैं। यथा सर्वप्रथम क्षपक के आहारजन्य परिणामों की परीक्षा करना अति आवश्यक है क्योंकि अन्न-जल का त्याग कर देना अति दुःसाध्य कार्य है। यदि क्षपक का मानसिक बल कमजोर होगा तो वह भूख आदि को असहय वेदना होने पर रोने-चिल्लाने लगे, भाग जावे या असमय में और अयोग्य आहार आदि कर ले तो धर्म और गण की निन्दा के साथ-साथ क्षपक का भारी अहित होगा। इस प्रकार परीक्षा अधिकार पूर्ण हुआ ।।१९।। २०. पडिलेहा अर्थात् निरूपण अधिकार तं गृहीते मार्गवेदी गणं स्वं, राज्यं क्षेत्रं भूमिपालं निरूप्य । साधु सूरे गृह्णतो नि:परीक्षं, चित्रा दोषा दुर्निवारा भवन्ति ।।५४०॥ इति निरूपणम्॥ अर्थ - रत्नत्रय मार्ग के ज्ञाता आचार्य स्वयं अपना सामर्थ्य, गण का भाव, राज्य, क्षेत्र और राजा आदि के विषय में विचार करके ही समाधि हेतु आये हुए क्षपक को ग्रहण करते हैं। यदि आचार्य इन सबकी परीक्षा किये बिना ही समाधि हेतु साधु को ग्रहण कर लेते हैं तो नाना-प्रकार के दुर्निवार दोष आते हैं ।।५४०॥ प्रश्न - आचार्यदेव इन सबके विषय में इतना विचार क्यों और किस प्रकार से करते हैं ? उत्तर - मनुष्यों के कोई भी शुभाशुभ कार्य शुभाशुभ संकेत दिये बिना नहीं होते। आचार्यदेव महाज्ञानी होते हैं। वे रत्नत्रय के मार्ग के साथ-साथ अनेक प्रकार के दिव्यों एवं निमित्तों के भी ज्ञाता होते हैं। दूसरे की समाधि सुचारु रीत्या सम्पन्न करा देना यह कोई सहजसाध्य कार्य नहीं है, अत: सर्वप्रथम आचार्य स्वयं का आत्मबल, परोपकार के प्रति स्वयं का मानसिक उत्साह, अपने गण पर स्वयं का वर्चस्व आदि तौलते हैं। पश्चात् यह देखते हैं कि इस समाधिकार्य से राज्यादि का शुभ होगा या नहीं ? यदि शुभ होने के लक्षण न हों अथवा राज्य धर्मद्वेषी हो तो आचार्य क्षपक को लेकर अन्य राज्य या अन्य नगर या अन्य ग्राम में चले जाते हैं। परीक्षा न करने पर यदि राज्य आदि में समाधि के समय उत्पात आदि हुआ तो आचार्य और क्षपक दोनों को कष्ट उठाना पड़ेगा। किसी देव के उपदेश या संकेत से, शुभाशुभ स्वप्नों से या शुभाशुभ निमित्तों से गण का, स्वयं का या क्षपक का अनिष्ट देखते हैं तो समाधि जैसे उत्तम कार्य का प्रारम्भ नहीं करते। जो आचार्य Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - १८२ बिना परीक्षा किये कार्य प्रारम्भ कर देते हैं वे अपना धर्म का एवं क्षपक का अर्थात् इनमें से किसी का भी उपकार नहीं कर सकते हैं। इस प्रकार निरूपण अधिकार पूर्ण हुआ || २० ॥ २१. पृच्छा अधिकार आपृच्छ्य क्षपकं सूरिगृह्णाति प्रतिचारकैः । अनुज्ञातमपृच्छायां त्रयाणां मनसः क्षतिः || ५४१ ।। इति पृच्छा ॥ अर्थ - क्षपक को समाधि हेतु ग्रहण करने के पूर्व आचार्य अपने संघस्थ परिचारक अर्थात् वैयावृत्य करने में कुशल मुनिजनों से पूछते हैं, पश्चात् क्षपक को ग्रहण करते हैं। यदि संघस्थ मुनिजनों से न पूछा जाय तो आचार्य, क्षपक और संघ तीनों को संक्लेश होगा ।।५४१ ॥ प्रश्न - परिचारकों से कैसे पूछा जाता है और न पूछने पर तीनों को संक्लेश क्यों होता है? उत्तर - आचार्य परिचारक साधुओं से इस प्रकार पूछते हैं कि यह अतिथि क्षपक रत्नत्रय की साधना में हमारी सहायता चाहता है। साधुसमाधि और आगत विघ्नों को दूर कर क्षपक की सेवा-शुश्रूषा अर्थात् वैयावृत्य करना तो तीर्थंकर नामकर्म के बन्ध के कारण हैं, यह बात आप सब जानते ही हैं। ऐसा पुण्य देने के लिए आये हुए इस साधु को साहाय्य देना हमारा कर्तव्य है या नहीं ? इस विषय में आप सबकी जो सम्पति हो, सो कहो। जगत् में लौकिक जन भी परोपकार में तत्पर रहते दिखाई देते हैं, तब यतिजनों का तो कहना ही क्या है ? वे तो समस्त निकट भव्य जीवों को संसाररूपी अगाध कीचड़ से निकालने में उद्यमशील रहते हैं। " आत्महित करना चाहिए और यदि शक्य हो तो परहित भी अवश्य करना चाहिए" ऐसा आगम-वचन है, इत्यादि । इस प्रकार पूछने पर यदि वे सम्मति देते हैं तो आचार्य क्षपक को स्वीकार करते हैं, अन्यथा नहीं । परिचारकों को पूछे बिना क्षपक को ग्रहण कर लेने पर यदि गण के साधु आगत क्षपक की विनय एवं वैयावृत्य नहीं करेंगे तो क्षपक को संक्लेश होगा कि मैं कहाँ फँस गया हूँ क्योंकि संघस्थ साधु तो मेरी कुछ भी संभाल नहीं करते हैं। गुरु को अति संक्लेश होगा कि देखो ! मैंने इसका उपकार करना प्रारम्भ किया किन्तु संघ आंशिक भी सहायता नहीं करता है, अब मैं अकेला क्या करूँ ? परिचारक यतियों को संक्लेश होगा कि यह कार्य तो बहुत जनों के करने का है किन्तु हमारा यह गुरु नहीं मानता और न हमारे सामर्थ्य का ही विचार करता है, और जब हमसे पूछा ही नहीं, तब हमें क्या करना, इत्यादि । इस प्रकार पृच्छा अधिकार पूर्ण हुआ ।। २१ ।। २२. एकसंग्रह अधिकार एक ही क्षपक को संस्तरारूढ़ होने की जिनेन्द्राज्ञा है एक: संस्तरकस्थोऽग्नौ यजतेऽड्गं जिनराज्ञया । दुः करै: संल्लिखत्यन्यस्तपोभिर्विविधैर्यति ||५.४२ ।। Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - १८३ अर्थ - संस्तर पर स्थित होकर मात्र एक क्षपक जिनाज्ञानुसार तपरूपी अग्नि में शरीर का दान करता है अर्थात् यावज्जीवन आहार का त्याग कर शरीर की पूर्णाहुति तपाग्नि में करता है, तथा अन्य कोई एक यति विविध प्रकार से उग्र-उग्र तपश्चरण द्वारा शरीर को कृश करता है॥५४२ ।। प्रश्न - इस श्लोक का क्या भाव है ? उत्तर - इसका भाव यह है कि एक संघ में एक साथ दो मुनि संस्तर ग्रहण कर आहार का यावज्जीवन त्याग न करें। एक क्षपक आहार का त्याग कर संस्तराख हो और कोई दूसरा उग्र का अपने शरीर को कृश करने का उद्यम करे। यजमान-क्षतेजैनैस्तृतीयो नानुमन्यते । द्वि-त्रेषु श्रित-पात्रेषु, समाधिीयते तराम्॥५४३ ।। अर्थ - सल्लेखनारत मुनि की हानि होती है, अत: जैनाचार्य तीसरे क्षपक को ग्रहण करने की आज्ञा नहीं देते हैं। यदि एक संघ में एक निर्यापकाचार्य के निर्देशन में एक साथ दो-तीन मुनियों को संस्तरारूद कर लेते हैं तो उनकी समाधि अतिशयरूप से नष्ट हो जाती है ॥५४३ ।। प्रश्न - जैनाचार्यों ने एक साथ दो-तीन क्षपकों को संस्तरारूढ़ होने की आज्ञा क्यों नहीं दी? उत्तर - एक आचार्य के निर्देशन में एक साथ दो-तीन साधुओं को संस्तरारूढ़ कर लेने पर उन सभी के चित्त का समाधान करना, धर्मोपदेश द्वारा घबराये हुए मन को शान्त करना, शरीरमर्दन करना, मल-मूत्रादि के त्याग के समय सँभालना और भी अन्य-अन्य प्रकार से वैयावृत्य करना, एक निर्यापकाचार्य कैसे सम्पन्न कर सकेगा? तथा संघस्थ परिचारक मुनि भी सबकी वैयावृत्य के कार्यों में शान्तिपूर्वक संलग्न नहीं हो सकते । सबके सर्व कार्य सम्पन्न न हो सकने के कारण सभी को संक्लेश होगा जो समाधि को नष्ट करने का साधन है, अतः एक समय में एक आचार्य एक ही क्षपक को संस्तरारूढ़ करावे। रथोद्धता छन्द एकमेव विधिना यतिं ततः स्वीकरोति स्वसहाय-सम्मतम् । गृह्यते हि कवल: स एव यः पण्डितेन वदने प्रशस्यते ॥५४४ ।। इति एकसंग्रहः ॥२२॥ अर्थ - इस प्रकार जिनाज्ञा मान कर एक निर्यापक एक ही क्षपक को विधिपूर्वक अपने स्व सहाय की सम्मति देकर स्वीकार करता है। क्योंकि मुख में वही ग्रास ग्रहण किया जाता है जो विद्वानों के द्वारा प्रशंसनीय माना जाता है ।।५४४॥ प्रश्न - मुख में बड़ा ग्रास ग्रहण करने से क्या हानि है और इस दृष्टान्त का क्या प्रयोजन है? उत्तर - मुख में उतना बड़ा ही ग्रास लिया जाता है जो सुखपूर्वक चबाकर गले से उतारा जा सके और ऐसा ग्रास लेना ही प्रशंसा के योग्य होता है। यदि बड़ा ग्रास या एक साथ दो-तीन ग्रास एक साथ मुख में भर लिये जाँय तो उसका आना, चबा नहीं सकना, आँखों से पानी बहना एवं ग्रास का मुख से बाहर निकल जाना, Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - १८४ ऐसी अनेक प्रकार की परेशानियाँ हो जाती हैं। इस दृष्टान्त का यह प्रयोजन है कि जैसे प्रमाण युक्त एक-एक ग्रास ही प्रशंसनीय है उसी प्रकार एक निर्यापकाचार्य द्वारा एक क्षपक को संस्तरारूढ़ कराना ही जिनेन्द्राज्ञा के अनुकूल है। इस प्रकार एकसंग्रह अधिकार पूर्ण हुआ।।२२।। मध्ये गणस्य सर्वस्य, क्षपकं भाषते हितम्। इत्थं कारयितुं शुद्धां, विधिनालोचनां गणी ।।५४५ ।। अर्थ - सर्व संघ के मध्य में विधिपूर्वक शुद्ध आलोचना कराने हेतु निर्यापकाचार्य क्षपक को इस प्रकार का हितकारी उपदेश देते हैं ।।५४५॥ प्रश्न - समझाना तो क्षपक को है, फिर आचार्य सर्वसंघ के मध्य उपदेश क्यों देते हैं? उत्तर - सर्वसंघ के समक्ष क्षपक को उपदेश देने का यह प्रयोजन है कि सर्वसंघ को भी समाधि का स्वरूप, शुद्ध आलोचना का स्वरूप, आलोचना करने की विधि, आलोचना-आकम्पित आदि दस दोष, मनोयोग से वैयावृत्य करने की विधि एवं उसका फल तथा किस समय क्या प्रवृत्ति एवं क्या-क्या त्याग होना चाहिए, इत्यादि विषयों का विस्तृत ज्ञान संघ को भी हो जावे। २३. आलोचना अधिकार निर्यापकाचार्य का क्षपक को उपदेश समस्तं स्पर्श-चारित्रं, निरस्य सुख-शीलताम्। परीषह-चमू घोरां, सहमानो निराकुलः ।।५४६ ।। अर्थ - आचार्य क्षपक को दिव्य देशना देकर समझाते हैं कि - हे क्षपक ! अब तुम अपना सुखिया स्वभाव छोड़कर सम्पूर्ण चारित्र को धारण करो तथा घोर परीषहरूपी सेना के प्रहारों को सहन करते हुए निराकुल रहने का अभ्यास करो॥५४६।। प्रश्न - सुखिया स्वभाव छोड़ने का और निराकुल रहने का उपदेश क्यों दिया जा रहा है ? उत्तर - सुख-स्वभावी मुनि का चारित्र मन्द होता है । ऐसा मुनि वसतिका, संस्तर, आहार और उपकरण की शुद्धि नहीं करता | मनोज्ञ आहार में लम्पटी बन कर उद्गमादि दोषों का त्याग नहीं करता, सुन्दर एवं स्वच्छ उपकरणों में प्रीतियुक्त होने से उनके दोषों का परिहार नहीं करता, परीषहजन्य क्लेश सहन करने में असमर्थ होता हुआ जिस किसी प्रकार के दोषों से युक्त आहार-पान एवं वसतिका आदि को ग्रहण कर लेता है। आलस्यप्रिय होने से छह आवश्यकों को समय पर और मर्यादित समय तक नहीं करता, दिन को सोता है, तपजन्य क्लेश सहन करने में निरुत्साही होता है, गप्प-वार्ता करने में उत्साही तथा स्वाध्याय तप में निरुत्साही होता है और शरीर को सुख देनेवाले साधनों के लिए आकुल-व्याकुल रहता है। आकुलता ही दुख का लक्षण है, अत: आचार्यदेव सुखस्वभाव छोड़ने का और निराकुल रहने का उपदेश दे रहे हैं। Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - १८५ रूप-गन्ध-रस-स्पर्श-शब्दानां मा स्म भूर्वशः। कषायाणां विधेहि त्वं, शत्रूणामिव निग्रहम् ॥५४७ ।। अर्थ - भो क्षपक ! तुम पंचेन्द्रियों के स्पर्श, रस, गन्ध, रूप और मनोज्ञ शब्द रूप विषयों के आधीन कभी मत होना। जैसे शस्त्रों द्वारा शत्रुओं का निग्रह करते हैं वैसे ही तुम क्षमादि गुणों के द्वारा कषायों का निग्रह करने का उद्यम करो।।५४७ ॥ रागद्वेष-कषायाक्ष-संज्ञाभिर्गौरवादिकम् । विहायालोचनां शुद्धां, त्वं विधेहि विशुद्धधीः ।।५४८।। अर्थ - हे विशुद्धबुद्धिधारी क्षपकराज ! तुम राग, द्वेष, कषाय, इन्द्रियों को एवं ऋद्धि, रस एवं सात, इन तीन भेद वाले गारव को छोड़कर विशुद्ध आलोचना करो॥५४८ ।। प्रश्न - आलोचना के पूर्व राग-द्वेषादि छोड़ने की प्रेरणा क्यों दी जा रही है ? उत्तर - यह मानव-मन रागवश दोषों को नहीं देखता और द्वेषवश गुणों को नहीं देखता तथा ये रागद्वेष ही असत्य बोलने के मूल कारण हैं, अतः इनका निराकरण किये बिना शुद्ध आलोचना कर लेना सम्भव नहीं है। जैसे तालाब का कर्दम निकले बिना जल स्वच्छ नहीं हो सकता, वैसे ही रागद्वेष, कषाय एवं गारवादि दोषों के विद्यमान रहते शुद्ध आलोचना नहीं हो सकती, अतः सर्व प्रथम इन्हें छोड़ने की प्रेरणा दी गई है। निरतिचारवत होते हुए अन्याचार्य के समक्ष आलोचना करना आवश्यक है स षट्त्रिंशद्-गुणेनापि, व्यवहार-पटीयसा। कर्तव्यैषा महाशुद्धिरवश्यं पर-साक्षिका ।।५४९ ।। अर्थ - छत्तीस गुण समन्वित एवं व्यवहार में अर्थात् प्रायश्चित्त देने में कुशल क्षपक को अन्य आचार्य की साक्षी में ही अपने अतिचारों की शुद्धि करना आवश्यक है।।५४९ ।। ___छत्तीस गुण निरूपण अष्टाचारादयो ज्ञेयाः, स्थितिकल्पा गुणादश। तपो द्वादशधा षोढावश्यकं षट्-घडाहतम् ।।५५० ॥ अर्थ - आचारवत्व आदि आठ गुण, दश प्रकार का स्थितिकल्प, बारह तप और छह आवश्यक ये छत्तीस गुण हैं। अथवा आठ ज्ञानाचार, आठ दर्शनाचार, बारह तप, पाँच समिति और तीन गुमि इस प्रकार से भी छत्तीस गुण हैं ।।५५० || । सर्वे तीर्थकृतोऽनन्तजिनाः केवलिनो यतः। छास्थस्य महाशुद्धिं, वदन्ति गुरु-सन्निधौ ॥५५१॥ अर्थ - अतीतकाल में जितने तीर्थकर हुए हैं एवं अनन्त केवली जिन हुए हैं वे सब ही छद्मस्थ जीवों की महाशुद्धि गुरु के निकट होती है एसा कहते हैं ॥५५१ ।। Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - १८६ कुशलोऽपि यथा वैद्यः, स्वं निगद्यातुरो गदम् । वन्यस्य परतोऽज्ञात्वा, विदधाति परिक्रियाम् ।।५५२।। अर्थ - निर्यापकाचार्य क्षपक को समझा रहे हैं कि - देखो ! चतुर वैद्य भी रोग हो जाने पर अपना रोग दूसरे वैद्य को बता कर और उससे रोग दूर करने की औषधि एवं उसे ग्रहण करने की विधि ज्ञात कर रोग का प्रतिकार करता है ।।५५२॥ जानतापि तथा दोषं, स्व-मुक्त्वा परके गुरौ । परिज्ञाय विधातव्या, महाशुद्धिः पटीयसा ॥५५३॥ अर्थ - क्षपक स्वयं आचार्य है, चतुर है, दोषनिवृत्ति की विधि को स्वयं जानता है तो भी उसे अन्य आचार्य के निकट जाकर, विनयपूर्वक अपने दोष उनसे कह कर एवं दोषों का प्रक्षालन करने की विधि जानकर अपने रत्नत्रय की महाविशुद्धि कर लेनी चाहिए ।।५५३ ।। प्रश्न - आचार्य को भी परसाक्षी में दोष कह कर शुद्धि करने का विधान किस कारण कहा गया है? उत्तर - परसाक्षी पूर्वक अपराधों को साकार जात्मशुद्धि करने का विधान निर्धार कसे का कारण यह है कि एक महान् आचार्य को भी अन्य आचार्य के निकट अपने दोषों की आलोचना करते देख कर अन्य सभी यतिजन अपनी-अपनी आत्मा की शुद्धि का अनादि क्रम ऐसा ही है' इस प्रकार की श्रद्धा कर वे भी परसाक्षी पूर्वक ही शुद्धि करेंगे और यदि आचार्यजन ही स्वसाक्षी से शुद्धि करने लगेंगे, तब अन्य सभी साधु उसी मार्ग को अपनावेंगे, वे फिर क्यों गुरुजनों की शरण में जावेंगे ? क्योंकि लोग तो गतानुगतिक होते हैं। ततः सम्यक्त्व-चारित्र-ज्ञान-दूषणमादितः। एकाग्रमानसः सर्वं, त्वमालोचय यत्नतः॥५५४॥ अर्थ - इसलिए दीक्षाकाल से अद्यावधि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र में जो-जो दोष लगे हों उन सब की तुम सावधानीपूर्वक एकाग्रचित्त से आलोचना करो ।५५४ ।। विद्यते यद्यतीचारो, मनो वाक्काय-सम्भवः । आलोचय तदा सर्व, नि:शल्यीभूत-मानसः॥५५५ ।। अर्थ - अशुभ परिणामों के योग से मन, वचन एवं काय की प्रवृत्ति द्वारा जो भी अतिचार लगे हों उन सबकी तुम निःशल्य मन होकर आलोचना करो ।।५५५ ॥ कालेऽमुकत्र देशे वा, जातो भावनयानया। दोषो ममेति विज्ञाय, त्वमालोचय सर्वथा ॥५५६॥ अर्थ - अमुक काल में, अमुक देश में और अमुक भाव से मेरे द्वारा अमुक-अमुक दोष हुआ है, इस प्रकार सब द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव आदि को ज्ञात कर हे मुने ! तुम सब प्रकार से आलोचना करो।।५५६॥ प्रश्न - यहाँ काल एवं देश आदि की भिन्नतापूर्वक दोष कहने की प्रेरणा क्यों दी जा रही है? Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मणद्धिका - १८७ उत्तर - काल भेद, देश भेद, द्रव्य भेद, परिणाम भेद और साहाय्य अथवा निमित्त भेद से दोषों में भी गुरुपना और लघुपना हो जाता है, तथा दोषों की गुरुता एवं लघुता के अनुसार ही गुरुजन गुरु, मध्यम अथवा लघु प्रायश्चित्त देकर शुद्धि कर सकेंगे, तभी यथार्थ शुद्धि हो सकेगी। अत: काल आदि की भिन्नतापूर्वक दोष कहना आवश्यक है। आलोचना के भेद एवं उनका स्वरूप आलोचना द्विधा साधोरौघी पदविभागिका। प्रथमा मूलया तस्य, परस्य गदिता परा ।।५५७ ।। __ अर्थ - साधु की आलोचना दो प्रकार की होती है - एक ओघी और दूसरी पदविभागी। इनमें मूल को प्राप्त यति के पहली ओघी आलोचना होती है और उससे अन्य आलोचना पदविभागी कही जाती है॥५५७॥ प्रश्न - इस ओघी और पदविभागी आलोचना का विशेष भाव क्या है ? उत्तर - यहाँ ओघी आलोचना का अर्थ है सामान्यालोचना और पदविभागी आलोचना का अर्थ है विशेषालोचना । वचन सामान्य एवं विशेष इन दो धर्मों का आश्रय लेकर ही प्रवृत्त होते हैं, अत: आलोचना के भी ये दो भेद कहे गये हैं। सर्व मुनिधर्म का विनाश करनेवाले दोष की आलोचना करना सामान्यालोचना है और किसी गुणविशेष में लगे दोष की आलोचना करना पदविभागी अर्थात् विशेषालोचना है। अर्थात् जिसकी मूल से ही दीक्षा छेद दी जाती है वह साधु अपने दोषों की सामान्यालोचना करता है किन्तु जो सम्यक्त्व आदि गुणविशेष में दोष लगाता है वह अपने दोष की विशेषालोचना करता है। महापराध हो जाने के कारण जिसकी सर्व पूर्वदीक्षा नष्ट कर पुन: दीक्षा दी जाती है उसे मूल प्रायश्चित्त कहते हैं। जो मुनि मूल प्रायश्चित्त के योग्य होता है वह सामान्यालोचना करता है और जो मूल प्रायश्चित्त के अतिरिक्त शेष अन्य प्रायश्चित्त के योग्य होता है वह विशेषालोचना करता है। सामान्यालोचना का स्वरूप और उसका स्वामी ओघेन भाषतेऽनल्प-दोषो वा सर्व-घातकः। इतः प्रभृति वाच्छामि, त्वत्तोऽहं संयम गुरो ! ॥५५८॥ अर्थ - जिस यति द्वारा महादोष हो चुका है या सम्यक्त्व एवं व्रतों का सर्वनाश हो चुका है वह सामान्य से कहता है कि हे गुरुदेव ! मेरे सर्व व्रत नष्ट हो चुके हैं। मैं आपके द्वारा आज पुन: संयम प्राप्त करना चाहता हूँ। इस प्रकार ओधी आलोचना होती है ।।५५८ ॥ प्रश्न - अपराधी मुनि सामान्यालोचना कैसे करता है? उत्तर - अपराधी मुनि आचार्यदेव से कहता है कि हे प्रभो ! मेरे द्वारा अपरिमित अपराध हुए हैं, मेरे सम्यक्त्व का और सर्व व्रतों का घात हो चुका है, मैं रत्नत्रय से तुच्छ हूँ। अर्थात् में रत्नत्रय में आप सबसे छोटा Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - १८८ हूँ। आचार्यदेव के समक्ष आलोचना कर देने से मायाशल्य दूर हो जाता है, मानकषाय जड़ से उखड़ जाती है, गुरुजनों के प्रति आदर भाव व्यक्त होता है और उनके पादमूल में रहकर व्रताचरण करने से मोक्षमार्ग की प्रसिद्धि होती है, अत: मैं आलोचना करके आज पुन: आपके कर-कमलों द्वारा दीक्षा ग्रहण करना चाहता हूँ। पदविभागी आलोचना का स्वरूप अपराधोस्ति यः कश्चिज्जातो यत्र यथा यदा। ब्रूते पदविभागीं तां, सूरौ तत्र तथा तदा ॥५५९॥ अर्थ - दीक्षा से लेकर आज पर्यन्त जिस क्षेत्र में, जिस काल में और जिस प्रकार से जो कोई भी अपराध हुए हैं, उन्हें उसी क्षेत्र, काल और उसी प्रकार से अर्थात् यथावत् गुरु के समक्ष कहना पदविभागी अर्थात् विशेषालोचना है॥५५९।। दृष्टान्तपूर्वक शल्य दूर न करने में दोष और दूर कर देने में गुण कण्टकेन यथा विद्धे, सर्वाङ्ग-व्यापि-वेदना। जायते निर्वृतस्तस्मिन्नुद्धृते शल्य-बर्जितः ।।५६० ।। दुःख-व्याकुलित-स्वान्तस्तथा शल्येन शल्यितः। निःशल्यो जायते यः स, लभते निवृति पराम् ॥५६१॥ अर्थ - जैसे कण्टक से बींधा हुआ मनुष्य सर्वाङ्गव्यापी पीड़ा से पीड़ित होता है और उस कण्टक के निकल जाने पर वही दुखी मनुष्य शल्य अर्थात् कण्टक से रहित होता हुआ सुखी होता है; उसी प्रकार जो मायावी मुनि कण्टक सदृश अपने दोषों को नहीं निकालता है, अर्थात् गुरु से अपने अपराधों की आलोचना नहीं करता है वह मुनि माया रूप दुख से व्याकुलचित्त रहता है और जब वही मुनि अपने दोषों की आलोचना कर शल्यरहित हो जाता है तब परम सुख को प्राप्त हो जाता है।।५६०-५६१।। शल्य के भेद माया-निदान-मिथ्यात्व-भेदेन त्रिविधं मतम्। अथवा द्विविधं शल्यं, द्रव्य-भावात्मकं मतम् ।।५६२॥ अर्थ - शल्य के तीन भेद हैं - माया शल्य, मिथ्यादर्शन शल्य और परभवगत भोगों की बांछा स्वरूप निदानबन्ध। अथवा शल्य के दो भेद हैं - द्रव्यशल्य और भावशल्य ॥५६२ ॥ भाव शल्य और द्रव्य शल्य के भेद भावशल्यं त्रिधा तत्र, ज्ञानादि-त्रय-गोचरम्। द्रव्यशल्यमपि त्रेधा, सचित्ताचित्त-मिश्रकम् ।।५६३ ।। अर्थ - उसमें भावशल्य के तीन भेद हैं - ज्ञान का शल्य, दर्शन का शल्य और चारित्र का शल्य । द्रव्य शल्य के भी तीन भेद हैं सचित्त द्रव्य शल्य, अचित्त द्रव्य शल्य और मिश्र द्रव्यशल्य ||५६३॥ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - १८९ प्रश्न - इन प्रभेद रूप शल्यों का क्या स्वरूप है ? उत्तर - यहाँ चारित्र में तप का अन्तर्भाव करके भावशल्य तीन प्रकार के कहे गये हैं - १, शंका, काक्षादि सम्यग्दर्शन के भावशल्य हैं। २. अकाल में स्वाध्याय करना, गुरु, शास्त्र एवं ज्ञान का अविनय करना सम्यग्ज्ञान के शल्य हैं। ३. समितियों में और गुप्तियों में अनादर भाव रखना चारित्र के शल्य हैं। ४. अनशनादि तपों में अतिचार लगाना तप के अतिचार हैं। ५. असंयम में प्रवृत्ति करना योग के शल्य हैं। शिष्य एवं श्रावक-श्राविका आदि सचित्त द्रव्य शल्य हैं। पुस्तक, कलम, श्रुत-पीठिका एवं स्वर्णादि अचित्त द्रव्य शल्य हैं और ग्राम. नगर आदि मिश्र द्रव्य शल्य हैं। ये द्रव्य शल्य चारित्राचार भावशल्य के कारण होते हैं। भाव यह है कि साधुओं को ग्राम, नगर एवं स्वर्ण आदि का तो जीवन पर्यंत के लिए त्याग होता है किन्तु कदाचित् इन वस्तुओं के प्रति मन में ममत्वभाव उत्पन्न हो जाय तो वह द्रव्य शल्य है। यह मोहभाव ही काँटे के सदृश क्लेशकारक है। अकालादि में अध्ययन करना तो साधुजीवन में लगनेवाले अतिचार हैं। भाव शल्य को दर न करने में दोष अनुद्धृते प्रमादेन, भावशल्ये शरीरिणः । लभन्ते दारुणं दुःखं, द्रव्यशल्यमिवानिशम् ॥५६४ ॥ अर्थ - प्रमाद के वशीभूत हो यदि भावशल्य को नहीं निकाला जाय तो कण्टक आदि द्रव्यशल्य के सदृश साधुजन भावशल्य से सतत ही दारुण दुख को प्राप्त होते हैं ।।५६४ ।। भावशल्यमनुद्धृत्य, ये नियन्ते विमोहिनः । भय-प्रमाद-लज्जाभिः, कस्याप्याराधका न ते ।।५६५ ।। अर्थ - भय, प्रमाद एवं लज्जा के कारण जो मोही क्षपक भावशल्य का त्याग किये बिना मरण करते हैं, वे चारों आराधनाओं में से किसी एक के भी आराधक नहीं होते ॥५६५ ।। दुःसहा वेदनैकत्र, द्रव्यशल्येऽस्त्यनुद्धते । भावशल्ये पुन: सास्ति, जन्तोर्जन्मनि जन्मनि ।।५६६ ।। अर्थ - यदि द्रव्य शल्य अर्थात् कण्टकादि शरीर से निष्कासित न किये जाँय तो एक ही भव में दुःसह वेदना होती है किन्तु यदि भावशल्य को दूर न किया जाय तो इस जीव को जन्म-जन्मान्तरों में दुःसह वेदना भोगनी पड़ती है।।५६६॥ चारित्रं शोधयिष्यामि, काले श्व प्रभृता वहम् । शेमुषीमिति कुर्वाणा, गतं कालं न जानते ।।५६७॥ अर्थ - कोई क्षपक यदि ऐसा विचार करता है कि अपने चारित्र में लगे हुए अतिचारों का शोधन अर्थात् आलोचना मैं कल या परसों करूंगा, वह क्षपक गये हुए काल को नहीं जानता है ।।५६७।। Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - १९० प्रश्न - रत्नत्रय में लगे अतिचारों की आलोचना तत्काल करने की प्रेरणा क्यों दी जा रही है? दोचार दिन बाद आलोचना करने से क्या हानि है ? उत्तर - रत्नत्रय में अतिचार लग जाने पर उसी क्षण उसका शोधन उसी प्रकार कर लेना चाहिए जैसे आँख में प्रवेश करनेवाले रज-कण का शोधन तत्काल कर लिया जाता है। व्याधि, शत्रु और कर्म, इनकी यदि उपेक्षा की जाय तो इनकी जड़ जम जाती है फिर सहज ही इनका विनाश होना सम्भव नहीं होता। रत्नत्रय में लगे हुए अतिचारों की आलोचना मैं कल, परसों या अन्य किसी भी दिन कर लूंगा, ऐसा संकल्प करनेवाले क्षपक या साधु प्रतिक्षण व्यतीत होनेवाले अपने आयुकर्म को नहीं जानते कि कब मृत्यु आ जायेगी और मैं बिना आलोचना किये ही मर जाऊँगा तथा दुर्गति में जाऊँगा। जिस समय दोष लगता है उस समय आत्मा में पश्चाताप रूप एक विशेष प्रकार का संवेदन होता है एवं ग्लानि होती है, अत: उसी समय यथार्थ आलोचना हो सकती है। समय व्यतीत हो जाने पर वे भाव नहीं रहते और अतिचार लगने के कारण, उसका समय एवं क्षेत्र आदि भी विस्मृत हो जाते हैं, अत: गुरु के पूछने पर भी पूर्णरीत्या नहीं कह पाते। अथवा अचानक मृत्यु आ जाने पर या वाणी का सामर्थ्य न रहने पर चारित्र की शुद्धि किये बिना ही मरण करना पड़ता है। रागद्वेषादिभिर्भग्ना, ये नियन्ते सशल्यकाः । दुःख शल्याकुले भीमे, भवारण्ये भ्रमन्ति ते ॥५६८॥ ___ अर्थ - रागद्वेष से पीड़ित जो मूढ़ मुनि शल्य सहित मरते हैं वे दुखरूपी शल्यो अर्थात् काँटों से भरे संसाररूपी वन में भटकते हैं ।।५६८॥ शल्य निकाल कर मरण करने में गुण हैं उद्धृत्य कुर्वते कालं, भावशल्यं त्रिधापि ये। आराधनां प्रपद्यन्ते, ते कल्याण-वितारिणीम् ॥५६९ ॥ अर्थ - पूर्वोक्त तीन प्रकार की भाव शल्यों को निकाल कर जो साधु मरण करते हैं वे कल्याण परम्परा को देनेवाली आराधनाओं को प्राप्त होते हैं ।।५६९ ।। सम्यक्त्व-वृत्त-नि:शल्या, दूरोत्सारित-गौरवाः । विहरन्ति विसगा ये, कर्म सर्वं धुनन्ति ते ।।५७०।। अर्थ - जो तीन प्रकार के गारव और तीनों प्रकार की भाव शल्यों से रहित हैं और नि:संग अर्थात् सर्व परिग्रह का त्याग कर सम्यग्दर्शन एवं सम्यक्चारित्र में ही विहार करते हैं वे साधुजन सर्व कर्मों को नष्ट कर देते हैं।॥५७०।। इति ज्ञात्वा महालाभं, निःशल्यीभूत-चेतसाम् । शुद्ध-दर्शन-चारित्रो, विहरस्वापशल्यकः ॥५७१॥ अर्थ - आचार्यदेव क्षपक को समझा रहे हैं कि हे क्षपक ! निरतिचार अर्थात् निःशल्य चित्त से रत्नत्रय Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डेिका - १९१ का पालन करनेवाले साधुओं को उपर्युक्त आराधना-प्राप्ति रूप महान् लाभ होता है। यह जान कर तुम दर्शन और चारित्र की शुद्धि करके शल्य रहित होते हुए मोक्ष-मार्ग में प्रवर्तन करो अर्थात् निःशल्यता पूर्ण आचरण करो ॥५७१॥ सम्यगालोचयेत्सर्वमनुद्विग्नमविस्मृतम् । अनिर्मूढमनिर्मोहं, निर्मूलमपगौरवम् ।।५७२॥ अर्थ - हे क्षपक ! तुम शान्त चित्त से, बिना भूले, बिना कुछ छिपाये, निर्मोह भाव से गारव रहित होते हुए निर्मूलतया अर्थात् दीक्षाकाल से अद्यावधि रत्नत्रय में लगे अतिचारों की पूर्णरूप से निर्भय होकर सम्यकू आलोचना करो ॥५७२॥ भय-मान-मृषा-माया-मुक्तेन प्राञ्जलात्मना। बालेनेवाभिधेयानि, कृत्याकृत्यानि धीमता ॥५७३ ।। अर्थ - जैसे बालक किये हुए कार्य-अकार्य को भय, मान, झूठ एवं माया-प्रपंच से रहित हो सरलभाव से कह देता है, वैसे ही बुद्धिमान क्षपक को अपने द्वारा किये गये कार्य-अकार्य को गुरु के समक्ष निवेदन कर देना चाहिए ||५७३ ॥ सम्यक्-स्वज्ञान-वृत्तेषु, विधायालोचनां यते ! कुरु सल्लेखनां सम्यक्-क्रमेणापास्त कल्मषः ॥५७४॥ अर्थ - हे यते ! सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र में लगे हुए अतिचारों को माया पाप से रहित हुए तुम आलोचना करो, पश्चात् शुद्ध मन से क्रमानुसार सम्यक् सल्लेखना करो ॥५७४ ।। इत्युक्तं सूरिणोत्कृष्टां, चिकीर्षुः क्षपको मृतिम्। जात-सर्वाङ्ला-रोमाञ्चः, प्रमोदभर-विह्वलः ।।५७५।। अर्थ - आचार्य द्वारा क्षपक को इस प्रकार उपदेश दिये जाने पर उत्कृष्ट समाधिमरण करने का इच्छुक क्षपक अत्यन्त प्रसन्नता से हर्ष-विभोर होता हुआ सर्वांग में रोमाञ्चित हो जाता है॥५७५ ।। आलोचना के लिए दिशा निर्धारण चैत्यस्य सम्मुखः प्राच्यामुदीच्यां वा दिशः स्थितः। कायोत्सर्ग-स्थितो धीरो, भूत्वा कायेऽपि निस्पृहः ॥५७६ ॥ अर्थ - जिनबिम्ब के सम्मुख या पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुख करके शरीर से भी निस्पृह वह धीर क्षपक कायोत्सर्ग करता है ।।५७६ ।। प्रश्न - वह क्षपक कायोत्सर्ग कैसे और क्यों करता है ? उत्तर - गुरु को अपने दोषों का निवेदन करने के पूर्व क्षपक विधिपूर्वक अर्थात् सामायिक दण्डक, थोस्सामि दण्डक, आवर्त और शिरोनति पूर्वक सिद्धभक्ति करके कायोत्सर्ग करता है। कायोत्सर्ग में लीन होने से क्षपक को दोषों का स्मरण हो जाता है, अतः कायोत्सर्ग आलोचना का कारण है। Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - १९२ मुक्त-शल्य-ममत्वोऽसावेकत्वं प्रतिपद्यते । शापियामि, पादमूले गणेशिनः ।।५७७ ।। अर्थ - "मैं आचार्यदेव के पादमूल में शल्य को उखाड़ कर फेंक दूंगा।" ऐसा संकल्प करता हुआ क्षपक शल्य एवं ममत्व भाव को छोड़ कर एकत्व भाव को प्राप्त हो जाता है ।।५७७॥ इत्येकत्व-गतः कृत्स्नं, दोषं स्मरति यत्नतः। इत्थं स प्राञ्जलीभूय, सर्व संस्मृत्य दूषणम्॥५७८ ॥ अर्थ - इस प्रकार एकत्व भावनामय होकर क्षपक सम्यक् प्रयत्नपूर्वक अपने सर्व दोषों का स्मरण करता है। इस प्रकार सरल अर्थात् निश्छल भाव को प्राप्त होता हुआ वह क्षपक पुन:पुनः अपने दोषों का स्मरण करता है ।।५७८ ।। प्रश्न - एकत्वभावमय होने का क्या तात्पर्य है ? उत्तर - क्षपक चिन्तन करता है कि अहो ! मैं तो केवलज्ञान और केवलदर्शन स्वभाव वाला हूँ। यह मेरा शरीर, रागद्वेष, भाव शल्य, गारव और मान-अपमान की वृत्तियाँ ये सब विकार मेरे नहीं हैं कारण कि ये सब मेरे चैतन्य स्वभाव से भिन्न हैं। इस शरीर के नाश से और दोषों की आलोचना में होने वाले मान-अपमान से मेरा कुछ भी बिगड़नेवाला नहीं है, अतः मैं तो अब सब प्रकार से माया छोड़कर बालकवत् सरल हृदय से आलोचना करूँगा। ऐसा संकल्प करता हुआ क्षपक अपने दोषों का एकाग्रता पूर्वक स्मरण करता है कि मेरे किस व्रत या नियम में कब, कैसे और कौन-कौन से दोष हुए हैं। एति शल्यं निराकर्तुं, सर्वं संस्मृत्य दूषणम्। आलोचनादिकं कर्तुं, युज्यते शुद्ध-चेतसः॥५७९ ।। अर्थ - आलोचना और प्रतिक्रमणादि क्रियाएँ विशुद्ध परिणामवाले क्षपक के द्वारा ही सम्भव हैं, अतः सब दोषों का भली प्रकार स्मरण कर वह क्षपक शल्य निवारण हेतु गुरु के निकट जाता है ।।५७९ ।। __ आलोचना हेतु भाव एवं काल शुद्धि का निर्देश आलोचनादिकं तस्य, सम्भवेच्छुद्ध-भावतः । अपराण्हेऽथ पूर्वाह्ने, शुभ-लग्नादिके दिने ॥५८०॥ अर्थ - विशुद्ध परिणामवाले क्षपक की आलोचनादि क्रियाएँ प्रशस्त समय एवं प्रशस्त स्थान में ही सम्भव हैं, अत: आलोचना शुभ दिन के पूर्वाह्न या अपराह्न काल में सौम्य तिथि, शुभ नक्षत्र एवं शुभ लम में होती है। अर्थात् आलोचना करने के लिए शुभ भावों के साथ-साथ क्षेत्रशुद्धि और कालशुद्धि भी आवश्यक है।।५८०॥ अप्रशस्त प्रदेश आलोचना करने योग्य नहीं होते निःपत्र: कटुकः शुष्क-पादपः कण्टकाचितः। विच्छाय: पतितः शीणों, दष-दग्धस्तडितः ।।५८१।। Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - १९३ अर्थ - जिस स्थान पर पत्तों से रहित वृक्ष, कडुवे निम्ब आदि के वृक्ष, सूखा वृक्ष, कटीले वृक्ष, छाया रहित वृक्ष, गिरा-पड़ा हुआ वृक्ष, जीर्ण-शीर्ण वृक्ष, अग्नि या बिजली से जला हुआ वृक्ष या ऐसा जला हुआ कोई स्थान हो तो वह क्षपक की आलोचना के योग्य नहीं है ।।५८१ ।। क्षुद्राणामल्पसत्त्वानां, देवतानां निकेतनम्। तृण-पाषाण-काष्ठास्थि-पत्र-पांस्वादि-सञ्चयाः ॥५८२॥ अर्थ - क्षुद्र एवं अल्पशक्ति वाले देवों का स्थान और घास, पत्थर, काष्ठ, हड्डी, पत्ते और धूलि के ढेर वाले स्थान आलोचना के अयोग्य हैं ।।५८२॥ शून्य-धेश्म-रजो-भस्म-वर्चः प्रभृति-दूषिता । रुद्रदेवकुलं त्याज्यं, निन्धमन्यदपीदृशम् ।।५८३ ।। अर्थ - शून्य घर या कोई सुनसान स्थान, धूलि, राख एवं मल से मलिन स्थान, रुद्र आदि देवों के स्थान तथा इन्हीं के सदृश अन्य कोई और भी निन्दनीय स्थान आलोचना के योग्य नहीं होते हैं ॥५८३ ।। · विधारदिप सुख, साधुमालोचनां स्फुटम्। सूरीणां सर्वथा स्थानमसमाधान-कारणम् ॥५८४॥ अर्थ - जो निर्यापकाचार्य क्षपक द्वारा परिशुद्ध आलोचना करवाना चाहते हैं उन्हें उपर्युक्त अशान्तिकारक स्थान प्रयत्नपूर्वक सर्वथा छोड़ देने चाहिए ।।५८४ ।। आलोचना योग्य स्थानों का निर्देश जिनेन्द्र-यक्ष-नागादि-मन्दिरं चारुतोरणम् । सरः स्वच्छ-पयः पूर्णं, पद्मिनीखण्ड-मण्डितम् ।।५८५॥ पादपैरुन्नतै: सेव्यं, सर्व सत्योपकारिभिः । आरामे मन्दिरे ननैः, सज्जनैरिव भूषिते ॥५८६ ।। समुद्र-निम्नगादीनां, तीरमक्ष-मनोहरम् । सच्छायं सरसं वृक्षं, पवित्र-फल-पल्लवम् ॥५८७ ॥ अर्थ - देवाधिदेव अरहन्त-सिद्ध प्रभु के मन्दिरों में या इन मन्दिरों के समीप सुन्दर तोरणों से युक्त यक्ष एवं नागादि के मन्दिरों के समीप, कमलों से सुशोभित तथा स्वच्छ जल से परिपूर्ण सरोवरों के समीप, सब जीवों का उपकार करने वाले उन्नत वृक्षों से मण्डित स्थान, सज्जनों द्वारा सेव्यमान बगीचा, मन्दिर, सज्जन पुरुषों के सदृश विभूषित समुद्र या नदियों के किनारे, छायादार वृक्ष, पवित्र वृक्ष, पत्र-पुष्प एवं फलों से युक्त वृक्ष तथा रसीले फलों से युक्त वृक्ष और इसी प्रकार इन्द्रियों को मनोहर लगनेवाले सुन्दर स्थान आलोचना के योग्य कहे गये हैं ।।५८५-५८६-५८७॥ शस्तमन्यदपि स्थानमुपेत्य गणनायकः। आलोचनामसंक्लेशां, क्षपकस्य प्रतीच्छति ॥५८८ ॥ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - १९४ अर्थ - उपर्युक्त स्थानों के सदृश अन्य भी कोई प्रशस्त स्थान हों, वहाँ जाकर निर्यापकाचार्य क्षपक की संक्लेशरहित शुद्ध आलोचना सुनते हैं ।।५८८ ॥ आचार्य इस प्रकार स्थित होकर आलोचना ग्रहण करते हैं जिनार्चाया दिशः प्राच्या, कौधेर्या वा स सन्मुखम् । शृणोत्यालोचनां सूरिरेकस्यैको निषण्णवान् ।।५८९ ।। अर्थ - जिनमन्दिर की ओर या पूर्व दिशा की ओर या उत्तर दिशा की ओर मुख करके सुखपूर्वक बैठकर अकेले एक ही आचार्य एक समय में एक ही क्षपक की आलोचना सुनते हैं ।।५८९ ।। प्रश्न - समाधि इच्छुक क्षपक की आलोचना किस काल में, किस स्थान पर, कैसे स्थित होकर और किस भाव से सुनी जाती है ? उत्तर - पूर्वोक्त प्रकार शुभ लग्न, शुभ वार, सौम्य तिथि और शुभ नक्षत्र आलोचना हेतु शुभ काल है। जिनमन्दिर, मनोहर उद्यान, स्वच्छ जल एवं कमलों से परिपूर्ण सरोवर के या समुद्र के या नदी के तट अथवा अन्य भी प्रशस्त स्थान आलोचना हेतु शुभ स्थान हैं। पूर्व दिशा अन्धकार को दूर करने में तत्पर सूर्य के उदय की दिशा है, सूर्योदय के सदृश आराधना शल्यादि अन्धकार को नष्ट करती हुई प्रकाशमान एवं उन्नत होती जाय इस अभिप्राय से आचार्य पूर्वाभिमुख बैठे या क्षपक को पूर्वाभिमुख बिठा लें। इस प्रकार पूर्वाभिमुख बैठना, क्षपक पर अनुग्रह करने के कार्य की सिद्धि का अंग है। विदेहक्षेत्र उत्तर में है, अत: विदेहक्षेत्र में स्थित सीमन्धर आदि तीर्थंकरों को चित्त में स्थापित करके उनके सम्मुख होने से कार्य की सिद्धि होती है, इस भावना से आचार्य उत्तराभिमुख बैठे या क्षपक को उत्तराभिमुख बैठावें। जिनमन्दिर या जिनप्रतिमा के अभिमुख बैठना, साक्षात् शुभ परिणामों का कारण होने से कार्यसिद्धि का अंग है। बैठकर एकाग्रता पूर्वक आलोचना सुनना, आलोचना करने वाले का सम्मान है। जिस किसी प्रकार से बैठ कर या खड़े-खड़े या लेट कर आलोचना सुनना आगमविरुद्ध है, इससे क्षपक के प्रति आदर भाव प्रगट नहीं होता, जिससे क्षपक का उत्साह भंग हो जाता है। क्षपक की आलोचना अकेले एक ही आचार्य को सुननी चाहिए। बहुतों के बीच आलोचना करने में अर्थात् अपने दोष कहने में लज्जा आ जाने की सम्भावना रहती है क्योंकि लज्जालु क्षपक अपने पूर्ण दोष नहीं कह सकेगा। सबके सामने दोष कहने में उसके चित्त को खेद भी उत्पन्न हो सकता है। अनेक क्षपकों द्वारा एक साथ, एक ही समय में कहे गये दोष आचार्य एक साथ अवधारण नहीं कर सकता, अतः एक आचार्य और एक ही क्षपक होना चाहिए। यदि समाधि के लिए उद्यत किसी आर्यिका को आलोचना करना है तो आचार्य के निकट एक मुनिराज और हों अथवा आलोचक आर्यिका के साथ उनकी गणिनी आर्यिका या अन्य कोई आर्यिका अवश्य होनी चाहिए क्योंकि भिन्नलिंगी किन्हीं दो का एकान्त में बैठना या बात करना आगमविरुद्ध है। आचार्य को क्षपक की आलोचना तत्परता से एकाग्रतापूर्वक सुननी चाहिए, अन्यथा क्षपक आलोचना करने में निरुत्साह हो जायेगा कि ये गुरु मेरी अन्तिम आलोचना भी ठीक से नहीं सुनते, इन्हें मैं क्या दोष कहूँ ? क्षपक भी उस समय लज्जा, भय, माया और रागद्वेष आदि छोड़कर आलोचना करे। यह उसकी भावशुद्धि है। इस प्रकार शुभ काल एवं शुभ स्थान में प्रसन्नचित्त आचार्य एकाकी बैठकर निर्मल परिणामी क्षपक की आलोचना सुनते हैं। Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - १९५ क्षपक की आलोचना का क्रम कृत्वा त्रिशुद्धिं प्रतिलिख्य सूरिं, प्रणम्य मूर्धस्थित-पाणिपद्मः। आलोचनामेष करोति मुक्त्वा, दोषानशेषानपशल्य-दोषः॥५९०॥ इति आलोचना ॥२३॥ अर्थ - आलोचना हेतु बैठने के स्थान का विधिवत् प्रतिलेखन कर, पीछी के साथ हाथों की अंजुलि को मस्तक से लगा कर, मन, वचन और कार्य का शुद्धिपूर्वक सर्वप्रथम गुरु को कृतिकर्मपूर्वक नमस्कार करके क्षपक शल्यादि समस्त दोषों को छोड़कर आलोचना करता है ।।५९० ।। इस प्रकार आलोचना-अधिकार पूर्ण हुआ ॥२३॥ २४. गुण-दोष-अधिकार आलोचना करते समय जो दोष सम्भव हैं, उनका क्रम अनुकम्प्यानुमान्यं हि, यदृष्टं स्थूलमन्यथा। छन्नं शब्दाकुलं भूरि, सूर्यव्यक्तं च तत्समम् ॥५९१॥ अर्थ - आलोचना के दस दोष हैं - अनुकंपित, अनुमानित, यदृष्ट, स्थूल, सूक्ष्म, छन्न, शब्दाकुलित, बहुजन, अव्यक्त और तत्सेवी ।।५९१ ।। १. अनुकंपित दोष का निर्देश सूरिं भक्तेन पानेन, प्रदानेनोपकारिणा। विनयेनानुकम्प्य स्वं, दोषं वदति कश्चन ।।५९२ ।। अर्थ - स्वयं भिक्षालब्धि से युक्त होने के कारण आचार्य को उद्गमादि दोषों से रहित आहार, जलादि पेय एवं उपकरण प्रदान करके अथवा कृतिकर्मपूर्वक वन्दना आदि विनय द्वारा आचार्य के हृदय में अनुकम्पा उत्पन्न करके कोई क्षपक आलोचना करता है ।।५९२॥ आलोचितं मया सर्व, भविष्यत्येष मे गुणम् । करिष्यतीति मन्तव्यं, पूर्व आलोचना-मलः ।।५९३ ।। अर्थ - आचार्य को आहारादि से सन्तुष्ट कर एवं विनयादि से दयायुक्त करने पर मेरे द्वारा सर्व आलोचना हो जायेगी, इससे मुझे बहुत लाभ मिलेगा, इस प्रकार के दूषित मानसिक विचारों द्वारा यदि कोई क्षपक आलोचना करता है तो वह आलोचना का अनुकम्पित नाम का प्रथम दोष है ।।५९३ ।। प्रश्न - ऐसी आलोचना दोषकारक क्यों कही गई है ? उत्तर - “कठोर से कठोर प्रायश्चित्त करके भी मुझे अपने रत्नत्रय की शुद्धि करनी है" इस प्रकार की उत्कृष्ट भावना की क्षति होने से, "मेरे उपकरण-दान से गुरु मेरे ऊपर सन्तुष्ट हो जावेंगे" गुरु को इतना तुच्छ या लोभी समझने से तथा मायाचार न छोड़ने से ऐसी आलोचना दोषयुक्त कही गई है। Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - १९६ कश्चित् क्रीत्वा विषं भुक्ते, नरो मत्वाहितं हितम् । जीवितार्थी यथा मूर्खस्तथेयं शुद्धिरिष्यते ॥५९४ ।। अर्थ - जैसे जीवितार्थी कोई पुरुष यदि विष खरीद कर खाता है और उस अहित को ही अपना हित मानता है तो वह मूर्ख कहा जाता है। वैसे ही मायाचार पूर्वक आलोचना कर रत्नत्रय की शुद्धि का वांछार्थी मूर्ख है ।।५९४ ।। प्रश्न - मायाचार पूर्ण आलोचना को खरीदे हुए विष को खाने वाले की उपमा क्यों दी गई है? उत्तर - जैसे जीवित रहने का अभिलाषी पुरुष विष खरीद कर खाता है और उसी में अपना हित समझता है, उसी प्रकार भक्त-पान या उपकरण देकर अथवा बन्दना आदि विनय द्वारा गुरु को खरीद कर आगम की उपेक्षा करते हुए अपनी बुद्धि से क्षपक द्वारा छल-कपटयुक्त की हुई आलोचना रत्नत्रय की शुद्धि कदापि नहीं कर सकती। वह आलोचना तो विषपान के सदृश है। मधुगलोचनैषादौ विगळे सेवता प्रती। तीवं करोति किम्पाकफल-भुक्तिरिवासुखम् ॥५९५॥ अर्थ - जैसे किम्पाकफल देखने में सुन्दर और खाने में मधुर लगता है, किन्तु वह विपाक काल में अर्थात् पचनक्रिया काल में मरण का दुख उत्पन्न करता है, वैसे ही अनुकम्पित दोषयुक्त की गई आलोचना प्रारम्भ में मधुर लगती है (क्योंकि अल्प प्रायश्चित्त मिलने की आशा है) किन्तु विपाक काल में अर्थात् आगामी भवों में तीव्र दुख उत्पन्न करती है ।।५९५ ।। रक्तस्य कृमिरागेण, शुद्धिाक्षा-रसेन वा । वस्त्रस्य जायते जातु, नैषा शुद्धिः पुनर्भुवम् ॥५९६ ॥ इति अनुकम्पा-दोषः॥ अर्थ - कृमिरंग से रंगे हुए वस्त्र का अथवा लाक्षा रस से रंगे हुए वस्त्र का शुद्ध अर्थात् सफेद हो जाना कदाचित् सम्भव है किन्तु अनुकंपित दोष युक्त की गई आलोचना से रत्नत्रय की शुद्धि होना निश्चयत: असम्भव है।।५१६ ॥ प्रश्न - कृमिराग रंग किसे कहते हैं ? उत्तर - कृमिराग से रंगे वस्त्र की तीन परिभाषाएँ आगम में प्राप्त होती हैं। यथा - १. कीड़ों द्वारा खाये गये भोजन के रंग में रंगे गये धागों से बने वस्त्र कृमिराग वस्त्र है। २. कृमि द्वारा त्यागे गये रक्ताहार से रंजित तन्तुओं से बने वस्त्र । ३. म्लेच्छ देश में जोंकों द्वारा मनुष्य का रक्त निकाल कर बर्तनों में भर दिया जाता है। कुछ दिनों में उसमें कृमि उत्पन्न हो जाते हैं। उन कृमियों से धागे रंग कर वस्त्र बनाये जाते हैं। यह अत्यन्त लाल होता है और आग में जलाने पर भी वह कृमिराग नहीं जाता। . इस प्रकार अनुकम्पित दोष का वर्णन समाप्त हुआ ।। Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - १९७ २. अनुमानित दोष का सश्चत धीरैराधारितं धन्याः, कुर्वते दुशरं तपः। दुःखाम्भसो भवाम्भोधेर्दुस्तरात्तारकं परम् ।।५९७ ॥ क्लमापहार-पार्श्वस्थ-सुख-शीलतया तपः। न प्रकृष्टमलं कर्तृ, वदत्येवमधार्मिकः ॥५९८ ॥ अर्थ - अधार्मिक क्षपक मानों अपनी धार्मिकता दिखाता हुआ आचार्य से कहता है कि हे प्रभो! जिसे धीर- वीर पुरुषों ने किया है, जो दुखरूप जलवाले दुस्तर भवसागर से पार उतारने वाला है ऐसे कठोर तप को जो मुनिजन करते हैं, वे धन्य हैं ।।५९७ ॥ ___अपनी शक्ति को छिपाने, पार्श्वस्थ मुनि होने तथा शरीर में सुख-शील होने से वह अधार्मिक कहता है कि - मैं कमजोर हूँ, अत: उत्कृष्ट तप करने में असमर्थ हूँ।।५९८ ॥ पार्श्वस्थत्वमनारोग्यं, दौर्बल्यं वह्नि-मन्दता। भगवस्तव विज्ञाता, मदीयाः सकला: स्फुटम् ।।५९९ ।। आलोचयामि निःशेष, कुरुषे यद्यनुग्रहम्। त्वदीयेन प्रसादेन, विशुद्धिर्मम जायताम् ।।६००।। अर्थ - हे प्रभो ! मैं पार्श्वस्थ हूँ, मेरा शरीर सदैव रोगी रहता है, शरीर के अंग कृश हैं, मेरी उदरानि अतिशय मन्द है तथा आप भी भली प्रकार जानते हैं कि मैं उत्कृष्ट तप करने में असमर्थ हूँ, अत: यदि आप मुझ पर अनुग्रह करें अर्थात् यदि आप मुझे अल्प प्रायश्चित्त देने की कृपा करें तो मैं अपने सम्पूर्ण अतिचारों की आलोचना करूँगा और आपके प्रसाद से शुद्ध हो जाऊँगा ।।५९९-६०० ।। कुर्वाणस्यानुमान्येति, सूरिमालोचनां यतेः। भवत्यालोचना-दोषो, द्वितीयः शल्य-गोपकः ।।६०१।। अर्थ - इस प्रकार आचार्य मुझे अल्प प्रायश्चित्त देंगे' ऐसा अनुमान कर आलोचना करनेवाले क्षपक मुनि के शल्य का गोपन अर्थात् मायाभाव रखनेवाला दूसरा अनुमानित नामक दोष होता है ।।६०१ ।। सेव्यमानो यथाहारो, विपाके दुःखदायकः। अपथ्यः पथ्यशेमुष्या, तथेयं शुद्धिरीरिता ॥६०२॥ इति अनुमान्य दोषः।। अर्थ - जैसे सुख का इच्छुक मनुष्य अपनी बुद्धि से अपथ्य भोजन को पथ्य अर्थात् गुणकारक मानता हुआ सेवन कर लेता है तथापि वह विपाक में दुखदायक ही होता है; वैसे ही अनुमान से गुरु के अभिप्राय को जान कर अथवा कम प्रायश्चित्त का आश्वासन लेकर आलोचना करनेवाले की आलोचना विपाक काल में दुखदायक ही होती है, क्योंकि संकल्प मात्र से अपथ्याहार पथ्य नहीं हो जाता है।६०२॥ इस प्रकार अनुमानित दोष का कथन हुआ॥ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - १९८ ३. यद् दृष्ट दोष परैः सूचयते दृष्टमदृष्टं या निगृहति । महादुःखफला तेन, मायावल्ली प्ररोप्यते।।६०३।। अर्थ - लो अपरा दमों से देख लिाग है इसकी आलोचना तो गुरु के समक्ष कर देता है और जो दोष दूसरों ने नहीं देखा उसे छिपा लेता है, ऐसे क्षपक द्वारा महादुखरूप फलवाली माया बेल रोपी जाती है अर्थात् उस मायावी को महान् कष्ट भोगना पड़ता है ।।६०३ ।। यदि दृष्टमदृष्टं च, नालोचयति दूषणम् । तदास्त्यालोचना-दोषास्तृतीयो दोष-वर्धकः ॥६०४ ।। अर्थ - दूसरों के द्वारा देखे गये अथवा न देखे गये अपराधों को यदि आचार्य के समीप नहीं कहता है तो वह दोषों को वृद्धिंगत करनेवाला आलोचना का तीसरा दोष है ॥६०४॥ दोष-शुद्धिरपचेतसा पुनः, कल्मषैरिति कृता निधीयते । वालुकासु रचितोऽवट: पुनर्वालुकाभिरभितो हि पूर्यते ॥६०५॥ इति यद् दृष्टम्॥ अर्थ - जैसे रेत के मध्य में गड्ढा खोदने पर वह गड्डा खोदते-खोदते ही रेत से पुनः भरता जाता है, उसी प्रकार 'मैं दोषों की शुद्धि करता हूँ' ऐसा विचार कर आलोचना में उद्यत अदृष्ट दोष छिपाने की माया रूप कल्मष द्वारा वह नष्टबुद्धि क्षपक उसी दोष को पुनः करता है। अर्थात् मायाशल्य को दूर करने हेतु साधु आलोचना करता हुआ भी अन्य माया से अपनी आत्मा को आच्छादित कर लेता है।६०५।। इस प्रकार यदृष्ट दोष का कथन पूर्ण हुआ। ४. बादर दोष स्थूलं व्रतातिचारं यः, सूक्ष्म प्रच्छाद्य जल्पति । पुरुतो गणनाथस्य, सोऽर्हद्वाक्यबहिर्भवः ॥६०६॥ अर्थ - व्रतों में लगे हुए दोषों में से जो क्षपक अपने गुरु के समक्ष मात्र स्थूल दोषों की तो आलोचना करता है और सूक्ष्म दोषों को छिपा लेता है, वह साधु जिनागम से विमुख होता है॥६०६ ।। न चेद्दोषं गुरोरने, स्थूलं सूक्ष्मं च भाषते। विनयेन तदा दोषश्चतुर्थः कथनाश्रयः ।।६०७॥ अर्थ - यदि साधु विनयपूर्वक गुरु के सम्मुख सूक्ष्म एवं बादर दोषों को नहीं कहता है तो यह आलोचना का चतुर्थ दोष है।।६०७॥ बायाकारेणातिशुद्धोऽपि साधुर्नान्त: शुद्धिं याति मायादि-शल्यः। भृङ्गारो वा कांसिकः शोध्यमानो, बाह्ये शुद्धिं कश्मलान्तः प्रयाति ॥६०८॥ इति बादरदोषः॥ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - १९१ अर्थ - जैसे काँसे की झारी साफ करते हुए भी बाहर से स्वच्छ हो जाती है किन्तु भीतर हरी-नीली रहती है; वैसे ही छलपूर्वक आलोचना करनेवाला क्षपक बाह्याकार से अतिशुद्ध प्रतीत होता है किन्तु भाव शल्य युक्त होने से वह अंतरंग की शुद्धि को प्राप्त नहीं होता ॥६०८ ।। इस प्रकार बादर दोष कथन पूर्ण हुआ। ५. सूक्ष्म दोष आसने शयने स्थाने, संस्तरे गमने तथा। आर्द्र-गान-परामर्शे, गर्भिण्या बालवत्सया॥६०९।। परिविष्टेऽभवद्दोषो, यः सूक्ष्मः स निगद्यते। स्थूलं प्रच्छाद्य येनासौ, जिनवाक्य-पराङ्मुखः ।।६१०॥ अर्थ - साधु गुरु से निवेदन करता है कि हे स्वामिन्! मैंने आसन पर बैठते समय, सोते समय एवं स्थान पर खड़े होते समय पिच्छिका से मार्जन नहीं किया था, वसति में प्रवेश करते समय नि:सही और निकलते समय असही नहीं बोला था, जहाँ ओस बहुत गिरी थी ऐसे मार्ग में भी ईर्यासमिति में चित्त की एकाग्रता के बिना गमन किया था, छह आवश्यक योग्य काल में नहीं किये थे, जल से गीले शरीर आदि पदार्थों को स्पर्श किया था, सचित्त धूलि पर बैठा था, खड़ा हुआ था और सोया था, धूलि भरे पैरों से जल में प्रवेश किया था, पाँच माह से अधिक गर्भवती महिला से, गोदी के बालक को स्तनपान करा कर आई हुई महिला से तथा प्रसूति की समयशुद्धि के पूर्व ही महिला से आहार ग्रहण किया था, इस प्रकार के सूक्ष्म अर्थात् छोटे-छोटे दोष तो कहता है और बड़े-बड़े दोषों को छिपा लेता है, ऐसा क्षपक सदोष है और जिनागम से पराङ्मुख है।।६०९-६१०॥ स्थूलं सूक्ष्मं च चेद्दोषं, भाषते न गुरोः पुरः। माया-व्रीडा-मदाविष्टः, सदा दोषोऽस्ति पञ्चमः ।।६११ ।। अर्थ - जो क्षपक गुरु के समक्ष अपने व्रतों में लगे हुए सूक्ष्म एवं बादर दोषों को नहीं कहता है, उसके सदा माया, लज्जा तथा गर्व से भरा हुआ पाँचवाँ दोष होता है॥६११॥ प्रश्न - क्षपक किस अभिप्राय से बादर दोषों की आलोचना नहीं करता? उत्तर - बादर दोष न कहनेवाले किसी क्षपक का यह अभिप्राय रहता है कि यदि मैं बड़े दोष कह दूंगा तो गुरु कड़ा प्रायश्चित्त देंगे। अथवा कोई भयभीत होता है कि इतने महान् दोष सुनकर गुरु मुझे छोड़ देंगे। अथवा मेरा चारित्र निरतिचार है ऐसा गर्व करके कोई बादर दोष छिपा जाता है, अथवा मेरे इतने सूक्ष्म दोष सुनकर ही गुरु को विश्वास हो जायेगा कि यह क्षपक यथार्थत: भयभीत है, जब यह इतने छोटे-छोटे भी दोष कह रहा है तब बड़े-बड़े पाप कैसे छिपा सकता है। अथवा कोई क्षपक स्वभाव से ही कपटी रहता है वह कभी सूक्ष्म दोष कहता है, बादर दोष छिपाता है, कभी इसके विपरीत भी करता है। रसेन पीतं जतुना प्रपूर्ण, कूटं विपाके कटकं गृहीतम् । यथा तथेत्थं विहितं विधत्ते, विशोधनं तापमपारमुग्रम् ॥६१२।। इति सूक्ष्म-दोषः॥ Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - २०० अर्थ - जैसे बाहर में स्वर्ण पत्र से मण्डित किन्तु भीतर लाख से भरा कंगन खरीद लेनेवाले को तापकारी होता है, वैसे ही सूक्ष्म दोष कह कर बादर दोषों को छिपा रखनेवाली आलोचना दोषशुद्धि नहीं करती अपितु अपार और उग्र सन्ताप देती है।।६१२॥ इस प्रकार सूक्ष्म दोष की आलोचना का वर्णन पूर्ण हुआ। ६. छत्र दोष आद्ये व्रते द्वितीये वा, दोष: सम्पद्यते यदि। सूरे ! कस्यापि कथ्यस्व, विशुद्ध्यति तदा कथम् ।।६१३॥ अर्थ - क्षपक छल से आचार्य को पूछता है कि हे आचार्यदेव, मुझे यह बात समझाइये कि यदि किसी साधु को प्रथम अहिंसा महाव्रत में या द्वितीय सत्य महाव्रत में या अन्य किसी महाव्रत में दोष लग जाय तो वह साधु किस प्रकार शुद्ध होता है ? ।।६१३ ।। इत्यन्यव्याजतश्छन्नं, पृच्छ्यते चेत् स्व-शुद्धये। तदानीं जायते दोषः, षष्ठः संसार-वर्धकः ॥६१४॥ अर्थ - इस प्रकार जब अन्य के बहाने अपनी शुद्धि करने हेतु प्रच्छन्न-रीत्या गुरु से पूछा जाता है तब संसार को वृद्धिंगत करनेवाला छन्न नाम का छठा दोष होता है ॥६१४॥ भोजने च कृतेऽन्येन, तृप्निरन्यस्य जायते । अपरस्य तदा शुद्धिर्विहिता परभर्मणा ॥६१५ ॥ अर्थ - यदि अन्य के भोजन करने पर अन्य की तृप्ति होती हो तो दूसरे के नाम से की गई विशुद्धि अन्य की शुद्धि कर सकती है ।।६१५ ॥ आत्मशुद्धिं विधत्ते यः, प्रपृच्छ्य परभर्मणा। अपरेणौषधे पीते, स्वस्यारोग्यं करोति सः ॥६१६॥ अर्थ - जैसे कोई अन्य पुरुष द्वारा औषधि पी लेने पर अपने को नीरोग कर लेना चाहता है, वैसे ही अन्य अपराधी साधु के बहाने पूछकर क्षपक अपनी शुद्धि कर लेना चाहता है ||६१६ ।। संयमे चेत् कृतेऽन्येन, विमुक्तिं लभते परः। परव्याज-कृता शुद्धिस्तदा शोधयते परम् ।।६१७ ।। अर्थ - किसी अन्य के द्वारा संयम धारण कर लेने पर यदि कोई अन्य व्यक्ति मुक्ति को प्राप्त हो सकता हो तो दूसरे के बहाने से किया गया प्रायश्चित्त भी दूसरे को शुद्ध कर सकता है॥६१७॥ गुरोनिजं दोषमभाषमाणो, दोषस्य य: कांक्षति शुद्धिमज्ञः। मन्ये स तोयं मृगतृष्णिकातो, जिघृक्षतेऽनं शशिबिम्बतो वा ॥६१८॥ इति छन्नं दूषणम् ॥ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - २०१ अर्थ- जो अज्ञ क्षपक अपने दोषों को न कह कर ही गुरु से अपनी शुद्धि कराना चाहता है वह मृगमरीचिका से जल चाहता है या चन्द्रबिम्ब से अन्न चाहता है; ऐसा मैं मानता हूँ ।। ६१८ ।। इस प्रकार छन्न दोष का वर्णन पूर्ण हुआ ॥ ९ ॥ ७. शब्दाकुलित दोष शब्दाकुले चतुर्मास - पक्ष-वर्ष - क्रियादिने । यथेच्छं पुरतः सूरेरालोचयति योऽधमः || ६१९ ॥ अव्यक्तं वदतः स्वस्य, दोषान्संक्लिष्ट - चेतसः । आलोचनागतो दोष:, सप्तमः कथितो जिनैः ॥६२० ॥ अर्थ - चातुर्मासिक, पाक्षिक और वार्षिक प्रतिक्रमण क्रिया के दिन जब सब साधुजन अपने दोष कह रहे हों उस कोलाहल में जो अधम क्षपक अपनी इच्छानुसार गुरु के आगे अपनी आलोचना करता है, अपने दोषों को अव्यक्त रीत्या संक्लिष्ट मन से कहनेवाले क्षपक की उस आलोचना में होनेवाला सातवाँ शब्दाकुलित दोष होता है ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है ।। ६१९-६२० ।। अरगर्तघटीयन्त्र- समां भित्र घटोपमाम् । धुंद - रज्जु - निभामेनां, शुद्धिं शुद्धिविदो विदुः ॥ ६२१ ॥ इति शब्दाकुलो दोषः ॥ अर्थ- शुद्धि को जाननेवाले गणधरादि देव ऐसो शुद्धि को रहट के घटीयन्त्र में लगे हुए घट के समान या फूटे घड़े के समान या चुंदरज्जू के समान मानते हैं ।। ६२१ || प्रश्न- घटीयन्त्र, भग्न घट एवं चुन्दरज्जू का क्या अर्थ है और यहाँ इनके दृष्टान्त क्यों दिये गये हैं? उत्तर - जैसे रहट या अरघट में लगी हुई पानी भरने की घटिकाएँ जल से भरती जाती हैं और तत्काल खाली होती जाती हैं अथवा फूटे घड़े में ऊपर से जल भरते जाने पर भी नीचे से निकलता जाता है । अथवा चुन्दरज्जू अर्थात् काष्ठ में छिद्र करने वाले बर्मा को घुमाते समय उसमें बँधी रस्सी एक ओर से खुलती जाती है और तत्काल ही दूसरी ओर से बँधती जाती है। उसी प्रकार वह आलोचना करनेवाला अधम मुनि है। वह अपने मुख से अपराध प्रगट करने के लिए प्रवृत्त हुआ भी अप्रवृत्त ही है, क्योंकि शब्दाकुलित दोषयुक्त आलोचना करनेवाले क्षपक के मुख से दोष कहा जा रहा है, अर्थात् अपराध खुल रहा है किन्तु "आचार्य मेरे दोषों को पूर्णतया एवं यथावत् न सुन पायें" ऐसी माया मन में होने से वह माया अपराध: पुनः कर्मबंध कर रहा है। इस प्रकार शब्दाकुल दोष का कथन पूर्ण हुआ । ८. बहुजन दोष भूरि- भक्तिभरा नम्रः, सूरि- पादाम्बुज- द्वयम् । प्रणम्य भाषते कश्चिद्दोषं सर्वं विधानतः ||६२२ ॥ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - २०२ नस्य सूत्रार्थ तथे, नशितय-शालिता । व्यवहारविदा दत्तं प्रायश्चित्तं यथोचितम् ||६२३ ॥ अर्थ- कोई क्षपक अत्यन्त भक्ति के भार से नम्र हुआ आचार्य के पादमूल में जाकर और मन, वचन, काय की शुद्धि पूर्वक वन्दना करके सभी दोषों को विधिवत् कहता है और सूत्रार्थ में निपुण, रत्नत्रय के पालन में तत्पर एवं व्यवहार अर्थात् प्रायश्चित्त शास्त्र के वेत्ता आचार्य द्वारा उस अपराध के अनुरूप ही यथोचित प्रायश्चित्त दिया जा रहा है ।। ६२२-६२३ ।। यत्कल्प-व्यवहाराङ्ग-पूर्वादि श्रुत-भाषितम् । तदालोच्य विधानेन, दत्तं सूत्र - पटीयसा ।। ६२४ ॥ अश्रद्धाय वचस्तस्य, स यथा पृच्छते परम् । आचार्यैः कथितो दोषस्तदालोचन - गोचरः ॥६२५ ॥ अर्थ - अंगबाह्य श्रुत में कल्प नामक प्रकरण में, प्रत्याख्यान नामक नवम पूर्व में तथा शेष अंगों और प्रकीर्णकों में जो प्रायश्चित्त का कथन है उन सब सूत्रों में विशारद आचार्य द्वारा उस क्षपक की आलोचना के अनुसार ही उसे योग्य प्रायश्चित्त दिया गया है किन्तु उस परम योग्य आचार्य के वचनों पर विश्वास ना कर यदि वह क्षपक अन्य आचार्यों से पूछता है, तो वह आलोचना का आठवाँ दोष है ।। ६२४-६२५ ।। दोषावतीर्णोऽपि ददाति पीडां परप्रकारेण विशोध्यमानः । व्रणो हि शुष्कोऽपि करोति बाधां प्रचाल्यमानः किमुत्ताविषयः ॥ ६२६ ॥ इति भूरि सूरि-दोष: ॥ अर्थ - ऊपर से शुष्क हुआ किन्तु अभ्यन्तर में कील सहित घाव जैसे पीछे बढ़कर बहुत कष्ट देता है, वैसे ही यद्यपि माया रहित की जानेवाली यह आलोचना अति सुन्दर थी किन्तु गुरु द्वारा दिये गये प्रायश्चित्त के प्रति अश्रद्धान रूपी शल्य से युक्त होने के कारण और अन्य आचार्यों द्वारा उसका विशोधन कराने के कारण वह दुखदायी है || ६२६ ॥ इस प्रकार बहुजन नामक दोष का कथन पूर्ण हुआ । ९. अव्यक्त दोष आगमेन चरित्रेण, बालो भवति यो यतिः । तस्यालोचयतो दोषं, स्वं दोषो नवमो मतः ॥६२७ ॥ अर्थ- जो मुनि आगमज्ञान से बाल है तथा चारित्र से बाल है अर्थात् जिसे शास्त्रज्ञान भी नहीं है और जिसका चारित्र भी हीन है, ऐसे आचार्य के निकट अपने दोषों की आलोचना करना अव्यक्त नाम का नौवाँ दोष है ||६२७ ॥ निवेदितं मया सर्वं, नासौ जानाति दूषणम् । विश्राणयति मे शुद्धिं प्रणिधायेति मानसे । ६२८ ।। Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - २०३ अर्थ - आलोचक क्षपक मन में यह सोचता है कि मैंने नौ कोटि से किये हुए सर्व दोष मन, वचन और काय की एकाग्रता करके शुद्धिपूर्वक गुरु से कह दिये हैं, ये मुझे प्रायश्चित्त द्वारा शुद्धि प्रदान करेंगे, किन्तु आगमज्ञान-विहीन मन्द-चारित्री वह आचार्य न दोषों को जानता है और न उनका प्रायश्चित्त ही जानता है॥६२८॥ इदमालोचनं दत्ते, पश्चात्तापं दुरुत्तरम्। दुष्टानामिव साङ्गत्यं, कूटं स्वर्णमिवाथवा ।।६२९ ।। इति अव्यक्त दोषः।। अर्थ - जैसे दुष्ट पुरुषों की संगति या नकली स्वर्ण खरीदलेना - पश्चाताप ही देता है, वैसे ही अव्यक्त दोषयुक्त की गयी यह आलोचना महान् पश्चाताप देती है ।।६२९॥ प्रश्न - इस दृष्टान्त - दार्टान्त का क्या अभिप्राय है ? उत्तर - उसका यह अभिप्राय है कि जैसे कोई अज्ञानी धन समझकर नकली स्वर्ण खरीद ले तो वह नियमत: अहितकारी होता है, क्योंकि उससे कोई भी इच्छित वस्तु नहीं खरीद सकते। इसी प्रकार ज्ञान-बालमुनि के समीप की गई आलोचना अत्यन्त अहितकारी है क्योंकि वह बालमुनि परमार्थ के योग्य प्रायश्चित्त नहीं दे सकता। अथवा जैसे दुर्जनों की मित्रता हितकर नहीं होती दखदायक ही होती है, उसी प्रकार प्राणिसंयम और इन्द्रिय संयम से रहित चारित्र-बालमुनि के सम्मुख की गई आलोचना योग्य प्रायश्चित्त का लाभ न होने से अनेक अनर्थों की उत्पादक होती है। इस प्रकार अव्यक्त दोष का कथन पूर्ण हुआ। १०. तत्सेधी दोष पार्श्वस्थानां निज दोषं, पार्श्वस्थो भाषते कुधीः। निचितो निचितैर्दोषैरेषोऽपि सदृशो मया ।।६३० ।। जानीते मे यत्त: सर्वां, सर्वदा सुख-शीलताम् । प्रायश्चित्तं ततो नैष, महद्दास्यति निश्चितम् ।।६३९॥ अर्थ - कोई दुर्बुद्धि पार्श्वस्थ क्षपक पार्श्वस्थ आचार्य के समीप जाकर अपने दोष कहता है, वह जानता है कि यह आचार्य सर्व व्रतों में दोषों से भरा है और मैं भी दोषों का भण्डार हूँ, अत: यह मेरे ही समान है। यह मेरे सब दोषों को जानता है और मेरी सुख-शीलता को भी जानता है कि मैं दुख सहन नहीं कर पाता, अत: निश्चित ही यह मुझे कोई कष्टप्रद महान् प्रायश्चित्त नहीं देगा ।।६३०-६३१ ।। एतस्य कथने शुद्धिः, सुखतो मे भविष्यति। अयमालोचना दोषो, दशमो गदितो जिनैः ॥६३२ ।। अर्थ - ऐसे आचार्य के निकट दोषों की आलोचना करने पर मेरी शुद्धि सुखपूर्वक हो जावेगी। इस भाव से आलोचना करनेवाले क्षपक के यह दसवाँ तत्सेवी नाम का दोष होता है, ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है॥६३२॥ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - २०४ उक्तो दोष: सदोषस्य, सदोषेण न नाश्यते । रक्तरक्तं कुतो वस्त्रं, रक्तेनैव विशोध्यते ।।६३३ ।। अर्थ - जैसे रुधिर से लिप वस्त्र को रुधिर शुद्ध या सफेद नहीं कर सकता, वैसे ही सदोष क्षपक द्वारा सदोष आचार्य के निकट की गई आलोचना से अतिचार सम्बन्धी क्षपक के दोष कदापि शुद्ध नहीं हो सकते ॥६३३॥ जिनेशवाक्य-प्रतिकूलचित्ता, यथा विमुक्तिं दवयन्ति पूताम् । तथा विशुद्धिं कुधियो वदन्तो, दोषाकुलानां निज-दूषणानि ॥६३४॥ इति तत्सम-दोषः॥ अर्थ - जैसे जिनेन्द्रदेव की वाणी से प्रतिकूल चित्तवाले जीव पवित्र मुक्ति को अपने से अतीव दूर करते हैं, वैसे ही दुर्बुद्धि क्षपक सदोष आचार्य के समक्ष अपने दोषों की आलोचना करके रत्नत्रय की शुद्धि को अपने से दूर करता है॥६३४ ॥ इस प्रकार तत्सम दोष का नाशन पूर्ण हुआ। हित्वा दोषान्दशापीति, त्यक्त-माया-मदादिकः । स विनीतमनाः सूरेरालोचयति यत्नतः ।।६३५ ।। इति दश-दोषाः॥ अर्थ - सदोष आलोचना से शुद्धि नहीं होती, अत: विनीत भाववाला क्षपक मुनि निर्यापकाचार्य के पादमूल में दसों दोषों को तथा भय, माया और मद आदि दोषों को छोड़कर प्रयत्न अर्थात् विधिपूर्वक आलोचना करता है।।६३५।। इस प्रकार आलोचना के दस दोषों का वर्णन पूर्ण हुआ। ___ आलोचना की विधि गृहस्थ-वचनं मुक्त्वा , मौनं च कर-नर्तनम् । सम्यक् सुस्पष्टया वाचा, वक्ति दोषान्गुरोः पुरः॥६३६ ॥ अर्थ - गृहस्थ के सदृश उद्धत वचनों का, मौन का और हाथों द्वारा अभिनय आदि का त्याग कर सुस्पष्ट वाणी द्वारा भली प्रकार से गुरु के आगे अपने दोषों की आलोचना करनी चाहिए ।।६३६ ।। उक्तं च मूक-संज्ञान-बलने, भ्रू-क्षेपं हस्तनर्तनम् । गृहिणां वचनं चैव, तथा शब्दं च घर्घरम् ।।१।। विमुञ्चाभिमुखं स्थित्वा, गुरूणां गुणधारिणम् । स्वापराधं समाचष्टे, विनयेन समन्वितः ।२।। Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परणकण्डिका - २०५ अर्थ - अन्य ग्रन्थ में कहा है कि - गूंगे के सदृश संकेत करना, अंगों को मोड़ना, भौं मटकाना, हाथ नचाना, गृहस्थ के सदृश वचन बोलना एवं घर्घर स्वर में बोलना इत्यादि सर्व विकारों का त्याग कर गुणवान् गुरु के सम्मुख बैठकर विनयपूर्वक अर्थात् दोनों हाथों की अंजुलि बना कर, सिर झुका कर गुरु के बायीं ओर एक हाथ दूर गवासन से बैठकर, न अति शीघ्र और न अति रुक-रुक कर स्पष्ट शब्दों द्वारा आलोचना करनी चाहिए।॥१-२॥ आलोचना प्रारम्भ एक-द्वि-त्रि-चतुः-पञ्च-हृषीकाङ्गि-विराधने । असूनृत-वच-स्तेय-मैथुन-ग्रन्थ-सेवने ॥६३७ ।। अर्थ - एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीवों की विराधना की हो, असत्य वचन, चोरी, मैथुन और परिग्रह इन पापों में प्रवृत्ति हुई हो ॥६३७ ।। प्रश्न - इस श्लोक में किसकी और किस प्रकार की आलोचना कही जा रही है ? उत्तर - हिंसा, झूठ, चोरी, कुशाल और परिग्रह ये पाँच पाप हैं। दीक्षा लेते समय इन पापों का नौ कोटि से त्याग कर दिया जाता है। फिर भी प्रमाद आदि के कारण दोष लग जाते हैं। पंच स्थावर और उस इन छह काय के जीवों में से मेरे द्वारा पृथ्वीकायिक जीवों की अर्थात् मिट्टी, पत्थर, शर्करा, रेत एवं नमक आदि के खोदने, जोतने, जलाने, कूटने एवं तोड़ने आदि रूप से कोई विराधना हो गई हो; जल, बर्फ, ओस, तुषार आदि पानी के भेद हैं, इनका पान करने, स्नान करने, तैरने, बिखेर देने, ठण्डा-गरम कराने एवं हाथ-पैर तथा शरीर से इनका मर्दन करने, इत्यादि से कोई विराधना हुई हो; अग्नि की ज्वाला, दीपक एवं उल्मुक आदि आग के ऊपर पानी, पत्थर, रेत एवं मिट्टी आदि द्वारा दबा देने से, लकड़ी आदि के द्वारा उसे कूटने से, सेक आदि करने से तथा दीपक आदि की ज्योति कम-अधिक कर देने से जो विराधना हुई हो; झंझा और माण्डलिक आदि वायु को ताड़ादि के पत्रों से, सूप से तथा लकड़ी या चद्दर आदि वस्त्रों से रोकने, पंखे या पुढे आदि से हवा करने तथा वायु के सम्मुख गमन करने से जो विराधना हुई हो; बीज, पत्र, फूल, वृक्ष, लता, झाड़ी, बेल, तृण एवं गुल्मादि अनन्तकाय वनस्पति एवं प्रत्येक वनस्पति के ऊपर चलने, तोड़ने, मसलने, स्पर्श करने, छेदने एवं खाने से इनकी विराधना हुई हो; दो इन्द्रियादि उस जीवों को मारने, रोकने, छेदने, पीटने, तोड़ने एवं बाँधने आदि से जो विराधना हुई हो; इसी प्रकार अन्य चार पापों में भी जो-जो प्रवृत्तियाँ हुई हों, उन सबकी मैं मन, वचन और काय की शुद्धिपूर्वक आलोचना करता हूँ। दर्शन-ज्ञान-चारित्र-तपसां प्रतिकूलने। उद्गमोत्पादनाहार-दूषणानां निषेवणे ।।६३८॥ __ अर्थ - सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप को नष्ट करनेवाला कोई प्रतिकूल आचरण किया हो तथा उद्गम, उत्पादन एवं एषणादि छियालीस दोषों में से किसी भी दोष से दूषित आहार आदि ग्रहण किया हो॥६३८॥ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - २०६ प्रश्न - सम्यग्दर्शनादि के प्रतिकूल क्या आचरण होता है ? उत्तर - व्रतों आदि में अतिचार लगाना ही उनके प्रति प्रतिकूल आवरा है . पक्षिा, कक्षा सात कर सम्यग्दर्शन के अतिचार हैं। मन से सम्यग्ज्ञान की अवज्ञा करना, इस ज्ञान से क्या लाभ है, तप एवं चारित्र ही फलदायक हैं, अत: उन्हीं को करना चाहिए ऐसे भाव करना, या सम्यग्ज्ञान को दूषण लगाना, या मन, वचन अथवा काय से उसमें अरुचि प्रगट करना और मुख की विरूपता से या सिर आदि हिलाकर उसका निषेध करना सम्यग्ज्ञान के अतिचार हैं। समिति आदि के पालन में शिथिलता तथा चारित्र-पालन में कष्ट बहुत है और इसका फल अल्प है इत्यादि भाव होना चारित्र के अतिचार हैं। उपवास आदि तप करते समय असंयम रूप प्रवृत्ति करना तप के अतिचार हैं तथा आहार, उपकरण और वसतिका आदि के ग्रहण में छियालीस दोष लगाना ही इनके अतिचार हैं। इन सर्वातिचारों की मैं आज आलोचना करता हूँ। दुर्भिक्षे मरके मार्गे, वैरि-चौरादि-रोधने। योऽपराधो भवेत्कश्चिन्मनो-वाक्काय-कर्मभिः ।।६३९॥ सर्वदोष-क्षयाकांक्षी, संसार-श्रम-भीलुकः। आलोचयति तं सर्वं, क्रमतः पुरतो गुरोः ।।६४०॥ अर्थ - दुर्भिक्ष के समय, रोग आने पर एवं मार्ग में चोर या शत्रुओं आदि के द्वारा रुकावट डाले जाने पर मेरे द्वारा मन, वचन एवं काय से जो अपराध हुए हैं उन सभी की क्रमश: गुरु के आगे वह क्षपक आलोचना करता है जो समस्त दोषों को नष्ट करना चाहता है तथा संसार के कष्टों से भयभीत है ||६३९-६४०॥ प्रश्न - दुर्भिक्ष आदि के समय अतिचार कैसे लगते हैं? उत्तर - भयंकर दुर्भिक्ष पड़ने पर अवमौदर्य तप को भंग करके स्वयं ने जो अयोग्य सेवन किया हो या अन्य साधुओं को अमुक प्रकार से अयोग्य भिक्षा ग्रहण करने में प्रवृत्त किया हो। अथवा संघ में मारी रोग का उपद्रव होने पर विद्या या मन्त्रादि के द्वारा उसके शमन करने में जो अतिचार लगे हों। अथवा देश या नगर आदि से बाहर निकलने के जितने मार्ग हैं वे शत्रुओं अथवा चोरों आदि के द्वारा बन्द कर दिये जाने पर उस परवशता में भिक्षाचर्या आदि के लिए जो संक्लेश उत्पन्न हुआ हो अथवा कोई अयोग्य पदार्थ का सेवन कर लिया हो। नदी में बाढ़ आना, आग लग जाना, महती आँधी चलना, भयंकर वर्षा होना, राज्य पर शत्रुसेना का आक्रमण; रोग, शोक या कष्ट से पीड़ित होना, रस युक्त भोजन में आसक्ति, बकवाद में आसक्ति, यह सचित्त है या अचित्त ऐसी आशंका हो जाने पर उसे तोड़ना, फोड़ना, खाना, अशुभ मन और वचन की सहसा झट-पट प्रवृत्ति कर बैठना; चोर, श्वान एवं सर्प आदि के प्रवेश के भय से वसतिका का द्वार बन्द कर देना; हस्त-पादादि का मोड़ना, संकोचना एवं फैलाना; पत्थर एवं मिट्टी का ढेला आदि फेंकना; दौड़ना, कण्टक आदि की बाड़ का उल्लंघन करना; अज्ञानीजनों का आचरण देखकर स्वयं भी वैसा ही करना और उसमें दोष नहीं मानना; अज्ञानी द्वारा लाये गये उद्गम आदि दोषों से दूषित उपकरणादि का सेवन करना; शरीर में, उपकरणों में, वसति में, कुल में, ग्राम में, देश में, बन्धु वर्ग में, चश्मा, पेन, कलम आदि में एवं पार्श्वस्थ साधुओं में ममत्वभाव रखना; आनेवाली शीतल हवा को चटाई आदि से रोकना; आग तापना, उबटन लगाना, तेल Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - २०७ मालिश करना, उपकरण गंदा या जीर्ण या नष्ट हो जायेगा, इस भय से उनका उपयोग नहीं करना, कमण्डलु आदि धोना, उसमें तेल आदि लगाना, वसतिका स्थित घास खाने को अथवा टूटने को ममत्व भाव से रोकना, "मेरे कुल में बहुत यतियों का प्रवेश मुझे इष्ट नहीं" ऐसा मुख से कहना, प्रवेश करने पर कोप करना, उन्हें प्रवेश देने का निषेध करना, अपने कुल की ही वैयावृत्त्य करना, निमित्त आदि का उपदेश देना, सम्बन्धी यतियों के सुख-दुख से अपने को सुखी-दुखी मानना, पार्श्वस्थ आदि मुनियों की वन्दना करना, उनकी आज्ञा उल्लंघन में असमर्थ रहना, उन्हें उपकरण देना, ऋद्धि के स्थाग में असमर्थ रहना, मुनि परिवार में आदरभाव होने से प्रिय वचन और उपकरणदान द्वारा दूसरों को अपनाना. इष्ट रस का त्याग न करना. अनिष्ट रस में अनादर करना. अति भोजन अथवा अतिशयन में आसक्ति रखना (ये क्रमशः ऋद्धि गारव, रस गारद और सात गारव हैं), उन्माद, पित्त-प्रकोप, भूत-पिशाच आदि की परवशता से उत्पन्न दोष, जातिजन या मिथ्यादृष्टि परिवार जनों द्वारा जबरन पकड़ कर गन्ध, माल्य आदि का सेवन, त्यागी हुई वस्तु का भोजन, रात्रिभोजन, मुखवास, ताम्बूल आदि का भक्षण कराये जाने से एवं स्त्रियों या नपुंसकों द्वारा बलपूर्वक अब्रह्म सेवन कराये जाने से, चार प्रकार के स्वाध्याय या आवश्यकों में आलस्य, छिपकर अनाचार, उत्तम अर्थात् धनाढ्य दाता का घर जान कर अन्य साधुओं से पहले ही किसी बहाने वहाँ इस प्रकार पहुँचना कि जिससे दूसरे न जाने पावें, या अच्छा सरस भोजन करके यह कहना कि मैंने नीरस भोजन किया है। पूर्ण भोजन करके भी कहना कि मैंने अल्प ही भोजन किया है, सचित्त भोजन करके कहना कि अचित्त किया है और अचित्त करके कहना कि सचित्त किया है, अकषाय पूर्वक किये दोषों को 'कषायपूर्वक किया' कहना, वसतिका में किये दोषों को 'मार्ग में किये' कहना, रात्रि में किये दोषों को दिन में और दिनकृत दोषों को रात्रिकृत कहना, स्त्रियों का सहवास करना तथा उनके मनोहर अंगों को गृद्धतापूर्वक देखना आदि, और भी अनेक प्रकार के जो-जो दोष लगे हों उन्हें गुरु के समक्ष यथावत् कह देना चाहिए। स सामान्य-विशेषाभ्यामभिधाय स्वदूषणम् । विधत्ते गुरुणा दत्ता, विशुद्धिं शुद्ध-मानसः ॥६४१॥ अर्थ - वह शुद्धचित्तधारी क्षपक सामान्य और विशेष आलोचना द्वारा अपने सर्व दोषों को गुरु के समक्ष यथावत् कह कर गुरु द्वारा दी गई विशुद्धि अर्थात् प्रायश्चित्त को ग्रहण करता है ||६४१।। प्रश्न - क्षपक का 'शुद्धमानसः' विशेषण क्यों दिया गया है ? उत्तर - क्षपक छोटे बालक सदृश सहज और सरल भाव से सर्वापराधों की यथावत् आलोचना करता है और गुरु द्वारा प्रदत्त प्रायश्चित्त में राग-द्वेष नहीं करता। इतना कठोर प्रायश्चित्त मैं कैसे वहन करूँगा, या इतने उपवास कैसे करूँगा ऐसे कोई विकल्प वह नहीं करता है तथा प्रायश्चित्त का पूर्ण पालन करता है, अत: उसका 'शुद्धमानसः' विशेषण दिया गया है। गुरु के समीप आलोचना करने का गुण मनुष्यः कृत-पापोऽपि, कृतालोचन-निन्दनः । सम्पद्यते लघुः सद्यो, विभारो भारवानिव॥६४२॥ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - २०८ अर्थ - जैसे सिर का बोझ नीचे उतार देने पर बोझ ढोनेवाला हल्का अर्थात् सुखी हो जाता है, वैसे ही पापी से पापी मनुष्य भी यदि निन्दा गर्हा एवं आलोचनादि कर लेता है तो वह शीघ्र ही पाप भार से हल्का हो जाता है । अथवा 'कृतपापोऽपि' अर्थात् अशुभकर्म के कारणभूत असंयम आदि को भी पाप कहा जाता है, अतः असयम आदि में भी प्रवर्तन कर लेनेवाला साधु यदि गुरु के समीप जाकर अपनी निन्दा गर्हा करता है। तो वह निराकुल और सुखी हो जाता है ।। ६४२ ।। भावशुद्धि के अभाव में दोष भावशुद्धिं न कुर्वन्ति, भवन्तोपि बहुश्रुताः । चतुरङ्गे विमूढा ये, दुःख पीड्या भवन्ति ते ।।६४३ ॥ अर्थ - जो मूढमुनि बहुश्रुतधारी अर्थात् महाविद्वान् होकर भी दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप इन चार आराधनाओं में भावशुद्धि नहीं रखते अर्थात् इनमें लगे दोषों की आलोचना गुरु के समक्ष नहीं करते वे चतुर्गति के दुखों से पीड़ित होते हैं || ६४३ ॥ आलोचना सुन कर आचार्य तीन बार पूछते हैं त्रिः कृत्वालोचनां शुद्धां, भिक्षोर्विज्ञाय तत्त्वतः । स मध्यस्थो रहस्यज्ञो, दत्ते शुद्धिं यथोचिताम् ॥ ६४४ ॥ अर्थ - क्षपक साधु की तीन बार की गई शुद्धि को अर्थात् आलोचना को भली प्रकार जान कर रागद्वेष के उद्रेक से रहित मध्यस्थ भाववाले एवं प्रायश्चित्त शास्त्र के ज्ञाता आचार्य क्षपक के दोषानुसार उचित प्रायश्चित्त देते हैं ॥ ६४४ ॥ राजकार्यातुरासत्य - सशल्यानामिव त्रिधा । दोषाणां पृच्छना कार्या, सूरिणागम - वेदिना । १६४५ ।। अर्थ - राजकार्य, रोगी, असत्य एवं शल्य के विषय में जैसे तीन बार पूछा जाता है वैसे ही आगमज्ञ आचार्य को क्षपक के दोषों के विषय में तीन बार पूछना चाहिए || ६४५ || प्रश्न- तीन बार कहाँ-कहाँ पूछा जाता है और क्षपक से भी उसके दोष तीन बार क्यों पूछना चाहिए? उत्तर - जैसे राजा द्वारा आज्ञा दिये हुए कार्य के विषय में राजा से यथा अवसर तीन बार पूछा जाता है कि क्या यह कार्य इसी प्रकार करूँ अथवा कराऊँ? वैद्य रोगी से तीन बार पूछता है तुमने क्या-क्या खाया था? क्या - क्या किया था? रोग की क्या दशा है ? इत्यादि, असत्यभाषी से या चोरी होने पर भी तीन बार पूछा जाता है कि चोरी कैसे हुई एवं क्या-क्या गया ? शरीर में होने वाले घाव की भी तीन बार परीक्षा करते हैं कि घाव की कील निकली या नहीं? यह भरा या नहीं? वस्तु खरीदते समय भी उसके मूल्यादि को तीन बार पूछा जाता है, वैसे ही आचार्यदेव को क्षपक से उपायपूर्वक तीन बार पूछना चाहिए कि अपने अपराध पुन: कहो, मैंने अभी सुने नहीं हैं या मैं भूल गया हूँ, इत्यादि । बच्चन कहने के ढंग से, मुखाकृति पर आने वाले भावों से, उस समय होने वाली शारीरिक चेष्टाओं से एवं तीनों बार में एक ही प्रकार से दोषों का निवेदन करने से हृदय की सरलता या वक्रता का अर्थात् आलोचना की शुद्धि का पता लग जाता है। Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणमण्डिमा १०१ दोषान्न प्राञ्जलीभूय, भाषते यद्यशेषतः । न कुर्वन्ति तदा शुद्धिं, प्रायश्चित्त-विचक्षणाः ।।६४६ ॥ अर्थ - यदि क्षपक मुनि सरलभाव से सम्पूर्ण दोषों को नहीं कहता है तो प्रायश्चित्तदान में कुशल आचार्य उसकी शुद्धि नहीं करते, अर्थात् उसे प्रायश्चित्त नहीं देते हैं ।।६४६ ।। नि:शेष भाषते दोषं, यदि प्राञ्जलमानसः । तदानीं कुर्वते शुद्धि, व्यवहार-विशारदाः ॥६४७॥ अर्थ - यदि क्षपक सरल हृदय से सर्व अतिचारों को क्रमानुसार कहते हैं तो प्रायश्चित्तशास्त्रविशारद आचार्य उसकी शुद्धि करते हैं अर्थात् नियमतः उसे प्रायश्चित्त देते हैं ।।६४७॥ सम्यगालोचते तेन, सूत्रं मीमांसते गणी। अनालोचे न कुर्वन्ति, महान्तः काञ्चन क्रियाम् ।।६४८ ।। अर्थ - क्षपक द्वारा सम्यगालोचना किये जाने पर सूत्र अर्थात् प्रायश्चित्त शास्त्र के ज्ञाता आचार्य इससे अमुक-अमुक अपराध हुए हैं, इसके लिए कौन-कौन सा प्रायश्चित्त उचित होगा, इसके लिए ग्रन्थावलोकन द्वारा विचार करते हैं क्योंकि महापुरुष बिना विचार किये कोई भी कार्य नहीं करते हैं॥६४८ ।। ज्ञात्वा वक्रामवक्रां वा, सूरिरालोचनां यते । विदधाति प्रतीकारं, शुद्धिरस्ति कुतोन्यथा ॥६४९ ।। अर्थ - क्षपक मुनि की सरल परिणामों से या कुटिल परिणामों से की हुई आलोचना को भली प्रकार जानकर आचार्य प्रायश्चित्त दान द्वारा उसके दोर्षों की शुद्धि करते हैं। अन्यथा अर्थात् आलोचना को बिना जाने शुद्धि करना कैसे सम्भव है? ॥६४९ ॥ जातस्य प्रतिसेवातो, हानिर्वृद्धिश्च देहिनाम्। पापस्य परिणामेन, तीव्रा मन्दा च जायते ।।६५० ।। अर्थ - जीवों के असंयम आदि उत्पन्न दोषों में हानि-वृद्धि होती रहती है। तीव्र पाप परिणाम से तीव्रता और मन्द अशुभ परिणाम से मन्दता होती है।६५० ॥ प्रश्न - यह हानि-वृद्धि और तीव्रता-मन्दता कैसे होती है ? उत्तर - तीव्रता-मन्दता और हानि-वृद्धि होने के यहाँ दो कारण हैं। एक कारण असंयम आदि दोष करते समय और दूसरा कारण उन दोषों की आलोचना का समय । यथा-पान करते समय जो पाप-बन्ध हुआ था, पश्चात् पीछे होनेवाले शुभ या अशुभ परिणामों से उसमें तीव्र हानि या तीव्र वृद्धि अथवा मन्द हानि या मन्द वृद्धि हो जाती है। वैसे ही आलोचना के पश्चात् तीव्र शुभ परिणाम होने से पाप की तीव्र हानि और मन्द शुभ परिणाम होने से पाप की मन्द हानि होती है। प्रायश्चित्त देते समय आचार्य क्षपक के इन सब परिणामों का सूक्ष्मता से विचार करते हैं। Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - २१० स्थिरत्वं नयते पूर्व, संसारासुख-कारणम् । एतेषां चिनुते पापं, संक्लिष्टः क्षिपते गुणम् ।।६५१ ।। अर्थ - संक्लेश परिणाम सांसारिक दुखों के कारणभूत पूर्वबद्ध पाप कर्म को तीव्र शक्तिवाला कर देता है, नवीन पापकर्म का संचय कर देता है और सम्यक्त्व आदि गुणों को नष्ट कर देता है ।।६५१ ॥ प्रश्न - संक्लेश कितने प्रकार का होता है और उसका क्या कार्य है? उत्तर - संक्लेश परिणाम दो प्रकार के होते हैं। १. सावद्य संक्लेश, २. मात्र चित्त की बाधा रूप निरवद्य संक्लेश। सावध संक्लेश - असंयमादि सेवन करने से उत्पन्न पापकर्म को बाँधनेवाला पाप परिणाम अथवा तीव्र अशुभ परिणाम रूप सावध संक्लेश है। यह संक्लेश पूर्वबद्ध कर्मों को दृढ़ करता है कारण कि स्थितिबन्ध कषाययुक्त परिणामों के निमित्त से होता है। तीव्र स्थिति-अनुभागवाला नवीन कर्मबन्ध करता है, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र रूप गुणों का घात करता है, अशुभ परिणामों को तीव्र और दृढ़ करता है तथा नाना प्रकार की हजारों वेदनाओं से व्याप्त नारकादि दुर्गतियों के भय की वृद्धि करता है। चित्त की बाधारूप संक्लेश सावध रूप नहीं होता। मेरा ज्ञान निर्मल क्यों नहीं होता? मेरा चारित्र अतीव उज्ज्वल क्यों नहीं होता? मेरा शरीर इतना दुर्बल क्यों है कि तपोयोग को सहन नहीं कर पाता? मेरा मन आत्मचिन्तन में स्थिर क्यों नहीं हो पाता? इस प्रकार का संक्लेश चित्त में बाधा उत्पन्न करता रहता है। कृत्वापि कल्मषं कशित्, पश्चाताप-कृशानुना । दह्यमान-मना देशं, सर्व वा हन्ति निश्चितम् ।।६५२ ।। अर्थ - किसी क्षपक ने असंयम आदि रूप कोई दोष कर लिया, पीछे पश्चाताप रूपी अग्नि के द्वारा उसका मन दग्ध हो उठा कि 'हाय ! मैंने यह क्या कर लिया ?' तब वह संसार से भयभीत होकर संयमाचरण में तत्पर हो गया, जिसके प्रभाव से अर्धात् संयमाचरण के मन्द अथवा मध्यम परिणाम से कर्मों की एकदेश निर्जरा करता है और तीव्र विशुद्ध परिणाम होते हैं तो सर्व कर्मों का घात कर देता है ॥६५२ ।। नालिकाधमवज्ज्ञात्वा, प्रमाणं कुरुते सुधीः । ततः शुध्यति यावत्या, तावतीं स परिक्रियाम् ॥६५३॥ अर्थ - प्रायश्चित्त शास्त्र के ज्ञाता और प्रायश्चित्त देने की क्रिया से परिचित बुद्धिमान आचार्य सुनार के सदृश उस अपराधी साधु के परिणामों को जानकर जितने प्रायश्चित्त से उसकी विशुद्धि हो उतना ही अधिक या अल्प प्रायश्चित्त उसे देते हैं ।।६५३ ।।। प्रश्न - यहाँ 'सुनार के सदृश जानकर' इसका क्या अभिप्राय है ? दूसरे के परिणाम आचार्य कैसे जान सकते हैं? उत्तर - यहाँ स्वर्णकार से तात्पर्य है कि जैसे स्वर्णकार स्वर्ण की कम या अधिक अशुद्धि देखकर उसी के अनुकूल अग्नि की सामर्थ्य या असामर्थ्य देखकर तदनुसार कम या अधिक हवा से उसे प्रज्वलित कर स्वर्ण Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - २११ को शुद्ध कर लेता है, उसी प्रकार आचार्य क्षपक के छोटे या बड़े अपराध को तथा क्रोधादि परिणामों की तीव्रता-मन्दता को जानकर तदनुरूप प्रायश्चित्त देकर उसे शुद्ध करते हैं। दूसरों के परिणामों का अनुमान सहवास से हो जाता है कि यह तीव्र क्रोधी या तीव्र मानी है। अथवा उसके कार्यकलाप एवं भाषा आदि का व्यवहार देखकर उसके तीव्र या मन्द क्रोधादि परिणामों का अनुमान हो जाता है, अथवा जब तुमने दोष किये थे तब तुम्हारे परिणाम कैसे थे ? ऐसा तीन बार पूछने से भी अन्य के परिणामों का अनुमान हो जाता है। उल्लाघी करुने तैयो तैाशास्त्र-विशारदः। यथातुरं कृताभ्यासो, रोगातङ्कादि-पीडितम् ।।६५४ ।। गणाधिपः कृताभ्यासो, व्यवहार-विचक्षणः । क्षपकं मलिनीभूतं, निर्मलं कुरुते तथा ॥६५५ ।। अर्थ - अथवा जैसे आयुर्वेद के शास्त्रों का ज्ञाता एवं अनेक बार की हुई चिकित्सा के अभ्यास से प्राप्त निपुण बुद्धिवाला वैद्य महती अथवा अल्प व्याधि से पीड़ित रोगी को तदनुकूल औषधि देकर उसे नीरोग कर सुखी कर देते हैं ; वैसे ही प्रायश्चित्त शास्त्र में विशारद एवं अनेक बार शिष्यों को दिये हुए प्रायश्चित्त का अभ्यासी आचार्य दोषों से मलिन क्षपक को तदनुकूल प्रायश्चित्त द्वारा शुद्ध अर्थात् निर्मल कर देता है।।६५४ उपर्युक्त गुणवाले आचार्य के अभाव में अन्य भी निर्यापकाचार्य बन सकते हैं गणस्थितेऽसती-दृक्षे, स्थविरेऽध्यापके तथा। अस्ति प्रवर्तको वृद्धो, बालाचार्योऽथ यत्नतः ॥६५६ ।। अर्थ - आचारी और आधारी आदि गुणों से युक्त आचार्य, स्थविर या उपाध्याय यदि संघ में न हों तो सावधानीपूर्वक प्रवृत्ति करनेवाले प्रवर्तक अथवा नवीन बालाचार्य को भी नियपिकाचार्य बनाया जा सकता है।६५६॥ प्रश्न - स्थविर और प्रवर्तक किन्हें कहते हैं तथा निर्यापकाचार्य कौन-कौन बन सकते हैं? । उत्तर - जो रत्नत्रय स्वरूप मोक्षमार्ग के ज्ञाता हैं एवं जिन्हें दीक्षा लिये चिरकाल व्यतीत हो गया है उन्हें स्थविर कहते हैं और जो अल्पश्रुतज्ञानी होकर भी सर्वसंघ की मर्यादा, चर्या को जानते हैं, उन्हें प्रवर्तक कहते हैं। किसी साधु की समाधि का अवसर प्राप्त हो जाय और संघ में आचारी, आधारी आदि गुणों से युक्त आचार्य न हों तो उपाध्याय, ये भी न हों तो प्रवर्तक, ये भी न हों तो स्थविर भी निर्यापकाचार्य हो सकते हैं। स चारित्रगुणाकाङ्क्षी, कृत्वा शुद्धिं विधानतः । गुरोरन्ते समाचारी,विशुद्ध्यै चेष्टते तराम् ।।६५७ ।। Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - २१२ अर्थ - वह क्षपक समाचारी अर्थात् अपने योग्य आचरण करके, विधिपूर्वक अपने दोषों की विशुद्धि करता है, तथा भली प्रकार आत्मा को विशुद्ध करके स्वीकृत चारित्र में गुणों की वृद्धि की आकांक्षा करते हुए गुरु के समीप साधना करता है। १५:: . वर्षासु विविधं स्पृष्ट्वा तपःकर्म विधानतः। सुखवृत्तौ स हेमन्ते, संस्तर प्रतिपद्यते ।।६५८ ।। अर्थ - वह क्षपक वर्षाकाल में विधिपूर्वक अनेक प्रकार के तपश्चरण करता है और सुखरूप वृत्ति को सम्पन्न करनेवाली हेमन्त ऋतु में संस्तर का आश्रय ग्रहण करता है।६५८ ॥ निस्पर्शवन्निश्चतुरङ्ग-दोषं, गुरूपदेशेन विशुद्ध-चेताः। प्रवर्तते शुद्ध-गुणाधिरूढः, संसार-कान्तार-विलङ्घनाय ।।६५९ ।। इति गुणदोषौ । अर्थ - समस्त दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप इन चार आराधनाओं के अतिचारों से शुद्ध होकर, गुरु के उपदेश से विशुद्ध चित्तधारी क्षपक शुद्ध गुणसमूह में आरूद होता हुआ, संसार रूप विकट वन का उल्लंघन करने हेतु समाधिमरण में प्रयत्न करता है ।।६५९।। इस प्रकार गुण-दोष नामक अधिकार पूर्ण हुआ ||२४॥ २५. शय्या-अधिकार संन्यास अयोग्य शय्या का निषेध छन्द-म्रग्विणी गाथका वादका नर्तकाश्चाक्रिकाः,शालिका मालिकाः कोलिका वांशिकाः। काष्टिका लौहिका मात्सिका: पात्रिका:,काण्डिकादाण्डिकाक्षार्मिकाश्छिम्पकाः ।।६६०॥ चारणा वारणा वाजिनो मेषका, मद्यपा: पण्डका: सार्थिका; सेवकाः। ग्राविका: कोट्टपालाः कुलाला भटाः, पण्यनारीजना द्यूतकारा विटाः ।।६६१।। सन्ति यस्याः समीपे नि:कृष्ट-क्रिया, सा न शय्या निषेज्या कदाचिबुधैः। पालयद्भिः समाधानरत्नं, सदारूढ-संसार-कान्तार-विच्छेदकम् ।।६६२ ।। अर्थ - गन्धर्व अर्थात् गायक, वादक, नर्तक, चाक्रिक, शालिक अर्थात् हाथी, घोड़े आदि की सेवा में नियुक्त पुरुष, मालाकार, कोली, वांशिक अर्थात् बाँसुरी आदि बजाने वाले या बाँस पर चढ़कर खेल दिखाने वाले, बढ़ई, लुहार, मात्सिक अर्थात् मछलीमार, पात्रिक अर्थात् बर्तन बेचने वाले, कांडिक, दांडिक अर्थात् दण्डा बेचने या खेलने वाले, चमार, रंगरेज, भाट, वारण, घुड़सवार, मेदों के पालक, मद्यपायी, पण्डे, सार्थिक, Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - २१३ सेवक, ग्राविक अर्थात् पत्थर का कार्य करने वाले, कोटपाल, कुम्हार, सुभट, वेश्या, जुआरी और बदमाश, ऐसे-ऐसे निःकृष्ट कार्य करने वाले लोगों के निवास के समीप बनी हुई वसतिका योग्य नहीं है, क्योंकि जो बुद्धिमान मुनिजन संसाररूपी वन का नाश करने में तत्पर है तथा जो सदा समाधान अर्थात ममतारूपी रत्न का पालन कर रहे हैं उनके द्वारा वह कदापि सेव्यमान नहीं है || ६६०-६६२ ॥ योग्य वसतिका का स्वरूप पञ्चाक्ष-प्रसरो यस्यां विद्यते न कदाचन । 1 त्रिगुप्तो वसतौ तस्यां शुभध्यानोऽवतिष्ठते ॥ ६६३ ॥ अर्थ - जहाँ मन को संक्षोभ करनेवाला पाँचों इन्द्रियों का अपने-अपने विषयों में कदाचित् भी गमन सम्भव नहीं है उस वसतिका में साधु क्षपक मन, वचन और काय को गुप्त करके शुभ ध्यान करते हुए निवास करते हैं । ६६३ ॥ अर्थ- जो वसतिका उद्गमादि दोषों से रहित हो, अपने उद्देश्य से निर्मित न हो, लिपाई-पुताई आदि संस्कार से रहित हो तथा सम्मूर्च्छन जीवों से रहित हो, उसमें साधु निवास करते हैं || ६६४ || चाहिए | अर्थ - जहाँ मिथ्यादृष्टि जीवों को अगम्य हो, गृहस्थों के निवास से रहित हो और अन्धकार से रहित हो ऐसी दो अथवा तीन वसतिकाएँ क्षपक के लिए करने योग्य हैं ।। ६६५ ॥ वसतिका अन्धकार रहित क्यों होनी चाहिए और दो-तीन वसतिकाएँ भी क्यों ग्रहण करनी प्रश्न उद्गमादि-मलापोढा, सप्रकाशा गत क्रिया । संस्कार करणायोग्या, सम्मूर्च्छन- विवर्जिता ॥ ६६४ ॥ Z मिथ्यादृष्टि - जनागम्या, गृहिशय्या - विवर्जिताः । द्वि-त्रा वसत्यो ग्राह्याः सेव्या विध्वस्त- तामसाः ।। ६६५ ।। - उत्तर अन्धकारमय वसतिका से संयम का घात होता है। एक वसतिका क्षपक के निवास हेतु और दूसरी अन्य मुनिजनों के विश्राम हेतु होनी चाहिए। यदि तीन वसतिका ग्रहण करते हैं तो एक में क्षपक, एक में अन्य मुनिजन और एक में धर्मोपदेश होता है। निविडाः संवृत - द्वारा:, सुप्रवेश - विनिष्क्रमाः । सकवाटा लसत्कुड्या, बाल-वृद्ध जनोचिता ॥६६६ ॥ अर्थ- वसतिका मजबूत अर्थात् दृढ़ हो, द्वार से ढकी हुई हो, जिसमें बिना कष्ट के सुखपूर्वक प्रवेश और निर्गमन हो सकता हो, कवाट युक्त हो, दृढ़ दीवार वाली हो और बाल-वृद्ध लोगों के भी योग्य हो ||६६६ ॥ प्रश्न- वसतिका में कवाट होना आवश्यक क्यों है ? Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - २१४ उत्तर - कवाट बिना खुली वसत्तिका में क्षपक को दीर्घशंका एवं लघुशंका नहीं करा सकते और आती हुई शीतादि की बाधा का भी निवारण नहीं कर सकते। जिस क्षपक के शरीर में मात्र चर्म एवं हड्डी ही अवशेष रही है, ऐसे क्षपक को शीतादि की बाधा से दुस्सह कष्ट का सामना करना पड़ेगा जो असमाधि का भी कारण बन सकता है, अत: वसतिका में किवाड़ आवश्यक हैं। उद्यागान्दिने हो, गुहा शूल-शेपनि। आगन्तुक-निवासे वा, स्थिति: कृत्या समाधये ॥६६७॥ अर्थ - हृदयहारी सुन्दर उद्यानगृह, गुफा, शून्यगृह, सेनादि के साथ आये हुए व्यापारियों द्वारा बनाये गये घर या धर्मशाला आदि में समाधि के लिए निवास करना चाहिए।६६७॥ क्षपकाध्युषिते धिष्ण्ये, धर्मश्रवण-मण्डपः। जनानन्दकरः श्रेयः, कर्तव्य: कण्टकादिभिः ।।६६८ ।। इति शय्या॥ अर्थ - (उक्त प्रकार की वसतिका न मिलने पर) क्षपक के निवास हेतु वसतिका एवं धर्मश्रवण हेतु मण्डप चटाई या बाँस के पत्तों आदि से आच्छादित एवं प्रकाशयुक्त बनवा लेना चाहिए, जो लोगों को आनन्ददायक और श्रेयस्कर हो॥६६८॥ इस प्रकार शय्या अथवा वसतिका नामक अधिकार पूर्ण हुआ ।।२५।। २६, संस्तर अधिकार संस्तर के प्रकार और क्षपक के मस्तक की दिशा उत्तराशा-शिराः क्षोणी-शिला-काष्ठ-तृणात्मकः । संस्तरो विधिना कार्यः, पूर्वाशा-मस्तकोऽथवा ।।६६९।। अर्थ - (पूर्वोक्त गुणयुक्त वसतिका में) विधिपूर्वक पृथ्वीरूप, शिलारूप, काष्ठरूप या तृणरूप संस्तर करना चाहिए । संस्तर की रचना ऐसी हो कि क्षपक का मस्तक उत्तरदिशा में या पूर्व दिशा में हो॥६६९।। प्रश्न - क्षपक का शिर उत्तर या पूर्व में क्यों होना चाहिए ? उत्तर - लोक में मांगलिक कार्यों के लिए उत्तर एवं पूर्व दिशा शुभ मानी गई है क्योंकि उत्तर दिशा में विदेह क्षेत्र है, जहाँ तीर्थकर देव शाश्वत विद्यमान रहते हैं, अत: उनके प्रति भक्ति का संचार हृदय में निरन्तर होता रहे। उत्तर में मस्तक रखने का अर्थ है क्षपक का मुख एवं पैर दक्षिण दिशा की ओर होंगे। दक्षिण दिशा में यम नामक कोटपाल का निवास है। लोक में 'यम' को मृत्युरूप में माना जाता है, अतः इससे यह प्रतीत होता है कि जिस यम से प्रत्येक संसारी प्राणी भयभीत रहता है और सदा उससे मुख छिपाता रहता है, उस यम का वरण करने हेतु ही मानों सम्यग्दृष्टि, भेदविज्ञानी और निर्भीक जैन क्षपक उसके अभिमुख हो रहा है। पूर्व दिशा सूर्य के उदय की दिशा है और पश्चिम दिशा सूर्य के अस्त होने की दिशा है। क्षपक का भी इस पर्यायजन्य शरीर अब अस्त होने के अभिमुख है, अतः उसका मुख पश्चिम दिशा की ओर होना श्रेयस्कर है। Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - २१५ पृथ्वी अर्थात् भूमिमय संस्तर का कथन नि:स्निग्धत्व-सुखस्पर्शः, प्रासुको निर्बिलो घनः । संस्तर: क्रियते क्षोणी-प्रमाण-रचितः समः॥६७० ।। अर्थ - जो भूमि गीली न हो, सुख-स्पर्शवाली हो, प्राप्नुल अर्थात् नारी आदि जीदों से रहित हो, बिल एवं छिद्र रहित हो, घन अर्थात् ठोस हो, तथा क्षपक के शरीर बराबर प्रमाणवाली हो। ऐसा संस्तर सम भूमि पर होना चाहिए ॥६७० ॥ शिलामय संस्तर विध्वस्तोऽस्फुटितोऽकम्पः, समपृष्ठो विजन्तुकः । उद्योते मसृणः कार्यः, संस्तरोऽस्ति शिलामयः ॥६७१॥ अर्थ - आग से, कूटने से अथवा घिसने से प्रासुक हो, टूटा-फूटा न हो, निश्चल हो, समतल हो, सब ओर से जीव रहित हो, प्रकाशयुक्त हो और चिकना हो। ऐसा शिलामय संस्तर करना चाहिए ।।६७१ ।। फलक या काष्ठमय संस्तर लघुर्भूमिसमो रुन्द्रो, नि:शब्दः स्वप्रमाणकः। एकाङ्गः संस्तरोऽछिद्रः, श्लक्ष्ण: काष्ठमयो मतः॥६७२॥ अर्थ - जो लघु अर्थात् हल्का हो, सब ओर से भूमि से लगा हुआ हो, अर्थात् फड़ जैसा हो, अथवा पाटे सदृश चार-पाँच अंगुल भूमि से ऊँचा हो, अधिक ऊँचा न हो, क्योंकि उसमें क्षपक को गिरने आदि से अपाय होने की सम्भावना बनी रहती है, रुन्द्र हो, नि:शब्द हो, अर्थात् खट-खट शब्द न करता हो, क्षपक के शरीर प्रमाण हो, एक ही लकड़ी से रचित हो, छिद्ररहित हो और चिकना हो, ऐसा काष्ठमय संस्तर होना चाहिए ।।६७२।। तृणमय संस्तर कृत्यस्तृणमयोऽसन्धिः, संस्तरो निरुपद्रवः। नि:सम्पूछेरपच्छिद्रो, मृदुः सुप्रतिलेखनः ।।६७३ ।। अर्थ - जो सन्धि रहित हो, निरुपद्रव अर्थात् गाँठ रहित तृण से बना हो, सम्पूर्छन जीवों से रहित हो, छिद्र रहित हो, कोमल घास से निर्मित हो तथा जो सुखपूर्वक अर्थात् सहजता से शोधा जा सके ऐसा तृणमय अर्थात् घास का संस्तर करना चाहिए ॥६७३|| संस्तरारोहण प्रमाण-रचितो योग्यः, काल-द्वितय-शोधनः । आरोढव्यस्त्रिगुप्तेन, संस्तरोऽयं समाधये ॥६७४ ।। Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - २१६ अर्थ - इस प्रकार संस्तर प्रमाण से बना हो, अर्थात् न छोटा हो और न बड़ा हो, योग्य हो अर्थात् शास्त्रनिर्दिष्ट क्रम से बना हो एवं दोनों समय अर्थात् सूर्योदय एवं सूर्यास्त के समय प्रतिलेखना द्वारा शुद्ध या शोधन करने योग्य हो। ऐसे संस्तर पर अशुभ मन, वचन एवं काय का निरोध करके क्षपक को आरोहण करना चाहिए ||६७४॥ निर्यापके समर्प्य स्वं, समस्त-गुणशालिनी। प्रवर्तते विधानेन, क्षपकः संस्तरे स्थितः ।।६७५॥ अर्थ - समस्त गुणों से सम्पन्न निर्यापकाचार्य पर अपने आप को समर्पित कर अर्थात् निर्यापकाचार्य को ही शरण मान कर संस्तरारूढ़ क्षपक सल्लेखना की विधि से विचरता है अर्थात् विधिपूर्वक प्रवृत्ति करता है।।६७५॥ तृण-क्षोणि-पाषाण-काष्ठ-प्रशस्ते, स्थितः संस्तरे धर्ममार्ग-प्रवीणः। धुनीते समस्तानि कर्माणि योगि, रणे योधवर्गो बलानीव धीरः॥६७६॥ __इति संस्तरः॥ अर्थ - जिस प्रकार रणांगण में धीर-वीर योद्धावर्ग सेना को नष्ट कर डालता है उसी प्रकार तृण, काष्ठ, पृथ्वी अथवा शिलामय प्रशस्त संस्तर पर आरूढ़ एवं धर्ममार्ग में प्रवीण होता हुआ वह क्षपक योगी समस्त कर्मों को नष्ट कर देता है।६७६ ॥ इस प्रकार संस्तर का विवेचन पूर्ण हुआ॥२६॥ इस प्रकार सुस्थितादि पाँचवाँ अधिकार पूर्ण हुआ॥५॥ निर्यापकादि अधिकार २७. निर्यापक अधिकार गुणज्ञ निर्यापकों का चयन और उनका प्रमाण स्थेयांसः प्रियधर्माणः, संविग्ना पाप-भीरवः । ख्याताश्छन्दानुगमनाः, कल्पाकल्प-विचक्षणाः ।।६७७ ।। प्रत्याख्यान-विदो धीराः, समाधान-क्रियोद्यता। षट्-ताडिताष्ट-संख्याना, ग्राह्या निर्यापकाः पराः॥६७८ ।। अर्थ - जो मुनिजन चारित्र में स्थिर हैं, जिन्हें धर्म प्रिय है, संसार से उदासीन अर्थात् भयभीत हैं, पाप Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - २१७ से डरते हैं, प्रसिद्धि को प्राप्त हैं, क्षपक के अभिप्राय को बिना कहे संकेत मात्र में जान लेनेवाले हैं और योग्यअयोग्य को जानने में कुशल हैं । त्याग अर्थात् प्रत्याख्यान के क्रम को जानने वाले हैं, धैर्यवान् हैं और क्षपक को समाधान कराने में सदा उद्यमशील स्वभाव वाले हैं, ऐसे गुणज्ञ छह से गुणित आठ अर्थात् अड़तालीस परिचारक अर्थात् निर्यापक मुनि समाधि कराने के लिए ग्रहण करने चाहिए ।।६७७-६७८ ।। प्रश्न - इन उपर्युक्त गुणों का क्या अभिप्राय है? उत्तर - यद्यपि सम्यग्दृष्टि होने से यतिजन चारित्र में अनुराग रखते हैं तथापि चारित्रमोह का उदय होने से चारित्र में दृढ़ नहीं रह पाते, और जिनका चारित्र दृढ़ नहीं होता वे क्षपक के असंयम का परिहार नहीं कर सकते, अत: निर्यापक दृढ़ चारित्री होना चाहिए। यहाँ 'प्रियधर्मा' में धर्म शब्द से चारित्र ही ग्रहण किया है। जिन यतिजनों को चारित्र प्रिय होगा वे ही क्षपक को चारित्र में प्रवृत्ति करने हेतु उत्साहित कर उसमें उनकी सहायता कर सकते हैं। वे विचित्र दुखों की खानरूप चार गतियों में भ्रमण के भय से व्याकुल रहते हैं, अतः क्षपक के असंयम के परिहारमें विशेष सावधान रहते हैं। वे गुरुजनों में भी प्रसिद्धि को प्राप्त होते हैं कि ये परिचारक विश्वासपात्र हैं, ये असंयम नहीं करते, ये क्षपक की वैयावृत्य में सदा तत्पर रहते हैं। क्षपक न कहने पर भी उसके संकेत मात्र से उसका अभिप्राय समझ कर तदनुकूल वैयावृत्य में प्रवृत्ति करते हैं। यह योग्य है और यह अयोग्य है इस प्रकार क्षपक : १.६ पानादि की परा में 31 मत होते हैं। जो साकार और निराकार प्रत्याख्यान के क्रम को जानने वाले हैं, जो स्वयं परिषह सहन करने में धीर हैं अर्थात् जो परिषहों से स्वयं पराजित हो जाते हैं वे क्षपक को संयम में दृढ़ रखने में असमर्थ देखे जाते हैं और जो क्षपक के चित्त का समाधान करने में एकदम सतर्क रहते हैं, ऐसे उपर्युक्त गुणयुक्त होने पर भी जिन्होंने पूर्व में गुरुजनों को अनेक बार समाधि कराते देखा है उन्हीं अड़तालीस परिचारक मुनिजों का चयन किया जाता है। आमर्शन-परामर्श-गमस्थान-शयादिषु । उद्वर्तन-परावर्त-प्रसाराकुञ्चनादिषु ।।६७९॥ देह-कर्मसु चेष्टन्ते, क्षपकस्य समाधिदाः । चत्वारो यतयो भक्त्या , परिचर्या-परायणाः ।।६८० ।। अर्थ - उपर्युक्त अड़तालीस मुनिजनों में जो चार मुनि क्षपक को समाधान देने में और भक्ति से उनकी सेवा करने में तत्पर रहते हैं, वे मुनि शरीर के एकदेश में हाथ फेरना, सर्वांग में हाथ फेरना, गमन कराना, खड़ा करना, सुला देना, करवट दिलाना, उल्टा सुलाना, हाथ-पैर फैलाना और सिकोड़ना इत्यादि शारीरिक कार्य करने में प्रयत्नशील रहते हैं ।।६७९-६८० ।। स्त्री-राज-मन्मथाहार-द्रव्य-देशादि-गोचराः। विमुच्य विकथाः सर्वाः, समाधान-निषूदनीः ॥६८१॥ अर्थ - चार मुनिराज समता भाव को नष्ट करनेवाली स्त्रीकथा, राजकथा, कामकथा, भोजन कथा तथा द्रव्य एवं देश आदि से सम्बद्ध अन्य सर्व विकथाओं को छोड़कर मात्र धर्म का उपदेश देते हैं ।।६८१॥ Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - २२८ अनाकुलमनुद्विग्नमव्याक्षेपमनुद्धतम् । अनर्थहीनमश्लिष्टमविचलितमद्रुतम् ।।६८२ ।। अर्थ - धर्मोपदेश करते समय ऐसे वचन बोलते हैं जिससे क्षपक मुनि को आकुलता उत्पन्न न हो, उद्वेग रहित हो, क्षोभरहित हो, उद्दण्डता रहित हो, वे ऐसी बात नहीं कहते जिसका कोई अर्थ न हो, जो कठिनता से रहित हो, वे बहुत जोर से या बहुत मन्द आवाज से भी नहीं बोलते हैं ।।६८२ ।। प्रह्लादजनक पथ्यं, मधुरं हृदयङ्गमम्। धर्म यानी चत्वारा, हृध-चित्रकयोधमा ६८ ।। अर्थ - जो वचन क्षपक को आनन्द उत्पन्न करने वाले हों, हितकर हों तथा मधुर एवं मनोहर हों ऐसे वचनों द्वारा अनेक-अनेक सुन्दर कथाएँ कहने में निपुण वे मुनि धर्मकथा सुनाते हैं ।।६८३ ।। क्षपक को सुनाने योग्य कथाएँ क्षपकस्य कथा कथ्या, सा यां श्रुत्वा विमुञ्चते । सर्वथा विपरीणाम, याति संवेग-निर्विदौ ।।६८४ ।। अर्थ - क्षपक के समक्ष ऐसी कथा कहनी चाहिए जिसे सुनकर वह अशुभ परिणामों को छोड़ दे और संवेग अर्थात् संसार से भयभीत हो जावे और निर्वेग अर्थात् शरीर एवं भोगों से विरक्त हो जावे ॥६८४ ।। भवत्याक्षेप-निर्वेग-निर्वेद-जनिकाः कथा:। क्षपकस्योचितास्तिस्रो, विक्षेप-जनिका तु नो॥६८५ ।। अर्थ - आक्षेप, निर्वेग और निर्वेद जनिका ये तीन प्रकार की कथाएँ तो क्षपक के कहने और सुनने योग्य हैं, किन्तु विक्षेप जनिका कथा क्षपक के योग्य नहीं है ।।६८५ ॥ चारों कथाओं के लक्षण कथा साक्षेपणी ब्रूते, या विद्या-चरणादिकम्। विक्षेपणी कथा वक्ति, परात्म-समयाँ पुनः ।।६८६ ।। अर्थ - जिसमें ज्ञान और चारित्र का उपदेश होता है उसे आक्षेपणी कथा कहते हैं और जिसमें परसमय का खण्डन एवं स्वसमय का मण्डन हो उसे विक्षेपणी कथा कहते हैं॥६८६ ।। . संवेजनी कथा ब्रूते, ज्ञान-चारित्र-वैभवा। निर्धेदनी कथा वक्ति, भोगाङ्गादेरसारताम् ॥६८७॥ अर्थ - ज्ञान, चारित्र और तपो भावना से उत्पन्न शक्ति-सम्पदा का कथन करने वाली संवेजनी कथा है और पञ्चेन्द्रियों के भोग एवं शरीर की नि:सारता का कथन करने वाली निर्वेदनी कथा है ।।६८७॥ । प्रश्न - ये चारों कौन सी कथाएँ हैं और इनका विशेष क्या है? उत्तर - आक्षेपणी आदि ये चारों धर्मकथाएँ हैं। रत्नत्रय अर्थात् सम्यक्त्व का, मति-श्रुत आदि पाँचों सम्यक्ज्ञानों का तथा सामायिकादि चारित्रों का वर्णन करने वाली आक्षेपणी कथा है। Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - २१९ वस्तु सर्वथा नित्य ही है, सर्वथा अनित्य ही है, सर्वथा एक ही है, सर्वथा अनेक ही है, सर्वथा क्षणिक है, सत् ही है या असत् ही है, अथवा विज्ञान मात्र ही है या शून्य ही है; इत्यादि पर-समय को पूर्वपक्ष बना कर प्रत्यक्ष, अनुमान एवं आगम से उसमें विरोध दर्शाकर कथंचित् पद से अलंकृत स्वसमय अर्थात् जैनमत को स्थापित करने वाली अर्थात् न्यायग्रन्थों की वार्ता विक्षेपणी कथा है। रत्नत्रय धर्म का आराधन करने से कैसे-कैसे वैभव प्राम होते हैं, उसी भव में ऋद्धियाँ, परभव में देवेन्द्र, चक्रवर्तित्व एवं बलदेव आदि का सुख प्राप्त होता है, धर्म के फल में इस प्रकार हर्ष बढ़ाने वाली संवेजनी कथा बाद शरीर मात्रि - यार है, शुद्ध भोजनदान आदि को तत्काल अशुद्ध कर देता है। इन्द्रियभोग महाभयानक कष्ट उत्पन्न करते हैं तथा नरकादि कुगतियों में भ्रमण कराते हैं। इस प्रकार शरीर और भोगों का यथार्थ स्वरूप दर्शाने वाली निर्वेदनी कथा है। इन चार प्रकार की कथाओं में से क्षपक को विक्षेपणी कथा के अतिरिक्त शेष तीन कथाएँ सुनानी चाहिए। क्षपक को विश्लेपणी कथा सुनाने का निषेध विक्षेपणी रतस्यास्य, जीवितं यदि गच्छति। तदानीमसमाधानमल्प-शास्त्रस्य जायते ।।६८८।। कध्या बहुश्रुतस्यापि, नासन्ने मरणे सति। अनाचारं न कुर्वन्ति, महान्तो हि कदाचना ।।६८९॥ अर्थ - विक्षेपणी कथा की अनुरक्त दशा में यदि क्षपक की आयु समाप्त हो जाय तो अल्पज्ञानी क्षपक का असमाधिपूर्वक मरण होगा।।६८८॥ यदि क्षपक बहुश्रुत ज्ञानी है तो भी मरण निकट होने पर उसे विक्षेपणी कथा नहीं सुनानी चाहिए, क्योंकि महापुरुष कदाचित् भी अनाचार नहीं करते हैं ।।६८९ ।। प्रश्न - अल्पज्ञानी और बहुज्ञानी दोनों को विक्षेपणी कथा सुनाने का निषेध क्यों किया गया है? उत्तर - विक्षेपणी कथा में सर्व प्रथम मिथ्यादृष्टि का मत उपस्थित किया जाता है। अल्पज्ञानी क्षपक यदि उस पूर्वपक्ष को ही तत्त्व समझ बैठे तो मिथ्याश्रद्धान एवं मिथ्याज्ञान हो जाने से वह रत्नत्रय को छोड़ देगा जिससे उसकी असमाधि ही होगी। आगमज्ञानी क्षपक के लिए भी यह कथा अनायतन स्वरूप है अतः यह विक्षेप ही कराती है, समाधि में सहायक नहीं होती अत: बहुश्रुत क्षपक को भी यह कथा त्याज्य है, उसे भी नहीं सुनानी चाहिए। क्षपक को सुनाने योग्य कथाएँ विक्षेपणी विमुच्यातः, समाधान-विधायिनः। कथयन्ति कथास्तिस्रो, निस्त्रिदण्ड-त्रिगौरवाः ॥६९०॥ Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - २२० अर्थ - विक्षेपणी कथा को छोड़कर वैयावृत्त्य करने वाले परिचारक मुनि अशुभ मन, वचन और काय को निर्मूल करने वाली तथा तीन गारवों को नष्ट करने वाली आक्षेपणी आदि तीन कथाएँ ही कहते हैं ।।६९० ।। तपो-भाव-नियुक्तस्य, प्रत्यासन्न-मृतेर्यतेः । ते वदन्ति तथा तस्य, भवत्याराधको यथा ॥६९१ ।। अर्थ - मृत्यु के अतिनिकट होने में जो क्षपक श्रेष्ठ एवं उग तप भावना में तत्पर है उस क्षपक को वे परिचारक मुनि ऐसा धर्मोपदेश देते हैं जिससे वह रत्नत्रय का आराधक होता है।।६९१।। चार मुनि क्षपक की आहार-चर्या में तत्पर रहते हैं तस्या नयन्ति चत्वारो, योग्यमाहारमश्रमाः। निर्माना लब्धिसम्पन्नास्तदिष्टं गतदूषणम् ॥६९२॥ अर्थ - जो अश्रम, निर्मान एवं लब्धिसम्पन्न हैं, ऐसे चार मुनि उस क्षीणकाय क्षपक के लिए उद्गमादि दोषों से रहित एवं प्रकृति के अनुकूल इष्ट आहार लाते हैं ।।६९२ ।। प्रश्न - आहार लाने में नियुक्त किये गये मुनियों के अश्रमादि विशेषण क्यों दिये गये हैं, ये कैसे और किस प्रकार का आहार लाते हैं ? । उत्तर - जो साधु आहार की व्यवस्था करने में श्रम का अनुभव नहीं करते अर्थात् जो कभी ऐसा नहीं सोचते कि 'हम भी तो थक जाते हैं, हम कब तक यह आहार की व्यवस्था करते रहेंगे ?' जो साधु ऐसे भावों से रहित होते हैं उन्हें अश्रम मुनि कहते हैं। "आहार लाने जैसा कार्य हमें करना पड़ता है" जो ऐसे भावों से रहित होते हैं उन्हें निर्मान मुनि कहते सान जो मुनि मोहनीय और अन्तराय कर्म के विशिष्ट क्षयोपशम वाले होते हैं उन्हें लब्धिसम्पन्न साधु कहते हैं। इस गुण से सम्पन्न साधुओं को भिक्षा अवश्य और शीघ्र मिलती है किन्तु अलब्धिमान अर्थात् जिनके लाभान्तराय आदि कर्मों का तीव्रोदय होता है उन्हें प्राय: भिक्षा प्राप्त नहीं होती, अथवा इष्ट भिक्षा प्राप्त नहीं होती, वे खाली हाथ वापिस लौटते हैं, या अल्प या अनिष्ट भिक्षा लाते हैं तब क्षपक को कष्ट होता है। क्षपक को आहार से सम्बन्धित किसी प्रकार की अशान्ति न हो इसलिए आहार की व्यवस्था करने वाले मुनियों के अश्रम, निर्मान और लब्धिसम्पन्न विशेषण दिये गये हैं। अयाचकवृत्ति वाले साधु आहार कैसे लाते होंगे? इसके समाधान में गुरुजनों के मुखारविन्द से ऐसा सुना है कि जब साधु जंगल में रहते थे, वहीं समाधिमरण-विधि सम्पन्न करते थे तब आहार लाने हेतु मुनिजनों को ही नियुक्त किया जाता था। क्षीणकाय क्षपक जब आहारार्थ दूर नहीं जा पाते तब लब्धिसम्पन्न व्यवस्थापक मुनि गुरु से स्वयं उपवास ग्रहण करते हैं, पश्चात् आहारार्थ चर्या को जाते हैं और विधिपूर्वक पड़गाहन आदि सर्व क्रियाएँ यथावत् सम्पन्न हो जाने के पश्चात् जब आहार की थाली सामने आ जाती है तथा शुद्धि बोल दी जाती है तब सिद्धभक्ति करने के अनन्तर वे स्वयं आहार ग्रहण नहीं करते और मौन छोड़ कर श्रावकों द्वारा Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - २२१ वह भोजन क्षपक मुनि की वसतिका में ले आते हैं एवं श्रावकों द्वारा ही क्षपक मुनि की आहारविधि सम्पन्न कराते हैं। वर्तमानकाल में मुनिजन धर्मशाला या मन्दिर आदि में ही निवास करते हैं अतः सल्लेखनाविधि सम्पन्न करने में श्रावकोचित सर्व व्यवस्थाओं में श्रावकों का पूर्ण सहयोग प्राप्त हो जाता है अर्थात् क्षपकयोग्य आहार की व्यवस्था श्रावकजन वसतिका के समीप ही कर लेते हैं। जो यति आहार लाते हैं वे मायावी नहीं होते। अयोग्य को योग्य नहीं कहते, आहार लाने में ग्लानि नहीं करते। उद्गमादि दोषों से रहित एवं इष्ट आहार लाते हैं। क्षपक भी लिप्सावश आहार नहीं करता, किन्तु भूख और प्यास परीषह को शान्त करने में समर्थ खान-पान की इच्छा करता है। वह आहार वात, पित्त और कफ शमन करने वाला होना चाहिए। पानं नयन्ति चत्वारो, द्रव्यं तदुपकल्पितम्। अप्रमत्ताः समाधानमिच्छन्तस्तस्य विश्रमाः ॥६९३ ॥ अर्थ - क्षपक की शान्ति के इच्छुक अप्रमत्त अर्थात् निरालस्य एवं श्रमरहित चार मुनिजन क्षपक के लिए प्रासुक, इष्ट और योग्य पानक की व्यवस्था करते हैं ॥६९३ ॥ । अन्य चार-चार मुनियों का कार्य विभाजन 'मलं क्षिपन्ति चत्वारो, वर्चः प्रसवणादिकम् । शय्या-संस्तरको काल-द्वये प्रतिलिखन्ति च ॥६९४ ।। अर्थ - चार मुनि क्षपक के मल, मूत्र, कफ आदि का क्षेपण करते हैं तथा दोनों सन्ध्याओं में वसति एवं संस्तर का भी शोधन करते हैं ।।६९४ ।। क्षपकावसथ-द्वारं, चत्वारः पान्ति यत्नतः। धर्मश्रुति-गृहद्वारं, चत्वार; पालयन्ति ते॥६९५॥ अर्थ - चार मुनि क्षपक के वसतिद्वार की रक्षा करते हैं और अन्य चार मुनि धर्मोपदेश-मण्डप के द्वार की रक्षा करते हैं ।।६९५ ।। प्रश्न - वसतिद्वार एवं धर्मोपदेश मण्डप द्वार की रक्षा करने का क्या अभिप्राय है ? उत्तर - द्वार-रक्षण का यह अभिप्राय है कि क्षपक की आत्मशान्ति भंग करने वाले एवं धर्मोपदेश में विघ्न उत्पन्न करने वाले मिथ्यादृष्टि, अज्ञानी तथा कुतर्कवादी जन वहाँ प्रवेश न कर सकें। निशि-जाग्रति चत्वारो, जितनिद्रा-महोद्यमाः। वार्ता मार्गन्ति चत्वारो, यत्नाद् देशादि गोचराम् ॥६९६ ।। अर्थ - निद्राविजय में उद्यमशील चार मुनि रात्रि में क्षपक के निकट जागरण करते हैं और चार चतुर मुनि निवासभूत देश की स्थिति एवं नगर में होने वाली शुभाशुभ वार्ता का निरीक्षण करते रहते हैं।।६९६॥ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - २२२ प्रश्न- देश एवं नगर की शुभाशुभ वार्ताओं के निरीक्षण का क्या प्रयोजन है ? उत्तर - प्रयोजन यह है कि जिस देश एवं नगर में क्षपक समाधिमरण कर रहा है उन क्षेत्रों के भलेबुरे समाचारों का निरीक्षण करते रहना कि समाधि में कोई बाधा आने का खतरा तो नहीं है। अर्थ - स्वसमय और पर समयरूप आगमज्ञान में चतुर चार मुनिजन दर्शनार्थ आगत भव्य जीवों को आक्षेपणी आदि चारों कथाओं का उपदेश देते हैं, किन्तु वे वसतिका से इतनी दूर जाकर उपदेश देते हैं कि जिससे क्षपक को उनके शब्द सुनाई न दें। यदि उपदेश का क्षेत्र समीप हो तो वे धीरे-धीरे उपदेश देते हैं ॥ ६९७ ॥ चत्वारो वादिनोऽक्षोभ्याः, सर्वशास्त्र - विशारदाः । धर्मदेशन - रक्षार्थं, विचरन्ति समन्ततः ॥ ६९८ ॥ बहिर्वदन्ति चत्वारः, स्व- परागम ~ कोविदाः । अनन्तः शब्दपातं ते, जनानां निखिलाः कथाः ।।६९७ ।। अर्थ सर्व शास्त्रों में निपुण, वाद-विवाद करने में कुशल और किसी भी परिस्थिति में उत्तेजित नहीं होने वाले ऐसे चार मुनि धर्मकथा करने वालों की रक्षा के लिए धर्मोपदेश-मण्डप में विचरण करते हैं । अर्थात् धर्मकथा में कोई विवाद यदि कोई विवाद खड़ा कर दे तो वे उसको तत्काल उत्तर देने में तत्पर रहते हैं ।। ६९८ ॥ एवमेकाग्र चेतस्का:, कर्मनिर्जरणोद्यताः । निर्यापका महाभागाः, सर्वे निर्वापयान्ति तम् ॥ ६९९ ।। - अर्थ कर्मनिर्जरण में उद्यत एकाग्रचित्त वे सभी अड़तालीस महाभाग निर्यापक उस क्षपक को संसारबन्धन से निकालने के लिए प्रयत्नशील रहते हैं ।। ६९९ ॥ अड़तालीस से हीन-हीन निर्यापक भी ग्राह्य हैं कालानुसारतो ग्राह्याश्चत्वारिंशच्चतुर्युताः । भरतैरावतक्षेत्र - भाविनो मुनिपुङ्गवाः ।। ७०० ॥ अर्थ - पाँच भरत और पाँच ऐरावत क्षेत्रों में जब जैसा काल वर्त रहा हो तब उसी काल के अनुकूल गुणवाले चवालीस मुनिपुंगव निर्यापक स्थापित करने चाहिए ॥७०० || w हेयाः क्रमेण चत्वारश्चत्वारस्तावदञ्जसा । यावत्तिष्ठन्ति चत्वारः, काले संक्लेश- संकुले ।। ७०१ ।। कालानुसारिणी ग्राह्यौ, द्वौ जघन्येन योगिनो! भरतैरावतक्षेत्र - भव निर्यापकौ यतौ ।। ७०२ ॥ तथा संक्लेश बहुल काल में ज्यों-ज्यों काल खराब होता जावे त्यों-त्यों देश - कालानुसार अर्थ चार-चार निर्यापकों की संख्या क्रमशः कम करते जाना चाहिए। अन्त में चार निर्यापक ही समाधि मरण को सम्पन्न करते हैं। भरत - ऐरावत क्षेत्र में अत्यन्त निःकृष्ट काल आ जाने पर जघन्य रूप से दो योगी तो निर्यापक पदरूप से अवश्य ग्रहण करने योग्य हैं, इनसे कम नहीं || ७०१-७०२ ॥ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - २२३ एक निर्यापक से उत्पन्न होने वाले दोष आत्मा त्यक्तः परं शास्त्रं, एको निर्यापको यदि । असमाधेम॒तिर्व्यक्ते, यमसौ दुर्गति: परा।।७०३ ।। उरई . यदि एक लिपिक कोड है तो उन निर्यात स्वयं की आत्मा का, क्षपक का और प्रवचन का भी त्याग हो जाता है। क्षपक का भी असमाधि पूर्वक मरण होता है जिससे उसकी दुर्गति होती है ।।७०३ ।। भिक्षाद्यविदधानेन, क्षपक-प्रतिकर्मणा । अनारतं प्रसक्तेन, स्वस्त्यक्तोऽन्यो विपर्ययः ।।७०४ ।। अर्थ - क्षपक का कार्य करते रहने से निर्यापक भिक्षाग्रहण, निद्रा एवं मल-मूत्र त्याग नहीं कर सकता अत: वह आत्मा का त्याग करता है, क्योंकि भोजनादि न कर पाने से निर्यापक को कष्ट होता है और यदि निर्यापक आहारादि के लिए जाता है या सोता है तो क्षपक की सेवा न हो पाने से उसका त्याग होता है ।।७०४॥ स्वस्यापरस्य वा त्यागे, यतिधर्मो निराकृतः।। ततः प्रवचन-त्यागो, ज्ञान-विच्छेदको मतः ।।७०५॥ अर्थ - इस प्रकार निर्यापक का स्वयं का अथवा क्षपक का त्याग होने से मुनिधर्म का नाश होगा और मुनिधर्म के नाश से प्रवचन अर्थात् आगम का नाश होगा, क्योंकि मुनि के अभाव में शास्त्रों का उपदेश कौन देगा? और शास्त्रों को कण्ठाग्र कौन करेगा ? ॥७०५ ।। प्रश्न - निर्यापक और क्षपक के अभाव में मुनिधर्म का नाश और मुनिधर्म के नाश से प्रवचन का नाश क्यों हो जावेगा ? उत्तर - यतिजनों के दो धर्म प्रधान हैं। वैयावृत्त्य करना और षड़ावश्यकों का पालन करना । एक क्षपक के साथ यदि एक ही निर्यापक होता है तो यति के दोनों धर्मों का नाश हो जाता है, कारण कि यदि यति अपने षड़ावश्यकों का पालन करता है तो क्षपक की वैयावृत्त्य नहीं कर सकता और यदि वैयावृत्य करता है तो षड़ावश्यक नहीं कर सकता । तथा उपवास आदि हो जाने के कारण यदि निर्यापक का मरण हो जाता है तो नियमतः ज्ञान का भी व्युच्छेद हो जाता है। क्षपकस्यात्मनो वास्ति, त्यागतो व्यसनं परम्। भवेत्ततोऽसमाधानं, क्षपकस्यात्मनोऽपि वा ।।७०६ ।। अर्थ - क्षपक को त्यागने पर क्षपक को महाकष्ट होता है क्योंकि उसे कोई शान्ति देने वाला या प्रतिकार करने वाला नहीं होता । अथवा निर्यापक के निज के त्याग से निर्यापक को महाकष्ट होता है, क्योंकि आहारादि को न जा पाने से निर्यापक का चित्त व्याकुल हो जाता है। इस प्रकार दोनों की असमाधि होती है।।७०६॥ क्षुधादि-पीडितः शून्ये, सेवते याचते यतः। क्षपकः किञ्चनाकल्पं, दुर्मोचमयशस्ततः ॥७०७॥ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका -२२४ अर्थ - यदि एक ही निर्यापक है और वह आहारादि के लिए बाहर गया तो उसके अभाव में भूखादि की वेदना के वशीभूत हुआ क्षपक कुछ भी अयोग्य पदार्थों का सेवन कर लेगा। या अयोग्य कार्य कर बैठेगा। या मिश्यादृष्टिगों के पार लामर आहारपिकी याचना करेगा, इससे क्षपक की, निर्यापक की एवं धर्म की महान् अपकीर्ति होगी ।।७०७॥ यतोऽसमाधिना-मृत्युं, याति निर्यापकं विना। क्षपको दुर्गति भीमा, दुःखदां लभते तत;॥७०८।। अर्थ - समीप में निर्यापक न होने से क्षपक समाधि के बिना मरण को प्राप्त होता है और उस असमाधिमरण से अशुभ ध्यानवश भयानक दुख देने वाली दुर्गति में चला जाता है ।।७०८ ।। समाधि की सूचना प्राप्त होने पर अन्य साधुओं का कर्तव्य चतुर्विधस्य संघस्य, कश्चन प्रेषयेत्ततः । संन्यास-सूचकाचार्यो, निर्यापकगणेशिना ।।७०९॥ श्रुत्वा सल्लेखनां सर्वेरगन्तव्यं तपोधनैः । कारितां शुद्धवृत्तेन, भजनीयमतोन्यथा ॥७१०॥ अर्थ - क्षपक के समाधिमरण धारण करने की सूचना देने वाले कोई आचार्य चतुर्विध संघों में सूचना भेजते हैं, तब रत्नत्रय का निर्दोषरीत्या पालन करने वाले निर्यापकाचार्य द्वारा क्षपक की सल्लेखना हो रही है यह सुनकर सब यतियों को वहाँ आना चाहिए। किन्तु यदि निर्यापकाचार्य शिथिल चारित्र वाला है तो अन्य यतिजन क्षपक के निकट आवें अथवा न भी आवें, भजनीय है।।७०९-७१० ॥ भक्तिपूर्वक सल्लेखनारत क्षपक के दर्शन का फल एति सल्लेखना-मूलं, भक्तितो यो महामनाः । स नित्यमश्नुते स्थानं, भुक्त्वा भोग-परम्पराः ।।७११ ।। अर्थ - इस प्रकार जो महामना यति तीव्र भक्तिराग से सल्लेखना के स्थान पर आकर क्षपक के दर्शन करते हैं, वे स्वर्ग की भोग-परम्परा को भोग कर शाश्वत मोक्षस्थान को प्राप्त कर लेते हैं ॥७११ ।। समाथि पूर्वक मरण करने का फल एकत्र जन्मनि प्राणी, म्रियते यः समाधिना । अकल्मषः स निर्वाणं, सप्ताष्टैर्लभते भवैः ।।७१२।। अर्थ - जो क्षपक एक भव में निर्दोष रीत्या समाधिमरण कर लेता है वह सात-आठ भवों में ही निर्वाण प्राप्त कर लेता है ||७१२ ।। समाधिमरण न देखने का फल यो नैति परया भक्त्या, श्रुत्वोत्तमार्थ-साधनम् । उत्तमार्थ-मृतौ तस्य, जन्तोर्भक्तिः कुतस्तनी ॥७१३॥ Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परणकण्डिका - २२५ अर्थ - "क्षपक उत्तमार्थ समाधि का साधन कर रहे हैं" ऐसा सुन कर भी जो मुनिजन तीव्र भक्ति से उत्कण्ठित होते हुए, क्षपक के दर्शनार्थ नहीं आते उन जीवों की समाधिमरण में क्या भक्ति हो सकती है? ॥७१३ ।। उत्तमार्थ-मृतौ यस्य, भक्तिर्नास्ति शरीरिणः । उत्तमार्थ-मृतिस्तस्य, मृतौ सम्पद्यते कुतः? ।।७१४।। अर्थ - जिस जीव की उत्तमार्थ मरण में भक्ति नहीं है, मरते समय उसका समाधिपूर्वक मरण कैसे हो सकता है? ||७१४॥ प्रश्न - समाधिपूर्वक मरण किसका होता है? उत्तर - जो जीव सल्लेखना रत क्षपक की हृदय से वैयावृत्त्य करते हैं, उनके दर्शन करते हैं, हाथों से सेवा करते हैं, भक्तिपूर्वक उनकी वन्दना करते हैं और हर्षोल्लास पूर्वक अनुमोदना करते हैं, उनका मरण सल्लेखना पूर्वक ही होता है। किन्तु जो इसकी उपेक्षा करते हैं. उनका मरण साहिएतक नहीं होता है। क्षपक के प्रति अन्य कर्तव्य तस्यासंवृत-वाक्यानां न पार्वे देयमासितुम् । वचनैरसमाधानं, तदीयैर्जायते यतः ॥७१५॥ अर्थ - वचनगुप्ति और भाषासमिति से रहित कलकल वचन, लोकविरुद्ध वचन और निरर्गल आदि - वचन बोलने वाले लोगों को क्षपक के समीप नहीं जाने देना चाहिए, क्योंकि मर्यादा रहित वचन सुनकर क्षीणकाय क्षपक को अशान्ति हो सकती है। अर्थात् उसकी समाधि में बाधा हो सकती है ।।७१५ ।। गीतार्थैरपि नो कृत्या, स्त्री-सक्तार्थादिका कथा। आलोचनादिकं कार्य, तत्राति-मधुराक्षरम् ॥७१६ ॥ अर्थ - आगमार्थ के ज्ञाता मुनियों को भी क्षपक के समीप स्त्रियों में आसक्ति की कारणभूत कुकथाएँ नहीं करनी चाहिए। आलोचनादि की धर्मवर्धक कथा अति मधुर वाणी से करनी चाहिए ।।७१६ ।। क्षपक के लिए आचार्य ही प्रमाण है प्रत्याख्यानोपदेशादौ, सर्वत्रापि प्रयोजने। क्षपकेण विधातव्यः, प्रमाणं सूरिराश्रितः ।।७१७॥ अर्थ - प्रत्याख्यान, उपदेश एवं प्रतिक्रमण आदि प्रयोजनभूत कार्यों में क्षपक को निर्यापकाचार्य ही प्रमाण होते हैं। अर्थात् उसे उनकी आज्ञानुसार ही समस्त कार्य करने चाहिए ||७१७ ।। क्षपक को कुल्ले आदि कराना चाहिए तेन तैलादिना कार्या, गण्डूषा: सन्त्यनेकशः । जिह्वा-वदन-कर्णादे-नैर्मल्यं जायते ततः ॥७१८ ॥ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - २२६ अर्थ - आहारत्याग के बाद कृशकाय क्षपक को तेल एवं त्रिफला आदि से अनेक बार कुल्ले कराने चाहिए और कान में तेल डालते रहना चाहिए। इससे मुख, जीभ और कर्ण आदि साफ रहते हैं तथा बोलने और सुनने की शक्ति बनी रहती है॥७१८ ।। उपजाति छन्द भवन्ति येषां गुणिन: सहाया, विघ्नं विना ते ददते समाधिम् । समाधिदानोद्यत-मानसैस्ते, ग्राध्याः प्रयत्नेन ततो गणेन्द्राः ॥७१९॥ इति निर्यापकाः॥ अर्थ - जिनके गुणवान मुनि सहायक होते हैं, ६ सहायक क्षपक को जिना विघ्न-बाधा के समाधि देते हैं अर्थात् उत्तम रीति से उनकी समाधि करा देते हैं, अतः समाधिदान में उद्यत मन वाले मुनियों द्वारा प्रयत्न पूर्वक निर्यापकाचार्य ग्रहण करना चाहिए ||७१९ ॥ इति निर्यापक अधिकार समाप ॥२७॥ २८. प्रकाशनाधिकार निर्यापकाचार्य द्वारा आहार प्रकाशन आवश्यक है अप्रकाश्य विधाहारं, त्याज्यते क्षपको यदि। तदोत्सुक: स कुत्रापि, विशिष्टे जायतेऽशने ॥७२०॥ अर्थ - अन्न, स्वाद्य एवं लेय इन तीन प्रकार के आहारों को दिखाये बिना यदि क्षपक से इनका त्याग कराया जाता है तो उस समाधिस्थ क्षपक की किसी विशिष्ट आहार में उत्सुकता अर्थात् इच्छा बनी रह सकती है।।७२०॥ ततः कृत्या मनोज्ञानामाहाराणां प्रकाशना । सर्वथा कारयिष्याति, विविधाहार-मोचनम् ॥७२१॥ अर्थ - अतः उत्तम-उत्तम मनोज्ञ भोजन अलग-अलग पात्रों में रखकर निर्यापकाचार्य द्वारा क्षपक को दिखाने चाहिए। पश्चात् सर्वथा अर्थात् यावज्जीवन के लिए तीनों प्रकार के आहार का त्याग कराना चाहिए ।।७२१ ।। कश्चिद-दृष्ट्वा तदेतेन, तीरं प्राप्तस्य किं मम। इति वैराग्यमापनः, संवेगमवगाहते ॥७२२॥ अर्थ - ऐसे उत्कृष्ट आहार को देखकर विचार करता है कि अहो ! "आयु का किनारा जिसका आ चुका है ऐसे मुझे अब इस मनोज्ञ आहार से क्या प्रयोजन है ? मुझे इसका सर्वथा त्याग कर देना चाहिए"। इस प्रकार वैराग्य भावना वाला वह क्षपक संसारभीरता को प्राप्त हो जाता है ।।७२२ ॥ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - २२७ आस्वाद्य कश्चिदेतेन, तीरं प्राप्तस्य किं मम। इति वैराग्यमापन्नः, संवेगमवगाहते ।।७२३ ।। अर्थ - कोई क्षपक दिखाये गये आहार का स्वादमात्र लेकर “मरण को प्राप्त मुझे इस मनोज्ञ आहार से क्या"? ऐसे विचारों द्वारा विरक्त होकर संवेगतत्पर होता है। अर्थात् संसार से भयभीत हो जाता है ।।७२३ ।। अशित्वा कश्चिदंशेन, तीरं प्राप्तस्य किं मम ।। इति वैराग्यमापन्नः, संवेगमवगाहते ॥७२४॥ अर्थ - कोई क्षपक उक्त आहार को थोड़ा खाकर "मरण को प्राप्त होने वाले मुझे अब इस मनोज्ञ आहार से क्या प्रयोजन"? ऐसा विचार कर वैराग्य को प्राप्त होता हुआ संवेग का अवगाहन करता है॥७२४ ।। बल्भित्वा सर्वमेतेन, तीरं प्राप्तस्य किं मम। इति वैराग्यमापन्नः, संवेगमवगाहते ॥७२५ ।। अर्थ - कोई क्षपक उस मनोज्ञ आहार को पूर्णतया खाकर “मुझे अथवा मेरी इस आहार-वांछा को बार-बार धिक्कार है। मरण को प्राप्त होने वाले मुझे अब इस मनोज्ञ आहार से क्या प्रयोजन है" ऐसा विचार कर विरक्त हो संसार के भय से मुक्त होने में तत्पर होता है ।।७२५ ।। वल्भित्वा सुन्दराहारं, रसास्वादन-लालसः । कश्चित्तमनुबध्नाति, सर्व देशं च गृद्धितः ।।७२६ ।। इति प्रकाशनम्। अर्थ - कोई क्षपक मुनि उस सुन्दर और मिष्ट आहार को पूर्णरूप से खाकर भी तृप्त नहीं होते। रस के आस्वादन में आसक्त वे उक्त आहार को एकदेश या पूर्ण रूप से गृद्धता के कारण पुनःपुनः चाहते हैं। अर्थात् आहार की वांछा के कारण त्याग नहीं कर पाते ।।७२६ ।। प्रश्न - यहाँ ये गाथाएँ क्यों कही गई हैं ? उत्तर - यदि बार-बार सतत मनोज्ञ भोजन आदि का क्रम चलता रहे तो उससे मनुष्य की अभिलाषा वृद्धिंगत होती रहती है, जो भयंकर कर्मबन्ध का कारण है। इस कर्मबन्ध के कारण प्राणी संसार-समुद्र में पड़ेपड़े दुख भोगते रहते हैं। इस दुख से छूटने का अमोघ उपाय है समाधिमरण, और समाधिमरण की साधना के लिए कषायों के साथ-साथ आहार का त्याग अत्यावश्यक है। आहारत्याग अतिदुष्कर कार्य है इसीलिए इसे त्यागने की उत्कृष्ट अवधि बारह वर्ष कही गई है। बारह वर्ष के कठोर तपश्चरण के अभ्यास से क्षपक इस दुष्कर कार्य को सम्पन्न करने में सक्षम हो जाता है, फिर भी तीन प्रकार के आहारत्याग के पहले उसे मनोज्ञ आहार दिखाना आवश्यक है, इस आहार-प्रकाशन से क्षपक के परिणामों की यथार्थ परीक्षा हो जाती है। इसी परीक्षा की सिद्धि के लिए सम्भवतः ये गाथाएँ यहाँ प्रयोजनभूत हैं। इस प्रकार प्रकाशन नाम का अधिकार समाप्त ॥२८॥ Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ - इस प्रकार आहार में आसक्ति होने पर निर्यापकाचार्य उस क्षपक के मन से सूक्ष्म शल्य को निकालने के लिए असंयम की प्राप्तिरूप आय एवं इन्द्रियसंयम के विनाशरूप अपाय को समझाते हुए विशेष रूप से दिव्य उपदेश देते हैं। अर्थात् क्षपक को प्रसन्न करते हुए उसकी शान्ति को वृद्धिंगत करने वाला उपदेश देते हैं ॥७२७ ॥ मरणकण्डिका - २२८ २९. हानि अधिकार आहार - आसक्ति से होने वाली हानि कुरुते देशनां सूरिरायापाय- विशारदः । निराकर्तुं मनःशल्यं, सूक्ष्मं निर्यापयन्नमुम् ।।७२७ ।। प्रश्न क्षपक के मन में सूक्ष्म मनःशल्य कौनसी है, आय अपाय किसे कहते हैं और आचार्य उस शल्य को कैसे निकालते हैं? - उत्तर - आहारासक्त क्षपक के मन में उस आहार की अभिलाषा सम्बन्धी सूक्ष्म शल्य रह सकती है। असंयम की प्राप्ति को आय और इन्द्रियसंयम के विनाश को अपाय कहते हैं। आहार की गृद्धता या आसक्ति से इन्द्रियसंयम को हानेि और असंयम की वृद्धि होती है । अत: आचार्य उस क्षपक को समझाते हैं कि हे क्षपक ! आँखों से अन्धा मनुष्य केवल पदार्थों को नहीं देख पाता, परन्तु वह विवेक से रहित नहीं होता, किन्तु विषयांध मनुष्य अन्धे से भी महान् अन्धा है क्योंकि वह हेय, उपादेय को भी नहीं जानता । जिस साधु ने अपनी इन्द्रियों को तप के ताव में नहीं रखा, वह साधु अपने आत्मसिद्धिरूप कार्य को कदापि सिद्ध नहीं कर सकता, अतः अब आयु की अन्तबेला में आहारासक्ति का त्याग करो और मन को वश में रखो। इस प्रकार का हितकारी उपदेश देकर आचार्य क्षपक की शल्य निकाल देते हैं। कश्चिदुद्धरते शल्यं, क्षिप्रमाकर्ण्य देशनाम् । करोति संसृतिग्रस्तः, सूरीणां वचसा न किम् ॥७२८ ।। अर्थ- वैराग्य का उपदेश सुन कर कोई क्षपक शीघ्र ही उस आहार वांछा को त्याग देता है और संसार से भयभीत हो उठता है। ठीक है ! आचार्य के वचनों द्वारा क्या-क्या हित नहीं होता ! अर्थात् सब प्रकार का हित होता है || ७२८ ॥ प्रश्न क्षपक इतनी आसक्ति का त्याग कैसे कर देता है ? उत्तर - वैराग्यवर्धक उपदेश सुनने के बाद क्षपक का विवेक जाग्रत हो जाता है और वह सोचता है कि अहो ! इस आहार की आसक्ति के कारण ही मैंने अतीत काल में अनन्त दुख उठाये हैं, अब भी यदि इस आसक्ति को नहीं छोडूंगा तो भव भव में पुनः वही दुख उठाने पड़ेंगे। इस प्रकार के चिन्तन से वह भयभीत हो उठता है और उसकी शल्य निकल जाती है। - समाधानीयतो गृध्नोः, संत्याज्य सकलं गणी । एकैकं हापयन्नैवं प्रकृते दधते शनैः ।। ७२९ ।। Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - २२९ अर्थ- समाधि के इच्छुक एवं सरस आहार की गृद्धता से युक्त उस क्षपक के सकल आहार में से एक-एक आहार का त्याग कराते हुए वे आचार्य उसे क्रमशः प्रकृत आहार में धीरे-धीरे स्थापित कर देते हैं ।।७२९ ।। प्रश्न- " प्रकृत आहार में स्थापित कर देते हैं" इसका क्या अभिप्राय है? उत्तर- इसी ग्रन्थ की गाथा २५५-२५६ में कहा गया है कि भक्त प्रत्याख्यान सल्लेखना का उत्कृष्ट काल बारह वर्ष है। इन बारह वर्षों में से प्रथम चार वर्ष कायक्लेश तप करे, पश्चात् चार वर्षों में दूधादि रसों का त्याग को इस वर्ष और निर्विकृति आहार करे, पश्चात् एक वर्ष मात्र आचाम्ल आहार करे, छह माह मध्यम तप करे और अन्तिम के छह मासों में उत्कृष्ट तप करे। इस विधानानुसार उसका सरस एवं मिष्टाहार तो कई वर्ष पूर्व छूट चुका था । यहाँ तीन प्रकार का आहार त्याग कराना है, वह क्षपक कई वर्षों से निर्विकृत और आचाम्ल आहार कर रहा था। उसकी किसी आहार विशेष में गृद्धता या बांछा न रह जावे, इस हेतु से उसे सरस और मिष्टाहार दिखाया गया था। गृद्धता उत्पन्न हो जाने पर उसे वह आहार करा कर सन्तुष्ट किया गया | पश्चात् शनैः-शनैः क्रमशः एक-एक वस्तु का त्याग कराते हुए मिष्टाहार प्रदर्शन के पूर्व वह क्षपक जो आचाम्लादि आहार ले रहा था अन्त में वहीं आ जाता है। प्रकृताहार में स्थापन करने की आगमसम्मत यही प्रक्रिया है । इसके पश्चात् तीनों प्रकार के आहार का त्याग कराया जाता है। क्रमेण वैराग्य-विधी नियुक्तो, निरस्य सर्वं क्षपकस्ततोऽन्नम् । आराधना-ध्यान-विधान दक्षैः, स पानकैर्भावयते श्रुतोक्तौ ।।७३० ॥ इति हानिः ॥ अर्थ पुन: वैराग्यविधि में स्थापित किया गया क्षपक क्रमश: सब प्रकार के अन्नाहार का त्याग करता | आराधना तथा ध्यान के विषय में प्रवीण आचार्य उस क्षपक को शास्त्रोक्त पेय पदार्थों द्वारा भावित करते हैं। अर्थात् उस समय क्षपक सर्वान्न आहार का त्याग करने और मात्र पानकाहार करने में आपको उद्युक्त करता है । ७३० ॥ - इस प्रकार हानि नामक अधिकार पूर्ण हुआ ।। २९ ।। ३०. प्रत्याख्यान अधिकार पानक के भेट लेपालेप-घन - स्वच्छ सिक्थासिक्थ विकल्पतः । पानकर्मोचितं पानं, षोढेदं कथितं जिनैः ॥७३१ ॥ अर्थ - लेप, अलेप, घन, सिक्थ, असिक्थ और स्वच्छ, इस प्रकार पानक आहार छह प्रकार का है। ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है ।।७३१ ॥ प्रश्न इन छह प्रकार के पानकाहार के क्या लक्षण हैं ? Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकोण्डका - २३० उत्तर - हाथों में चिपकने वाला दधि एवं इमली आदि फलों का रस लेप पान, हाथों में नहीं चिपकने वाला मांड आदि अलेप पान, गाढ़ा पानक घन पान, चावल के कणों से युक्त मांड सिक्थ पान, कों से रहित माँड असिस्थ पान और मात्र गर्म जल स्वच्छ पान है। इनमें से क्षपक को यथाक्सर यथा-योग्य पानक दिये जाते हैं। स्वच्छ पानक अन्त में दिया जाता है। आचाम्ल पानक के गुण आचाम्लेन क्षयं याति, श्लेष्मा पित्तं प्रशाम्यति। परं समीर-रक्षार्थ, प्रयत्नोऽस्य विधीयताम् ॥७३२॥ अर्थ - आचाम्ल पानक से कफ का क्षय होता है, पित्त शान्त होता है और वात से रक्षा होती है, अतः आचाम्ल के सेवन का प्रयत्न करना चाहए ।।७३२ ।। क्षपक के पेट की शुद्धि आवश्यक है ततोऽसौ भावित: पानैर्जाठरस्य विशुद्धये । मलस्य मधुरं मन्दं, पायनीयो विरेचनम् ॥७३३॥ अर्थ - पानक का सेवन करने वाले क्षपक को पेट के मल की शुद्धि के लिए तथा मल का विरेचन करने के लिए मन्द एवं मधुर पानक पिलाना चाहिए ।।७३३ ।। अनुवासादिभिस्तस्य, शोध्यो वा जाठरोमलः। अनिरस्तो यत: पीड़ां, महतीं विदधाति सः ।।७३४ ।। अर्थ - अनुवासन (अनीमा) और गुदाद्वार में नमक आदि की बत्ती लगा कर तथा बिल्व पत्तों से क्षपक के पेट को सेक कर उदर के मल की शुद्धि करते रहना चाहिए, क्योंकि यदि प्रयासपूर्वक पेट का मल न निकाला जायेगा तो बड़ी पीड़ा होगी ।।७३४ ।। निर्यापकाचार्य द्वारा त्रिधाहार त्याग की सूचना आराधकस्त्रिधाहारं, यावज्जीवं विमोक्षति । निवेद्यमिति संघस्य, निर्यापकगणेशिना ।।७३५ ।। अर्थ - निर्यापकाचार्य संघ से निवेदन करते हैं कि अब यह आराधक क्षपक जीवन पर्यन्त के लिए अशन, खाद्य और स्वाद्य इन तीनों प्रकार के आहार का त्याग करता है।।७३५ ।। क्षपको वाऽखिलास्त्रेधा, निःशल्यीभूत-मानसः । क्षान्तः क्षमयते भक्ताः क्षमागुण विचक्षणः ।।७३६ ।। अर्थ - शान्तस्वभावी आचार्य संघ से कहते हैं कि आप सब भक्त हैं। नि:शल्य मन वाला एवं विचक्षण क्षमागुण से युक्त यह क्षपक मन, वचन, काय पूर्वक आप सबसे क्षमा मांगता है।।७३६ ।। प्रश्न - आचार्य इसका द्योतन कैसे करते हैं कि क्षपक आप सबसे क्षमा मांग रहा है ? Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - २३१ उत्तर तीन प्रकार के आहार त्याग के बाद क्षपक सकल संघ से क्षमा माँगना चाहता है किन्तु क्षीणकाय होने से सबके समीप जा नहीं सकता अतः संघ को क्षपक के क्षमाभाव की प्रतीति कराने हेतु आचार्य उसकी पीछी ब्रह्मचारी के हाथ में देकर सर्व संघ की वसतिकाओं में दिखा कर कहते हैं कि यह क्षपक त्रिकरण शुद्धिपूर्वक आप सबसे क्षमा माँगता है। - संघ का करणीय कर्त्तव्य आराधनास्य निर्विघ्ना, सम्यक् सम्पद्यतामिति । स याति सकल: संघस्तनूत्सर्गमसंभ्रमम् ॥७३७ ॥ अर्थ - इस क्षपक की आराधना समीचीनरूप से सम्पन्न हो, कोई विघ्न न आवे, इस भावना से सकल संघ शान्तिपूर्वक कायोत्सर्ग करता है || ७३७ ॥ चतुर्विध अहार-त्याग की विविधता तं चतुर्विधमाहारमाचार्यो विधि - कोविदः । मध्ये सर्वस्य संघस्य, स प्रत्याख्यानयेत्ततः ॥ ७३८ ॥ अर्थ - क्षपक की क्षमायाचना के बाद सर्वविधि में कुशल आचार्य सर्वसंघ के मध्य में उस क्षपक को चारों प्रकार के आहार का त्याग कराते हैं ॥७३८ ॥ त्रिविधं वा परित्याज्यं, पानं देयं समाधये । अवसाने पुनः पानं, त्याजनीयं पटीयसा ।।७३९ ॥ अर्थ - अथवा चित्त की एकाग्रता के लिए पहले तीन प्रकार के आहार का त्याग कराना चाहिए और पेयाहार देना चाहिए | कुशल आचार्य को अन्त अवस्था में पेयाहार का भी त्याग करा देना चाहिए ।।७३९ ।। प्रश्न- पूर्व गाथा में चतुर्विध आहार त्याग की बात कह कर इस गाथा में तीन प्रकार के आहार का त्याग कर पेयाहार देने का आदेश (अथवा कह कर ) क्यों दिया गया है ? उत्तर - पूर्व गाथा में चतुर्विधाहार-त र-त्याग की बात उस क्षपक की दृष्टि से कही गयी है जो कठिन परीषह की बाधा को सहन करने में समर्थ है। जो इसमें समर्थ नहीं है उसे पेयाहार देना चाहिए और अन्त में उस पेय का त्याग कराना चाहिए। ऐसा इस गाथा का अभिप्राय है । पानकाहार शान्ति रूपी रत्न देने में समर्थ है यनिर्दिष्टं पानकर्माधिकारे, दातुं शक्तं तत्समाधान - रत्नम् । षोढा पानं युज्यते तस्य पातुं, त्रेधाहारं त्यागकाले पवित्रम् ॥७४० ॥ इति प्रत्याख्यानम् ।। अर्थ - पानक क्रिया अधिकार में जो छह प्रकार का पानक कहा गया है वह क्षपक द्वारा तीन प्रकार 'का आहार त्याग कर देने के बाद पिलाना चाहिए, क्योंकि वह पवित्र पानक क्षपक की व्याकुलता को दूर करके उसे शान्ति रूपी रत्न देने में समर्थ होता है।७४० ॥ प्रत्याख्यान नामक अधिकार समाप्त ॥ ३० ॥ Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका- २३२ ३१. श्रामण- अधिकार क्षपक द्वारा सर्व संघ से क्षमायाचना आचार्येऽध्यापके शिष्ये, स साधर्मिके कुले । योऽपराधो भवेत्त्रेधा, सर्वं क्षमयते स तम् ॥७४१ ॥ अर्थ - त्रिधा आहार त्याग के बाद आचार्य, उपाध्याय, शिष्य, साधर्मी, कुल एवं गण के प्रति जो - जो अपराध तथा कषायभाव हुए हैं उनकी वह क्षपक मन, वचन और काय से क्षमायाचना करता है || ७४१ ।। मूर्धन्यस्त-कराम्भोजो, रोमाञ्चाञ्चित विग्रहः । त्रिधा क्षमयते सर्व, संवेग जनयन्नसौ ॥७४२ ॥ अर्थ- दोनों हाथों की अंजुलि मस्तक पर रखी है जिसने ऐसा रोमांचयुक्त एवं संवेगभाव को प्रगट करता हुआ क्षपक सर्व संघ से मन, वचन, काय की शुद्धिपूर्वक क्षमायाचना करता है ।। ७४२ || प्रश्न- क्षपक का शरीर रोमांचित क्यों हो जाता है ? उत्तर - "मुमुक्षु के जो-जो कर्तव्य होते हैं वे सब मैं कर चुका हूँ" इन विचारों से क्षपक का चित्त अत्यन्त आह्लादित हो रहा है, अतः धर्मानुराग की प्रगटता से अर्थात् हर्ष से शरीर रोमांचित हो जाता है। योsपराधो मयाकारि, मनसा वपुषा गिरा । क्षमये तमहं सर्वं निःशल्पीभूत मानसः ।।७४३ ॥ अर्थ हुए हैं उन सब अपराधों की मैं निःशल्य होकर क्षमा माँगता हूँ || ७४३ ॥ - क्षपक संघ से कहता है कि भो मुनिगण! मेरे द्वारा मन, वचन और काय से जो भी अपराध मम पितृ - जननी - सदृशः शश्वस्त्रिभुवन महितः सुयशाः सङ्घः । प्रिय-हित- जनकः परमां क्षान्तिं रचयत - कृतवानहमक्षान्तिम् ॥७४४ ॥ इति क्षामणा । अर्थ - अहो ! यह संघ मेरे माता-पिता तुल्य है, सदा ही त्रिभुवन में पूज्य है, यशस्वी है तथा प्रिय एवं हित को उत्पन्न करने वाला है, ऐसे आप सभी की मैंने शान्ति भंग की है। मैं सर्व संघ से क्षमायाचना करता हूँ, सर्व संघ मुझे क्षमा प्रदान करे। मैं भी आप सबके अपराधों को भूल गया हूँ। इस प्रकार क्षपक द्वारा महान् विशुद्धि को करने वाली क्षमायाचना की जाती है ॥ ७४४ ॥ इस प्रकार क्षामण अधिकार समाप्त हुआ ।। ३१ ।। ३२. क्षपण अधिकार क्षपक और परिचारकों की कर्मनिर्जरा क्षयत्वेति वैराग्यमेष स्पृशन्ननुत्तमम् । तपः समाधिमारूढश्चेष्टते क्षपयन्त्रघम् ॥७४५ ।। Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - २३३ अर्थ - इस प्रकार सर्व संघ को क्षमा प्रदान करके उत्कृष्ट वैराग्य को धारण कर तप और समाधि में लीन हुआ क्षपक पाप कर्मों की निर्जरा करने में प्रयत्नशील रहता है ।।७४५ ।। अप्रमत्ता-गुणाधाराः, कुर्धन्तः कर्मनिर्जराम् । अनारत प्रवर्तन्ते, व्यावृत्तौ परिचारकाः ।।७४६ ।। अर्थ - जो गुणों के खजाना हैं और प्रमाद रहित हैं, बिना थके अहर्निश सेवा में तत्पर ऐसे निर्यापक मुनिगण वैयावृत्य द्वारा अपने कर्मों की भारी निर्जरा करते हैं ।।७४६ ।। यज्जन्म-लक्ष-कोटीभिरसंख्याभी रजोऽर्जितम्। तत्सम्यग्दर्शनोत्पादे, क्षणेनैकेन हन्यते ॥७४७॥ अर्थ - असंख्यातलक्ष-कोटि जन्मों द्वारा जो कर्म अर्जित होता है वह सब सम्यग्दर्शन उत्पन्न होने पर एक क्षण में नष्ट हो जाता है ||७४७ ।। धुनीते क्षणत: कर्म-सञ्चितं बहुभिर्भवैः। व्यावृत्तौऽन्यतमे योगे, प्रत्याख्याने विशेषतः ।।७४८ ।। अर्थ - बारह प्रकार के तपों में से जिस किसी नप में एवं वामृन्दादि बिस किसी योग में लीन हुआ क्षपक अनेक भवों में संचित कर्मों को अल्पसमय में ही निर्जीर्ण कर देता है और सल्लेखनागत जीवन में जब यावज्जीव चतुराहार का त्याग कर देता है तब तो वह विशेष रूप से कर्मों की निर्जरा करता है ॥७४८ ।। प्रतिक्रान्ती तनूत्सर्गे, स्वाध्याये विनये रतः । अनुप्रेक्षासु कर्मेति, धुनीते संस्तर-स्थितः ॥७४९॥ अर्थ - इस प्रकार संस्तरारूढ़ क्षपक प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग, विनय, स्वाध्याय और बारह भावनाओं के चिन्तनादि में से जिस किसी में तल्लीन हो जाने पर कर्मों की निर्जरा करता है ।।७४९ ।। छन्द प्रहरणकलिता अनशन-निरते तनुभृति सकलं, भवभय-जनकं विगलति कलिलम् । अनुहिमकिरणे ह्युदयति तरणी, कमल-विकसने घ धनमिव तमः ।।७५० ॥ अर्थ - जैसे चन्द्रमा के पीछे कमलों के विकास का कारण ऐसे सूर्य के उदित होने पर गाढ़ भी अन्धकार नष्ट हो जाता है, वैसे ही क्षपक के अनशनतप में उद्यत हो जाने पर अर्थात् यावज्जीव चतुराहार का त्याग कर देने पर संसार का भय उत्पन्न करने वाला समस्त पाप कर्म नष्ट हो जाता है ||७५० ।। इस प्रकार क्षपणनामा-अधिकार समाप्त हआ॥३२॥ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - २३४ अनुशिष्टि-महाधिकार ३३. अनुशिष्टि अधिकार क्षीणकाय एवं क्षीणशक्ति क्षपक के प्रति निर्यापकाचार्य का उपदेश निर्यापको गणी शिक्षा, संस्तर-स्थाय यच्छति । कुवन-संवेग-निर्वदा, कर्णे अपमथानिशम् ॥७५१ ।। अर्थ - निर्यापकाचार्य संस्तरारूढ़ क्षपक को आगमानुसार शिक्षा-उपदेश देते हैं। उस शिक्षा द्वारा क्षपक को संसार से भय और वैराग्य उत्पन्न करा कर पश्चात् उसके कान में सतत जाप सुनाते हैं ।।७५१॥ अनुशिष्टं न चेदत्ते, क्षपकाय गणाग्रणीः। त्यजेदाराधनादेवीं, तदानीं सिद्धि संफलीम् ।।७५२ ।। अर्थ - यदि निर्यापकाचार्य क्षपक को उपदेश न देंगे तो वह क्षपक मोक्षफल देने वाली आराधना देवी को छोड़ देगा अर्थात् शिक्षा के अभाव में क्षपक समाधि से च्युत हो जायेगा ।।७५२ ।। शोधयित्वोपधिं शय्या, वैयावृत्य-करानपि। निःशल्पीभूय सर्वत्र, साधो ! सल्लेखनां कुरु ।।७५३॥ अर्थ - हे क्षपक ! निःशल्य होकर तथा वैयावृत्त्य करने वालों का, वसतिका एवं संस्तर का तथा पीछी आदि उपधि का शोधन करके अब सल्लेखना करो ॥७५३ ।। प्रश्न - निःशल्य बनने का क्या उपाय है, वैयावृत्य का क्या लक्षण है तथा वैयावृत्य करने वालों का और वसतिका आदि का शोधन कैसे करना चाहिए ? उत्तर - मिथ्या, माया और निदान, ये तीन शल्य हैं। इनमें से तत्त्वार्थ- श्रद्धान द्वारा मिथ्या शल्य को, सरलता द्वारा माया शल्य को तथा भोगों की निस्पृहता द्वारा निदान शल्य को दूर करके निःशल्य हो जाना चाहिए। मिथ्याज्ञान, असंयम, परीषह, उपसर्ग और व्याधि आदि के भेद से नाना प्रकार की आपदाओं को विपदा कहते हैं। उस विपदा के आने पर उसके प्रतिकार करने को वैयावृत्य कहते हैं। जो इस प्रकार से क्षपक की वैयावत्य करते हैं वे वैयावत्य करने वाले कहलाते हैं। इनके शोधन हेत क्षपक यह देखे कि वैयावत्य करने वाले मुनिगण संयम और असंयम को जानते हैं या नहीं? वे मन-वचन-काय से असंयम का परिहार करते हैं या नहीं ? यह परीक्षा करके अयोग्य को हटा कर योग्य को रखना, यही वैयावृत्य करने वालों का शोधन है। पूर्वाह्न एवं अपराह्न में वसति, संस्तर एवं उपकरणों का शोधन करो। ऐसी आज्ञा देने को उपधि शुद्धि कहते आचार्यदेव क्षपक को कहते हैं कि आप इस प्रकार की शुद्धि करो। अब आपका मरण निकट है। Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकाण्डा - २३५ मिथ्यात्व-वमनं दृष्टि-भावनां भक्तिमुत्तमाम्। रति भाव-नमस्कारे, ज्ञानाभ्यासे कुरूद्यमम् ।।७५४ ।। अर्थ - हे क्षपकराज ! तुम मिथ्यात्व का वमन करो, तत्त्वश्रद्धामरूप सम्यक्त्व की भावना करो, पंच परमेष्ठियों की उत्तम भक्ति करो, परिणाम शुद्धिरूप भाव नमस्कार में मन लगाओ और ज्ञानाभ्यास में उद्यम करो अर्थात् श्रुतज्ञान के चिन्तन में तल्लीन रहो।।७५४ ।। प्रश्न - नमस्कार कितने प्रकार का है और उनके लक्षण क्या हैं ? उत्तर - द्रव्य और भाव के भेद से नमस्कार दो प्रकार का है। जिनेन्द्रदेव को, द्वादशांग मात को, पूज्य गुरुदेव को नमस्कार हो, इत्यादि शब्दों का उच्चारण करना, मस्तक झुकाना, चरण स्पर्श करना और दोनों हाथ जोड़कर अंजुलि पर मस्तक रखकर झुकाना यह सब द्रव्य नमस्कार है, और नमस्कार करने योग्य अर्हन्तादि के गुणों में अनुराग होना भाव नमस्कार है। प्रश्न - त्रिधाहार त्यागी क्षीणकाय क्षफ्क सूत्ररूप से कहे हुए मिथ्यात्व वमनादिरूप महत्त्वपूर्ण उपदेश को कैसे ग्रहण कर सकेगा ? उत्तर - क्षपक को विस्ताररूप से समझाने हेतु आचार्यदेव स्वयं श्लोक ७५६ से ७६५ तक मिथ्यात्व वमन का, श्लोक ७६७ से ७७६ तक सम्यत्व भावना का, ७७७ से ७८५ तक भक्ति का, ७८६ से ७९२ तक नमस्कार का और ७९३ से ८०९ तक ज्ञानाभ्यास का उपदेश आगे दे रहे हैं। मुने ! महाव्रतं रक्ष, कुरु कोपादि-निग्रहम् । हृषीक-निर्जयं द्वेधा, तपो मार्गे कुरूद्यमम् ॥७५५॥ अर्थ - हे मुने ! पंच महाव्रतों की रक्षा करो, क्रोधादि कषायों का उत्कृष्ट रीत्या निग्रह करो, दुर्दान्त इन्द्रियों पर विजय को और बाह्याभ्यन्तर दोनों प्रकार के तप मार्ग में उद्यम करो ।।७५५ ॥ प्रश्न - क्षपक को महाव्रतादि का रक्षण कैसे करना चाहिए ? उत्तर - आचार्यश्री आगे श्लोक ८०९ से १४२२ तक महाव्रतों के रक्षण का, १४२३ से १५१९ तक कषायनिग्रह एवं इन्द्रियविजय का एवं श्लोक १५१०से १५४५ तक तप में उद्यम करने का उपदेश स्वयं दे रहे मिथ्यात्व-बमन का उपदेश भवद्रुम-महामूलं, मिथ्यात्वं मुञ्च सर्वथा। मोहते सगुणां बुद्धिं, मद्येनेव मुने ! लघु।।७५६ ।। ____ अर्थ - हे क्षपक ! मिथ्यात्व ही संसाररूपी महावृक्ष का मूल है अतः इसका सर्वथा त्याग करो । क्योंकि जैसे मनुष्य की बुद्धि को मद्य मोहित कर देती है, वैसे ही गुण युक्त बुद्धि को मिथ्यात्व मोहित कर देता है।।७५६।। Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - २३६ प्रश्न - गुणयुक्त बुद्धियाँ कितनी हैं और उनके लक्षण क्या हैं ? । उत्तर - सुश्रुषा, श्रवण, ग्रहण, धारण, विज्ञान, ऊहा, अपोह और तत्त्वाभिनिवेश के भेद से गुणयुक्त बुद्धि आठ प्रकार की होता है। धर्म एव सप्ततत्त्वादि सुनने की इच्छा होना सुश्रुषा बुद्धि है। गुरु या धर्मात्मा जनों के पास जाकर धर्म सुनना श्रवण बुद्धि है। सुनते समय ही उस उपदेश को ग्रहण करना ग्रहण बुद्धि है। ग्रहण किया हुआ धर्मोपदेश हृदय में स्थिर रखना धारण बुद्धि है। ज्ञात तत्त्व को विशेष रूप से जानना विज्ञान बुद्धि है। नय एवं निक्षेप आदि द्वारा तत्त्वों की परीक्षा करना ऊहा बुद्धि है। अतत्त्व अर्थात् हेय तत्त्व से हटना अपोह बुद्धि है, और जिनेन्द्र उपदिष्ट तत्त्वों पर दृढ़ श्रद्धान रखना तत्त्वाभिनिवेश बुद्धि है। प्रश्न - असंयमादि से भी संसारवृद्धि होती है फिर मात्र मिथ्यात्व को ही प्रथम स्थान क्यों दिया गया उत्तर - मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग, ये बन्ध के कारण हैं। बन्ध के इन कारणों में मिथ्यात्व को प्रथम स्थान दिया गया है और बन्ध पूर्वक संसार होता है अत: संसार का मूल कारण मिथ्यात्व कहा गया है। पिब सम्यक्त्वपीयूष, मिथ्यात्व-विषमुत्सृज। निधेहि भक्तितश्चिते, नमस्कारमनारतम् ॥७५७ ॥ अर्थ - आचार्य कहते हैं कि हे यते ! तुम मिथ्यात्वरूपी विष को छोड़कर सम्यक्त्वरूपी अमृत का पान करो। ऐसा करने से तुम्हारे चित्त में अर्हन्तादि की भक्ति निहित हो जायेगी और पंचपरमेष्ठी के नमस्कार में मन तल्लीन हो जायेगा ।।७५७॥ मिथ्यात्वमोहिताः सत्यमसत्यं जानते जनाः। कुरङ्गा इव तृष्णार्ताः, सलिलं मृगतृष्णिकाम् ।।७५८॥ अर्थ - (सूर्य की किरणें पृथ्वी की उष्मा से मिल कर जो जल का भ्रम उत्पन्न कर देती हैं, उसे मृगतृष्णा कहते हैं) जैसे प्यास से पीड़ित मृग उस मरीचिका को ही जल मान बैठता है, वैसे ही मिथ्यात्व से मोहित जीव असत्य तत्त्व को ही सत्य मान बैठते हैं ।।७५८॥ मिथ्यात्वमोहतो जन्तोवर कनक-मोहनम्। . दत्ते मृत्यु-सहस्राणि, प्रथमं न परं पुनः ।।७५९ ।। अर्थ - मिथ्यात्व के उदय से उत्पन्न मोह की अपेक्षा धतूरे के सेवन से उत्पन्न मोह अर्थात् मूर्छा उत्तम है; क्योंकि पहले से यानी मिथ्यात्व से उत्पन्न मोह हज़ारों भवों में मृत्यु देता है, जबकि दूसरे से अर्थात् धतूरा पीने से उत्पन्न हुआ मोह भाव केवल एक बार मृत्यु देता है ।।७५९।।। अनादिकाल-मिथ्यात्व-भावितो न प्रवर्तते । सम्यक्त्वेऽयं यतस्तेन, प्रयत्नोऽत्र विधीयते ।।७६० ।। अर्थ - अनादिकाल से चले आये इस मिथ्यात्वभाव से भावित जीव सम्यक्त्व में प्रवृत्ति नहीं करता। अर्थात् सम्यक्त्व में रत नहीं होता, इसलिए सम्यक्त्व में प्रयत्न करना ही चाहिए ।।७६० ।। Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ! I I | 18 मरणकण्डिका - २३७ प्रश्न क्षपक के मरणकाल में भी क्या मिथ्यात्व त्याग का उपदेश देना योग्य है ? उत्तर - इस जीव को अनादिकाल से इस मिथ्यात्व का ही स्वाद आ रहा था, इसलिए यह सम्यक्त्व में नहीं रम पाता, अनन्तकाल से मिथ्यात्व का अभ्यास होने से उसका त्याग करना अत्यधिक कठिन है। जैसे सर्प अपने चिर-परिचित बिल में निवारण करने पर भी प्रवेश कर जाता है, वैसे इस जीव को भी सम्यक्त्व में दृढ़ता लाने के लिए बार-बार मिथ्यात्वत्याग का उपदेश देना अयोग्य नहीं है। विषाग्नि- कृष्णसर्पाद्याः कुर्वन्त्येकत्र जन्मनि । मिथ्यात्वमावहेद् दोषं, भवानां कोटि-कोटिषु ।।७६१ ।। अर्थ विष, अग्नि और काला सर्पादि एक जन्म में ही दोष उत्पन्न करते हैं, किन्तु मिथ्यात्व कोटिकोटि भवों तक दोष करता है अर्थात् दुख देता है ।।७६१ ।। विद्धो मिथ्यात्व - शल्येन, तीव्रां प्राप्नोति वेदनाम् । काण्डेनेव विषाक्तेन, कानने निःप्रतिक्रियः ।।७६२ ।। अर्थ - जैसे जंगल में विषैले काँटे से विद्ध मनुष्य का कोई प्रतिकार नहीं होता अर्थात् वह मरता ही है; वैसे मिथ्यात्व नामक शल्य से बधे गये जीव तीव्र वेदना भोगते हैं अर्थात् तत्त्वों में अश्रद्धान करने से संसारभ्रमण में असह्य वेदनाएँ भोगनी पड़ती हैं । ७६२ ॥ मिथ्यात्षोत्कर्षतः सङ्घ श्री - संज्ञस्य विलोचने । गलिते प्राप्तकालोऽपि यातोऽसौ दीर्घ-संसृतिम् । । ७६३ ।। अर्थ- संघश्री नामक राजमन्त्री के दोनों नेत्र मिध्यात्व के तीव्र उत्कर्ष से तत्काल फूट गये और वह मरण पश्चात् भी दीर्घसंसारी हुआ ||७६३ ॥ * संघश्री मन्त्री की कथा आन्ध्र देश के कनकपुर नगर में सम्यक्त्व गुण से विभूषित राजा धनदत्त राज्य करते थे। उनका श्री नामका मन्त्री बौद्धधर्मावलम्बी था। एक दिन राजा और मन्त्री दोनों महल की छत पर स्थित थे। वहाँ उन्होंने चारणऋद्धिधारी युगल मुनिराजोंको जाते हुए देखा। राजा ने उसी समय उठकर उन्हें नमस्कार किया और वहीं विराजमान होकर धर्मोपदेश देने की प्रार्थना की। मुनिगणों ने राजा की विनय स्वीकार कर धर्मोपदेश दिया, जिससे प्रभावित होकर मन्त्री ने श्रावक के व्रत ग्रहण कर लिये और बौद्ध गुरुओंके पास जाना छोड़ दिया। किसी एक दिन बौद्ध गुरु ने मन्त्री को बुलाया। मन्त्री गया, किन्तु बिना नमस्कार किये ही बैठ गया। भिक्षु ने इसका कारण पूछा, तब संघश्री ने श्रावक के व्रत आदि लेनेकी सम्पूर्ण घटना सुना । बौद्धगुरु जैनधर्मके प्रति ईर्षासे जल उठा और बोला- “मन्त्री ! तुम ठगाये गये, भला आप स्वयं विचार करो कि मनुष्य आकाश में कैसे चल सकता है ? ज्ञात होता है कि राजा ने कोई षड्यन्त्र रचकर तुम्हें जैनधर्म स्वीकार कराया है।" भिक्षुक की बात सुनकर अस्थिर बुद्धि पापात्मा मन्त्री ने जैनधर्म छोड़ दिया। एक दिन राजा ने अपने दरबार में जैनधर्म की महानता और चारणऋद्धिधारी मुनिराजों के चमत्कार सुनाये, और उस घटना को सुनानेका अनुरोध मन्त्री से भी किया। Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - २३८ मन्त्री बोला - “महाराज ! असम्भव है, न मैंने अपनी आँखोंसे देखा है और न इस प्रकार की बात सम्भव है।” मन्त्री की असत्य बात सुनकर राजा को बहुत विस्मय हुआ किन्तु उसी क्षण मन्त्री के दोनों नेत्र फूट गये और वह दुर्गति का पात्र बना। "जैसी करनी वैसी भरनी" के अनुसार ही उसने फल प्राप्त किया। दुर्धर चारित्र भी मिथ्यात्व युक्त जीव का रक्षण नहीं करता कटुकेऽलाबुनि क्षीरं, यथा नश्यत्यशोधिते। शोधिते जायते हृद्यं, मधुरं पुष्टिकारणम् ।।७६४॥ तपो जान-परिमाणि. समिश्या तशाहिनि । नश्यन्ति वान्त-मिथ्यात्वे, जायन्ते फलवन्ति च ॥७६५ ।। अर्थ - जैसे गूदा सहित कड़वी तूंबड़ी में रखा हुआ दूध कडुवा अर्थात् नष्ट हो जाता है और उसी तूंबड़ी का अन्दर का गूदा निकाल कर उसमें रखा हुआ दूध मधुर एवं पुष्टिकारक होता है ; वैसे ही मिथ्यात्वी जीव द्वारा धारण किये हुए तप, ज्ञान और चारित्र नष्ट हो जाते हैं तथा मिथ्यात्व का वमन कर देने वाले सम्यक्त्वी मनुष्य के तप एवं ज्ञानादि फलदायक होते हैं ।।७६४-७६५॥ प्रश्न - तपादि का फल क्या है ? और ये यथार्थ फल कब देते हैं ? उत्तर - अभ्युदय और निःश्रेयस् ये दोनों प्रकार के सुख तप से ही प्राप्त होते हैं, इसलिए समीचीन तप, ज्ञान एवं चारित्र मुक्ति के उपाय कहे गये हैं। समीचीन तप आदि श्रद्धा के बल से ही होते हैं, श्रद्धा के अभाव में नहीं होते। केवल तप आदि मुक्ति का उपाय नहीं हैं, अत: मिथ्यात्व को दूर कर देने वाले जीवों में ही तप आदि सफल होते हैं। विविध-दूषणकारि कुदर्शनं, लघु विमुच्य कुमित्रमिवोत्तमाः । सकलधर्म-विधायि सुदर्शनं, सुविभजन्ति सुमित्रमिवाशनम् १७६६ ॥ इति मिथ्यात्वापोहनम्। अर्थ - जैसे विविध दोषों को करने वाले खोटे मित्र को शीघ्र ही छोड़ दिया जाता है, उसी प्रकार भव्य जीव कुगति-गमनादि नाना प्रकार के दोषों को करने वाले इस मिथ्यात्व को छोड़ कर समस्त धर्म को करने वाले सुमित्र के सदृश इस सम्यक्त्व का ही सेवन करते हैं ।।७६६ ।। प्रश्न - मिथ्यात्व-त्याग के लिए इतना उपदेश क्यों दिया गया है ? उत्तर - यहाँ ग्यारह श्लोकों द्वारा मिथ्यात्व के त्याग का उपदेश इसलिए दिया गया है कि अनादिकाल से अद्यावधि जो संसार-परिभ्रमण हुआ है और आगे होगा उसका प्रमुख कारण मिथ्यात्व ही है। इससे सिद्ध होता है कि जीव का सर्वाधिक प्रबल शत्रु मिथ्यात्व ही है, अतः आचार्यदेव ने जीवन के अन्त समय में भी ऐसे कष्टप्रद मिथ्यात्व के त्याग का हृदयग्राही उपदेश दिया है। इस प्रकार मिथ्यात्वत्याग का प्रकरण समाप्त हुआ। Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - २३९ सम्यक्त्व भावना मा स्म कार्षीः प्रमादं त्वं, सम्यक्त्वे भद्र-वर्धके। तपो-ज्ञान-चरित्राणां, सस्यानामिव पुष्करम् ॥७६७ ।। अर्थ - जैसे मेघ धान्यों की वृद्धि करते हैं, वैसे ही सम्यक्त्व तप, ज्ञान एवं चारित्र की वृद्धि करता हैं, अतः हे क्षपक ! तुम कल्याण की वृद्धि करने वाले सम्यक्त्व में किञ्चित् भी प्रमाद मत करो ।।७६७ ।। सारं द्वारं पुरस्येव, वक्त्रस्येव विलोचनम्। मूलं महीरुहस्येव, संज्ञानादे: सुदर्शनम् ॥७६८॥ अर्थ - जैसे नगर का सार गोपुरद्वार है, मुख का सार नेत्र हैं और वृक्ष का सार उसकी जड़ है ; वैसे ही तप, ज्ञान एवं चारित्र अदि का सार सम्यग्दर्शन है ।।१७६८ ॥ प्रश्न - इस श्लोक का विशेष भाव क्या है ? उत्तर - इसक. त्रि विस्तार यह है कि जैसे ना .. करने का उपाय है, वैसे तप, ज्ञान, चारित्र और वीर्य के आत्मप्रवेश हेतु सम्यग्दर्शन द्वार सदृश है। अर्थात् जब आत्मा में सम्यक्त्वादि की उत्पत्ति हो जाती है. तभी उसमें सम्यग्ज्ञान-चारित्र एवं तप आदिकों का प्रवेश होता है। क्योंकि सम्यक्त्व के बिना सम्यग्ज्ञानादिकों की प्राप्ति होती ही नहीं है। सम्यग्ज्ञान के अभाव में इस जीव को मन:पर्ययज्ञान, यथाख्यातचारित्र एवं कर्म की अतिशय निर्जरा करने वाला तप प्राप्त नहीं हो पाता। जैसे नेत्रों से मुख को सौंदर्यपना प्राप्त होता है वैसे ही सम्यग्दर्शन से ज्ञानादिकों को सम्यक्पना प्राप्त होता है, तथा जैसे झाड़ की स्थिरता में उसकी जड़ कारण है, वैसे ही ज्ञानादि की स्थिरता एवं दृढ़ता में सम्यग्दर्शन कारण है। बलानि नायकेनेव, शरीराणीव जन्तुना। ज्ञानादीनि प्रवर्तन्ते, सम्यक्त्वेन बिना कुतः ॥७६९।। अर्थ - जैसे सेनापति के बिना सेना अपने कार्य में प्रवर्त्त नहीं हो पाती, जीव के बिना शरीर प्रवर्तन नहीं कर पाता। वैसे ही क्या कभी सम्यक्त्व के बिना ज्ञान, चारित्र और तप अपने-अपने कार्य में प्रवृत्त हो सकते हैं ? नहीं हो सकते ॥७६९॥ भ्रष्टोस्ति दर्शन-भ्रष्टो, व्रत-भ्रष्टोऽपि नो पुनः। पत्तनं हयस्ति संसारे, न दर्शनममुञ्चतः ॥७७०।। अर्थ - जो सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट है वहीं यथार्थतः भ्रष्ट है, किन्तु जो व्रत अर्थात् चारित्र से भ्रष्ट है, वह भ्रष्ट नहीं है। चारित्र से भ्रष्ट होकर भी जो सम्यग्दर्शन को नहीं छोड़ता उसका संसार में पतन नहीं होता ।।७७० ।। प्रश्न - चारित्र से भ्रष्ट जीव का संसार में पतन नहीं होता, किन्तु दर्शनभ्रष्ट का संसार-पतन होता है, ऐसा कैसे कहा गया है ? Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका -२४० उत्तर - सम्यग्दृष्टि मनुष्य एवं तिर्यंच केवल देवगति में और सम्यग्दृष्टि देव एवं नारकी मात्र मनुष्य गति में ही जन्म लेते हैं, अत: मात्र चारित्रभ्रष्ट जीव का संसार पतन अर्थात् चतुर्गति-भ्रमण नहीं होता किन्तु सम्यग्दृष्टि जीव का सम्यक्त्व छूट जाने पर वह जीव अर्धपुद्गल परिवर्तन काल पर्यन्त संसार-भ्रमण कर सकता है अत: उसका संसार में पतन होना कहा गया है। भार-माद, प्रेमरागानुरञ्जिताः। जैने सन्ति मते सेषां, न किञ्चिद्वस्तु दुर्लभम् ।।७७१ ।। अर्थ - धर्मानुराग, भावानुराग, मज्जानुराग और प्रेमानुराग, इन रागों में जो रंजायमान हैं, उन्हें इस जैनमत में कोई भी वस्तु दुर्लभ नहीं है॥७७१ ॥ प्रश्न - अनुराग तो हेय है फिर उसे यहाँ श्रेष्ठ क्यों कहा गया है ? उत्तर - इस जगत् में लोग पर-पदार्थों में जो अनुसग या स्नेह करते हैं उसे हेय कहा गया है। किन्तु सम्यग्दृष्टि जीवों में प्रारम्भ में सम्यक्त्व सहित जो अनुराग होता है, उसे श्रेष्ठ कहा गया है। जैसे काँटा ही काँटा निकालने का साधन है, वैसे सम्यक्त्वयुक्त अनुराग ही राग की जड़ काटने का साधकतम कारण है। इसमें सम्यक्त्व का ही माहात्म्य है। आचार्यदेव क्षपक को सम्यक्त्व का यही माहात्म्य समझा रहे हैं। प्रश्न - इन अनुरागों के क्या लक्षण हैं ? उत्तर - रत्नत्रय धर्म में दृढ़रुचि, प्रतीति या अनुराग होना धर्मानुराग है। *धर्मानुराग की कथा * उज्जैन के राजा धनवर्मा और रानी धनश्री के लकुच नाम का एक पुत्र था। वह बड़ा अभिमानी और शूरवीर योद्धा था। एक बार कालमेघ म्लेच्छ ने धनवर्मा के राज्य पर चढ़ाई कर दी जिससे धनवर्मा राजा को जन-धन की बहुत बड़ी हानि उठानी पड़ी। म्लेच्छ राजा से बदला लेने हेतु उस लकुच ने म्लेच्छों की सेना पर चढ़ाई कर दी और विजयलक्ष्मी प्राप्त की। धनवर्मा पुत्र की वीरता देख अति प्रसन्न हुए। उन्होंने लकुच को कोई वर माँगने की प्रेरणा की। पुत्र की इच्छानुसार उसे राजा ने स्व इच्छानुसार कार्य करने की आज्ञा प्रदान कर दी। ऐसी आज्ञा प्राप्त होते ही लकुच निरंकुश होकर धर्मभ्रष्ट हो गया और सीमातीत भ्रष्टाचार करने लगा। उसी नगर में पुंगल नाम का एक सेठ रहता था। उसकी नागदत्ता नाम की सुन्दर स्त्री थी। पापी लकुच ने उसका शीलभंग कर दिया। पुंगल उसकी नीचता देख जल उठा, और उससे बदला लेने की प्रतीक्षा करने लगा। एक दिन लकुच वनक्रीड़ा को जा रहा था । मार्ग में उसे एक मुनिराज के दर्शन हुए। उनका धर्मोपदेश सुन कर लकुच को वैराग्य हो गया। दीक्षाधारण कर वे मुनि ध्यानमग्न हो गये। पुंगल इसी अवसर की खोज में था । वह तत्काल लोहे के बड़े-बड़े कीले लाया और मुनि के शरीर में ठोककर चला गया। लकुच मुनिराज ने इस दुःसह उपसर्ग को बड़ी शान्ति, स्थिरता और धर्मानुराग से सहन कर स्वर्ग की लक्ष्मी को प्राप्त किया। Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - २४१ जैसे लकुच मुनिराज ने धर्मानुराग से चारित्र में दृढ़ रह कर अपना मार्ग प्रशस्त कर लिया उसी प्रकार प्रत्येक प्राणी को धर्मानुराग में दृढ़ रहना चाहिए। भावानुमग .. जिनेन्द्र प्रति दित तत्त्वों का स्वरूप कथंचित् स्मरण में न हो अथवा ज्ञात ही न हो तो भी जिनेन्द्र द्वारा कथित सर्व प्रमेय सत्य ही है, वह कदापि अन्यथा नहीं होता। श्रेष्ठी जिनदत्त सदृश ऐसा दृढ़ श्रद्धान होना भावानुराग है। *भावानुराग की कथा * उज्जैन के राजा धर्मपाल की रानी का नाम धर्मश्री था। धर्मश्री धर्मात्मा एवं अत्यन्त उदार प्रकृति की थी। इसी नगर में समुद्रदत्त नाम का एक सेठ रहता था। उसके प्रियंगुश्री नाम की एक सुन्दर कन्या थी । प्रियंगुश्री के मामा का लड़का नागसेन उस कन्या से विवाह करना चाहता था, किन्तु समुद्रदत्त ने अपनी कन्या का विवाह उसी नगर में रहने वाले सागरदत्त सेठ एवं सुभद्रा सेठानी से उत्पन्न नागदत्त के साथ कर दिया, जिससे नागसेन ने नागदत्त के साथ शत्रुता बाँध ली और उसे कष्ट देने का अवसर खोजने लगा। नागदत्त धर्मप्रेमी था। धर्म पर उसकी अचल श्रद्धा थी। इसके विवाह में विपुल दान दिया गया, पूजा-उत्सव किये गये एवं दीन-दुखियों को बहुत सहायता दी गई। एक दिन नागदत्त ने उपवास किया और वह भावानुराग से जिनमन्दिर में कायोत्सर्ग मुद्रा में ध्यान करने लगा। नागसेन ने अचानक उसे देख लिया । उस दुष्ट ने अपनी शत्रुता का बदला लेने के लिए एक षड्यन्त्र रचा। तत्काल अपने गले में से हार निकाल कर नागदत्त के पैरों के समीप डाल दिया और जोरजोर से हल्ला करने लगा कि यह मेरा हार चुराकर लिये जा रहा था। मैंने पीछे-पीछे दौड़कर इसे पकड़ लिया तब यह ढोंग बना कर यहाँ ध्यानस्थ हो गया है। हल्ला सुनकर लोग एकत्रित हो गये और नागदत्त को पकड़ कर राजा के दरबार में ले गये। राजा ने भी उसे मार डालने का आदेश दे दिया। नागदत्त को उसी समय वधभूमि ले जाया गया और उसकी गरदन पर तलवार का वार किया गया, किन्तु वह वार उसके गले में फूल की माला हो गया। उसी समय आकाश से पुष्पवृष्टि हुई और जय-जय, धन्य-धन्य शब्दों से आकाश गूंज उठा। इस प्रकार जैनधर्म के भावानुराग के प्रभाव को देखकर नागदत्त और धर्मपाल राजा बहुत प्रसन्न हुए। .. प्रेमानुराग - मणिचूल नामक देव को अपने मित्र सगर चक्रवर्ती से अत्यन्त प्रेम था, अत: उसने उन्हें बार-बार समझा कर भोगों से विरक्त किया था। इसी प्रकार धर्मप्रेम से धर्म में दृढ़ रहना और उस धर्मप्रेम से प्रेरित होकर अन्य जीवों को धर्म में जुटने की प्रेरणा देना प्रेमानुराग है। *प्रेमानुराग की कथा * अयोध्या के राजा सुवर्णवर्मा और उनकी रानी सुवर्णश्री के समय वहाँ सुमित्र नाम के एक प्रसिद्ध सेठ रहते थे। सेठ का जैनधर्म पर अत्यन्त प्रेम था । एक दिन सुमित्र सेठ रात्रि के समय अपने ही घर पर कायोत्सर्ग मुद्रा में ध्यान कर रहे थे। ध्यानसमय की उनकी स्थिरता एवं भावों की दृढ़ता देखकर एक देव ने उनकी परीक्षा करने हेतु सेठ की समस्त सम्पत्ति, स्त्री तथा बालक-बालिकाओं को अपने अधिकार में कर लिया। स्त्री एवं बच्चे रो-रोकर सेठ के पैरों में जा गिरे, और 'छुड़ाओ-छुड़ाओ' की हृदयभेदी दीन प्रार्थना करने लगे। जो न होने का था, वह वहाँ कुछ ही समय में सब हो गया, किन्तु सेठ ने अपना ध्यान अधूरा नहीं छोड़ा, वे वैसे Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डका - २४२ ही निश्चल ध्यान में तल्लीन रहे। सेठ की ऐसी अलौकिक स्थिरता देखकर देव बहुत प्रसन्न हुआ और उसने उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की तथा सेठ को साँकरी नाम की एक आकाशगामिनी विद्या भेंट कर वह स्वर्ग चला गया। सेठ का धर्म के प्रति ऐसा प्रेमानुराग देखकर कितने ही श्रावकों ने मुनिव्रत, कितनों ने श्रावकव्रत, कितनों ने सम्यक्त्व और कितनों ने उसी समय जैनधर्म धारण कर लिया । मज्जानुराग - पाँचों पाण्डव जन्म से ही परस्पर में ऐसे अनुराग से बद्ध थे, जैसे हड्डी मज्जा से बद्ध रहती है। धर्म, धर्मा एवं धर्मात्माओं में श्रद्धा का इसी प्रकार निबद्ध रहना मज्जानुराग है। ये सब अनुराग जैनधर्म से संबद्ध होने के कारण उपयोगी है। इन अनुरागों से अनुरक्त भव्य जीवों को कुछ भी दुर्लभ नहीं है। उन्हें सर्वत्र सर्व वस्तुएँ सुलभता से प्राप्त हो जाती हैं। सम्यक्त्व का माहात्म्य श्रेणिको व्रत-हीनोsपि, निर्मली - कृत - दर्शन: । आहत्य - पदमासाद्य, सिद्धि-सौधं गमिष्यति ।।७७२ ॥ अर्थ- देखो ! सम्यक्त्व का माहात्म्य, अतिचारों से रहित निर्मल सम्यग्दर्शन को धारण करने वाले राजा श्रेणिक व्रतों से हीन होते हुए भी आर्हन्त्य पद की कारणभूत तीर्थकर प्रकृति को प्राप्त कर आगे सिद्धि भवन अर्थात् मोक्ष प्राप्त करेंगे || ७७२ ॥ * राजा श्रेणिक की कथा * राजा श्रेणिक मगध देश के अधीश्वर थे। मगध की राजधानी राजगृही नगरी में रहते थे। उनकी पटरानी चेलना थी। वह बड़ी धर्मात्मा, जिनेन्द्र की भक्त और सम्यग्दर्शन से विभूषित थी। राजा पूर्व में बौद्ध धर्मावलम्बी था अतः राजा श्रेणिक से रानी चेलना का धर्म के विषय में सदा विवाद चलता रहता था। एक बार वन विहार को जाते हुए राजा ने आतापन योग में तल्लीन यशोधर मुनिराज को देखा। उन्हें शिकार के लिए विघ्नरूप समझकर क्रोधित होते हुए उन पर क्रूर स्वभावी शिकारी कुत्ते छोड़ दिये। कुत्ते मुनि का घात करने हेतु निर्दयता पूर्वक उनके ऊपर झपटे, किन्तु मुनिराज की तपश्चर्या के प्रभाव से उन्हें कुछ कष्ट न पहुँचा सके। अपितु उनकी प्रदक्षिणा देकर उनके समीप खड़े हो गये। यह देख श्रेणिक ने क्रोधान्ध हो उन पर बाण चला दिये किन्तु तप प्रभाव से वे बाण फूलवर्षा सदृश हो गये। श्रेणिक ने उस समय मुनिघात के हिंसारूप तीव्र परिणामों से सातवें नरक का आयुबन्ध कर लिया जिसकी स्थिति तैंतीस सागर की है। इन अलौकिक घटनाओं को देखकर राजा श्रेणिक का हृदय परिवर्तित हो गया। दुष्ट भाव नष्ट हो गये तथा मुनिराज के प्रति पूज्य भाव उत्पन्न हो गये। उन्होंने मुनिराज को नमस्कार किया और मुनिराज ने उन्हें अहिंसा-मयी पवित्र जिनशासन का उपदेश दिया। उस उपदेश का राजा के हृदय पर विलक्षण प्रभाव हुआ जिससे उन्हें सम्यक्त्व की प्राप्ति हो गई। विपुलाचल पर्वत पर भगवान महावीर स्वामी का समवसरण आया। राजा श्रेणिक ने वहाँ जाकर भगवान जिनेन्द्र की पूजा, वन्दना एवं स्तुति की तथा दिव्यध्वनि सुनी। परिणामों की अत्यन्त विशुद्धता के कारण Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - २४३ क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त किया। उसी समय ३३ सागर की नरक आयु कट कर मात्र चौरासी हजार वर्ष की रह गई। राजा श्रेणिक ने गणधर देव से साठ हजार प्रश्न कर अपनी तत्त्व सम्बन्धी जिज्ञासाएँ शान्त कीं और परमात्य पद के कारणभूत तीर्थंकर नामकर्म का बन्ध किया । अष्टाङ्ग सम्यक्त्व रत्नों से अलंकृत राजा श्रेणिक आगामी काल में इसी भरत क्षेत्र में महापद्म नाम के प्रथम तीर्थंकर होंगे। इस प्रकार सम्यक्त्व के प्रभाव से राजा श्रेणिक ने अपने अनन्त संसार परिभ्रमण का नाश कर मुक्ति को सन्निकट कर लिया। सम्यक्त्व रत्न की अमूल्यता अच्छिन्ना लभ्यते येन, कल्याणानां परम्परा । मूल्यं सम्यक्त्व - रत्नस्य, न लोके तस्य विद्यते ।। ७७३ ।। अर्थ - जिस सम्यक्त्व के द्वारा जीव को अभ्युदयादि सुखों की अविच्छिन्न कल्याण- परम्परा प्राप्त होती है, लोक में उस सम्यक्त्व रत्न का कोई मूल्य नहीं है। वह तो अमूल्य है ।। ७७३ ।। प्रश्न- सम्यग्दर्शन धाराप्रवाह रूप से कल्याण- परम्परा कैसे देता है ? उत्तर - सम्यग्दृष्टि जीव नियमतः देवों एवं मनुष्यों में ही जन्म लेता है। देवों में भी वह इन्द्र, प्रतीन्द्र, अहमिन्द्र, लौकान्तिक एवं सामानिकादि उत्तम देवों में ही उत्पन्न होता है। भवनत्रिक, आभियोग्य एवं किल्विषादि ही देवों में कदापि जन्म नहीं लेता। मनुष्यों में चक्रवर्ती, बलदेव, कामदेव, महामण्डलीक और मंडलीक आदि श्रेष्ठ मनुष्यों में ही जन्म लेता है। दरिद्री, नीचकुली, विकलांग, कुरूप और शक्तिहीनादि मनुष्यों में कदापि जन्म नहीं लेता। इस प्रकार के कुछ भव ग्रहण कर वह मोक्ष प्राप्त कर लेता है। अतः यह कहा गया है कि सम्यग्दर्शन धाराप्रवाहरूप से कल्याण- परम्परा को देता है। सम्यक्त्वस्य च यो लाभस्त्रैलोकस्य च यस्तयोः । सम्यक्त्वस्य मतो लाभ:, प्रकृष्टः सार-वेदिभिः ॥ ७७४ ॥ त्रैलोक्यमुपलभ्यापि ततः पतति निश्चितम् । अक्षयां लभते लक्ष्मीमुपलभ्य सुदर्शनम् ॥ ७७५ ॥ अर्थ - सम्यक्त्व का लाभ और त्रैलोक्य का लाभ, ये दो लाभ हैं। इन दोनों में सम्यक्त्व का लाभ सर्वश्रेष्ठ है, उत्कृष्ट है ऐसा सारभूत रत्नत्रय के ज्ञाता गणधरादि देवों द्वारा कहा गया है, क्योंकि तीन लोक को • प्राप्त करके भी कुछ काल व्यतीत हो जाने पर वे नियमतः छूट जाते हैं, किन्तु सम्यक्त्व की प्राप्ति हो जाने से यह जीव नियमतः अविनाशी मोक्षलक्ष्मी को प्राप्त कर लेता है । ७७४-७७५ ॥ ददाति सौख्यं विधुनोति दुःखं, भवं सुनीते नयते विमुक्तिम् । निहन्ति निन्दां कुरुते सपर्या, सम्यक्त्वरत्नं विदधाति किं न ||७७६ ।। इति सम्यक्त्वं । Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - २४४ अर्थ - यह सम्यक्त्वरत्न सुख देता है, दुख को नष्ट करता है। संसार को काटता है, मोक्ष में ले जाता है। अपयश को नष्ट करता है, यश को प्राप्त कराता है। सम्यक्त्व क्या नहीं करता ? सब कुछ करता है ॥७७६ ॥ सम्यक्त्व भावना पूर्ण हुई । पराभक्ति का व्याख्यान भक्तिमर्हत्सु सिद्धेषु चैत्येष्वाचार्य - साधुषु । विधेहि परमां साधो !, निश्चय-स्थित- मानसः ।।७७७ ।। अर्थ - हे क्षपक ! अपना मन निश्चित और स्थिर करके तुम अर्हन्तों में, सिद्धों में, जिनप्रतिमाओं में, आचार्यों और साधुओं में उत्कृष्ट भक्ति करो || ७७७ ॥ जिनेन्द्रभक्तिरेकापि, निषेद्धुं दुर्गतिं क्षमा । आसिद्धि - लब्धितो दातुं, सारां सौख्य-परम्पराम् ॥७७८ ॥ अर्थ - अकेली जिनभक्ति ही दुर्गति का नाश करने में समर्थ है और माकप्राप्ति होने तक इन्द्रपद, अहमिन्द्र पद, चक्रवर्ती पद और तीर्थंकर पद आदि सारभूत अभ्युदय सुख- परम्परा को देने वाली है ।। ७७८ ॥ सिद्ध-चैत्य - श्रुताचार्य - सर्वसाधु-गता परा । विच्छिनत्ति भवं भक्तिः, कुठारीव महीरुहम् ।।७७९ ।। अर्थ- सिद्ध परमेष्ठी, जिन प्रतिमा, जिनागम एवं सर्व साधुओं में की गयी श्रेष्ठ भक्ति उसी प्रकार संसार का नाश कर देती है जैसे कुल्हाड़ी वृक्ष को नष्ट कर देती है ।। ७७९ ।। नेह सिध्यति विद्यापि सफला न हि जायते । किं पुनर्निर्वृतेर्बीजं, भक्तिहीनस्य सिध्यति ।। ७८० || अर्थ - भक्तिहीन मनुष्यों को विद्या भी सिद्ध नहीं होती, जो पहले की प्राप्त की हुई विद्या है वह भी भक्तिहीन पुरुषों को फलदायक नहीं होती तो फिर मोक्ष के बीज स्वरूप रत्नत्रय क्या भक्तिहीन को सिद्ध हो सकता है ? नहीं हो सकता ॥ ७८० ॥ भक्तिमाराधनेशानां योऽकुर्वाणस्तपस्यति । स पत्यूष शालीन-नालोच्य समं ध्रुवम् ॥ ७८१ ।। अर्थ - जो मनुष्य सम्यग्दर्शनादि आराधनाओं के स्वामी अर्हन्तादि की भक्ति नहीं करता, उसका तपश्चरण नियमतः ऊषर भूमि में बोये हुए शालि धान्य के सदृश निष्फल है । ७८१ ॥ हे बीजेन विना सस्यं, वारिदेन विना जलम् । काङ्क्षन्ति ये विना भक्तिं, काङ्क्षन्त्याराधनां नराः ॥ ७८२ ॥ अर्थ - जो मनुष्य जिनेन्द्र आदि की भक्ति किये बिना ही आराधना अर्थात् रत्नत्रय की सिद्धि चाहते हैं वे बीज के बिना धान्य और बादलों के बिना जल चाहते हैं ||७८२ ।। Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. मरणकण्डिका - २४५ विधिनोप्तस्य सस्यस्य, वृष्टिर्निष्पादिका यथा । तथैवाराधना-भक्तिश्चतुरङ्गस्य जायते ।।७८३ ।। अर्थ - जैसे विधि का अर्थात् धान्य उत्पन्न करने के सम्पूर्ण कार्यों का आश्रय कर जमीन में बीज बोने के अनन्तर जलवृष्टि होने से फल की निष्पत्ति होती हैं, वैसे ही अर्हन्तादि पूज्य पुरुषों की भक्ति करने से ही दर्शन, ज्ञान, तप और चारित्र रूपी फल उत्पन्न होते हैं ||७८३ || प्रश्न - विधि किसे कहते हैं? उत्तर- जिससे कार्य किये जाते हैं उसे विधि कहते हैं। अतः विधि का अर्थ है अनुकूल कारणों का समूह | वन्दना - भक्ति-मात्रेण, पद्मको मिथिलाधिपः । देवेन्द्र - पूजितो भूत्वा बभूव गणनायकः ॥ ७८४ ॥ 3 अर्थ - तीर्थंकर की वन्दना के अनुराग मात्र से मिथिलानगर का राजा पद्मरथ देवेन्द्र द्वारा पूजित हुआ और वासुपूज्य तीर्थंकर का गणधर हुआ ॥३७८४ ॥ * जिनेन्द्रभक्त राजा पद्मरथ की कथा वे मगधदेश के अन्तर्गत मिथिलानगरी में परमोपकारी, दयालु और नीतिज्ञ राजा पद्मरथ राज्य करते थे । एक दिन शिकार खेलने गये। वहाँ उनका घोड़ा दौड़ता हुआ कालगुफा के समीप जा पहुँचा । गुफा में सुध मुनिराज विराजमान थे। मुनिराज के शुभ दर्शनों से महाराज पद्म अति प्रसन्न हुए। घोड़े से उतरकर उन्होंने भक्तिभावसे मुनिराजको नमस्कार किया। महाराज ने राजा को धर्मोपदेश दिया जिससे वे अति प्रसन्न हुए और विनीत शब्दों में बोले - गुरुराज ! आपके सदृश और कोई मुनिराज इस पृथ्वी पर है या नहीं ? यदि है तो कहाँ पर है ? मुनिराज बोले- राजन् ! इस समय इस देश में साक्षात् १२वें तीर्थंकर वासुपूज्य स्वामी विद्यमान हैं, उनके सामने मैं तो अति नगण्य हूँ | मुनिराजके वचन सुनकर राजाके मनमें भगवान के दर्शन करने की प्रबल इच्छा जागृत हो गई और वह अपने परिजन पुरजनोंके साथ भगवानके दर्शनार्थ चल पड़ा। उसी समय धन्वन्तरि चरदेव अपने मित्र विश्वानुलोम चर ज्योतिषी देव को धर्मपरीक्षाके द्वारा जैनधर्मकी श्रद्धा करानेके लिये वहाँ आया, उसने भगवान के दर्शनार्थ जाते हुए राजा पर घोर उपसर्ग किया, किन्तु भक्तिरस से भरा हुआ राजा मन्त्रियों द्वारा समझाये जाने पर भी नहीं रुक सका, तथा “ॐ नमः वासुपूज्याय " बोलता हुआ आगे बढ़ता ही गया। समवसरण में पहुँच कर राजा ने जन्म-जन्मान्तरों के मिथ्या भावों को नष्ट कर देने वाले भगवान वासुपूज्य के पवित्र दर्शन किये, पूजन की और उपदेश सुना और वे उसी समय दीक्षा लेकर तपस्वी हो गये। उनके परिणामों की इतनी विशुद्धि हुई कि उन्हें तत्काल मन:पर्ययज्ञान हो गया और वे भगवान के गणधर हो गये । समानिका छन्द रोग - मारि-चौर - वैरि-भूप भूत- पूर्वकाणि । भक्तिराशु दुःखदा निहन्ति सेविताऽखिलानि ।। ७८५ ॥ इति भक्ति: । + Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - २४६ अर्थ - रोग, मारी, चोर, बैरी, राजा और भूत इनके द्वारा होने वाले समस्त दुखों को सेवित की गई जिनेन्द्रभक्ति शीघ्र ही नष्ट कर देती है || ७८५ ॥ इस प्रकार भक्ति का प्रकरण पूर्ण हुआ । णमोकार मन्त्र का माहात्म्य आराधना - पुरोयानं, मा स्मैकाग्रमना मुच । शुद्धलेश्यो नमस्कार, संसार-क्षय-कारणम् ॥७८६ ॥ अर्थ - यह नमस्कार मन्त्र आराधनाओं का अग्रेसर है और पंच परावर्तन रूप संसार का क्षय करने वाला है अतः हे क्षपक ! तुम एकाग्र मन से तथा विशुद्ध परिणामों से इसकी आराधना करो। इसे कभी मत छोड़ना || ७८६ ॥ एकोप्यनमस्कारो, मृत्युकाले निषेवितः । विध्वंसयति संसारं, भास्वानिव तमश्चयम् ।। ७८७ ।। अर्थ - जैसे सूर्य अन्धकार समूह का नाश कर देता है, वैसे ही मरणकाल में यदि एक बार भी अर्हन्तों को नमस्कार कर लिया जाय तो वह नमस्कार संसार का नाश कर देता है ||७८७ ॥ संसारं न विना शक्तं, नमस्कारेण सूदितुम् । चतुरङ्ग-गुणोपेतं, नायकेनेव विद्विषम् ॥ ७८८ ॥ अर्थ - जैसे सेनानायक के बिना हाथी, घोड़ा, रथ और पदाति इस चतुरंग सेना से युक्त शत्रु राजा पर विजय प्राप्त करना शक्य नहीं है, वैसे ही पंच नमस्कार के बिना संसार का विच्छेद करना शक्य नहीं है || ७८८ ॥ विद्विषो नायकेनेव, चतुरङ्ग बलीयसा । संसारस्य विघाताय नमस्कारेण योज्यते ॥ ७८९ ।। अर्थ - शत्रु राजा के चतुरंग सैन्य पर विजय प्राप्त करने के लिए जिस प्रकार बलशाली सेनानायक प्रयुक्त किया जाता है, उसी प्रकार संसार का नाश करने के लिए नमस्कार मन्त्र प्रयुक्त किया जाता है। अर्थात् मरण समय में किया हुआ भाव नमस्कार दर्शन, ज्ञान, तप और चारित्ररूपी आराधनाओं का प्रवर्तक होता है ।। ७८९ ॥ नमस्कारेण गृह्णाति, देवीमाराधनां यतिः । पताकामिव हस्तेन, मल्लो निश्चित - मानसः ।।७९० ।। अर्थ - जैसे दृढ़ मनवाला मल्ल हाथ द्वारा जयपताका ग्रहण कर लेता है, उसी प्रकार साधु नमस्कारमन्त्र द्वारा आराधना रूपी देवी को ग्रहण कर लेता है ।।७९० ।। अज्ञानोऽपि मृतो गोपो, नमस्कार -परायणः । चम्पाश्रेष्ठि-कुले भूत्वा प्रपेदे संयमं परम् ॥७९९ ॥ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - २४७ रण करके अर्थ - सुभग नाम का ग्वाला अज्ञानी था अर्थात् अर्हन्तादि के गुणों का उसे ज्ञान नहीं था। मरण समरः मोकार म ... में रहा अत: चम्पानगरी में वृषभदत्त श्रेष्ठी का पुत्र हुआ और संयम धारण कर उसने मोक्ष प्राप्त किया ||७९१॥ ____* सुभग ग्वाले की कथा * __ अगदेशान्तर्गत चम्पापुरी नगरीका राजा धात्रीवाहन था। उसकी रानीका नाम अभयमती था। उसी नगरीमें वृषभदास नामका एक सेठ रहता था, जिसकी स्त्री का नाम जिनमती था। इस सेठके यहाँ सुभग नामका ग्वाला था, जो सेठकी गायें चराया करता था । शीतकाल में एक दिन जब वह गायें चराकर घर लौट रहा था तब उसने एक मुनिराजको ध्यानारूढ़ देखा। "इस भीषण शीतमें ये कैसे बचेंगे" इस विकल्प से वह अधीर हो उठा। वह रात्रि भर आग जलाकर मुनिराजकी शीत वेदना दूर करता रहा। प्रातः मुनिराज ने अपना मौन विसर्जित किया और धर्मोपदेशके साथ-साथ उस ग्वाल बालकको “णमो अरिहंताणं" यह मंत्र भी दिया। वे स्वयं भी यह पद बोलते हुए आकाशमार्गसे चले गये । मन्त्र उच्चारणके साथ ही मुनिराजका आकाशमें गमन देखकर वाले को इस मंत्र पर अटल श्रद्धा हो गयी और वह निरन्तर भोजनादि सम्पूर्ण क्रियाओं के पूर्व महामन्त्रका उच्चारण करने लगा। एक दिन उसकी गायें गंगापार चली गईं, उन्हें वापस लानेके लिये वह गंगामें कूदा। कूदते ही उसका पेट एक तीक्ष्ण काष्ठके घुसनेसे फट गया। उस समय उसने महामन्त्रका अपने ही सेठ के पुत्र होनेका निदान कर लिया। निदानके फलानुसार वह सेठके यहाँ पुत्र रूपमें उत्पन्न हुआ। बालकका नाम सुदर्शन रखा गया। काल पाकर सेठ सुदर्शन ने राज्यवैभव का भोग किया। अन्तमें दीक्षा धारण की और स्त्रियों एवं देवियोंके द्वारा घोर उपसर्गको प्राप्त होते हुए वे मोक्षगामी हुए। समस्तानि दुःखानि विच्छिद्य सधः, सुखानि प्रभूतानि साराणि दत्वा। मुदा सेव्यमानं विधानेन मोक्षे, विद्याधानि दत्ते नमस्कार-मित्रम् ।।७९२ ।। इति नमस्कारः। अर्थ - प्रसन्नतापूर्वक सेवन करने पर यह नमस्कार मंत्ररूपी मित्र शीघ्र ही समस्त दुखों का नाशकर सारभूत प्रभूत सुखों को देकर पुन: मोक्ष में अव्याबाध सुखों को देता है ||७९२ ।। नमस्कार वर्णन पूर्ण। ज्ञानोपयोग का कथन न शक्यते वशीकर्तु, विना ज्ञानेन मानसम् । अंकुशेन विना कुत्र, क्रियते कुजरो वशे ।।७९३॥ अर्थ - जैसे अंकुश के बिना हाथी क्या कहीं पर वश में किया जाता है ? नहीं किया जाता। उसी प्रकार ज्ञान के बिना मन वश में नहीं किया जाता ॥७९३ ।। प्रश्न - ज्ञान के बिना मन का निग्रह क्यों नहीं किया जाता? उत्तर - मन का निग्रह करने में ज्ञान साधकतम कारण है। अत: उसके बिना मन का निग्रह उसी प्रकार Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - २४८ नहीं होता जिस प्रकार मदोन्मत्त हाथी अंकुश के बिना वश में नहीं होता । यहाँ मदोन्मत्त मनरूपी हाथी के लिए ज्ञानाभ्यास अंकुश है। प्रश्न - यहाँ यदि मन अर्थात् चित्त से चैतन्य ही ग्रहण किया जाता है तो चैतन्य का निग्रह कैसे? उत्तर - जब कभी साधक जीव की परिणति विपरीत ज्ञानरूप या अशुभ ध्यानरूप या अशुभ लेश्यारूप परिणमन करने लगती है तब उसका निरोध समीचीन ज्ञानरूप परिणाम से किया जाता है। परिणाम परिणामी को रोकता है। जैसे तुम्हें हमारे विरुद्ध परिणाम नहीं करना चाहिए। जैसे मत्त हाथी बन्धन और मर्दन आदि के बिना वश में नहीं होता, वैसे ही यह मनरूपी हाथी भी निमित्त पाकर जिस किसी भी अशुभ परिणाम में प्रवृत्त हो जाता है, पश्चात् ज्ञानाभ्यास से ही वश में किया जा सकता है। स्वभ्यस्तं कुरुते ज्ञानं, नानानर्थ-परं मनः । पुरुषस्य वशे विद्या, पिशाचमिव दुर्ग्रहम् ।।७१४ ।। अर्ध - जैसे साधित विद्या दुराग्रही पिशाच को साधक पुरुष के वश में करा देती है, वैसे ही नाना अनर्थों में प्रवृत्त होने वाले इस मन को ज्ञान अपने वश में कर लेता है ॥७९४ ।। प्रश्न - यह उपदेश क्यों और किसे दिया जा रहा है? उत्तर - मन अयोग्य कार्यों में रन है अतः इस विधि की मादी गई है , जैर पूर्ण विधि से साधना की गई विद्या पिशाच को पुरुष के वश करा देती है, वैसे ही ज्ञानाभ्यास में पूर्णत: उपयोग लगाये रखने से मन रूपी पिशाच साधक के स्वाधीन रहता है अर्थात् ज्ञानोपयोग से मनुष्य अपने मन को शुभ अथवा शुद्ध परिणामों में प्रवर्तन करा लेते हैं, अत: आचार्यदेव क्षपक को शिक्षा दे रहे हैं कि हे क्षपक ! जैसे सम्यादृष्टिजीव विद्याराधन करके पिशाच या किसी देव को स्वाधीन करके उससे धर्मप्रभावना के बड़े से बड़े अर्थात् अतिशययुक्त कार्य करा लेते हैं, वैसे ही तुम ज्ञानाराधना द्वारा अपने मन को शुद्ध परिणामों में लगाये रखने का पुरुषार्थ करो। ज्ञानेन शम्यते दुष्ट, नित्याभ्यस्तेन मानसम्। मन्त्रेण शम्यते किं न, सुप्रयुक्तेन पन्नगः ॥७९५ ।। अर्थ - नित्य ही सम्यक् प्रकार से भावितज्ञान द्वारा अशुभ विचार करने वाला मन शान्त हो जाता है, ठीक ही है भली प्रकार से जिसका प्रयोग किया गया है, ऐसे मन्त्र द्वारा क्या कृष्ण सर्प शान्त नहीं होता? अपितु होता ही है ।।७९५ ॥ प्रश्न - पूर्व श्लोक में मन को स्वाधीन करने की बात कह दी गई थी फिर इस श्लोक में क्या कहा जा रहा है ? उत्तर - पूर्व श्लोक में कहा गया था कि ज्ञानाभ्यास से मन स्वाधीन रहता है और इस श्लोक में कहा गया है कि ज्ञानाभ्यास द्वारा अशुभ परिणामों की शान्ति हो जाती है। नियम्यते मनो-हस्ती, मत्तो ज्ञान-वस्त्रया। हस्ती धारण्यक: सद्यो, भयदायी वस्त्रया ॥७९६॥ Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - २४९ अर्थ - जैसे जंगली हाथी भयप्रद कठोर सांकल द्वारा शीघ्र ही बांधा जाता है, वैसे ही मन रूपी हाथी ज्ञान रूपी सांकल से बाँधा जाता है अर्थात् अशुभ विचार करने वाले मन को ज्ञान द्वारा नियन्त्रित किया जाता है ।।७९६ ॥ मध्यस्थो न कपिः शक्यः, क्षणमायासितुं यथा। मनस्तथा भवेन्नैव, मध्यस्थं विषयैर्विना ।।७९७॥ सदा रमयितव्योऽसौ,जिन-वाक्य-वने ततः। रागद्वेषादिकं दोषं, करिष्यति ततो न सः ॥७९८ ॥ अर्थ - जैसे बन्दर एक क्षण भी निर्विकार अर्थात् शान्त होकर नहीं बैठ सकता, वैसे ही यह मन एक क्षण भी विषयों के बिना नहीं रहता। अत: चतुर पुरुष को चाहिए कि वह इस मनरूपी बन्दर को जिनागम रूपी सुन्दर वन में माता रहे जिससे वह रा--द्वय आदिवाओं को न करे ।।७९७-७९८ ।। प्रश्न - यहाँ विषय शब्द से क्या ग्रहण किया गया है ? उत्तर - यहाँ विषय शब्द से रूप, रस, गन्ध एवं शब्द आदि के निमित्त से होने वाले रागादि भावों का ग्रहण किया गया है, क्योंकि ये रागादि, विषयों से ही उत्पन्न होते हैं। इसीलिए श्लोक का यह भाव है कि मन रागद्वेष के बिना कभी मध्यस्थ नहीं रह सकता। अर्थात् ज्ञान भावना के अभाव में रागद्वेष में प्रवृत्ति करना ही मन का व्यापार है। ज्ञान मन को मध्यस्थ रखता है, अतः आत्महितैषी जीवों को अपना मन ज्ञानाभ्यास में सदैव लगाये रखना चाहिए। ज्ञानाभ्यासस्ततो युक्तः, क्षपकस्य विशेषतः। विवेध्यं कुर्वतस्तस्य, चन्द्रक-व्यधनं यथा ॥७९९ ॥ अर्थ - जैसे चन्द्रक यन्त्र का वेध करने की इच्छा रखने वाले को सदा बींधने का अभ्यास करना आवश्यक है, वैसे ही क्षपक के लिए सदा विशेषरूप से ज्ञानोपयोग में लगे रहने को कहा गया है।।७९९ ।। प्रश्न - चन्द्रक वेध किसे कहते हैं और इसके दृष्टान्त द्वारा आचार्य क्या समझाना चाहते हैं ? उत्तर - राजा आदि के महल की छत पर तीव्र वेग से घूमने वाला एक चक्र लगा रहता है। उस चक्र में एक विशिष्ट चिह्न रहता है, वह भी चक्र के साथ तीव्र गति से घूमता है। उस चन्द्रक के ठीक नीचे जल से भरा हुआ जलकुण्ड होता है, उस जल में ऊपर फिरते हुए चक्र का प्रतिबिम्ब दिखाई देता है। चतुर धनुर्धारी वीर पुरुष जलकुण्ड में चक्र के चिह्न को देखकर और अपने हाथों से बाण चलाकर उस लक्ष्य को बेध देता है। इसमें देखना नीचे और बाण छोड़ना ऊपर ऐसी बाण चलाने की विशिष्ट क्रिया को चन्द्रकवेध कहते हैं। इस कठिनतर कार्य को बाणविद्या के सतत अभ्यास से ही सिद्ध किया जाता है। ऐसे ही चक्रवत् सतत भ्रमण करने वाला यह मन है। इसको एकाग्र करना चन्द्रकवेध से भी कठिन है, क्योंकि चन्द्रकवेध भले जल के माध्यम से हो किन्तु दृश्यमान है जबकि मन तथा मन के विचार अदृश्य हैं, मात्र अनुभवगम्य हैं। निरन्तर विषयों में भ्रमण Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - २५० करते हुए इस मन के कारण संसार में अनन्त दुख भोगने पड़ते हैं, अत: आचार्य उपदेश देते हैं कि हे क्षपक! यदि तुम आराधना की सिद्धि करना चाहते हो तो इस मन-मर्कट को ज्ञानाभ्यास में लगा कर वश में करो। शुद्धलेश्यस्य यस्यान्ते, दीप्यते ज्ञान-दीपिका। तस्य नाश-भयं नास्ति, मोक्षमार्गे जिनोदिते ॥८००॥ अर्थ - जिस विशुद्धलेश्या वाले के हृदय में ज्ञान रूपी दीपक प्रज्ज्वलित रहता है, उसको जिनोपदिष्ट मोक्षमार्ग में यह भय कदापि नहीं रहता कि “मैं संसार-भँवर में गिर कर नष्ट हो जाऊँगा'' |८०० ।। प्रश्न - इस श्लोक में आचार्यदेव क्या कह रहे हैं ? उत्तर - जिस राहगीर के हाथ में प्रज्ज्वलित दीपक है, उसको अंधेरे मार्ग में कहीं गिरना-पड़ना, चोट आदि लगना, विपरीत दिशा में भटक जाना एवं यत्र-तत्र भ्रमित हो जाने का प्रसंग नहीं आता। उसी प्रकार जिनागम का सतत अभ्यास करने वाल, लेण्या से विशद्ध हृदय क्षपक के भी विपरीत श्रद्धा होना, तत्त्वों में शंका होना, चारित्र मलिन हो जाना एवं भावनाओं की साधना से स्खलित हो जाना आदि मार्ग से च्युत करने वाले बाधक कारणों का प्रसंग नहीं आता, अत: आचार्यदेव कहते हैं कि ज्ञानाभ्यासी क्षपक सदा निर्भय होकर साधना करता है। ज्ञानरूपी प्रकाश का माहात्म्य ज्ञानोद्योतो महोद्योतो, व्याघातो नास्य विद्यते। क्षेत्रं द्योतयते सूर्यः, स्वल्पं सर्वमसौ पुनः ।।८०१।। अर्थ - सूर्य का प्रकाश तेजस्वी होने पर भी स्वल्प अर्थात् सीमित क्षेत्र को ही प्रकाशित करता है, किन्तु ज्ञान सर्वक्षेत्र अर्थात् लोकालोक को प्रकाशित करता है अर्थात् जानता है, अत: ज्ञान का प्रकाश ही महाप्रकाश है। इस प्रकाश का कभी व्याघात नहीं होता ।।८०१ ॥ ज्ञानं प्रकाशकं वृत्तं, गोपकं साधकं तपः । त्रयाणां कथिता योगे, निर्वृतिर्जिनशासने । १८०२ । अर्थ - ज्ञान प्रकाशक है, चारित्र रक्षक अर्थात् गुप्तिकारक है और तप साधक है। इन तीनों का योग मिलने पर ही जिनागम में मोक्ष कहा गया है ।।८०२ ।। प्रश्न - प्रकाशक, गोपक और साधक का स्पष्ट भाव क्या है ? उत्तर - वस्तु को दिखाने में जो सहायक होता है वह प्रकाशक कहलाता है, जो आपत्ति आदि के समय रक्षा करता है वह गोपक कहलाता है और जो कार्यसिद्धि का साधन करता है वह साधक कहलाता है। ज्ञान संसार और संसार के कारण, मोक्ष और मोक्ष के कारण एवं हेय-उपादेय तत्त्वों को साक्षात् दिखाता है अतः प्रकाशक है; चारित्र गुप्तिकारक है, वह भी पापों से एवं शुभाशुभ भावों से आत्मा की रक्षा करता है अतः गोपक है तथा तप निर्जरा का कारण होने से कर्मों का नाश कर मोक्षपद देता है अतः साधक है। इन तीनों के संयोग से स्वात्म-सिद्धि होती है। Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - २५२ करणेन विना ज्ञानं, संयमेन विना तपः। सम्यक्त्वेन विना लिङ्ग, क्रियमाणमनर्थकम् ॥८०३॥ अर्थ - आचरणहीन ज्ञान, संयम बिना तप और सम्यक्त्व बिना मुनिदीक्षा ग्रहण करना निरर्थक है।।८०३॥ ज्ञानोद्योतं विना योऽत्र, मोक्षमार्गे प्रयास्यति । प्रयास्यति बने दुर्गे, सोऽन्धो-ध-तासे शनि ।।८.०४।" ___ अर्थ - जो पुरुष ज्ञानरूपी प्रकाश के बिना मोक्षमार्ग को अर्थात् चारित्र एवं तप को प्राप्त करना चाहता है वह उस पुरुष के सदृश है जो अन्धा है और रात्रि के अन्धकार में गहन वन में गमन करना चाहता है ।।८०४ ।। संयमं श्लोक-खण्डेन, निवार्य मरणं यमः। यदि नीतस्तदा किं न, जिनसूत्रेण साध्यते ।।८०५ ।। अर्थ - यदि स्व-रचित भी श्लोक के एक खण्ड का स्मरण, उच्चारण एवं स्वाध्याय करते हुए यम मुनि मरणरूपी आपत्ति को रोक कर उत्तम संयम को प्राप्त हुए थे तब जिनेन्द्रोपदिष्ट आगम के स्वाध्याय द्वारा क्या-क्या सिद्ध नहीं हो सकता? सब कुछ प्राप्त हो सकता है ।।८०५ ।। *यम मुनिराज की कथा * उडु देशान्तर्गत धर्मनगर में राजा यम राज्य करते थे। उनकी रानी का नाम धनवती, पुत्र का नाम गर्दभ और पुत्री का नाम कोणिका था। किसी ज्योतिषी ने कोणिका की जन्मपत्रिका देखकर राजा से कहा कि इस कन्याका जिसके साथ विवाह होगा वह संसारका सम्राट् होगा। यह बात सुनकर राजाने अन्य क्षुद्र राजाओंकी दृष्टि से बचानेके लिये कन्याको बड़े यत्नसे रखना शुरू कर दिया। एक समय धर्मनगर में सुधर्माचार्य ५.०० मुनिराजोंके साथ आये और नगरके बाहर उद्यानमें ठहर गये। अपनी विद्वत्ताके गर्वसे गर्वित राजा यम समस्त परिजन और पुरजनोंके साथ मुनियोंकी निन्दा करता हुआ संघके दर्शनार्थ जा रहा था, किन्तु गुरुनिन्दा और ज्ञानमदके कारण मार्गमें ही उसका सम्पूर्ण ज्ञान लुप्त हो गया और वह महामूर्ख बन गया। इस अनहोनी घटनासे राजा अत्यन्त दुःखी हुआ और उसने पुत्र गर्दभको राज्यभार देकर अपने अन्य ५०० पुत्रोंके साथ दीक्षा ले ली। दीक्षा लेने के बाद भी वे मूर्ख ही रहे अर्थात् पंचनमस्कारका उच्चारण भी वे नहीं कर सकते थे। इस दुःखसे दुखित होकर यम मुनिराज गुरुसे आज्ञा लेकर तीर्थयात्रा को चल दिये। मार्गमें उन्होंने गर्दभयुक्त रथ, गेंद खेलते हुए बालक और मेंढ़क एवं सर्पके निमित्तसे होने वाली घटनाओंसे प्रेरित होकर तीन खण्डश्लोकों की रचना की। यम मुनिराज साधु सम्बन्धी प्रतिक्रमण, स्वाध्याय एवं कृतिकर्म आदि सभी क्रियाएँ इन तीन खण्ड श्लोकों द्वारा ही किया करते थे, इसीके बलसे उन्हें सात ऋद्धियाँ प्राप्त हो गई थीं। अन्यत्र भी - एक राजा ने भिक्षा से उदरपूर्ति करने वाले एक अज्ञ एवं अन्धे का वाक्य सुनकर हंसी से कण्ठस्थ कर लिया। उस वचन से उनके ऊपर आई हुई आपत्ति टल गई | जब एक अन्धे और अज्ञ भिखारी Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - २५२ का वचन भी राजा जैसे महापुरुष की आपत्ति को दूर करने में निमित्त बन गया तब जिनागम का अभ्यास करने से क्या-क्या अभिलषित पूर्ण न होगा ? अवश्य पूर्ण होगा । दृढसूर्योऽथ शूलस्थो, जातो देवो महर्द्धिकः । नमस्कार - श्रुताभ्यासं कुर्वाणो भक्तितो मृतः ॥ ८०६ ।। अर्थ - शूली पर चढ़ाया हुआ दृढ़सूर्य नामक चोर भक्तिपूर्वक पंचनमस्कार मात्र श्रुतज्ञान में चित्त की एकाग्रता करके मरण को प्राप्त हुआ और स्वर्ग में महाऋद्धिशाली देव हुआ ||८०६ ।। * दृदसूर्य चोर की कथा सूर्य नाम और यह एक दिन प्रेमिका वेश्याके कहने से राज्यमें चोरी करने गया। वह सीधा राजमहल पहुँचा। भाग्यसे हार उसके हाथ पड़ गया। वह उसे लिये हुए राजमहलसे निकला। उसके निकलते ही पहरेदारोंने पकड़ लिया। सवेरा होते ही वह राजसभामें पहुँचाया गया। राजाने उसे शूलीकी आज्ञा | वह शूली पर चढ़ाया गया। इसी समय धनदत्त नामके एक सेठ दर्शन करनेको जिनमन्दिर जा रहे थे । दृढ़सूर्यने उनके चेहरे और चालढालसे उन्हें दयालु समझकर उनसे कहा-सेठजी, आप बड़े जिनभक्त और दयावान् हैं, इसलिये आपसे प्रार्थना है कि मैं इस समय बड़ा प्यासा हूँ, सो आप कहींसे थोड़ासा जल लाकर मुझे पिलादें तो आपका बड़ा उपकार हो । परोपकारी धनदत्त स्वर्ग- मोक्षका सुख देनेवाला पंच नमस्कार मंत्र उसे सिखाकर आप जल लेनेको चला गया । वह जल लेकर वापिस लौटा, इतने में दृढ़सूर्य मर गया। पर वह मरा नमस्कार मंत्रका ध्यान करते हुए। उसे सेट के इस कहने पर पूर्ण विश्वास हो गया था कि यह विद्या महाफलको देनेवाली है। नमस्कार मंत्र के प्रभाव से वह सौधर्म-स्वर्गमें जाकर देव हुआ । सच है पंच नमस्कार मंत्रके प्रभावसे मनुष्यको क्या प्राप्त नहीं होता! - मृत्युकाले श्रुतस्कन्धः, समस्तो द्वादशाङ्गकः । बलिना शक्ति-चित्तेन, यतो ध्यातुं न शक्यते ॥ ८०७ ॥ अर्थ श्रुतस्कन्ध का अनुचिन्तन करने में समर्थ नहीं हो सकता ||८०१७ || मृत्यु के समय बलवान अर्थात् सामर्थ्य सम्पन्न चित्त वाला मनुष्य भी समस्त द्वादशांग प्रश्न क्या बहुश्रुतज्ञानी मुनि भी सम्पूर्ण श्रुत का ध्यान नहीं कर सकते ? उत्तर - किसी भी काल और किसी भी क्षेत्र में सम्पूर्ण द्वादशांग श्रुतज्ञान ध्यान का विषय नहीं होता, फिर मरण समय में तो समस्त श्रुतज्ञान ध्यान का विषय बन ही नहीं सकता, भले द्वादशांग के पाठी कितने ही बलशाली मुनि क्यों न हों। एकत्रापि पदे यत्र, संवेगं जिन भाषिते । संयतो भजते तन्न त्यजनीयं ततस्तदा ॥८०८ ॥ अर्थ - जिनेन्द्रोपदिष्ट आगम के जिस एक पद के चिन्तन से आत्मा में रत्नत्रय की श्रद्धा दृढ़ हो, क्षपक Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - २५३ को प्रसन्नता हो और उसमें संवेग भाव की जाग्रति हो, मृत्युकाल में उसी एक पद का बार-बार चिन्तन करना चाहिए ।।८०८॥ जिनपति-वचनं भव-भय-मथनं, शशिकर-धवलं कृत-बुध-कमलम् । धृतमिति हृदये हत-मल-निचये, वितरति कुशलं विदलति कलिलम् ।।८०९॥ इति ज्ञानम्। अर्थ - जिनोपदिष्ट वचन संसार के भय का मथन करने वाले हैं, चन्द्रमा की किरणों के सदृश धवल हैं, बुद्धिमानरूपी कमलों को विकसित करने वाले हैं। ये वचन पाप का नाश करते हैं और कुशलं अर्थात् पुण्य का वर्धन करते हैं अतः राग-द्वेष, मात्सर्य एवं अहंकार आदि मल रहित हृदयवाले हे क्षपक! तुम इन पवित्र वचनों को अपने हृदय में धारण करो॥८०९॥ इस प्रकार ज्ञानाभ्यास प्रकरण पूर्ण हुआ। इस प्रकार श्लोक संख्या ७५४ में कथित मिथ्यात्व वमन, सम्यक्त्व भावना, भक्ति, नमस्कार और ज्ञानाभ्यास इन पाँच विषयों का विवेचन यहाँ तक पूर्ण हुआ। अब आगे श्लोक ७५५ में कथित महाव्रतरक्षा, कषायनिग्रह, इन्द्रियविजय और तप में उद्यम, इन चारों का विवेचन किया जा रहा है। इन चारों में महारथा का प्रमाण बहु। विस्तृत है। अब पंच महाव्रत-रक्षा के प्रकरण में ___अहिंसा महाव्रत यावज्जीवं विमुञ्चस्व, यते ! षड्जीव-हिंसनम्। शरीर-वचनस्वान्तः, कृत-कारित-मोदितैः ।।८१०॥ अर्थ - हे यते ! तुम मन, बचन और काय तथा कृत, कारित और अनुमोदना से जीवन पर्यन्त के लिए षट्काय के जीवों की हिंसा का त्याग करो ॥८१० ॥ यथा न ते प्रियं दुःखं, सर्वेषां देहिनां तथा। इति ज्ञात्वा सदा रक्ष, तान्स्वं स्वमिव यत्नतः ।।८११।। अर्थ - जैसे तुझे दुख प्रिय नहीं है, वैसे ही सभी प्राणियों को दुख प्रिय नहीं है, ऐसा जान कर अपने ही सदृश सब जीवों की यत्न से रक्षा करो।।८११॥ क्षुधा तृष्णाभिभूतोऽपि, विधाय प्राणि-पीडनम् । मा कार्षीरपकारं त्वं, वपुर्वचन-मानसैः ।।८१२।। अर्थ - हे साधो ! तुम क्षुधा-तृषा आदि से पीड़ित होने पर भी मन, वचन, काय से प्राणियों को पीड़ा देकर अपना अपकार मत करो ।।८१२॥ 19 Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - २५४ प्रश्न - क्षपक को किस प्रकार के भाव नहीं करने चाहिए ? उत्तर - मैं कपूर का चूर्ण डाल कर सुगन्धित किया हुआ और बर्फ सदृश शीतल जल का पान करूँ, अथवा अति सुगन्धित कमलरज से व्याप्त सरोवर में स्नान करूँ। ललाट, मस्तक एवं मेरी विशाल छाती पर बर्फ की थैली रखो तो मुझे अति आहलाद होगा। यदि कमल, बालू और कोमल पल्लवों की शय्या मिलेगी तो ही मैं जीवित रह सकूँगा। मुझे रात-दिन प्यास सताती है, सूर्य के ताप से रक्षा कर पंखे की शीतल वायु से मेरा ताप शान्त करो। वर्षा हो, बर्फ गिरे, शीतल हवा चले। अथवा आग जलाकर मेरे शीतल शरीर को गरम करो, मुझे सुगन्धित और गर्म दूध पिलाओ, अपूप आदि सुन्दर मिष्टान्न खिलाओ, इत्यादि। इस प्रकार के भाव क्षपक के मन में नहीं आने चाहिए। ऐसे परिणामों से अहिंसा महाव्रत में दोष लगता है। वेदना उत्पन्न हो जाने पर सोचना चाहिए कि असाता के तीव्र उदय से यह भूख, प्यास एवं गर्मी-सर्दी आदि की तीव्र वेदना उत्पन्न हुई है अत: उसका उपशमन होने पर स्वयमेव बाह्य अनुकूल पदार्थों का संयोग मिल जावेगा अतः उनके लिए मुझे अपनी समता भंग नहीं करनी चाहिए। हर्षोत्सुकत्व-दीनत्व-रत्यरत्यादि-संयुतः। त्वं भोग-परिभोगार्थ, मा कार्षीर्जीव-बाधनम् ॥८१३ ॥ अर्थ - हर्ष, उत्सुकता, दीनपना, रति एवं अरति आदि खोटे भावों से युक्त होकर तुम भोग एवं उपभोग के लिए जीवों को बाधा मत देना ।।८१३॥ माक्षिकं मक्षिकाभिर्वा, स्तोक-स्तोकेन संचितम् । मा नीनशो जगत्सारं, संयम चेन्न पूरयः ।।८१४॥ अर्थ - मधुमक्खियाँ जैसे थोड़ा-थोड़ा मधु-संचय करती हुई एकत्र कर पाती हैं, वैसे ही हे क्षपक ! तुम्हारे द्वारा थोड़ा-थोड़ा करके जो संयम संचय किया गया है, जगत् में सारभूत उस संयम को यदि पूर्ण न कर सकें तो भी नष्ट तो मत करना ।।८१४ ।। नृत्वं जाति: कुलं रूपमिन्द्रियं जीवितं बलम् । श्रवणं ग्रहणं बोधिः, संसारे सन्ति दुर्लभाः ॥८१५ ॥ __ अर्थ - संसार में मनुष्य-भव प्राप्त होना दुर्लभ है, उसमें उच्च जाति, उच्च कुल और भी अधिक दुर्लभ है, उसमें भी सुन्दर रूप, इन्द्रियों की पूर्णता, दीर्घायु, बल, धर्मश्रवण, धर्मग्रहण उत्तरोत्तर अतिदुर्लभ हैं। ये कथंचित् सुलभ भी हो जावें किन्तु बोधि अर्थात् रत्नत्रय की प्राप्ति तो अत्यधिक दुर्लभ है ।।८१५॥ प्रश्न - मनुष्य कितने प्रकार के होते हैं और उनके लक्षण क्या हैं ? उत्तर - कर्मभूमिज, भोगभूमिज, अन्तद्वीपज और सम्मूर्छनज के भेद से मनुष्य चार प्रकार के होते हैं। जहाँ असि, मसि, कृषि, शिल्प, वाणिज्य और सेवा अथवा न्यायदान, ऐसे छह कार्यों से उपजीविका की जाती है, जहाँ के मनुष्य संयम एवं तप में तत्पर रहते हुए स्वर्ग और मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं, वे कर्मभूमिज मनुष्य हैं। पाँच भरत, पाँच ऐरावत और पाँच विदेह के भेद से ये कर्मभूमियाँ पन्द्रह हैं। Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - २५५ यह संसारी प्राणी सबसे अधिक जन्म तिर्यंचगति में लेता है। देव-नारकियों की अपेक्षा भी मनुष्य गति में बहुत कम बार जन्म होता है, चारों गतियों के जीवों में से मनुष्य गति के जीवों की संख्या अल्प है। इनमें भी उच्चकुल और उच्चजाति वाले मनुष्य अल्पसंख्यक हैं। जहाँ मनुष्य मद्यांग, तूर्यांग, वस्त्रांग, भोजनांग, पात्रांग, आभरणांग, माल्यांग, गृहांग, दीपांग और ज्योतिरंग जाति के कल्पवृक्षों से जीवनयापन करते हैं, मन्द कषायी होते हैं, मरकर देव-गति में ही जाते हैं, उन्हें भोगभूमिज मनुष्य कहते हैं। जो मनुष्य लवण समुद्र और कालोद समुद्र-गत ९६ अन्तद्वीपों में जन्म लेते हैं ; कन्दमूल, फल एवं मिट्टी खाते हैं, पशुवत् आचरण करते हैं ; अभाषक, गूंगे, एक टांग वाले, पूंछ वाले, सींग वाले, दर्पणमुख, हाथी, घोड़ा, बिजली एवं उल्का मुख वाले एवं गजकर्ण, अश्वकर्ण तथा कर्णप्रावरण आदि रूप होते हैं उन्हें अन्तर्वीपज मनुष्य कहते हैं। जो कर्मभूमियों में चक्रवर्ती, बलदेव आदि के कटक के मल, मूत्र, कफ, नाक, कान और दन्त-मल युक्त अपवित्र स्थानों में सम्मूर्छन-जन्म से जन्म लेकर शीघ्र ही मर जाते हैं, ये अपर्याप्तक ही होते हैं और इनके शरीर की अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें-भाग प्रमाण ही होती है, ऐसे मनुष्यों को सम्मूछेनज मनुष्य कहते प्रश्न - किस-किस की उत्तरोतर उर्त है और क्यों ? उत्तर - इस संसार में मनुष्य भव की प्राप्ति दुर्लभ है क्योंकि मनुष्य अल्पसंख्यक हैं। मनुष्य भव में भी उच्च जाति एवं उच्च कुल में जन्म अधिक दुर्लभ है। उच्च कुल में भी कई जीव गर्भ में, कोई बाल्य अवस्था में ही मर जाते हैं अत: दीर्घायु दुर्लभ है। दीर्घायु में भी अधिकांश मनुष्य हीनांग, अधिकांग, अंधे, गूंगे एवं बहरे होते हैं अतः इन्द्रियों की पूर्णता प्राप्त करना दुर्लभ है, इसके होने पर भी शारीरिक बल की प्राप्ति दुर्लभ है। यह होने पर भी सत्य बोलने की प्रवृत्ति का प्राप्त होना दुर्लभ है, इस पर भी ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न हिताहित के विवेक में समर्थ बुद्धि की प्राप्ति होना दुर्लभ है। इसके बिना प्राप्त भी मनुष्य भव उसी प्रकार निरर्थक है जैसे नेत्र बिना मुख और यथार्थता से रहित वचन व्यर्थ हैं। बुद्धि प्राप्त हो जाने पर भी श्रद्धा सहित आप्त वचनों को श्रवण करने की वाँछा जाग्रत होना अतिदुर्लभ है और इस वाँछा के बिना प्राप्त बुद्धि भी कमल रहित सरोवर के सदृश निष्फल है। उन वचों पर श्रद्धा दृढ़ होना दर्शनमोह के उदय के कारण अति दुर्लभ है। श्रद्धा सहित सुन लेने पर भी उसे ग्रहण एवं धारण कर लेना अतिदुर्लभ है। धारण किये हुए के अनुसार उस मार्ग में प्रवृत्त हो जाना अतिदुर्लभ है क्योंकि शारीरिक अनुकूलता एवं उत्तम गुरु की प्राप्ति के साथ-साथ चारित्रमोहनीय का उदय न होना आवश्यक है। इसकी प्राप्ति हो जाने पर भी बोधिरत्न की प्राप्ति होकर उसका मरण पर्यन्त स्थिर रहना अत्यधिक दुर्लभ है। जीवघात से हुए दोष का माहात्म्य देवैरकं वृणीष्व त्वं, त्रैलोक्य-जीवितव्ययोः। इत्युक्तो जीवितं मुक्त्वा, त्रैलोक्यं वृणुतेऽत्र कः ॥८१६ ॥ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - २५६ त्रैलोक्येन यतो मूल्यं, जीवितव्यस्य जायते । जीव- जीवित- घातोऽतस्त्रैलोक्य- हननोपमः ॥ ८१७ ॥ अर्थ - तीनों लोक और जीवन इन दोनों में से तुम किसी एक को स्वीकार करो। ऐसा किसी देव के द्वारा कहे जाने पर कौन प्राणी अपना जीवन त्याग कर तीनों लोकों को ग्रहण करेगा ? अतः यह सिद्ध हुआ कि प्रत्येक प्राणी के जीवन का मूल्य तीन लोक है, अतः जीवघात करने वाले को तीनों लोकों के घात करने सदृश दोष होता है ।।८१६-८१७॥ अर्थ - जैसे विशाल अन्य कोई प्राप्य दुर्लभ संतत्या, श्रामण्यं सुख-साधकम् । एकाग्र मानसो रक्ष, निधानमिव सर्वदा ।।८१८ ॥ अर्थ - परम्परा से मिले हुए उस दुर्लभ सुख के साधनभूत मुनिपने को प्राप्त करके हे क्षपक ! एकाग्र मन होकर निधि के समान तुम इसी की सदा रक्षा करना ||८१८ ॥ अल्पं यथाणुतो नास्ति, महदाकाशतो यथा । अहिंसाव्रततो नास्ति, तथा परमुरुव्रतम् ।।८१९ ॥ अणु से छोटा और आकाश से बड़ा अन्य कोई द्रव्य नहीं है, वैसे ही अहिंसा व्रत से नहीं है ।।८१२ ।। पर्वतेषु यथा मेरुश्चक्रवर्ती यथा नृषु । जीव- रक्षाव्रतं सारं, सर्वस्मिन्नपि व्रते तथा ॥। ८२० ॥ अर्थ - जैसे सब पर्वतों में सारभूत श्रेष्ठ पर्वत सुमेरु है और मनुष्यों में महान् चक्रवर्ती है, वैसे ही सर्व व्रतों में श्रेष्ठ व्रत अहिंसाव्रत है || ८२० ॥ अहिंसा व्रत सब व्रतों का आधार है। यथाकाशे स्थितो लोको, धरण्यां द्वीप-सागराः ! सर्व व्रतानि तिष्ठन्ति, जीवत्राण-व्रते तथा ॥। ८२१ ।। अर्थ - जैसे यह लोक आकाश के आधार और सर्व द्वीप समुद्र पृथिवी के आधार स्थित हैं, वैसे ही सर्व व्रत अहिंसाव्रत के आधार पर स्थित हैं ॥ ८२१ ॥ यथा तिष्ठन्ति चक्रस्य, न तुम्बेन विनारकाः । एतैर्विना न तिष्ठन्ति यथा चक्रस्य नेमयः ॥८२२ ॥ तथा शीलानि तिष्ठन्ति, न विना जीवरक्षया । तस्याः शीलानि रक्षार्थं, सस्यादीनां यथा वृतिः ॥ ८२३ ॥ अर्थ - जैसे चक्र के आरे तुम्बी बिना नहीं ठहरते और आरों के बिना नेमि अर्थात् धुरा नहीं ठहरती, Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - २५७ वैसे ही अहिंसा व्रत के बिना सब शील नहीं ठहरते। जैसे धान्य की रक्षा हेतु बाड़ होती है, वैसे ही अहिंसाव्रत की रक्षा के लिए शीलव्रतों का पालन है।।८२२-८२३ ।। व्रत शीलं तपो दानं, नैन्थ्यं नियमो गुणः। सर्वे निरर्थकाः सन्ति, कुर्वतो जीव-हिंसनम् ॥८२४ ॥ अर्थ - जीवहिंसा में तत्पर मनुष्य के व्रत, शील, तप, दान, मुनिपद, नियम एवं गुण, ये सभी निरर्थक हैं अर्थात् मुक्ति के उपायभूत संवर-निर्जरा रूप फल नहीं देते ॥८२४ ।। आश्रमाणां मतो गर्भः, शास्त्राणां हृदयं परम्। पिण्डं नियम-शीलानां, समतानामहिंसनम् ॥८२५।। अर्थ - सब आश्रमों का गर्भ, सब शास्त्रों का हृदय तथा नियम, शील और समता का पिण्ड यह अहिंसा ही है ।।८२५॥ असूनृतादिभिर्दुःखं, जीवानां जायते यतः। परिहारस्ततस्तेषां, अहिंसाया गुणोऽखिलः ॥८२६॥ अर्थ - असत्य, चोरी, मैथुन एवं परिग्रह आदि पापों से जीवों को दुख होता है, अतः उन सबका त्याग किया जाता है। पापों के त्याग से जो सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह आदि गुण हैं वे अहिंसा के ही गुण हैं ॥८२६ ।। गो-स्त्री-ब्राह्मण-बालानां, धर्मो यद्यस्त्यहिंसनम् । न तदा परमो धर्मः, सर्व-जीवदया कथम् ॥८२७ ।। अर्थ - यदि गौ, स्त्री, ब्राह्मण एवं बालकों के वध मात्र से निवृत्ति उत्कृष्ट धर्म है तब सब प्राणियों पर दया करना परम धर्म क्यों नहीं है? अवश्यमेव है ।।८२७ ।। सर्वैः सर्वे समं प्राप्ताः, सम्बन्धा जन्तुभिर्यतः। सम्बन्धिनो निहन्यन्ते, ततस्तान्निघ्नता ध्रुषम् ।।८२८॥ अर्थ - सब जीवों के साथ सब जीवों के सब प्रकार के सम्बन्ध पूर्व भवों में रह चुके हैं, तब उन जीवों को मारने वाला नियमतः अपने सम्बन्धियों को ही मारता है, ऐसा सिद्ध होता है॥८२८ ॥ आत्मघातोऽङ्गिनां घातो, दया तस्यात्मनो दया। विषकाण्ड इव त्याज्या, हिंसातो दुःख-भीरुणा ॥८२९ ।। अर्थ - जीवों का घात अपना ही घात है और जीवों पर की गई दया अपने पर ही की गई दया है, अत: हिंसा सम्बन्धी दुखों से भयभीत मनुष्यों को विषैले काँटे के सदृश हिंसा करना छोड़ देना चाहिए ॥८२९॥ उद्वेगं कुरुते हिंस्रो, जीवानां राक्षसो यथा। सम्बन्धिनोऽपि नो तस्य, विश्वासं जातु कुर्वते ॥८३०॥ - - - - . _. ....._ Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - २५८ अर्थ - जो दूसरों का घात करने में तत्पर रहते हैं उनसे मनुष्य वैसे ही डरते हैं जैसे राक्षस से । उस हिंसक पर उसके सम्बन्धी जन भी विश्वास नहीं करते ॥ ८३० ॥ इह बन्धं वधं रोधं, यातनां देश - धाटनम् । हिंस्रो वैरमभोग्यत्वं, लब्ध्वा गच्छति दुर्गतिम् ॥। ८३१ ।। अर्थ - जीवों की हिंसा करने वाला इसी जन्म में बन्धन, वध, कारागृह, शारीरिक एवं मानसिक यातनाएँ, देश-निष्कासन, वैर और जातिच्युत आदि दण्ड भोगकर अन्त में दुर्गति को प्राप्त होता है ।।८३१ ।। यतो रुष्टः परं हत्वा कालेन म्रियते स्वयम् । हत इन्त्रोस्ततो नास्ति, विशेषस्तं क्षणं बिना ।।८३२ ।। अर्थ - क्रोधित होकर जो मनुष्य दूसरों को मारता है, समय आ जाने पर वह स्वयं किसी एक दिन मरण को प्राप्त हो जाता है, अतः मारने वाले और मरने वाले में काल के अतिरिक्त अन्य कोई विशेषता नहीं है। अर्थात् जिसे मारा वह पहले मरा और मारने वाला पीछे मरा, और कुछ नहीं ॥ ८३२ ।। अल्पायुदुर्बलो रोगी, विरूपों विकलेन्द्रियः । दुष्टगन्ध-रस - स्पर्शो, जायतेऽमुत्र हिंसकः ||८३३ ॥ अर्थ - हिंसक प्राणी जन्मान्तर में अल्पायु, दुर्बल, रोगी, विरूप, विकल-इन्द्रिय, दुर्गन्धयुक्त, बुरे रस और कर्कश स्पर्श वाला होता है || ८३३ ॥ - एकोऽपि हन्यते येन, शरीरी - भव- कोटिषु । म्रियते मार्यमाणोऽङ्गी, विधानैर्विविधैरसौ ||८३४ ॥ अर्थ- जो प्राणी एक भी जीव को मारता है, वह करोड़ों जन्मों में परवश होकर अनेक प्रकार से मारा जाकर मरता है || ८३४ || दुर्ग यानि दुःखानि दुःसहानि शरीरिणाम् । हिंसा - फलानि सर्वाणि, कथ्यन्ते तानि सूरिभिः ||८३५ ॥ अर्थ संसारी प्राणियों को दुर्गतियों में जो-जो दुःसह दुख भोगने पड़ते हैं वे सब हिंसा के ही कटु फल हैं, ऐसा आचार्यों ने कहा है ||८३५ ॥ हिंसा का लक्षण हिंसातोऽविरतिहिंसा, यदि वा वध-चिन्तनम् । यतः प्रमत्ततायोगस्ततः प्राण-वियोजकः ॥ ८३६ ॥ अर्थ - हिंसा से विरत न होना ही हिंसा है। अर्थात् "मैं प्राणियों का घात नहीं करूँगा " ऐसा संकल्प न करना हिंसा है। अथवा "मैं मारूँ" ऐसा चिन्तन करना हिंसा है, क्योंकि अविरति आदि प्रमत्तयोग ही प्राणों का वियोगज अर्थात् घातक है ||८३६ ॥ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकाण्डका - २५९ प्रश्न - प्रमाद कितने और कौन-कौन से होते हैं ? तथा हिंसा का क्या लक्षण है ? उत्तर - चार विकथा, चार कषाय, पंच इन्द्रियों की आधीनता, निद्रा और स्नेह, ये पन्द्रह प्रकार के प्रमाद हैं। ये पन्द्रह प्रकार के प्रमाद अपने भाव प्राणों के और दूसरों के द्रव्य प्राण एवं भावप्राणों के घातक होते हैं अत: इन्हें भी हिंसा कहा है। . अथवा रागी, द्वेषी एवं मुढात्माएँ जो-जो कार्य करती हैं वह सब हिंसा है, वहाँ प्राणियों के प्राणों का घात हो भी और न भी हो। कारण कि प्रमाद परिणत आत्मा ही स्वयं हिंसा है और अप्रमत्तात्मा अहिंसक है। हिंसा सम्बन्धी क्रियाओं के भेद द्वैषिकी कायिकी प्राणघातिकी पारितापिकी। क्रियाधिकरणी चेति, पञ्च हिंसा-प्रसाधिकाः ॥८३७ ॥ अर्थ - इष्ट स्त्री एवं धन-हरण आदि के निमित्त उत्पन्न होने वाला क्रोध प्रद्वेष है। इस द्वेषयुक्त क्रिया को द्वेषिकी क्रिया कहते हैं। दुष्टता पूर्वक शरीर की क्रिया करना कायिकी क्रिया है, प्राणघातक क्रिया प्राणघातिकी क्रिया है, पर को सन्ताप देने वाली क्रिया पारितापिकी क्रिया है और हिंसा के उपकरणों का लेन-देन करना क्रियाधिकरिणी क्रिया है। ये पाँचों क्रियाएँ हिंसा-प्रसाधिका हैं ।।८३७ ।। हिंसा त्रिभिश्चतुर्भिश्च, पञ्चभिः साधयन्ति ताः । क्रिया बन्धः समानेन, द्वैषिकी कायिकी क्रिये ।।८३८॥ अर्थ - द्वैषिकी आदि पाँचों क्रियाएँ मन, वचन और काय, इन तीर योगों द्वारा, क्रोधादि चार कषायों द्वारा और स्पर्शनादि पाँच इन्द्रियों द्वारा हिंसा को साध लेती हैं या सिद्ध करा लेती हैं। यदि द्वैषिकी एवं कायिकी आदि क्रियाएँ मनुष्य एक सदृश परिणामों से करता है तो इस हिंसा से होने वाला कर्मबन्ध समान होता है और क्रियाओं की प्रक्रियाएँ एवं परिणाम असमान होने पर कर्मबन्ध भी असमान होता है अर्थात् तीव्र, मध्यम या मन्दरूप परिणामों से तीव्र, मध्यम या मन्द बन्ध होता है ।।८३८॥ अधिकरण के भेद प्रभेद जीवाजीव-विकल्पेन, तत्राधिकरणं द्विधा । शतमष्टोत्तरं पूर्व, द्वितीयं च चतुर्विधम् ।।८३९ ।। अर्थ - हिंसा के अधिकरण दो हैं। एक जीवाधिकरण और दूसरा अजीवाधिकरण । उनमें जीवाधिकरण एक सौ आठ भेद वाला है और दूसरा अजीवाधिकरण चार प्रकार का है ।।८३९ ॥ प्रश्न - यहाँ अधिकरण में जीव और अजीव कहने का क्या अभिप्राय है ? उत्तर - केवल जीव द्रव्य हिंसा में सहायक नहीं होता, किन्तु जीव की पर्याय सहायक होती है अर्थात् जीव का हिंसादियुक्त परिणाम हिंसा का अभ्यन्तर कारण होता है, मात्र जीव द्रव्य नहीं। इसी प्रकार अजीव शब्द से अजीव द्रव्य की वह पर्याय ग्रहण करना जो हिंसा में सहयोगी हो रही है, इसीलिए हिंसात्मक क्रियाएँ क्वचित्-कदाचित् होती हैं, सदा काल नहीं। अजीव द्रव्य तो सदा विद्यमान रहता Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणण्डिका - २६० है अतः सदा कार्य होते रहने का प्रसंग प्राप्त हो जायगा, किन्तु पर्याय अपने-अपने कारणों के होने पर ही होती है अतः वह कदाचित् ही सहायक होती है। जीवाधिकरण के भेद विधिना योग-कोपादि-संरम्भादि-कृतादयः । भिदा भवन्ति पूर्वस्य, गुण्यमानाः परस्परम् ।।८४० ।। अर्थ - मनोयोग, वचन योग, काय योग, क्रोध, मान, माया और लोभ, संरम्भ, समारम्भ, आरम्भ एवं कृत, कारित और अनुमोदना इन सबका परस्पर में गुणा करने पर जीवाधिकरण के एक सौ आठ भेद होते हैं ।।८४०॥ प्रश्न - संरम्भ, समारम्भ एवं आरम्भ ये तीनों इसी क्रम से प्रयुक्त होते हैं या अन्य प्रकार हैं ? उत्तर - चेतनात्मा की कोई भी क्रिया अर्थात् व्यापार प्रयत्नपूर्वक ही होता है अत: सर्व प्रथम संरम्भ कहा गया है, क्योंकि प्रमादयुक्त प्राणी, प्राणघात आदि के लिए जो प्रयत्न अर्थात् चिन्तनादि करता है उसे संरम्भ कहते हैं। हिंसा आदि साध्य क्रिया के साधनों को एकत्रित करना समारम्भ है, क्योंकि साधनों के अभाव में चिन्तित कार्य सम्पन्न नहीं हो सकते अत: संरम्भ के बाद समारम्भ कहा गया है। साधनों का संचय हो जाने पर कार्य प्रारम्भ कर देना, यह आरम्भ है। किसी भी कार्य को सम्पन्न करने की यही विधि है अत: इन तीनों का उपयोग इसी क्रम से होता है। इन तीनों को योग, कषाय एवं कृत, कारित और अनुमति से गुणा कर देने पर जीवाधिकरण के एक सौ आठ भेद होते हैं। संरम्भोऽकथि संकल्पः, समारम्भो वितापकः । शुद्ध-बुद्धिभिरारम्भः, प्राणानां व्यपरोपकः ।।८४१।। अर्थ - शुद्ध बुद्धि वाले गणघरादि देव हिंसादि कार्य करने के पूर्व मात्र संकल्प को संरम्भ कहते हैं। सन्ताप देने को समारम्भ कहते हैं और कार्य प्रारम्भ कर देने को आरम्भ कहते हैं। यह आरम्भ प्राणों के घात रूप होता है ||८४१॥ अजीवाधिकरण के भेद-प्रभेद निर्वर्तना सनिक्षेपा, संयोगः सनिसर्गकः। द्वि-चतुर्द्धि-त्रि-भेदा:, स्युद्धितीयस्य यथा-क्रमम् ।।८४२ ।। अर्थ - अजीवाधिकरण के चार भेद हैं निर्वर्तना, निक्षेप, संयोग या संयोजना और निसर्ग । क्रमानुसार निर्वर्तना के दो भेद, निक्षेप के चार भेद, संयोजना के दो भेद और निसर्ग के तीन भेद होते हैं ।।८४२ ।। निर्वर्तनोपधि हो, दुःप्रयुक्तोऽभिधीयते। निक्षेपः सहसा-दृष्ट-दुर्दृष्टाप्रत्यवेक्षणौ ॥८४३॥ अर्थ - उपधि निर्वर्तना और शरीर निर्वर्तना के भेद से निर्वर्तना के दो भेद हैं। सहसा निक्षेप, अदृष्ट निक्षेप, दुर्दष्ट निक्षेप और अप्रत्यवेक्षण निक्षेप के भेद से निक्षेप चार प्रकार का है।८४३ ।। Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - २६१ आहारोपधि-भेदेन, द्विधा संयोजनं मतम्। दुःसृष्टाः स्वान्त-वाकाया, निसर्गस्त्रि-विधो मतः ।।८४४॥ अर्थ - आहार-पान संयोग और उपधि संयोग के भेद से संयोग दो प्रकार का है तथा मन की दुष्प्रवृत्ति, वचन की दुष्प्रवृत्ति और कार्य की दुष्प्रवृत्ति के भेद से निसर्म के तीन भेद हैं।1८४४ ।। प्रश्न - निर्वर्तनाधिकरण आदि के क्या-क्या लक्षण हैं ? उत्तर - आस्रव के मुख्यतः दो आधार हैं। जीवाधिकरण और अजीवाधिकरण। जीव के भावों एवं क्रियाओं के आधार से जो आस्रव होता है वह जीवाधिकरण है और अजीव की क्रिया के आधार से जो आस्रव होता है वह अजीवाधिकरण है। जीवाधिकरण के संरम्भ आदि एक सौ आठ भेद पुण्यानव एवं पापासव इन दोनों के लिए हेतु हैं किन्तु अजीवाधिकरण के निर्वर्तनादि भेद-प्रभेद पापासव के ही हेतु हैं। यथा - उपधिनिर्वर्तना: जिनके द्वारा जीवों को बाधा हो ऐसे छिद्र वाले उपकरणों का निर्माण करना । या जिन उपकरणों के निर्माण में ही जीवों का घात होता है उसे उपधि निर्वर्तना कहते हैं। शरीर निर्वर्तना-शरीर से असावधानी पूर्वक प्रवृत्ति करना। या शरीर की दुष्ट कार्यों में प्रवृत्ति होना शरीर निर्वर्तना है। रखने को निक्षेप कहते हैं। इसके चार भेद हैं - सहसा निक्षेप - उपकरण या पुस्तक आदि या शारीर का मल आदि भय से अथवा अन्य किसी कारणान्तर से सहसा रख देना या शीघ्रता से त्याग करना सहसा निक्षेप है। अदृष्ट निक्षेप - उपकरण आदि को बिना देखे ही पृथ्वी आदि पर शीघ्रता से रख देना, अदृष्ट निक्षेपाधिकरण है। दुर्दृष्ट निक्षेप - उपकरणादि को असावधानी से या दुष्टता पूर्वक पृथ्वी आदि को साफ करके रखना। या वे उपकरणादि दुष्टता पूर्वक साफ करके रखना, दुर्दृष्ट निक्षेपाधिकरण है। अप्रत्यवेक्षण निक्षेप - बिना देखे सीधे ही वस्तु रख देना। अथवा स्थान की सफाई करने के पश्चात् पुनः उस स्थान को देखे बिना वस्तु रख देना अप्रत्यवेक्षण निक्षेपाधिकरण है। आहार-पान संयोग - आहार और पान का परस्पर इस प्रकार मिलाना जिसमें जीव-बाधा हो। एक जल में दूसरा जल या एक भोजन में दूसरा भोजन मिलाना या भोजन में पेय आदि मिलाना। या उष्ण जल में ठण्डा जल मिलाना, या उष्ण भात में ठण्डी छाछ मिलाकर खाना या उबलती हुई खिचड़ी या दाल में ठण्डा जल डाल देना। यह सब आहार-पान संयोगाधिकरण है। यहाँ इतना विशेष जानना कि जिस पेय या भोजन में सम्मूर्छन जीव होते हैं या जिला की लोलुपता होती है वहाँ यह सम्मिश्रण हिंसा का अधिकरण स्वीकार किया गया है, सर्वत्र नहीं। उपधि संयोग - पीछी, कमण्डलु एवं पुस्तकादि उपकरणों का इस प्रकार संयोग करना जिससे जीवों Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - २६२ को बाधा हो। जैसे शीत स्पर्श वाली पुस्तक या कमण्डलु आदि को धूप से तप्त पीछी द्वारा संमार्जन कर लेना उपधि संयोगाधिकरण है। निसर्गाधिकरण - मन, वचन और काय की दुष्टता पूर्वक की हुई प्रवृत्ति को निसर्गाधिकरण कहते अहिंसा की रक्षा के उपाय नास्तीन्द्रिय-सुखं किञ्चिज्जीव-हिंसां विना यतः। निरपेक्षस्ततस्तस्मिन्नहिंसां पाति पावनीम् ॥८४५॥ अर्थ - यत: छह काय के जीवों की हिंसा के बिना इन्द्रियजन्य सुख की प्राप्ति नहीं होती। नाना प्रकार के स्त्री, वस्त्र, गन्ध, माला एवं हार आदि का सेवन जीवों को पीड़ादायक ही होता है क्योंकि इनकी प्राप्ति बहुत आरम्भपूर्वक होती है। अतः जो इन्द्रियसुख की अपेक्षा नहीं करता, अर्थात् उस सुख से एकदम निरपेक्ष है वही साधु पवित्र अहिंसा का पालन कर सकता है, इन्द्रिय-सुखाभिलाषी नहीं ।।८४५ ।। कषाय-कलुषो यस्माज्जीवानां कुरुते वधम्। निःकषायो यतिस्तस्मादहिंसा-रक्षण-क्षमः ॥८४६ ॥ अर्थ - जिस प्रकार कषाय से कलुषित चित्त वाला व्यक्ति जीवों का वध करता है, उसी प्रकार ऋषायरहित मुनि अहिंसा के पालने में समर्थ माना जाता है ।।८४६ ।। शयनासन-निक्षेप-ग्रह-चङ्क्रमणादिषु।। सर्वत्राप्यप्रमत्तस्य, जीव-त्राणं व्रतं यतेः ।।८४७।। अर्थ - शयन, आसन, उपकरणों को रखने, उठाने, ग्रहण करने, उठने एवं चलने आदि में जो दयालु साधु सर्वत्र यत्नाचारपूर्वक प्रवृत्ति करता है वह अहिंसक होता है ।।८४७ ।। विवेक-नियताचार-प्रासुकाहार-सेविनि। मनोवाक्कायगुप्तेऽस्ति, दयावतमखण्डितम् ॥८४८ ॥ अर्थ - जो मुनि विवेकपूर्वक आचरण करता है, प्रासुक आहार का सेवन करता है तथा काय को वश में रखता है उस मुनिराज में दयाव्रत अखण्डित माना जाता है ।।८४८ ॥ आरम्भेऽङ्गि-वधे-जन्तुरप्रासुक-निषेवणे। प्रवर्ततेऽनुमोदे च, शश्वज्ज्ञान-रतिं विना ।।८४९।। अर्थ - जिस जीव की ज्ञान में सतत रति नहीं होती, वह आरम्भ में, प्राणी-वध में, अप्रासुक आहार में स्वयं प्रवृत्ति करता है एवं इनमें प्रवृत्त होने वाले जीवों की अनुमोदना करता है ।।८४९ ।। मुनिनानिच्छत्ता लोके, दुःखानि धृतये सदा। उपयोगो विधातव्यो, जीवनाण-व्रते परः ।।८५०।। Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - २६३ अर्थ - इस लोक में जो मुनि दुखों को नहीं चाहता है, उस मुनि को धैर्यपूर्वक सदा ही अहिंसाव्रत में उपयोग लगाना चाहिए।८५० ।। छन्द-शालिनी अप्येकाहर्व्यापकेन प्रकृष्टः, प्राप्तः पाणः प्रातिहार्य सुरेभ्यः। एकेनैव प्राणिरक्षा-व्रतेन, क्षिप्तः क्रूरोऽनेक-नक्रौघ-मध्ये १८५१ ।। अर्थ - यमपाल नामक चाण्डाल एक दिन के प्राणीरक्षा - व्रत से देवों द्वारा प्रतिहार्य को प्राप्त हुआ था और एक ही हिंसा से क्रूर राजपुत्र अनेक नक्रों से युक्त जलाशय में फेंका गया था ।।८५१।।। __* यमपाल चांडालकी कथा - पोदनपुरमें राजा महाबल रहता था। एक बार उसने समस्त नगरमें नंदीश्वर पर्वमें आठ दिन के लिए जीवघात एवं मांसनिषेध घोषित किया। एक दिन राजाके पुत्र ने ही मेंढ़े को मारकर खा लिया क्योंकि वह मांसलोलुपी था। उसके कृत्यका जब ग़जाको पता चला तब उसने उसे कठोर प्राण दण्डकी सजा दी। न्यायप्रिय राजाका न्याय सचमुचमें सबके लिये समान होता है। कुमारको वधस्थान पर ले जानेको कहा और चांडालको मारनेके लिए बुलाया गया, वह दिन चतुर्दशी तिथिका था, यमपालने एक मुनिसे चतुर्दशीके दिन हिंसा नहीं करने का नियम लिया था। उसने अपने नियमपर अडिग रहते हुए फांसी देनेको मना करते हुए कहा कि मेरा आज अहिंसाव्रत है मैं यह काम नहीं कर सकता। राजाको क्रोध आया। राजाने कहा कि इन दोनोंको ले जाकर शिशुमार तालाब में पोटली बाँधकर फेंक दो। राजाज्ञा के अनुसार कर्मचारियों ने दोनों की पृथक्-पृथक् पोटली बाँधकर तालाब में डाल दी। यमपाल के अहिंसाव्रत के प्रभाव से उसको देवों ने जल से निकालकर सिंहासन पर बिठाया और उसके अहिंसा व्रतमें दृढ़ रहनेकी भूरि-भूरि प्रशंसा की। जो पापी मांसलोलुपी राजकुमार था, उसको तो सब मगरमच्छ खा गये। इसप्रकार एक दिनके अहिंसाव्रतसे चांडाल बड़ी भारी विभूति और आदरको प्राप्त हुआ तो जो विधिपूर्वक पूर्ण अहिंसाव्रत का पालन करेगा, उस मुनि के विषय में क्या कहना ? वह तो निर्वाण प्राप्त करता ही है। छन्द-वंशस्थ परां सपर्या ददती निरत्यये, निवेशयन्ती बुधयाचिते पदे । करोत्यहिंसा जननीव पालिता, सुखानि सर्वाणि रजांसि धुन्वती॥८५२॥ इति अहिंसामहाव्रतम्॥ अर्थ - यह अहिंसारूप जननी श्रेष्ठ पूजा को देती है, बुधजनों द्वारा याचित अविनाशी पद में प्रवेश कराती है और पापों का नाश कराती हुई सर्व सुखों को करती है। इस प्रकार अहिंसा का पालन करने पर इच्छित फल मिलते हैं।।८५२॥ इस प्रकार अहिंसा महाव्रत का वर्णन पूर्ण हुआ। Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ- हे साधो ! तुम मन, वचन, काय से चार प्रकार के असत्य का त्याग करो । संयम को धारण भी यह जीव असत्यरूप भाषादोष से कर्म द्वारा बाधित होता है। अर्थात् अहिंसा का पालन करने पर . भी यदि असत्य बोलता है तो उसके कर्मबन्ध अवश्य होता है || ८५३ ॥ करते हुए मरणकण्डिका - २६४ सत्य महाव्रत का वर्णन मुञ्चासत्यं वच: साधो !, चतुर्भेदमपि त्रिधा । संयमं विदधानोऽपि, भाषा- दोषेण बाध्यते ।। ८५३ ।। प्रश्न- कर्मबन्ध के कारण तो मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योगरूप आत्मपरिणाम हैं और वचन आत्मपरिणाम है नहीं तो पुद्गल की है फिर असत्यवचन-त्याग का उपदेश क्यों ? उत्तर - " कारण बिना कार्य नहीं होता" इस नीत्यनुसार यहाँ मिथ्यात्व आदि को पुष्ट करने वाले या संयम से च्युत करने वाले आत्मपरिणाम कारण हैं और वचन उस आत्मपरिणाम के कार्य हैं अतः यहाँ कार्यरूप असत्य वचन के त्याग का अभिप्राय कारणरूप तज्जन्य आत्मपरिणाम का भी त्याग हो जाना है। - चार भेदों में सद्भूत अर्थात् विद्यमान का निषेध करना प्रथम असत्य वचन अर्थ असत् वचन है । जैसे मनुष्य का अकालमरण नहीं होता इत्यादि । आगम में मनुष्य के अकालमरण का कथन विद्यमान है और यह वचन उसका अपलाप करता है अतः 'सत् निषेध' नामक प्रथम असत्य है || ८५४ ॥ 'अभूत उद्भावक' असत्यवचन 'सनिषेध' असत्य वचन प्रथमं तद्वचोऽसत्यं यत् ततः प्रतिषेधनम् । अकाले मरणं नास्ति, नराणामिति यद्वचः ॥८५४ ॥ कलशोऽस्तीति यद्भूते, द्रव्यादीनां चतुष्टयम् । अपर्यालोच्य यत्प्रोक्तमभूतोद्भावकं जिनैः ।। ८५५ ॥ अर्थ- द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव इस चतुष्टय की अपेक्षाओं का विचार किये बिना ही घट पहले था उसे वर्तमान में विद्यमान है ऐसा कहना 'अभूत उद्भावक' नामक दूसरा असत्य वचन है, ऐसा जिनेन्द्र ने कहा है ।। ८५५ । - प्रश्न जो घट पहले था उसे वर्तमान में विद्यमान कहना असत्य क्यों है ? उत्तर - कोई भी वस्तु न सर्वथा सत् है और न सर्वथा असत् है, यह सिद्धान्त है । जो स्व द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा सत् है वही पर द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव की अपेक्षा असत् है। जैसे जो घट मिट्टी द्रव्य की अपेक्षा सत् है, वही स्वर्ण घट की अपेक्षा असत् है। जो घट इस क्षेत्र की अपेक्षा सत् है, वही घट अन्य क्षेत्र की अपेक्षा असत् है । जो घट वर्तमान काल की अपेक्षा सत् है वही अतीत एवं अनागत काल की अपेक्षा असत् है और जो घट स्व-स्वभाव की अपेक्षा सत् है, वही भावान्तर की अपेक्षा असत् है, अतः घट इस रूप से सत् है, इस रूप से असत् है ऐसा विचार किये बिना ही 'घट है' इस प्रकार घटको सर्वथा सत् कहना असत् का उद्भावन होने से असत्य ही है। Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - २६५ अथवा द्वितीयं तद्वचोऽसत्यमभूतोद्धावनं मतम्। अस्त्यकाले सुराणां च, मृत्युरित्येवमादि यत् ॥८५६ ।। अर्थ - 'देवों के अकालमरण होता है ऐसा कहना, अर्थात् जो नहीं है उसे 'है' कहना अभूत के उद्भावनरूप दूसरा असत्य है। आगम में देवों के अकालमरण का निषेध है फिर भी उसका अस्तित्व कहना असत्य है। ऐसे अन्य भी दृष्टान्त हैं ।।८५६।। 'अन्य का अन्य' कहना तृतीय प्रकार का असत्य है तृतीयं तमसय, यालालोसा भासते : पदार्थमन्य-जातीयं, गौ;जीत्येवमादिकम् ॥८५७। अर्थ - एक जाति की वस्तु को अन्य जाति की कहना, तीसरा असत्य है। जैसे बिना विचारे बैल को घोड़ा कहना। ऐसे अन्य उदाहरण भी समझना ।।८५७ ।। । सावधं गर्हितं वाक्यमप्रियं च मनीषिभिः । त्रि-प्रकारमिति प्रोक्तं, तुरीयकमसूनृतम् ॥८५८॥ अर्थ - मनीषियों ने चतुर्थ असत्य के तीन भेद कहे हैं। सावध वचन, गर्हित वचन और अप्रिय वचन ||८५८।। प्राणिघातादयो दोषाः, प्रवर्तते यतोऽखिलाः! सावधं तद्वचोज्ञेयं, षड्विधारम्भ-वर्णकम् ।।८५९ ।। अर्थ - जिस वचन से प्राणीवध आदि अखिलदोष उत्पन्न होते हैं वह सावध वचन है, जो षट्काय जीवों के आरम्भ का कथन करता है।।८५९ ॥ प्रश्न - 'षट्काय जीवों के आरम्भ' पद का क्या अभिप्राय है ? उत्तर - जिस आरम्भ में षट्काय जीवों का घात हो ऐसे आरम्भ करने वाले वचन बोलना। यथाआग जलाओ, फूल चुनो, इस बर्तन का पानी भैंस ने पी लिया है अतः इसे धोकर पुनः भरो, इत्यादि। चोर को चोर, काने को काना कह देना, तथा मेरा यहाँ बोलना योग्य है या नहीं, अथवा मेरे वचन सदोष हैं या निर्दोष, इसका विचार किये बिना ही बोल देना, ये सब सावध वचन हैं। कर्कशं निष्ठुरं हास्यं, परुषं पिशुनं वचः। ईर्ष्यापरमसम्बद्धं, गर्हितं सकलं मतम् ॥८६०॥ अर्थ - कर्कश अर्थात् घमण्डयुक्त, निष्ठुर, हास्य मिश्रित, परुष, चुगली, ईर्ष्या परक और असम्बद्ध वचन ये सब गर्हित वचन हैं ।।८६० ॥ अवज्ञा-कारणं वैरं, कलहं त्रास-वर्धकम्। अश्रव्यं कटुकं ज्ञेयमप्रियं वचनं बुधैः॥८६१॥ Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - २६६ अर्थ - अवज्ञाकारक, वैर-कलह एवं त्रास को बढ़ाने वाले वचन, नहीं सुनने योग्य वचन और कटुक वचन ये सब अप्रिय वचन हैं, ऐसा बुद्धिमान् जन कहते हैं ।।८६५॥ प्रश्न - इन अप्रिय वचनों के क्या लक्षण हैं ? । उत्तर - अवज्ञावचन - 'तुझे धिक्कार है' इत्यादि । वैर-उत्पन्नकारक वचन-जैसे तू गधा है, तुझे कुछ भी ज्ञान नहीं है, तेरे समान मूर्ख इस संसार में और कोई नहीं है, इत्यादि। कलहकारी वचन-जैसे 'अन्धों के अन्धे होते हैं जिससे महाभारत (युद्ध) हुआ | इत्यादि कलह उत्पन्न करने वाले या कलह को बढ़ानेवाले वचन । परुष वचन-जैसे तू अनेक दोषों का भण्डार है, इत्यादि मर्मच्छेदी वचन । कटु वचन-जैसे लगता है तू निंद्य जाति में उत्पन्न हुआ है, तू धर्मरहित है, तू पापी है', इत्यादि वचन। रागद्वेष-मद-क्रोध-लोभ-मोहादि-सम्भवम् । वितथं वचनं हेयं, संयतेन विशेषतः॥८६२।। अर्थ - राग, द्वेष, मद, क्रोध, लोभ और मोहादि से उत्पन्न हुआ असत्य वचन संयतजनों द्वारा विशेष रूप से त्याज्य है।।८६२ ।। सत्य वचन के लक्षण विपरीतं ततः सत्यं, काले कार्ये मितं हितम् । निर्भक्तादि-कथं ब्रूहि, तदेव वचनं शृणु ॥८६३ ।। अर्थ - हे क्षपक ! तुम उपर्युक्त असत्य वचनों से विपरीत सत्य वचन यथाकाल में और प्रयोजनवश ही हित-मित रूप से बोलो। तथा तुम स्वयं भोजनकथा आदि विकथाओं से रहित बोलो और ऐसे ही सत्य वचन सुनो।।८६३ ।। प्रश्न - श्लोक में आये हुए 'काले एवं कार्ये' आदि पदों का क्या अभिप्राय है। उत्तर - यहाँ काल का अर्थ है कि षड़ावश्यकों के समय के अतिरिक्त समय में वह भी अवसर देखकर ही बोलना चाहिए। कार्य का अर्थ है प्रयोजन । यथा-रत्नत्रय आदि की शिक्षा देने के लिए, असंयम का त्याग कराने के लिए या दूसरों को सन्मार्ग में प्रेरित या स्थापित करने के लिए सत्य वचन बोलना चाहिए। केवल अयोग्य या असत्य नहीं बोलना सत्यव्रत पालन नहीं है, अपितु विकथा आदि से वर्जित हित और मित बोलना तथा ऐसे ही विकथादि रहित वचन सुनना चाहिए, क्योंकि दूषित या असत्य भाषण अथवा वार्ता सुनने से अशुभ संकल्प होते हैं जिससे महान् कर्मबन्ध होता है। नरस्य चन्दनं चन्द्र-चन्द्रकान्तमणिर्जलम् । न तथा कुरुते सौख्य, वचनं मधुरं यथा ।।८६४ ।। अर्थ - हितकारी, परिमित और मधुर वचन मनुष्य को जैसा सुख देते हैं, वैसा सुख चन्दन, चन्द्रमा, चन्द्रकान्तमणि एवं जल नहीं देता है ।।८६४ ।। स्वकीये परकीये वा, धर्मकृत्ये विनश्यति। त्वमपृष्टो वदान्यत्र, पृष्ट एव सदा वद ।।८६५ ।। Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - २६७ अर्थ - हे यते ! अपना या दूसरों का धार्मिक कार्य नष्ट हो रहा हो तो तुम्हें बिना पूछे भी बोलना चाहिए किन्तु यदि ऐसा कोई धर्म-संकट न हो तो सदा पूछे जाने पर ही बोलना चाहिए ॥८६५ ।। गदन्ति ऋषयः सत्यं, यद्विद्या निखिलाः कृताः । तम्लेच्छस्यापि सिद्ध्यन्ति, सर्वदा सत्यवादिनः ॥८६६ ॥ अर्थ - ऋषिगण सत्य ही बोलते हैं अत: सर्व विद्याओं का विधान उन्हीं ने किया है। म्लेच्छ भी यदि सत्यवादी है तो उसे भी विद्याएँ सिद्ध हो जाती हैं।।।८६६ ।। दयते न हुताशेन, न निमज्जति वारिणि। धन्यः सत्य-बलोपेतो, नरो नद्यापि नोझ्यते।।८६७ ।। अर्थ - सत्यवादी मनुष्य को आग नहीं जलाती और पानी उसे नहीं डुबोता। जिसके पास सत्य का . बल है, वह धन्य है। उसे वेग वाली नदी भी बहाकर नहीं ले जाती है ।।८६७ । वश्या भवन्ति सत्येन, देवताः प्रणमन्ति च । विमोचन्ति सत्येन, ग्रहतः पान्ति च स्फुटम् ।।८६८।। अर्थ - सत्य से देवता वश में हो जाते हैं और नमस्कार करते हैं। सत्य से ग्रह पिशाच द्वारा पकड़ा हुआ मनुष्य भी छूट जाता है और उसकी रक्षा देव करते हैं ।।८६८ ॥ नरो मातेव विश्वास्यः, पूज्यो गुरुरिवाखिले । सत्यवादी प्रियो नित्यं, स्व-बन्धुरिव जायते ।।८६९।। अर्थ - सत्यवादी मनुष्य माता सदृश विश्वास योग्य, गुरु सदृश पूज्य एवं निज बन्धु सदृश सदा लोकप्रिय होता है।८६९॥ भाषमाणो नरः सत्यं, लभते प्रीतिमुत्तमाम् । बुधानन्दकरी कीर्ति, शशाङ्ककर-सुन्दराम् ।।८७०॥ अर्थ - सदा सत्य बोलने वाला मनुष्य जनता से उत्तम प्रीति प्राप्त करता है और विद्वानों को आनन्दित करने वाली चन्द्रकिरण सदृश सुन्दर कीर्ति भी प्राप्त कर लेता है ।।८७० ।। गुणानामालयः सत्यं, मत्स्यानामिव नीरधिः । प्रमाणमस्ति सत्येन, वर्जितोऽपि गुणैः परैः॥८७१॥ अर्थ - सत्य गुणों का आलय है। जैसे मत्स्यादि जलचर जीवों का आधार या स्थान समुद्र है, वैसे ही गुणों का आधार सत्य है। अन्य गुणों से रहित होने पर भी एक सत्य गुण मात्र से ही मनुष्य प्रमाणभूत माना जाता है।।८७१ ॥ सम्पद्यन्ते गुणाः सत्ये, संयमो नियमस्तपः। संयतोऽपि मृषावादी, जायते तृणतो लघुः ।।८७२ ।। Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - २६८ अर्थ - सत्य होने पर सर्वगुण प्राप्त हो जाते हैं और संयम, नियम एवं तप की सिद्धि हो जाती है, किन्तु यदि संयत भी मृषावादी है तो वह तृण से भी अधिक हीन हो जाता है ।।८७२।। मुण्डो जटी शिखी नग्नश्चीवरी जायतां नरः । विडम्बनाखिला सास्य, वितथं यदि भाषते ॥८७३॥ अर्थ - भले ही मनुष्य सिर का मुण्डन कराने वाला हो, जटाधारी हो, शिखाधारी हो, नग्नमुद्राधारी हो अथवा वस्त्रधारी हो, यदि वह झूठ बोलता है तो यह सब उसकी विडम्बना मात्र है ।।८७३ ।। कालकूटं यथान्नस्य, यौवनस्य यथा जरा । गुणानां विद्धि सर्वेषां, नाशकं वितथं तथा॥८७४।। अर्थ - जैसे कालकूट विष भोजन का विनाशक है और वृद्धावस्था यौवन की विनाशक है उसी प्रकार असत्य वचन सर्व गुणों का विनाशक है ।।८७४ ।। स्व-मातुरप्यविश्वास्यो, मृषाभाषण-लालसः। शेषाणां किमु लोकानां, न शत्रुरिव जायते ।।८७५ ।। अर्थ - जब असत्यभाषी मनुष्य माता का भी विश्वास-पात्र नहीं रहता, तब वह शेष जनों को शत्रु के समान क्यों नहीं प्रतीत होगा ? अवश्य प्रतीत होगा।।८७५ ।। एकेनासत्य-वाक्येन, सत्यं बलपि हन्यते । सर्वत्र जायते नित्यं, शङ्कितोऽसत्य-भाषकः ।।८७६ ॥ अर्थ - एक बार भी बोला गया झूठ वचन बहुत बार बोले गये सत्य वचनों का घात कर देता है। असत्यभाषी मनुष्य स्वयं सदा एवं सर्वत्र शंकित रहता है कि कहीं मेरा असत्य प्रगट न हो जाय ||८७६॥ अप्रत्ययो भयं वैरमकीर्तिमरणं कलिः। विषादो मत्सरः शोकः, सर्वेऽसत्यस्य बान्धवाः ।।८७७ ।। अर्थ - अविश्वास, भय, वैर, अकीर्ति, मरण, कलह, विषाद, मत्सर और शोक ये सब असत्य के बन्धुजन अर्थात् कुटुम्बी हैं॥८७७॥ आयास-रसनाछेद-सर्वस्व-हरणादयः । इहासत्येन लभ्यन्ते, परत्र नरकावनिः ।।८७८ ॥ अर्थ - असत्य बोलने से इस लोक में जिह्वाछेद एवं सर्वस्व-हरण आदि महाभयंकर कष्ट भोगने पड़ते हैं और परलोक में नरकगति की प्राप्ति होती है ।।८७८॥ कलिलस्थानव-द्वारं, वितथं कथितं जिनैः। निष्पापो हि वसुस्तेन श्रितेन नरकं गतः ॥८७९॥ Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20 मरणकण्डिका - २६९ अर्थ - जिनेन्द्रदेव असत्य को पापास्रव का द्वार कहते हैं। राजा वसु हृदय से निष्पाप था किन्तु इसका आश्रय लेने से अर्थात् असत्य का पक्ष लेने से नरक चला गया || ८७९ ॥ * राजा वसुकी कथा * स्वस्तिकावती नगरी में राजा विश्वावसु राज्य करता था। उसके पुत्रका नाम वसु था। वसु राजपुत्र, एक ब्राह्मणपुत्र नारद, ये क्षीरकदंब उपाध्यायके पास पढ़े थे, उपाध्यायका पुत्र पर्वत भी उन दोनोंके साथ पढ़ा, समय पर क्षीरकदंबने दीक्षा ली, राजा विश्वावसु ने भी दीक्षा ली। अब वसु, राजा बन गया। एक दिन पर्वत और नारदमें "अजैर्यष्टव्यं " इस शास्त्रवाक्य पर विवाद हुआ, पापी पर्वतने इस वाक्यका अर्थ बकरोंसे हवन करना अर्थात् पशुयज्ञ करना ऐसा किया और दयालु नारदने पुराने धान्योंसे हवन करना ऐसा किया। नारदका अर्थ करना बिलकुल सत्य था । पर्वतका कहना झूठा था। दोनों विवाद करते हुए राजा वसुके पास पहुँचे। दोनों ने अपनी बात रखी। यद्यपि राजा जान रहा था कि नारदका कहना सत्य है तो भी उसने पर्वत का पक्ष लिया क्योंकि वह पर्वतकी मातासे वचनबद्ध हुआ था कि मैं पर्वत के पक्ष में बोलूँगा । जब राजसिंहासन पर बैठे हुए बसु पर्वतका पक्ष लेकर झूठ बोलता है तो उस महापाप रूप असत्य भाषण से उसका सिंहासन पृथ्वीमें धँस गया और वसु वहाँ पर घुटकर तत्काल मरा और नरकमें चला गया। इसतरह असत्यके कारण वसुको घोर यातना भोगनी पड़ी। असत्य - वादिनो दोषाः, परत्रापि भवन्ति ते । मुञ्चतोऽपि प्रयत्नेन, मृषा-भाषादि दूषणम् ॥८८० ॥ अर्थ - असत्यवादी पुरुष परलोक में भी अविश्वास एवं असत्य आदि दोषों के अपवाद को प्राप्त होता है। भले उसने वहाँ असत्य, चोरी, कुशील और परिग्रह रूप दोषों का प्रयत्नपूर्वक त्याग कर दिया हो अर्थात् यहाँ असत्य भाषण करने से त्यागी हो जाने पर भी परलोक में उस पर झूठे आरोप आदि लगाये जाते हैं ॥८८० ॥ ये सन्ति वचनेऽलीके, दोषा दुःख - विधायिनः । त एव कथिता जैनैः, सकलाः कर्कशादिकाः ||८८१ ॥ अर्थ - असत्य वचन में जो दुखदायी दोष होते हैं, वे ही सब दोष कर्कश एवं कलह आदि रूप वचन बोलने से दोनों भवों में प्राप्त होते हैं, ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है | ८८९॥ असत्य - मोचिनो दोषा, मुञ्चन्ति सकला इमे । तद्विपक्षा गुणाः सर्वे, लभ्यन्ते बुध-पूजिताः ॥ २८२ ॥ अर्थ - असत्य त्यागी के पूर्वोक्त अविश्वास आदि सर्वदोष छूट जाते हैं। तथा उन दोषों से विपरीत ज्ञानी पुरुषों द्वारा पूजित सर्वगुण उसे प्राप्त हो जाते हैं ||८८२ ॥ भव-भय-विचयन - वितथ-विमोची, निरुपम सुखकर-जिनमत-रोची । परमं दवयति कलिलमशेषं वशयति मुनि-नुत खचन- - विशेषम् ॥१८८३ ।। इति सत्यमहाव्रतम् । Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - २७० अर्थ - जो संसार के भयसमूह रूप असत्य का त्यागी है एवं निरुपम सुखकर के निमित्तभूत जिनमत की रुचि रखता है वही सर्व पापों को नष्ट कर देता है और मुनियों द्वारा स्तुत्य वचन विशेष को वश में कर लेता है।।८८३ ।। इस प्रकार सत्यमहाव्रत का प्रकरण पूर्ण हुआ। अधौर्य महाव्रत का विवेचन बह्वल्पं च परद्रव्यमदत्तं मा गृहीत्रिधा ! व्रतस्य ध्वंसने शक्तं, दन्तानामपि शोधनम् ।।८८४ ॥ अर्थ - दन्तशोधन हेतु बिना दिये ग्रहण की हुई तृण-शलाका भी व्रत का नाश करने में समर्थ है। अतः हे साधो ! वस्तु अल्प हो या बहुत; तुम मन, वचन, काय से बिना दिया परद्रव्य ग्रहण मत करो॥८८४ ।। दूर-स्थितं फलं रक्तं, यथा तृप्तोऽपि मर्कटः । ग्रहीतुं धावते दृष्ट्वा, भूयो यद्यपि मोक्ष्यति ॥८८५॥ तथा निरीक्षते द्रव्यं, यद्यत्तत्तजिघृक्षति । जीवस्त्रिलोक-लाभेऽपि, लोभ-ग्रस्तो न तृप्यति ।।८८६ ॥ अर्थ - जैसे भरे हुए पेट के कारण तृप्त हुआ भी बन्दर दूरस्थित लाल फल को देखकर ग्रहण करने के लिये कूदता है, यद्यपि पीछे वह उसे छोड़ देगा ; वैसे ही लोभग्रस्त मनुष्य जो-जो वस्तु देखता है, उसउस को ग्रहण करना चाहता है, वह त्रिलोक का लाभ होने पर भी तृप्त नहीं होता ।।८८५-८८६ ।। यथा विवर्धते वातः, क्षणेन प्रथते यथा । प्रथते क्षणतो लोभस्तथा मन्दोऽपि देहिनः 11८८७ ।। __ अर्थ - जैसे मन्द-मन्द चलने वाली वायु क्षण में ही विस्तीर्ण हो जाती है, वैसे ही जीव का मन्द लोभ भी क्षण मात्र में तीव्र हो जाता है।८८७ ।। प्रवृद्धे च ततो लोभे, कृत्याकृत्याविचारकः । स्वस्थ मृत्युमजानानः, साहसं कुरुते परम् ।।८८८ ।। अर्थ - लोभ वृद्धिंगत हो जाने पर कृत्य-अकृत्य अथवा युक्त-अयुक्त को न विचारने वाला मनुष्य अपनी मृत्यु को भी नहीं जानता हुआ अति साहस के कार्य कर डालता है।।८८८॥ सर्वोप्यथ हृते द्रव्ये, पुरुषो गत-चेतनः। शक्ति-विद्ध इव स्वान्ते, सदा दुःखायते तराम्॥८८९॥ अर्थ - जैसे शक्ति नामक शस्त्र से विद्ध हुआ मनुष्य अत्यन्त दुखी होता है, वैसे ही धन चुराये जाने पर सभी मनुष्य मृत्यु जैसी अवस्था को प्राप्त हुए मन में सदा अत्यन्त दुख का वेदन करते रहते हैं ।।८८९ ।। द्रषिणे ग्रहिलीभूय, म्रियतेऽथ हृते नरः। हाकार-मुखरं क्षिप्रं, नृणामर्थो हि जीवितम् ॥८९० ।। Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - २७१ अर्थ - दूसरों के द्वारा धन चुराये जाने पर मनुष्य पागल हो जाता है, तथा हा-हा कार करता हुआ शीघ्र ही मर जाता है। अतः “धन ही मनुष्य के प्राण हैं" यह लोकोक्ति सत्य है ॥८९० ॥ विशन्ति पर्वतेऽम्भोधौ, युद्ध-दुर्ग-धनादिषु। त्यजन्ति द्रव्य-लोभेन, जीवितं बान्धवानपि ॥८९१॥ अर्थ - धन के लोभ से मनुष्य पर्वत, समुद्र, युद्ध, दुर्ग एवं वन आदि में प्रवेश करता है अर्थात् भटकता फिरता है। धन के लिए प्रियजनों को और अपने जीवन को भी छोड़ देता है अर्थात् मनुष्य को धन सबसे अधिक प्रिय है; उसके लिए वह अन्य सबको तो छोड़ ही देता है, अपने प्राण भी छोड़ देता है ।।८९१॥ विद्यमाने धने लोका, जीवन्ति सहबन्धुभिः। तस्मिन्नपहते तेषां, सर्वेषां जीवितं हृतम् ॥८९२ ।। अर्थ - धन होने पर मनुष्य स्त्री-पुत्रादि बन्धुजनों के साथ सुख-पूर्वक जीवन-यापन करता है। उस धन का हरण हो जाने पर मानों उन स्त्री-पुत्रादि बन्धुजनों का जीवन ही हर लिया जाता है।८९२ ।। न विश्वासो दया लज्जा, सन्ति चौरस्य मानसे । नाकृत्यं धन-स्लुब्धस्य, तस्य किञ्चन विद्यते ।।८९३॥ अर्थ - चोर के हृदय में विश्वास, दया एवं लज्जादि गुण निवास नहीं करते। धन का लोभी चोर धन के लिए कुछ भी कर सकता है, उसके लिए न करने योग्य कुछ भी नहीं है।।८९३॥ अपराधे कृतेऽप्यत्र, पक्षे लोकोऽपि जायते । बान्धवोऽपि न चौरस्य, पक्षे सन्ति कदाचन ।।८९४ ।। अर्थ - हिंसादि अन्य अपराध करने वाले के पक्ष में लोक कदाचित् हो भी जाते हैं, किन्तु चोर के पक्ष में बन्धु-बान्धव भी नहीं होते ।।८९४ ।। वितरन्ति जना: स्थानं, दोषेऽन्यत्र कृते सति। स्तेये पुनर्न मातापि, पुरुपातक-दायिनि ।।८९५ ॥ अर्थ - अन्य अपराध करने वाले को लोग स्थान देते हैं किन्तु अत्यधिक पापदायक चोरी करने वाले को माता भी आश्रय नहीं देती ।।८९५| द्रव्यापहरणं द्वारं पापस्य परमिष्यते । सर्वेभ्यः पापकारिभ्यः, पापीयांस्तस्करो मतः ॥८९६ ॥ अर्थ - पर-द्रव्य-हरण पाप आने का द्वार है। पशु-पक्षियों का घात करने वालों से और पर-स्त्रीगमन के प्रेमी जनों से भी चोर अधिक पापी होता है ॥८९६ ॥ आश्रयं स्वजनं मित्रं, दुराचारो मलिम्लुचः। सर्वं पातयते दोषे, दुष्षमे दुर्यशस्यपि ।।८९७ ।। - + Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - २७२ अर्थ - चोर का दुराचार अर्थात् चोरी रूप पाप बन्धु, मित्र एवं अपने आश्रित रहने वालों को भी धनहरण, वध, बन्ध आदि दोर्षों में डाल देता है। वे भी भारी अपयश और दुख के भागों होते हैं ॥८९७॥ वधं बन्धं भयं रोधं, सर्वस्व-हरणं मृतिम् । विषादं यातना लोके, तस्करो लभते स्वयम् ।।८९८ ॥ अर्थ - इस लोक में चोर स्वयं वध, बन्धन, भय, रोध, सर्वस्वहरण, मरण, विषाद एवं अनेक यातनाओं को प्राप्त होते हैं ॥८९८ ॥ शङ्कमानमना निद्रां, तस्करो जातु नाश्नुते । कुरङ्ग इव वित्रस्तो, वीक्षते सकला दिशः ।।८९९॥ अर्थ - पकड़े जाने की आशंका से चोर दिन-रात सोते नहीं हैं और हरिण के समान भयभीत होते हुए सापूर्ण दिशाओं को देखते रहते हैं ।।८९९ ।। आकर्ण्य मूषकस्यापि, शब्दं शङ्कितमानसः। धावते सर्वतः सद्यः, स्खलन्स्व-मरणाकुलः ।।१०।। अर्थ - चोर सदा ही शंकित मन होता हुआ चूहे के शब्द को सुनकर भी तत्काल मरण की आकुलता से स्खलित होता हुआ चारों ओर दौड़ने लगता है।९०० ।। अदत्ते तृण-मात्रेऽपि, गृहीते संयतोऽपि ना। अप्रत्येयो यथा स्तेनस्तृणतो-जायते लघुः ॥९०१ ।। अर्थ - महान् संयम का धारी साधु भी बिना दिया तृण मात्र भी ग्रहण करके चोर सदृश अविश्वसनीय एवं तृण के समान लघु हो जाता है।९०१॥ विधाय पुरुषः स्तेयं, नारकी वसतिं गतः। सहते वेदनास्तत्र, चिरकालं सुदुःसहाः ।।९०२।। अर्थ - मरकर भी चोर नरक में वास करता है और वहाँ चिरकाल तक तीव्र कष्ट भोगता है।९०२ ।। लभते दारुणं दुःखं, स्तेनस्तिर्यग्गतावपि । प्राप्नोति प्रायशः पापो, योनी नीचामसौ चिरम् ।।९०३ ॥ ___ अर्थ - चोर तिर्यंचगति में भी दारुण दुख उठाता है। यह पापी प्राय: चिरकाल पर्यन्त नीच योनियों में ही जन्म-मरण करता है।९०३।। नृत्वेऽहता हृता वार्थाः, पलायन्तेऽखिलाः स्वयम्। न चीयन्ते प्रयत्नेऽपि, स्वयं यास्यति वा ततः॥९०४ ।। अर्थ - मनुष्य भव में भी उस पापी का धन बिना हरण किये या किसी के द्वारा हरण कर लेने पर नष्ट हो जाता है। प्रयत्न करने पर भी वह धन का संचय नहीं कर पाता । यदि कुछ संचय हो भी गया तो वह स्वयं उस धन से कहीं दूर चला जाता है।।९०४ ।। Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - २७३ श्रीभूतिमहतीं प्राप्य, पुर-मध्ये विडम्बनाम्। परद्रव्य-रतो दीनः, प्रपद दीर्घ-संसृतिम् ॥९०५॥ अर्थ - पर-द्रव्य में आसक्त श्रीभूति ब्राह्मण नगर के मध्य अत्यधिक तिरस्कार को प्राप्त करके दीन हुआ और मरण कर दीर्घ-संसारी हुआ ।।९०५ ॥ * श्रीभूति की कथा * भरतक्षेत्र के सिंहपुर नगर में सिंहसेन राजा रहता था। उसकी रानी का नाम रामदत्ता और पुरोहित का नाम श्रीभूति था। श्रीभूति जनेऊ में कैंची बाँध कर घूमा करता था और कहता था कि यदि मैं असत्य बोल जाऊँ तो इस कैंचीसे अपनी जीभ काट दूंगा। इससे उसकी सत्यवादिता से 'सत्यघोष' ऐसा नाम प्रसिद्ध हुआ। एक दिन समुद्रदत्त नामका एक सेठ उसके पास बहुमूल्य पाँच रत्न रखकर कमानेके लिये विदेश गया, कमाकर जहाजमें बैठकर आ रहा था कि जहाज डूब गया, किसी लकड़ीके सहारे सेठ किनारे पहुंचा। वह अपने रत्न लेने के लिये सत्यघोष के पास गया किन्तु उसने कहा-तुम्हारे कोई भी रत्न मेरे पास नहीं हैं, इसप्रकार कहकर श्रीभूति-सत्यघोषने बेचारेको घरसे निकाल दिया। वह रोता हुआ नगरमें घूमने लगा, वह एक बात कहता जाता था कि इस सत्यघोषने मेरे पाँच रत्न लिये हैं। वह प्रतिदिन राजमहलके पास के वृक्षपर बैठकर यही बात कहता। एक समय रानी रामदत्ता ने सोचा कि यह पागल नहीं है, रोज एक ही बात करता है, इसकी परीक्षा करनी चाहिये। रामदत्ता ने सत्यघोषको जुए में हराकर उसकी जनेऊ घर में भेजकर चुपकेसे रत्न मंगा लिये। राजाने उनको और रत्नोंमें मिलाकर समुद्रदत्त को दिखाया, उसने अपने ही रत्न लिये उससे राजाको निश्चय हुआ कि यह सत्य कह रहा है, फिर राजाको श्रीभूति पर बड़ा क्रोध आया। उसके लिये तीन थाल गोबर खाना, पहलवानोंके तीन मुक्के खाना या समस्त धन देना इन तीन दण्डोंमेंसे एक दण्ड स्वीकार करनेको कहा । वह पापी पहलवानके मुक्के खाते हुए मर गया और नरकमें चला गया। दत वस्तु ग्रहण करने की प्रेरणा एते दोषा न जायन्ते, पर-द्रव्य-विवर्जने । तद्विपक्षा गुणाः सन्ति, सुन्दरा दत्त-भोजिनः ॥९०६ ॥ अर्थ - जो पर-द्रव्य-हरण का त्यागी होता है, उसके उपर्युक्त दोष नहीं होते। तथा जो दत्त वस्तु का ही उपभोग करता है उसमें उपर्युक्त दोषों के प्रतिपक्षी जो-जो गुण हैं, वे सब प्राप्त हो जाते हैं॥९०६॥ इन्द्रराज-गृहस्वामि-देवता-समधर्मिभिः । वितीर्ण विधिना ग्राह्यं, रत्नत्रितय-वर्धकम् ॥९०७॥ अर्थ - इन्द्र, राजा, गृहस्थ, देवता एवं साधर्मीजनों द्वारा विधिपूर्वक दिया गया एवं रत्नत्रय का वृद्धिकारक पदार्थ ही साधुओं को ग्राहय कहा गया है ।।९०७॥ विमुञ्चते यः परचित्त-मञ्जसा, निरीक्ष्यमाणं सदृशं मृदा सदा। अनन्य साधारण-भूति-भूषितः, स याति निर्वाणमपास्त-कल्मषः ॥९०८॥ इति अचौर्य महाव्रतम्। Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - २७४ अर्थ - जो पुरुष पर-धन को मिट्टी सदृश देखता हुआ छोड़ देता है वह अन्य के पास न पाई जाने वाली असाधारण विभूति से भूषित होता हुआ सम्भापों को सांत् कर्मों को ना परतः हुमायुक्ति प्राप्त कर लेता है ।।९०८॥ इति अचौर्यवर्णन समाप्त | चतुर्थ ब्रह्मचर्य व्रत कथन अब्रह्म दशधा त्यक्त्वा, रामा-वैराग्य-पञ्चके। निवेश्य मानसं पाहि ब्रह्मचर्यमनारतम॥९०९॥ अर्थ - हे क्षपक ! तुम दस प्रकार के अब्रह्म का त्याग कर और पाँच प्रकार के स्त्री सम्बन्धी वैराग्य में मन को तल्लीन कर सतत ब्रह्मचर्य व्रत में रत रहते हुए उसकी रक्षा करो।।९०९।। ब्रह्मचर्य का लक्षण निरस्ताङ्गाङ्ग-रागस्य, स्वदेहेऽपि विरागिणः। जीवे ब्रह्मणि या चर्या, ब्रह्मचर्यं तदीर्यते ।।९१० ॥ अर्थ - अपने शरीर के और स्त्री के शरीर के राग को जिसने छोड़ दिया है, ऐसे वैरागी मुनि के अपने आत्मारूप ब्रह्म में जो चर्या होती है उसे ब्रह्मचर्य कहते हैं ।।९१० ।। गद्य द्वारा दस प्रकार का अब्रह्म स्त्रीरूपाद्यभिलाष-वस्तिमोक्षण, वृष्याहारसेवन-तत्संसक्त-द्रव्यानुराग-तद्वराङ्गनिरीक्षण-सत्कारसंस्कारादरतातीत-रति-स्मरणानागताभिलषणेष्ट-विषय-निवेषण-स्वरूपं दशविधमब्रह्म-मन्तव्यम् ।।९११ ॥ अर्थ - दस प्रकार के अब्रह्म और उनके लक्षण - १. स्त्रीरूपाघभिलाषा - स्त्रियों के रूप, उनके अधर का रस, उनके मुख की गन्ध, उनका मनोहर गायन, हास, मधुर वचन और कोमल स्पर्श की अभिलाषा करना। २. वस्ति-मोक्षण - लिंग में विकार होना, या लिंग विकार को दूर न करना, या उस विकार का दृढ़ एवं स्थिर होना। ३. वृष्याहार सेवन - इन्द्रिय मदकारक, या शरीर में बल एवं वीर्य की वृद्धि हो ऐसे गरिष्ठ आहार का या रसों का सेवन करना। ४. तत्संसक्त द्रव्यानुराग - स्त्रियों के शरीर के स्पर्श सदृश ही अनुराग उनसे सम्बद्ध वस्तुओं के स्पर्श से होता है, अत: स्त्रियों से सम्बद्ध शय्या एवं आसनादि का सेवन करना। ५. तद्वरांग-निरीक्षण - स्त्री-शरीर के उत्तम अंगों का निरीक्षण करना। ६. सत्कार - उनके शरीर में अनुराग होने से उनका सत्कार करना । ७. संस्कारादर - वस्त्रादि से उनके शरीर को संस्कारित करने में आदर भाव होना, या वस्त्र-अलंकार आदि से संस्कारित स्त्रियों के प्रति आकृष्ट हो उनका आदर करना। . Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - २७५ ८. अतीत-रतिस्मरण - अतीत काल में भोगे हुए भोगों का या उन रतिक्रीड़ाओं का बार-बार स्मरण करना। ९. अनागत अभिलाषा - भविष्य में मैं उनके साथ रतिक्रीड़ा करूँगा ऐसी अभिलाषा रखना। १०. इष्टविषय-निषेवण - मनोवांछित भवन, उद्यान या इसी प्रकार के अन्य पदार्थों या विषयों का सेवन करना। आपाते मधुरं रम्यमब्रह्म दशधाप्यदः । विपाके कटुकं ज्ञेयं, किम्पाकमिव सर्वदा।।९१२॥ अर्थ - इस प्रकार अब्रह्म के ये दस भेद किपाक फल सदृश विषैले हैं। ये प्रारम्भ में मधुर प्रतीत होते हैं किन्तु परिणाम में अत्यन्त कटु हैं ।।९१२ ।। नारी-वैराग्य के उपाय दोषाः कामस्य नारीणामशौचं वृद्ध-सङ्गतिः। सङ्ग-दोषाश्च कुर्वन्ति, स्त्री-वैराग्यं तपस्विनः ।।९१३ ॥ अर्थ - कामविकार से उत्पन्न दोष, स्त्रियों द्वारा किये गये दोष, देह-अशुचिता, वृद्धसंगति एवं स्त्री संसर्ग से उत्पन्न दोष, इन पाँच बातों का चिन्तन मुनियों के वैराग्य को दृढ़ करने वाला है।।९१३॥ १. कामजन्य दोष दृश्यन्ते भुवने दोषा, यावन्तो दुःखदायिनः । पुरुषस्य क्रियन्ते ते, सर्वे मैथुन-संज्ञया ॥९१४ ॥ अर्थ - इस जगत में दुखदायी जितने भी दोष हैं, वे सब पुरुष की मैथुन संज्ञा से ही किये जाते हैं।९१४॥ ध्यायति शोचति सीदति रोदिति, वल्गति भ्राम्यति नृत्यति गायति । क्लाम्यति माद्यति रुष्यति तुष्यति, जल्पति कामवशो विमना बहु॥९१५ ॥ अर्थ - काम के वशीभूत हुआ मनुष्य अन्यमनस्क होकर इष्ट स्त्री का ध्यान करता है, अप्राप्ति से शोक करता है, पीड़ित होता है, रोता है, अन्यथा बकता है, भ्रमित होता है, नाचता है, गाता है, खिन्न होता है, मत्त होता है, कुपित होता है, कभी उसकी प्राप्ति की आशा से सन्तुष्ट होता है एवं कभी व्यर्थ ही बोलने लगता है, इस प्रकार कामातुर मनुष्य नाना चेष्टाएँ करता है।।९१५ ।। स्विद्यते निघते तप्यते मुल्यते, याचते सेवते मोदते धावते । मुञ्चते गौरवं गाहने लाघवं, किं न मयों विधत्ते मनोजातुरः॥९१६ ।। अर्थ - वह कामातुर कभी पसीने से तर हो जाता है, खेदित होता है, सन्तापित होता है, मोहित होता Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परणकण्डिका - २७६ है, याचना करता है, सेवा करता है, इष्ट स्त्री दिखाई देने पर हर्षित होता है, दौड़ता है, अपने जाति, कुल एवं प्रतिष्ठा का गौरव छोड़ देता है और हीनता को प्राप्त होता है, इस प्रकार कामातुर हुआ मनुष्य क्या-क्या नहीं करता ? अर्थात् सारे अयोग्य कार्य करता है।।९१६ ।। आसने शयने स्थाने, नगरे भवने वने। स्वजनेऽन्य-जने कामी, रमते नास्तचेतनः ॥९१७॥ अर्थ - कामावेग से जिसकी मूर्छा मृतप्राय: हो गई है ऐसा कामी पुरुष आसन में, शयन में, स्थान में, नगर में, भवन में, वन में, स्वजन में एवं परजनों में कहीं भी नहीं रमता है ॥९१७ ।। न रात्रौ न दिवा शेते, न भुक्ते न सुखायते । दष्टः काम-भुजङ्गेन, न जानाति हिताहिते ।।९१८।। अर्थ - कामरूपी सर्प द्वारा काटा हुआ मनुष्य न हिताहित को जानता है, न रात-दिन सोता है, न भोजन करता है और न कहीं सुख का अनुभव करता है ।।९१८ ॥ कामाकुलित-चित्तस्य, मुहूर्तो वत्सरायते। सर्वदोत्कण्ठ-मानस्य, भवनं काननायते ॥९१९॥ अर्थ - कामवासना से आकुलित चित्त वाले मनुष्य को एक मुहूर्त एक वर्ष सदृश लगता है। स्त्री की प्राप्ति के लिए उत्कण्ठित मन वाले उस पुरुष को सुन्दर भवन भी जंगल सदृश प्रतीत होता है।।९१९ ।। हस्तान्यस्त-कपोलोऽसौ, दीनो ध्यायति सन्ततम्। प्रस्विधति तुषारेऽपि, कम्पते कारणं विना ॥९२०॥ अर्थ - वह कामी पुरुष अपनी हथेली पर गाल रखकर दीनमुख होता हुआ सतत इष्ट स्त्री का ध्यान करता है, शीतकाल में भी पसीने से भीग जाता है और बिना कारण ही उसके अंग काँपते रहते हैं ।।९२० ।। अरत्यग्निशिखा-जालैबलद्भिरनिवारितैः। सोन्तर्विदह्यते पीतैस्तनस्ताम्र-द्रवैरिव ॥९२१॥ अर्थ - जैसे ताँबे के खौलते हुए पिघले रस को पीने से अन्तर में भयंकर दाह होती है उसी प्रकार जिसका कामोद्रेक अनिवारित है ऐसा पुरुष जाज्वल्यमान अरतिरूप अग्नि की लपटों द्वारा अन्तर में सदा जलता रहता है ।।९२१॥ मन्दायते मतिर्याति, सद्यो वचन-कौशलम् । मदनेन ज्वरेणेव, वाधितस्य वितापिना ।।९२२ ॥ अर्थ - कामी की बुद्धि मन्द हो जाती है, वचन-कौशलता तत्काल नष्ट हो जाती है। सन्ताप कारक मदनज्वर से पीड़ित हुए पुरुष की ऐसी अनेक प्रकार की स्थिति होती है।९२२ ।। काम्यमानं जनं कामी, यदा न लभते कुधीः। मुमूर्षति तदोद्विग्नो, नग-प्रपतनादिभिः ॥९२३ ।। Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - २७७ अर्थ - काम से पीड़ित मनुष्य अपनी इच्छित स्त्री के न मिलने पर प्राय: पर्वत से गिर कर या समुद्र में डूब कर, या आग में कूद कर या वृक्ष की शाखा से लटक कर मरने की चेष्टा करता है ।।९२३ ।। संकल्पाण्डक-सान, विश्पन्छि-बासिमः। रागद्वेष-द्विजिह्वेन, वृद्ध-चिन्ता-महाक्रुधा॥९२४॥ दष्ट-कामभुजङ्गेन, लज्जा-निर्मोक-मोचिना। दर्प-दंष्ट्राकरासेन, रति-वक्त्रेण नश्यति ॥९२५॥ अर्थ - जो मानसिक संकल्परूपी अण्डे से उत्पन्न हुआ है, विषयरूपी वामी में निवास करता है, वृद्धिंगत चिन्ता से.महाक्रोधित है, लज्जा रूपी कांचुली को छोड़ चुका है, दर्परूपी भयंकर दाढ़ वाला है, रतिरूप मुख वाला है और रागद्वेषरूपी दो जिह्वाओं से युक्त ऐसे कामवासनारूप करालसर्प से काटा हुआ मनुष्य शीघ्र ही नष्ट हो जाता है । ९२४-९२५॥ आशीविषेण दष्टस्य, सप्तवेगा: शरीरिणः । दष्टस्य स्मर-सर्पण, जायन्ते दश दुःसहा ॥९२६॥ अर्थ - सर्प जाति में आशीविष सर्प अधिक विषैला होता है। उसके द्वारा डसे हुए मनुष्य के तो सात ही वेग होते हैं, किन्तु काम रूपी सर्प द्वारा डसे हुए मनुष्य के दस भयंकर वेग होते हैं।९२६ ।। प्रश्न - सर्पग्रसित के सात वेग कौन-कौन से हैं ? उत्तर - भयंकर विषैले या आशीविष सर्प द्वारा डसे हुए विषाक्त पुरुष के शरीर में विष के उद्रेकरूप सात वेग आते हैं। यथा - १. रक्त काला-पीला हो जाता है और ऐसा अनुभव होने लगता है कि मुख एवं नेत्रों में जैसे कीड़े चल रहे हों। २. ऐसा अनुभूत होता है कि मानों शरीर में गाँठे पड़ गई हों । ३. मस्तक भारी हो जाता है और नेत्र बन्द हो जाते हैं। ४. थूकता है, उल्टी करता है और नींद अधिक आती है। ५. दाह पैदा हो जाती है और हिचकी आने लगती है। ६. हृदय में पीड़ा उत्पन्न हो जाती है, शरीर भारी हो जाता है और मूर्छा आ जाती है। ७. पीठ एवं कमर आदि भग्न होने लगते हैं तथा शरीर की सर्व चेष्टाएँ समाप्त हो जाती हैं। सर्पदंश के ये सात वेग होते हैं। काम के दश वेग शोचति प्रथमे वेगे, द्वितीये तां दिदृक्षते । तृतीये निश्वसित्युच्चैधरस्तुर्ये प्रवर्तते ॥९२७ ।। दत्यते पञ्चमे गात्रं, भक्तं षष्ठे न रोचते। प्रयाति सप्तमे मूर्खामुन्मत्तो जायतेऽष्टमे ।।९२८॥ न वेत्ति नवमे किञ्चिद्दशमे मुच्यतेऽसुभिः। संकल्पतस्ततो वेगास्तीघ्रा मन्दा भवन्ति वा॥९२९ ।। Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - २७८ अर्थ - किसी स्त्री को देख कर पुरुष के मन में जब कामवासना उत्पन्न हो जाती है तब उस कामी की दश प्रकार की चेष्टाएँ होती हैं, उन्हें ही कामी के दस वेग कहते हैं। यथा प्रथम वेग में कामी शोकयुक्त होता है, दूसरे में इष्ट स्त्री को देखने की इच्छा करता है, तीसरे वेग में जोर-जोर से श्वास लेने लगता है, चौथे वेग में ज्वर आ जाता है, पाँचवे में शरीर जलने लगता है, छठे में भोजन नहीं रुचता, सातवें में मूर्छा आ जाती है, आठवें में पागल सदृश हो जाता है, नौवें वेग में कुछ जान नहीं पाता और दशवें वेग में मरण को प्राप्त हो जाता है। कामान्ध पुरुष के ये दश वेग संकल्प-वासनानुसार तीन या मन्द हुआ करते हैं। अर्थात् किसी कामी को मन्टरूप, किसी को तीव्ररूप, किसी को दो-तीन या चार-पाँच आदि आकर भी रुक जाते हैं। कोई-कोई कामी गुरुजनों की या सज्जन पुरुषों की शिक्षा प्राप्त कर सुमार्ग पर भी आ जाते हैं ।।९२७-९२८-९२९ ।। ज्येष्ठे सूर्य: सिते पक्षे, मध्याह्ने विमलेऽम्बरे। नरं दहति नो तद्वद्वर्धमानो यथा स्मरः ।।९३० ।। अर्थ - ज्येष्ठमास के शुक्ल पक्ष की मध्याह्न बेला में आकाश के निर्मल रहते हुए सूर्य भी वैसा नहीं जलाता जैसा मनुष्य को वृद्धिंगत होता हुआ काम जलाता है अर्थात् ज्येष्ठमास के सूर्यताप से भी इस काम का ताप प्रचण्ड एवं असह्य है।३९३० ।। दिवसे प्लोषते सूर्यो, मनोवासी दिवा-निशम्। अस्ति प्रच्छादनं सूर्ये, मनोवासिनि नो पुनः ॥९३१ ॥ अर्थ - सूर्यामि तो केवल दिन को ही जलाती है किन्तु कामाग्नि रात-दिन जलाती है। सूर्य के ताप से बचने के उपाय तो छाता आदि हैं किन्तु कामाग्नि से बचने का कोई उपाय नहीं है ।।९३१ ॥ वलिबिध्याप्यते नीरैर्मन्मथो न कदाचन । प्रप्लोषते बहिर्वहिहिरन्तश्च मन्मथः ॥९३२॥ अर्थ - अग्नि को तो जल से शान्त किया जा सकता है, किन्तु कामाग्नि किसी के द्वारा भी शान्त नहीं होती | अग्नि तो बाह्य शरीर को ही जलाती है किन्तु कामाग्नि बाह्याभ्यन्तर अर्थात् शरीर और आत्मा दोनों को जलाती है।९३२॥ बन्धुं जाति कुलं धर्म, संवासं मदनातुरः। अवमन्य नरः सर्वं, कुरुते कर्म निन्दितम्॥९३३॥ अर्थ - कामातुर मनुष्य अपने बन्धुजन, जाति, कुल, धर्म और साथ में रहने वाले मित्रादि की भी अवमानना करके निन्दित कार्य करता है ।।९३३॥ पिशाचेनेव कामेन, व्याकुली-कृत-मानसः। हिताहितं न जानाति, निर्विवेकी-कृतोऽधमः ।।९३४ ॥ Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरणकण्डिका - २७९ अर्थ - पिशाच द्वारा पकड़े हुए मनुष्य के सदृश जिसका मन व्याकल है, तथा जो विवेकरहित कर दिया गया है ऐसा कामासक्त अधम पुरुष हित और अहित को नहीं जान पाता है ।।९३४ ॥ नोपकारं कुलीनोऽपि, कृतघ्न इव मन्यते। लज्जालुरपि निर्लजो, जायते मदनातुरः ॥९३५ ॥ अर्थ - कामी पुरुष कुलीन होने पर भी कृतघ्न मनुष्य के सदृश अपने उपकारी का भी उपकार नहीं मारता तथा लज्जावान् होते हुए भी काम से निर्लज्ज हो जाता है ।।९३५ ।। स्तेनो वा जागरूकेभ्यः, संयतेभ्यः प्रकुप्यति । हितोपदेशिनं कामी, द्विषन्तमिव पश्यति ।।९३६ ।। अर्थ - जैसे चोर जागते हुए व्यक्तियों पर रोष करता है, वैसे ही कामी पुरुष संयमीजनों पर रोष करता है और वह कामी हितकारी बात कहने वालों को शत्रु सदृश देखता है ।।९३६।। सूर्योपाध्याय-सङ्घानां, जायते प्रतिकूलिकः । धार्मिकत्वं परित्यज्य, प्रेर्यमाणो मनोभुवा ।।९३७॥ अर्थ - कामोद्रेक से प्रेरित हुआ साधु भी धार्मिक भाव को अर्थात् व्रताचरण को छोड़ कर आचार्य, उपाध्याय एवं चतुर्विध संघ के प्रतिकूल हो जाता है।९३७ ।। माहात्म्यं भुवन-ख्याति, श्रुतलाभं च मुञ्चति । सतृणावज़या सारं, मोहाच्छादित-चेतनः ॥९३८ ॥ अर्थ - काम रूपी मोह से जिसकी चेतना आच्छादित हो गई है ऐसा साधु तीनों लोकों से पूजित अपने व्रतों के माहात्म्य को और तीनों लोकों के सारभूत श्रुतज्ञान के लाभ को तृण की अवज्ञा सदृश अवज्ञा करके छोड़ देता है ।।९३८ ।। जीर्णं तृणमिव मुख्यं, चतुरङ्ग विमुञ्चतः।। नाकृत्यं विद्यते किंचिजिघृक्षोर्विषयामिषम् ।।९३९ ।। अर्थ - सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप ये चारों आराधनाएँ मोक्षमार्ग में प्रधान हैं। कामी साधु इन्हें भी जीर्ण-शीर्ण तिनके सदृश छोड़ देता है। ठीक ही है, विषयरूपी मांस के लोभी को अकृत्य कुछभी नहीं है। अर्थात् वह सब अनर्थ कर सकता है।।९३९ ।। गृह्णात्यवर्णवादं यः, पूज्यानां परमेष्ठिनाम् । अकृत्यं कुर्वतस्तस्य, मर्यादा कामिनः कुतः ॥९४० ।। अर्थ - जो कामी साधु परम पूज्य पंचपरमेष्ठियों का भी अवर्णवाद करता रहता है उसे अन्य अकार्य करते हुए मर्यादा कहाँ से होगी ? वह सब मर्यादाओं को भंग कर सकता है।।९४० ।। स दुःखमयशोन), कल्मषं द्रविण-क्षयम्। संसारसागरेऽनन्ते, भ्रमणं च न मन्यते ॥९४१ ।। Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - २८० अर्थ - वह कामासक्त प्राणी अनर्थकारी दुख, अनर्थकारी अपयश, पाप, धन का विनाश और संसारसागर में अपनी अनन्त भ्रमणता को नहीं जानता। अर्थात् इन पर विचार नहीं कर पाता ।।९४१ ।। उच्चोपि सेवते नीचं, विषयामिष-काङ्क्षया। स्मरातः सहतेऽवज्ञा, मानवानपि मानवः ।।९४२ ॥ अर्थ - विषयरूपी मांस का आकांक्षी मनुष्य उच्च-कुलीन होकर भी कुलादि से अत्यन्त हीन मनुष्यों की सेवा करता है। इतना ही नहीं वह विषयान्ध स्वाभिमानी होते हुए भी अवज्ञा सहन करता है ।।९४२ ॥ कुनीन निन्दिता कर्मा, बुकले विषयाशया। जिघृक्षुर्नर्तकी वृत्तं, चारित्रं त्यक्तवान्न किम् ॥९४३ ।। अर्थ - कुलीन भी कामी पुरुष विषय-सेवन की इच्छा से निन्द्य कार्य करता है। क्या, नर्तकी को प्राप्त करने की इच्छावाले साधु ने अपना उत्तम आचरण वाला चारित्र नहीं छोड़ दिया था॥९४३ ।। वात्रिक नाम के भ्रष्ट मुनि की कथा * कुरुजांगल देशमें दत्तपुर नगरमें शिवभूति ब्राह्मणके दो पुत्र थे, सोमशर्मा और शिवशर्मा । दोनोंको विप्रने वेद पढ़ाया। किसी दिन छोटा भाई शिवशर्मा वेदके सूत्रों का अशुद्ध उच्चारण कर रहा था। बड़े भाई सोमशर्माने उसको शुद्ध पढ़नेको कहा किन्तु वह पुनः पुनः अशुद्ध बोलता रहा तब बड़े भाईने उसको तीन बार चाँटे लगाये उस दिनसे सब लोग उसको वारत्रिक कहने लगे 'त्रिक मायने तीन और वार मायने बार' तीन बार मारनेसे वारत्रिक नाम प्रसिद्ध हुआ। आगे वह बालक वेद-वेदांगमें पारंगत हुआ, किन्तु लोगों द्वारा वारत्रिक नामसे पुकारे जानेसे उसे दुःख होता रहता, किसी दिन जैनमुनिसे धर्मोपदेश सुनकर उसको वैराग्य हुआ दीक्षा लेकर वह वारत्रिक देश-देशमें विहार करने लगा। एक दिन आहारार्थ नगरमें आ रहा था, मार्गमें एक कन्याकी बरातमें वेश्याका सुंदर नृत्य हो रहा था, उस नृत्यकारिणी पर वारत्रिक मुनि मोहित हो गये। नर्तकी और वारत्रिक अब साथ रहने लगे। घूमते हुए दोनों राजगृहनगरीमें राजा श्रेणिकके समीप अपनी सुंदर नृत्यकला दिखा रहे थे। राजसभामें एक विद्याधर उपस्थित था। उसको नृत्य देखते हुए जातिस्मरण हो गया और उसने नर्तकी आदिके पूर्वभव बताये जिससे वारत्रिक, नर्तकी तथा और भी अनेक प्रेक्षक लोगोंको वैराग्य हो गया, वारत्रिकने पुनः मुनिदीक्षा ग्रहण की। नर्तकीने अपने योग्य श्राविकाके व्रत स्वीकार किये। इस प्रकार वारत्रिक मुनि स्त्रीके रूपको देखने मात्रसे दीक्षासे भ्रष्ट हो गया था। कामी शूरोपि तीक्ष्णोऽपि, मुख्योऽपि, भवति स्फुटम्। विगर्वः श्रीमतो वश्यो, वैद्यस्य गदवानिव ॥९४४ ॥ अर्थ - जैसे रोगी पुरुष वैद्य के वश हो जाता है, वैसे ही शूरवीर होते हुए भी, तीक्ष्ण बुद्धि होते हुए भी और प्रधान पुरुष होते हुए भी कामी मनुष्य मान छोड़कर धनाढ्य मनुष्यों के आधीन हो जाता है॥९४४ ।। विधत्ते चाटु नीचस्य, कुलीनो मानवानपि। मातरं पितरं वाचा, दासं कुर्वन्नपत्रपः ॥९४५।। Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - २८१ अर्थ - कुलीन और स्वाभिमानी होते हुए भी जब मनुष्य कामान्ध हो जाता है तब लज्जा छोड़कर नीच पुरुष की भी चाटुकारिता अर्थात् पैरादि दबाने के कार्य करने लगता है। इतना ही नहीं अपितु वचनों द्वारा अपने माता-पिता को भी उनके दास दासी कहता है अर्थात् चापलूसी करते हुए कहता है कि मेरे माता-पिता भी आपके दास दासी सदृश हैं ।। ९४५ ॥ न पश्यति सनेत्रोऽपि स श्रोत्रोऽपि शृणोति न । कामार्त: प्रमदा काङ्क्षी, दन्तीव हत-चेतनः ॥ ९४६ ॥ अर्थ - काम से पीड़ित, स्त्री का अभिलाषी पुरुष हथिनी के वश होने वाले वनहाथी के सदृश संमूढ़ अर्थात् विक्षिप्त चेतना युक्त हो जाता है अतः वह कामान्ध नेत्रवान् होकर भी देख नहीं पाता और कर्णयुक्त होकर भी सुन नहीं पाता ।। ९४६|| सलिलेनेव कामेन, सद्यो जाड्य विधायिना । दक्षोऽपि जायते मन्दो, नीयमानः समन्ततः ॥ ९४७ ॥ अर्थ - जैसे जलप्रवाह में डूबता हुआ पुरुष मूर्छित हो जाता है, वैसे ही काम द्वारा ग्रसित मनुष्य सर्व कलाओं में दक्ष होते हुए भी चारों ओर से मन्द अर्थात् मूर्छित सा हो जाता है ।। ९४७ ।। वर्ष - द्वादशकं वेश्यां, निषेव्यापि स्मरातुरः । नाज्ञासीद्गोरसन्दीव:, पदाङ्गुष्ठमशोभनम् ॥ ९४८ ॥ अर्थ- गोरसंदीव नामा मुनि कामार्त होकर बारह वर्ष पर्यन्त वेश्या का सेवन करते हुए भी उसके पैर के नष्ट हुए अथवा कुष्ठ हुए अंगूठे को नहीं जान सके ।। ९४८ ।। * गोरसंदीव नाम के भ्रष्ट मुनि की कथा * श्रावस्ती नगरीका राजा द्वीपायन था । उसका दूसरा नाम गोरसंदीव या गोचरसंदीव था। एक दिन वह राजा वनक्रीड़ाके लिये जा रहा था। मार्गमें एक आम्रवृक्ष मंजरीसे भरा हुआ देखकर राजाने एक मंजरीको कौतुक तोड़ लिया। राजा आगे निकल गया। पीछे से आने वाले जनसमुदाय ने राजाका अनुकरण किया । अर्थात् सभीने एक-एक करके उस आम्रवृक्षकी मंजरी तोड़ ली। पुनः पत्ते तथा डालियाँ भी नष्ट कर दीं। राजा वनक्रीड़ा करके लौटा तो वृक्षको न देखकर पूछा। लोगोंसे वृक्ष नष्ट होनेका वृत्तांत सुना तथा वृक्षको केवल ठूंठसा खड़ा देखकर अकस्मात् राजाको वैराग्य हुआ और उसने जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण की। अब वे मुनि होकर विहार करते हुए उज्जयिनी में आहारार्थ पहुँचे। किसी एक घरके आंगनमें वे प्रविष्ट हुए। वह गृह कामसुंदरी वेश्या का था । वेश्या को देखकर मुनि मोहित होगये और वहीं रहने लगे। ह वर्ष व्यतीत होगये। किसी दिन वेश्याके पैरके अंगूठेपर दृष्टि गयी तो देखा कि इसके अंगुष्ठमें कुष्ठ है। उससे पुनः वैराग्यभाव जाग्रत होनेसे उस द्वीपायन या गोरसंदीवने पुन: दीक्षा ग्रहण की। इसप्रकार गोरसंदीव मुनि स्त्रीके रूप देखने में आसक्त होने से अपने चारित्र से भ्रष्ट हो गये थे । Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - २८२ शीतमुष्णं क्षुधां तृष्णां, दुराहारं पथि श्रमम् । दुःशय्यां सहते कामी, बहते भारमुल्वणम् ।।९४९ ।। अर्थ - सुकुमार भी कामान्ध पुरुष शीत, उष्ण, क्षुधा, तृषा, खोटा आहार, खोटी शय्या, मार्ग में चलने का श्रम और भारी बोझ ढोने वाले सब कष्टों को सहज सहन कर लेता है ।।९४९ ॥ क्षुप्यते कृष्यते लूयते पूयते, प्राप्यते पाद्यते सीव्यते चित्र्यते। छिद्यते भिद्यते क्रीयते दीर्यते, ख्यम्यते रज्यते सज्यते कामिना ।।९५० ।। अर्थ - कामान्ध पुरुष इष्ट स्त्री को प्रसन्न रखने के लिए कभी खेदखिन्न होता है, खेती करता है, खेती कारता है, खलिहान साफ करता है, धान्यादि प्राप्त करने का पुरुषार्थ करता है, वस्त्रों की सिलाई करता है, चित्रकारी करता है, लकड़, जाति को छोइनार्य cli , १५ आदि मदने अर्थात् फोड़ने का कार्य करता है, खरीदता है, काष्ठादि का विदारण करता है, छीलता है, वस्त्रादि को रंगता है एवं बुनता है। स्त्री के निमित्त मनुष्य इस प्रकार के कार्य करता है ।।९५० ।। गो-महिषी-हय-रासभ-रक्षी, काष्ठ-तृणोदक-गोमयवाही। प्रेषण-कण्डण-मार्जनकारी, कामनरेन्द्र-वशोस्ति मनुष्यः ।।९५१ ।। अर्थ - कामरूपी राजा के आधीन हुआ मनुष्य गाय, भैंस, घोड़े एवं गधों की रक्षा करता है, लकड़ी, तृण, जल एवं गोबर आदि होता है, स्वामी द्वारा भेजे जाने रूप प्रेषण कार्य करता है तथा मूसल से कूटने एवं झाडू से गृहादि साफ करने के नीच कार्य भी करता है।।९५१ ।। आयुधैर्विविधैः कीर्णा, रणक्षोणी विगाहते। लेखनं कुरुते दीनः, पुस्तकानामनारतम्॥९५२॥ अर्थ - कामार्त मनुष्य विविध आयुधों से युक्त रणभूमि में प्रवेश करके युद्ध करता है और स्त्री-प्रामि की अभिलाषा से पुस्तक-लेखन आदि के कार्य भी करता है ।।९५२॥ संयुक्तां कर्षति क्षोणी, गर्भिणीमिव योषितम् । अधीत्य बहुशः शास्त्रं, कुरुते शिशु-पाठनम् ।।९५३ ॥ अर्थ - गर्भिणी स्त्री सदृश संयुक्त भूमि में हलादि चलाता है तो बहुत शास्त्रों को पढ़कर भी आजीविका हेतु बालकों को पढ़ाने लगता है।९५३ ।। शिल्पानि बहु-भेदानि, तनुते पर-तुष्टये। विधते वञ्चनां चित्रा, वाणिज्य-करणोधतः ॥९५४॥ अर्थ - स्त्री-अभिलाषीं दूसरों को सन्तुष्ट करने के लिए नाना प्रकार की चित्रकला करता है एवं विविध प्रकार की वंचना अर्थात् ठगाई करता हुआ व्यापार में उद्यत रहता है ।।९५४ ।। अवमन्य भवाम्भोधौ, पतनं बहुवीचिके। किं किं करोति नो कर्म, मर्यो मदनलपितः ।।९५५।। Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - २८३ अर्थ - अत्यधिक दुखरूपी लहरों से युक्त भवसमुद्र में मुझे गिरना पड़ेगा, इसका विचार किये बिना मदनातुर मानव क्या-क्या कार्य नहीं करता ? अर्थात् सब कुछ कर डालता है।९५५ ।। दुर्मोचैः कामिनी-पाशैः, कामी वेष्टयते कुधीः । लालापाशैरिवात्मानं, कोशकार-कृमिः स्वयम् ।।९५६ ।। अर्थ - जैसे रेशम का कीड़ा अपने ही मुख में से तार निकालकर उससे अपने को ही बांध लेता है, वैसे ही दुर्बुद्धि मनुष्य, जिसका छूटना अशक्य है ऐसे स्त्रीरूप पाश के द्वारा अपने आप को बाँध लेता है।।९५६॥ रागो द्वेषो मदोऽसूया, पैशून्यं कलहो रतिः। वचना पराभूतिर्दोषाः सन्ति स्मरातुरे॥९५७ ॥ अर्थ - कामी पुरुष में राग-द्वेष, घमण्ड, असूया, पैशून्य, कलह, रति, ईर्ष्यायुक्त वचन एवं परतिरस्कार आदि अनेक दोष होते हैं ।।९५७ ।। ___ काम-सेवन से होने वाला जीवघात तिल-नाल्यामिव क्षिप्रं, तप्तलोह-प्रवेशने। तिलानां देहिनां पीड़ा, योन्यां लिङ्ग-प्रवेशने ॥९५८॥ अर्थ - जैसे तिलों से भरी नलिका में तपाये हुए लोहे की सलाई के प्रवेश से शीघ्र ही तिल जल कर नष्ट हो जाते हैं, वैसे ही स्त्री की योनि में लिंग प्रवेश होने पर वहाँ के सम्मूर्छन जीव शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं।।९५८॥ इच्छावतीमनिच्छां वा, दुर्बलां दुर्लभां कुधीः । अज्ञात्वा याचते कामी, सर्वाचार-बहिर्भवः ।।९५९ ॥ अर्थ - दुर्बुद्धि एवं सर्व सदाचार से बहिर्भूत कामी पुरुष यह स्त्री मुझे चाहती है या नहीं, दुर्बल है या हृष्ट-पुष्ट है तथा दुर्लभ है या सुलभ है इत्यादि विषय जाने बिना ही उसकी याचना करता रहता है ॥९५९॥ परकीयां स्त्रियं दृष्ट्वा, किं काङ्क्षति विमूढ-धीः । न हि तां लभते जातु, पापमर्जयते परम् ॥९६० ।। अर्थ - विमूढ़ बुद्धि कामी पुरुष पर-दारा को देख कर क्यों उसकी वांछा करता है ? क्योंकि वह अन्य पुरुष की स्त्री को प्राप्त तो कर नहीं सकता, व्यर्थ में पापों का संचय कर लेता है ।।१६०॥ अभिलष्य चिरं लब्ध्वा, परनारी कथञ्चन । अनिवृत्तमविश्वस्तं, सेवने तादृगेव सः॥९६१॥ अर्थ - चिरकालतक अभिलाषा करने पर कदाचित् पर-स्त्री का लाभ हो भी जाय, तो उसके मिलने से पूर्व वह जैसा व्याकुल, अविश्वस्त एवं अतृप्त रहता था, मिलने अथवा सेवन करने पर भी वह वैसा ही रहता है। अर्थात् 'मुझे कोई देख न ले' इस भय से वह व्याकुल रहता है ॥९६१ ।। Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परणकण्डिका - २८४ | यत्र तत्र प्रदेशे तामन्धकारे कथञ्चन। अवाप्य त्वरितो भीतो, रति-सौख्यं किमश्नुते ॥९६२॥ अर्थ - जहाँ-तहाँ किसी भी स्थान पर एवं अन्धकार में जिस किसी प्रकार से उस स्त्री को प्राप्त करके भी वह भयभीत पुरुष शीघ्रता से सेवन करते हुए रतिसुख को किस प्रकार पा सकता है ।।९६२ ।। सर्वस्व-हरणं रोधं, वधं बन्धं भयं कलिम्। तज्ज्ञाति-पार्थिवादिभ्यो, लभते पारदारिकः ।।९६३॥ अर्थ - पर-स्त्री का सेवन करने वाला कामी पुरुष उस स्त्री के जाति या कुटुम्बीजनों के द्वारा या राजादि के द्वारा सर्वस्व-हरण, विरोध, वध, बन्धन, भय एवं कलह को प्राप्त होता है ।।९६३॥ अनर्थ-कारणं पुंसां, कलत्रे स्वेपि मैथुने। करोति कल्मषं घोरं, परकीये न किं पुनः ॥९६४। अर्थ - यदि अपनी पत्नी के साथ मैथुन-सेवन भी अनर्थ का कारण होता है तो परस्त्री-सेवी को अति घोर पाप का बन्ध क्यों नहीं होगा ? क्योंकि उसमें अलह के माथ चोरी का भी दोष है ।।९६४॥ यथाभिव्य-माणासु, स्वस-मातृ-सुतादिषु । दुःखं सम्पद्यते स्वस्य, परस्यापि तथा न किम्॥९६५॥ अर्थ - अपनी बहिन, माता एवं पुत्री आदि के प्रति यदि कोई अभद्र व्यवहार करे तो जैसे हमें दुख होता है, वैसे ही दूसरों की माँ-बहिन आदि के विषय में अभद्र व्यवहार करने पर दूसरों को भी क्या दुख नहीं होगा? अवश्य ही होगा ॥९६५ ।। इत्थमर्जयते पापं, पर-पीडा-कृत्तोद्यमः।। स्त्री-नपुंसकवेदं च, नीचगोत्रं दुरुत्तरम् ॥९६६ ॥ अर्थ - इस प्रकार परस्त्री-गामी पुरुष अन्य की माता-बहिन के सेवन से पर को पीड़ा पहुंचाने में उद्यमशील होता हुआ पाप का संचय करता है तथा स्त्रीवेद, नपुंसक वेद एवं नीचगोत्र का दुरुत्तर बन्ध करता है ।।९६६॥ भुज्यते यदनिच्छन्ती, क्लिश्यमानाङ्गनावशा। तदेतस्या: पुरातन्याः परदार-रते फलम् ॥९६७ ॥ अर्थ - इस जन्म में जो स्त्री परवश होकर अनिच्छित (जिसे वह नहीं चाहती) पर-पुरुष के द्वारा बलात् किन्तु यथेच्छ भोगी जाती है और मानसिक महान् कष्ट पाती है, वह सब उसके पूर्व जन्म में किये गये परस्त्रीगमन का फल है।।९६७॥ योषा-वेषधरः कर्म-कुर्वाणो न यदश्नुते । काङ्कितं शर्म तत्तस्य, परदार-रते: फलम् ॥९६८॥ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - २८५ अर्थ - स्वयं नपुंसक होते हुए भी जो ऊपर से स्त्री का वेष धारण कर यहाँ-वहाँ काम क्रीड़ा करके भी इच्छित रति सुख प्राप्त नहीं कर पाता, उसका यह नपुंसकपना पूर्वभव में किये गये परस्त्री-गमन का फल है।९६८॥ जननी भगिनी भार्या, देहजा बहु-जन्मसु। आयासाकीर्ति-कारिण्यप्तस्य सन्ति विशीलिकाः ॥९६९ ॥ अर्थ - परस्त्रीगामी की माता, बहिन, पत्नी और पुत्री आदि बहुत अर्थात् लाखों जन्मों तक उसे दुख एवं अपयश देने वाली सदा व्यभिचारिणी ही होती हैं ।।९६९ ।। प्रश्न - मातादि बहुत जन्मों तक व्यभिचारिणी होती हैं, इसका क्या अभिप्राय है ? उत्तर - इसका आशय यह है कि जो कामी पुरुष किसी अन्य की माता या बहिन या भार्या या पुत्री का शील भंजन कर देता है उसे कुशील स्वभाव वाली माता या बहिन आदि मिलेगी। अथवा उसकी माता आदि शील स्वभावी होगी किन्तु कोई कामी बलात् उनका शीलभंग कर देगा जिसके अपयश से वह जीवन भर दुखी रहेगा। विशीलो दुर्भगोऽमुत्र, जायते पारदारिकः । निर्दोषोऽप्यश्नुते बन्धं, संक्लेशं कलहं वधम् ॥९७०॥ अर्थ - परस्त्री-गामी आगामी भवों में दुराचारी एवं कुरूप होता है, तथा निर्दोष होते हुए भी उसे अकारण ही बन्धन, क्लेश, कलह और वधादि के साथ-साथ दोषारोपण अर्थात् अवर्णवाद के दुख भोगने पड़ते हैं।९७०॥ महान्तं दोषमासाद्य, भवेऽन स्मर-मोहितः। मृत्वा कडारपिङ्गोऽगाच्छ्वभ्रं दुःसह-वेदनम् ।।९७१।। अर्थ - काम से मोहित हुआ कडारपिंग इस भव में महान् दोष का भागी हुआ। पीछे मर कर नरक गया ||९७१॥ *कडारपिंगकी कथा * कांपिल्य नगरमें राजा नरसिंह था। उसका मंत्री सुमति नामका था। उसके एक कड़ारपिंग नामका पुत्र हुआ। वह अत्यंत कामासक्त था। एक दिन उसने कुबेरदत्त सेठकी सर्वांगसुंदरी प्रियंगुसुंदरी पत्नी को देखा। देखकर वह उसपर आसक्त हआ। समति मंत्रीने पत्रका हाल जानकर पहले तो कामवासनाको मनमें धिक्कारा किन्तु पुत्र के मोहमें आकर प्रियंगुसुंदरी को हस्तगत करनेके लिये उसके पति कुबेरदत्तको द्वीपांतरमें भेजना चाहा किन्तु प्रियंगुसुंदरी बुद्धिमती थी। उसने ताड़ लिया कि यह कामी कडारपिंगकी करतूत है । उसने पतिको समझाया कि द्वीपांतर जाने का केवल दिखावा करो। आगे की बात मैं सम्हाल लूंगी । कडारपिंग कुबेरदत्तको द्वीपांतर गया समझकर प्रियंगुसुंदरीके पास रातके समय आया। उस सुंदरीने पाखाने के कमरे को साफ-सुथरा कराके उसमें एक बिना निवारके पलंगपर एक चादर बिछा दिया था, प्रियंगुसुंदरी ने आये हुए कडारपिंगको उक्त पलंगपर बैठने Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - २८६ को कहा। जैसे ही वह पापी बैठने लगा वैसे ही धड़ामसे अत्यंत दुर्गंधमय पाखानेके मैलमें जा पड़ा। अब कडारपिंगको बहुत पश्चात्ताप हुआ। उसने निकालने के लिये सुंदरीसे बहुत प्रार्थना की किन्तु पापका फल भोगने के लिए उसने उसको नहीं निकाला। छह मास व्यतीत होनेपर कुबेरदत्तने द्वीपांतरसे आनेका बहाना किया। राजा और मंत्रीने उसे जो किंजल्क पक्षी लानेको कहा था, सेठने पाखानेसे कडारपिंगको निकालकर उसको पक्षियोंके पंख लगाकर मुख काला कर हाथपैर बांध पीजड़ेमें डालकर राजाके समक्ष उपस्थित किया तथा वास्तविक सब वृत्तांत कह सुनाया। राजाको कडारपिंग पर क्रोध आया और उसने उस कामी पापीको प्राणदंड दिया, कडारपिंग मरकर नरक गया । इसप्रकार राया नारों के सेवन का माव करनेसे तथा साक्षात् सेवन करनेसे महाभयानक दुःख उठाने पड़ते हैं ऐसा जानकर इस पापसे विरत होना चाहिये। भवन्ति सकला दोषा, नैवामी ब्रह्मचारिणः । सम्पद्यन्ते गुणाश्चित्रास्तद्विपक्षा विरागिणः ।।९७२।। अर्थ - ब्रह्मचारी पुरुष के उपर्युक्त कोई भी दोष नहीं होते। प्रत्युत उस विरागी के उन दोषों के विपक्षभूत अत्यधिक गुण होते हैं।।९७२ ।। कामाध्वना कुच-फलानि निषेवमाणा, रम्ये नितम्ब-विषये ललना-नदीनाम्। विश्रम्य चारु-वदनाम्ब निपीयमानाः, सौख्येन नारकपुरी प्रविशन्ति नीचाः ।।९७३॥ अर्थ - कामुक नीच पुरुष स्त्री रूपी नदियों के रम्य नितम्ब में कामरूपी मार्गसे प्रवेश कर तथा कुच रूपी फलों का सेवन कर वहाँ विश्राम करके उसके मुख की लार (जल) पीता हुआ सुखपूर्वक नरकपुरी में प्रवेश कर जाता है ।।९७३॥ नरो विरागो बुधवृन्द-वन्दितो, जिनेन्द्रवद्-ध्वस्त-समस्त-कल्मषः । विदयमानं ज्वलता दिवानिशं, स्मराग्निना लोकमवेक्षतेऽखिलम् ॥९७४॥ इति कामदोषा;॥ अर्थ - जो पुरुष स्त्रियों आदि के विषयों से विराग सम्पन्न है, वह विरागी, ज्ञानी पुरुषों द्वारा वन्दित होता है एवं जिनेन्द्रदेव सदृश समस्त पापों का नाश करने वाला होता है तब वह प्रज्वलित कामाग्नि में अहर्निश अतिशयरूप से जलते हुए इस अखिल लोक को मुक्तात्मा के सदृश प्रेक्षकरूप में मात्र देखता ही है ।।९७४ ।। इस प्रकार कामदोष का प्रकरण पूर्ण हुआ। __स्त्रीदोष व्याख्यान जननी जनकं कान्तं, तनयं सहवासिनम्। पातयन्ति नितम्बिन्यः, कामार्ता दुःखसागरे ।।९७५ ।। Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - २८७ अर्थ - विषयान्ध कामार्ता स्त्री किसी की भी परवाह न करके अपने माता, पिता, पति, पुत्र एवं साथ में रहने वाले अन्य परिवार को भी दुखरूपी महासमुद्र में डाल देती है।।९७५ ।। स्त्री-निःश्रेण्योन्नतस्यापि, दुरारोहस्य लीलया। मस्तकं नर-वृक्षस्य, नीचोऽप्यारोहति द्रुतम् ।।९७६ ।। अर्थ - जो बहुत ऊँची है और जिस पर चढ़ना अति कठिन है ऐसी स्त्री रूपी नसैनी द्वारा नीच पुरुष भी मान से उन्नत पुरुष रूपी वृक्ष के मस्तक पर शीघ्रता से चढ़ जाता है।।९७६ ।। प्रश्न - 'इस श्लोक का क्या आशय है ? उत्तर - इसका आशय यह है कि वृक्ष कितना ही ऊँचा हो, नसैनी के माध्यम से छोटे कद वाला मनुष्य भी जैसे उस वृक्ष के सिरे तक चढ़ जाता है। वैसे ही पुरुष बलवान, उच्चकुलीन एवं लब्धप्रतिष्ठ हो किन्तु यदि उसकी स्त्री दुराचारिणी है तो वह किसी नीच पुरुष का आश्रय ग्रहण कर अपने पति की प्रतिष्ठा और अभिमान को मिट्टी में मिला देती है और उसकी कीर्ति का क्षय कर देती है। मान्या ये सन्ति मानामक्षोभ्या बलिनामपि । सर्वत्र जगति ख्याता, महान्तो मन्दरा इव ।।९७७ ।। शटैस्ते स्त्रीजनैस्तीक्ष्णैर्नाम्यन्ते क्षणमात्रतः। नितान्त-कुटिलीभूतैरङ्कुशैरिव दन्तिनः ।।९७८ ।। अर्थ - इस लोक में मनुष्यों के मध्य जिनकी मान्यता, धैर्य, महानता, कुलीनता, सम्पत्ति-सम्पन्नता एवं शारीरिक शक्ति सुमेरु पर्वत सदृश विख्यात है, जिसे बलवान पुरुष भी नहीं हिला सकते, किन्तु ऐसे महापुरुष का स्वाभिमान भी मूर्ख, कठोर एवं दुराचारिणी स्त्रियों द्वारा क्षणमात्र में उसी प्रकार निम्न स्तर का अथवा नष्ट कर दिया जाता है जिस प्रकार अतिशय तीक्ष्ण अंकुश द्वारा बलवान हाथी भी नीचे बैठा दिया जाता है।९७७९७८।। आसन्रामायणादीनि, स्त्रीभ्यो युद्धान्यनेकशः। मलिनरभ्योऽन्दमालाभ्यः, सलिलानीव विष्टपे ॥९७९ ॥ अर्थ - जैसे काली मेघ-मालाओं से जल निसृत होता है, वैसे ही इस जगत् में स्त्रियों के कारण ही रामायण एवं महाभारतादि में वर्णित अनेक महायुद्ध हो चुके हैं ।।९७९ ।। विसम्भ-संस्तव-स्नेहा, जातु सन्ति न योषितः । त्यजन्ति वा परासक्ताः, कुलं तृणमिव द्रुतम् ।।१८० ।। अर्थ - स्त्रियों में विश्वास, प्रशंसा एवं स्नेह गुण कभी नहीं होते, क्योंकि पर-पुरुषासक्त नारी अपने महान कुल को या कुलीन भी पति को तृण सदृश मानकर शीघ्र ही छोड़ देती है ॥९८०॥ विनम्भयन्ति ता मत्य, प्रकारैर्विविधैर्लघु । विसम्भः शक्यते कर्तुमेतासां न कथंचन ॥९८१ ।। Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - २८८ अर्थ - स्त्रियाँ अनेक प्रकारों से पुरुष में विश्वास उत्पन्न करा लेती हैं किन्तु पुरुष अनेक उपायों द्वारा भी स्त्रियों को कदापि विश्वास उत्पन्न नहीं करा सकता ||९८१॥ स्वल्पेऽपि विहिते दोषे, कृत-दोष-सहस्रशः। उपकारमवज्ञाय, स्वं निघ्नन्ति पतिं कुलम् ।।९८२ ।। अर्थ - स्वयं द्वारा किये हुए हजारों दोषों की उपेक्षा कर, पति द्वारा किये गये अल्प से भी दोष को न सहन करती हुई और पति ना कि गले मानों उ.कारों की साझा कर कुलटा नारी कभी स्वयं आत्मघात कर मर जाती है और कभी पति का तथा कुल का भी नाश कर डालती है।९८२ ।। आशीविष इव त्याज्या, दूरतो नीति-हेतवः। दुष्टा नृपा इव क्रुद्धास्ताः, कुर्वन्ति कुल-क्षयम् ॥९८३॥ अर्थ - हित की बात तो यह है कि कुलटा स्त्रियों को क्रुद्ध सर्प के सदृश दूर से ही त्याग देना चाहिए, कारण कि रुष्ट, दुष्ट एवं प्रचण्ड राजा के समान वे कुल का नाश कर देती हैं ॥९८३ ।। अकृतेप्यपराधे ता, नीचाः स्वच्छन्द-वृत्तयः। निघ्नन्ति निघृणाः पुत्रं, श्वसुरं पितरं पतिम् ।।९८४ ।। अर्थ - वे कुलटा स्त्रियाँ स्वच्छन्द प्रवृत्ति की इच्छा से निरपराध पुत्र, श्वसुर एवं पिता आदि को निर्दयतापूर्वक मार डालती हैं॥९८४ ।। उपकारं गुणं स्नेह, सत्कारं सुख-लालनम्। न मन्यन्ते परासक्ता, मधुरं वचनं स्त्रियः ॥९८५।। अर्थ - पर-पुरुष में जिनका चित्त आसक्त है वे स्त्रियाँ अपने पति के उपकार, गुण, स्नेह, सत्कार, सुखपूर्वक लालन-पालन एवं पति द्वारा बोले गये मधुर वचनों को भी नहीं गिनतीं ।।९८५ ।। साकेताधिपतिर्देवरतिः प्रध्याव्य राज्यतः। देव्या नदी-हदे क्षिप्तो, रक्त्या पल-रक्त्या ॥९८६॥ अर्थ - अयोध्यानगरी के राजा देवरति की रक्ता नाम की रानी थी। उसने एक पंगु, कुरूप, दुष्ट एवं दरिद्री पुरुष पर आसक्त होकर राज्य से च्युत होने वाले अपने पति को नदी के गहरे प्रवाह में डाल कर मार दिया था ।।९८६ ॥ * रक्ता रानीकी कथा * परपुरुष-आसक्त रक्ता नामकी रानी थी। उसका संक्षिप्त दुश्चरित्र इस तरह है कि अयोध्या नगरीका देवरति नामका राजा था। उसकी रक्ता रानी उसे प्राणोंसे भी अधिक प्यारी थी। उसके अत्यधिक प्रेमके कारण राज्यका त्यागकर राजा सदा अंत:पुरमें रहने लगा। अत: मंत्रियोंने उसे राज्यसे च्युत कर दिया। राजा रानीको लेकर अन्यत्र चला गया | वहाँ किसी पंगुके मधुर गानको सुनकर रक्ता उसपर आसक्त हो गयी और अपने पति Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - २८९ देवरति राजाको किसी बहाने नदीमें डालकर खुद उस पंगु पुरुषके साथ रहने लगी। पंगुको एक टोकरीमें रखकर अपने मस्तक पर लेकर जगह-जगह भ्रमण करती रही, पंगु मधुर गान सुनाता, जिससे दोनोंकी आजीविका होती थी। इधर राजा नदीके प्रवाहसे किसीतरह निकल आया और पुण्योदयसे मंगलपुरीका शासक-राजा बन गया। घूमती हुई रक्ता वहाँ पहुँची । राजाने पहिचान लिया और इस स्त्री-चरित्रसे विरक्त होकर उसने दीक्षा ग्रहण की। इसप्रकार पर-पुरुष पर आसक्त हुई नारी की दुष्ट चेष्टायें हुआ करती हैं। गोपवत्या क्रुधा छित्वा, ग्रामकूट सुता-शिरः। राजा सिंहबलः कुक्षौ, शक्त्येयापरया हतः॥९८७ ॥ अर्थ - ईर्ष्यालु गोपवती ने क्रोधावेश में ग्रामकूट की पुत्री का मस्तक काट दिया था और अपने पति के पेट में भाला घोंप कर उसे मार डाला था ||९८७॥ * गोपवतीको कथा * राजा सिंहबलकी रानी गोपवती थी। यह अत्यन्त दुष्ट स्वभाववाली थी। एक दिन राजाने ग्रामकूट नामके नगरके शासक की सुभद्रा नामकी पुत्रीसे विवाह कर लिया। इससे गोपवती क्रोधित हुई, उसने सुभद्राको मार डाला और उसका कटा हुआ मस्तक राजाको दिखाया, राजाको इससे महान् दुःख हुआ, जैसे ही वह उसको दण्डित करने में उद्यत हुआ वैसे ही उस दुष्टाने उसको भी भाले द्वारा मार डाला। दुष्ट स्त्रीके लिये क्या कोई कुकृत्य शेष रहता है जिसे वह न कर सके ? वह तो सब कुकृत्य कर डालती है। वीरवत्यापि शूलस्थस्तेन छिन्नोष्ठया निजः। ओष्ठश्च्छिन्नो ममानेन, पापयेत्युदितं मृषा ॥९८८॥ अर्थ - शूली स्थित यार के द्वारा जिसका ओष्ठ काट लिया गया था ऐसी पापी एवं दुराचारिणी वीरवती ने राजा के पास जाकर झूठ कहा कि मेरे पति ने मेरा ओष्ठ काट लिया है ।।१८८॥ *वीरवती की कथा * दत्त नामके वैश्य की पत्नीका नाम वीरवती था। यह एक चोरके प्रेम में फंसी थी। एक दिन चोरी करते हुए रंगे हाथ वह चोर पकड़ा गया। उसे राजाने शूलीपर चढ़ानेकी सजा दी। चांडालने उसे श्मशानमें ले जाकर शूलीपर चढ़ा दिया । वीरवती दुःखी हुई। रातके समय उससे अंतिमबार मिलनेके लिये श्मशानमें पहुँची, ऊँचे स्थान शूलीपर चढ़े हुए चोरका आलिंगन करनेके लिये उसने अधजली लकड़ियों और शव इकट्ठे किये और उसपर चढ़कर उससे मिलने लगी। इतनेंमें लकड़ियाँ खिसक गयीं और वह अकस्मात् नीचे गिर पड़ी। उससे उसका ओठ चोरके मुंहमें रह गया-दाँतोंसे कट गया। वह दुष्टा दौड़कर चुपकेसे घर लौटी। वहाँ शोर मचाया कि पतिने मेरा ओठ काट डाला है। राजाके पास शिकायत गयी। उसने पतिको दण्डित करना चाहा किन्तु इतनेमें किसीसे रहस्यका पता चला। तब राजाने निरपराध पति दत्त को छोड़ दिया और दुराचारिणी बीरवतीका मुख काला कर शिरके केशोंका मुंडन करवाके गधेपर बैठाकर उसको अपने देशके बाहर निकाल दिया। व्याने विषे जले सर्प, शत्रौ स्तेनेऽनले गजे। स विश्वसिति नारीणां,यो विश्वसिति दुर्मनाः ।।९८९॥ Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकाण्डका - २९० अर्थ - जो पुरुष नारियों पर विश्वास करता है, समझ लेना चाहिए कि वह व्याघ्र, विष, जल, सर्प, शत्रु, चोर, अग्नि और हाथी पर विश्वास करता है।।९८९ ।। व्याघ्रादयो महादोषं, कदाचित्तं न कुर्वते। लोकद्वय-विघातिन्यो, यं स्त्रियो वक्रमानसाः ॥९९० ।। __ अर्थ - पूर्व श्लोक में कहे गये व्याघ्र-सर्प आदि मनुष्य का कभी भी ऐसा अहितकारी महादोष नहीं करते जैसा इस लोक और परलोक को नाश करने वाली कुटिल मन युक्त दुराचारिणी स्त्रियाँ करती हैं ।।९९० ।। सकश्मलाशया रामाः, प्रावृषेण्या इवापगाः । स्तेनवत्स्वार्थ-तनिष्ठाः, सर्वस्व-हरणोद्यताः ।।९९१॥ अर्थ - जैसे वर्षा ऋतु में नदियों का जल मैल से युक्त होता है, वैसे ही स्त्रियों का मन सदा राग, द्वेष, मोह, ईर्षा, परनिन्दा एवं मायाचारी आदि दोषों से कलुषित रहता है। जैसे चोर अपने चौर कर्म रूप स्वार्थ में सदानिष्ठ रहते हैं एवं सर्वधन हरण करने में उद्यत रहते हैं, वैसे दुराचारिणी स्त्रियाँ भी मथुर वचन एवं रतिक्रीड़ा आदि की अनुकूलता देकर पुरुष का धनहरण करने में उद्यमशील रहती हैं।९९१ ।। दारिद्र्यं विनसा व्याधि, यावन्नाप्नोप्ति मानवः । जायते तावदेवास्याः, कुलपुत्र्या अपि प्रियः ।।९९२॥ अर्थ - कुलवन्ती नारियों को भी पति प्रायः तभी तक प्रिय होता है जब तक उसको दरिद्रता, बुढ़ापा या व्याधि आदि का प्रकोप नहीं आता ||९९२॥ प्रसूनमिव निर्गन्धं, द्वेष्यो भवति निर्धनः। म्लानमालेव वर्षिष्ठो, रोगीक्षुरिव नीरसः ।।९९३ ।। अर्थ - यौवन, धन एवं शक्ति ये तीन विशेषताएँ ही पुरुष को प्रधान आकर्षण प्रदान करती हैं, अत: स्त्रियों को निर्धन पुरुष गन्धरहित पुष्प के सदृश, वृद्ध पुरुष मुरझाई हुई माला के सदृश और रोगी पुरुष रस निकाले हुए नीरस गन्ने के सदृश अप्रिय होता है ।।९९३॥ वञ्चयन्ति नराम्नार्यः, समस्तानपि हेलया! जानन्ति वचनं पोस्नं, तदीयं न नराः पुनः ।।९९४ ॥ अर्थ - नारियाँ समस्त पुरुषों को आयास के बिना हास्य, शपथ, मधुर किन्तु असत्य भाषण आदि के द्वारा लीला मात्र में ठग लेती हैं, किन्तु पुरुष द्वारा किये गये कपट को स्त्रियाँ तत्काल जान लेती हैं।९९४ ।। यथा-यथा स्त्री पुरुषेण मन्यते, तथा-तथा सा कुरुते पराभवम्। यथा-यथा कामवशेन मन्यते, तथा-तथा सा कुरुते विटम्बनाम् ।।९९५ ।। अर्थ - जैसे-जैसे पुरुष स्त्री को मान्यता देता है अर्थात् आदर करता है, वैसे-वैसे स्त्री उसका निरादर करती है और जैसेजैसे कामार्त पुरुष द्वारा उसकी मान्यता होती है, वैसे-वैसे वह नारी पुरुष का तिरस्कार कर विडम्बना करती है ।।९९५॥ Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - २९९ भवन्ति सर्वदा योषा, मत्तास्तम्बेरमा इव । स्वं दासमिव मन्यन्ते, पुरुषं मूढ-मानसाः ॥ ९९६ ॥ अर्थ - मत्त हाथी सदृश मूढ़ स्त्रियाँ सदा मद से उन्मत्त रहती हैं, वे अपने पति को दास के समान मानती हैं ।। ९९६ ॥ शील - संयम - तपो बहिर्भवास्ता नरान्तर - निविष्ट-मानसाः । चिन्तयन्ति पुरुषस्य सर्वदा, दुःखमुग्रमपकारिणो यथा ॥ ९९७ ॥ अर्थ - जो स्त्रियाँ शील, संयम एवं तप से रहित हैं एवं जिनका मन पर-पुरुष में अनुरक्त हैं वे नारियाँ शत्रु के समान सदा अपने पति को भयंकर से भयंकर कष्ट देने का ही चिन्तन करती रहती हैं ॥ ९९७ ॥ कुर्वन्ति दारुणां पीडामामिषाशन - लालसाः । अपराधं विनाप्येताः पुंसां व्याघ्रा इवाधमाः ।। ९९८ ।। अर्थ - जैसे मांसभोजन की लालसा से व्याघ्र निरपराध मनुष्यों को दारुण दुख देता है अर्थात् मार डालता है, वैसे ही कामार्त अधम स्त्रियाँ पुरुषों को निरपराध ही दारुण दुख देती हैं ॥ ९९८ ॥ शम्पेव चञ्चला नारी, सन्ध्येव क्षणरागिणी । छिद्रार्थिनां भुजङ्गीव, शर्वरीव तमोमयी ॥ ९९९ ॥ अर्थ - कुलटा नारी बिजली सदृश चंचल, सन्ध्या की लालिमा सदृश क्षणानुरागी, बिल की इच्छुक सर्पिणी सदृश पर छिद्रान्वेषी और रात्रि सदृश अन्धकारमय होती है ।। ९९९ ।। - सिकता - तृण - कल्लोल - रोमाणि भुवनत्रये । यावन्ति सन्ति तावन्ति, मानसानि मृगीदृशाम् । १००० ॥ अर्थ - तीनों लोकों में बालू के जितने कण हैं, जितने तृण हैं, समुद्र में जितनी लहरें हैं और मनुष्यों के शरीरों पर जितने रोम हैं, दुराचारिणी स्त्रियों के मनो विकल्प उनसे भी अधिक होते हैं || १००० || नग - भूमि- नभीऽम्भोधिसलिलक्षर्नभः स्वताम् । शक्यन्ते परिमा कर्तुं स्त्री - चित्तानां न सर्वथा ।। १००१ ।। अर्थ संसार में पर्वत, भूमि, आकाश, सागर का जल और नभ के तारे, इन पदार्थों का कुछ तो परिमाण जानना शक्य है किन्तु व्यभिचारिणी नारी के मन में निरन्तर उत्पन्न होने वाले संकल्प-विकल्पों का परिमाण जान लेना अशक्य है ।। १००१ | यथा समीरणोल्काम्भो - बुद्बुदाश्चिर - रोचिषः । एकत्र नावतिष्ठन्ते, तथैताश्चल वृत्तयः ॥ १००२ ॥ अर्थ - जैसे वायु, उल्का, जल के बुलबुले एवं बिजली बहुत समय तक एक स्थान पर नहीं टिकते, वैसे ही कुलटा स्त्रियों की प्रीति एक पुरुष में बहुत समय तक नहीं रहती || १००२ ॥ Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - २९२ गृहीतुं शक्यते जातु, परमाणुरपि ध्रुवम्। न सूक्ष्मं योषितां स्वान्तं, दुष्टानामिव चञ्चलम् ॥१००३ ।। अर्थ - कदाचित् मनुष्य द्वारा परमाणु का ग्रहण शक्य है किन्तु दुष्ट मनुष्यों के चंचल मन सदृश स्त्रियों के चित्तगत सूक्ष्म अभिप्राय को समझ पाना शक्य नहीं है ।।१००३।। कहाः काठीरमः सर्गः, स्वीकतु जातु शक्यते। न चित्तं दुष्ट-वृत्तीनामेतासामसिभीषणम्।।१००४॥ अर्थ - क्रोधित सिंह, क्रोधित सर्प एवं गज आदि को पकड़ना शक्य है किन्तु दुष्ट एवं दुराचारिणी इन स्त्रियों की अतिभीषण चित्तवृत्ति को पकड़ लेना शक्य नहीं है।।१००४ ।। रूपं सन्तमसि द्रष्टुं, विद्युत्-द्योतेन पार्यते । चेतश्चल-स्वभावानां,योषाणां न कथञ्चन ।।१००५॥ अर्थ - बिजली के प्रकाश में अपने नेत्र में स्थित रूप को देखना शक्य है, किन्तु स्त्रियों के अति चंचल चित्त को जान लेना या पकड़ लेना शक्य नहीं है ।।१००५ ।। हरन्ति मानसं रामा, नराणामनुवर्तनैः । तावद्यावन्न जानन्ति, रक्तं कुटिल-चेतसः॥१००६ ॥ अर्थ - कुटिल स्वभाव वाली स्त्रियाँ अपनी मधुर वाणी एवं हास्य आदि के द्वारा पुरुष के अनुकूल वर्तन कर उसके चित्त का तब तक हरण करती हैं जब तक कि उस पुरुष को अपने में अनुरागयुक्त हुआ नहीं जानतीं ॥१००६॥ हसितैः रोदनैर्वाक्यैः, शपथैर्विविधैः शठाः । अलीकैर्मानसं पुंसां, गृह्णन्ति कुटिलाशया:॥१००७ ।। अर्थ - कफ्ट मन वाली शठ स्त्रियाँ बनावटी हास्य वचनों से, बनावटी रुदन से, विविध वाक्यों से और नाना प्रकार की झूठी शपथों से पुरुष के चित्त का हरण करती रहती हैं।।१००७।। हरन्ति पुरुषं वाचा, चेतसा प्रहरन्ति ताः। वाचि तिष्ठति पीयूषं, विषं चेतसि योषिताम् ।।१००८॥ अर्थ - कुटिल स्त्रियों के वचनों में अमृत और हृदय में विष भरा रहता है, अत: वे मधुर वचनों द्वारा पुरुष के चित्त को आकृष्ट करती हैं और पापपूर्ण हृदय से उसका घात करती हैं ।।१००८॥ पाषाणोऽपि तरेत्तोये, न दहेदपि पावकः । न चित्तं पुरुष स्त्रीणां, प्राञ्जलं जातु जायते ।।१००९ ।। अर्थ - कदाचित् पाषाण जल में तैरने लग जाय, अग्नि अपना दाहक स्वभाव छोड़कर शीतल हो जाय, किन्तु दुराचारिणी स्त्री का मन पुरुष के प्रति कभी सरल नहीं हो सकता ।।१००९ ।। Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - २९३ प्राब्जलत्वं विना स्त्रीषु, विसम्भो जायते कथम्। विसम्मेण विना तासु, जायते कीदृशी रतिः ॥१०१०॥ अर्थ - जिन स्त्रियों में सरलता नहीं है, उनमें विश्वास कैसे कर सकते हैं और विश्वास के बिना उनमें रति किस प्रकार हो सकती है।।१०२०।। बाहुभ्यां जलधे: पारं, तीर्वा याति परं ध्रुषम् ।। न माया-जलधेः स्त्रीणां बहु-विभ्रम-धारिणः ॥१०११॥ अर्थ - जो महाबलशाली पुरुष अपनी भुजाओं के बल से तैर कर समुद्र का किनारा प्राप्त कर सकता है, वह पुरुष भी माया रूपी जल से भरे और अत्यधिक विभ्रमरूपी भँवर वाले स्त्री रूपी समुद्र को पार करने में समर्थ नहीं होता है॥१०११ ।। सव्याघ्रव गुहा रत्नैर्बहु-भेदैर्विराजते । रमणीया सदोषा च, जायते महिला सदा॥१०१२ ।। अर्थ - जैसे नाना प्रकार के बहुत रत्नों से भरी किन्तु व्याघ्र के निवास से युक्त गुफा भयानक होती है, वैसे ही अति सुन्दर एवं सदा मधुर बोलने वाली भी कपटयुक्त स्त्री सदोष होती है।।१०१२।। न दृष्टमपि सद्भाव, धन-धी: प्रतिपद्यते । गोधान्तद्धि विथत्ते सा, पुरुष कुल-पुश्यपि ।।१०१३॥ ___अर्थ - जैसे गोह जिस भूमि को पकड़ लेती है या जिस स्थान पर चिपक जाती है, बल पूर्वक छुड़ाये जाने पर भी वह उसे नहीं छोड़ती, वैसे ही उत्तम कुल में उत्पन्न भी कुटिल बुद्धि वाली स्त्री पुरुष के द्वारा देख लिये गये अपराध को भी न स्वीकार करती है और न उस दोष को छोड़ती है।।१०१३ ।। स्त्रीवाचक शब्दों की निरुक्ति अर्थ से भी स्त्री के दोष प्रगट होते हैं। यथा दोषाच्छादनत: सा स्त्री वधूर्वध-विधानतः । प्रमदा गदिता प्राज्ञैः, प्रमाद बहुलत्वतः ॥१०१४ ॥ अर्थ - प्राज्ञ पुरुष नारी को दोषों का आच्छादन करने के कारण स्त्री', अपने पति का भी वध करने में नहीं चूकती अत; 'वधू' और प्रमाद की बहुलता के कारण उसे 'प्रमदा' कहते हैं ।।१०१४।। नारियत: परोस्त्यस्यास्ततो नारी निगद्यते। यतो विलीयते दृष्ट्वा , पुरुषं विलया ततः॥१०१५ ।। अर्थ - ‘न अरिः इति नारी' इस निरुक्ति अर्थानुसार पुरुष के लिए इससे बढ़कर अन्यकोई वैरी नहीं है, इसलिए इसे 'नारी' कहते हैं और पुरुष के लिए अनर्थकारी है अथवा पुरुष को देखकर विलीन हो जाती है या छिप जाती है, इसलिए इसे 'विलया' कहते हैं ।।१०१५॥ Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - २९४ कुत्सिता नुर्यतो मारी, कुमारी गदिता ततः । बिभेति धर्म-कर्मभ्यो, यतो भीरुस्ततो मता ।। ९०९६ ।। अर्थ - पुरुष के कुत्सित मरण का उपाय करने वाली होने से 'कुमारी' और सदा धर्मकार्य से डरती है अतः उसे 'भीरु' कहते हैं ।। १०१६ ।। यतो लाति महादोषं, महिलाभिहिता ततः । अबला भण्यते तेन, न येनास्ति बलं हृदि ।। १०१७ ।। अर्थ - पुरुष पर दोषारोपण करती हैं अथवा महादोष लाती है अत: 'महिला' और उसके हृदयमें धैर्यरूपी बल नहीं रहता अतः उसे 'अबला' कहते हैं ॥१०१७ | जुषते प्रीतितः पापं यतो योषा ततो मता । यतो दुना निः ॥ १०१८ ।। अर्थ- प्रीतिपूर्वक पाप सेवन करने से, अथवा पुरुष को दुख से योजित करती है अतः 'योषा' या 'युवती' कहते हैं, तथा खोटे आचरण में लगी रहती है अतः 'ललना' कहते हैं ॥ १०१८ ॥ नामान्यपि दुरर्थानि जायन्ते योषितामिति । समस्तं जायते प्रायो, निन्दितं पाप- चेतसाम् ।। १०९९ ।। अर्थ - इस प्रकार नारियों के नाम प्रायः खोटे अर्थ वाले ही होते हैं क्योंकि जिनके चित्त में सदा पाप विद्यमान रहता है, प्राय: उनके सर्व नामादि निन्दित ही हुआ करते हैं ।। १०१९ ।। स्त्रियों के और भी अन्य दोष मत्सराविनयायास-क्रोध-शोकायशोभियाम् । सर्वासां कारणं रामा, विषाणामिव सर्पिणी ।। १०२० ॥ अर्थ- जैसे विष का कारण सर्पिणी है, वैसे ही मत्सर, अविनय, कष्ट, क्रोध, शोक, अयश और भय का कारण स्त्री है ॥ १०२० ॥ कुल - जाति - यशो - धर्म - शरीरार्थ - शमादयः । नाश्यन्ते योषया सर्वे, वात्यया तोयदा इव ।। १०२१ ॥ अर्थ - जैसे आँधी द्वारा मेघ नष्ट कर दिये जाते हैं उसी प्रकार कुलटा स्त्री द्वारा कुल, जाति, यश, धर्म, शरीर, धन और प्रशमभाव आदि समस्त प्रशस्त पदार्थ नष्ट कर दिये जाते हैं ।। १०२१ ॥ पावक: सुख- दारूणां, आवासो दुःख पाथसाम् । प्रorat व्रत-रत्नानामनर्थानां निकेतनम् ।। १०२२ ॥ Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - २२५ अर्थ - कुटिला नारियाँ सुखरूपी लकड़ियों को जलाने के लिए अग्नि सदृश हैं, दुख रूपी जल के ठहरने का स्थल हैं, व्रतरूपी रत्नों के नाश का कारण हैं और सर्व अनर्थों का घर हैं ।।१०२२ ।। असत्यानां गृहं योषा, वञ्चनानां वसुन्धरा । कुठारी धर्म-वृक्षाणां, सिद्धि-सौध-महार्गला ॥१०२३।। अर्थ - स्त्री असत्य भाषणों का घर है, ठगाई या मायाचारी की भूमि है, धर्मरूपी वृक्षों को काटने के लिए कुठारी है और मोक्षमहल की महा अर्गल है।।१०२३ ।। दोषाणामालयो रामा, मीनानामिव वाहिनी। गुणानां नाशिका माया, व्रतानामिव जायते ॥१०२४॥ __ अर्थ - जैसे मछलियों के रहने का स्थान नदी है, वैसे ही दोर्षों का स्थान नारी है। जैसे छल-कपट रूप माया व्रता को नष्ट करने वाली है, वैसे ही गुणों को नष्ट करने वाली स्त्री है॥१०२४ ।। बंधने महिला पाशः, खड्गः पुंसां निकर्तने । छेदने निशित: कुन्तः, पङ्कोऽगाथो निमज्जने।।१०२५ ॥ अर्थ - यह नारी पुरुषादि को बाँधने के लिए पाश अर्थात् जाल के सदृश, उन्हें काटने के लिए तलवार सदृश, छेदने के लिए पैने भाला सदृश और उन्हें डूबने के लिए अगाध कीचड़ के सदृश है॥१०२५।। नराणां भेदने शूलं, वहने नग-वाहिनी। मारणे दारुणो मृत्युर्मलिनी-करणे मषी ॥१०२६ ॥ अर्थ - यह नारी पुरुषों को छेदन करने के लिए शूल सदृश, बहा कर ले जाने के लिए पर्वतीय नदी सदृश, मारने के लिए दारुण मृत्यु सदृश एवं मलिन करने के लिए स्याही सदृश है ।।१०२६॥ अनलो दहने पुंसां, मुद्गरश्चूर्णने परः। ज्वलन्ती पवने कण्डू:, करपत्रं विपाटने ॥१०२७ ।। अर्थ - नारी पुरुषों को जलाने के लिए मानों अग्नि ही है, चूर्ण कराने में मुद्गर समान है, वासना रूप अग्नि को वृद्धिंगत करने के लिए पवन है और पुरुष का हृदय विदारण करने के लिए कर्रोत है॥१०२७॥ उष्णश्चन्द्रो रविः शीतो, जायते गगनं घनम् । नादोषा प्रायशो रामा, कुलपुत्र्यपि जातु चित् ॥१०२८॥ अर्थ - कदाचित् चन्द्रमा उष्ण हो सकता है, सूर्य शीतल हो सकता है, गगन घनीभूत हो सकता है, किन्तु कुलवन्ती स्त्रियाँ भी प्रायः दोषरहित नहीं देखी जाती हैं।।१०२८ ।। सर्पिणीव कुटिला विभीषणा, वैरिणीव बहु-दोषकारिणी। मण्डलीव मलिना नितम्बिनी, चाटुकर्म वितनोति यच्छतम् ।।१०२९॥ Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - २९६ अर्थ - यह स्त्री सर्पिणी सदृश कुटिला, पैरा के सदृश भयङ्कर, बहुत दोषों को करने वाली होती है और मण्डली के सदृश मलिन यह नारी पुरुष को वश में करने के लिए सैकड़ों चाटुकर्म करती रहती है॥१०२९।। नारीभ्यः पश्यतो दोषानेतानन्यांश्च सर्वथा। चित्तमुद्विजते पुंसो, राक्षसीभ्य इव स्फुटम् ।।१०३० ।। अर्थ - जैसे राक्षसी से सदा अतिशय भय लगता है, वैसे ही नारी द्वारा होने वाले उपर्युक्त दोषों को तथा और भी अन्य दोषों को देखकर पुरुष का चित्त उनसे सर्वथा उद्विग्न हो जाता है ।।१०३०॥ योषास्त्यजन्ति विद्वान्सो, दोषान् ज्ञात्वेति दूरतः। व्याघ्रीरिव कृपा-हीनाः, परामिष परायणाः ।।१०३१ ।। अर्थ - जैसे निर्दय एवं पर के मांस में आसक्त व्याघ्री को चतुर मनुष्य दूर से छोड़ देता है अर्थात् उससे दूर रहता है, वैसे ही विद्वान् पुरुष स्त्री विषयक इन दोषों को जानकर उनसे दूर रहते हैं अर्थात् स्त्रियों को दूर से ही छोड़ देते हैं ।।१०३१॥ स्त्रियों से भी अधिक दोष पुरुषों में होते हैं अतः ऐसे पुरुष भी त्याज्य हैं दोषा ये सन्ति नारीणां, नराणां ते विशेषतः। द्रष्टव्या दुष्ट-शीलानां, प्रकृष्ट-बल-तेजसाम्॥१०३२ ।। अर्थ - स्त्रियों में जो दोष हैं वे दोष नीच एवं दुष्ट स्वभाव वाले पुरुषों में भी होते हैं। प्रत्युत् बल, तेज एवं शक्ति अधिक होने से उनमें स्त्रियों से भी अधिक दोष होते हैं। स्त्रियों को भी पुरुषों के दोष देखकर अपनी रक्षा करनी चाहिए॥१०३२॥ व्याघ्रा इव परित्याज्या, नरा दूरं कुचेतसः । रामाभिः शुद्ध-शीलाभी, रक्षन्तीभिर्निजं व्रतम् ॥१०३३|| अर्थ - शुद्ध शीलवती एवं अपने ब्रह्मचर्य व्रत की रक्षा करने वाली नारियों द्वारा खोटी बुद्धि वाले पुरुष उसी प्रकार दूर से छोड़ देने चाहिए जिस प्रकार व्याघ्र दूर से छोड़ दिया जाता है॥१०३३ ।। यथा नरा विमुञ्चन्ते, वनिता ब्रह्मचारिणः । त्याज्यास्ताभिर्नरा ब्रह्मचारिणीभिस्तथा सदा ।।१०३४ ।। अर्थ - जैसे अपने शील की रक्षा हेतु ब्रह्मचारी पुरुषों द्वारा स्त्रियाँ त्याज्य हैं, वैसे ही शीलरक्षा हेतु ब्रह्मचर्य व्रत धारण करने वाली स्त्रियों द्वारा पुरुष भी सदा त्याज्य होते हैं ॥१०३४ ।। स्त्री-प्रशंसा न रामा निखिलाः सन्ति, दोषषन्त्यः कदाचन । देवता इव दृश्यन्ते, वन्दिता बहवः स्त्रियः ।।१०३५ ॥ __ अर्थ - कभी भी सभी स्त्रियाँ दोषयुक्त नहीं होती। बहुत सी स्त्रियाँ तो देवताओं के सदृश वन्दनीय भी देखी जाती हैं।।१०३५ ।। Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका २९७ मातारस्तीर्थकर्तॄणां भुवनोद्योतकारिणाम् । जायन्ते वनिता धन्याः शक्र वन्द्य-क्रमाम्बुजाः ।। १०३६ ।। अर्थ - तीनों लोकों में उद्योत करने वाले तीर्थंकर देव की माताएँ श्रेष्ठ, धन्य तथा इन्द्र द्वारा वन्दनीय चरण कमल वाली भी होती हैं । १०३६ ॥ शलाका-पुरुषास्ताभिर्जन्यन्ते भुवनार्चिताः । धात्रीभिरिव शुद्धाभिर्मणयः पुरु-तेजस: ।। १०३७ ॥ अर्थ - जैसे शुद्ध पृथ्वी द्वारा उत्कृष्ट तेजस्वी रत्न उत्पन्न किये जाते हैं, वैसे ही अनेक धन्य माताओं द्वारा त्रिभुवनपूज्य शलाका महा - पुरुष उत्पन्न किए जाते हैं ।। १०३७ ॥ पुंरत्नानि न जायन्ते, शुद्ध-शीलाः स्त्रियों विना । विना नीरद - मालाभिः पानीयानां क्व सम्भवः ।। १०३८ ।। अर्थ- शुद्ध शीलवती महिलाओं के बिना तीर्थंकर एवं बलभद्र जैसे नररत्न उत्पन्न नहीं हो सकते। क्या कभी मेघमालाओं के बिना भी जल की उत्पत्ति हो सकती है ? नहीं हो सकती ॥१०३८ ॥ आजन्म विधवाः काश्चिद्, ब्रह्मचर्यमखण्डितम् । धरन्ति दुर्धरं धन्या, ज्वलद्दीपमिवोज्ज्वलम् ॥१०३९ ॥ अर्थ - कितनी ही महिलाएँ आजीवन विधवा रहती हुई अपने ब्रह्मचर्य व्रत को अखण्डित रखती हैं। अनेक धन्य महिलाएँ प्रारम्भ से ही जलते हुए दीपक के सदृश उज्ज्वल एवं दुर्धर ब्रह्मचर्य धारण करती हैं ।। १०३९ ॥ कन्याभिरार्थिकाभिश्च, चीयते दुश्चरं तपः । विच्छिद्य शम-शस्त्रेण, मन्मथ - प्रतिबन्धकम् ॥ १०४० ॥ अर्थ - कुमारी कन्याओं द्वारा एवं आर्यिकाओं द्वारा प्रशम भाव रूप शस्त्र से ब्रह्मचर्य व्रत के प्रतिबन्धक मन्मथ को छेद कर घोर तपश्चरण किया जाता है || १०४० ॥ ध्रियते शुद्ध-शीलाभिर्यावज्जीवमदूषितम् । पति - ब्रह्मव्रतं स्त्रीभिः, पराभिः पूजितं सताम् ।। १०४१ ।। अर्थ- शुद्ध स्वभाव वाली अनेक अनेक श्रेष्ठ नारियाँ यावज्जीवन निर्दोष एकपतिव्रत का पालन करती हुई, राजा आदि सज्जन पुरुषों द्वारा पूजित होती हैं ।। १०४१ ।। देवेभ्यः प्रातिहार्याणि प्राप्ता विख्यात - कीर्तयः । योषाः शील- प्रसादेन, श्रूयन्ते बहवो भुवि ।। १०४२ ।। अर्थ - विख्यात है कीर्ति जिनकी ऐसी अनेकानेक महिलाएँ इस पृथ्वीतल पर सुनी जाती हैं जिन्होंने अपने शुद्ध शील के प्रभाव से देवेन्द्रों द्वारा प्रातिहार्य प्राप्त किये थे । १०४२ ॥ प्रश्न - इस काल में ऐसी कौन सी नारियाँ लब्धप्रतिष्ठ हुई हैं ? Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - २१८ उत्तर - इस हुण्डावसर्पिणी काल में भी सीता, अंजना, द्रौपदी, अनन्तमती, रयणमंजूषा एवं चन्दना आदि अनेक श्रेष्ठ नारियाँ सुनी जाती हैं जिन्होंने अपने शुद्ध शील के प्रभाव से देवों के आसन कम्पायमान किये थे, उनके द्वारा सिंहासन, छत्र, चमर, देवदुन्दुभिनाद एवं पुष्पवृष्टि आदि प्रातिहा प्रा किये थे एवं अपना निर्मल कीर्ति द्वारा जगत् को प्रकाशमान किया था। इससे यह सिद्ध होता है कि जैसे सब पुरुष दुष्ट एवं व्यभिचारी नहीं होते, ऐसे ही सर्व स्त्रियाँ दुष्टा, कुलटा एवं दुराचारिणी नहीं होती हैं। शीलवन्त्यो विलोक्यन्ते, ता धन्या बुध-वन्दिताः। समर्थाः शीतली-कर्तुं, या ज्वलन्तं हुताशनम् ।।१०४३॥ अर्थ - इस संसार में वे शीलवन्ती, धन्य नारियाँ भी देखी जाती हैं, जो जलती हुई अग्नि को शीतल करने में समर्थ हुई हैं और बुद्धिमानों अर्थात् बलभद्र-नारायणों द्वारा वन्दित हुई हैं ।।१०४३ ।। सर्व-शास्त्र-समुद्राणां, वन्दितानां जगत्त्रये।। सवित्र्यः सन्ति शीलान्याः, साधूनां घरमाङ्गिनाम् ।।१०४४ ।। अर्थ - इस जगत् में ऐसी भी शील-सम्पन्न माताएं हुई हैं जिन्होंने समस्त शास्त्र-समुद्र के पारगामी, त्रैलोक्यवन्दित एवं चरमशरीरी साधुओं को जन्म दिया है ॥१०४४।। । निमज्ज्यन्ते न पानीयैीयन्ते न नदी-जलैः। सत्यो व्यालैर्न भक्ष्यन्ते, न दयन्ते, हुताशनैः ॥१०४५॥ अर्थ - जो सत्य है अर्थात् जिसका उत्तम शील है वह जल द्वारा डुबोया नहीं जा सकता, नदी के जलसमूह द्वारा बहाया नहीं जा सकता, व्याल-व्याघ्र आदि जंगली पशुओं द्वारा भक्षण नहीं किया जा सकता और अग्नि द्वारा जलाया भी नहीं जा सकता॥१०४५ ।। मोहोदयेन जायन्ते, स्त्री-पुंसामशुभाः शुभाः। परिणामा इति ज्ञात्वा, मोहो निन्द्यो न जन्तवः ॥१०४६ ॥ अर्थ - इस संसार में स्त्री और पुरुष दोनों के ही मोह के उदय से अशुभ और शुभ दोनों प्रकार के परिणाम हुआ करते हैं, ऐसा जान कर मोह की निन्दा करनी चाहिए, जीवों की नहीं ।।१०४६ ।। साधारणेऽत्र सर्वेषां, जीवानामनिवारिते। दुष्टाः सन्ति परीणामास्ततः कार्योऽस्य निग्रहः ॥१०४७ ॥ अर्थ - इस विचित्र संसार में सभी जीवों के भले-बुरे अर्थात् सुशील एवं कुशील रूप अनेक परिणाम निर्बाध रूप से होते रहते हैं। इनमें जो खोटे परिणाम हैं उनका कारण मोह का तीव्रोदय है अतः मोह का ही निग्रह करना चाहिए ।।१०४७ ।। श्लाघ्या भवंति नार्योऽपि, शुद्ध-शीला महीयसा । स्त्री-पुमानिति कुर्वन्ति, शेमुषीं मन्द-मेधसः ।।१०४८ ॥ Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - २९९ अर्थ - संसार में शुद्ध शीलवती नारियाँ भी महापुरुषों के द्वारा प्रशंसनीय होती हैं। जो मन्दबुद्धि हैं वे ही अपनी बुद्धि में स्त्री पुरुष का भेद रखते हैं ।।१०४८ ।। प्रश्न - स्त्री-पुरुष दोनों एक कैसे हो सकते हैं, न शोएतः भेष है, फिर भेद करने वाला मन्दबुद्धि कैसे ? उत्तर - यहाँ प्रकरण सदाचार और दुराचार का है। इस दृष्टि से स्त्री हो या पुरुष यदि दुष्ट और कुशील हैं तो दोनों ही निन्दनीय हैं और यदि दोनों शीलवान एवं सदाचारी हैं तो दोनों प्रशंसनीय हैं। इस दृष्टि से दोनों में कोई भेद नहीं है। सामान्येन ततो नेह, निंदिताः सन्ति योषितः । शुद्ध-शीला न गच्छन्ति, दूषणं हि कदाचन ॥१०४९।। अर्थ - इसलिए उपर्युक्त सर्व प्रकरण पढ़कर कोई यह न समझ ले कि केवल स्त्रियों की ही निन्दा की गई है। स्त्री हो या पुरुष यदि कुशील एवं दुराचारी हैं तो दोनों निन्दनीय हैं। शुद्ध शील स्वभाव वाली स्त्रियाँ कभी दूषण को प्राप्त नहीं होतीं ॥१०४९ ॥ शुद्ध-शील-कलितासु जायते, नागनासु चरितं मलीमसम्। आस्पदं हि विदधाति तामसं, हंस-रश्मिषु कदाचनापि किम् ॥१०५०॥ इति स्त्री दोषाः॥ अर्थ - शुद्ध शीलवान स्त्रियों में चरित्र की मलिनता नहीं पाई जाती। क्या कभी सूर्य की उज्ज्वल किरणों में अन्धकार स्थान पा सकता है ? नहीं पा सकता ; वैसे शीलवती नारियों का आचरण कभी मलिन नहीं होता।।१०५०॥ प्रश्न - इस ग्रन्थ में स्त्रियों के इतने अधिक दोष क्यों कहे गये हैं ? उत्तर - मात्र इस ग्रन्थ में ही नहीं, अपितु जिन किन्हीं ग्रन्थों में भी ब्रह्मचर्य व्रत का विषय आता है वहाँ यही पद्धति दृष्टि-गोचर होती है कि प्रथम स्त्रियों के दोष सविस्तर दर्शाये जाते हैं, पश्चात् अति संक्षेप में पुरुषों के दोष कहे जाते हैं। यहाँ आचार्य अमितगति ने पुरुषों को अर्थात् विशेषतया मुनिराजों को स्त्रियों के आकर्षण से विरक्ति दृढ़ कराने के लिए स्त्रियों के दोष दर्शाये हैं। पुनश्च नारियों को पुरुषों से विरक्त करने हेतु पुरुषों के दोष भी दर्शाये हैं। इतना अवश्य है कि पुरुषों के दोष अति अल्प श्लोकों द्वारा कहे गये हैं। प्रश्न - जब स्त्री-पुरुष दोनों का दुराचरण समान रूप से निन्दनीय है तब मात्र स्त्रियों के दूषणों का सविस्तर वर्णन करने का क्या हेतु है? ग्रन्थ रचना आचार्यों ने की है, गणिनी आर्यिकाओं ने नहीं। क्या इस कारण यह अतिक्रमण स्त्रियों पर हुआ है ? उत्तर - ग्रन्थों का मूल स्रोत भगवान जिनेन्द्र की दिव्य ध्वनि है और जिनेन्द्र का पद पुरुषों को ही प्राप्त Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका ३०० हो सकता है, स्त्रियों को नहीं, अतः जिनेन्द्र के लघु नन्दनों अर्थात् आचार्यों को ही मूल ग्रन्थ लिखने का अधिकार है, क्योंकि वे ही जीवन पर्यन्त के लिए नौ कोटी से सत्य महाव्रत पालन की एवं सत्य महाव्रत के बाधक स्वरूप हिंसा आदि पापों को नौ कोटी से त्यागने में समर्थ होते हैं। ब्रह्मचर्यव्रत के वर्णन में प्रधानतया स्त्री सम्बन्धी दोषों का सविस्तर वर्णन करने के तीन हेतु और हैं। यथा प्रथम हेतु मुक्ति की प्राप्ति पुरुष को ही हो सकती है अतः मोक्षमार्ग पर पुरुष ही निर्बाध गति से गमन करने में सक्षम है। स्त्रियाँ भी मोक्षमार्ग पर चलती हैं किन्तु उनकी पर्यायजन्य विवशता के कारण वे परिग्रह का सर्वथा त्याग नहीं कर पात अतः उनका गन्तव्य पर्यन्त निर्बाध गमन नहीं हो पाता। जो मार्ग पर तो चले किन्तु उसे पूर्ण करने में असमर्थ हो, उसे उस मार्ग सम्बन्धी कथन में मुख्यता कैसे प्राप्त हो सकती है ? दूसरा हेतु - धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारों पुरुषार्थों की पराकाष्ठा का स्पर्श पुरुष ही पूर्ण रूप से करने में सक्षम होते हैं अतः वे ग्रन्थों की रचना में चरित्रनायक के स्थानीय होते हैं और शास्त्ररचना की नीत्यनुसार चरित्रनायक के दोषों का विस्तृत वर्णन किया नहीं जाता है। अतः पुरुषों के अधिक दोष नहीं कहे जाते । - तीसरा हेतु - जो व्यक्ति प्रारम्भ किये हुए कार्य को अन्त- पर्यन्त पूर्ण कर सके उसी को उस कार्य सम्बन्धी उपदेश मुख्य रूप से दिया जाता है। लौकिक पद्धति भी यही है। प्रश्न- इतने अधिक दोष कहने का क्या हेतु है ? उत्तर- "अङ्गारसदृशी नारी, नरः घृतोपमो मतः” इस नीत्यनुसार स्त्री-पुरुष दोनों का परस्पर चुम्बक और सुई के सदृश आकर्षण बनता है। आकर्षण उत्पन्न होते ही परस्पर स्मितहास्य पूर्वक वार्तालाप, बार-बार सम्पर्क करना, कटाक्ष आदि फेंकना, इन क्रियाओं से अनुराग वृद्धिंगत होता जाता है, तब घृत के सदृश पुरुष का हृदय पिघल जाता है जिससे सर्व अनर्थ सम्पन्न हो जाते हैं। आचार्यों ने परस्पर का अनुराग तोड़ने का एक ही अचूक उपाय दर्शाया है कि “जब किसी भी वस्तु से अनुराग तोड़ना हो तब उस वस्तु के दुर्गुण देखना और उन्हीं का चिन्तन प्रारम्भ कर देना, इससे अनुराग टूट जाएगा"। यहाँ आचार्यदेव का यह अभिप्राय है कि मुनिमुद्रा शतेन्द्र बन्दनीय हैं, इस मुद्रा को धारण कर स्त्रियों के प्रति अनुराग उत्पन्न न हो और यदि उत्पन्न हो गया है तो शीघ्र ही नष्ट हो जावे, अतः स्त्री सम्बन्धी दोषों का सविस्तार वर्णन किया गया है। कल्याणेच्छु जीवों का यह कर्तव्य है कि वे शास्त्र के हार्द को समझें, किसी विवाद में न पड़ें। तात्त्विक . दृष्टि अपना कर स्त्री और पुरुष दोनों को अपने ब्रह्मचर्य व्रत का निर्दोष रीत्या पालन कर आत्मोत्थान करना चाहिए। में दृढ़ इस प्रकार स्त्रीदोष कथन प्रकरण समाप्त हुआ । मुनिजन को विरक्ति उत्पन्न कराने हेतु स्त्रियों के दोषों का सविस्तार कथन किया गया। अब उन्हें वैराभ्य करने हेतु शरीर सम्बन्धी दोषों का प्रतिपादन किया जा रहा है। Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22 मरणकण्डिका → ३०१ मनुष्य शरीर के कथन हेतु बारह प्रकरण हैं देहस्य बीज - निष्पत्ति - क्षेत्रान्धो जन्म - वृद्धयः । अंसाश्च निर्गमोऽशीचं ज्ञेयं व्याधिरनित्यता ।। १०५१ ॥ अर्थ - शरीर का बीज, उसकी निष्पत्ति, क्षेत्र, आहार, जन्म, गर्भ में आने के क्षण से शरीर की वृद्धि, अवयव, निर्गम, अशुचित्व, असारता, व्याधि और अनित्यता, इन बारह प्रकरणों द्वारा शरीर का वर्णन करेंगे ।। १०५१ ।। " देह के बीज का वर्णन देहस्याशुचिनिर्बीजं यतो लोहित - रेतसी । ततोऽसावशुचिज्ञेयो यथा गूथाज्य - पूरक: ।। १०५२ ॥ अर्थ - जैसे विष्ठा (मल) से बना घेवर अशुचि अर्थात् अपवित्र होता है, वैसे ही इस शरीर का बीज माता का रक्त और पिता का वीर्य है। जो स्वयं अपवित्र है अतः शरीर भी अपवित्र है ॥ १०५२ ॥ द्रष्टुं घृणायते देहो, वर्चो - राशिरिष स्फुटम् । स्प्रष्टुमालिङ्गितुं भोक्तुं तद्बीजो भुज्यते कथम् ।। १०५३ ।। अर्थ - जैसे विष्ठा देखने योग्य नहीं है अपितु उसके देखते ही ग्लानि उत्पन्न होती है, वैसे ही जब शरीर को देखने मात्र से घृणा होती है तब उसका स्पर्शन करना, आलिंगन करना एवं मैथुन सेवन रूप भोगना कैसे शक्य है ? ||१०५३ ॥ कणिका - शुद्धितः शुद्धः, कणिका - घृत- पूरक: । वर्ची - बीजः कथं देहो, विशुद्ध्ययति कदाचन ।। १०५४ ।। इति बीजं ॥ अर्थ- जैसे गेहूँ के आटे से बना घेवर शुद्ध होता है क्योंकि वह शुद्ध आटे से बना है, किन्तु जिसका to अशुद्ध है, उससे बना हुआ शरीर शुद्ध कैसे हो सकता है ।। १०५४ ।। शरीर के बीज का वर्णन समाप्त ॥ १ ॥ शरीर की निष्पत्ति दशाहं कललीभूतं दशाहं कलुषी - कृतम् । दशाहं च स्थिरीभूतं, बीजं गर्भेऽवतिष्ठते ॥ १०५५ ॥ अर्थ - गर्भ में स्थित माता का रज और पिता का वीर्य रूप बीज दस दिन तक कललरूप में, फिर आगे दस दिन तक कलुषित या कालिमा रूप में और आगे दस दिन तक स्थिर रहता है ।। १०५५ ॥ प्रश्न- कलल अवस्था का क्या अर्थ है ? Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ३०२ उत्तर - जैसे ताँबा एवं चाँदी को गला कर विलीन कर दिया है, वैसे ही रज और वीर्य का एक दूसरे में विलीन हो जाना कललावस्था है। मासेन बुदबुदी-भूतं, तन्मासेन घनी-कृतम्। मांसपेशी च मासेन, जायते गर्भ-पञ्जरे ॥१०५६।। अर्थ - दूसरे मास में वह वीर्य बुलबुले के सदृश रहता है, पुन: तीसरे मास में घनीभूत अर्थात् कठोररूप में, फिर चतुर्थ मास में वह उस गर्भपंजर में मांसपेशी की आकृति को धारण कर लेता है॥१०५६ ॥ मासेन पुलकाः पञ्च, मासेनाङ्गानि षष्ठके। उपाङ्गानि च जायन्ते, गर्भवास-निवासिनः ॥१०५७ ।। अर्थ - गर्भवास में निवास करने वाले उस जीव के पांचवें मास में उस मांसपिण्ड में से पाँच अंकुर अर्थात् पुलक दो हाथ, दो पैर एवं एक सिर रूप में उत्पन्न होते हैं। तथा छठे मास में उस बालक के अंग और उपांग बन जाते हैं ।।१०५७॥ चर्म-रोमाणि जायन्ते, मासे तस्यात्र सप्तमे । स्पन्दोऽष्टमे विनिर्याणं, नवमे दशमे ततः॥१०५८।। __ अर्थ - उस गर्भस्थ पिण्ड पर सातवें मास में चर्म, रोम और नख बन जाते हैं। आठवें मास में हलनचलन होने लगता है। तथा नौवें अथवा दसवें मास में उसका जन्म हो जाता है॥१०५८ ॥ यतोऽशुचीनि सर्वाणि, कललादीनि कारणम् । वर्चासीव ततो देहो, जुगुप्स्यो महतां सदा ॥१०५९।। इति निष्पत्तिः॥२॥ __अर्थ - रज और वीर्य की कलिलादि सभी अवस्थाएँ अत्यन्त अपवित्र हैं, अत: महापुरुषों द्वारा सदा ही यह देह विष्ठा की राशि के सदृश ग्लानि करने योग्य है।।१०५९।। इस प्रकार शरीर-रचना का वर्णन समाप्त ॥२॥ क्षेत्र कथन तिष्ठत्यामाशयस्याध, ऊर्ध्व पक्वाशयस्य सः । जरायुर्वेष्टितो मासान्नवात्रामध्य-मध्यग:॥१०६० ॥ अर्थ - आमाशय के नीचे और पक्वाशय के ऊपर, इन दोनों अशुचि स्थानों के मध्य में जाल सदृश जरायु से वेष्टित यह गर्भ नव या दस मास पर्यन्त रहता है। आमाशय एवं पक्वाशय के मध्य में रहने से इसे अमेध्य मध्यग कहते हैं ।।१०६०॥ प्रश्न - आमाशय और पक्वाशय किसे कहते हैं ? Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ३०३ उत्तर - उदराग्नि के द्वारा खाया हुआ भोजन पूर्णरूपेण नहीं पकता अत: उसे आम कहते हैं और उसके स्थान को आमाशय कहते हैं, तथा जठराग्नि अथवा उदराग्नि के द्वारा पकाये हुए भोजन को पक्व कहते हैं और उसके स्थान को पक्वाशय कहते हैं। इन अपक्व एवं पक्व के मध्य में गर्भस्थान होता है। रुधिर तथा मांस के जाल को वस्तिपटल या जरायु कहते हैं। गर्भस्थ बालक इस जरायु द्वारा चारों ओर से वेष्टित रहता है। मासमेकं स्थितोऽध्यक्षं, वर्ची मध्ये जुगुप्स्यते । निजोऽपिन कग, बालोव द तिः॥१०६१।। इति क्षेत्रम्॥ अर्थ - गन्दे वमन के मध्य में एक मास पर्यन्त प्रत्यक्षरूप से रहने वाला व्यक्ति, भले वह अपना निकट बन्धु ही क्यों न हो, तो भी ग्लानि का ही पात्र होता है। तब माता द्वारा खाये गये वमनरूप स्थान में अर्थात् माता के अपवित्र गर्भ में नौ-दस मास तक रहने वाला यह शरीर ग्लानि का पात्र क्यों नहीं होगा, अवश्य होगा ।।१०६१॥ इस प्रकार क्षेत्र का वर्णन समाप्त ॥३॥ माता के उदर में प्राप्त होने वाला आहार पिच्छिलं चर्वितं दन्तैर्मिश्रितं श्लेष्मणा च यत् । अन्नं मात्राशितं युक्तं, पित्तेन कटुकात्मना ।।१०६२॥ अमेध्य-सदृशं वान्तं, समीरेण पृथस्कृतम् । ऊवं कटुकमश्नाति, विगलन्तमसौ रसम् ।।१०६३॥ अर्थ - माता के द्वारा खाया हुआ अन्न, प्रथम तो दाँतों से चबाया हुआ, फिर कफ के साथ मिलकर चिकना हुआ, फिर कटुक पित्त से युक्त वह मल एवं वमन समान गन्दा होता है। उस अन्न का खलभाग और रस भाग वायु के द्वारा अलग-अलग किया जाता है। ऊपर से गिरती हुई उसके रस की कड़वी बूंद को वह गर्भस्थ पिण्ड सर्वांग से सदैव ग्रहण करता रहता है।।१०६२-१०६३॥ ततोऽस्ति सप्तमे मासे, नाभी युत्पलनास्लवत्। ततो नाभ्या तया वान्त, तदादत्ते स गर्भगः॥१०६४ ।। अर्थ - छह मास इसी प्रकार बीतते हैं। पश्चात् सातवें मास में कमलनाल सदृश (नाभि स्थान पर नाभि सहित) नाल उत्पन्न हो जाती है, तब से वह गर्भस्थ बालक उस नाल द्वारा माता द्वारा वमन किया हुआ आहार ग्रहण करता है ।।१०६४ ।। अमेध्यं भक्षयनेकं, मासं दृष्टो जुगुप्स्यते । निजोऽपि न कथं गर्भे, मासान्नवदशानसौ॥१०६५॥ इति आहार ।। Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ३०४ अर्थ - यदि कोई एक मास तक मल आदि अशुचि पदार्थ खाते हुए देख लिया जाता है, भले ही वह अपना प्रिय बन्धु ही क्यों न हो फिर भी उससे ग्लानि हो जाती है। तब जो नव या दस मास तक उस वमन एवं मल तुल्य आहार को ग्रहण करता रहा है, ऐसा शरीर ग्लानि का पात्र क्यों नहीं होगा? अवश्यमेव होगा ।।१०६५॥ इस प्रकार गर्भस्थ के आहार का कथन समाप्त ।।४।। जन्म का कथन शोणित-प्रसव-द्वारं, दुर्गन्धं जठराननम्। अवाच्य-जन्मभूतस्य, लज्जनीयमशौचकम् ॥१०६६ ।। अर्थ - जठर अर्थात् उदर का मुख स्त्रियों की योनि है। मानव-शरीर का जन्म इसी योनि से होता है। यह योनि मूत्र एवं रक्त निकलने का द्वार है, दुर्गन्धित है। उसका नाम लेने में भी लज्जा आती है क्योंकि वह सबसे अधिक अपवित्र है ।।१०६६॥ परो वस्ति-मुख-स्पर्शी, महद्भिनिन्द्यते यदि। उदरद्वार-संस्पर्शी, विनिन्द्यो न तथा कथम् ॥१०६७॥ इति जन्म ॥ अर्थ - यदि दूसरे के वस्तिमुख अर्थात् गुदा आदि का स्पर्श करने वाला व्यक्ति महापुरुषों के द्वारा निन्दनीय होता है, तो जो योनि का स्पर्श कर उसका आस्वादन लेता है, वह निन्दनीय कैसे नहीं होगा ? अवश्यमेव होगा ||१०६७|| इस प्रकार जन्म-वर्णन समाप्त ॥५॥ शरीर की वृद्धि का कथन निन्द्यानि लज्जनीयानि, कर्माणि कुरुते शिशुः । कृत्याकृत्यमजानानो, सेव्यासेव्य च मूढ-धीः ।।१०६८॥ अर्थ - छोटा शिशु निन्दनीय और लज्जाकारक कार्यों को करता रहता है । वह मूढ़ बुद्धि अज्ञानी शिशु कार्य-अकार्य को तथा सेव्य-असेव्य को भी नहीं जानता ॥१०६८ ॥ स चर्म-पूय-मांसास्थि-वर्ची-मूत्र-कफादिकम् । स्वस्यापरस्य वा वक्त्रे, क्षिपते विगत-त्रपः ॥१०६९।। अर्थ - वह शिशु अपना अथवा दूसरे का चमड़ा, पीप, मांस, हड्डी, मल, मूत्र एवं कफादि अपवित्र पदार्थ निर्लज्ज होता हुआ मुख में रख लेता है।।१०६९।। यत्किञ्चित्कुरुते ब्रूते, बाल: खादत्यलज्जितः। हदते विगत-ज्ञान:, प्रदेशे यत्र तत्र वा॥१०७०॥ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ३०५ अर्थ - वह अज्ञानी बालक जो कुछ भी करता है, निर्लज्ज होकर जो कुछ भी बोलता रहता है, जो कुछ भी खा लेता है, यहाँ-वहाँ किसी भी स्थान पर मल-मूत्र कर देता है ।।१०७० ।। बाले यदि कृतं कोऽपि, कृत्यं संस्मरति स्वयम् । तदात्मन्यऽपि निर्वेद, यात्यन्यत्र न किं पुनः॥१०७१॥ अर्थ - यदि बाल्यावस्था में किये गये कार्यों का भी कोई स्मरण करले तो दूसरे स्त्री-पुत्र आदि की तो बात ही क्या, अपने स्वयं से ही वैराग्य हो जाय ॥१०७१।। अमेध्यस्य कुटी गात्रममेध्येनैव पूरिता ! अमेध्यं स्रवते छिद्रं, अमेध्यमिव भाजनम् ।।१०७२।। इति वृद्धि॥ अर्थ - यह शरीर विष्ठादि मलिन वस्तुओं की कुटी है, अमेध्य अर्थात् अपवित्र पदार्थों से भरी है एवं मल से भरे सछिद्र पात्र के सदृश सदैव अमेध्य अर्थात् मल को ही झराता रहता है ।।१०७२।। इस प्रकार शरीरवृद्धि वर्णन समाप्त ॥६।। शरीर के अवयवों का वर्णन शतानि त्रीणि सन्त्यस्या, मज्जा-पूर्णानि विग्रहे। सन्धीनामपि तावन्ति, सन्ति सर्वत्र मानुषे ॥१०७३ ।। अर्थ - इस मानवशरीर में मज्जा नामक दुर्गन्ध धातु से युक्त तीन सौ हड्डियाँ हैं, तथा तीन सौ ही सन्धियाँ हैं।॥१०७३ ॥ मांसपेशी-शिरा-स्नायु-शतान्यङ्गे यथा-क्रमम् । पञ्च सप्त नव प्राज्ञाः, सर्वदापि प्रचक्षते ॥१०७४॥ अर्थ - प्राज्ञ पुरुषों ने कहा है कि इस शरीर में मांसपेशियाँ पाँच सौ, शिराएँ सात सौ और स्नायु नौ सौ हैं। ये यथाक्रम लेने चाहिए ॥१०७४ ॥ शिरा-जालानि चत्वारि, कण्डराणि च षोडश। शिरा-मूलानि षट् चैव, मांस-रज्जु-द्वयं तथा ||१०७५॥ अर्थ - शरीर में शिराओं के जाल चार हैं, कण्डरा अर्थात् रक्त से पूर्ण महाशिराएं सोलह हैं, शिराओं के मूल छह हैं और मांस रज्जू दो है|१०७५ ।। कालेयकानि सप्ताङ्गे, त्वचः सप्त निवेदिताः । सर्वत्र कोटि-लक्षाणामशीती रोम-गोचरा ॥१०७६ ।। अर्थ - शरीर में कालेयक अर्थात् मांस खण्ड सात हैं, त्वचाएँ सात हैं और रोम अस्सी लाख करोड़ हैं ।।१०७६॥ Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका- ३०६ आम पक्वाशय स्थानं, षोडशैवान्त्र-यष्टयः । कुथितस्याश्रयाः सप्त, शरीरे सन्ति मानुषे ॥ १०७७ ।। अर्थ आमाशय और पक्वाशय में सोलह आँतें हैं तथा मनुष्य के इस शरीर में कुथिताश्रय अर्थात् मलस्थान सात हैं ॥१०७७ ॥ नव सन्ति व्रणास्यानि, मुच्यमानानि कश्मलम् । तिस्रः स्थूणाशतं देहे, मर्मणां सप्त-संयुते ॥ १०७८ ।। अर्थ - इस शरीर में नित्य ही दुर्गन्धित मल बहाने या झराने वाले नौ व्रणमुख अर्थात् मलद्वार हैं; वात, पित्त और कफ ये स्थूणाएँ हैं तथा एक सौ सात मर्म स्थान हैं || १०७८ ॥ शुक्र-मस्तिष्क - मेदांसि प्रत्येकं सूरयो विदुः । स्वकीयाञ्जलि - मानानि, मनुष्याणां कलेवरे ॥ १०७९ ।। अर्थ .. आचार्य कहते हैं कि महलों के शरीर में अपनी अंजुलि प्रमाण वीर्य, अंजुलि प्रमाण मस्तिष्क और अंजुलि प्रमाण ही मेद है ।। १०७९ ।। षडञ्जलिमितं पित्तं, वसाञ्जलि त्रय प्रभा । श्लेष्मा पित्त-समो रक्तमर्द्धादकमितं मतम् ॥ १०८० ॥ - अर्थ - इस शरीर में छह अज्जुलि प्रमाण पित्त, तीन अंजुलि प्रमाण वसा अर्थात् चर्बी, पित्त प्रमाण छह अंजुलि कफ और अर्ध आढक या बत्तीस पल प्रमाण रक्त है ।। १०८० ॥ षट् - प्रस्थ- प्रमितं वर्चो, मूत्रमर्द्धादक- प्रमम् । नखानां विंशतिर्दन्ता, द्वात्रिंशत्प्रकृता मताः ।। १०८१ ।। अर्थ - विष्ठा छह प्रस्थ प्रमाण, मूत्र अर्ध आढ़क प्रमाण, नख बीस और दाँत बत्तीस, स्वभावतः शरीर में इतने प्रमाण अवयव होते हैं ।। १०८१ ॥ को घेरे हुए काय: कृमि - कुलाकीर्णः, कृमिणो वा व्रणोऽखिलः । तं सर्वं सर्वतो व्याप्य, स्थिताः पञ्च चरण्यवः ।। १०८२ ॥ अर्थ - जैसे घाव में कीड़े भरे रहते हैं, वैसे ही यह शरीर कीड़ों के समूह से भरा है। समस्त शरीर पाँच वायु स्थित हैं ।। १०८२ ॥ इत्यङ्गेऽवयवाः सन्ति, सर्वे कुथित - पुद्गलाः । नैकोऽप्यवयवस्तत्र, पवित्रो विद्यते शुचिः ।। १०८३ ॥ अर्थ - उपर्युक्त प्रकार से शरीर के सर्व अवयव सड़े हुए पुद्गल स्वरूप ही हैं। एक भी अवयव ऐसा नहीं है जो पवित्र और शुचि हो ॥१०८३ ॥ - नि:शेष चर्माणं, पाण्डुरङ्गीं गलद्वसाम् । दिदृक्षतेऽपि नो कोऽपि वल्लभामपि वल्लभः । १०८४ ।। दग्ध Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ३०७ अर्थ - जिसके देह की सब चमड़ी जल जाने से शरीर सफेद वर्ण का हो गया है और जिसमें सदैव पीव बह रहा है, ऐसी नारी हो अथवा अपना कोई प्रिय व्यक्ति भी हो तो उसे मनुष्य देखना भी नहीं चाहता ||१०८४|| अभविष्यन्न चेगात्रं, पिहितं सूक्ष्मया त्वचा। को नामेदं तदा स्प्रक्ष्यन्मक्षिका-पत्र-तुल्यया॥१०८५।। अर्थ - यदि यह शरीर मक्खी के पंख सदृश पतली त्वचा से वेष्टित न हो तो कौन व्यक्ति इसे स्पर्श करता ? ||१०८५॥ इस प्रकार शरीर अवयव वर्णन समाप्त ॥७।। निर्गम का कथन इस शरीर में क्या-क्या पैदा होता है और क्या-क्या निकलता है। इसका कथन कर्णयोः कर्ण-गूथोऽस्ति, तथाक्ष्णोर्मलमश्रु च। सिंङ्याणकादयो निन्या, नासिका-पुटयोर्मलाः ॥१०८६ ।। अर्थ - कानों से कान का मल उत्पन्न होता है, नेत्रों में नेत्रों का मल और आँसू रहते हैं तथा नासिका पुटों में सिंघान आदि निन्द्य पल रहता है॥१०१.६ ।। लाला-निष्ठीवन-श्लेष्म, पुरोगा विविधा मलाः। जायते सर्वदा वक्त्रे, दन्त-कीटाकुल-व्रणे ।।१०८७ ।। अर्थ - जिस मुख में दन्त पंक्ति के आधारभूत मसूड़ों में कीड़ों का समूह और व्रण रहते हैं। उस मुख में लार, थूक, कफ, वमन, दन्त-मल, जिलामल, वमन एवं खखार आदि उत्पन्न होते रहते हैं ॥१०८७॥ ये मेह-गुदयोः सन्ति, वर्ची-मूत्रादयो मलाः । न वक्तुमपि शक्यन्ते, वीक्षितुं ते कथं पुनः ॥१०८८ ।। अर्थ - मेहन और गुदा में क्रमश: मूत्र एवं मल आदि भरे रहते हैं। बिना ग्लानि के जिन्हें कहना भी शक्य नहीं है तब उनका देखना तो किस प्रकार शक्य है।।१०८८ ॥ चिक्कणो रोम-कोपेषु, स्वेदः सर्वेषु सर्वतः। यूकाः षट्पदिका लिक्षा, जायन्ते सर्वदा ततः॥१०८९ ।। अर्थ - शरीर के सब रोम कूपों में से चिपचिपा अर्थात् चिकना पसीना सदैव निकलता रहता है, जिसके कारण शरीर में जूं, लीख एवं षट्पदिका अर्थात् चर्म-यूका उत्पन्न होती रहती हैं ॥ १०८९।। गात्रैर्मुञ्चति वर्चासि, विग्रहो निखिलैरपि। गूथ-पूर्णो घटो गूथं, छिद्रितो विवरैरिव ॥१०९० ।। Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ३०८ अर्थ - जैसे विष्ठा से भरे सछिद्र घड़े के चारों ओर से मल झरता है, वैसे ही शरीर के सारे अवयवों से सतत ही मल निकलता रहता है।॥१०९० ॥ गुल्यैरवयवैः स्त्रीणां, निचितैर्विविधैर्मलैः। सारासार-प्रदृष्टानां मानसं ह्रियते कथम् ।।१०९१।। अर्थ - स्त्रियों के विविध मलों से भरे हुए गुह्य अवयवों में सार-असार को देखने वाले मनुष्यों का मन कैसे लज्जित नहीं होता ||१०९१॥ लज्जनीयेऽति-बीभत्से, मूढ-धी रमते कथम्। योनौ क्लिन्ने स्रवद्रक्त, निन्द्ये कृभिाव-वणे ॥१०१२॥ अर्थ - अति लज्जा की कारण, अति घिनावनी, आर्द्र, रक्त झरती हुई निन्द्य योनि में मूढबुद्धि मनुष्य कैसे रमता है ? यह रमना तो वैसा हुआ, जैसे घाव में कीड़े रमते हैं ॥१०९२ ।। अङ्गारस्येव कायस्य, बहिरन्तश दृश्यते । नैकोप्यवयवः शुद्धः, सर्वथा मलिनात्मनः ॥१०९३॥ इति निर्गमः॥ अर्थ - जैसे कोयले का बाह्य एवं अभ्यन्तर शुक्ल नहीं होता, सर्वत: काला ही होता है, वैसे ही शरीर का एक भी अवयव पवित्र दिखाई नहीं देता, कारण कि शरीर ही अपवित्र है ।।१०९३ ।। इस प्रकार निर्गम वर्णन समाप्त ॥७॥ शरीर की अशुचिता का कथन कायो जलैः पयोधीनां, धाव्यमानोऽखिलैरपि। स्वभाव-मलिनो जातु, नाङ्गार इव शुध्यति ॥१०९४ ॥ अर्थ - जैसे समुद्र के सम्पूर्ण जल से धोने पर भी कोयला श्वेत नहीं होता, उसमें से कालापन ही निकलता है ; वैसे ही स्वभावतः मलिन शरीर सागर के सम्पूर्ण जल से धोने पर भी शुद्ध नहीं होता, उसमें से मल निकलता ही रहता है॥१०९४ ।। अभ्यङ्गोद्वर्तन-स्नान-मुख-दन्ताक्षि-थावनैः। शश्वद्विशोध्यमानोऽपि, दुर्गन्धं वाति विग्रहः ।।१०९५॥ अर्थ - अभ्यंग अर्थात् तेल, इत्र, सेन्ट आदि लगाने से उबटन, स्नान द्वारा तथा मुख, दाँत तथा नेत्रादि को सदैव बार-बार धोने पर भी यह शरीर सदा दुर्गन्ध को ही बाहर फेंकता है। अर्थात् दुर्गन्धमय पदार्थों को ही बाहर फेंकता रहता है ।।१०९५॥ मृत्तिकाञ्जन-पाषाण-धातु-त्वङ्मूलवल्लिभिः। केशास्यवास-ताम्बूल-धूप-पुष्प-दलादिभिः ॥१०९६ ।। Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ३०९ हा निन्दितं गन्ध, शुनजेला कलेगा। हिवदिभिरिव द्रव्यैः, पिशितं विघृणात्मभिः ॥१०९७ ।। अर्थ - काली या मुलतानी आदि मिट्टी द्वारा, अंजन, पाषाण स्वरूप अनेक प्रकार के रत्न, धातु अर्थात् जल या स्वर्णादि द्वारा, वनस्पतियों की छाल, जड़ एवं बेल आदि पदार्थों द्वारा केशों को, मुखवास अर्थात् मुख को सुगन्धित करने वाले ताम्बूल आदि द्वारा तथा धूप, पुष्पमाला एवं अनेक प्रकार के पत्रों द्वारा दूसरे के शरीर की दुर्गन्ध को दूर करके मूढ़ जन मोहित होते हुए पराये शरीर को वैसे ही भोगते हैं जैसे मांसभोजी मनुष्य हींग, मिर्चादि मसाले मिलाकर दूसरों के शरीर का दुर्गन्धयुक्त मांस खाते हैं ।।१०९६-९७।। मयूर-देहवद्देहो, यद्यभास्यन्निसर्गतः। अभविष्यत्तदा शोभा, तस्मिन्नीक्षण-तोषिणी॥१०९८ ।। अर्थ - मयूर का शरीर स्वभाव से ही सुन्दर होता है, वैसे ही यदि यह शरीर स्वभाव से अर्थात् इत्र, फुलेल, स्नान एवं उबटन आदि के संस्कार बिना ही मनोहर होता तो उसकी शोभा नेत्रों को प्रसन्न करनी, किन्तु यह स्वत: सुन्दर एवं पवित्र नहीं है।।१०९८ ।। आत्मनः पतितो खेलो, यदि स्प्रष्टुं घृणायते । तदा रामा-मुखाम्भो हि, पीयते कुथितं कथम् ॥१०९९ ।। इति अशौचं ।। अर्थ - मनुष्य अपने मुख से बाहर पड़े अर्थात् गिरे हुए कफ या थूक का स्पर्श करने में जब घुणा का अनुभव करता है, तब स्त्री के मुख से उत्पन्न हुई दुर्गन्धयुक्त लार को कैसे पीवेगा॥१०९९ ।। इस प्रकार अशौच का वर्णन समाप्त ।।९।। असारता कथन वीक्ष्यमाणे मनुष्याणां, बहिरन्तश्च वीक्ष्यते। एरण्ड-दण्डवद्देहो, न सारोऽत्र कदाचन ।।११०० ।। अर्थ - मनुष्यों के शरीर को जब भीतर से एवं बाहर से देखते हैं तो वह एरण्ड दण्ड के समान असार ही नजर आता है, इसमें कदाचित् भी सार दृष्टिगोचर नहीं होता ॥११०० ।। चमरीणां कचं क्षीरं, गवां शृङ्गाणि खङ्गिनाम्। भुजङ्गानां मणिः पिच्छं, बर्हिणां करिणां रदः ॥११०१॥ कस्तूरिका कुरङ्गाणामित्थं सारो विलोक्यते । शरीरे न पुनर्गुणां, कोऽपि क्वापि कदाचन ।।११०२।। अर्थ - चमरी गाय के केश, गार्यों का दूध, हिरन के सींग, सौ की मणि, मयूर के पंख, हाथी के दाँत और हिरणों के नाभि की कस्तूरी इतने पदार्थ तिर्यंच के शरीर से कदाचित् कथंचित् सारभूत देखे जाते हैं किन्तु मनुष्यों के शरीर में कहीं पर कदाचित् भी कोई पदार्थ सारभूत दृष्टिगोचर नहीं होता ॥११०१-११०२।। Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ३१० कुथित-सानि वा कुथितैः कृते, कृमि-कुलैर्विविधैरभितो भृते । शुचि नृणां सकलाशुचि-मन्दिरे, भवति किञ्चन नात्र कलेवरे ।।११०३ ।। इति अलारता। अर्थ - यह मानव शरीर सड़े पदार्थों का घर है, सड़े-गले पदार्थों से ही निर्मित है, नाना प्रकार के कीड़ों के समुदाय से चारों ओर भरा हुआ है एवं सम्पूर्ण अशुचियों का खजाना है; ऐसे इस कलेवर में पवित्र तथा सारभूत वस्तु कुछ भी नहीं है ।।११०३॥ इस प्रकार असारता का वर्णन समाप्त ॥१०॥ व्याधि वर्णन एक शरीर में रोगों की संख्या यदि षण्णवति रोगाः, सम्भवन्ति विलोचने। कियन्तस्ते तदा नृणां सर्वत्रापि कलेवरे ॥११०४ ।। कोट्यः पञ्चाष्ट-षष्टीश्च, लक्षाः सह सहस्रकैः। नभिर्नवतिः पञ्चशत्याशीतिश्चतुर्युता॥११०५॥ इति वाधि-गदं ।। अर्थ - यदि एक नेत्र में छयानवे रोग सम्भव हैं, तो मानव के इस सम्पूर्ण शरीर में कितने रोग होंगे ? इस सारे शरीर में पाँच करोड़, अड़सठ लाख, निन्यानवे हजार, पाँच सौ चौरासी अर्थात् ५६८९९५८४ रोग साभव हैं ।।११०४-११०५॥ इस प्रकार व्याधि प्रकरण समाप्त ॥११॥ ___ अध्रुव अर्थात् अनित्यता का वर्णन शरीर की अध्रुवता पीन-स्तनीन्दुवक्त्रा या, तारुण्ये हरते मनः। अनिष्टा जायते जीर्णा, सेक्षु-यष्टिरिवारसा॥११०६ ।। अर्थ – पुष्ट स्तन वाली, पूर्ण चन्द्रमा सदृश मुख वाली तथा अति सुन्दरी जो नारी तरुण अवस्था में मन को हरती थी, वही नारी वृद्धावस्था में नीरस अर्थात् सूखे गन्ने के सदृश हो जाती है ||११०६ ।। या यौवने प्रिया कान्ता, सर्वावयव-सुन्दरी। दुर्गन्धा कुथिता सास्ति, बीभत्सा विरसा मृता॥११०७॥ अर्थ - जो कान्ता यौवन में सर्वांग सुन्दरी और अत्यन्त प्रिय अर्थात् सुहावनी थी, मर जाने पर वही नारी दुर्गन्धित, बीभत्स, ग्लानि युक्त एवं विरस हो जाती है ।।११०७॥ Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका- ३११ दाम्पत्य जीवन की अध्रुवता म्रियते वल्लभा पूर्वं स्वयं वा म्रियते पुरा । जीवन्ती जीवतो वान्यैर्हियते बलिभिर्बलात् ।। ११०८ ।। अर्थ - कभी किसी की पत्नी पहले मर जाती है, किसी का पति पहले मर जाता है। कभी पति के जीवित रहते हुए अन्य कोई बलवान पुरुष पति के ही सामने उसकी पत्नी को हरण करके ले जाता है, अतः पति - पत्नी संयोग भी अनित्य है ।। ११०८ ॥ विरज्यते स्वयं तस्याः, सा वा तस्य विरज्यते । समायाति तिष्ठन्ती वा विरुध्यते ।। ११०९ ।। परेण अर्थ - अथवा दोनों के जीवित रहते भी कभी पति अपनी पत्नी से विरक्त हो जाता है, या कोई पत्नी अपने पति से विरक्त हो जाती है, अथवा कोई पत्नी अपने पति को छोड़कर अन्य पुरुष के साथ चली जाती है, कोई पत्नी को छोड़कर दूसरी स्त्री को रख लेता है और कभी पति-पत्नी साथ रहते हुए भी विरुद्ध रहते हैं ॥ ११०९ ॥ शरीर की अधुरता चिरं तिष्ठति संस्कारे, काष्ठ-ग्रावादि-रूपकम् । कलेवरं मनुष्याणां न संस्कारे महत्यपि ।। १११० ॥ अर्थ सार-सम्हाल करते रहने पर लकड़ी एवं पाषाण आदि के रचित स्त्री-पुरुषों की आकृतियाँ चिरकाल तक रह जाती हैं, किन्तु स्नान, आहार तथा व्यायामादि रूप सार-सम्हाल करते हुए भी मनुष्यों का शरीर चिरकाल तक नहीं रह पाता ॥ १११० ॥ यौवनेन्द्रिय- लावण्य-तेजो रूप-बलादयः । गुणाः क्षणेन नश्यन्ति, शारदा इव नीरदाः ।। ११११ ॥ अर्थ - शरद्कालीन मेघ सदृश शरीर का यौवन, इन्द्रियाँ, लावण्य, तेज, रूप एवं बलादि सर्वगुण क्षण मात्र में नष्ट हो जाते हैं ।। ११११ ॥ गतस्याहार - दानार्थं, सुरतस्य तपस्विनः । क्षणान किं महादेव्या, नष्टः कुष्ठेन विग्रहः ॥ १११२ ।। अर्थ- सुरत नाम का राजा, रानी के पास से उठकर साधु को आहार देने गया । इतने में ही क्या उस पटरानी का सुन्दर शरीर क्षण मात्र में कुष्ठ रोग से व्याप्त नहीं हो गया था ? | १११२ ॥ * सुरत राजा की कथा अयोध्याका नरेश सुरत नामका था। पाँचसी रानियोंकी शिरोमणि सती नामकी प्रमुख रानी पर अत्यधिक स्नेह होनेसे सदा उसके निकट रहता था । राजाके मनमें मुनिदानका तो बहुत भाव रहता था। उसने सब राजकार्य छोड़ दिये थे किन्तु मुनियों को आहार देनेका कार्य हमेशा करता रहता, अन्य सब कार्य मंत्रियों पर छोड़ा था । Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका- ३१२ एक दिन अपनी प्राणप्रियाके कपोल पर तिलक रचना कर रहा था। इतने में आहारार्थ मुनिका आगमन हुआ । राजा रानीका श्रृंगार करना छोड़कर आहार देनेको चला गया। रानीको इससे क्रोध आया। उस पापिनीने बहुत अपशब्द गाली अपवाद आदिसे मुनिकी महान् निंदा की। सब सखी दास-दासियोंके समक्ष बहुत कुछ दुष्ट निंद्य वाक्य कहती ही रही। इससे मुनिनिंदारूप भयंकर पापसे उसके शरीरमें तत्काल गलित कुष्ठ हो गया। दुर्गंध आने लगी। राजा आहार देकर लौटता है और रानीकी दशा देखकर स्तंभित हो जाता है। उसको वैराग्य होता है। सर्व राज्यपाट छोड़कर जिनदीक्षा ग्रहण करता है। रानी कुछ समय बाद मरकर दुर्गतिमें चली जाती है। इस प्रकार यौवनका जोश, रूपका गर्व करनेसे रानीकी दुर्दशा हुई । हन्तुमग्रे कृतो मूढो, दुर्निवारेण मृत्युना । सेवते विषयं वध्यः, पाणेनेव सुरादिकम् ।।१११३ ।। अर्थ - जैसे किसी अपराधी को मारने के लिए ले जाते समय भी वह मरने की चिन्ता न करके मस्ती से शराब पिये एवं पान खावे; वैसे ही मूढ़ मनुष्य मृत्यु निकट आ जाने पर भी उसको चिन्ता न करके विषयों का सेवन करता है ।। १११३ ॥ व्याघ्रेणाग्रे कृतो हन्तुं, बिले साऽजगरे गतः । छिद्यमाने दृढं लग्नो, मूले विविध मूषकैः ।। १११४ ।। अपश्यन्नग्रत्तो मृत्युं यथा कश्चन मूढ-धीः । पतन्मधुकणास्वादे, विधत्ते परमां रतिम् ॥ १११५ ।। मृत्यु - व्याघ्रेक्षितो दुःख - सर्पे जन्म- बिले गतः । लूयमानस्तथा मूढो, बहुभिर्विघ्न - मूषकैः ।। १११६ ।। आशा - मूले दृढं लो, विषयास्वादने रतिम् । महतीं कुरुते नाशमपश्यन्नग्रतः स्थितः ।। १११७ ॥ इति अध्रौव्यम् ॥ अर्थ - जैसे मारने हेतु पीछे लगे व्याघ्र के भय से भागता हुआ कोई मनुष्य ऐसे कुए में जा गिरा जिसमें अजगर रहता था। उस कुए की दीवाल के सहारे एक वृक्ष था। उस वृक्ष की जड़ को पकड़कर वह व्यक्ति लटक गया, उस जड़ को चूहे काट रहे थे, किन्तु उस वृक्ष पर मधुमक्खियों का एक छत्ता लगा हुआ था और उसमें से टपकने वाली मधु की बूँद उसके होठों पर आ रही थी। ऐसी भयानक स्थिति में पड़ा हुआ वह मूढ़-बुद्धि आगे खड़ी मृत्यु को नहीं देखता अपितु उन टपकती हुई मधुबिन्दुओं के स्वाद में परम रति करता हुआ आसक्त हो जाता है। उसी महामूढ़ मनुष्य के सदृश मृत्युरूपी व्याघ्र से भयभीत प्राणी अनेक दुखरूपी सर्पों से भरे हुए संसार रूपी कूप में पड़ा हुआ है, और आशा रूपी वृक्ष की जड़ को दृढ़ता से पकड़े हुए है, किन्तु उस जड़ को विघ्न रूपी चूहे काट रहे हैं। इस भयानक स्थिति में भी वह महामूढ़ निर्लज्ज निर्भय होकर आगे खड़ी मृत्यु को न Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ३१३ देखता हुआ स्त्री आदि पंचेन्द्रियों के विषयस्वाद में अत्यन्त प्रीति करता हुआ आसक्त हो रहा है।।१११४ प्रश्न - इस संसार वृक्ष के दृष्टान्त का क्या आशय है ? उत्तर - इस दृष्टान्त का यह आशय है कि इस चतुर्गतिरूपी महावन में मानव देह रूपी वृक्ष है। सघन वन में समीचीन मार्ग भूल कर भटकने वाला पथिक “मैं स्वयं हूँ"। मृत्यु रूपी व्याघ्र प्रतिपल मेरे सामने आ रहा है। मैं भयभीत हुआ भागा, तो आकस्मिक दुख रूप हाथी ने मेरा पीछा किया। मैं दौड़ कर आयु कर्म रूपी डाल पकड़कर लटक गया । उस डाल को कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष रूपी दो चूहे प्रति समय कुतर रहे हैं। अर्थात् वेगपूर्वक मृत्यु के क्षण निकट आ रहे हैं। वृक्ष की डाली के उपरिम भाग में स्त्री-पुत्रादि परिवार रूपी मधुमक्खियों का गृहरूपी छत्ता लगा हुआ है, जो भोजन, पान, वस्त्राभूषण एवं संगीत आदि पंचेन्द्रिय के विषय रूपी मधु से भरा हुआ है। ऐसी भयंकर विकट परिस्थिति में पड़ा हुआ भी मैं उस विषयसेवन रूपी मधु की बिन्दुओं के स्वाद में आसक्त होता हुआ आशा के सहारे लटक रहा हूँ। अहो ! बड़ा आश्चर्य है। “धिक्-धिक मां" "किमाश्चर्यमत: परम्"। इस प्रकार अध्रुव का वर्णन समाप्त ॥१२॥ शरीर की अशुचिता का अन्य भी कथन रामा-ध!-मध्यवर्ती मनुष्यः, क्रीडत्येषोऽमेध्य-रूपः शिशुर्वा । व!-लिप्तोऽमेध्य-मध्यं प्रवृत्तो, कीदृक्, सारं निन्दनीय-स्वभावम् ।।१११८।। अर्थ - विष्ठा से लिप्त बालक जैसे विष्ठा में ही क्रीड़ा करता है अर्थात् उसमें सुख मानता है, वैसे ही यह मूढ मनुष्य स्वयं अत्यन्त मलिन है अतः कामोद्रेक में स्त्रीरूपी विष्ठा के मध्यवर्ती प्रदेश में क्रीड़ा करता है। अहो ! मनुष्य का यह निन्दनीय स्वभाव कैसे सारभूत हो सकता है ? नहीं हो सकता ॥१११८ ॥ अमेध्य-निर्माणममेध्य-पूर्ण, निषेवमाणैर्वनिताशरीरम्।। बैर्मन्यते स्वं शुचिरस्त-बोधैर्हास्यास्पदं कस्य न ते भवन्ति ॥१११९॥ अर्थ - स्त्रियों का शरीर अशुचि पदार्थों से निर्मित है और अशुचि अर्थात् दुर्गन्धयुक्त मलादि से ही भरा हुआ है। जो नष्टबुद्धि मनुष्य, स्त्रियों के ऐसे शरीर का सेवन करते हुए भी अपने को पवित्र मानते हैं, उनकी यह पवित्रता या उनकी मान्यता किसके हास्यास्पद नहीं होगी? सभी के होगी॥१११९ ।। 'बीजादयो येन शरीर-धर्माश्चित्ते क्रियन्ते बुध-निन्दनीयाः। निषेव्यतेऽमेध्यमयी न नारी, कदाचनामेध्य-कुटीव तेन ॥११२० ।। अर्थ - बीज, निष्पत्ति, क्षेत्र एवं आहार आदि निन्दनीय शरीर के धर्म जिन बुद्धिमान् पुरुषों के द्वारा चिन्तनीय हैं, उनके द्वारा कभी भी अशुचि की कुटी सदृश अशुचिरूप नारी सेवित नहीं होती ॥११२० । निरीक्षते यो वपुषः स्वभावं, व!-निवासस्य विनश्वरस्य । देहे स्वकीयेऽपि विरज्यतेऽसौ, दोषास्पदायाः किमु नाङ्गनायाः ॥११२१॥ इति अशौचम्।। Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ३१४ अर्थ - मल के भण्डार इस विनश्वर शरीर के स्वभाव को जानने-देखने वाला मनुष्य जब अपने शरीर से भी विरक्त हो जाता है तब वह दोष के स्थान स्वरूप स्त्री के शरीर से क्या विरक्त नहीं होगा ? अवश्य होगा ||११२१॥ इस प्रकार कामदोष और स्त्रीदोष के पश्चात् देह की अशुचिता का वर्णन समाप्त हुआ। ब्रह्मचर्यव्रत की सहायक वृद्धसेवा वृद्धवृद्धा नराः शीलस्तरुणैस्तरुणा यतः। जायन्ते तरुणा वृद्धास्ततः शीलं बुधैः स्तुतम् ॥११२२ ।। अर्थ - साधु अवस्था से वृद्ध हो या तरुण हो, जिनके शील अर्थात् ब्रह्मचर्य, क्षमा, मार्दव, आर्जव एवं सन्तोषादि गुण वृद्धिंगत हैं वे वृद्ध हैं। तथा अवस्था से वृद्ध हों या तरुण जिनके शीलादि गुण वृद्धिंगत नहीं हैं, या अल्प हैं या अभी वे गुण किंचित् भी नहीं हैं, वे साधु तरुण हैं, क्योंकि शीलवान् को ही यहाँ वृद्ध कहा है। अतः बुद्धिमानों द्वारा शील ही स्तुत्य है।।११२२ ।। यथा-यथा वयो हानिः, पुरुषस्य तथा-तथा। मन्दा: काम-रतिक्रीड़ा-दर्परूप बलादयः ।।११२३॥ अर्थ - जैसे-जैसे मनुष्य की वयहानि अर्थात् युवा एवं मध्य-अवस्था बीतती जाती है वैसे-वैसे उसकी कामवासना, रतिक्रीड़ा की वांछा, घमण्ड, रूप एवं बल आदि मन्द होते जाते हैं ॥११२३ ।। प्रश्न - इस श्लोक का क्या आशय है ? उत्तर - इसका आशय यह है कि तरुण अवस्था में जो काम-विकारादि दुर्निवार होते हैं वे विकार जैसेजैसे वृद्धत्व आता जाता है, वैसे-वैसे स्वयं मन्द होते जाते हैं, अतः आयु से वृद्ध जनों का सहवास भी ब्रह्मचर्य आदि अनेक गुणों के उत्कर्ष में परम सहयोगी सिद्ध होता है। शान्तोऽपि क्षोभ्यते मोहो, युव-सङ्गेन देहिनः। कर्दमः पतता क्षिप्रं, प्रस्तरेणेव वारिणः ।।११२४ ॥ अर्थ - जैसे तालाब में गिरा हुआ पत्थर उसके तल में जमी हुई कीचड़ को उभार कर निर्मल जल को एक क्षण में मलिन कर देता है, वैसे ही तरुणों का संसर्ग प्रशान्त मन वाले पुरुष के भी मोह को उद्रिक्त कर परिणार्मों को एक क्षण में ही मलिन कर देता है ।।११२४॥ उदीर्णोऽप्यङ्गिनो मोहो, वृद्ध-सङ्गेन निश्चितम्।। पङ्कः कतक-योगेन, सलिलस्येव शाम्यति ।।११२५॥ अर्थ - जैसे मलिन जल भी कतक फल के संयोग से स्वच्छ हो जाता है, वैसे ही कलुषित भी मोह शील-वृद्धों के संसर्ग से शान्त हो जाता है ।।११२५॥ शान्तोप्युदीयते मोहः, पुंसस्तरुण-सङ्गतः । लीन: किं मृत्तिका-गन्धो, नोदेति जल-योगतः॥११२६ ॥ अर्थ - प्रशान्त हो जाने वाला भी पुरुष का मोह तरुण पुरुष की संगति से पुन: प्रगट हो जाता है अथवा Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ३१५ वृद्धिंगत हो जाता है। सत्य है, क्या मिट्टी में तल्लीन अर्थात् अप्रगट गन्ध जल का आश्रय पाकर प्रकट नहीं हो जाती? अवश्य ही हो जाती है ।।११२६ ।। रहितो युव-सङ्गत्या, मोहः सन्नपि लीयते । जीवस्य जल-सङ्गत्या, पुष्पगन्ध इव स्फुटम् ।।११२७ ॥ अर्थ - जैसे मिट्टी की गन्ध मिट्टी में रहते हुए भी जल के संसर्ग बिना प्रगट नहीं होती, वैसे ही तरुण के संसर्ग बिना मनुष्य का मोह प्रगट नहीं होता ॥११२७ ।। युवाऽपि वृद्ध-शीलोऽस्ति, नरो हि वृद्ध-सङ्गतः। मानापमाना-भी-शङ्का मार्गदुनि-पानिधिः।।११२८ ॥ अर्थ - वृद्ध पुरुषों के सम्पर्क से तरुण पुरुष भी मान-अपमान के भय से, शंका से, लज्जा से एवं धर्मबुद्धि आदि से वृद्ध सदृश ही आचरण करने लगता है।।११२८ ।। वृद्धस्तरुण-शीलोऽस्ति, नरस्तरुण-सङ्गतः । विश्रम्भनिर्विशङ्कत्व-मोह-प्रकृति-योगतः॥११२९।। अर्थ - तरुण पुरुष जैसे स्त्रियों पर विश्वास करके निर्भय एवं निशंक रहता है, वृद्ध पुरुष भी यदि ऐसे तरुण की संगति करता है तो वह भी मोह प्रकृति के उदय से उस तरुण पुरुष के सदृश ही हो जाता है ।।११२९ ।। इन्द्रियार्थरतिर्जीवो, युव-गोष्ट्या विमूढ-धीः । शौण्ड-गोष्टया यथा शौण्डः, सुरां काक्षति सर्वदा ।।११३०॥ अर्थ - जैसे मद्य पीने वालों की गोष्ठी में बैठने वालों को मद्य पीने की अभिलाषा उत्पन्न हो जाती है ; वैसे ही तरुणों की गोष्ठी में रहने वाले विमूढ़ बुद्धि वाले वृद्धजन भी इन्द्रिय-विषयों में प्रेम करने लगते हैं ।।११३०॥ विश्रब्धशपलाक्षो यः, स्वैरी तरुण-सङ्गतः । महिला-विषयं दोषं, स शीघ्रं लभते नरः ।।११३१॥ अर्थ - जो वृद्ध तरुणों की संगति में रहता है, उसकी इन्द्रियाँ चंचल हो जाती हैं, मन चलायमान हो जाता है, इससे वह स्त्रियों पर विश्वास करने लगता है। फलतः शीघ्र ही स्वच्छन्द होकर स्त्रीविषयक दोषों का भागी हो जाता है।।११३१॥ ध्वान्तैकान्त-कुशीलेह-दर्शनै: करणैस्त्रिभिः । कुत्सितो जायते भावः, स्त्री-पुंसानामसंशयम् ॥११३२ ।। अर्थ - एकान्त स्थान में स्त्री के साथ पुरुष का या पुरुष के साथ स्त्री का होना, दोनों का अन्धकार में मिलना और स्त्री-पुरुष की रतिक्रीड़ा को प्रत्यक्ष देखना ! इन तीन कारणों से स्त्री या पुरुष के मन में कामसेवन की अभिलाषा के कुत्सित भाव उत्पन्न हो जाते हैं। स्त्री-पुरुष का एकत्र सहवास भी इसका एक प्रबल निमित्त-कारण है॥११३२॥ ___ प्रश्न - पूर्वकाल की अपेक्षा वर्तमानकाल में कुशील का प्रभाव विशेष बढ़ता दिखाई दे रहा है, इसका क्या कारण है? Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ३१६ उत्तर - पूर्वकाल की सर्व व्यवस्था धर्मसापेक्ष एवं न्याय-नीति पूर्ण थी। बचपन से ही बालकबालिकाएं अपने माता-पिता, गुरुजन एवं अन्य भी महापुरुषों को शील एवं धर्म नीति में दृढ़ देखकर उसी का अनुकरण करते थे। रात्रि में घर-घर शील कथा एवं दर्शन कथा का वाचन होता था। शिक्षा धर्मसापेक्ष थी। नारियों की तथा बालिकाओं की सम्पूर्ण व्यवस्थाएँ न्याय-नीति पूर्ण थीं, उनके कार्यक्षेत्र पुरुषों से भिन्न थे, अत: शीलधर्म का उत्कर्ष था, जिसके प्रभार से उनके दोनों भव सुधरते थे तथा महान् कीर्ति फैलती थी। सुदर्शन सेठ, जयकुमार, सीता, अंजना, चन्दना, सोमा तथा अनन्तमती आदि की शील-कीर्ति अद्यावधि इस देश के आकाशप्रदेशों में यथावत् व्याप्त है। किन्तु अब टी.वी. अर्थात् दूरदर्शन के कुत्सित धारावाही दर्शन ने उस कीर्ति को जड़-मूल से विलुप्त कर दिया है। आज के नर-नारियों को उनकी कथाएँ काल्पनिक लगती हैं। टी. वी. के पूर्व इस देश में जोर-शोर से सिनेमा का प्रचलन हुआ था, जिसमें कुशील वृद्धि के तीनों साधन, अर्थात् एकान्त, अन्धकार और सामने के चित्रपट पर रतिक्रीड़ा के अश्लील दृश्य एक साथ उपलब्ध कराये जाते थे। फिर भी उसके देखने का समय निर्धारित था। अश्लील दृश्य देखने की असीम-अभिलाषा ने ही टी. वी. को जन्म दिया। अहर्निश इन्हीं दृश्यों को देखना, कॉलेजों आदि में धर्मनिरपेक्ष वह भी एक साथ की शिक्षा, अर्धार्जन भी एक साथ मिलकर करना तथा लज्जा, मर्यादा, न्याय, सदाचार एवं नीति को अपने-अपने घरों से निष्कासित कर देना ; उसी का प्रभाव है कि आज देश एवं समाज में सर्वत्र कुशील का ही साम्राज्य है। इसका कुफल स्वास्थ्य हानि, धन हानि, गुप्त रोगों की वृद्धि, स्वच्छन्द वृत्ति, कदाचरण, वर्ण व्यवस्था का लोप तथा भावावेश में लड़कियों का जिस किसी भी यार-दोस्त के साथ भाग जाने से समीचीन विवाह व्यवस्था पर आघात आदि हमारे सामने हैं। इन वृत्तियों से जीवों के दोनों भव बिगड़ रहे हैं अतः जिन्हें नपुंसक पर्याय में तथा नरकादि दुर्गतियों में जाने का भय है उन्हें पूर्वाचार्यों के आदेशानुसार अपने शीलधर्म को दृढ़ रखते हुए सदाचार का पालन करना चाहिए। यही सुख का मार्ग है। निसर्गः मोहित-स्वान्तो, दृष्ट्वा श्रुत्वाभिलष्यति। विषयं सेवितुं जीवो, मदिरामिव-मद्यपः ।।११३३ ।। अर्थ - जैसे मद्यपी किसी को मदिरा पीते देखकर या सुनकर मद्य पीने की अभिलाषा से आतुर हो जाता है, वैसे ही निसर्गत: मोह से मोहित हृदय वाले मनुष्य रतिक्रीड़ा को देखकर या उसकी वार्ता को रसास्वादन पूर्वक सुनकर कामसेवन की अभिलाषा से द्रवित हो जाते हैं ।।११३३ ।। चारुदत्तो विनीतोऽपि, जात: संसर्ग-दोषतः। वेश्या-मांस-सुरासक्तः, कुल-दूषण-कारकः ।।११३४ ।। अर्थ - विनयवान भी चारुदत्त सेठ अपने व्यसनी चाचा के संगति-दोष से वेश्या, मांस एवं मदिरापानादि में आसक्त हुआ और अपने कुल का दूषक हुआ ।।११३४॥ * चारुदत्त सेठ की कथा * चंपापुरीमें भानुदत्त नामका सेठ रहता था। उसकी पत्नी सुभद्रासे चारुदत्त नामका गुणी पुत्र हुआ। कुमार कालसे विद्याका अधिक प्रेमी होनेसे विवाह होनेपर भी स्त्री संपर्कसे दूर रहकर सदा विद्याभ्यास कला आदिमें Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ३१७ ही लगा रहता था। किसी दिन माता आदि कुटुंबीके द्वारा किये गये उपायसे वह वसंतसेना वेश्या पर मोहित होकर उसीके यहाँ रहने लगा। घरका सब धन बरबाद हुआ। परिवारको बहुत पश्चाताप हुआ लेकिन अब क्या हो सकता था? जब चारुदत्त को धनरहित देखा तब वसंतसेनाकी माताने कपटसे उसे घरसे बाहर निकाल दिया। चारुदत्त अत्यंत लज्जित एवं दु:खी होकर धनोपार्जनके लिये विदेशयात्रा करता है। धन संग्रहकर जहाज द्वारा जैसे ही वापिस लौटता है कि जहाज तूफान द्वारा डूब जाता है। पुनः अनेक कष्टोंका सामना करते हुए धन कमाता है किन्तु दुर्दैववश फिर जहाज डूबता है ऐसा सात बार होता है किन्तु आयुके प्रबल होनेसे सातों बार लकड़ी के सहारे किनारे लगता है। इसी बीच में एक ठग संन्यासी द्वारा अंधकूपमें गिराया जाता है। वहाँ कूपमें उसीके समान धोखेसे पहुँचे हुए मरणासन्न पुरुषको णमोकार मंत्र सुनाकर समाधि कराता है जिससे वह देव बनता है। वहांसे किसी उपायसे निकल आता है। परिवारके रुद्रदत्त नामके व्यक्तिसे भेंट होती है उसके साथ द्वीपांतर जानेका विचार होता है। दुष्ट रुद्रदत्त बकरे को मारकर उसकी खालको उल्टीकर उसमें बैठकर पक्षी द्वारा रत्नद्वीपमें जानेका उपाय बताता है। चारुदत्तके मना करते हुए भी उसके सो जानेके बाद रुद्रदत्त बकरे को मारता है, चारुदत्तकी नींद खुलती है, उसने मरते हुए बकरेको णमोकार मंत्र सुनाया। द्वीपांतरमें चारुदत्त पहुंचा। पापी रुद्रदत्त बीचमें मर गया। उक्त द्वीपमें चारुदत्तको महामुनिके दर्शन होते हैं। वहाँसे विद्याधरकी सहायतासे वह अपने चंपापुर में सुरक्षित पहुँच जाता है। इसप्रकार कुशीलकी संगतिसे चारुदत्तने महान् कष्ट भोगे। तरुणस्यापि वैराग्य, शील-वृद्धेन जायते। क्रियते प्रस्तुत-क्षीरा, वत्स-स्पर्शेन गौ न किम् ॥११३५ ।। अर्थ - वय, ज्ञान एवं तप से वृद्ध पुरुषों की संगति तरुण-पुरुषों में भी वैराग्य उत्पन्न कर देती है। क्या बछड़े के स्पर्श से गाय के स्तनों में दूध उत्पन्न नहीं हो जाता? ॥११३५ ।। यः करोति गुरु-भाषितं मुदा, संश्रये वसति वृद्ध-सङ्कले। मुञ्चते तरुणलोक-सङ्गति, ब्रह्मचर्यममलं स रक्षति ॥११३६ ॥ अर्थ - जो गुरुजनों की आज्ञा का पालन करता है; वय, ज्ञान, शील एवं तप से वृद्ध पुरुषों के निवासस्थान में रहता है तथा तरुण जनों की संगति छोड़ देता है, वही ब्रह्मचर्यव्रत की निर्मलतापूर्वक रक्षा कर सकता है॥११३६॥ रजो धुनीते हृदयं पुनीते, तनोति सत्वं विधुनोति कोपम्। मानेन पूतं विनयं नयन्ति, किं वृद्ध-सेवा न करोत्यभीष्टम् ॥११३७ ॥ इति वृद्ध-सङ्गतिः॥ अर्थ - यह वृद्धसेवा पाप को नष्ट करती है, हृदय को पवित्र करती है, शक्ति को वृद्धिंगत करती है, क्रोध का नाश करती है, मान से रहित करती है और विनय से युक्त करती है। इस प्रकार यह वृद्ध सेवा किस अभीष्ट सिद्धि को प्रदान नहीं करती ? सभी इष्टफलों को देती है ।।११३७ ।। इस प्रकार वृद्धसेवा वर्णन समाप्त। Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ३१८ स्त्रीसंसर्ग से उत्पन्न होने वाले दोष मानसः स्वल्प-सत्वस्य, स्त्री-संसर्गे विनश्यति। जघन-स्तन-वक्त्राणि, पश्यतो बहु धल्यते ।।११३८ ॥ अर्थ - जिस पुरुष में सत्त्व अर्थात् धैर्य अल्प होता है उस पुरुष का मन स्त्रियों के संसर्ग से विकारी हो जाता है। स्त्रियों के स्थूल नितम्ब, पुष्ट स्तन एवं सुन्दर मुखादि को बार-बार ताकते रहने से उनका चित्त अत्यन्त चंचल हो जाता है||११३८॥ निरस्यति ततो लज्जां, संस्तवं कुरुते ततः । ततो भवति नि:शङ्कस्तो विश्वासति ध्रुवम् ॥२१३९ ।। अर्थ - हृदय विचलित होते ही उसकी लज्जा समाप्त हो जाती है, वह उनकी स्तुति अर्थात् चाटुकारिता करने लगता है, फिर गुरुजनों का भय समाप्त हो जाता है, तब निशंक होकर वह उस स्त्री पर दृढ़ विश्वास कर बैठता है ।।११३९॥ विश्वासे सति विश्रम्भो, विश्राभः प्रणये सति। रामासु परमा पुंसः, प्रणये जायते रतिः ।।११४० ।। अर्थ - उस स्त्री के प्रति अपने मन में विश्वास दृढ़ हो जाने पर उस स्त्री का भी विश्वास करने लगता है, इस परस्पर के विश्वास से प्रणय होता है, इस प्रकार उस पुरुष की उस स्त्री में परम रति हो जाती है ।।११४०। नारीणां दर्शनोद्देश, भाषण-प्रतिभाषणैः । आकृष्यते मनो नृणामयस्कान्तैरिवायसम् ।।११४१ ।। ___ अर्थ - आसक्ति बढ़ते ही बार-बार परस्पर में देखना एवं भाषण-प्रतिभाषण करना, इससे पुरुषों का मन उनके प्रति ऐसा आकर्षित हो जाता है, जैसे चुम्बक द्वारा लोहा आकर्षित हो जाता है॥११४१॥ हासोपहास-लीलाभिर्गुप्त-गात्र-प्रकाशनैः । विलासैर्विभ्रमैहविर्भावैः सह गमागमैः ॥११४२॥ अर्थ - स्त्रियों के द्वारा मन्द एवं मधुर मुस्कान युक्त हास-उपहास किये जाने से, लीलापूर्वक गमनादि क्रियाओं से, स्तन आदि गुप्त अंग दिखाये जाने से, कटाक्षपूर्ण अवलोकन से, विलासपूर्ण चेष्टा से, अन्य भी विकारपूर्ण हाव-भावों से तथा साथ-साथ देशादि में गमनागमन करने से पुरुष का मन चंचल हो जाता है॥११४२॥ मन्मनैः कोमलैाक्यैर्हद्यैर्विसम्भ-भाषणैः। गति-स्थिति-द्युति-क्रीडा-नर्म विव्योक-मोट्टनैः ।।११४३ ।। वक्रावलोकनैः स्त्रीणां, वैराग्यं हियते नृणाम् । शरीर-स्पर्शिभिः क्रुद्धः, पन्नगरिव जीवितम् ।।११४४ ॥ Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ३१९ अर्थ - मन को हरण करने वाले कोमल वचनों द्वारा, हृदय को सन्तुष्ट करने वाले सम्भाषण द्वारा, मद भरी चाल चलना, कमर पर हाथ रखना, डोलते हुए खड़े होना, शरीर की कान्ति, क्रीड़ा, मजाक, विन्चोक अर्थात् दोनों भौंहों के मध्यभाग को सिकोड़ना, मोहित करना, एवं कटाक्षपूर्ण तिरछी दृष्टि से देखना, इत्यादि। स्त्रियों की इन कुचेष्टाओं से पुरुषों का वैराग्य उसी प्रकार नष्ट कर दिया जाता है, जिस प्रकार धोखे से पैर आदि के नीचे आ जाने वाले क्रोधित सर्प के द्वारा जीवन नष्ट कर दिया जाता है।।११४३-११४४ ।। योषितां नर्तनं गानं, विकारो विनयो नयः। द्रावयन्ति मनो नृणां, मदनं पावका इव ।।११४५ ॥ अर्थ - स्त्रियों के विकारयुक्त नृत्य देखना, गीत सुनना, उनकी विनय करना एवं उन्हें कहीं लानाले जाना, इत्यादि क्रियाएँ मनुष्य की मनोगत कामवासना को उसी प्रकार द्रवित कर देती हैं जैसे अग्नि घी को पिघला देती है।।११४५॥ महिला मन्मथावास-विलासोल्लासितानना । स्मृतापि हरते चित्तं, वीक्षिता कुरुते न किम् ।।११४६ ।। अर्थ - महिला मन्मथ की आवास है। विलास भाव से उल्लसित मुखवाली महिला जब स्मरण में आ जाने मात्र से मन को हरण कर लेती है, तब वह देख लिए जाने पर क्या नहीं करेगी? ।।११४६ ।। निर्मर्यादं मनः सङ्गात्, सम्मूढं सुरतोत्सुकम्। पूर्वापरमनादृत्य, शील-शालं विलयते ॥११४७ ।। अर्थ - स्त्री के सहवास से मोहित हुआ पुरुष का मन मर्यादा को तोड़ कर रतिक्रीड़ा के लिए उत्सुक हो उठता है और पूर्वापर का कुछ भी विचार न करके सुन्दर शीलरूपी परकोटे का उल्लंघन कर डालता है ।।११४७ ।। प्रश्न - मर्यादा किसे कहते हैं ? उत्तर - सभ्य अर्थात् नीतिपूर्ण व्यवहार को मर्यादा कहते हैं। यहाँ ब्रह्मचर्य विषय का प्रकरण है अत: एक पुरुष का पर-स्त्री के साथ कैसा सभ्य या शालीनता पूर्ण या नीतियुक्त व्यवहार होना चाहिए, उसका नाम मर्यादा है। कषायेन्द्रिय-संज्ञाभिर्गारवैर्गुरुकाः सदा। सर्वे स्वभावत: सङ्गादुद्भवन्त्यचिरेण ते ॥११४८ ॥ अर्थ - स्वभावतः सभी संसारी प्राणी कषाय, इन्द्रियवशता, आहार, भय, मैथुन और परिग्रह संज्ञा तथा ऋद्धिगारव, रस गारव एवं सात गारव से युक्त होते हैं, अतः स्त्री आदि का साहाय्य पाकर वे इन्द्रियादि विषय रूप अशुभ परिणाम तत्क्षण प्रबल हो उठते हैं ।।११४८ ।। मातृ-स्वसृ-सुताः पुंस, एकान्ते श्रयतो मनः। शीघ्रं क्षोभं व्रजत्येव, किं पुन: शेष-योषितः ॥११४९ ।। Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ३२० अर्थ - एकान्त में अपनी माता, बहिन एवं पुत्री को पाकर भी जब पुरुष का मन शीघ्र ही क्षोभ को प्राप्त हो जाता है तब शेष स्त्रियों के साथ एकान्तवास के सम्बन्ध में तो कहना ही क्या है ! ।। ११४९ ॥ निःसारां मलिनां जीण, विरूपां रोगि दुर्दृशम् । तिरश्चीं वा समीहेत, नृ-मनो मैथुनं प्रति ।।११५० ।। - अर्थ मनुष्य का मन सारहीन, मलिन, अतिवृद्धा, विरूप, रोगी एवं देखने में भयंकर कुरूप स्त्री को भी मैथुन के लिए चाहता है तथा काम के तीव्र उद्रेक में तिर्यञ्चनी के साथ भी मैथुन सेवन कर लेता है ।। ११५० ॥ अन्य प्रकार से स्त्री-संसर्ग दृष्टश्रुतानुभूतानां विषयाणां रुचि -स्मृतिः । नारी - संसर्ग एषोऽपि विरहेऽप्यस्ति योषितः ।। ११५१ ।। 3 अर्थ - निकट में स्त्री के विद्यमान न रहते हुए भी देखे सुने तथा अनुभूत विषयों की रुचि जाग्रत हो जाना या स्मृति आ जाना भी स्त्रीसंसर्ग ही कहा जाता है ।। ११५१ ॥ वृद्धो गणी तपस्वी च विश्वास्यो गुणवानपि । अचिराल्लभते दोष, विश्वस्तः प्रमदा - जने ॥ ११५२ ।। अर्थ - वृद्ध हो, या आचार्य हो, या घोर तपस्वी हो, या सब का विश्वासभाजन हो, या गुणवान् हो, यदि वह स्त्रियों के विषय में विश्वस्त है, या उनसे संसर्ग रखता है तो वह शीघ्र ही अपयश का भागी होता है ।। ११५२ ।। किं पुनर्विकृता-कल्पाः, स्वैरिणः शेष- साधवः । नारी - संसर्गतो नष्टा, न सन्ति स्वल्प कालतः ।। ११५३ ।। अर्थ - जब महामुनि एवं महातपस्वियों की भी ऐसी गति हो जाती है, तब जो विकृत मन वाले हैं, स्वच्छन्द हैं एवं तरुण हैं ऐसे शेष साधु नारी के संसर्ग से स्वल्प काल में क्या नष्ट नहीं हो सकते ? हो ही सकते हैं ॥११५३ ॥ जैनिका- सङ्गतो नष्टश्चरणाच्छकटो यतिः । वेश्याया: सह संसर्गान्नष्टः कूपवरस्तथा ।। ११५४ ॥ रुद्रः पाराशरो नष्टो, महिला - रक्त्या दृशा । देवर्षिः सात्यकि - देवपुत्रश्च क्षण मात्रत: ।। ११५५ ॥ अर्थ - शकट मुनि जैनिका नामक ब्राह्मणी के संसर्ग से चारित्रभ्रष्ट हुए, कूपवर मुनि वेश्या की संगति कारण चारित्रभ्रष्ट हुए, रुद्र एवं पाराशर ऋषि स्त्रियों को आसक्तिपूर्वक देखने से नष्ट हुए थे और देवर्षि, देवपुत्र एवं सात्यकि मुनि स्त्री सम्पर्क से क्षणमात्र में नष्ट हो गये थे ।। ११५४-११५५ ।। Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ३२१ * शकट नामक भ्रष्ट मुनि की कथा * शकट नामक एक मुनि आहारके लिये वनसे कौशांबी नगरीके निकट आ रहे थे। मार्ग कुछ लंबा था। नगरके बाहर एक कुटीमें शून्य स्थान समझकर वे बैठ गये, वहाँ कुटियामें एक दासकर्म करनेवाली स्त्री रहती धी, मुनिने उसे पहिचान लिया कि पहले बालक अवस्थामें यह और मैं एक साथ पढ़ते थे। मुनि अपने आहारके प्रयोजनको भूल गये और उस जैनिका-जयनी नामकी स्त्रीसे वार्तालाप करने लगे। इसमें दोनोंका मन र परस्परमें आकृष्ट हो गया और शकट मुनिने अपना निर्मल चारित्र उस स्त्रीकी किंचित् कालकी संगतिसे ही छोड़ दिया। * कूपार नामक भ्रष्ट मुनि की कथा * पाटलीपुत्र नगरमें अशोक नामका राजा था। उसका एक अत्यन्त पराक्रमी पुत्र कूपार (कूपकार) नामका था। किसी दिन विहार करते हुए वरधर्म आचार्य संघ सहित नगरके बाह्य उद्यानमें आकर ठहर गये | नागरिक समूह दर्शनार्थ जा रहा था, कूपार राजकुमार भी उनके साथ गया, आचार्यसे वैराग्यप्रद धर्मोपदेशको सुनकर कुमारको संसारसे विरक्ति हुई और उसने जिनदीक्षा ग्रहण की! किसी दिन एक विषम पर्वत पर वे कूपार मुनि ध्यानारूढ़ हुए। इधर उनके पिता अशोक राजाको पुत्र वियोगका अत्यंत दुःख हुआ, उस राजाके यहाँ एक गणिका वीरवती नामकी नृत्यकारिणी थी। उसने राजाको कहा, "मैं आपके पुत्रको वापस ला सकती हूँ, आप चिंता शोक न करें।" इतना कहकर उसने आर्यिका वेष लिया। साथमें बहुतसी दासियोंको भी आर्यिकाका वेष दिलाकर वे सभी जिस पर्वतपर ध्यानारूढ़ कूपार मुनि थे, वहाँ आईं। वीरवती तो पर्वतके नीचे ठहर गयी और अन्य स्त्रियाँ ऊपर जाकर मुनिसे कहती हैं कि "भो योगीश्वर ! हम सब आर्यिकायें तो यहाँ दर्शनार्थ आ चुकी किन्तु एक आर्यिका पर्वतपर चढ़नेमें असमर्थ है, आप कृपा करके उन्हें दर्शन देवें।" मुनि धर्मवात्सल्यसे नीचे आये, उनके आते ही गणिकाने उन्हें हावभाव विलास द्वारा अपने वशमें कर लिया। इसतरह वे कूपार यति उस गणिका वीरवतीके निमित्तसे भ्रष्ट होगये। * सात्यकि और रुद्रकी कथा * गंधार देशमें महेश्वर नगरका राजा सत्यधर था। उसके पुत्रका नाम सात्यकि था, इसकी सगाई राजा चेटककी पुत्री जेष्ठाके साथ हो चुकी थी। किसी कारणवश जेष्ठा राजपुत्रीने आर्यिका दीक्षा ली। जब सात्यकिको यह ज्ञात हुआ तो उसने भी समाधिगुप्त मुनीश्वरके समीप जिनदीक्षा ग्रहण की। एक दिन जेष्ठा आदि अनेक आर्यिकायें अपनी गणिनीके साथ महावीर भगवान् के समवशरणमें जा रही थीं। मार्गमें पानी बरसने लगा। इससे सब आर्यिकासंघ तितर-बितर हो गया। जेष्ठा आर्यिका एक गुफामें पहुँची। वहाँ साड़ी खोलकर निचोड़ रही थी, गुफामें सात्यकि मुनि तपश्चरण कर रहे थे। वहाँ अकस्मात् जेष्ठाको देखकर उनका मन विचलित हुआ। दोनोंका समागम हुआ। अनंतर वर्षाके समाप्त होनेपर आर्यिकासंघ एकत्र हुआ। जेष्ठा ने अपनी गणिनी यशस्वती आर्यिकासे घटित घटना बतायी। गणिनीने अपवाद न हो इस उद्देश्यसे जेष्ठाको उसकी बड़ी बहिन राजा श्रेणिककी पट्टदेवी चेलनाके पास रखा | नव मास व्यतीत होनेपर बालक हुआ। उसके पालनका भार चेलना ने लिया । जेष्ठा पुनः छेदोपस्थापना प्रायश्चित्त द्वारा शुद्ध होकर तपमें लीन हुई। सात्यकिने भी अपने गुरुके निकट तत्काल पुनर्दीक्षा ग्रहण की। इसप्रकार स्त्रीके निकट होनेसे सात्यकि मुनि भ्रष्ट हुए। Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ३२२ इधर उनका पुत्र चेलनाके पास वृद्धिंगत हुआ, उसका नाम रुद्र था। यह क्रूर स्वभाव वाला होनेसे अपने समीपवर्ती बालकोंको पीटता रहता, इससे उलाहना आनेपर चेलनाने कुपित होकर कह दिया कि किसका पुत्र और किसको कष्ट दे रहा है ? इतना सुनकर रुद्रने राजा श्रेणिकसे अपने जन्मका वृत्तांत विदित किया और उसने उदास हो दीक्षा ली। वह ग्यारह अंग और दश पूर्व क्रमसे पढ़ रहा था। दसवें विद्यानुवाद पूर्व का अध्ययन पूर्ण होनेपर रोहिणी आदि विद्यार्य उसके समक्ष उपस्थित हुई। रुद्रमुनिने लोभवश विद्यार्ये स्वीकार करली। अब वह स्वच्छंद भ्रमण करने लगा। एक दिन वनमें सरोवर पर अनेक राजकन्यायें स्नानार्थ आयी थीं, उन्हें देखकर रुद्र कामबाणसे बिद्ध हुआ और उसने विद्याके बलसे सबका हरणकर उन्हें अपना बना लिया। कन्याओंके पिताने उससे युद्ध किया किन्तु रुद्र के पास विद्याका बल होनेसे सजा हार गये और इसतरह रुद्र मुनि भ्रष्ट होकर उन स्त्रियोंके साथ रमने लगा। अंतमें मरकर नरक गया। इसप्रकार स्त्रीसंसर्गसे रुद्रकी दुर्गति हुई। * पाराशरकी कथा * पाराशर नामका एक जटाधारी तापसी था। उसने कुतप द्वारा कुछ विद्याएँ सिद्ध की थीं। एक दिन नौका द्वारा नदी पार कर रहा था। मौका को एक धीवरकी सत्यवती नामकी लड़की चला रही थी, जो सुंदर थी। उसपर पाराशर मोहित हो गया। धीवरसे उसको मांगकर जंगलमें उसके साथ रहने लगा। इसतरह वह तपस्वी लड़कीको देखकर कामुक हो अपने तपसे भ्रष्ट हो गया। अत: स्त्रीसे सदा दूर रहना ही साधु-व्रतीको श्रेयस्कर है। कथा समाप्त। ब्रह्मचर्यव्रत को स्थिर रखने का उपाय भुजङ्गीनामिव स्त्रीणां, सदा संङ्गं जहाति यः। तस्य ब्रह्मव्रतं पूतं, स्थिरी-भवति योगिनः॥११५६॥ अर्थ - नागिन के सदृश जो सदा के लिए स्त्रियों का सम्पर्क छोड़ देता है, उसी योगी का ब्रह्मचर्य व्रत पवित्र एवं स्थिर रहता है ।।११५६ ।। अविश्वस्तोऽप्रमत्तो यः, स्त्री-वर्गे सकले सदा। यावज्जीवमसौ पाति, ब्रह्मचर्यमखण्डितम् ॥११५७॥ अर्थ - जो साधु या पुरुष सम्पूर्ण स्त्रीवर्ग में विश्वास नहीं करता एवं प्रमादरहित अर्थात् सावधान रहता है, वही पुरुष यावज्जीवन अपने ब्रह्मचर्य व्रत को अखण्डित रूप से सुरक्षित रख सकता है॥११५७।। अहं वर्ते कथं कि मे, जनः पश्यति भाषते । चिन्ता यस्येदृशी नित्यं, दृढ-ब्रह्मव्रतोऽस्ति सः।११५८ ॥ अर्थ - मेरी प्रवृत्ति कैसी है अर्थात् मैं किस प्रकार चल रहा हूँ ? अन्य लोग मुझे किस दृष्टि से देखते हैं? और लोग मेरे सम्बन्ध में क्या कहते हैं ? ऐसा चिन्तन जो पुरुष सतत करता है, उसका ब्रह्मचर्य दृढ रहता है॥११५८॥ प्रश्न - इस प्रकार के चिन्तन की प्रेरणा किसे और क्यों दी गई है ? Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परणकण्डिका - ३२३ उत्तर - यह प्रेरणा मुख्यतः साधु को दी गई है। उसे चिन्तन करना चाहिए कि मैंने यह सर्वोत्कृष्ट द्रत धारण किया है। इसमें मेरे द्वारा कोई दोष तो नहीं लग रहा? मेरी प्रवृत्ति आगमानुकूल है या नहीं? जनसमुदाय में मेरा अपवाद तो नहीं हो रहा? मेरा अपमान ही इस उत्तम साधु पद का अपमान है, इत्यादि प्रकार से जो चिन्तन करता है, और जो लज्जावान् है, वही अपने ब्रह्मचर्यव्रत को अखण्ड रख सकता है। किन्तु जिसे लोकलाज की चिन्ता नहीं, शर्म नहीं एवं जिसे धर्म की अप्रभावना का भय नहीं वह स्वच्छन्द आचरण कर अपने ब्रह्मचर्य में शिथिल होता है। न पश्यत्यङ्गना-रूपं, ग्रीष्मार्कमिव यश्चिरम् । क्षिप्रं संहरते दृष्टिं, तस्य ब्रह्मव्रतं स्थिरम् ॥११५९ ।। जय .. जैसे मनातु में घः सूर्य को कोई स्थिर दृष्टि से देर तक नहीं देख सकता (और कदाचित् देख भी ले तो तत्काल वहाँ से दृष्टि हटा लेता है) उसी प्रकार जो महापुरुष स्त्रियों के रूप को स्थिर दृष्टि से चिरकाल तक नहीं देखता, अर्थात् यदि कदाचित् दृष्टि चली जाय, तो तत्काल उसे संकोच लेता है, वहीं अपने ब्रह्मचर्य व्रत को स्थिर रख सकता है ।।११५९॥ गन्धे रूपे रसे स्पर्श, शब्दे स्त्रीणां न सज्जति। जातु यस्य मनस्तस्य, ब्रह्मचर्यमखण्डितम् ।।११६० ।। अर्थ - जिस पुरुष का मन स्त्रियों के मनोहर गन्ध, रूप, रस, स्पर्श और शब्द में कभी आकर्षित नहीं होता, उसी का ब्रह्मचर्य व्रत अखण्डित रहता है ।।११६० ।। स्त्री-दोषों के कथन का उपसंहार द्विपमिव हरिकान्ता मञ्ज मीनं बकीव, भुजगमिव मयूरी मूषिकं वा विडाली। गिलति निकटवृत्ति: संयतं निर्दया स्त्री, निकटमिति तदीयं सर्वदा वर्जनीयम् ॥११६१ ।। अर्थ - जिस प्रकार समीप में आये हुए हाथी को सिंहनी खा जाती है, समीप आये हुए मत्स्य को बगुली शीघ्र ही खा जाती है, मयूरी सर्प को मार डालती है एवं बिल्ली चूहे को खा जाती है, उसी प्रकार निर्दय हृदय कुशील स्त्री यदि संयत मुनि के समीप आ जावे तो वह उनके संयम को नष्ट कर डालती है, अत: स्त्री की निकटता सदैव ही त्याज्य है। दूर से ही छोड़ने योग्य है।।११६१ ।। प्रथयति भव-मार्ग मुक्ति-मार्ग वृणक्ति, दवयति शुभ-बुद्धिं पाप-बुद्धिं विधत्ते। जनर्यात जन-जल्पं श्लोक-वृक्षं लुनीते, वितरति किमु कष्टं सङ्गतिर्नाङ्गनानाम् ।।११६२॥ इति स्त्री-संसर्ग-दोषाः ।। अर्थ - स्त्रियों की संगति संसार-मार्ग को विस्तृत करती है एवं मुक्तिमार्ग को नष्ट करती है, पुण्यरूप धर्मबुद्धि को जला देती है तथा पापरूप अधर्मबुद्धि को उत्पन्न करती है। जनापवाद को उत्पन्न करती है और Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ३२४ प्रशंसारूप वृक्ष को काट डालती है। अहो ! स्त्री की यह संगति क्या-क्या कष्ट नहीं देती ? सभी कष्ट देती है।।११६२॥ इस प्रकार स्त्री-संसर्ग-दोष वर्णन समान । महाव्रतों के उपदेश के अन्तर्गत ब्रह्मचर्य नामक चतुर्थ महाव्रत का विस्तार पूर्वक उपदेश देते हुए निर्यापकाचार्य कह रहे हैं कि - यदि ते जायते बुद्धिर्लोक-द्वितय गथुमे । उद्योग: पञ्चधा कार्य:, स्त्री-वैराग्ये तदा त्वया ॥११६३॥ अर्थ - हे क्षपक ! इस लोक एवं परलोक में तुम्हारे परिणाम यदि मैथुन-सेवन के बन जाएँ तो पाँच प्रकार के स्त्री-वैराग्य में मन को लगाओ। अर्थात् स्त्रीकृत दोष, मैथुन के दोष, स्त्रीसंसर्ग दोष, शरीरगत अशुचिता एवं वृद्धसेवा का चिन्तन करो, जिससे आपके अति अशुभ परिणाम नष्ट हो जायेंगे ।।११६३ ॥ प्रश्न - स्त्रीवैराग्य के लिए कौनसे पाँच विषयों का चिन्तन आवश्यक है और क्यों ? उत्तर - ब्रह्मचर्यव्रत का अखण्ड एवं निर्दोषरीत्या पालन करने हेतु विस्तृत उपदेश देते हुए आचार्यदेव कहते हैं कि - हे क्षपक ! यदि तुम्हारे मन में कहीं स्त्रीभोगजन्य आसक्ति के संस्कार पड़े हों, उनके प्रति रागभाव उत्पन्न हो रहा हो तो तुम अपनी कामवासना के शमन हेत सर्व प्रथम जो काम अति-निन्दनीय है उसके दोषों का चिन्तन करो। पश्चात् जो दोषों का भण्डार है ऐसी स्त्री के दोषों का चिन्तन करो। पश्चात् जिस शरीर से भोगना है और जिस शरीर को भोगना है, वे दोनों कितने वीभत्स हैं, इस प्रकार शरीरगत दोषों का चिन्तन करो। पश्चात् वृद्धसेवा का चिन्तन करो कि जो साधु शीलवान् गुरुजनों की सेवा करता है वही ब्रह्मचर्य व्रत को अखण्ड रखने में समर्थ हो सकता है क्योंकि शिथिलशील वालों की संगति से ब्रह्मचर्य व्रत में शिथिलता आने की संभावना रहती है। पश्चात् स्त्री-संसर्ग में क्या-कैसे दोष हैं, इस विषय का चिन्तन करो। वैराग्यपरक इन पाँचों विषयों का चिन्तन करते रहने से ब्रह्मचर्य व्रत में सदा दृढ़ता बनी रहेगी। लिप्यते वर्तमानोऽपि, विषयेषु न तैर्यतिः। पद्मजातं जले वृद्धं, जातु किं लिप्यते जलैः ॥११६४ ।। अर्थ - जैसे जल में ही उत्पन्न हुआ और जल में ही वृद्धिंगत हुआ कमल जल से लिप्त नहीं होता, वैसे ही विषयों के मध्य रहता हुआ भी साधु, वैराग्यपरक कामदोषादि इन पाँच विषयों का चिन्तन करता है तो उन विषयों से लिप्त नहीं होता॥११६४॥ विषयैर्विष्टपस्थस्य, चित्तमस्पर्शनं यतेः। सागरं गाहमानस्य, सलिलैरिव जायते ॥११६५।। अर्थ - जैसे समुद्र में अवगाहन करके भी समुद्र के जल से शरीर का अलिप्त रहना आश्चर्यकारी है, वैसे ही विषय रूपी समुद्र के मध्य रह कर विषयरूपी जल से चित्त का अलिप्त रहना अर्थात् विषयों में चित्त का न जाना महान् आश्चर्यकारी है।।११६५ ।। न दोष-श्वापदे भीमे, वञ्चना-गहने यतिः । नश्यति स्त्री-वनेऽलीक-पादपेऽशुचिता-तृणे ||११६६ ।। Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ३२५ अर्थ - जिसमें दोष रूपी श्वापद आदि जंगली पशु रहते हैं, वंचना अर्थात् मायाचारी से जो गहन हो रहा है, अत्यन्त भयावह है, असत्यरूपी वृक्षों से सघन है तथा अशुचि अंगोपांग रूपी घास-फूस से व्यास है, ऐसे स्त्री रूपी वन में कल्याणेच्छु साधु कभी नहीं भटकता। अर्थात् स्त्रीरूपी बन के मध्य रहता हुआ भी नष्टशील नहीं होता ||२१६६।। प्रश्न - यहाँ स्त्री को भयानक वन की उपमा क्यों दी गई है ? उत्तर - जैसे कोई पुरुष भयंकर वन में भटक जाये तो उसे वहाँ जंगली पशुओं द्वारा, सघन वृक्ष एवं नुकीली घास आदि के द्वारा महान् कष्ट होता है। यहाँ मोक्षमार्ग के पथिक मुनिजनों को स्त्री ही एक भयानक वन है। वन में जैसे जंगली पशु रहते हैं, स्त्री में वैसे ही चंचलता, भीरुता, असूया, उन्मत्तता एवं चुगली आदि दोष रूपी पशु भरे पड़े हैं। लता-गुल्मादि के कारण वन का रास्ता गहन होता है, स्त्री मायाचार रूपी गुल्म से गहन है। वन के सघन वृक्षों के सदृश स्त्री में असत्य और वंचना रूप वचन ही सघन वृक्ष हैं। वन की घास के सदृश स्त्री के अपवित्र अवयव हैं। ऐसे भयंकर स्त्रीरूपी वन में मुनिराज कभी दिग्मूढ़ नहीं होते, यही उनकी सबसे बड़ी महानता है। भूरि-शृङ्गार-कल्लोला, यौवनाम्बुर्वधू-नदी। न विलासास्पदा हास-फेना वहति संयतम् ।।११६७ ।। अर्थ - स्त्री एक नदी के सदृश है। स्त्री में शृंगार रूपी बहुत तरंगें हैं, यौवन रूप जल है, विलास और विभ्रमरूप वेग है तथा मन्द-मन्द हास्य रूप फेन है। ऐसी स्त्री रूपी नदी संयत-मुनि को बहाकर ले जाने में समर्थ नहीं हो पाती ||११६७ ।। विलास-सलिलोत्तीर्णा, अस्तीत्रा यौवनापगा। अग्रस्ताः प्रमदा-ग्राहस्ते धन्या मुनि-पुङ्गवाः ।।११६८।। ___अर्थ - जो मुनिराज विलास रूप जल से भरी हुई, यौवन रूपी तीव्र वेग वाली स्त्री रूपी नदी को पार करते समय उन स्त्री रूपी मगर-मच्छों द्वारा ग्रस्त नहीं हुए वे ही धन्य हैं ।।११६८ ।। धन्यं स्त्री व्याध-निर्मुक्ता:, कटाक्षेक्षण-सायकाः। विध्यन्ति विषयारण्ये, वर्तमानं न योगिनम् ।।११६९ ।। अर्थ - विषयों से व्याप्त इस संसाररूपी वन में स्थित जो मुनिजन स्त्रीरूपी शिकारी द्वारा छोड़े गये कटाक्ष दृष्टिवाणों से वेधित नहीं होते, वे मुनि ही धन्य हैं ।।११६९ ॥ न विव्वोक-रदोऽभ्येति, विलास-नखरो मुनिम्। कटाक्षाक्षोऽङ्गना-व्याघ्रस्तारुण्यारण्य-वर्तिनम् ।।११७० ।। अर्थ - स्त्री व्याघ्र के सदृश है। भृकुटिविकार उसके तीक्ष्ण दाँत हैं, विलास रूपी नख हैं और कटाक्ष रूपी नेत्र हैं ; ऐसा स्त्रीरूपी व्याघ्र, यौवन रूपी वन में विचरण करने वाले जिन महामुनि को नहीं पकड़ पाता, वे मुनि धन्य हैं॥११७० ।। Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ३२६ त्रिलोक-दाही विषयोद्ध-तेजाः, तारुण्य-तृण्या-ज्वलित: स्मराग्निः। न प्लोषते यं स्मृति-धूमजालः, स वन्दनीयो विदुषा महात्मा ।।११७१ ॥ अर्थ - तीन लोकरूपी वन को जलाने वाली, विषयरूपी बढ़ते हुए तेज से युक्त, यौवनरूपी घासफूस से प्रदीप्त एवं स्मृतिरूपी धुंआजाल से व्याप्त, ऐसी काम रूपी अग्नि जिसे नहीं जलाती वही महात्मा विद्वानों द्वारा वन्दनीय है।।११७१॥ । विपुल-यौवन-नीरमनाकुलो, विषय-नीरनिधि रति-वीचिकम्। इह वधू-मकरैरकदर्थितस्तरति धन्यतमः पर-दुस्तरम् ॥११७२ ।। इति चतुर्थं ब्रह्मचर्यव्रतम्॥ अर्थ - इस विषय रूपी समुद्र में यौवनरूपी विपुल जल है, स्त्री की रतिक्रीड़ारूपी लहरें हैं, स्त्री रूप भयंकर मगरमच्छ हैं और इसे पार करना अति कठिन है। मगर-मच्छादि से अछूते रहकर जो इस समुद्र को पार कर जाते हैं, वे महापुरुष ही इस संसार में धन्य पुरुषों में भी महाधन्य हैं ।।११७२ ।। इस प्रकार ब्रह्मचर्य नामक चतुर्थव्रत का वर्णन पूर्ण हुआ। अपरिग्रह नामक पाँचवाँ महाव्रत परिग्रह के भेद-प्रभेद बाह्यमाभ्यन्तरं सङ्गं, कृत्त-कारित-मोदनैः । विमुञ्चस्व सदा साधो ! मनो वाक्काय-कर्मभिः॥११७३ ।। अर्थ - हे साधो ! तुम बाह्य और अभ्यन्तर दोनों परिग्रहों का मन, वचन, काय एवं कृत, कारित अनुमोदना से सदा के लिए त्याग कर दो ॥११७३ ।। अभ्यन्तर परिग्रह मिथ्यात्व-वेद-हास्यादि-क्रोध-प्रभृतयोऽन्तराः। एक-त्रि-षट्-चतुः संख्या, सङ्गाः सन्ति चतुर्दश ।।११७४॥ अर्थ - मिथ्यात्व एक, स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसक वेद के भेद से तीन वेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय और जुगुप्सा के भेद से छह नोकषाय तथा क्रोध, मान, माया और लोभ के भेद से चार कषायें, इस प्रकार अन्तरंग परिग्रह चौदह प्रकार का है।।११७४ ।। बाह्य परिग्रह क्षेत्रं वास्तु धनं धान्यं, द्विपदं च चतुष्पदम् । यानं शय्याशनं कुप्यं, भाण्डं सङ्गा बहिर्दश ॥११७५ ॥ अर्ध • क्षेत्र-खेती आदि का स्थान, वास्तु-मकान-महलादि, धन-सुवर्ण, चाँदी, रत्नः आदि, धान्य-अनाजादि, द्विपद-दास, दासी, सेवकादि, चतुष्पद हाथी, घोड़ा, गाय भैंस आदि, यान-पालकी तथा विमानादि, शय्या-आसन-कुप्य-वस्त्र और भाण्ड, ये दस प्रकार के बाह्य परिग्रह हैं ॥११७५ ।। Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 अर्थ- जैसे तुष सहित चावल का तुष दूर किए बिना उसके अन्तर मल का शोधन करना अशक्य है। वैसे ही बाह्य परिग्रह के त्याग बिना कषायादि अभ्यन्तर परिग्रह का शोधन करना अशक्य है || १९७६ || उदीयते यदा लोभो, रागः संज्ञा च गारवम् । शरीरी कुरुते बुद्धिं तदादातुं परिग्रहम् ।।११७७ ।। मरणकण्डिका - ३२७ बाह्य परिग्रह के त्याग की महत्ता नाभ्यन्तर: ससङ्गस्य, साधोः शोधयितुं मलः । शक्यते सतुषस्येव, तन्दुलस्य कदाचन ॥ ११७६ ।। अर्थ - जब लोभ नामक कर्मप्रकृति की उदय उदीरणा होती है, तब लोभ, राग, संज्ञा एवं गारव रूप अशुभ परिणाम होते हैं। तब यह संसारी प्राणी परिग्रह को ग्रहण करने की बुद्धि करता है ॥ ११७७ ॥ प्रश्न - लोभ, राग, संज्ञा एवं गारव के क्या लक्षण हैं और इनका क्या फल है ? उत्तर - धनादि के गुणों में आसक्ति रूप परिणाम को लोभ कहते हैं। 'यह मेरा है' इस परिणाम का नाम राग है। 'मेरे पास कुछ होता तो अच्छा होता' इस प्रकार के ममत्व परिणाम को संज्ञा कहते हैं और परिग्रह विषयको अलावा की गारज कहते हैं। ये सब परिणाम अशुभ हैं, इन्हीं परिणामों से कर्मबन्ध होता है। - अर्थ आगम में दस प्रकार का स्थितिकल्प ( मुनियों का आचरण विशेष ) कहा गया है। उसमें वस्त्रादि परिग्रह के त्यागरूप प्रथम स्थिति कल्प अचेलक्य है। यतः परिग्रह इहलोक और परलोक सम्बन्धी दोषों को लाता है, अतः जो साधुजन दोनों लोक सम्बन्धी दोषों से बचना चाहते हैं, उन्हें दोनों प्रकार के परिग्रह का त्याग कर देना चाहिए । १११७८ ।। आचेलक्य का अर्थ वस्त्र है, किन्तु इससे सम्पूर्ण परिग्रह के त्याग का निर्देश है उद्देशामर्शकं सूत्रमाचेलक्यमिति स्थितम् । लुप्तोऽथवादि - शब्दोऽत्र, ताल - प्रालम्ब सूत्रवत् ॥ ११७९ ॥ ग्रन्थो लोक-द्वये दोषं विदधाति यतेस्ततः । स्थिति - कल्पो मतः पूर्वं चेलादि-ग्रन्थ-मोचनः ।। ११७८ ।। अर्थ- सूत्र में 'आचेलक्य' पद देशामर्शक है। इस पद में चेल शब्द उपलक्षणरूप है, अतः चेल वस्त्र के साथ अन्य परिग्रह का निषेध भी हो जाता है। अथवा इस सूत्र में तालप्रलम्ब सूत्रानुसार आदि शब्द का लोप हो गया है ॥ ११७९ ॥ - प्रश्न स्थितिकल्प किसे कहते हैं और वे कौन-कौन से हैं? उत्तर- मुमुक्षुओं को जो कार्य नियमतः करना ही चाहिए उसे स्थिति कहते हैं और उसके भेदों को कल्प कहते हैं। यह स्थितिकल्प का अर्थ है। सुस्थितादि नामक पाँचवें अधिकार में निर्यापकाचार्य के आचारवान्, आधारवान् आदि आठ गुण कहे गये हैं। इनमें आचारवान् गुण के अन्तर्गत दश स्थितिकल्पों का कथन किया Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ३२८ है। उनके नाम इस प्रकार हैं- १. अचेलकत्व, २, उद्दिष्ट शय्या-त्याग, ३. उद्दिष्ट आहार त्याग, ४. राजपिंड त्याग, ५. कृतिकर्म प्रवृत्त, ६, व्रतारोपण अर्हत्व, ७. ज्येष्टत्व, ८. प्रतिक्रम, ९. मासैक-वासिता और १०. पर्या अर्थात् चातुर्मास में विहार नहीं करना । प्रश्न - आचेलक्य का क्या अर्थ है ? उत्तर - आचेलक्य शब्द का निरुक्ति अर्थ है “न चेलं इति अचेल, चेलग्रहण परिग्रहोपलक्षणं, तेन सकल-धन-धान्यादि परिग्रह-त्यागः गृहयते" अर्थात् चेल शब्द में वस्त्रत्याग उपलक्षण रूप है, अत: इस शब्द के अर्थ के साथ अन्य उसके समान धन-धान्यादि सर्व प्रकार के परिग्रहत्याग करने का उपदेश ग्राह्य है। प्रश्न - उपलक्षण का क्या भाव है ? उत्तर - जिस उक्त अर्थात् कहे हुए एक शब्द के साथ उसके ही समान अर्थ वाले अन्य सभी का ग्रहण स्वतः हो जाता है, उसे उपलक्षण कहते हैं। जैसे किसी ने कहा - "काकेभ्यो रक्षता सर्पिः" अर्थात् “कौवे से धी की रक्षा करो"। इस वाक्य में कौवा शब्द उपलक्षण है क्योंकि जो घी की रक्षा चाहता है उसका भाव है कि कौवा एवं कौवे के सदृश बिल्ली, कुत्ता आदि जो-जो प्राणी घी को नष्ट करने वाले हैं उन सभी से घी की रक्षा करो। इस प्रकार चेल अर्थात् वस्त्र शब्द यहाँ उपलक्षण है। प्रश्न - श्लोक में जो "तालप्रलम्बसूत्रवद्" पद आया है उसका क्या अभिप्राय है ? उत्तर - साधुसमाज की योग्य चर्या दर्शाने वाले कल्पग्रन्थ में एक सूत्र आया है कि "ताल पलंब ण कप्पदि" अर्थात् "साधु को ताल प्रलम्ब वनस्पति नहीं खानी चाहिए"। सूत्रगत 'ताल' शब्द का तो मात्र इतना अर्थ है कि ताड़वृक्ष नामक वनस्पति नहीं खानी चाहिए, किन्तु मात्र इतना अर्थ ग्राह्य नहीं है, कारण कि इस सूत्र में 'आदि' शब्द का लोप हो गया है और यह सूत्र देशामर्शक भी है, अतः इस सूत्र से भी यही ग्राहय होगा कि साधु को ताड़ादि वनस्पतियों का भक्षण नहीं करना चाहिए । अर्थात् किसी भी प्रकार के हरित तृण, पत्ते, लता बेल, गुच्छे, फूल एवं स्कन्धादि नहीं खाने चाहिए। मूल प्रलम्ब और अन प्रलम्ब के भेद से प्रलम्ब दो प्रकार का है। जो भूमि के भीतर ही रहते हैं ऐसे कन्दमूल आदि को मूल प्रलम्ब कहते हैं और अंकुर, प्रवाल, पत्ते, फूल एवं फल आदि वनस्पति अग्र प्रलम्ब प्रश्न - देशामर्शक किसे कहते हैं ? उत्तर - जिस सूत्र में प्रयोजनीय वस्तु का मात्र एकांश कहा जाता है किन्तु वह एकांश ही वस्तु के सर्वांश को ध्वनित करता है उसे देशामर्शक कहते हैं। यहाँ भी 'चेल' शब्द सर्व परिग्रह के त्याग को ध्वनित करता है। अर्थात् अपरिग्रह महाव्रत में वस्त्र सहित बाह्याभ्यन्तर सर्व परिग्रह का त्याग करना आवश्यक है। आचार्य का भी यही अभिमत है चेल-मात्र-परित्यागी, शेष-समी न संयतः। यतो मतमचेलत्वं, सर्व ग्रन्थोज्झनं ततः ।।११८० ।। Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका- ३२९ अर्थ - वस्त्र मात्र का त्याग करने से और शेष सर्व परिग्रह रखने से कोई संयमी साधु नहीं हो सकता, अतः 'अचेलत्व' शब्द से सर्व परिग्रह का त्याग करना ही अभिमत है । अर्थात् सर्व परिग्रह का त्याग ही अपरिग्रह महाव्रत का समीचीन लक्षण है । ११८० ॥ परिग्रहार्थं प्रणिहन्ति देहिनो, वदत्यसत्यं विदधाति भोषणं । निषेवते स्त्रीं श्रयते परिग्रहं न लुब्ध-बुद्धिः पुरुषः करोति किम् ।। ११८१ ।। अर्थ संसारी प्राणी परिग्रह के लिए असि, मषि, कृषि आदि षट्कर्मों द्वारा जीवों का घात करता है एवं मनुष्यों तक का वध कर देता है, असत्य भाषण करता है, चोरी करता है, स्त्रीसेवन करता है एवं धन के लोभ में पर के साथ भी मैथुनलेवन का कार्य करता रहता है, परिग्रह का आश्रय लेता है। इस प्रकार लोभग्रसित बुद्धि वाला पुरुष क्या-क्या अयोग्य कार्य नहीं करता ? सर्व पाप करता है ।। ११८१ ॥ संज्ञा - गौरव - पैशून्य - विवाद - कलहादयः । जयन्ते दुर्दर्द दोषा १९२॥ अर्थ- जैसे दुर्नय द्वारा कुनय या अनीति से विवाद आदि दोष उत्पन्न होते हैं, वैसे ही परिग्रह के द्वारा आहारादि की वांछारूप संज्ञाएँ रसगारवादि रूप दर्प, चुगली, विवाद और कलहादि दोष उत्पन्न होते रहते हैं ।। ११८२ ।। - प्रश्न परिग्रह से उपर्युक्त दोष कैसे उत्पन्न होते हैं ? उत्तर - परिग्रह में आसक्ति होने से परिग्रह आदि चारों संज्ञाओं की वृद्धि होती है। अधिक धन एवं भोगोपभोग की सामग्रियाँ उपलब्ध हो जाने से गारव पुष्ट होते हैं। परिग्रही पुरुष धनप्राप्ति हेतु दूसरे के दोषों को इधर-उधर कहता फिरता है। धन के लिए विवाद करता है, कलह करता है, झगड़ा करता है, कठोर वचन कहता है, कभी मायाचारी से मधुर वचन भी बोलता है, यह व्यक्ति अमुक को देता है, मुझे नहीं देता, इस प्रकार के खोटे परिणाम रूप ईर्षा करता है और धनाढ्यजनों की धनाढ्यता न सहन करने रूप असूया करता है । क्रोधं लोभं भयं मायां, विद्वेषमरतिं रतिम् । द्रवणार्थी निशा भुक्ति, विदधाति विचेतनः ॥ ११८३ ॥ अर्थ - धन का इच्छुक मोहित पुरुष क्रोध, लोभ, भय, माया, विद्वेष, अरति, रति एवं रात्रि भोजनादि अनेक पाप करता है ॥ ११८३ ॥ प्रश्न- मनुष्य को जैसे क्रोध प्रकृति के उदय से क्रोध आता है, वैसे ही लोभ, भय एवं रति- अरति कर्म प्रकृतियों के उदय से तद्रूप परिणाम होते हैं, फिर ऐसा क्यों कहा जा रहा है कि परिग्रह के लिए क्रोधादि करता है ? उत्तर - क्रोधादि उत्पन्न होने में अभ्यन्तर कारण तत् तत् कर्म प्रकृतियों का उदय है किन्तु बाह्य कारणों में परिग्रह पाप ही प्रमुख हेतु है। यथा- धन उपार्जन की प्रतिकूलताओं में, इष्ट धन प्राप्ति न होने या उसमें किसी के बाधक बन जाने पर क्रोध करता है। धनादि की वृद्धि हो जाने पर गर्व करता है, धनार्जन में या धन Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ३३० के आदान-प्रदान में मायाचार करता है। धनार्जन में अधिकाधिक लाभ की वांछा करता है. लाभ हो जाने पर और अधिक की प्राप्तिरूप लोभ करता है, निर्धन को देखकर हँसता है, अपने द्रव्य में रति करता है, द्रव्य का नाश हो जाने पर अरति करता है, द्रव्यहरण की शंका से भय करता है, धन-हरण हो जाने पर शोक करता है, परिग्रह की विरूपता पर ग्लानि करता है तथा स्वामी की सेवा में रत रहने के कारण, या फैक्ट्री आदि के संचालन की या धनोपार्जन की गृद्धता के कारण रात्रि में भोजन करता-कराता है, इस प्रकार परिग्रह के कारण क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति, भय, शोक, जुगुप्सा एवं रात्रिभोजनादि रूप अनेक पाप करता है। इससे सिद्ध होता है कि परिग्रह ही सर्व अनर्थ कराता है। ग्रन्थो महाभयं नृणामेकरथ्ये सहोदरौ । ग्रन्थार्थ हिंसितुं बुद्धि, यतोऽकाष्टी परस्परम् ॥११८४॥ अर्थ - एकरथ्या ग्राम में दो सहोदर रहते थे। परिग्रह के लिए उन्होंने एक दूसरे को मारने की बुद्धि की थी। इससे सिद्ध होता है कि यह परिग्रह महाभयरूप है ।।११८४ ।। *दो सगे भाइयों की कथा * दशार्ण देशमें एकरथ नामका नगर था | उसमें दो सगे भाई रहते थे। दुर्भाग्यवश उनके दरिद्रता आयी। दोनों अपने मामाके समीप गये। उन्होंने आठ रत्न दिये और कहा कि इनसे आप अपनी आजीविका का साधन बनाओ। दोनों भाई धनदेव और धनमित्र अपने नगर की ओर आ रहे थे। मार्गमें रत्नोंको अकेले ही हड़पने की दुर्भावना से एक दूसरे को मार डालने का विचार आया, किन्तु कुछ दूर जानेपर सुबुद्धि आयी और बुरे विचार एक दूसरेको बताकर उन्होंने रत्नों को नदी में फेंक दिया। उन रत्नों को बड़ी मछलीने निगल लिया। धीवरने जब उस मछली को चीरा तो उसके पेटसे वे रत्न निकले। किन्तु धीवर उनकी कीमत नहीं जानता था अत: बाजारमें बेचने आया, कर्म-संयोग वश उन धनदेव धनपुत्र की माताने उनको खरीदा, जब उसे 'ये रत्न हैं, ऐसा मालूम हुआ तो उसके लोभमें उसने पुत्रोंको मारना चाहा, फिर पश्चात्ताप कर उसने उन रत्नोंको अपनी लड़की धनमित्राको दिया, रत्नोंको पाते ही उसके भी भाव सबको मारने के हुए। फिर सँभल कर माताको मनका बुरा भाव बताया। सबने बैठकर विचार किया कि अहो ! यह रत्न आदि धन परिग्रह अत्यंत दुःखप्रद है, यह संसार असार है, धिक् है मोह माया को। ऐसा विचार कर वे सभी दीक्षित हो गये। इस प्रकार परिग्रहके ममत्वसे भाइयों की बुद्धि भ्रष्ट हुई थी। तस्कराणां भयं जातमन्योन्य-द्रविणार्थिनाम् । मद्ये मांसे विषं घोरं, यतः संयोज्य मारिताः ॥११८५ ॥ अर्थ - एक दूसरे के हिस्से का धन ग्रहण करने की इच्छा वाले चोरों को आपस में भय उत्पन्न हुआ और उन्होंने शराब तथा मांस में घोर विष मिलाकर एक दूसरे को मार डाला।।११८५।। चोरों की कथा * धनदत्त, धनमित्र आदि बहुतसे सेठ-पुत्र व्यापारके लिए बहुतसा धन लेकर एकवनसे जा रहे थे । मार्गमें Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ३३१ चोरों ने उन्हें लूट लिया। विशाल धनको प्राप्तकर उन चोरोंकी नियत बिगड़ गयी। सबके मनमें यह भाव आया कि मुझ अकेले के हाथ सब धन आ जाय । रात्रिमें भोजन करने बैठे, उन्हीं से एक ने खानेके लिये लाये गये निंद्य मांसमें विष मिला दिया। सबने उसे खा लिया । यहाँतक कि जिसने विष मिलाया था उसने भी भ्रमवश खा लिया। एक सागरदत्त नामंके वैश्यपुत्रने नहीं खाया था, वह बच गया। उसने धनलोभके दुष्परिणामको साक्षात् देखा था इससे उसको वैराग्य हुआ। सब धन वहीं पड़ा रहा, एक बचा हुआ सागरदत्त मुनिके निकट दीक्षित हो गया। इसप्रकार एक धनलिप्सा सर्व चोरों की मृत्युका कारण बनी, ऐसा जानकर धनकी लालसा का त्याग करना चाहिए। सलो महाभयं यस्माच्छ्रावकेण कर्थितः। निहितेऽपहृते द्रव्ये, तनूजेन तपोधनः ॥११८६ ।। अर्थ - परिग्रह महा भयरूप है, क्योंकि भूमि में गाड़े गये धन को उनका स्वयं का पुत्र ही ले गया, किन्तु उस सत्पुरुष श्रावक को भी साधु पर सन्देह हो गया कि मेरा धन ये ही ले गये हैं और उस श्रावक ने कथाओं द्वारा साधु पर अपना सन्देह प्रगट कर उन्हें व्याकुल किया ॥११८६ ।। धनलोभी जिनदत्तकी कथा * उज्जैन नगरोमें एक जिनदत्त नामक सेठ था। उसके पुत्रका नाम कुबेरदत्त था। एक दिन नगरके श्मशानमें मणिमाली यति मृतक शय्यासे ध्यान कर रहे थे। एक कापालिक विद्यासिद्धि के लिये वहाँ आया और मुनिराजको मृतक समझकर उनके मस्तकका तथा अन्य दो शवोंके मस्तकोंका चूल्हा बनाकर उसने आग जलायी। उस चूल्हे पर हांडी चढ़ाकर चावल पकाने लगा। मुनिराज आत्मध्यानमें लीन हुए। वे आत्मा और शरीरके पृथक्-पृथक्पनेका विचार करने लगे किन्तु उनका मस्तक अकस्मात् हिल गया। उससे हांड़ी गिर पड़ी चूल्हा बुझ गया और कापालिक डरकर भाग गया। प्रातः हुआ। किसीने मुनिको कष्टमय स्थितिमें देखा और जिनदत्त सेठको वह समाचार दिया। सेठ अतिशीघ्र वहाँ पहुँचा। मुनिकी स्थितिको देखकर उसको बहुत दुःख हुआ। तत्काल मुनिराजको अपने गृह चैत्यालयमें ले गया। चतुर वैद्यकी सलाहसे लाक्षामूल तेल द्वारा मुनिराजका जला हुआ मस्तक ठीक हो गया। जिनदत्तने गुरुकी महान् वैयावृत्य की | चातुर्मासका समय अत्यंत निकट था अत: सेठकी प्रार्थनापर मुनिने गृह चैत्यालयमें वर्षा-योग स्थापित किया। किसी दिन अपने व्यसनी पुत्र कुबेरदत्तसे धनकी रक्षा हेतु सेठने मुनिराजके बैठनेके स्थानमें धन गाड़ दिया। इस बातको कुबेरदत्तने छिपकर देखा था, अतः मौका पाकर उसने धनको उक्त स्थानसे निकाल कर अन्यत्र गाड़ दिया। वर्षायोग पूर्ण होनेपर मुनिराज विहार करते हैं, सेठने उनके जाते ही खोदकर धनको देखा तो मिला नहीं। अब उसको भ्रम हुआ कि मुनिने धनको चुराया है। वह मुनिराजके निकट जंगलमें पहुँच जाता है और कथाओंके माध्यमसे धनहरणकी बात कहता है। मुनिराज भी समझ जाते हैं और वे भी कथाओं द्वारा अपनी निर्दोषता कहते हैं। उन कथाओंके, नाम-दूत, ब्राह्मण, व्याघ्र, बैल, हाथी, राजपुत्र, पथिक, राजा, सुनार, वानर, नेवला, वैद्य, तपस्वी, चूतवन, लोक और सर्प। इन कथाओंको सेठपुत्र कुबेरदत्त भी सुन रहा था। मुनिराजके प्रति होनेवाले पिताके दुर्भावको जानका उसको वैराग्य हुआ। उसने पिताको सब सत्य वृत्तांत कह दिया कि मैंने धनको खोदके निकाला है। उसने धनलिप्साकी बड़ी भारी निंदा की। जिनदत्तको भी बड़ा पश्चात्ताप हुआ। दोनों पिता-पुत्रने मुनिराजसे क्षमा मांगी और उन्हींके निकट जिनदीक्षा ग्रहण की। Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकपिडका - ३३२ वर्ष वातं क्षुधं तृष्णा, तापं शीतं श्रमं क्लमम् । दुर्भुक्तं सहतेऽर्थार्थी, भार वहति पुष्कलम् ॥११८७॥ अर्थ - परिग्रह का इच्छुक मनुष्य वर्षा, वायु, क्षुधा, तृषा, ताप, शीत, परिश्रम, दुख, खोटा भोजन तथा बहुत भार ढोना आदि अनेक कष्ट भोगता है ।।११८७।। कृषति दीव्यति सीव्यति खिद्यते, वपति पति त्रस्यति याचते। धमति धावति वल्गति सेवते, रुदति ताम्यति नृत्यति गायते ।।११८८ ।। अर्थ - कुलीन भी धनार्थी मनुष्य खेती करता है, क्रीड़ा करता है, वस्त्र सीता है, खेदित होता है, धान्य बोता है, दूसरों की ओर आशा से देखता है, घबराता है, याचना करता है, अग्नि धोंकता है, कुछ पाने की इच्छा से आगे-पीछे दौड़ता है, यद्वा-तद्वा बकता है, सेवा करता है, दीनता पूर्वक रोता है, दुखी होता है, नाचता है और गाता है ॥११८८ ॥ पठति जल्पति लुण्ठति लुम्पते, हरति रुष्यति नश्यति लिख्यते। रजति कस्यति दहति सिञ्चति, (लवति) मुह्यति वन्दते ।।११८९॥ अर्थ - पढ़ता है, चिल्लाता है, डाकू के सदृश दूसरों का धन लूटता है, धन लेकर छिपता है, अपहरण करता है, रोष करता है, सन्तुष्ट होता है, नष्ट हो जाना चाहता है, किसी का लेखन-कार्य करता है, रक्षक बनता है, कृषक बनता है, जलता है, बगीचे आदि में जल सींचता है, लकड़ी आदि काटता है, मोहित होता है और धन के लिए जिस किसी को नमस्कार आदि करता है ।।११८९ ।। श्वसिति रोदिति माद्यति लज्जते, हसति तृष्यति दृष्यति नृत्यति। तुदति गृध्यति रज्यति सज्जते, द्रविणलुब्धमना: कुरुते न किम् ।।११९० ॥ अर्थ - जोर-जोर से श्वास लेता है, रोता है, मतवाला हो जाता है, लज्जित होता है, हँसता है, तृष्णा करता है, देखता है, नृत्य करता है, खेद करता है, गृद्धि करता है, रंजित होता है और कभी अपने आप को सज्जित करता है। इस प्रकार जिसका मन धन में लुब्ध हुआ है वह क्या-क्या नहीं करता है ।।११९० ॥ क्रीणाति वयते वस्त्रं, गो-महिष्यादि रक्षति । अर्थार्थी लोह-काष्ठास्थि-स्वर्णकर्म करोति ना ।।११९१॥ अर्थ - धनार्थी मनुष्य वस्त्र बेचता है, वस्त्र बुनता है, गाय-भैंसादि पशुओं की रक्षा करता है, लौह कर्म, काष्ठ कर्म, अस्थि कर्म एवं स्वर्ण कर्म आदि करता है ।।११९१॥ रुधिर-कर्दम-दुर्गममाहवं, निशित-शस्त्र-विदारित-कुञ्जरम्। हरिपुरस्सर जन्तु-विभीषणं, भ्रमति वित्त-मना गहनं वनम् ।।११९२ ॥ अर्थ - पैने-पैने शस्त्रों से जहाँ हाथी विदारित किये गये हैं और जो रुधिर के कीचड़ से दुर्गम है, धनार्थी मनुष्य ऐसे रणक्षेत्र में भी प्रवेश करता है तथा जिसका मन धन में लुब्ध है वह मनुष्य शेर-व्याघ्र आदि बहुत से जंगली पशुओं से भीषण गहन-वन में भी प्रवेश करता है।।११९२ ।। Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परणकण्डिका - ३३३ विपुल-वीचि-विगाढ-नभस्तलं, मकर-पूर्वक-वार्चरसंकुलम् । जलनिधिं द्रविणार्जन-लालसो विशति विरा-रिस्मा मानसः ।।११।। अर्थ - धनार्जन में आसक्त मन वाला व्यक्ति मगर-मच्छ आदि भयंकर जलचर जीवों से व्याम एवं विशाल लहरों द्वारा आकाश को ही छू रहा है मानों, ऐसे समुद्र में अपने जीवन से ही निस्पृह होता हुआ, प्रवेश कर जाता है।।११९३॥ निधनमृच्छति तत्र यदेकको, भवति कस्य तदा धनमर्जितम् । विविध-विघ्न-विनाशित-विग्रहो, जनतयाखिलयापि जुगुप्सते ॥११९४ ।। अर्थ - धनार्थी पुरुष एकाकी ही धन कमाता हुआ जब मरण को प्राप्त हो जाता है तब उसका वह अर्जित धन किसका होता है ? नाना प्रकार की विघ्न बाधाओं द्वारा नष्ट कर डाला है अपने ही शरीर को जिसने ऐसा पुरुष तो समस्त जनता द्वारा निन्दनीय ही होता है ।।११९४ ।। लुनीते धुनीते पुनीते कृणीते, न दत्ते न भुङ्क्ते न शेते न वित्ते । सदाचारवृत्तेर्बहिर्भूत-चित्तो, धनार्थी विधेयं विधत्ते निकृष्टम् ।।११९५॥ ____ अर्थ - धनार्थी मनुष्य खेत की फसल काटता है, रुई आदि धुनता है, खलिहान आदि साफ करता है, धान्य बेचता है, अपना धन न तो दान में या पुत्रादि को देता है और न स्वयं खाता है, न सोता है एवं न ज्ञान प्राप्त कर कुछ जान ही पाता है। वह धनार्थी तो सदाचार वृत्ति से बहिर्भून चित्तवाला होकर नि:कृष्ट कार्य ही करता रहता है॥११९५ ।। गिरि-कन्दर-दुर्गाणि, भीषणानि विगाहते। अकृत्यमपि वित्तार्थं, कुरुते कर्म मूढ-धीः ॥११९६ ॥ अर्थ - मूढ़ बुद्धि मनुष्य धन के लिए भीषण गिरिकन्दराओं में और दुर्गादि में प्रवेश कर जाता है तथा और अनेक प्रकार अकृत्य कर-कर के धन कमाता है ।।११९६ ।। जायते धनिनो वश्यः कुलीनोऽपि महानपि। अपमानं धनाकाङ्क्षी, सहते मानवानपि ॥११९७ ॥ अर्थ - उत्तम कुल में जन्म लेकर भी, स्वयं महान् होते हुए भी तथा स्वाभिमानी होते हुए भी धन की वांछा से धनाढ्य पुरुषों के आधीन होकर अपमान सहता है॥११९७॥ काम्पिल्य-नगरेऽर्थार्थ, परितापं दुरुत्तरम्। प्राप्य पिण्याकगन्धोऽगाल्लल्लकं नरकं कुधीः ॥११९८ ॥ Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका ३३४ अर्थ - धन के लिए कठोर परिताप को प्राप्त होकर पिण्याकगन्ध नामकलोभी और कुबुद्धि मनुष्य मर कर लल्लक नामक नरक बिल में उत्पन्न हुआ | ११९८ ।। * पिण्याकगंधकी कथा कांपिल्य नगर में रत्नप्रभ राजा राज्य करता था । उसी नगरमें एक पिण्याकगंध नामका सेठ था। वह करोड़पति होकर भी अत्यंत लोभी कृपण और मूर्ख था । न स्वयं धनका भोग करता था, न किसी परिवार जन को करने देता था। सब कुछ होते हुए भी खल खाया करता था इसलिये उसका नाम पिण्याकगंध पड़ा था | पिण्याक खलीको कहते हैं। यह सेठ उस पिण्याक को सूंघकर गंध लेकर खाया करता अतः पिण्याकगंध नामसे पुकारा जाता था। एक दिन राजाने तालाब का निर्माण कराया, उसकी खुदाईमें एक नौकरको लोहेकी संदूक में बहुतसी सलाइयाँ मिलीं। नौकरने एक-एक करके पिण्याक के यहाँ उन सलाइयोंको बेचा। पहले सलाई लेते समय तो उस सेठको मालूम नहीं पड़ा कि यह सलाई किस धातुकी है, लोहे की समझकर खरीदी। पीछे ज्ञात हुआ किन्तु लोभवश लोहेके मूल्यमें खरीदता रहा। किसी दिन वह अन्यत्र गया हुआ था। जब नौकर सलाई बेचने आया तो सेठ पुत्रने सलाई खरीदनेको मना किया। नौकर दूसरी जगह बेचनेको गया । इतनेमें सिपाहीने उसे पकड़ लिया और राजाके समक्ष उपस्थित किया। नौकर ने सब बात बतादी कि पिण्याकगंधको सलाई बेची है और लोहेके भावमें बेची है। राजाको क्रोध आया। उसने सेठका सारा धन छीन लिया। जब पिण्याकगंधको अपने धनका नाश होना मालूम हुआ तो अत्यंत रौद्रभावसे उसने कुपित होकर अपने पैर काट डाले कि इन पैरोंसे मैं यदि दूसरे ग्राम नहीं जाता तो मेरा धन नहीं लुटता । इसतरह पैरों के कट जानेसे तीव्र वेदनाके साथ वह मर गया और छठे नरकके लल्लक नामके तीसरे इन्द्रक बिलमें उत्पन्न हुआ । वहाँ पर भयंकर वेदना सहता रहा। इसप्रकार परिग्रहका मोह महान् परितापका कारण है, ऐसा जानकर भव्योंको उसका त्याग करना चाहिये । पिण्याकगंधकी कथा समाप्त । कुर्वतोऽपि परां चेष्टामर्थ - लाभो न निश्चितम् । सञ्चीयते विपुण्यस्य, नार्थी लब्धोऽपि जातुचित् ।। ११९९ ।। अर्थ अत्यधिक पुरुषार्थ करने पर भी धन का लाभ होना निश्चित नहीं है, तथा पुण्य रहित जीव के कदाचित् कुछ धन हो भी जाय, तो वह संचित नहीं रह पाता, अतिशीघ्र नष्ट हो जाता है ।। ११९९ ॥ - नार्थे सञ्चीयमानेऽपि पुरुषो जातु तृप्यति । अपध्येन यथा व्याधिर्लोभो लाभेन वर्धते ।। १२०० ॥ अर्थ - कदाचित् धन का संचय हो भी जाय तो भी लोभी पुरुष कभी तृप्त नहीं होता । जैसे अपथ्य सेवन से व्याधि वृद्धिंगत होती जाती है, वैसे ही धन-लाभ से पुनः पुनः लोभ बढ़ता जाता है ।।१२०० ॥ नदी जस्तैरिवाम्भोधिरिन्धनैरिव पावकः । लोकैस्त्रिभिरपि प्रामैर्न, जीवो जातु तृप्यति ।। १२०१ ।। अर्थ - जिस प्रकार नदियों से सागर और ईंधन से अनि तृप्त नहीं होती, उसी प्रकार तीन लोक की सम्पत्ति प्राप्त हो जाने पर भी लोभी जीव कभी तुम नहीं होता है ।। १२०१ ॥ Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ३३५ महाधन-समृद्धोपि, पटहस्ताभिधो वणिक् । जातस्तृप्तिमनासाद्य, लुब्ध-धीर्दीर्घ-संसृतिः ॥१२०२॥ ___ अर्थ - पटहस्त नामक एक वणिक् महा समृद्धिशाली था किन्तु अत्यधिक लोभबुद्धि होने से निरन्तर धनासक्त रहता था। उसे किंचित् भी सन्तोष नहीं था, अत: धनासक्त अवस्था में ही मरण कर दीर्घ संसारी हुआ ।।१२०२।। * फणहस्त-पटहस्त वणिककी कथा * चंपापुरीमें राजा अभयवाहन जपनों पुंडरीका रानी के साथ सुखपूर्वक राज्य करता था। उस नगरीमें एक महाकंजूस लुब्धक नामका सेठ था, सेठानी नागवसु थी। वर्षाऋतुका समय था । रात्रिके समय नदीमें बहकर आयी हुई लकड़ियोंको लुब्धक इकट्टी कर रहा था। रानी पुंडरीकाने इस दृश्यको देखा और लुब्धकको दरिद्री समझ कर राजासे धन देनेको कहा। राजाने पता लगाकर सेठको बुलाया और कहा कि तुम्हें जो द्रव्य चाहिये सो खजानेसे ले जाओ। सेठने कहा-मुझे एक बैल चाहिये, राजाने कहा-गोशालामेंसे जैसा चाहिये वैसा बैल ले जाओ। सेठने उत्तर दिया, राजन् ! मैं जैसा चाहता हूँ वैसा बैल आपकी गौशालामें नहीं है। तब आश्चर्ययुक्त होकर राजाने पूछा कि तुम्हें कैसा वैल चाहिये ? सेठने कहा-मेरे पास एक बैल तो है किन्तु उसका जोड़ा नहीं होनेसे चिंतित हूँ। राजा विस्मित हो उसका बैल देखनेको चला, राजाको घरपर आये देख सेठ-सेठानीने उनका स्वागत किया। तलघरमें स्थित मयूर, हंस, सारस, मैना, अश्व, हाथी आदि पशु-पक्षियोंके रत्नसुवर्णनिर्मित युग को दिखाकर सेठने कहा कि इनमें एक बैल कम है। उसके लिये मैं परेशान हूँ। राजा उसका वैभव देखकर दंग रह गया तथा इतने धनके होते हुए भी लकड़ियाँ इकट्ठी करने जैसे निंद्य-कार्यमें प्रवृत्त देखकर उसके चाहकी दाहपर बड़ा खेद भी हुआ। राजा जब वापिस जाने लगा तब सेठानी नागवसुने सेठके हाथमें रत्नोंका भरा सुवर्णथाल राजाको भेंटमें देनेके लिये दिया। सेठका सारा रक्त मानों सूख ही गया। इतने रत्नोंके देते समय उसके दोनों हाथ लोभ और क्रोधके मारे काँपने लगे, राजाकी तरफ थाल करते वक्त उसके हाथ नागफणके सदृश राजाको दिखाई पड़े। राजा समझ चुका था कि यह सेठ महालोभी, कृपण, नीच एवं निंद्य है। उसके भावोंके अनुसार उसके हाथोंका परिवर्तन देखकर राजाने उसकी निंद्य भावना एवं परिग्रह लोभकी बहुत निंदा की और “यह फण-हस्त है" ऐसा उसका नामकरण करके राजा अपने महलमें लौट आया। इधर सेठ धन कमाने हेतु विदेश गया था। वहाँसे लौटते समय समुद्रके मध्य उपार्जित धन के साथ डूब गया और परिग्रहजन्य महालोभ के कारण मर कर नरक चला गया। हा-हा-भूतस्य जीवस्य, किं सुखं तृप्तितो विना। आशया ग्रस्यमानस्य, पिशाच्येव निरन्तरम् ॥१२०३।। अर्थ -- जो सदा तृष्णा से व्याकुल रहता है ऐसे हाय-हाय करने वाले धन-लम्पटी को धन प्राप्त हो जाने पर भी तृप्ति के बिना क्या सुख प्राप्त हो सकता है ? जैसे पिशाची से ग्रसित मनुष्य निरन्तर दुखी रहता है, वैसी आशा पिशाची से ग्रस्त मानव धनाढ्य होते हुए भी कभी सुखी नहीं होता ॥१२०३ ।। Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ३३६ हन्यते ताङ्यते बध्यते रुध्यते, मानवो वित्त-युक्तोऽपराधं विना। पक्षिभिः किं न पक्षी गृहीतामिषः खाद्यते लुज्यते दोष-हीनः परैः ॥१२०४।। अर्थ - जैसे मांस को ग्रहण करने वाला पक्षी निरपराध होते हुए भी मांसलोलुपी अन्य पक्षियों के द्वारा नोचा जाता है एवं खाया जाता है, वैसे ही लोभी धनाढ्य मनुष्य निरपराध होते हुए भी अन्य धनलोलुपी मनुष्यों के द्वारा घाता जाता है, ताड़ित किया जाता है, बाँधा जाता है और रोका जाता है ।।१२०४ ।। प्रिया-सवित्री-पितृ-देहजादौ, सदापि विश्वासमनादधानः। न त्रायमाण: सकलां त्रि-यामां, प्रयाति निद्रां धन-लुब्ध-बुद्धिः ।।१२०५॥ अर्थ - जिसकी बुद्धि धन में ही आसक्त है वह मनुष्य अपनी प्रिय पत्नी, माता, पिता एवं पुत्र-पुत्री आदि में भी विश्वास नहीं करता। तीन प्रहर प्रमाण समस्त रात्रियों में जाग्रत रहकर स्वयं धन की रक्षा में संलग्न रहता है।।१२०५ ।। अरण्ये नगरे ग्रामे, गृहे सर्वत्र शङ्कितः। आधारान्वेषणाकाङ्क्षी, स्व-वशो जायते कदा ।।१२०६ ।। अर्थ - धनासक्त मनुष्य स्वाधीन कब होता है ? वह सदा घन के आधीन रहता है। वन, नगर, ग्राम एवं गृहादि में सदा शंकित रहता है कि कोई मेरा धन न चुरा ले। इसीलिए वह धन की रक्षा के आधारभूत स्थान की खोज में लगा रहता है ||१२०६॥ धीरैराचरितं स्थानं, विविक्तं धन-लालसः। विहाय भूरि-लोकानां, मध्ये गेहीव तिष्ठति ॥१२०७।। अर्थ - धनासक्त पुरुष, एकान्त में कोई मेरा धन न चुरा ले इस भय से धीर-वीर महापुरुषों द्वारा सेवित एकान्त स्थान को छोड़कर बहुत जन समुदाय के मध्य में गृहस्थवत् रहता है॥१२०७ ।। शब्दं कञ्चिदसौ श्रुत्वा, सहसोत्थाय धावति । सर्वतः प्रेक्षते द्रव्यं, परामृशति मुह्यति ॥१२०८।। ____ अर्थ - धनलुब्ध मानव रात्रि में किंचित् भी शब्द सुनकर एकदम उठता है, सब ओर देखता है, अपने धन को बार-बार टटोलता है और लेकर भागता है। अथवा मूर्छित हो जाता है॥१२०८ ।। आरोहति नगं वृक्षमुत्पथेन पलायते। निघ्नस्तनुमतो भीतो, हृदं विशति दुस्तरम् ॥१२०९ ।। अर्थ - धनासक्त मनुष्य कहीं पर्वत पर एवं वृक्ष पर चढ़ जाता है, कुमार्ग अर्थात् ऊबड़-खाबड़ मार्ग से भागता-फिरता है, जीव-जन्तुओं का घात करते हुए कहीं भी घुस जाता है और भयभीत होता हुआ कभी अगाध सरोवर में प्रविष्ट हो जाता है।।१२०९।। अवशस्य नरस्यार्थो, हठतो बलिभिः परैः । दायादैस्तस्करै पैस्त्रायमाणोऽपि लुट्यते ।।१२१० ।। Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ३३७ अर्थ – अन्य कोई बलवान मनुष्य उसे परवश करके उसका धन बलात् छीन लेते हैं, भाई आदि भागीदार ले लेते हैं, तथा रक्षित किया हुआ भी गुम्बा भन नोर एवं राजा आदि के द्वारा लूट लिया जाता है ।।१२१०॥ कलिं कलकलं वैरं, कुरुते नाथते परम् । म्रियते मार्यते लोकैर्हस्यते चार्थलम्पटः ।।१२११ ॥ अर्थ - धन के कारण मनुष्य झगड़ा करता है, बकबक करता है, वैर करता है, दूसरों से धन की याचना करता है, धन-रक्षणार्थ मर जाता है या दूसरों के द्वारा मार दिया जाता है एवं अधिक लोभी कृपण की लोक हँसी भी करते हैं ।।१२११॥ कृशानु-मूषिकाम्भोभिः, सञ्चितोऽथों विनाश्यते । तत्र नष्टे पुनर्बाद, दह्यते शोक-वह्निना ॥१२१२॥ अर्थ - अत्यधिक प्रयास से संचित धन कभी अग्नि या मूषक या जलादि द्वारा नष्ट हो जाता है। धन नष्ट हो जाने पर वह धनासक्त बहुत अधिक शोक रूपी अग्नि में जलने लगता है अर्थात् धन का विनाश मनुष्य को तीव्र सन्ताप देता है ।।१२१२॥ श्वसित्ति रोदिति सीदति वेपते, गतवति द्रविणे ग्रहिलोपमः । कर-निविष्ट-कपोलतलोऽथमो, मनसि शोचति पूत्कुरुतेऽभितः ।।१२१३ ॥ अर्थ - जिसका धन नष्ट हो जाता है, वह मनुष्य जोर-जोर से श्वास लेने लगता है, रोता है, खेद करता है, काँपता है, धन चले जाने पर पागल के समान चेष्टा करता है, कपोलों पर हाथ रखकर वह अधम अपने मन में चिन्ता करता है और चारों ओर पुकार मारता रहता है ।।१२१३ ।। अन्तरे द्रव्य-शोकेन, पावकेनेव ताप्यते । बुद्धिर्मन्दायते बाढं, मुख्यत्युत्कण्ठते तराम् ॥१२१४॥ अर्थ - जैसे अग्नि से जला मनुष्य संतापित होता है, उससे भी अधिक अपने अन्तरंग में शोक रूपी अग्नि से वह सन्तापित होता है जिसका धन नष्ट हो जाता है। उसकी बुद्धि मन्द अर्थात् मूढ़ हो जाती है अतः वह कभी मूर्च्छित जैसा हो जाता है और कभी उत्कंठित हो जाता है ॥१२१४ ।। उन्मत्तो बधिरो मूको, द्रव्ये नष्टे प्रजायते । चेष्टतो पुरुषो मर्तु, गिरि-प्रपतनादिभिः ।।१२१५।। अर्थ - धन नष्ट हो जाने पर यह मनुष्य पागल हो जाता है, बहिरा एवं गूंगा हो जाता है, और प्रा: पर्वतादि से गिर कर मरने की चेष्टा करता है॥१२१५॥ ___ परिग्रह हिंसा का आयतन है चेलादयोऽखिला ग्रन्थाः, संसजन्ति समन्ततः । सन्ति सन्निहिताश्चित्रास्तस्मिन्त्रगन्तुकास्तथा ॥१२१६ ।। Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका- ३३८ अर्थ - वस्त्रादि सर्व परिग्रह चारों ओर से सम्मूर्च्छन जीवों से संसक्त होता है और नाना प्रकार के नये जीव भी उस परिग्रह में उत्पन्न होते रहते हैं ।। १२९६ ॥ बन्धने छोटने छंदने भेदनं, पाटने धूनने चालने शोषणे । क्षाने स्वीकृत क्षेपणेऽर्थस्य पीड़ा परा जायते देहिनाम् ।।१२१७ ॥ अर्थ - परिग्रह को बाँधने, छोड़ने, छेदने, भेदने, उखाड़ने, हिलाने, छानने, सुखाने, वेष्टित करने, धोने, पहनने एवं फेंकने आदि की क्रियाएँ करने में परिग्रहों में रहने वाले और उसके आस-पास स्थित जीवों को अत्यधिक पीड़ा होती है ॥ १२१७ ॥ तेभ्यो निरसने तेषां ध्रुवा योनि - वियोजना | दोषा मर्दन -सङ्घट्ट-विताप - मरणादय: ।। १२१८ ॥ अर्थ - परिग्रह अर्थात् वस्त्रादि में से जब उन जीवों को अलग किया जाता है तब भी वही दोष लगते हैं, क्योंकि वस्त्रों आदि से उन जन्तुओं को करते समय उनका मर्दन, संघटन एवं परितापन होता है और योनि स्थान छूट जाने से मरण भी हो जाता है । १२१८ ॥ सचित्ता अङ्गिनो घ्नन्ति, स्वयं संसक्त-मानसाः । गृहीतुर्जायते पापं तनिमित्तमसंशयम् ॥ १२१९ ॥ अर्थ - परिग्रह में आसक्त मन वाले दासी दासादि सचित परिग्रह स्वयं जीवों का घात करते हैं, तथा उन्हें खेती आदि कार्यों में लगाये रहने से वे जो पापाचरण करते हैं उसका पाप भी स्वामी को नियमतः लगता है॥१२१९ ।। प्रश्न इस श्लोक का क्या आशय है ? - उत्तर इस श्लोक का यह आशय कि अचित्त परिग्रह से मात्र उसके स्वामी को पापबन्ध होता हैं, किन्तु सचित्त परिग्रह से दोनों को पापबन्ध होता है। यथा जो दास-दासी खेती आदि कार्यों में नियुक्त किये जाते हैं वे स्वयं भी परिग्रह में आसक्त होते हैं और अविवेकपूर्ण कार्य करते हैं अतः जीवों का घात भी बहुत होता है, इसलिए उनको कृतजन्य कर्मबन्ध होता है, तथा जो स्वामी उन्हें नियुक्त करता है उसे कारितजन्य कर्मबन्ध होता है । - परिग्रह से इन्द्रियजन्य अभिलाषा उत्पन्न होती है देहस्याक्ष-मयत्वेन, देह-सौख्याय गृण्हतः | अक्ष-सौख्याभिलाषोऽस्ति संकलस्य परिग्रहः ।। १२२० ।। अर्थ - शरीर इन्द्रियमय है, क्योंकि यह स्पर्शनादि पाँचों इन्द्रियों का अभिन्नभूत आधार है। वर्षा, हवा एवं धूप आदि अनिष्ट स्पर्श से बचाव के लिए एवं इन्द्रियजन्य सुख के लिए ही मनुष्य वस्त्रादि ग्रहण करता है । वस्त्रालंकार आदि से शरीर को विभूषित कर मनुष्य दूसरे में अभिलाषा उत्पन्न करता है, पश्चात् शरीर संसर्ग से उत्पन्न अनुराग का इच्छुक होकर उसका सेवन करता है। इस प्रकार यह सिद्ध हुआ कि सर्व परिग्रह अभिलाषा उत्पन्न करता है ।। १२२० ॥ Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ३३९ रक्षण-स्थापनादीनि, कुर्वाणोऽर्थस्य सर्वदा।। निरस्ताध्ययनो ध्यानं, व्याक्षिप्त: कुरुते कथम् ।।१२२१ ॥ अर्थ - सर्वदा परिग्रह के रक्षण में, रखने उहाले एवं साः -साहार में लोगहने के कारण प्रमुख का मन उसी में आकुल-व्याकुल रहता है अत: उसका स्वाध्याय छूट जाता है, और जो स्वाध्याय ही नहीं करता वह ध्यान कैसे कर सकता है॥१२२१ ।। प्रश्न - परिग्रहवान् यदि स्वाध्याय एवं ध्यान नहीं भी कर पाता, तो उसकी क्या हानि है ? उत्तर - परिग्रह में संसक्त मनुष्य का मन नियमतः विक्षिप्त एवं चंचल रहता है, अतः परिग्रह स्वाध्याय एवं ध्यान नामक तप में विघ्न उत्पन्न करता है, तथा स्वाध्याय और ध्यान के बिना संवर और निर्जरा नहीं होते, संवर-निर्जरा के बिना कर्मों का नाश नहीं होता और कर्मों के नाश बिना संसार-भ्रमण के दुखों से छुटकारा नहीं हो सकता। यही जीव की सबसे बड़ी हानि है। अर्थ-प्रसक्त-चित्तोऽस्ति, नि:स्वो बहुषु जन्मसु। ग्रासार्थमपि कर्माणि, निन्द्यानि कुरुते सदा ॥१२२२॥ अर्थ - जिसका चित्त सदैव परिग्रह में आसक्त रहता है, वह भव-भव में दरिद्र होता है। एक-एक ग्रास की भीख मांगता है, तथा भोजन-प्राप्ति की इच्छा से जूते बेचना, स्वामी के जूते साफ करना, पालकी उठाना, बोझा ढोना, पगचम्पी करना एवं टट्टी-पेशाब आदि साफ करना, इत्यादि नीच कार्य भी उसे करने पड़ते हैं ||१२२२॥ लभते यातनाश्चित्रा, ग्रन्थ-हेतून्भवान्तरे। संक्लिश्यत्याशया ग्रस्तो, हा-हा-भूतोऽर्थ-लुब्ध-धीः ।।१२२३॥ अर्थ - धनलुब्ध बुद्धि वाला मनुष्य भवान्तरों में भी धन के लिए अनेक यातनाओं को प्राप्त होता है। तृष्णा से ग्रसित हो धन के लिए हाहाकार करता है और धन की आशा से ग्रस्त हुआ सदा ही संक्लेश करता रहता है।।१२२३॥ यहाँ तक परिग्रह-संचय के दोष कहे। अब परिग्रहत्याग के गुणों का प्रतिपादन करते हैं अमीभिरखिलैषैिर्ग्रन्थ-त्यागी विमुच्यते। भूरिभिस्तद्विपक्षश्च, निलयी-क्रियते गुणैः ॥१२२४॥ अर्थ - परिग्रहत्यागी उपर्युक्त सर्व दोषों से छूट जाता है और उन दोषों के विपरीत वह अनेक गुणों का निलय अर्थात् स्थान बन जाता है ।।१२२४ ।। प्रश्न - दोषों के विपक्षी गुण कौन-कौन से हैं ? उत्तर - परिग्रहासक्त में कृपणता, निन्दा,पाप-संचय, गृद्धता एवं दरिद्रतादि दोष होते हैं और परिग्रहत्यागी में इन दोषों के विपरीत उदारता, कीर्ति, पुण्यसंचय, निर्लोभता, निश्चिन्तता, निस्पृहता एवं सम्पन्नतादि गुण होते हैं। Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ३४० अङ्कुशो गत-सङ्गत्वं, विषयेभ-निवारणम् । इन्द्रियाणां परा गुप्ति:, पुरीणामिव खातिका ॥१२२५॥ अर्थ - जैसे अंकुश हाथी को रोकने में निमित्त है, वैसे ही परिग्रह का त्याग इन्द्रियों के विषयरूपी हाथी को रोकने में निमित्त है। जैसे पारेघ। (खाई न की रक्षा करती हैं वैसे ही परिग्रह का त्याग ही परम गुप्ति है। अर्थात् परिग्रह का त्याग राग की उत्पत्ति में निमित्तभूत इन्द्रियों से आत्मा की रक्षा करता है ।।१२२५ ॥ विषयेभ्यो दुरन्तेभ्यस्त्रस्यति ग्रन्थ-वर्जितः। अल्प-मन्त्रौषधो मर्त्यः, सर्पेभ्य इव सर्वदा ।।१२२६ ।। अर्थ - परिग्रह का त्यागी सदा पंचेन्द्रियों के दुरन्त विषयों से उसी प्रकार भयभीत रहता है, जिस प्रकार अल्प औषधि एवं अल्प मंत्र वाला मनुष्य सर्पो से भयभीत रहता है।।१२२६ ॥ प्रश्न - इस दृष्टान्त एवं दार्टान्त का क्या आशय है ? उत्तर - इसका यह आशय है कि जिस मनुष्य को सर्प का विष दूर करने का ज्ञान नहीं है अथवा जो विष उतारने वाले मन्त्र एवं औषधि का प्रयोग करना नहीं जानता, वह मनुष्य सर्पो से युक्त वन आदि में बहुत सावधानी से रहता है। वैसे ही जो निर्ग्रन्थ साधु क्षायिक सम्यक्त्व, यथाख्यात चारित्र एवं केवल-ज्ञानरूप मन्त्रविद्या एवं औषधि से रहित हैं, अर्थात् जब-तक ये प्राप्त नहीं होते हैं तब-तक राग-द्वेषरूप सौ से भरे विषयरूप वन में उन्हें सावधान होकर रहना चाहिए। कारण कि मन में बाय द्रव्य के प्रति जो अनुराग विद्यमान है वह राग-द्वेष को उत्पन्न करने वाले मोहनीय कर्म का सहकारी कारण है, और मोहनीय कर्म ही इस जीव का संसार है, अत: बाह्य परिग्रह का त्याग करने पर राग-द्वेष रूप प्रवृत्ति नहीं होती, रागद्वेष के अभाव में नवीन कर्मबन्ध नहीं होता। इससे सिद्ध होता है कि परिग्रह का त्याग ही मोक्ष का उपाय है। रागो मनोहरे ग्रन्थे, द्वेषश्चास्त्यमनोहरे। रागद्वेष परित्यागो, ग्रन्थ-त्यागे प्रजायते ॥१२२७ ॥ अर्थ - मनोहर इष्ट पदार्थ में रागभाव होता है और अमनोज्ञ अनिष्ट पदार्थ में द्वेष भाव होता है, अत: परिग्रह का त्याग कर देने से राग-द्वेष का त्याग स्वत: हो जाता है ।।१२२७॥ प्रश्न - रागद्वेष रूप भाव सत्तास्थित कर्म से होते हैं या परिग्रह से होते हैं ? उत्तर - कर्मबन्ध का मूल निमित्त रागद्वेषरूप भाव हैं और राग-द्वेष का मूल निमित्त परिग्रह है, कारण कि बाह्य द्रव्य को मन से स्वीकार-अस्वीकार करना अर्थात् इष्ट-अनिष्ट मानना ही रागद्वेष का बीज है अत; परिग्रह का त्याग कर देने पर राग-द्वेष का त्याग हो जाता है। परिग्रह रूप सहकारी कारण के अभाव में केवल सत्तास्थित कर्म मात्र से रागद्वेष उसी प्रकार उत्पन्न नहीं होते जिस प्रकार मिट्टी के होने पर भी दण्ड-चक्र आदि सहकारी कारणों के अभाव में घट की उत्पत्ति नहीं होती। शीतादयोऽखिलाः सम्यग्, विषयन्ते परीषहाः। शीतादि-वारकं सङ्गं, योगिना त्यजता सदा ॥१२२८ ।। Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परणकण्डिका - ३४१ अर्थ - शीत-उष्णादि की बाधाओं को निवारण करने वाले वस्त्रादि परिग्रहों का जो साधु नियम से त्याग कर देता है उसके द्वारा सदा शीत, उष्ण, दशमसक आदि सर्व परीषह भली-प्रकार सहन किये जाते हैं॥१२२८॥ प्रश्न - दुख आने पर परिणामों का संक्लेशित न होना ही परीषहजय है। फिर श्लोक में शीत, उष्ण, दंशमसक आदि को परीषहजय कैसे कहा ? शीतोष्णादि पुद्गल के परिणाम हैं या आत्मा के परिणाम हैं ? उत्तर - शीत, उष्ण, भूख, प्यासादि शब्द तो पौद्गलिक हैं किन्तु इन शब्दों का यहाँ तात्पर्यार्थ है, इनसे होने वाले दुख को सहन करना। यही परीषहजय है और यह परीषहजय ही कर्मों की निर्जरा का उपाय है। साधुजन कर्मों की निर्जरा के लिए सदा प्रयत्नशील रहते हैं। "तपसा निर्जरा च" एवं "पूर्वोपात्त-कर्मनिर्जरार्थं परिषोढव्याः परीषहाः" इन आगम वाक्यों से सिद्ध है कि निर्जरा के मुख्य हेतु तप और परीषहजय हैं। गृह, वस्त्रादि परिग्रह का त्याग कर देने से एवं अनशन, अवमोदर्य आदि करने से शीत, उष्ण, भूख, प्यास आदि की बाधाओं से होने वाले कष्ट स्वतः और सहज ही सहन हो जाते हैं अत: परीषहजय से होने वाली कर्मनिर्जरा में परिग्रह त्याग को महत्त्व दिया गया है। शरीर के ममत्व का त्याग शीत-वातातपादीनि, कष्टानि सहते यतः। क्रियतेऽनादरो देहे, निःसङ्गेन तत: परम् ॥१२२९॥ अर्थ - यतः परिग्रह त्यागी साधु शीत, वायु, आतप, डाँसमच्छर आदि के अनेक कष्ट सहता है, उससे उसके शरीर में भी अनादरभाव प्रगट होता है। अर्थात् कष्ट सहन के अभ्यास से शरीर में ममत्व नहीं रहता ।।१२२९॥ प्रश्न - शरीर में अनादर भाव रखने का क्या अर्थ है? उत्तर - समस्त हिंसा आदि से जो असंयम होता है उसका मूल कारण शरीर का ममत्वभाव ही है। अर्थात् जिस साधु का शरीर में आदरभाव है वह असंयम से नहीं बच सकता, क्योंकि शरीरजन्य ममत्व की पूर्ति के लिए उसे किसी-न-किसी रूप में परिग्रह ग्रहण करना ही होगा, किन्तु जब शरीर से ममत्वभाव दूर हो जाता है तब हिंसादि सर्व पापों का त्याग हो ही जाता है अतः शरीर में अनादर भाव होने का आशय है सर्व परिग्रहों में अनादर भाव होना। व्याक्षेपोस्ति यतस्तस्य, न ग्रन्थान्वेषणादिषु । ध्यानाध्ययनयोर्विघ्नो, निःसङ्गस्य ततोऽस्ति नो॥१२३०॥ __अर्थ - मुनि के धन आदि परिग्रहों का अन्वेषण आदि करने रूप क्रियाओं में व्याकुलता नहीं रहती अतः उस नि:संग मुनि के ध्यान और अध्ययन में कोई विघ्न बाधा उत्पन्न नहीं होती ॥१२३०॥ प्रश्न - श्लोक में आये हुए “आदि" शब्द से अन्य क्या-क्या ग्रहण किया जा सकता है ? उत्तर - परिग्रह के अन्वेषणादि के निमित्त से जो-जो अध्यवसान बनते हैं वे सभी "आदि" शब्द से ग्रहण किये जा सकते हैं। यथा - इष्ट परिग्रह की खोज में अनिर्वचनीय कष्ट होता है, कदाचित् इष्ट वस्तु मिल Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ३४२ भी जाय तो उसके स्वामी को खोजने में कष्ट होता है, स्वामी भी मिल जाय तो उससे याचना करनी पड़ती है। याचना करने पर वस्तु मिल जाय तो सन्तोष और आह्लाद होता है, न मिलने पर दीनता के भाव बनते हैं, मिल जाने पर उसे यथास्थान ले जाने में, संस्कार करने में, पश्चात् उसकी रक्षा करने में अनेक कष्ट झेलने पड़ते हैं। रक्षा करते हुए भी यदि वह वस्तु कहीं चली गयी या कोई ले गया, तो भी नाना प्रकार की चिन्ता होती है कि वह मेरी अभिलषित वस्तु कहाँ गई ? कहाँ मिलेगी ? यहाँ कौन-कौन आया था ? कौन ले गया ? इस व्याकुलता में विवेकहीन होता हुआ कभी-कभी पूज्य एवं सज्जन पुरुषों पर भी सन्देह कर बैठता है, इतना ही नहीं उनसे पूछ भी लेता है कि मेरी वस्तु आप ने उठाई है क्या ? इत्यादि अध्यवसान “आदि' शब्द से ग्रहण हो जाते हैं। ये सब परेशानियाँ निष्परिग्रही के नहीं होती, अतः चित्त में किसी प्रकार की व्याकुलता न होने से निर्ग्रन्थ साधु के शास्त्र-स्वाध्याय और ध्यान निर्विघ्न सम्पन्न होते हैं। सब तपों में स्वाध्याय तथा ध्यान प्रधान तप हैं और इन तपों की सिद्धि का उपाय परिग्रहत्याग है। दर्शितास्ति मनःशुद्धिः, सङ्ग-त्यागेन तात्विकी। सङ्गासक्तमना जातु, सङ्ग-त्यागं करोति किम् ।।१२३१॥ अर्थ - परिग्रह के त्याग से मन की तात्विकी अर्थात् यथार्थ शुद्धि प्रगट होती है, क्योंकि जिसका मन परिग्रह में आसक्त रहता है वह परिग्रह त्याग करने का कभी विचार भी कर सकता है क्या ? नहीं कर सकता।।१२३१॥ निःसङ्गे जायते व्यक्तं, कषायाणां तनू-कृतिः। कषायो दीप्यते सङ्गैरिन्धनैरिव पावकः॥१२३२ ।। अर्थ - जैसे लकड़ी आदि ईंधन डालने से अग्नि वृद्धिंगत होती है वैसे ही परिग्रहों से कषाय वृद्धिंगत होती है, अतः परिग्रही की कषायें तीव्र होती हैं और परिग्रह-रहित नि:संग मुनि में कषायों की कृशता व्यक्त होती है ॥१२३२॥ लघुः सर्वत्र निःसङ्गो, रूपं विश्वास-कारणम्। गुरुः सर्वत्र सग्रन्थः, शङ्कनीयश्च जायते ।।१२३३ ।। अर्थ - अपरिग्रही मुनि आने-जाने में सर्वत्र लघु/हल्का या भार-रहित होता है और परिग्रही परिग्रह के भार से भारी एवं परिग्रह के रक्षणादि की चिन्ता से सदा चिन्तित रहता है। निर्ग्रन्थ साधु का नग्न दिगम्बर रूप विश्वासकारी होता है और परिग्रहधारी को देख कर लोग शंका करते हैं कि यह वस्त्रों में कुछ शस्त्र छिपाकर लाचा है ? कुछ उपद्रव करेगा ? या हमारा धन वस्त्रों में छिपाकर ले जायेगा ? ||१२३३॥ प्रतिबन्ध-प्रतीकार-प्रतिकर्म-भयादयः। निर्ग्रन्थस्य न जायन्ते, दोषाः संसार-हेतवः ॥१२३४ ।। Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ३४३ अर्थ - संसार के हेतुभूत. प्रतिबन्ध, प्रतिकार, प्रतिकर्म एवं भयादि सर्वदोष निर्गन्ध साधु को स्पर्श नहीं कर पाते। अर्थात् निर्ग्रन्थ साधु इन दोषों से रहित होते हैं ।।१२३४॥ प्रश्न - प्रतिबन्ध, प्रतिकार, प्रतिकर्म एवं भयादि दोषों के क्या लक्षण हैं ? उत्तर - आने-जाने में रुकावट होना, अर्थात् पराधीन होना प्रतिबन्ध है। कषाय के वशीभूत हो किसी से बदला लेना, या उससे कोई बदला ले वह प्रतिकार है और "यह कार्य तो पहले कर लिया है, इसको अब पीछे करूँगा" ऐसे विचार को प्रतिकर्म कहते हैं तथा "मेरा धन कोई चुरा लेगा" यह भय है। ऐसे अनेक दोष और भी हैं जो परिग्रही मन में सदा विद्यमान रहते हैं किन्तु परिग्रहत्यागी इन दोषों से सदा अलिप्त रहते हैं। परिगृहत्याग से महान सुख होता है महाश्रमकरे भारे, रभसाद् भारवानिव । निरस्ते सकले ग्रन्थे, निर्वृतो जायते यतिः ।।१२३५॥ अर्थ - जैसे भार से लदा हुआ मनुष्य महाश्रम के कारणभूत भार को उतार कर सुखी हो जाता है, वैसे ही सकल परिग्रह का त्याग कर देने पर साधु भी निर्वृत्त अर्थात् शान्त और सुखी हो जाता है ॥१२३५ ।। प्रश्न - सुख का क्या लक्षण है ? उत्तर - बाधा का अभाव ही सुख का लक्षण है। जैसे लोक में भी भोजन-पान के द्वारा भूख-प्यास की बाधा का शमन हो जाने से जो स्वस्थता उत्पन्न होती है उसी को सुख कहा जाता है। भवन्तो भाविनो भूता, ये भवन्ति परिग्रहाः। जहाहि सर्वथा तांस्त्वं, कृत-कारित-मोदितैः॥१२३६ ॥ अर्थ - (निर्यापकाचार्य क्षपक को उपदेश दे रहे हैं कि देखो ! परिग्रह रखने से दोनों लोकों में बहुत दोष होते हैं अतः) तुम वर्तमान में जो परिग्रह है, जो भूत में था और भविष्य में होगा उस सबका मन, वचन, काय एवं कृत-कारित और अनुमोदना से सर्वथा त्याग कर दो॥१२३६ ।। प्रश्न - वर्तमान में विद्यमान परिग्रह दोष का अर्थात् कर्मबन्ध का कारण है, किन्तु अतीत एवं अनागत का परिग्रह कर्मबन्ध का कारण कैसे हो सकता है जिससे उसका त्याग कराया जा रहा है? उत्तर - अतीतगत परिग्रह नष्ट हो जाने से या उसका वियोग हो जाने से यद्यपि उसके साथ जो स्वामी सम्बन्ध था वह जाता रहा है फिर भी 'अमुक वस्तु मेरी थी' या मेरे पास थी, या अमुक ने चुरा ली या तोड़ दी थी, इत्यादि रूप से उसका स्मरण होना, उसमें अनुराग होना, ये सब अशुभ परिणाम हैं अतः यही कर्मबन्ध के कारण हैं, अतः गत वस्तु का स्मरण मत करो और तज्जन्य अनुराग मत करो। इसी प्रकार 'आगामी काल में मेरे पास अमुक धन होगा' ऐसा चिन्तन भी मत करो क्योंकि यह भी कर्मबन्ध का कारण है। यावन्तः केचन ग्रन्थाः, सम्भवन्ति विराधकाः। निर्वृत्तः सर्वथा तेभ्यः, शरीरं मुञ्च निःस्पृहः ॥१२३७॥ Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ३४४ अर्थ - हे क्षपक ! इस लोक में आराधना, समाधि एवं रत्नत्रय की विराधना करने वाले जितने भी परिग्रह हैं उन सबको छोड़ो, पश्चात् नि:स्पृह होकर शरीर को छोड़ो ॥१२३७ ।। इत्थं कृत-क्रियो मुञ्च, विषयं सार्वकालिकम् । तृष्णामाशां त्रिधा सङ्ग, ममत्वं त्यज सर्वदा ।।१२३८ ।। अर्थ - इस प्रकार आराधना सम्बन्धी समस्त क्रियाओं को अर्थात् आहार, शरीर आदि के त्यागरूप जो कर्तव्य हैं उन्हें जिसने कर लिया है ऐसे तुम हे क्षपक ! तीनों काल सम्बन्धी परिग्रहों में एवं उनके विषयों में मन, वचन और कायसे तृष्णा, आशा, संग एवं ममत्व को सर्वथा छोड़ दो ॥१२३८ ॥ प्रश्न - तृष्णा, आशा, संग, ममत्व एवं मूर्छा किसे कहते हैं ? उत्तर - ये 'इष्ट धनादि पदार्थ मुझ से कभी और किंचित् भी अलग नहीं होने चाहिए' इस प्रकार की अभिलाषा को तृष्णा कहते हैं। ये भनाज्ञ पदार्थ मुझे चिरकाल तक प्राप्त होते रहें, ऐसे परिणामों को आशा कहते हैं। परिग्रह में अत्यधिक आसक्ति रूप परिणामों का नाम संग है। 'ये पदार्थ मेरे योग्य हैं और मैं इनका भोक्ता हूँ' ऐसा संकल्प ममत्व है और पदार्थ के प्रति होने वाली अनुराग युक्त आसक्ति को मूर्छा कहते हैं। परिग्रहत्याग से इसी भव में अतिशय सुख प्राप्त होता है समस्त-ग्रन्थ-निर्मुक्त:, प्रसन्नो निर्वताशयः । यत् प्रीति-सुखमाप्नोति, तत्कुत्तश्चक्रवर्तिनः ॥१२३९ ।। अर्थ - बाह्य और अभ्यन्तर समस्त परिग्रह से जो निर्मुक्त है, परिग्रह की चिन्ता से रहित होने के कारण जो प्रसन्न है एवं आगामी काल सम्बन्धी व्याकुलता न होने से जो निर्वृत्ताशय है, उस साधु को जो परम प्रीति एवं सुख प्राप्त होता है, वह प्रीति और वह सुख चक्रवर्ती को कहाँ है।।१२३९ ।। चक्रवर्ती का सुख कम क्यों है ? इसका कारण गृद्ध्याकाङ्क्ष-कारणं सेवते यच्चक्री सौख्यं राग-पाकं वितृप्ति । सौख्यस्येदं नास्त-सङ्गस्य तुल्यं, स्वस्थोऽस्वस्थैः सौख्यमाप्नोति कुत्र ॥१२४० ।। अर्थ - चक्रवर्ती जो विषय-सुख भोगता है वह लम्पटता को उत्पन्न करता है, कांक्षा की वृद्धि का कारण है, रागरूप फल वाला है और अतृप्तिकारक है। चक्रवर्ती के ऐसे सुख की तुलना निष्परिग्रही मुनिराज के आत्मीक सुख के साथ कदापि नहीं हो सकती। जैसे नीरोग पुरुष जो सुख प्राप्त करता है क्या वैसा ही सुख रोगी पुरुष प्राप्त कर सकता है ? नहीं। वैसे ही निर्ग्रन्थ मुनि के आत्मीक, वीतरागरूप तथा सहज शान्त स्वभावी सुख को चक्रवर्ती प्राप्त कर सकता है? नहीं ।।१२४० ॥ दुःखानि नश्यन्ति शर्माणि पुष्यन्ति, कर्माणि त्रुट्यन्ति चित्राणि सङ्गे। अगृहीते यत:संयतस्यापि हेयस्तत: सर्वदासौ पटिष्ठेन पुंसा ॥१२४१ ।। इति परिग्रहत्यागपंचमं व्रतम् ।। Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ३४५ अर्थ - परिग्रह ग्रहण नहीं करने पर अथवा परिग्रह का सर्वदा त्याग कर देने पर मुनिजनों के समस्त दुख नष्ट हो जाते हैं, सुख-शान्ति की पुष्टि होती रहती है एवं अनेक कर्मों के बन्धन टूट जाते हैं अतः संयत मुनि के लिए परिग्रह सर्वथा हेय है। चतुर मनुष्यों द्वारा भी परिग्रह सर्वदा त्याज्य है।।१२४१ ।। इस प्रकार परिग्रहत्याग नामक पाँचवें महाव्रत का वर्णन पूर्ण हुआ॥ महाव्रत शब्द की निरुक्ति एवं अन्वर्थता साधयन्ति महार्थं यन्महद्भिः सेवितानि यत्। महान्ति यत्स्वयं सन्तो, महाव्रतान्यतो विदुः ।।१२४२॥ अर्थ - क्योंकि ये असंयम के निमित्त से होने वाले नवीन कर्म समूह के निवारण रूप महान् प्रयोजन को साधते हैं या महापुरुषार्थ स्वरूप हैं अत: इन्हें महाव्रत कहते हैं। क्योंकि तीर्थंकर एवं गणधरादि जैसे महापुरुषों के द्वारा इनका आचरण किया जाता है अतः ये महाव्रत हैं। और क्योंकि ये हिंसादि पापों के त्याग रूप होने से स्वयं में महान् हैं अत: इन्हें महाव्रत कहते हैं ॥१२४२ ।। प्रश्न - महाव्रतरूप परिणाम क्यों और कैसे बनते हैं तथा ये स्वयं में महान् कैसे हैं ? उत्तर - नोआगमभाव व्रत की अपेक्षा वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम के साथ चारित्रमोह के क्षयोपशम या उपशम या क्षय से जीव के जो हिंसादि निवृत्ति रूप परिणाम बनते हैं कि मैं जीवन पर्यन्त नौ कोटि से हिंसा नहीं करूँगा, असत्य नहीं बोलूँगा, बिना दिया हुआ दाँत साफ करने वाला तृण भी ग्रहण नहीं करूँगा, मैथुन नहीं करूंगा और किंचित् भी परिग्रह स्वीकार नहीं करूंगा। ऐसे ये पाँच महाव्रत हैं। ये महाव्रत हिंसादि पापों से विरतिरूप होने के कारण शुद्ध चिद्रूप स्वरूप होते हैं अत: स्वयं में महान् हैं। महाव्रतों की रक्षा के उपाय रक्षणाय मता तेषां, निवृत्ती रात्रि-भुक्तित्तः। राद्धान्त-मातरश्चाष्टी, सर्वाश्चापि च भावनाः ।।१२४३॥ अर्थ - सिद्धान्त में पाँच महाव्रतों की रक्षा के लिए रात्रिभोजन से निवृत्ति, आठ प्रवचन मातृका और सभी भावनाएँ कही गई हैं॥१२४३ ।। प्रश्न - रात्रिभोजननिवृत्ति क्यों कही गई है ? उत्तर - रात्रिभोजन करने से जिनेन्द्राज्ञा का लोप होता है। हिंसा होती है, क्योंकि दिन में भी जिनका परिहार कठिन होता है उन बस-स्थावरजीवों का घात रात्रि में भिक्षार्थ भ्रमण करने पर अवश्यमेव होने की सम्भावना होती है, अतः एषणा समिति का पालन नहीं होता । रात्रि में दाता के आवागमन का मार्ग, आहार रखने का स्थान, उच्छिष्ट गिरने का स्थान एवं दाता द्वारा दिये गये आहार का शोधन हो पाना अशक्य है। अत: रात्रिभोजन करने से हिंसा पाप अवश्यम्भावी है और जहाँ हिंसा पाप है वहाँ अन्य चार पाप भी होते हैं, किन्तु रात्रिभोजनत्याग करने से सब व्रत सम्पूर्ण रीत्या सुरक्षित रहते हैं। Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका प्रश्न- आठ प्रवचन माता कौन-कौन हैं और इन्हें व्रत की रक्षक कैसे कहा जा रहा है ? उत्तर - रत्नत्रय को प्रवचन कहते हैं और पाँच समिति एवं तीन गुप्ति इन आठ को प्रवचन माता कहते हैं। जैसे माता अपने पुत्र का उपाय से रक्षण करती है वैसे ही ये समिति और गुप्ति पाँच महाव्रतों का रक्षण करती हैं । - ान भावना किसे कहते हैं और ये कितनी होती हैं ? उत्तर- वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम और चारित्रमोह के उपशम या क्षयोपशम की अपेक्षा जो आत्मा के द्वारा भाई जाती है या बार-बार जिनका चिन्तन किया जाता है उन्हें भावना कहते हैं। प्रत्येक व्रत की पाँचपाँच भावनाएँ हैं। इस प्रकार ये पच्चीस भावनाएँ भी महाव्रतों का रक्षण करती हैं। - - प्रश्न उत्तर "मैं आमरण पाँचों पाप नहीं करूँगा" आत्मा में इस प्रकार का जो परिणाम उत्पन्न होता है अथवा चारित्र मोहनीय कर्म का उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशम होने पर हिंसादि परिणामों उसे अहिंसादिव्रत कहते हैं। उसे व्रत कहते हैं। का अभाव होता - व्रत किसे कहते हैं ? ३४६ - जैसे दुर्ग के सद्भाव में राजा का रक्षण होता है और दुर्ग के अभाव में राजा का नाश होता है। वैसे ही रात्रिभोजनत्याग, अष्ट प्रवचन माता और भावनाओं के सद्भाव में आत्मा हिंसादि पापों से परावृत्त होता है। और इनके अभाव में यह आत्मा इन पापों से परावृत्त नहीं होता, अतः आचार्य ने इन्हें व्रतरक्षणार्थ अर्थात् व्रतों की रक्षक माना है। प्रश्न रक्षक किसे कहते हैं ? उत्तर - जिसके नहीं होने पर जो नष्ट हो जाता है और जिसके होने पर जो नष्ट नहीं होता वह उसका रक्षक कहा जाता है। रात्रिभोजन से हानि हिंसादीनां मुनेः प्राप्तिः, पञ्चानां सह शङ्कया । विपत्तिर्जायते स्वस्थ, रात्रिभुक्तेस्तथा स्फुटम् ॥ १२४४ ।। अर्थ - रात्रि में आहार-पान करने से मुनि को शंका बनी रहती है कि मेरे से हिंसादि पाप तो नहीं हो रहे हैं ? इसके साथ-साथ उसे पाँचों पापों का दोष लगता है और रात्रि में आहारार्थ करते हुए स्वयं साधु को ठूंठ, कण्टक एवं सर्पादि से विपत्ति का सामना करना पड़ सकता है || १२४४ ॥ प्रवचन मातृका के अन्तर्गत मनोगुप्ति और वचनगुप्ति का लक्षण मनसो दोष-विश्लेषो, मनोगुप्तिरितीष्यते । वाग्गुप्तिश्चाप्यलीकादेर्निवृत्तिमनमेव च ।। १२४५ ।। अर्थ - - मन के रागादि दोष नष्ट होना मनोगुप्ति है और असत्य से निवृत्त होना अथवा मौन धारण करना वचन गुप्ति है ।। १२४५ । Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ३४७ प्रश्न - "मन की रागादि से निवृत्ति होना मनोगुप्ति है" मनोगुप्ति का ऐसा लक्षण क्यों कहा गया है? 30 - यहाँ जान सम्द से नोइन्द्रियाच मति का ग्रहण किया गया है। यह मति आत्मा में रागादि परिणामों के साथ एक ही काल में प्रवृत्तिशील होती है। विषयों के अवग्रहादि ज्ञान बिना रागद्वेष में प्रवृत्ति नहीं होती, यह अनुभवसिद्ध है और जो मानसज्ञान वस्तुतत्त्व के अनुसार होता है, उस ज्ञान के साथ रागद्वेष नहीं होते यह बात आत्म-साक्षिक है। अत: यह सिद्ध हुआ कि तत्त्व को ग्रहण करने वाले मन का रागादि भावों के साथ साहचर्य न होना मनोगुप्ति है। इसीलिए ये मन की रागादि से निवृत्ति को मनोगुप्ति कहा गया है। प्रश्न - मन और ज्ञान का क्या सम्बन्ध है ? उत्तर - ‘मन' शब्द ज्ञान का उपलक्षण है, अत: रागद्वेष की कालिमा से रहित ज्ञान मात्र मनोगुप्ति है। यही कारण है कि जब आत्मा इन्द्रियज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान या मनः पर्ययज्ञान रूप से परिणत होती है उस समय भी मनोगुप्ति होती है। अथवा जो आत्मा पदार्थों को जानता है वह मन है और उस मन का रागद्वेष परिणमन नहीं करना मनोगुप्ति है। प्रश्न - वचन गुप्ति किसे कहते हैं ? उत्तर - विपरीत अर्थ की प्रतिपत्ति में निमित्तभूत और दूसरों के दुख की उत्पत्ति में निमित्तभूत जो वचन अधर्ममूलक हैं उनसे निवृत्ति करना वचन गुप्ति है। प्रश्न - वचन जो पौद्गलिक हैं, वे आत्मा के परिणाम नहीं हैं फिर अधर्म मूलक वचन-निवृत्ति को वचनगुप्ति कैसे कहा जा रहा है ? उत्तर - वचन पौद्गलिक हैं, यह सत्य है, किन्तु जैसे पौद्गलिक पत्थर की मार से होने वाला घाव आत्मा की पीड़ा में कारण है, उसी प्रकार मिथ्यावचन, कठोर वचन, स्वप्रशंसा एवं पर की निन्दा करने वाले और दूसरों में उपद्रव कराने वाले वचनों से स्व-पर की आत्मा में राग-द्वेष उत्पन्न हो जाते हैं, जिनसे कर्मबन्ध होता है अत: जिन वचनों के माध्यम से आत्मा अशुभ भावों में प्रवृत्ति कर कर्मबन्ध करता है उन वचनों से आत्मा को निवृत्त करना वचन गुप्ति है। ___ काय गुप्ति का लक्षण काय-क्रिया-निवृत्तिा, देह-निर्ममतापि वा। हिंसादिभ्यो निवृत्तिा, वपुषो गुप्तिरिष्यते ।।१२४६ ॥ अर्थ - शारीरिक क्रियाओं से अर्थात् गमन करने, खड़े होने, बैठने, हस्त-पैरादि को फैलाने एवं संकोच करने वाली क्रियाओं से निवृत्त होना कायगुप्ति है। अथवा शरीर से निर्ममत्व होना, अथवा हिंसादि पापों से निवृत्त होना कायगुप्ति है।।१२४६।। प्रश्न - उठने-बैठने आदि की क्रियाएँ तो आत्मा द्वारा प्रवर्तित होती हैं तब आत्मा औदारिक आदि काय की क्रियाओं से कैसे निवृत्त होगा ? Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ३४८ उत्तर - यहाँ काय सम्बन्धी क्रिया की कारणभूत आत्मा की क्रिया को काय क्रिया कहा गया है अत: उसकी निवृत्तिकाय गुप्ति है। अथवा कर्मग्रहण में जो-जो क्रियाएँ निमित्त बनती हैं, उन समस्त क्रियाओं से निवृत्त होना कायगुप्ति है। प्रश्न - जब शरीर आयु कर्मरूपी साँकल से बँधा है तब कायोत्सर्ग में शरीर का त्याग कैसे किया जा सकता है ? उत्तर - यहाँ कायोत्सर्ग शब्द से 'शरीर का त्याग' अर्थ ग्राह्य नहीं है अपितु यह शरीर अपवित्र है, असार है और आपत्तियों का निमित्त है, ऐसा जान कर शरीर से ममत्व छोड़ना कायोत्सर्ग गुप्ति है। आगः नक्षा शब्द से शिक्षादि पाँरी हा दिये हैं, अत: हिंसादि पाँच पापों से निवृत्त होना कायगुप्ति है। गुप्तियों का कार्य पुरस्य खातिका यद्वत्, क्षेत्रस्य च यथा वृतिः । तथा पापस्य संरोधे, साधूनां गुप्तयो मताः॥१२४७ ।। अर्थ - जैसे नगर की रक्षा हेतु खाई होती है वैसे ही, अथवा जैसे खेत की बाड़ होती है वैसे ही पाप का निरोध करने के लिए साधुओं की गुप्तियाँ मानी गई हैं अर्थात् गुप्तियाँ पाप का निरोध कर साधुओं की रक्षा करती हैं।।१२४७॥ क्षपक को कर्तव्य बोध तस्मान्मनो-वचः काय-प्रयोगेषु समाहितः। भव त्वं सर्वदा जात-स्वाध्याय-ध्यान-सङ्गतिः ।।१२४८ ।। अर्थ - इस प्रकार गुमियों का माहात्म्य जान कर हे क्षपक ! तुम सदा मन के खोटे विचार रूप मनःप्रयोग में, कुवचन रूप वचनप्रयोग में और शरीर की कुचेष्टारूप अथवा बिना प्रयोजन शारीरिक क्रिया रूप काय-प्रयोग में सावधान रहते हुए अर्थात् इन्हें रोकते हुए स्वाध्याय एवं ध्यान में तत्पर रहो।।१२४८ ।। प्रवचनमातृका के अन्तर्गत ई समिति का लक्षण मार्गोद्योतोपयोगालामालम्बस्य च शुद्धिभिः। गच्छत: सूत्र-मार्गेण, मतेर्यासमितिर्यतेः ॥१२४९ ।। अर्थ - मार्गशुद्धि, उद्योत शुद्धि, उपयोग शुद्धि और आलम्बन शुद्धि, इन चार शुद्धियों के द्वारा आगमानुसार गमन करने वाले साधु के ईर्या समिति होती है ॥१२४९ ।। प्रश्न - उपर्युक्त चारों शुद्धियों के लक्षण क्या हैं ? उत्तर - मार्गशुद्धि - जो मार्ग कीट, चींटी, मकोड़े आदि त्रस जीवों से रहित हो; हरित तृण, पत्ते, डण्ठल, अंकुर, बीज एवं कीचड़ आदि से रहित हो; स्त्री, पुरुष, पशु एवं सवारियों के आवागमन से प्रासुक Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ३४९ हो चुका हो तथा धूप की ताप से तप चुका हो, ऐसे मार्ग से दिन में नेत्रों की ज्योति ठीक रहते गमनागमन करने वाले साधु की यह मार्गशुद्धि कही जाती है। उद्योतशुद्धि - दिन में सूर्य के प्रकाश में गमनागमन करना ही उद्योतशुद्धि है, कारण कि सूर्य-प्रकाश में स्पष्ट फैलाव एवं व्यापकता होती है। चन्द्रमा एवं नक्षत्र का प्रकाश अस्पष्ट होता है और दीपक का प्रकाश व्यापक नहीं होता अत: इनसे उद्योतशुद्धि नहीं रहती। उपयोगशुद्धि - अन्यमनस्कता, चित्त की अस्थिरता एवं वार्तालापादि से रहित, पैर उठाने एवं रखने के क्षेत्र में जीवों की रक्षा में ही चित्त सावधान रहना, उपयोगशुद्धि है। आलम्बनशुद्धि - तीर्थवन्दना, चैत्यवन्दना, यतिवन्दना, गुरुवन्दना, अपूर्व शास्त्र पठन अथवा शास्त्र के अपूर्व अर्थग्रहण हेतु गमन करना, या मुनियों के योग्यक्षेत्र की खोज करना, वैयावृत्य हेतु विहार करना, अनियत आवास के उद्देश्य से गमन करना, स्वास्थ्य लाभ हेतु विहार करना, श्रम पर विजय प्राप्त करने हेतु विहार करना, शिष्य समुदाय को प्रतिबोध कराने हेतु विहार करना अथवा नाना देशों की भाषा सीखने के उद्देश्य से विहार करना आलम्बन शुद्धि है। प्रश्न - श्लोक में आये हुए 'सूत्रानुसार गमन' का क्या भाव है ? उत्तर - सूत्रानुसार गमन का अर्थ है ईर्यासमिति पूर्वक ही गमनागमन करना। यथा - आगे चार हाथ भूमि देखते हुए चलना, भय एवं आश्चर्य का त्याग कर चलना, दोनों भुजा लटका कर चलना, हरे तृण, अंकुर एवं वक्षादि से एक हाथ दूर रह कर विहार करना, विरुद्धयोनि वाले जीवों के उत्पत्ति-स्थानों में प्रवेश करते समय अपने शरीर से त्रस जीवों को कोई बाधा न हो इसलिए बार-बार पिच्छिका से शरीर की प्रतिलेखना करते हुए गमन करना, दुष्ट गाय, बैल, कुत्ता एवं घोड़े आदि पशुओं से चतुराई पूर्वक बचाव करते हुए गमन करना, धान्य का भसा. शालि धान्य के छिलके, कज्जल, भस्म, गीला गोबर, पानी, पत्थर, तुण का ढेर एवं फलकादि ' का परिहार करते हुए गमन करना, चोर, डाकू, लडाकू एवं शराबी आदि से दूर रह कर गमन करना, अपने पैरों से किसी वस्तु का एवं किसी प्राणी का टकराव एवं प्रवेश न हो ऐसे गमन करना, पशु, पक्षी, मृग एवं बालकों आदि को भयभीत करते हुए गमन न करना, अपने शरीर को इतर लोगों का या इतर लोगों का अपने शरीर को धक्का न लगे, इस प्रकार गमन करना, अति वेग से एवं अति मन्दरूप से गमन नहीं करना, बहुत दूर-दूर पाद-निक्षेप करते हुए गमन नहीं करना, अधिक ऊँचे तक पैर उठा कर गमन नहीं करना, लीला पूर्वक या क्रीड़ा करते हुए गमन नहीं करना, दौड़ते हुए या किसी ऊंची डोली आदि को लाँघते हुए गमन नहीं करना और विकार पूर्वक, चपलता पूर्वक एवं ऊपर और तिर्यगवलोकन करते हुए गमन नहीं करना । भाषा समिति का लक्षण व्यलीकादि-विनिर्मुक्तं, सत्यासत्यमृषाद्वयम्। वदतः सूत्र-मार्गेण, भाषासमितिरिष्यते ।।१२५०॥ अर्थ - अलीक, परुष एवं कर्कशादि वचनों से रहित सत्य और असत्यमृषा ऐसे दो प्रकार के वचन आगमानुसार बोलना भाषा समिति कही जाती है ।।१२५० ।। 25 Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ३५० प्रश्न - वचनों के कितने भेद हैं और उनके लक्षण क्या हैं ? उत्तर - सत्य, असत्य, सत्यसहित मृषा एवं असत्यमृषा के भेद से वचन चार प्रकार के होते हैं। “सतां हिता सत्या'' इस नीत्यनुसार सजनों की हितकारी वाणी 'सत्य' कहलाती है। जो सत्य नहीं है वह 'असत्य' हैं। जैसे मृगमरीचिका को जल कहना। जिसमें सत्य-असत्य दोनों प्रकार के वचन हैं वह 'सत्यमृषा' वचन है। इसे उभय वचन भी कहते हैं। जैसे कमण्डलु को घट कह देना, क्योंकि कमण्डलु घट के सदृश जलधारण करता है अतः सत्य है किन्तु आकार-प्रकार घड़े के सदृश नहीं है अतः असत्य है। जो सत्य भी नहीं है और असत्य भी नहीं है उसे असत्यमृषा या अनुभय वचन करते हैं। प्रश्न - साधु की भाषा समिति में कौन-कौन से वचन बोलने का विधान है ? उत्तर - सत्य और असत्यमृषा अर्थात् अनुभय ऐसे दो प्रकार के वचन तथा सूत्रानुसार वचन बोलना, साधु की भाषा समिति है। प्रश्न - सूत्रानुसार वचन का क्या अर्थ है ? उत्तर - आगम के अनुकूल वचन बोलना सूत्रानुसार वचन कहलाते हैं | प्रश्न - सत्य महाव्रत में, भाषा समिति में एवं सत्य धर्म में सत्य बोलने का ही आदेश है, तब इन तीनों में क्या अन्तर है ? उत्तर - सत्य महाव्रत में साधुजन, साधु और असाधु दोनों से सत्य भाषण कर सकते हैं, तथा अधिक भी बोल सकते हैं। भाषा समिति में उन्हीं दोनों प्रकार के पुरुषों के साथ सत्य किन्तु परिमित अर्थात् अल्प बोलने का विधान है । किन्तु सत्यधर्म का पालन करने वाला साधु केवल साधु जनों से ही सम्भाषण कर सकता है। वह उनके साथ कुछ अधिक भी बोल सकता है। इन तीनों में यही अन्तर है। सत्य वचन के दस भेद देश-सम्मति-निक्षेप-नाम-रूप-प्रतीतिता। सम्भावनोपमाने च, व्यवहारे भाव इत्यपि ।।१२५१ ॥ अर्थ - देश सत्य, सम्मति सत्य, निक्षेप सत्य, रूप सत्य, प्रतीतिसत्य, सम्भावना सत्य, उपमा सत्य, व्यवहार सत्य और भाव सत्य के भेद से सत्य-वचन दस प्रकार के होते हैं ।।१२५१ ।। प्रश्न - इन दस प्रकार के सत्य वचनों के लक्षण क्या-क्या हैं? उत्तर - जनपद सत्य-तत्तद्देशवासी मनुष्यों के व्यवहार में जहाँ जो शब्द रूढ़ हो जाते हैं, उन्हें जनपद सत्य कहते हैं। जैसे एक ही भात को अन्य-अन्य देशों में अलग-अलग भात, भक्त, भाटु, भेटु, वंटक, मूकुडू, क्रूलू, क्रूर, ओदन, चोरु और चोखा कहते हैं और ये सब अपने-अपने देश की अपेक्षा सत्य हैं। सम्मति सत्य - बहुत मनुष्यों की सम्मति से जो शब्द सर्वसाधारण में रूढ़ हो जाते हैं उन वचनों को सम्मति सत्य कहते हैं। जैसे मनुष्य होते हुए भी राजा-रानी को देव-देवी कहना। अथवा किसी मनुष्य में राजा सदृश सम्पन्नता देखकर उसे राजा, राव, राणा या नरेन्द्र कहना। Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ३५१ निक्षेप सत्य - किसी वस्तु में उससे भिन्न वस्तु के समारोप करने वाले वचन को निक्षेप सत्य या स्थापना सत्य कहते हैं। जैसे चन्द्रप्रभु भगवान की प्रतिमा को चन्द्रप्रभु कहना। नाम सत्य - जाति, गुण एवं क्रिया आदि की अपेक्षा न रख कर केवल व्यवहार चलाने के लिए जो किसी का संज्ञाकर्म किया जाता है, उसे नाम सत्य कहते हैं। जैसे जिनदत्त या महावीर आदि। रूप सत्य - पुद्गल के रूपादि अनेक गुणों में से रूपगुण की प्रधानता से जो वचन कहा जाता है उसे रूप सत्य कहते हैं। जैसे शरीर में पुद्गल के अनेक गुण एवं वर्णादि होते हुए भी कौआ को काला और बगुला को श्वेत कहना। प्रतीतिसत्य - किसी विवक्षित पदार्थ की अपेक्षा किसी दूसरे पदार्थ के स्वरूप का कथन करना प्रतीति सत्य है। जैसे किसी छोटे या पतले पदार्थ या मनुष्य को देखकर अन्य पदार्थ या मनुष्य को मोटा या काला कहना। सम्भावना सत्य - असम्भवता का परिहार करते हुए वस्तु के किसी धर्म के निरूपण करने में प्रवृत्त वचन को सम्भावना सत्य कहते हैं। जैसे सोमदत्त भुजाओं से समुद्र पार कर सकता है। या इन्द्र जम्बूद्वीप को पलट सकता है। उपमा सत्य - दूसरे प्रसिद्ध सदृश पदार्थ को उपमा कहते हैं। इसके आश्रय से जो वचन बोला जाय उसे उपमा सत्य कहते हैं। जैसे चन्द्रमुखी कन्या, पल्योपम, सागरोपमादि । व्यवहार सत्य - यद्यपि वर्तमान काल में वस्तु में वह परिणाम नहीं है तथापि अतीत और अनागत परिणामरूप यही द्रव्य है ऐसा मान कर कहा गया वचन व्यवहार सत्य है। भात पकाओ या चटाई बुनो। यहाँ ये दोनों परिणाम वर्तमान में नहीं हैं, क्योंकि चावल पक जाने पर ही भात बनता है और बुन लेने पर ही चटाई कहलाती है फिर भी अनागत परिणाम की अपेक्षा इनका व्यवहार होता है। अथवा - नैगमादि नयों की प्रधानता से जो वचन बोला जाय उसे व्यवहार सत्य कहते हैं। जैसे भात पकाता हूँ यह नैगम नय की अपेक्षा सत्य है और संग्रहनय की अपेक्षा सम्पूर्ण सत्य है' अथवा 'अमुक बात सम्पूर्ण असत्' है आदि । भाव सत्य - जिस वचन के द्वारा अहिंसारूप भाव का पालन किया जाता है, वह वचन भाव सत्य है। जैसे 'देखकर सावधानता पूर्वक प्रवृत्ति करो' इत्यादि । अथवा आगमोक्त विधि-निषेध के अनुसार अतीन्द्रिय पदार्थों में संकल्पित परिणामों को भाव सत्य कहते हैं। जैसे शुष्क, पक्क, तप्त और नमक, मिर्च, खटाई आदि से अच्छी तरह मिलाया हुआ द्रव्य प्रासुक है। यद्यपि यहाँ पर सूक्ष्म जीवों को इन्द्रियों से नहीं देख सकते तथापि आगम प्रामाण्य से उस द्रव्य की प्रासुकता सत्य है। इस प्रकार ये दस भेद वाले सत्य कहे गये हैं, इसी प्रकार और अन्य भी जान लेना चाहिए। इन उपर्युक्त सत्य वचनों के अतिरिक्त जो वचन हैं वे असत्य हैं। दोनों मिले हुए उभयरूप वचन 'सत्यमृषा' हैं, इनमें अप्रशस्त वचन असत्य हैं और मैंने सब दे दिया', 'मैंने सब भोग लिया' इत्यादि वचन उभयरूप हैं। भाषा समिति में प्रवृत्त साधु अनुभय अर्थात् असत्यमृषा वचन बोल सकते हैं अत: उन ग्राहय वचनों के भेद गद्य द्वारा दर्शाये जा रहे हैं - Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ३५२ आज्ञापनी, सम्बोधनी, प्रच्छनी, प्रत्याख्यानी, याचनी, प्रज्ञापनीच्छानुलोमा, सांशयिकी, निरक्षरा चेति नवधा असत्यमृषा भाषा मन्तव्या ।। १२५२ ।। दृष्टान्त सहित लक्षण आज्ञापनी - अनुशासन के वचन अथवा आज्ञा वचनों को आज्ञापनी कहते हैं। जैसे स्वाध्याय करो, असंयम छोड़ो, इत्यादि । I सम्बोधनी - इसे आमन्त्रणी भाषा भी कहते जिस वचन से दूसरों को बुलाया जाता है वह सम्बोधनी वचन है। जैसे हे देवदत्त ! यहाँ आओ ! प्रच्छनी - प्रश्नवचनों को प्रच्छनी या संपृच्छनी या आपृच्छनी कहते हैं। जैसे क्या मैं अमुक कार्य करूँ ? आपका स्वास्थ्य कैला ? प्रत्याख्यानी - त्याग रूप भाषा को प्रत्याख्यानी कहते हैं। जैसे मैं एक मास पर्यन्त दूध का त्याग करता हूँ, इत्यादि । प्रश्न- 'मैं एक मास के लिए दूध का त्याग करता हूँ' यह भाषा तो निर्णयात्मक है, इसमें अनुभयपना कैसे सिद्ध होगा ? उत्तर - दूध त्याग की यह प्रतिज्ञा गुरु की आज्ञा के बिना की गई है। दूध त्याग करने वाले का नियम निर्णयात्मक है अत: उसके वचन में सत्यता का अंश है किन्तु त्याग की मर्यादा पूर्ण होने के पूर्व ही यदि रुग्णता आदि का लक्ष्य करके गुरु ने कहा कि 'दूध लो' तब उसका प्रत्याख्यान सर्वथा सत्य नहीं रहा और त्यागी हुई वस्तु गुरु आज्ञा से ग्रहण की है अतः दोष न होने से सर्वथा असत्य भी नहीं है। इसलिए उसका वह प्रत्याख्यान वचन अनुभय रूप है। याचनी - प्रार्थना वचनों को याचनी कहते हैं। जैसे यह पुस्तक मुझे दो, पीछी मुझे दो इत्यादि । प्रज्ञापनी - धर्मकथा को अथवा सूचनात्मक भाषा को प्रज्ञापनी कहते हैं। जैसे मैं कुछ कहूँगा या कुछ करूंगा, इत्यादि । इच्छानुलोमा - गुरुजनों के इच्छानुकूल भाषा इच्छानुलोमा है । अथवा इच्छा को प्रगट करने वाली भाषा इच्छानुलोमा है। जैसे 'मुझे भी ऐसा ही बनना चाहिए', इत्यादि । सांशयिकी - संशय रूप अथवा संदिग्ध वचन सांशयिकी हैं। जैसे यह बलाका है ? अथवा पताका ? इत्यादि । निरक्षरा अक्षर रचना रहित ध्वनि निरक्षरा-अनक्षरा भाषा है। जैसे ताली बजाना, चुटकी बजाना, मुख से चटकारा करना इत्यादि द्वीन्द्रियादिक असंज्ञिपंचेन्द्रिय पर्यन्त जीवों की भाषा अनक्षरात्मक ही होती है। प्रश्न- ये सभी भाषाएँ अनुभय अर्थात् असत्यमृषारूप क्यों हैं ? उत्तर - ये सब भाषाएँ न सत्य ही हैं और न असत्य ही हैं क्योंकि इन भाषाओं को सुनकर व्यक्त और अव्यक्त दोनों ही अंशों का बोध होता है। अर्थात् सामान्य अंश के व्यक्त होने से इन्हें असत्य भी नहीं कह सकते और विशेष अंश व्यक्त न होने से सत्य भी नहीं कह सकते। अतः इन्हें अनुभय वचन कहते हैं। जैसे- 'हे देवदत्त ! - Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ३५३ यहाँ आओ !' यह वचन सुनकर यदि देवदत्त नहीं आता तो वचन सत्य नहीं रहा और यदि बचन सुनते आ जाता है तो असत्य नहीं रहा। इसी प्रकार सर्वत्र जान लेना चाहिए। एषणा समिति आहारमुपधिं शय्यामुद्रमोत्पादनादिभिः । विमुक्तं गृह्णत: साधोरेषणा समितिर्मता ॥१२५३॥ अर्थ - आहार, पीछी-कमण्डलु एवं शास्त्ररूप उपकरण एवं शय्या अर्थात् वसतिका आदि को उद्गम तथा उत्पादनादि दोषों से रहित ग्रहण करने वाले साधु के एषणा समिति होती है॥१२५३ ।। प्रश्न - यहाँ आदिशब्द से और कौन-कौन दोष ग्रहण किये गये हैं और उन सबके संक्षिप्त लक्षण क्या हैं ? उत्तर - साधुजन दिन में एक बार दाता के द्वारा दिया हुआ आहार कर-पात्र में ग्रहण करते हैं। दाता द्वारा प्रदत्त ही पीछी-कमण्डलु एवं वसतिका आदि ग्रहण करते हैं। इन्हें ग्रहण करने में छियालीस प्रकार के दोष तथा आहार में इन दोषों के साथ बत्तीस प्रकार के अन्तरायों की भी सम्भावना होती है। इन छियालीस दोषों और बत्तीस अन्तरायों को टाल कर ग्रहण किया हुआ आहार आदि ही एषणा समिति की कोटि में आता है। इन दोषों का संक्षिप्त विवेचन इस प्रकार है - उद्गम, उत्पादन, एषणा, संयोजना, अप्रमाण, इंगाल, धूम और कारण ये आठ प्रधान दोष आहार सम्बन्धी माने गये हैं। १. दाता के निमित्त से आहार में जो दोष लगते हैं, वे उद्गम दोष हैं। २. साधु के निमित्त से आहार में जो दोष लगते हैं, वे उत्पादन दोष हैं। ३. आहार सम्बन्धी दोष एषणा दोष हैं। ४. संयोग से उत्पन्न होने वाले संयोजना दोष हैं। ५, प्रमाण से अधिक आहार लेना अप्रमाण दोष है। ६. लम्पटता से आहार लेना इंगाल दोष है। ७. निन्दा करते हुए आहार लेना धूम दोष है। ८. विरुद्ध कारणों से आहार लेना कारण दोष है। इनमें से उद्गम के १६, उत्पादन के १६, एषणा के १० तथा संयोजना, प्रमाण, इंगाल और धूम ये ४, ऐसे १६+१६+१०+४=४६ दोष हैं। यथा - १६ उद्गम दोष (१) उद्गम दोष - जो अन्न स्व, संयत, पाखंडी आदि किसी का भी उद्देश्य लेकर बनाया जाय तो उद्दिष्ट दोष लगता है। Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ३५४ (2) अध्यवधि होष - रसोई हो जाने के लाट संयत को आया हुआ देखकर अथवा संयत के आ जाने के बाद और अधिक चावल आदि डालना अध्यवधि दोष है। (३) पूर्ति दोष - जिस प्रासुक कांसी आदि के पात्र से मिथ्यादृष्टि साधुओं को आहार दिया गया है उसी पात्र में रखा हुआ अन्न दिगम्बर साधु को आहार में दिया जाय तो पूर्ति दोष लगता है। (४) मिश्र दोष - प्रासुक और अप्रासुक को मिलाकर आहार देना मिश्र दोष है। (५) स्थापित दोष - पाक-भाजन से अन्न को निकालकर स्वगृह में अथवा अन्य किसी के घर में स्थापित कर के देना वा एक भाजन से निकालकर दूसरे भाजन में स्थापित करना, उस भाजन से फिर तीसरे में रखना स्थापित दोष है। (६) बलि दोष - यक्षादि की पूजा के निमित्त बनाया हुआ आहार संयत को देना बलि दोष है। (७) प्राभृत दोष - इस महीने, इस ऋतु अथवा इस तिथि को मुनियों को आहार दूंगा, इस प्रकार के नियम से आहार देना प्राभृत दोष है। (८) प्राविष्कृत दोष - हे भगवन् ! यह मेरा घर है। इस प्रकार गृहस्थ के द्वारा घर बतलाकर आहार दिया जाना अथवा भाजनादि का संस्कार करना, भाजन को स्थानान्तर में ले जाना प्राविष्कृत दोष है।। (९) प्रामृष्य दोष - यतियों के दान के लिए ब्याज देकर वस्तु लाना अथवा थोड़ा कर्ज लेना प्रामृष्य दोष है। (१०) क्रीत दोष - विद्या से खरीद कर अथवा द्रव्य, वस्त्र, भाजन आदि के विनिमय से अन्नादि खरीद कर लाना और साधु को आहार में देना क्रीत दोष है। (११) परावर्त्त दोष - अपने घर के चावल, घृत आदि को देकर बदले में दूसरे चावल आदि लाकर आहार देना परावर्त्त दोष है। (१२) अभिहित दोष - एक ग्राम से दूसरे ग्राम में अथवा एक मोहल्ले से दूसरे मोहल्ले में ले जाकर साधु को आहार देना अभिहित दोष है। सरल पंक्ति-बद्ध सात घरों से लाया हुआ आहार साधुओं को देने योग्य है, सात घरों के परे स्थित घरों से लाया हुआ आहार साधुओं को देने योग्य नहीं है। इस विधि का उल्लंघन करके आहार देना अभिहित दोष है। (१३) उद्घाटित दोष - आहार के लिए साधु के आ जाने के अनन्तर मुद्रा आदि का भेद कर या किसी पत्थर आदि से आच्छादित वस्तु को खोल कर देना उद्घाटित दोष है। (१४) मालिकारोहण दोष - ऊपर भाग में रखी हुई खान-पान आदि की वस्तु को सीढ़ी लगाकर उतारना और साधुओं को देना मालिकारोहण दोष है। (१५) आच्छेद्य दोष - राजादि के भय से जो आहार दिया जाता है, वह आच्छेद्य दोष है। (१६) अनिसृष्ट दोष - ईश और अनीश के अनभिमत से अथवा स्वामी और अस्वामी के अनभिमत से आहार देना अनिसृष्ट दोष है। ये १६ उद्गम दोष श्रावकों के आश्रित हैं। Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मापासण्डिका - ३५५ १६ उत्पादन दोष (१) धातृ दोष - बालकों के लालन-पालन की शिक्षा देकर आहार ग्रहण करना धातृ दोष है। (२) दूतत्व दोष - दूरस्थ बन्धुओं के समाचार लाना-ले जाना दूतत्व दोष है। (३) भिषग्वृत्ति दोष - आहार के लिए गजचिकित्सा, बाल-चिकित्सा, विषचिकित्सा आदि बतलाना भिषावृत्ति दोष है। (४) निमित्त दोष - स्वर, अन्तरिक्ष, भौम, अङ्ग, व्यजन, छिन्न, लक्षण और स्वप्न-इन आठ निमित्त कारणों को बताकर भिक्षा उपार्जन करना निमित्त दोष है। (५) इच्छाविभाषण दोष - किसी श्रावक के यह पूछने पर कि हे मुनिवर ! दीन-हीन प्राणियों को दान देने से पुण्य होता है या नहीं ? उस श्रावक की इच्छानुसार उत्तर देना इच्छाविभाषण दोष है। (६) पूर्वस्तवन दोष - हे जिनदत्त ! तू जगत् में विख्यात दाता है-तेरे पिता भी महान् दानी थे- इस प्रकार प्रशंसा-वचनों द्वारा गृहस्थ को आनन्दित करके आहार करना पूर्वस्तवन दोष है। (७) पश्चात्स्तवन दोष - आहार करने के बाद हे जिनदत्त ! तू बड़ा दानी है, तेरे घर के आहार जैसा आहार किसी के यहाँ नहीं बनता-इस प्रकार की प्रशंसा करना पश्चात्स्तवन दोष है। (८) क्रोध दोष - क्रुद्ध होकर आहार लेना क्रोध दोष है। (९) मान दोष - मान-कषाय सहित आहार लेना मान दोष है। (१०) माया दोष - मायाचार से आहार लेना माया दोष है। (११) लोभ दोष - लोभ-कषाय सहित आहार लेना लोभ दोष है। (१२) वश्य कर्म - वशीकरण मन्त्र के द्वारा आहार प्राप्त करना वश्यकर्म दोष है। (१३) स्वगुणस्तवन दोष - अपने कुल, जाति, तप आदि का गुणगान करना स्वगुणस्तवन दोष है। (१४) मन्त्रोपजीवन दोष - अङ्ग-शृंगारकारी पुरुषों को पठित सिद्ध आदि मन्त्रों का उपदेश देना मन्त्रोपजीवन दोष है। (१५) चूर्णोपजीवन दोष - चूर्णादि का उपदेश देकर अन्नोपार्जन करना चूर्णोपजीवन दोष है। (१६) विद्योपजीवन दोष - आहार के लिए गृहस्थों को सिद्ध-विद्या साधित-विद्या प्रदान करना विद्योपजीवन दोष है। ये १६ उत्पादन दोष पात्र के आश्रित हैं। १० एषणा दोष (१) शंकित दोष - यह वस्तु सेव्य है अथवा असेव्य-ऐसी शंका करते हुए उस वस्तु को आहार में लेना शंकित दोष है। Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ३५६ (२) प्रक्षित दोष - घृत आदि से चिकने पात्र से या हाथ से आहार लेना प्रक्षित दोष है। (३) निक्षिप्त दोष - सचित्त कमल-पत्र आदि पर रखा हुआ आहार लेना निक्षिप्त दोष है। (४) पिहित दोष - सचित्त कमलपत्रादि से ढके हुए अन्न को ग्रहण करना पिहित दोष है। (५) उज्झित दोष - आम, केला आदि फल का अधिक भाग नीचे गिराकर स्वल्प ग्रहण करना अथवा दाता के द्वारा दिये हुए आहार के बहुभाग को नीचे गिराकर थोड़ा सा ग्रहण करना उज्झित दोष है। (६) व्यपहार दोष - आहार देने के पात्रादि को अच्छी तरह से देखे बिना आहार देना व्यपहार दोष (७) दातृ दोष - बिना वस्त्र पहने अथवा एक कपड़ा पहनकर आहार देना नपुंसक, जिसके भूत लगा है, जो अन्धा है, पतित या जाति -बहिष्कृत है, मृतक का दाह-संस्कार करके आया है, तीव्र रोग से आक्रान्त है, जिसके फोडा-फुन्सी है, जो कुलिंगी है, नीचे स्थान में खड़ा है या साधु से ऊँचे आसन पर खड़ा है, जो स्त्री पाँच महीनों से अधिक गर्भवाली है, वेश्या है, दासी हैं, लम्बा बूंघट निकाले हुए है, अपवित्र है, मुख में कुछ खा रही है - इस प्रकार के दाता का आहार देना दातृ दोष है। (८) मिश्र दोष - सचित्तादि से अथवा षट्काय के जीवों से मिश्रित आहार लेना मिश्र दोष है। (९) अपक्क दोष - जिस पानी आदि के रूप, रस, गन्धादि का अग्नि आदि के द्वारा परिवर्तन नहीं हुआ हो उसे आहार में देना अपक्ष दोष है। (१०) लिप्त दोष - आटे आदि से लिप्त चम्मच आदि से अथवा सचित्त जल आदि से लिप्त पात्र या हस्तादि से दिये हुए आहार को लेना लिप्त दोष है। ४ अंगार दोष (१) संयोजन दोष - स्वाद के लिए शीत वस्तु में उष्ण वस्तु अथवा उष्ण वस्तु में शीत वस्तु मिलाकर आहार करना संयोजन दोष है। इस प्रकार के आहार से अनेक रोग भी उत्पन्न हो जाते हैं एवं असंयम की वृद्धि भी होती है। (२) प्रमाणातिरेक दोष - मुनियों के लिए आहार-विधि इस प्रकार बतायी गयी है-कुक्षि के अर्धभाग को अन्न से भरे, एक भाग पेय पदार्थ से पूरित करे तथा एक भाग वायु के संचार के लिए खाली रखे। आहार के प्रति अत्यधिक लालसा होने के कारण जब इस विधि का उल्लंघन किया जाता है तो प्रमाणातिरेक दोष लगता है। प्रमाणातिरेक आहार से ध्यान भंग होता है, अध्ययन का विनाश तथा निद्रा एवं आलस्य की उत्पत्ति होती है। (३) अंगार दोष - इष्ट अन्न-पानादि की प्राप्ति हो जाने पर राग के वशीभूत होकर अधिक सेवन करना अंगार दोष है। (४) धूम दोष - अनिष्ट अन्न-पानादि की प्राप्ति होने पर द्वेष करते हुए आहार करना घूम दोष है। Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इनके अतिरिक्त और दोष हैं उन्हें बताते हैं - (१) भरणकण्डिका आहारमें नख, बाल, हड्डी, मांस, पीप, रक्त, चर्म द्वीन्द्रिय आदि जीवोंका कलेवर आजाय तो आहारको छोड़ देते हैं तथा कण, कुंड, बीज, कंद, मूल और अछिन्न फल आजाय तो यथाशक्य परिहार या अंतराय करते हैं - आहारको छोड़ देते हैं। (२) (३) (४) (५) (६) (19) (८) - ३५७ बत्तीस अन्तराय काक आहारको जाते समय या आहार लेते समय यदि कौवा आदि बींट कर देवे, तो काक नामका अंतराय है। अमेध्य अपवित्र विष्ठा आदिसे पैर लिम हो जावे । छर्दि तपन हो जावे | रोधन- आहारको जाते समय कोई रोक देवे । रक्तस्राव-अपने शरीरसे या अन्यके शरीरसे चार अंगुल पर्यंत रुधिर बहता हुवा दीखे अश्रुपात दुःखसे अपने या परके अश्रु गिरने लगे । जान्वधपरामर्श- यदि मुनि जंघाके नीचेका भाग स्पर्श करले । जानूपरिव्यतिक्रम-यदि मुनि जंघाके ऊपरका व्यतिक्रम कर ले अर्थात् जंघासे ऊँची सीढ़ी पर इतनी ऊँची एक ही डंडा या सीढ़ी पर चढ़े तो जानूपरिव्यतिक्रम अंतराय है । नाभ्योनिर्गमन - यदि नाभिसे नीचे शिर करते आहारार्थ जाना पड़े। (९) (१०) प्रत्याख्यात सेवन जिस वस्तुका देव या गुरुके पास त्याग किया है वह खानेमें आ जाय । (११) जंतुवध कोई जीव अपने सामने किसी जीवका वध कर देवे । (१२) काकादि पिंडहरण- कौवा आदि हाथसे ग्रासका अपहरण कर ले। (१३) ग्रासपतन - आहार करते समय मुनिके हाथसे ग्रास प्रमाण आहार गिर जावे । (१४) पाणी जंतुबंध - आहार करते समय कोई मच्छर, मक्खी आदि जंतु हाथमें मर जावे । (१५) मांसादि दर्शन - मांस, मद्य या मरे हुए का कलेवर देख लेनेसे अंतराय है। (१६) पादांतर जीव-यदि आहार लेते समय पैरके बीचमें से पंचेन्द्रिय जीव चूहा आदि निकल जाय । (१७) देवाद्युपसर्ग - आहार लेते समय देव, मनुष्य या तिर्थंच आदि उपसर्ग कर देवें । (१८) भाजनसंपात - दाताके हाथसे कोई बर्तन गिर जाय । (१९) उच्चार यदि आहारके समय शरीर से मल निकल जावे । Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकाण्डका - ३५४ (२०) प्रस्रवण-यदि आहारके समय मूत्र-विसर्जन हो जावे | (२१) अभोज्य गृहप्रवेश-यदि आहारके समय चांडालादि का घरमें प्रवेश हो जावे। (२२) पतन-आहार करते समय मूर्छा आदिसे गिर जाने पर। (२३) उपवेशन-आहार करते समय बैठ जानेपर | (२४) सदंश-कुत्ते-बिल्ली आदिके काट लेने पर | (२५) भूमिस्पर्श-सिद्धभक्तिके अनंतर हाथसे भूमि का स्पर्श हो जाने पर। (२६) निष्ठीवन-आहार करते समय कफ, थूक आदि निकलने पर। (२७) वस्तुग्रहण-आहार करते समय हाथसे कुछ वस्तु उठा लेने पर। (२८) उदर कृमिनिर्गमन-आहार करते समय उदरसे कृमि आदि निकलने पर | (२९) अदत्तग्रहण-नहीं दी हुई किञ्चित् भी वस्तु ग्रहण कर लेने पर। (३०) प्रहार-स्वयं अपने ऊपर या अन्य किसी के ऊपर शत्रु आदि के द्वारा शस्त्र आदि से प्रहार कर दिये जाने पर। (३१) ग्रामदाह-आहार के समय ग्राम आदि में अग्नि लग जाने पर। (३२) पादेन ग्रहण-पैरों से किञ्चित् भी वस्तु ग्रहण कर लेने पर। इन बत्तीस कारणों के तथा इसी प्रकार के अन्य भी कारण मिलने पर साधुजन आहार का त्याग कर देते हैं। आदाननिक्षेपण समिति सहसा दृष्ट-दुर्दृष्टाप्रत्यवेक्षण-मोचिनः । भवत्यादाननिक्षेप-समितिव्रत-वर्तिनः ।।१२५४॥ अर्थ - पीछी, कमण्डलु, शास्त्र एवं चौकी आदि वस्तुओं को देख-शोध कर रखना और उठाना आदाननिक्षेपण समिति है। बिना देखे और बिना मार्जन किये शास्त्रादि का ग्रहण करना या रखना सहसा नामका प्रथम दोष है। नेत्रों से देखे बिना मात्र मार्जन करके वस्तु को रखना-उठाना अनाभोग नाम का द्वितीय दोष है। नेत्रों से देखकर किन्तु मार्जन किये बिना वस्तु को रखना-उठाना दुष्प्रमृष्ट या दुर्दृष्ट नामका तृतीय दोष है और देख भी लिया तथा प्रमार्जन भी कर लिया किन्तु ये दोनों क्रियाएँ उन्मनस्कता पूर्वक करके वस्तु रखी-उठाई गई तो अप्रत्यवेक्षण नामका चतुर्थ दोष होता है। इन चार दोषों का परिहार करते हुए भली प्रकार वस्तु का ग्रहण-मोचन करना ही साधु की आदाननिक्षेपण समिति है।।१२५४ ॥ Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ३५९ प्रतिष्ठापन समिति अनेनैव प्रकारेण, प्रतिष्ठापनका मता। समितिस्त्यजतस्त्याज्यं प्रदेशे स्थण्डिले यतेः ।।१२५५ ॥ अर्थ - जिस प्रकार आदाननिक्षेपण समिति में देखने-शोधने का विधान है उसी विधान से त्यागने योग्य मल-मूत्र आदि का जन्तुरहित और छिद्ररहित प्रदेश में त्याग करना साधु की प्रतिष्ठापन समिति है।।१२५५ ।। प्रश्न - प्रतिष्ठापन समिति के निर्दोष पालन हेतु और कौन-कौन से विधान हैं तथा रात्रि में मल-त्याग की क्या विधि है? उत्तर - साधुजन मल-मूत्र का विसर्जन निर्जन्तुक स्थान में करते हैं। यह स्थान वसतिका से दूर हो, रुकावट रहित हो, हरित तृणादि से रहित हो, गूढ़ हो, विशाल हो, पर्वत के निकट का ठोस प्रदेश हो, ऊसर भूमि हो तथा चट्टान आदि जीवरहित स्थान हो । ऐसे में ही साधुजन अपने शरीर का मलक्षेपण करते हैं। कदाचित् रात्रि में मल-विसर्जन की बाधा हो जावे तो दिन में स्थविर-साधु द्वारा देखे गये स्थान में जाकर वहाँ अपने उल्टे हाध से भूमि .. .र्श कर देखें कि मोई भाग-माजील को नहीं है। इस प्रकार जमीन को देख-शोध कर मलमूत्र का त्याग करना प्रतिष्ठापन या उत्सर्ग समिति कहलाती है। समितिवान् साधु की विशेषता आभिः समितिभिर्योगी, लोके षड्-जीव-सकुले। दोषैहिंसादिभिर्नैव लिप्यते विहरनपि॥१२५६ ।। अर्थ - इन पाँच समिति का सदा पालन करने वाला साधु छह-काय के जीव-समूहों से भरे हुए इस लोक में गमनागमन करता हुआ भी हिंसा आदि दोषों से लिप्त नहीं होता ।।१२५६॥ प्रश्न - श्लोक में आये हुए 'आदि' शब्द से यहाँ किसका ग्रहण करना चाहिए ? उत्तर - प्रमत्तयोग से प्राणघातादि करने का नाम हिंसा है अत: हिंसा आदि से सहित कर्म भी हिंसा ही कहे जाते हैं, क्योंकि कार्य में कारण की प्रवृत्ति अतिप्रसिद्ध है। आदाननिक्षेपण एवं प्रतिष्ठापन आदि समिति में निमित्तभूत गुणों से युक्त साधु प्रवृत्ति करते हुए भी हिंसा आदि पापों से लिप्त नहीं होता। अर्थात् उसको पापबन्ध नहीं होता, कारण कि वह मुनि प्रमादरहित है। श्लोक में आये हुए ‘आदि' शब्द से पृथिवीकायिक आदि पाँच स्थावरकाय और द्वीन्द्रियादि त्रसकाय, इन छह काय के जीवों का परितापन करना अर्थात् उन्हें कष्ट देना, उनका परस्पर में संघट्टन कर देना तथा उनके अंगोपांगों को छिन्न-भिन्न करना इत्यादि दोष भी ग्रहण किये गये हैं। समितो लिप्यते नाघेर्जीव-मध्ये चरन्नपि । स्निग्धं कमलिनीपत्रं, सलिलैरिव षा: स्थितम् ॥१२५७॥ अर्थ - जैसे चिकना कमलिनी पत्र जल में स्थित रहते हुए भी जल से लिप्त नहीं होता वैसे ही पाँचों समितियों का प्रतिपालक मुनि जीवों के मध्य आचरण करता हुआ भी कभी पापों से लिप्त नहीं होता ॥१२५७।। Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ३६० बध्यते समितो नायैः, काय-मध्ये भ्रमन्नपि । सन्नद्धो विध्यते कुत्र, शर-वर्षे रणाङ्गणे॥१२५८ ।। अर्थ - षट्काय जीक्समूह के मध्य विचरण करता हुआ भी समितिधारक मुनि हिंसादि पापों से नहीं बंधता। क्या कभी रणाभ्यासी एवं दृढ़ कवच से युक्त योद्धा युद्धभूमि में बाणों की वर्षा होते हुए भी बाणों से बेधित होता है? अर्थात् नहीं होता ॥१२५८ ।। बालश्शरति यत्रैव, तत्रैव परिहारवित् । बध्यते कल्मषैर्बाल, इतरो मुच्यते पुनः ।।१२५९ ।। अर्थ - जीवों की रक्षा के उपायों को न जानने वाला अज्ञानी जहाँ अर्थात् जिस क्षेत्र में विचरण करता हुआ जिन-जिन क्रियाओं को करता हुआ पापों से बँधता है, जीवों की रक्षा के उपायों को जानने वाला साधु वहीं अथात् उसी क्षेत्र मे विचरण कर, वहीं क्रियाएं करता हुआ पापकर्म से बद्ध नहीं होता अपितु उन पापों से मुक्त ही होता है ||१२५९॥ समितियों का उपसंहार यदा तदा ततश्चेष्टां, चिकीर्ष: समितो भव। पुराणं क्षिप्यते कर्म, नाप्नोति समितो नवम् ।।१२६० ।। अर्थ - निर्यापकाचार्य क्षपक को शिक्षा देते हुए कहते हैं कि हे क्षपक ! तुम जब-जब गमनागमन करना चाहो, बोलना चाहो, आहार-पानादि करना चाहो तब-तब समितियों में तत्पर रह कर ही करो। क्योंकि सम्यक् प्रवृत्ति करने वाला साधु नवीन-नवीन कर्मों का बन्ध नहीं करता अपितु पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा ही करता है।।१२६० ।। राद्धान्त-मातरौऽष्टौ, ता: पान्ति रत्नत्रयं यतेः । जनन्यो यत्नतो नित्यं, तनुजस्येव जीवितम् ।।१२६१ ।। अर्थ - जैसे माता, बालक के जीवन की नित्य ही यत्नपूर्वक रक्षा करती है, वैसे ही पाँच समिति एवं तीन गुप्तिरूप अष्ट प्रवचन माता मुनि के सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र की रक्षा करती है ।।१२६१।। चारित्राराधना - पाँच महाव्रत, पाँच समिति और तीन गुप्तिरूप तेरह प्रकार के चारित्र को जो साधु निर्दोषरीत्या पालन करते हैं उन्हीं के चारित्र आराधना होती है। अहिंसा आदि व्रतों को स्थिर करने के लिए एक-एक व्रत की पाँच-पाँच भावनाएँ कहीं गई हैं। अहिंसाव्रत की भावनाएं मनोगुप्त्येषणादान-निक्षेपेर्येक्षिताशिताः। महाव्रते मता जैनैरादिमाः पञ्च भावनाः ।।१२६२ ॥ अर्थ - महाव्रतों में प्रथम महाव्रत अहिंसा है। मनोगुमि, एषणा समिति, आदाननिक्षेपण समिति, ईर्या समिति और आलोकित आहार-पान, इसकी ये पांच भावनाएँ जैनों के द्वारा मानी गई हैं ॥१२६२॥ Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ३६१ प्रश्न - इन भावनाओं के क्या लक्षण हैं ? उत्तर - मनोगुप्ति और समितियों के लक्षण पूर्व में कहे जा चुके हैं, सूर्य के स्पष्ट प्रकाश में शोधन करके आहार-पान ग्रहण करना आलोकित आहार-पान नाम की पाँचवीं भावना है। प्रश्न - एषणा के लिए कौन-कौन से काल कहे गये हैं? उत्तर - एषणा अर्थात् आहार की खोज के लिए मुख्यतः भिक्षा-काल, बुभुक्षा काल और अवग्रह काल के भेद से तीन काल कहे गये हैं। भिक्षाकाल - अमुक मासों में, अमुक ग्राम एवं नगरों में, अमुक मुहल्ले में एवं अमुक कुल आदि में उनके भोजन का कौन सा समय है, धुंआ आदि के चिह्न देखकर भिक्षा के समय का निर्धारण करना। बुभुक्षा काल - मेरी क्षुधा आज मन्द है, मध्यम है या तीव्र है, इस प्रकार अपने शरीर की स्थिति की परीक्षा करना। ___ अवग्रह काल - मैंने पहले अमुक-अमुक का त्याग किया था कि मैं इस प्रकार का आहार नहीं लूंगा और आज में यह-यह नियम और लूँगा। या आज मेरा यह नियम है, इस प्रकार का विचार करना। प्रान । साहार को सहते समय को को सायानियाँ आवश्यक है ? उत्तर - आहार को जाते समय ईर्या समिति से चार हाथ जमीन देखकर चलना, न अधिक शीघ्रता से. न रुक-रुक कर तथा किसी भी प्रकार वेग एवं उद्वेग के बिना गमन करना चाहिए। गमन के समय दोनों हाथ लटकते हों, चरण निक्षेप अधिक अन्तराल से न हो, शरीर विकार एवं कुचेष्टा रहित हो, सिर थोड़ा झुका हुआ हो, मार्ग में जल एवं कीचड़ न हो एवं त्रस जीवों की तथा हरितकाय की बहुलता न हो, तथा यदि मार्ग में ऊँट, बैल, हाथी आदि पशुओं की या कलहकारी स्त्री-पुरुषों की बहुलता हो तो अपना मार्ग बदल दें, अथवा उनसे दूर होकर निकलें, पक्षी तथा तृण खाने वाले मृगादि पशु भयभीत न हों, और अपना भोजन-पान छोड़कर न भागें। आवश्यकता होने पर पीछी से अपने शरीर की प्रतिलेखना करते जावे। प्रश्न - गमनागमन करते हुए शरीर की प्रतिलेखना की आवश्यकता क्यों होगी ? उत्तर - यदि मार्ग में निरन्तर इधर-उधर फलादि बिखरे पड़े हों या त्रसजीवों की बहुलता होने से या मार्ग का मोड़ आदि आ जाने से मार्ग बदलना पड़े तो, या छाया से धूप में, धूप से छाया में जाना पड़े तो, या भिन्न वर्णवाली भूमि में प्रवेश करना पड़े तो पीछी से अपने शरीर की प्रतिलेखना आवश्यक है। प्रश्न - आहार के लिए कौन-कौन स्थान त्याज्य हैं ? उत्तर - जिस घर में गाना-नाचना हो रहा हो, झण्डियाँ लगी हों उन घरों में न जावें। तथा मतवाले, शराबी, जुआरी, वेश्या, लोकनिन्दित कुल, शूद्र, यज्ञशाला, नाट्यशाला, गायनशाला, दानशाला, विवाह वाला घर, जिन घरों में प्रवेश करने का निषेध हो, आगे रक्षक खड़ा हो और जहाँ प्रत्येक व्यक्ति न जा सकता हो वहाँ अथवा ऐसे घरों में न जावें। दरिद्रकुलों में एवं आचारहीन सम्पन्न कुलों में भी न जावें। द्वार की सांकल अथवा कपाट बन्द हों तो उन्हें खोल कर प्रवेश न करें; बालक, बछड़ा, कुत्ता एवं मेढ़ा आदि का उल्लंघन करके न जावें; बीज, पुष्प एवं फूलादि पर पैर रख कर न जावें। तत्काल लीपी हुई अथवा एकदम गीली भूमि पर न जावें, जिस घर पर अन्य भिक्षार्थी भिक्षा के लिये ही खड़े हों उन घरों में प्रवेश न करें। जिस परिवार Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ३१२ के लोग घबराये हों, उनके मुख पर भय, विषाद एवं दीनता या असमर्थता झलक रही हो उन घरों में प्रवेश न करें अथवा वहाँ न ठहरें। सभी भिक्षार्थियों का जहाँ तक प्रवेश है वहाँ से आगे न जावें। अपना आगमन बताने के लिए याचना या अव्यक्त शब्द न करें। एकान्त घर में, उद्यान गृह में, केले, लता तथा झाड़ियों आदि से बने घरों में आदरपूर्वक आतिथ्य प्राप्त होने पर भी प्रवेश न करें। जो स्थान जीव-जन्तु से रहित हो, पवित्र हो, रोक-टोक से रहित हो एवं आने-जाने के मार्ग से रहित हो वहाँ सुकुल गृहस्थों की प्रार्थना से ठहरें। प्रश्न - साधु को अपनी एषणा समिति की शुद्धि के लिए आहार के समय और क्या-क्या सावधानियाँ आवश्यक हैं ? उत्तर - गृहप्रवेश कर नवधा भक्ति के उपरान्त साधु सम और छिद्र रहित जमीन पर दोनों पैरों के मध्य में मात्र चार-अंगुल का अन्तर रख कर निश्चल खड़ा हो, उस समय दीवाल या स्तम्भादि का सहारा न ले। दाता के आने-जाने का मार्ग, उसके खड़े होने का स्थान तथा करछलु आदि बर्तनों की शुद्धता की ओर ध्यान रखे । जो स्त्री बालक को दूध पिलाती हो, पाँच मास से अधिक गर्भिणी हो, मुख पर घूघट हो, अथवा लज्जा से मुख फेर कर खड़ी हो एवं जो दाता शंकालु हो, गूंगा हो, रोगी, अतिवृद्ध, बालक, पागल, पिशाच, मूढ़, अन्धा, डरपोक, दुर्बल एवं दाता के गुणों से रहित या बिलकुल अनभिज्ञ हो उनसे आहार न लेवे। टूटे-फूटे बर्तनों से या जूठे पात्रों से या कमलपत्र से ढके हुए बर्तनों से आहार ग्रहण न करे। मांस, मधु, मक्खन और कन्द सर्वथा ग्रहण न करे, बिना विदारे फल, हरे मूल, पत्र एवं अंकुरित वनस्पति और धान्य भी ग्रहण न करे, इन पदार्थों से स्पर्शित हो जाने वाला आहार भी ग्रहण न करे । जिस भोजन का रूप, रस, गन्ध बिगड़ गया हो, जिस पर फफून्द आ गई हो, जिसमें दुर्गन्ध आ रही हो, जो पुराना या अमर्यादित हो गया हो तथा जिसमें जीव-जन्तु गिर गये हों ऐसा पदार्थ न तो खाना चाहिए, न किसी को देना/ दिलाना चाहिए और न वह छूना ही चाहिए। जो आहार छियालीस दोषों में से और बत्तीस अन्तरायों में से एक भी दोष या एक भी अन्तराय से दूषित हो तो वह भी ग्रहण नहीं करना चाहिए। ये सब एषणा शुद्धि के समीचीन उपाय है। असत्य महाव्रत की भावनाएँ हास्य-लोभ-भय-क्रोध-प्रत्याख्यानानि योगिनः । सूत्रानुसारि-वाक्यं च, द्वितीये पञ्च भावनाः ॥१२६३ ॥ अर्थ - हास्य का त्याग, लोभ का त्याग, भय का त्याग, क्रोध का त्याग और सूत्रानुसार वचन बोलना, साधुओं के भाने योग्य द्वितीय व्रत की ये पाँच भावनाएँ कही गई हैं ।।१२६३ ।। प्रश्न - “सूत्रानुसार सम्भाषण करना अर्थात् बोलना", इसका क्या भाव है ? उत्तर - सत्य, असत्य, सत्यासत्य एवं न सत्य न असत्य अर्थात् अनुभय, इस प्रकार वचन के चार भेद हैं। इनमें से असत्य और उभय ये दो प्रकार के वचन साधु को नहीं बोलने चाहिए। झूठ बोलने के जितने कारण हैं उन सब को त्याग देने पर ही असत्य वचन का त्याग हो सकता है, अन्यथा नहीं। आगमानुसार साधु को सत्य और अनुभय ये दो प्रकार के वचन ही बोलने चाहिए, यही 'सूत्रानुसार संभाषण' का भाव है। Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ३६३ अचौर्य महाव्रत की भावनाएँ असम्मताग्रहः साधो:, सम्मतासक्त-बुद्धिता। दीयमानस्य योग्यस्य, गृहीतिरुपकारिणः ।।१२६४॥ अप्रवेशोऽननुज्ञाते, योग्य-याञ्चा-विधानतः। तृतीये भावना: पञ्च, प्राज्ञैः प्रोक्ता महाव्रते ॥१२६५ ।। अर्थ - असम्मत का अग्रहण, सम्मत में भी अनासक्त बुद्धि, दीयमान योग्य वस्तु में अपनी उपकारी वस्तु का ही ग्रहण, अननुज्ञात में अप्रवेश और योग्य वस्तु की याचना तृतीय अचौर्य महाव्रत की ये पाँच भावनाएँ प्राज्ञ पुरुषों द्वारा कही गई हैं ॥१२६४-१२६५ ।। प्रश्न - इन पाँनों भावनाओं का विशेष नितरण किस प्रकार है ? उत्तर - इनका विशेष विवरण इस प्रकार है - असम्मत का अग्रहण - ज्ञानादि के उपकरण एवं कमण्डलु आदि जिस साधु के हैं उनकी स्वीकृति बिना उन्हें ग्रहण नहीं करना। ___ सम्मत में भी अनासक्ति - स्वामी की स्वीकृति मिलने पर स्वीकार की गई वस्तु में भी आसक्ति नहीं रखना । अर्थात् यह वस्तु बहुत सुन्दर है, यदि मैं इसे वापिस न दूं तो कैसा रहेगा? अथवा जब तक वे मुझे ऐसी ही वस्तु मंगा कर नहीं देंगे तब तक यह वस्तु मैं वापिस नहीं दूंगा, या ऐसी ही वस्तु मैं मंगा कर ही चैन लूँगा, इत्यादि प्रकार के आसक्तिरूप परिणाम नहीं करना। दीयमान में भी मात्र उपकारी वस्तु का ही ग्रहण - अन्य साधुजनों द्वारा योग्य वस्तु दी जाने पर भी "बस, इतनी वस्तु से ही मेरा प्रयोजन सिद्ध हो जायगा, मुझे इसके अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं चाहिए" ऐसी उत्तम भावना से प्रयोजनभूत का ही ग्रहण करना। अननुज्ञात में अप्रवेश - आहारचर्या के समय एवं वसतिका में गृह-स्वामी की आज्ञा बिना घर में प्रवेश नहीं करना । अधवा “आप यहाँ ठहों" इस प्रकार कह कर जब तक गृहस्वामी आज्ञा न दे तब तक वहाँ र आहार हेतु रुके, न वसतिका में ही प्रवेश करे । अथवा गृहस्वामी ने प्रवेश के लिए मना कर दिया हो तो भी प्रवेश न करे। योग्य वस्तु की याचना - ज्ञान एवं संयमोपकरण की आपको आवश्यकता हो और वे उपकरण शास्त्र-अविरुद्ध हों तो उन्हें भी दूसरों से याचना करके ही लेना। इस प्रकार अचौर्यव्रत की ये पाँच भावनाएँ Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ३६४ ब्रह्मचर्यव्रत की पाँच भावनाएँ महिलालोकनालापौ, चिरन्तन-रत-स्मृतिम् । वासं संसक्त-वस्तूनां, बलिष्ठाहार-सेवनम् ।।१२६६ ॥ योगिनो मुच्यमानस्य, विरागीभूत-चेतसः । तुरीये भावनाः पञ्च, सम्पद्यन्ते महाव्रते ।।१२६७ ॥ अर्थ - स्त्री के रूप का अवलोकन, स्त्रियों से सम्भाषण, पूर्व में भोगे हुए भोगों की चिरकाल तक स्मृति, स्त्रियों द्वारा संसर्गित स्थान पर निवास या उठना-बैठना और बलिष्ठ आहार का सेवन, इन पाँच प्रकार के कार्यों को छोड़ देने वाले विरागी चित्त युक्त साधु के चतुर्थ ब्रह्मचर्य महाव्रत की पाँच भावनाएँ सम्पन्न होती हैं ।।१२६६-१२६७ ।। अपरिग्रह महाव्रत की भावनाएं यते: स्पर्श रसे गन्धे, वर्णे शब्दे शुभाशुभे। रागद्वेष-परित्यागो, भावना: पञ्च पञ्चमे ॥१२६८ ।। अर्थ - शुभ और अशुभ स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण और शब्द में क्रमश: राग और द्वेष का त्याग कर देना साधुओं के पाँचवें परिग्रहत्याग महाव्रत की पाँच भावनाएँ कही गई हैं ॥१२६८ ।। प्रश्न - भावना किसे कहते हैं और इनसे क्या लाभ है ? उत्तर - वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम की, चारित्रमोह कर्म के उपशम या क्षयोपशम की एवं अंगोपांग नामकमोदय की अपेक्षा रखने वाले आत्मा के द्वारा जिनका बार-बार अनुशीलन किया जाता है, उन्हें भावना कहते हैं। अथवा जाने हुए अर्थ को पुन: पुन: चिन्तन करना भावना है। लाभ - जैसे औषधि में आँवले की या पीपल आदि के रस की बार-बार भावना देने से उसके गुणधर्म या उसकी शक्ति बढ़ जाती है; यदि सौ बार भावना दी गई है या हजार बार भावना दी गई है तो उस औषधि में रोगनाशक शक्ति शतगुणी या सहस्रगुणी बढ़ जाती है, वैसे ही बार-बार भावनाएँ भाने से महाव्रतों की शक्ति वृद्धिंगत हो जाती है। उनसे अधिक-से-अधिक कर्म रूपी रोग नष्ट हो जाते हैं अर्थात् निर्जरा हो जाती है। Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ३६५ प्रश्न - भावनाओं का कथन कौन-कौन से ग्रन्थों में है और उनमें क्या अन्तर है ? उत्तर महाव्रत पाँच महाव्रतों की पच्चीस भावनाएँ मूलाचार (वट्टकेर) | तत्त्वार्थ सूत्र पृ. २७७ से मरणकण्डिका पृ. ३६४ से पाक्षिक प्रतिक्रमण मनोगुप्ति अहिंसा महाव्रत की पाँच भावनाएं एषणा समिति ईया समिति आ. निक्षेपण स. आलोकित आहार मनोगुप्ति एषणा समिति ईर्या समिति आ. निक्षेपण स. आलोकित भोजन मनोगुप्ति बचन गुप्ति ईया समिति आ. निक्षेषण स. आलोकित भोजन मन से गुप्त वचन से गुप्त ईर्या समिति शरीर संयमित एषणा समिति हास्य त्याग लोभ त्याग भय त्याग क्रोध त्याग सूत्रानुसार भाषण क्रोध त्याग भय त्याग लोभ त्याग हास्य त्याग अनुवीचि भाषण क्रोध त्याग लोभ त्याग भय त्याग हास्य त्याग अनुवीचि भाषण क्रोध त्याग लोभ त्याग भय त्याग हास्य त्याग अनुवीचि भाषण सत्य महाव्रत । की पांच भावनाएँ अचीर्य महाव्रत की पाँच भावनाएं असंमत का अग्रहण संमत में अनासक्ति प्रयोजनभूत का ग्रहण अननुज्ञात में अप्रवेश योग्य वस्तु की याचना वाचना समनुज्ञापना अपनत्व का अभाव व्यक्त प्रतिसेवना उप.का अनु. सेवन शून्यागार वास विमोचिता बास परोपरोधाकरण भिक्षा शुद्धि सधांविसंवाद शरीरमात्र धन है शरीर की अशुचिता शरीर में अनित्यत्व परिग्रह में निर्वृत्ति भोजन संतुष्टि ब्रह्मचर्य महाव्रत की पाँच भावनाएँ स्त्री अवलोकन त्याग स्त्री संभाषण त्याग पूर्वभुक्त चिंतन त्याग स्त्रीसंसर्गित निवासत्याग बलिष्ठाहार त्याग स्त्री अवलोकन त्याग । स्त्रीरागकथा श्र, त्याग | स्त्री कथा त्याग पूर्वभुक्त अस्परण स्त्री अंगावलोकन त्याग स्त्री संसर्ग त्याग | स्त्री से हास्य त्याग विकथा त्याग वृष्येष्ट रस त्याग | स्त्री से क्रीड़ा त्याग प्रणीत रस विरति स्वशरीर संस्कार त्याग | स्त्री अवलोकन त्याग मनोज्ञामनोज्ञ अपरिग्रह महाव्रत की पाँच भावनाएँ शुभाशुभ स्पर्श में रागद्वेष त्याग रस में रागद्वेष त्याग गंध में रागद्वेष त्याग वर्ण में रागद्वेष त्याग शब्द में रागद्वेष त्याग स्पर्श में रागद्वेषाभाव रस में रागद्वेषाभाव गंध में रागद्वेषाभाव वर्ण में रागद्वेषाभाब शब्द में रागद्वेषाभाव स्पर्श में रागद्वेष त्याग | सचित्त द्रव्य विरति रस में रागद्वेष त्याग | अचित्त द्रव्य विरति गन्ध में रागद्वेष त्याग बाह्य द्रव्य विरति वर्ण में रागद्वेष त्याग अभ्यन्तर द्रव्य वि. शब्द में रागद्वेष त्याग | २४ परिग्रह विरति Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ३६६ इस प्रकार पाँच महाव्रतों की पाँच-पाँच भावनाओं में अमितगति आचार्य, वट्टकेर स्वामी, उमास्वामी और गौतम स्वामी के विवेचन में सत्य-महाव्रत की भावनाओं में तो समानता है किन्तु शेष में जो क्वचित् अन्तर है वह भाव की अपेक्षा तो सदृश ही है, नाम से अवश्य भेद है। भावनाओं का माहात्म्य भावना भावयन्नेताः, संयतो व्रत-पीडनम् । विदधाति न सुप्तोऽपि, जागरूकः, कथं पुनः ।।१२६९।। अर्थ - इन पच्चीस भावनाओं को भाने वाला साधु गहरी निद्रा में सोता हुआ भी अपने व्रता का घात नहीं करता अर्थात् व्रतों में दोष नहीं लगाता, तब जाग्रत अवस्था में तो दोष कैसे लगा सकता है? ॥१२६९ ।। क्षपक को आचार्य का उपदेश त्वमतः समिती: पञ्च, भावयस्वैक-मानसः । महाव्रतान्यखण्डानि, निश्छिद्राणि भवन्ति ते॥१२७० ।। भावनाः समिति-गुप्तयो यत्तेर्वर्धयन्ति फलदं महाव्रतम् । शर्मकारि रजसां निरासकाश्चारु-सस्यमिव काल-वृष्टयः ॥१२७१ ।। इति महाव्रत-वृष्टिः। अर्थ - इन भावनाओं का माहात्म्य जान कर हे क्षपक ! तुम एकाग्न मन से इन भावनाओं को भावो और पाँच समितियों का पालन करो। इससे तुम्हारे महाव्रत अखण्ड और निर्दोष बने रहेंगे ।।१२७० ।। हे क्षपक ! जैसे धूल-मिट्टी आदि का निरसन करने वाली समायानुकूल होने वाली वर्षा सुन्दर एवं सुखदायक धान्य की वृद्धि करती है, उसी प्रकार पच्चीस भावनाएँ, पाँच समितियाँ और तीन गुप्तियाँ, मुनि को मुक्तिरूपी फल देने वाले महाव्रतों की वृद्धि करती हैं, अत: इनका प्रमाद रहित होकर पालन करो।।१२७१॥ इस प्रकार महाव्रतों की वृद्धि करने वाली भावनाओं का वर्णन समाप्त । शल्य व्रतरूप परिणामों के घात में निमित्त होते हैं, अत: उनके त्याग का उपदेश महाव्रतानि जायन्ते, निःशल्यस्य तपस्विनः । निदान-वञ्चना-मिथ्यादर्शनैर्हन्यते व्रतम् ।।१२७२ ।। अर्थ - नि:शल्य तपस्वी के ही महाव्रत होते हैं, क्योंकि निदान, माया और मिथ्यादर्शन इन तीन शल्यों द्वारा व्रतों का घात होता है।।१२७२ ।। प्रश्न - शल्य किसे कहते हैं ? और वे कौन-कौन से हैं ? उत्तर - 'शृणाति' अर्थात् जो कष्ट देता है उसे शल्य कहते हैं। जैसे शरीर में घुस जाने वाला बाण या काँटा कष्ट देता है, वैसे ही अन्तरंग में घुसा हुआ मिथ्यात्वादि रूप परिणाम प्राणी को कष्ट पहुँचाने में निमित्त है अतः उसे भी 'शल्य' कहा जाता है। मिथ्यात्व, माया और निदान-ये तीन शल्य होते हैं। Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ T ! ↓ हैं ? मरणकण्डिका - ३६७ प्रश्न - इन तीन शल्यों के सामान्य लक्षण क्या हैं और ये शल्य व्रतों के घात में निमित्त कैसे बनते उत्तर - तत्त्वों की अश्रद्धारूप आत्म-परिणाम मिध्यात्व शल्य है । छल-कपटरूप परिणाम माया शल्य है और धार्मिक अनुष्ठान से भोगप्राप्तिरूप आत्मपरिणाम निदान शल्य है। मिथ्यात्व, सम्यक्त्व का घातक है और सम्यक्त्व बिना चारित्र सम्यक्चारित्र नहीं होता तथा सम्यक्चारित्र बिना व्रत नहीं होता, अतः स्वराः सिद्ध हो गया कि मिथ्याचे शल्य व्रत का घातक है। अपने व्रतों में लगे हुए दोषों को छिपाना माया है और यदि आलोचना करके दोषों की शुद्धि नहीं की जायगी तो व्रतों का ही घात होगा। साधु का रत्नत्रय धर्म के अतिरिक्त भोगादि में उपयोग जाना निदान है। ऐसे परिणामों से सम्यक्त्व मलिन होता है, जो व्रत के घात का प्रकर्षतम निमित्त है, इसीलिए शल्यों को व्रत - घातक कहा गया है। निदान शल्य और उसके भेद निषेद्ध सिद्धि - लाभस्य, विभवस्येक कल्मषम् । निदानं त्रिविधं शस्तमशस्तं भोग- कारणम् ।। १२७३ ।। अर्थ - प्रशस्त निदान, अप्रशस्त निदान और भोगकृत निदान के भेद से निदान शल्य तीन प्रकार का है। मुक्तिलाभ का कारण रत्नत्रय है और एकमात्र पापस्वरूप होने के कारण यह निदान शल्य रत्नत्रय का निषेधक अर्थात् घातक है || १२७३ ।। प्रशस्त निदान नृत्त्वं सत्त्वं बलं वीर्यं, संहतिं पावनं कुलम् । निदानं शस्तमुच्यते ।। १२७४ ।। वृत्ताय याचमानस्य, अर्थ - पूर्ण चारित्र पालने के लिए मुझे पुरुषत्व, सत्त्व, बल, वीर्य, संहति एवं पवित्र कुल प्राप्त हो, इस प्रकार याचना करना प्रशस्त निदान है ।। १२७५ ।। प्रश्न इन नृत्व, सत्त्वादि के क्या लक्षण हैं ? उत्तर - नृत्व - संयम पालने योग्य पुरुषत्व, सत्त्व- आत्मिक उत्साह, बल- शरीरगत दृढ़ता, वीर्यवीर्यान्तराय कर्म प्रकृति के क्षयोपशम विशेष से उत्पन्न वीर्यरूप परिणाम, संहति उत्तमोत्तम चारित्रधारण भूत अस्थियों के बन्धन विशेष रूप वज्रवृषभनाराच संहनन एवं अनिन्दित पवित्र कुल, ये उत्कृष्ट संयम के साधन मुझे प्राप्त हों, चित्त में इस प्रकार के विचार होना प्रशस्त निदान है । अप्रशस्त निदान अर्हद्रणधराचार्य - सुभगादेयतादिकम् । प्रोक्तं प्रार्थयतेऽशस्तं, मानेन भव-वर्धकम् ॥। १२७५ ।। अशस्तं याचते क्रुद्धो, मरणेऽन्य - वधं कुधीः । अयाचतोग्रसेनस्य, वसिष्ठो हननं यथा ॥ १२७६ ।। - Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ३६८ अर्थ - मान कषाय के वश होकर अर्हन्त पद, गणधर, आचार्य, सौभाग्य एवं आदेयता आदि प्राप्ति की प्रार्थना करना, संसार को बढ़ाने वाला अप्रशस्त निदान है || १२७५ ।। क्रोध कषाय के वश होकर अपने मरण के समय ऐसी याचना करना "कि मैं अन्य के वध का कारण बनूँ" इस प्रकार की खोटी बुद्धि भी अप्रशस्त निदान है। जैसे वशिष्ठ मुनि ने मरते समय उग्रसेन राजा के घात का निदान किया था ॥ १२७६ ॥ * वशिष्ठ मुनिकी कथा वशिष्ठ नामका जटाधारी तपस्वी था। उसे एक बार समीचीन जैनधर्मका उपदेश मिला और कालादि लब्धिको प्राप्त होकर वह जैन दिगंबर मुनि बन गया। अब उन्होंने कठोर तपश्चरण करना प्रारम्भ किया। किसी दिन मथुरा नगरीके निकट वनमें आकर भासोपवास एवं प्रतिमा योग धारण किया। मधुराके राजा उग्रसेन को मुनिकी तपस्या ज्ञात हुई तब वह बड़ी भक्तिसे उनके दर्शन करनेके लिये वनमें गया। राजाने नगरमें कहलाया कि वशिष्ठ मुनिके मासोपवासका पारणा मेरे यहाँ ही होगा। पारणा का दिन आया, महाराज नगरमें प्रविष्ट हुए अन्यत्र पड़गाहन नहीं होनेसे वे राज-महलमें आये किन्तु उस दिन राजा किसी राज्य संबंधी महत्त्वपूर्ण कार्यमें उलझा हुआ था, अत: आहारकी बातको भूल गया। मुनिराज बिना आहार किये वनमें चले गये और पुनः एक मासका उपवास धारण किया। पुनः आहारके लिये आये किन्तु राजा उन्हें आहार नहीं दे पाया। ऐसा तीन बार हुआ। अबकी बार मुनि अत्यंत क्षीणशक्ति हो चुके थे, मार्गमें लौटते हुए चक्कर आनेसे गिर पड़े। तब नागरिक लोग दुःखी होकर कहने लगे कि अहो ! यह हमारा राजा बड़ा निर्दय हो गया है। देखो ! हमको आहार नहीं देने देता और आप भी नहीं देता, इत्यादि । इस वार्ताको वशिष्ठ मुनिने सुना, उनको राजापर अत्यधिक क्रोध आया और क्रोध में आकर निदान कर डाला कि मैं इसी उग्रसेनका पुत्र होऊँ और राजाको कष्ट देऊँ। इसी भाव में उनकी मृत्यु हुई। राजाके यहाँ जन्म हुआ। बालकका नाम कंस रखा। इसने आगे जाकर उग्रसेनको बहुत यातना दी। इसप्रकार अप्रशस्त निदानसे वशिष्ठ मुनिकी तपस्या दूषित हुई। भोगकृत निदान स्वर्गभोगि- नरनाथ-कामिनीः, श्रेष्ठि- चक्रि-बल- सार्थवाहिनाम् । भोग- भूतिमधियो निदानकं, कांक्षतो भवति भोग- कारणम् ।। १२७७ ।। अर्थ- स्वर्ग की, धरणेन्द्र पद की एवं राजापना, भोगों के लिए नारीपना, श्रेष्ठिपना, चक्रवर्तीपना, बलदेव नारायणपना, सार्थवाहपना प्राप्त होने की जो कुबुद्धि वांछा करता है, उसका यह सब चित्तविकार भोगनिदान है ।। १२७७ ॥ वृद्ध-संयम - तपः पराक्रमः, शुद्ध-गुप्तिकरणोऽपि ना ततः । याति जन्मजलधिं सुदुस्तरं, कापरस्य गणना कुचेतसः ।।१२७८ ।। अर्थ- जो उत्कृष्ट संयमधारी हो, तपवृद्ध हो, पराक्रमी हो और भलीप्रकार गुप्तियों का पालन करने Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ३६९ वाला हो तो भी निदान दोष के कारण वह सुदुस्तर भवसमुद्र को प्राप्त होता है। अर्थात् जिसे पार करना कठिन है ऐसे संसार में परिभ्रमण करता है तो फिर खोटी बुद्धिवाले अन्य सामान्य साधु की तो क्या गिनती है ? वह तो संसार सागर में डूबेगा ही॥१२७८ ॥ निदानजन्य मूर्खता निदानं योल्प-सौख्याय, विधत्ते सौख्य-निस्पृहः । काकिण्या स मणि दत्ते, शङ्के कल्याण-कारणम् ॥१२७९ ॥ अर्थ - जो मुक्ति के उत्कृष्ट सुख का अनादर करके भोगजन्य अल्प सुखों का निदान करता है, वह बहुमूल्य मणि में शंका करता है। (कि यह उपयोगी है या नहीं) और कल्याणकारी मणि देकर एक कौड़ी खरीद लेता है॥१२७९॥ स सूत्राय मणि भिन्ते, नावं लोहाय भस्मने । कुथीर्दहति गोशीर्ष, निदानं विदधाति यः ॥१२८० ॥ अर्थ - जो धर्म धारण कर निदान करता है वह दुईद्धि धागे के लिए मणिनिर्मित हार को तोड़ता है, लोहे की कील के लिए वस्तुओं से भरी नाव को तोड़ता है तथा भस्म के लिए गोशीर्ष चन्दन को जलाता है।।१२८०॥ तापार्थ प्लोषते कुष्ठी, स लब्ध्वेक्षु रसायनम् । श्रामण्यं नाश्यते तेन, भोगार्थ सिद्धि-साधनम् ।।१२८१॥ अर्थ - जैसे कोई कुष्ठी मनुष्य अपने रोग के लिए रसायन सदृश ईख को प्राप्त कर उसे तपने के लिए जला देता है, वैसे ही भोगों के लिए निदान करके मूर्ख मुनि मुक्ति के साधनभूत श्रामण्य पद को नष्ट कर देता है।।१२८१॥ नरत्वादि-निदानं च, न कांक्षन्ति मुमुक्षवः। नरत्वादिभवं तस्मात्, संसारस्तन्मयो यतः॥१२८२॥ अर्थ - मोक्ष के अभिलाषी मुनिगण पुरुषत्व एवं वज्रऋषभनाराच संहननादि की प्राप्ति रूप निदान भी नहीं करते क्योंकि पुरुष आदि पर्यायें भी भवरूप हैं और पर्याय के परिवर्तन स्वरूप होने से संसार भवमय हैं। अर्थात् बार-बार पर्यायें ग्रहण करना ही तो संसार है।।१२८२॥ समाधिमरणं बोधिर्दुःख-कर्म-क्षयस्ततः। प्रार्थनीयो महाप्राज्ञैः, परं नातः कदाचन ।।१२८३॥ अर्थ - अत: महाप्राज्ञ पुरुषों द्वारा समाधिमरण, बोधिलाभ, दुःखक्षय एवं कर्मक्षय की ही प्रार्थना की जानी चाहिए। इनके अतिरिक्त अन्य कोई वस्तु प्रार्थना करने योग्य नहीं है ॥१२८३ ।। प्रश्न - साधुजन अपने भक्तिपाठ में और श्रावकजन अपने पूजापाठ में नित्य ही यह बोलते हैं कि Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ३७० - “दुक्खक्खओ कम्मक्खओ, बोहिलाहो, सुगइगमणं, समाहिमरणं, जिणगुणसंपत्ति होउ मज्झ"। इसमें दुःख कितने प्रकार के हैं और यह पाठ निरन्तर बोलने के पीछे क्या रहस्य है ? उत्तर - उपर्युक्त पाठ बोलने का मूल रहस्य यह प्रशस्त निदान ही है क्योंकि साधु एवं श्रावक अर्थात् प्रत्येक संसारी प्राणी शारीरिक, मानसिक तथा आगन्तुक इन तीन प्रकार के दु:खों में से किसी-न-किसी दुःखसे पीड़ित अवश्य है। दुखी मनुष्य घबरा कर जब प्रार्थना या याचना करता है कि - हे प्रभो। मेरे दुःखों का नाश हो। उसे उत्तर मिलता है कि हे भव्य ! दुःखों का नाश तो कर्मक्षय हो जाने पर ही होगा। प्रश्न - प्रभो ! कर्मों का क्षय कैसे होगा ? उत्तर - इन कर्मों का क्षय रत्नत्रय स्वरूप बोधिलाभ हो जाने पर ही होता है। प्रश्न - प्रभो ! बोधिलाभ का उपाय ? उत्तर - बोधिलाभ उत्तम गति में हो सकता है। प्रश्न - प्रभो! उत्तम गति कैसे प्राप्त होगी ? उत्तर - समाधिपूर्वक मरण करने से उत्तम गति की प्राप्ति होती है। प्रश्न - प्रभो ! समाधियुक्त मरण कैसे होगा ? उत्तर - भगवान् जिनेन्द्र के गुणों की तल्लीनता अर्थात् शरीर-निस्पृहता और कषायकृशता समाधिमरण की प्राप्ति का उपाय है। इसलिए ही इस प्रकार के निदान की आज्ञा है, क्योंकि इस निदान रूप श्रृंखला की प्रत्येक कड़ी एक-दूसरे से जुड़ी हुई है। और इन कड़ियों की प्राप्ति के बिना संसारी प्राणी दुखों से कदापि नहीं छूट सकता, अतः प्रत्येक भव्य जीव को इतना निदान अवश्यमेव करना चाहिए। इसके अतिरिक्त अन्य कोई निदान नहीं करना चाहिए। नरत्व-संयम-प्राप्ती, परम भवतः स्वयम्। निदानमन्तरेणाऽपि, दृगाधाराधनाङ्गिनः॥१२८४ ॥ अर्थ - जो साधु सम्यग्दर्शनादि चार आराधनाओं की आराधना करता है उसे निदान न करने पर भी आगामी जन्मों में पुरुषत्वादि की और संयम की प्राप्नि तो स्वयमेव हो जाती है।।१२८४ ।। मुमुक्षु का कर्तव्य भव-शरीर-निर्वेद-मानदोष-विचिन्तनम् । कर्तव्यं मान-भङ्गाय, संसारान्तं यियासता॥१२८५ ॥ अर्थ - निर्यापकाचार्य शिक्षा देते हैं कि - हे क्षपक ! यदि तुम यथार्थतः संसार का अन्त करना चाहते हो तो मान कषाय का नाश करने के लिये तुम्हें संसार-निर्वेद अर्थात् वैराग्य का, शरीर से वैराग्य का और मान के दोर्षो का चिन्तन निरन्तर करना चाहिए॥१२८५ ॥ प्रश्न - यहाँ मान कषाय का नाश करने की शिक्षा क्यों दी जा रही है ? Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकाण्डका - ३७१ उत्तर - मानकषाय की पुष्टि या अभिमान के वशीभूत होकर साधुजन भी देवादि पर्याय या सुन्दरसुडौल शरीर की इच्छा रूप अप्रशस्त निदान कर बैठते हैं, जिसका फल अत्यन्त कष्टप्रद अर्थात् सप्तार परिभ्रमण स्वरूप होता है, अत: मानकषाय के नाश का उपदेश दिया गया है। प्रश्न - शरीर का चिन्तन मानकषाय को दूर करने में निमित्त कैसे हो सकता है? मान कषाय के दोष कौन-कौन से हैं और संसार-निगता क्या है ? उत्तर - यद्यपि 'मान' शब्द सामान्य मान का वाधी है, तथापि यहाँ उसे रूप विषयक अभिमान के अर्थ में ग्रहण किया है। यह रूपादि का अभिमान शरीर निवेगता से नष्ट हो जाता है, अत: "शरीर चिन्तन से मान कषाय नष्ट हो जाती है" यह कथन सिद्ध है। नीच कुलों में जन्म, आदरणीय गुणों का अभाव, सबका अपने से द्वेष करना एवं रत्नत्रयादि का लाभ न होना ये सब मान कषाय के दोष हैं। अर्थात् मान करने के कटुफल हैं। ___ द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और भव परिवर्तनरूप संसार से विमुख होना संसार-निर्वेद है। संसार निर्वेद में चित्त लगाने से अहंकार के भाव और उसके निमित्तों का विनाश हो जाता है। क्योंकि अहंकार में निमित्त होने वाले अनेक निन्दनीय दुर्गुण अनेक प्राणियों में पाये जाते हैं, तथा अपने में जो गुण हैं उनसे भी अतिशयशाली अनेक गुण अन्य महापुरुषों में सहज ही विद्यमान रहते हैं अत: उनका अभिमान कैसा ? संसार निर्वेद रूप ऐसा चिन्तन भी मानकषाय को नष्ट कर देता है। कुल के मान का निषेध उच्चं भवे कुलं नीचो, नीधमुच्चः प्रपद्यते। कुलानि सन्ति जीवानां, पान्थानामिव विश्रमः ॥१२८६ ।। अर्थ - जीवों को प्राप्त होने वाले कुल, पथिक के विश्रामस्थल सदृश हैं। अर्थात् जैसे पथिक के विश्रामस्थल अनियत होते हैं वैसे ही कुल भी नियत नहीं हैं। क्योंकि संसार-भ्रमण करने वाला जो जीव आज उच्चकुलीन है वही मर कर नीच कुल में जन्म ले लेता है, वैसे ही नीचकुलीन मर कर उच्चकुल में जन्म ले लेता है, अतः कुलाभिमान नहीं करना चाहिए ।।१२८६ ।। प्रश्न - श्लोक में 'कुलानि' यह बहुवचनान्त पद क्यों दिया गया है ? ___ उत्तर - यह बहुवचनान्त पद कुलों की बहुतायत दर्शाने हेतु दिया गया है क्योंकि कुलों की बहुतायत ही कुलों की अनित्यता को प्रगट करने वाला है। उच्च-नीच कुलों से आत्मा की वृद्धि-हानि नहीं होती हानि-वृद्धी प्रजायेते, नीचोच्चासु न योनिषु । सर्वत्रोत्पद्यमानस्य, जीवस्य सम-मानता।।१२८७।। अर्थ - नीच और उच्च कुलों में जन्म लेने से जीव के आत्मप्रदेशों में हानि-वृद्धि नहीं होती। वह तो सर्वत्र एवं सर्व कुलों में नियमतः असंख्यात प्रदेश वाला ही रहता है।।१२८७ ।। Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ३७२ प्रश्न - योनि किसे कहते हैं और वह नीच-उच्च कैसे होती है ? उत्तर - जिसमें रह कर जीव अपने शरीर को रचता है उसे योनि कहते हैं। योनि कभी नीच या उच्च नहीं होती। प्रश्न - यदि ऐसा है तो श्लोक में "नीचोच्चासु योनिषु" पद क्यों दिया गया है ? उला - गहाँ योनि पात से कुल्ल दी गदा किया गया है। अतः इसका अर्थ ऐसा है कि जीव मान्य एवं उच्च कुल में जन्म ले अथवा नीच कुल में उत्पन्न हो किन्त उसके आत्मप्रदेशों का प्रमाण तो असंख्यात ही रहता है। उनमें कभी वृद्धि-हानि नहीं होती। संसार में भ्रमण करने वाले इस जीव का कोई भी कुल स्थायी नहीं रहा। अपने कर्म के वशवर्ती होकर वही जीव राजा-दास, ब्राह्मण-चाण्डाल, सम्पन्न-दरिद्री एवं दाता और भिखारी हो जाता है। अथवा उत्तम, मध्यम तथा नीच कुलों में जन्म ले-लेकर मरता रहता है, फिर उच्च कुलों में जन्म लेकर गर्व कैसा? और नीच कुल में जन्म लेकर घृणा कैसी ? गर्व करना हो तो धर्म पर करना चाहिए और घृणा पाप से करनी चाहिए लाभं लाभमनन्ताश, नीचामुच्चां प्रपद्यते। तथाप्युच्चा अपि प्राप्ता, अनन्ता योनयो भवे ॥१२८८ ।। अर्थ - यह संसारी प्राणी नीच कुलों के समान उच्च कुलों को भी अनन्तानन्त बार प्राप्त करता है। अनन्तबार नीच गोत्र में जन्म लेता है तब कहीं एक बार उच्चगोत्र में जन्म ले पाता है। इस प्रकार होने पर भी यह जीव अनन्तबार उच्चगोत्र में जन्म ले चुका है। इस प्रकार उदयानुसार नीच-उच्च कुलों का परिवर्तन होता रहता है। इसका क्या अभिमान करना ॥१२८८ ।। उच्चत्वे बहुशः कोऽत्र, लब्ध्वा त्यक्तेऽस्ति विस्मयः । नीचत्वे चास्ति किं दुःखं, लब्ध्वा त्यक्ते सहस्रशः ॥१२८९ ॥ अर्थ - इस प्रकार बहुत-बहुत बार जन्म लेकर छोड़े हुए उच्च कुल में जन्म लेने का आश्चर्य अथवा गर्व कैसा ? और हजारों बार जन्म लेकर छोड़े हुए नीच कुल में जन्म लेने का दुःख कैसा ? अर्थात् यदि प्रथम बार ही उच्चकुल प्राप्त हुआ हो तो गर्व करो और प्रथम बार ही नीच कुल में जन्म लिया हो तो दुख करो।।१२८९।। उच्चत्वे जायते प्रीतिः, सङ्कल्पवशतोगिनः। नीचत्वेऽपि महादुःखं, कषायवशवर्तिनः ॥१२९० ।। अर्थ - उच्च गोत्र और नीच गोत्र स्वयं सुख-दुख नहीं देते, अपितु "मेरा कुल उच्च है" मन में ऐसा संकल्प होने से जीव को उच्चकुल में प्रीति होती है और मान कषाय के उदय से नीचगोत्र का जन्म दुःख का कारण होता है|१२९० ।। Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ३७३ उच्चत्वमिव नीचत्वं, चेतसा यो निरीक्षते। उच्चत्व इव नीचत्त्वे, किमसौ न सुखायते ।।१२९१ ॥ अर्थ - जो मनुष्य अपने मन से नीच गोत्र को उच्च गोत्र के सदृश ही देखता है, वह उच्च कुल के समान नीच कुल में भी क्या सुखी नहीं होता ? होता ही है ।।१२९१ ॥ प्रश्न - इस श्लोक का हार्द क्या है ? उत्तर - यथार्थतः सुख एवं दुःख संकल्प के आधीन हैं। अर्थात् नीचत्व-उच्चत्व को अच्छा-बुरा मान कर सुख या दुःख की अनुभूति का अनुभव व्यक्ति के संकल्पाधीन है। कोई चाण्डाल कुल में जन्म लेकर भी अपने को श्रेष्ठ मानता हुआ सुखी हो सकता है और कोई उच्चकुलीन भी दुखानुभव कर सकते हैं। जो नीचकुलीन ऐसा विचार कर लेता है कि "जो जिसे प्राप्त है वही उसके लिए उत्तम है। जो प्राप्त नहीं है वह श्रेष्ठ भी है तो उससे क्या ?" ऐसा विचार आते ही उच्चकुल के समान नीचकुल में भी सुखानुभव हो जाता है। उच्च कुल में जन्म लेकर यदि जिनदीक्षा ग्रहण की जाती है तो उच्चकुल-प्राप्ति की सार्थकता है। अन्यथा उच्चकुल के झूठे अभिमान मात्र से क्या सुख ! यो नीचत्वमिवोच्चत्वं, विकल्पयति मानसे । तस्यांच्यत्वं न किं दुःखं, नीचत्वमिव जायते ॥१२९२॥ अर्थ - जो अपने मन से नीचत्व के समान ही उच्चत्व को मानता है, उसको उच्चकुल मिलने पर भी क्या नीचत्व सदृश दुख नहीं होता ? अपितु होता ही है॥१२९२ ।। ततो नोच्चत्व-नीचत्वे, कारणं प्रीति-दुःखयोः। परमुच्चत्व-नीचत्व-संकल्प: कारणं तयोः ।।१२९३ ॥ अर्थ - अत: यह सिद्ध हुआ कि उच्चत्व और नीचत्व सुख एवं दुःख नहीं देते अपितु उच्चत्त्व तथा नीचत्व का संकल्प ही सुख और दुःख का कारण है ।।१२९३ ।। नीचगोत्रं नरं मानो, विधत्ते बहु-जन्मसु । प्राप्ता लक्ष्मीमतिर्नीचा योनिर्मानेन भूरिशः॥१२९४ ।। अर्थ - यह मान कषाय पुरुष को अनेक जन्मों तक नीचगोत्री बनाती है। देखो ! लक्ष्मीमती “मैं सुन्दर हूँ" इस मान द्वारा अनेक बार नीच गोत्र में उत्पन्न हुई थी ॥१२९४॥ * लक्ष्मीमती की कथा * लक्ष्मी नामके ग्राममें सोमशर्मा ब्राह्मणके लक्ष्मीमती नामक अत्यंत रूपवती पत्नी थी। उसको अपने रूपका बड़ा भारी गर्व था । वह सदा ही अपने रूपको सँवारने में लगी रहती। एक दिन पक्षोपवासी समाधिगुप्त नामके मुनिराज आहारके लिये आये। आँगनमें आते हुए देखकर लक्ष्मीमतीने उनकी बहुत निंदा की, गालियाँ Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ३७४ दी और घरका दरवाजा बंद कर दिया। उसे उस समय अपना शृंगार करना था। उसमें मुनिको आहार देनेसे व्यवधान पड़ता, इस कारणसे तथा मुनिके स्नान रहित शरीरसे ग्लानि होनेसे लक्ष्मीमतीने अपने रूपके गर्वमें आकर मुनिनिंदाका महान् पापकर डाला | मुनि शांतभावसे अन्यत्र चले गये। किन्तु मुनिनिंदाके पापसे लक्ष्मीमतीको सातवें दिन गलित कुष्ठ रोग होगया। उसे लोगोंने दुर्गंधताके कारण गाँवके बाहर निकाल दिया। वहाँ वेदना सहन नहीं होनेसे वह आगमें जलकर मरी और गधी हुई। पुन: क्रमशः सुअरी, दो बार कुत्ती हुई। फिर धीवरकी दुर्गंधा पुत्री हुई। इस पर्यायमें उन्हीं समाधिगुप्त मुनिराज द्वारा धर्म श्रवणकर शांतभावको प्राप्त हुई। इसप्रकार मानकषायके दोषसे लक्ष्मीमतीको अनेक भवोंमें महान् कष्ट सहना पड़ा। नीचगोत्री तिर्यंचनी पर्यायको बार-बार प्राप्त करना पड़ा। सुभगत्वमसौभाग्यं, स्वरूपत्वं विरूपता । आज्ञानाज्ञादरो निन्दा, चित्ते कृत्या न धीमता ॥१२९५॥ अर्थ - अतः बुद्धिमानों द्वारा सौभाग्य एवं दुर्भाग्य, सुन्दरता और विरूपता तथा आज्ञा और अनाज्ञा आदि होने पर न आदर भाव होना चाहिए और न निन्दा भाव ही होना चाहिए। अर्थात् चित्त में मध्यस्थता रखनी चाहिए।१२९५ ॥ प्रश्न - यहाँ मान कषाय के सदृश सौभाग्य आदि में आदर-भाव करने का और दुर्भाग्यादि में निन्दा भाव करने का निषेध क्यों किया जा रहा है? उत्तर - क्योंकि ये सौभाग्य-दुर्भाग्य आदि न शाश्वत हैं और न आत्म-प्रदेशों की वृद्धि-हानि ही करते हैं, इनके संकल्प मात्र से प्रीति और सन्ताप उत्पन्न होते हैं। इसीलिए बुद्धिमान मनुष्यों को चिन्तन करना चाहए कि जो अपने निर्मल गुणों के कारण मधुर वचन पुंजों से स्तुत्य होता है, वही किसी एक दिन निन्दा का पात्र हो जाता है। मनुष्यों का स्वामी होकर भी दास हो जाता है, पवित्र होकर पुनः अपवित्र हो जाता है, सभी को प्रिय होते हुए भी दुर्भाग्य आने पर द्वेष का पात्र बन जाता है, जो कभी उत्तम रत्नाभरणों से विभूषित देखा जाता है, वही कभी दरिद्री देखा जाता है तथा जो कभी बन्धु-बान्धवों एवं मित्रों से घिरा हुआ देखा जाता है, विपत्ति आने पर वही एकाकी देखा जाता है। इस प्रकार संसाररूपी अटवी में भटकता हुआ यह प्राणी अनेक प्रकार के कर्मफल भोगता है और निरन्तर सुखी-दुखी होता रहता है। इस मिथ्या कल्पना जाल से बचने के लिए ही इनमें आदर भाव और निन्दा भाव करने का निषेध किया गया है। एतेषां चिन्तनाम्मानो, वर्धते सर्वदाऽग्निवत् । संसार-वर्धकः सद्यो, हीयते तत्त्व-चिन्तने ॥१२९६ ॥ अर्थ - इन सौभाग्य एवं सम्पत्ति आदि के चिन्तन से मनुष्य का अभिमान अग्नि सदृश सदा वृद्धिंगत होता रहता है, जो संसार की वृद्धि का ही कारण होता है, किन्तु इन सौभाग्य-दुर्भाग्य एवं उच्चत्व-नीचत्वादि के परिवर्तनों का और उसके कारणों के यथार्थ बोध के साथ तत्त्वचिन्तन करने पर अभिमान तत्काल नष्ट हो जाता है और कषायें उपशान्त हो जाती हैं जिससे संसार का किनारा निकट आ जाता है ।।१२९६ ।। Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ३७५ उच्चत्वादि-निदानेऽपि, संसारं लभते यदि। तदा वध-निदानेऽङ्गी, भव-भागीति का कथा? ||१२९७ ।। अर्थ - उच्चकुल एवं पुरुषत्व आदि जो परम्परा से मोक्ष के कारण हैं, जब उनका निदान करना भी संसार-वृद्धि का कारण है तन जो व्यक्ति अपने मन में किसी के वध का निदान करता है उसकी क्या कथा? वह तो संसार-वृद्धि का भागी बनेगा ही।।१२९७ ।। रत्नत्रय में अतिशय लाभ की भावना से आचार्य एवं गणधरादि पदों का निदान भी बुरा है निदानेऽपि कुलादीनि, जायन्ते नात्र जन्मनि। संयमं विदधानस्य, मानिनो यातना परा ।।१२९८ ।। अर्थ - उच्चकुल एवं आचार्य पद आदि का निदान करने पर वे उसी भव में तो प्राप्त होते नहीं हैं, क्योंकि वह निदान मान कषाय का द्योतक है। मन्द कषाय एवं उत्कृष्ट संयम पालन से वे गणधरादि पद कथंचित् मिल भी जाँय तो भी अभिमान के कारण उनसे यातना ही प्राप्त होती है, मुक्ति नहीं, अतः आचार्यत्वादि का निदान करना भी व्यर्थ है।।१२९८ ।। भोगजन्य निदान की निन्दा मथुराः सेवमाना हि, विपाके दुःखदायिनः। चिन्तनीयाः सदा भोगाः, विपाकफल-संनिभाः॥१२९९ ॥ अर्थ - इन्द्रियों के भोग किंपाक फल सदृश हैं। जैसे किंपाक फल खाते समय स्वादिष्ट लगता है किन्तु उसका परिणाम प्राणघातक होता है, वैसे ही इन्द्रिय भोग भोगते समय मधुर लगते हैं किन्तु उस समय जो पापबन्ध होता है उसका उदय आने पर महादुःख भोगना पड़ता है। ऐसा सदा चिन्तन करते रहने से भोगों के निदान का भाव नहीं होता ।।१२९९ ॥ भोग निदान के दोष भोगार्थमेव चारित्रं, निदाने सति जायते। कर्म कर्मकरस्येव, द्रविणार्थ-विचारणे ॥१३००॥ अर्थ - जैसे कर्मकर अर्थात् नौकर की क्रियाएँ मात्र धन के लिए हुआ करती हैं, वैसे ही निदान करने वाले मुनियों का चारित्र भोग के लिए ही रह जाता है, उससे कर्मनिर्जरा नहीं होती॥१३०० ।। भवत्यब्रह्मचर्यार्थ, सनिदानं तपो यतः। अपसारो विधाता), मेषस्येवास्ति मेषतः ।।१३०१॥ अर्थ - जैसे एक भेड़ दूसरी भेड़ पर अभिघात करने हेतु ही पीछे हटती है, वैसे ही निदान करनेवाले साधु का ब्रह्मचर्य आदि तप का अनुष्ठान अब्रह्मचर्य अर्थात् मैथुन के लिए ही होता है।।१३०१ ।। विक्रीणाति सपोनर्घ, भोगेन सनिदानकः। माणिक्यमिव काचेन, सारासाराविचारकः ।।१३०२ ।। Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ३७६ अर्थ - सार-असार को न जानने वाला अज्ञानी व्यापारी जैसे बहुमूल्य माणिकरत्न में काँच का टुकड़ा खरीद लेता है, वैसे ही निदान करनेवाला मुनि अपने अमूल्य तप को बेचकर उसके बदले तुच्छ भोग खरीद लेता है।।१३०२॥ भोगजन्य निदान करने वाले मुनिजनों की निन्दा संसर्गस्यानिवृत्तस्य, चित्तेनाब्रह्मचारिणः । कायेन शीलवाहित्वं, व्यर्थं नटयतेरिव ।।१३०३॥ अर्थ - जैसे नट, श्रमण का वेश धारण कर लेता है, वैसे ही जिस मुनि का चित्त भोगों में संसक्त है वह मन से अब्रह्मचारी है और जिसके परिणाम परिग्रह से निवृत्तरूप नहीं हैं, अर्थात् जो भोगों के लिए निदान करता है वह केवल शरीर द्वारा शील पालन करता है। उस भ्रष्ट मुनि का बाहा व्रतादि का पालन करना व्यर्थ है, क्योंकि वह उस नट श्रमण के सदृश वेश मात्र से मुनि है, अंतरंग में तो अब्रह्मरूप ही भाव हैं ।।१३०३॥ आकांक्षति महादुःखं, निदानी भोग-तृष्णया। रोगित्वं प्रतिकाराय, कुबुद्धिरिव कश्चन ॥१३०४॥ अर्थ - जैसे कोई खोटो बुद्धि वाला मनुष्य रोगों का प्रतिकार करने वाली औषधि के सुख की अभिलाषा से रोगी होना चाहता है, वैसे ही निदान करने वाला मुनि भोगों की लालसा या तृष्णा से महादुख की कांक्षा करता है।।१३०४ ।। भोगार्थं वहते साधुनिंदानित्वेन संयमम्। स्कन्धेनेव कुधीर्गु/मासनाय महाशिलाम् ।।१३०५ ॥ अर्थ - "मैं इस पर सुखपूर्वक बैलूंगा'' ऐसा मान कर जैसे कोई दुर्बुद्धिवाला मनुष्य अत्यन्त भारी शिला को कन्धे पर रख कर ढोता फिरता है, वैसे ही कोई साधु (निदान द्वारा) भोगप्राप्ति के लिए दुर्द्धर संयम का भार ढोता है। अर्थात् मोक्षरूप महाफल देने वाले संयम को तुच्छ और विनश्वर भोगों की आकांक्षा से गँवा देता है ।।१३०५।। यत् सुखं भोगजं जन्तोर्यहुःखं भोग-नाशजम् । भोग-नाशोत्थितं दुःखं, सुखाधिकतमं मतम् ।।१३०६ ॥ अर्थ - इस जीव को भोगोपभोग से अर्थात् सुस्वादु भोजन-पान से एवं स्त्री, वस्त्र तथा अलंकारों से उत्पन्न होने वाले सुख की तुलना में भोगनिमित्तक वस्तुओं के नष्ट हो जाने पर जो दुःख होता है वह उस भोगजन्य सुख से अधिक है॥१३०६ ॥ क्षुधादि-पीडिते देहे, समासक्तः कथं सुखी ? दुःखस्याऽस्ति प्रतीकारो, ह्रस्वीकारोऽथवा सुखम् ॥१३०७ ।। अर्थ - भूख, प्यास, शीत, उष्ण एवं रोगादि से पीड़ित इस शरीर में जो आसक्त है, उसे क्या सुख Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ३७७ है ? अर्थात् वह जीव किस प्रकार सुखी हो सकता है? संसारी प्राणियों का वह सुख तो दुःखों के प्रतिकार स्वरूप ही होता है। अर्थात् दुःखों को कम करना ही उनके सुख का स्वरूप है।।१३०७ ।। अनपेक्ष्य यथा सौख्यं, न दुःखं वाधते नरम् । अनपेक्ष्य तथा दुःखं, न सुखं विद्यते जने ॥१३०८॥ अर्थ - जैसे सुख की अपेक्षा के बिना, मनुष्य को दुःख दुखित नहीं करता है, वैसे ही दुःख की अपेक्षा के बिना मनुष्य को सुख नहीं होता है ।।१३०८॥ प्रश्न - इस श्लोक से आचार्यदेव क्या कहना चाहते हैं ? उत्तर - आचार्यदेव कह रहे हैं कि दुःख और सुख ये दोनों सापेक्ष धर्म हैं। जब सुख की वांछा जाग्रत हो जाती है तभी दुःख दुखित कर सकते हैं। जैसे भोजन से तृप्त होने की भावना ही भूखे व्यक्ति को व्याकुल कर देती है तभी वह भोजन-पान खोजता है। शीत से ठिठुरने वाला मनुष्य बिस्तर खोजता है। वायु, धूप, वर्षादि से पीड़ित मकान खोजता है, थका हुआ मनुष्य शय्या खोजता है और विरूपता दूर करने के लिए अथवा सुन्दरता वृद्धिंगत करने के लिए सुन्दर-सुन्दर वस्त्रालंकार चाहता है, इत्यादि । इसी प्रकार जिस कारण मनुष्य दुःख का अनुभव करता है उन कारणों के दूर होते ही उसे सुख का अनुभव होने लगता है क्योंकि कारणों के होने पर कार्य अवश्य होते हैं। एक वर्ष तक एक आसन सं तपस्या करने वाले भगवान बाहुबली को आहारजन्य सुख की वांछा नहीं थी अत; भूख-प्यास की वेदना उन्हें दुखित नहीं कर सकी। ऐन्द्रिय सुख की वांछा के बिना दु:ख दुखी नहीं कर सकते और दुःख के बिना कोई भी ऐन्द्रिय सुख मनुष्य को सुखी करने में असमर्थ है अतः सुख की अभिलाषा करने वाला प्राणी प्रथम दुःख की ही अभिलाषा कर रहा है, ऐसा सिद्ध होता है। सेवमानो यथा वह्नि, न कुष्ठी लभते शमम्। भुञ्जानो न तथा भोगं, सन्तोषं प्रतिपद्यते॥१३०९॥ अर्थ - जैसे अग्नि को सेवन करने वाला कोई भी कुष्ठी शान्ति प्राप्त नहीं कर सकता, वैसे ही भोग भोगता हुआ जीव सन्तोष को प्राप्त नहीं कर सकता ।।१३०९॥ प्रश्न - भोग भोगने वाले को सन्तोष प्राप्त क्यों नहीं हो सकता ? उत्तर - 'जो जिसकी वृद्धि का कारण है वह उसे कदापि शान्त नहीं कर सकता' यह नियम है। जैसे अमि का सम्पर्क कुष्ठरोग की वेदना को बढ़ाने वाला है अत: उसका सेवन करने वाले कुष्ठी को शान्ति प्राप्त नहीं होती, वैसे ही स्त्री आदि का संगम स्त्री विषयक भोग की अभिलाषा को वृद्धिंगत करता है, अतः जो भोग भोगने में तत्पर है उसका भोगाभिलाषा रूप रोग एक क्षण को भी शान्त नहीं होता। भोगों का त्याग ही भोगों की सन्तुष्टि का उपाय है। मैथुनं सेवमानोऽङ्गी, सौख्यं दुःखेऽपि मन्यते। शितैः कण्डूयमानो वा, कच्छू कररुहै: कुधीः ॥१३१०॥ - - -- - Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ३७८ अर्थ - जैसे अपने पैने नखों से खाज खुजाता हुआ दुर्बुद्धि मनुष्य उस दाहरूप दुःख को सुख मानता है, वैसे ही मैथुन सेवन करता हुआ पुरुष उस दुःख को ही सुख मानता है ।।१३१०॥ सेवमानो नरो नारी, दुःखदां सुखदां कुधीः । मन्यते मथुरा पति, कृभिधापातकीमिव ।।१३११॥ अर्थ - जैसे कोई कीट या लट घोषातकी नामक अति कड़वे फल को खाते हुए उसे स्वादिष्ट मान लेता है, वैसे ही खोटी बुद्धि वाला पुरुष नारी का दुखदायी सेवन करता हुआ भी उसे सुखदायी मानता है ||१३११।। सम्पद्यते सुखं भोगे, सेव्यमाने न किञ्चन। सारो नोऽन्विष्यमाणोऽपि, रम्भा-स्तम्भे विलोक्यते ॥१३१२॥ अर्थ - जैसे भली प्रकार अन्वेषण अर्थात् खोज करने पर भी केले के वृक्ष के मूल (स्तम्भ), मध्य एवं अन्त में कहीं भी कुछ सार नहीं मिलता, क्योंकि उसमें सार है ही नहीं। वैसे ही भोगों को सेवन करने में किंचित् भी सुख प्राप्त नहीं होता है।।१३१२।। भोग ही महाशत्रु है विश्वस्ता यैः प्रतार्यन्ते, विमुच्यते निषेधकाः। प्रवर्द्धकाः प्रपीड्यन्ते, कस्तै|गैः समो रिपुः ॥१३१३॥ अर्थ - जिन भोगों के द्वारा विश्वस्त जन ठगाये जाते हैं, सेवा करने वाले छोड़ दिये जाते हैं और वृद्धि करने वाले पीड़ित किये जाते हैं, उन भोगों के समान क्या कोई अन्य शत्रु है ? अपितु नहीं है ॥१३१३ ॥ प्रश्न - इस श्लोक का तात्पर्य (अर्थ) क्या है ? उत्तर - इसका तात्पर्य यह है कि इस लोक में विश्वासपात्र पुरुष विश्वास करने वाले को ठगता नहीं है, सेवा करने वाले को कोई छोडता नहीं है और धन, सम्मान आदि की वृद्धि करने वाले को कोई दुःख नहीं देता, किन्तु ये भोग विचित्र हैं, अत: जो मनुष्य इन भोंगों पर विश्वास करता है उसे ठग कर ये भोग कुगति में ले जाते हैं, इन भोगों की सेवा करने वाले को अर्थात् भोगी पुरुष को एक दिन ये भोग अवश्य छोड़ देते हैं और जो इन भोगों को बढ़ाता है उसे ये भोग संसार-परिभ्रमण कराकर पीड़ित करते हैं, अत: ये भोग ही जीव के महाशत्रु हैं। निषेव्यमाणो वनिता-कलेवरं, स्वदेह-खेदेन सुखायते जनः। श्वा व्यश्नुवानो रसमस्थि नीरसं, स्व-तालु-रक्ते मनुते सुखं यथा ॥१३१४ ॥ अर्थ - जैसे कुत्ता सूखी और नीरस हड्डी को चबाता हुआ अपने तालु से निकलते हुए रक्त में रस की कल्पना कर सुख मानता है वैसे ही यह मोही मनुष्य स्त्री के शरीर का सेवन करते समय अपने शरीर के श्रम को ही सुख मारता है॥१३१४ ।। Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ३७९ नग्नो बाल इवास्वस्थः, स्वनन्नव्यक्त-जल्पनः । श्वासाकुलो जनो नार्यां, कीदृशीं श्रयते रतिम् ।।१३१५ ।। अर्थ - नारी के साथ रमण करने वाला पुरुष बालक सदृश नग्न, अस्वस्थ, सीत्कार करता हुआ, अव्यक्त शब्द करता हुआ तथा जोर जोर से श्वास लेने के कारण आकुलित होता हुआ किस प्रकार की रति को प्राप्त करता है ? महत् आश्चर्य है ।।१३१५॥ ___ आरटन्ती भराक्रान्तां, दीनामुष्ट्रीमिषाकुलाम् । किं सुखं लभते मूढः, सेवमानो नितम्बिनीम् ॥१३१६ ॥ अर्थ - शब्द करती हुई, भार से आक्रान्त एवं दीन ऐसी ऊँटनी के सदृश व्याकुल हुई स्त्री का सेवन करता हुआ मूढ पुरुष क्या सुख पाता है? ||१३१६।। विभीमरूपाः कुटिल-स्वभावा, भोगा भुजङ्गा इव रन्ध्र-संस्था: 1 ये स्मर्यमाणा जनयन्ति दुःखं, ते सेविता: कस्य भवन्ति शान्त्यै ॥१३१७ ।। अर्थ - जैसे सर्प भयावह होते हैं, टेढ़ी चाल चलने से कुटिल स्वभावी होते हैं, रन्ध्रसंस्था अर्थात् बिल में रहते हैं तथा स्मरण मात्र आ जाने पर दुख उत्पन्न कर देते हैं, वैसे ही जो इह-परलोक में दुखदायी होने से भयावह हैं, कषाय तथा मायाचारादि से युक्त होने के कारण कुटिल स्वभावी हैं, स्त्री की योनिरूपी बिल में रहते हैं और स्मरण आ जाने मात्र से व्याकुलता उत्पन्न कर देते हैं, सेवन किये गये ऐसे भोग किसकी शान्ति के लिए हो सकते हैं ? किसी की शान्ति के लिए नहीं ।।१३१७ ।। प्रदर्श्य सौख्यं वितरन्ति दुःखं, विश्वासमुत्पाद्य च वञ्चयन्ति । ये पीडयन्ते परिचर्यमाणास्ते सन्ति भोगा: परमा द्विषन्तः॥१३१८ ॥ अर्थ - जो सुख का आभास करा कर या दिखा कर दुख देते हैं, विश्वास उत्पन्न करा कर अर्थात् हितचिन्तक जैसे बन कर ठग लेते हैं और परिचर्या किये जाने पर अर्थात् परिचय में आ जाने पर पीड़ा पहुँचाते हैं, ऐसे ये भोग यथार्थतः महान् शत्रु ही हैं, ऐसी दृढ़ श्रद्धा रखनी चाहिए ।।१३१८॥ भोगों में सुख न होने पर भी दुर्बुद्धियों को उनमें सुख का बोध होता है कामिभिर्भोग-सेवायामसत्यं दृश्यते सुखम् । कुरङ्गैर्मृगतृष्णायां, पानीयं तृषितैरिव ।।१३१९ ।। अर्थ - जैसे प्यास से व्याकुल हरिणों को मृगतृष्णा में जल दिखाई देता है किन्तु वह यथार्थतः जल नहीं होता, वैसे ही राग के प्यासे कामी पुरुषों को भोग भोगते समय सुख का अनुभव होता है किन्तु वह यथार्थ सुख नहीं है||१३१९॥ कुथित-स्त्री-तनु-स्पर्श, नष्ट-बुद्धिः सुखायते। अवगुह्य शवं व्याघ्रः, श्मशाने किं न तृप्यति ।।१३२० ।। Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ३८० अर्थ - जैसे श्मशान में मुर्दे का भक्षण कर क्या व्याघ्र तृप्ति का या सुख का अनुभव नहीं करता ? करता ही है; वैसे ही नष्टबुद्धि कामी पुरुष स्त्री के दुर्गन्धित शरीर के आलिंगन में सुख मानते हैं ॥१३२०॥ मध्यं दिनार्क-तप्तस्य, यावच्छाया-व्यतिक्रमे। वेगतो धावत: सौख्यं, तावद्-भोग-निषेवणे ॥१३२१॥ अर्थ - जैसे ग्रीष्म ऋतु में अत्यन्त वेग से दौड़ते हुए और मध्यकाल के सूर्य की किरणों से सन्तप्त मनुष्य को मार्ग में स्थित एक वृक्ष की छाया को लांघते समय धूप की किंचित् कमी होने से जो थोड़ा-सा सुख होता है वैसा ही अत्यल्प सुख भोगों के सेवन में है।।१३२१ ।। स्रोतसा अपमानस्थ, पादाशा-सुखं भवेत् । पादाङ्गुष्ठे क्षिति-स्पर्श, तावद्-भोग-सुखं स्फुटम् ॥१३२२ ॥ अर्थ - अथवा नदीप्रवाह के द्वारा बहा कर ले जाते हुए मनुष्य का भूमि से पैर के अंगूठे का स्पर्श हो जाने पर जैसा आशा सम्बन्धी अल्प सुख होता है कि मैं तट पर लग जाऊँगा' वैसा ही भोग सम्बन्धी सुख अति अल्प होता है, ऐसा स्पष्ट रूप से समझना चाहिए ||१३२२॥ येऽनन्तशोऽङ्गिना भुक्ता, भोगाः सर्वे त्रिकालगाः। को नाम तेषु भोगेषु, भुक्त-त्यक्तेषु विस्मयः ॥१३२३।। अर्थ - संसारी प्राणी द्वारा तीन काल सम्बन्धी सम्पूर्ण भोग अनन्तबार भोगे जा चुके हैं अत: भोग कर छोड़े गये उन उच्छिष्ट सदृश भोगों में क्या उत्सुकता ? या क्या आश्चर्य ? अर्थात् जिनका परिचय अनन्तों बार हो चुका है और जो उच्छिष्ट हैं उन पदार्थों की प्राप्ति में आश्चर्य नहीं करना चाहिए ||१३२३ ।। यथा-यथा निषेव्यन्ते, भोगास्तृष्णा तथा-तथा। भोगा हि वर्धयन्ते तामिन्धनानीव पावकम् ॥१३२४॥ अर्थ - जैसे ईंधन डालते रहने से अग्नि वृद्धिंगत होती रहती है, वैसे ही जैसे-जैसे भोग भोगे जाते हैं, उनकी तृष्णा वृद्धिंगत होती जाती है॥१३२४ ।। भुज्यमानैश्चिरं भोगैस्तृप्तिास्ति शरीरिणाम्। उत्पूरमुद्धतं चित्तं, विना तृप्त्यात्र जायते ॥१३२५ ।। अर्थ - संसारी जीवों को चिरकाल तक भोग भोग लेने पर भी तृप्ति नहीं होती और तृप्ति न होने से चित्त उन भोगों के लिए सदा अत्यन्त उत्कंठित ही रहता है ।।१३२५ ।। नदी-जलैरिवाम्भोधिर्विभावसुरिवेन्धनैः। सेव्यमानैरयं भोगैर्न जीवो जातु तृप्यति ॥१३२६ ।। अर्थ - जैसे हजारों नदियों से भी समुद्र तृप्त नहीं होता और ईंधन से अग्नि की तृप्ति नहीं होती, वैसे ही भोगे हुए या भोगते हुए भी यह जीव कभी भोगों से तृप्त नहीं होता ॥१३२६ ।। Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ३८१ भोगेषु भोगि-गीर्वाण-बल-केशव-चक्रिणः । न तृप्तिं ये नु गच्छन्ति, तत्र ऋष्यन्ति ति परे ।।१३२५० ।। अर्थ - स्वर्गवासी देव एवं इन्द्र, बलभद्र, अर्धचक्री और चक्रवती भी भोगों से तृप्ति को प्राप्त नहीं होते तब साधारण मनुष्य इन भोगों से कैसे तृप्त हो सकता है? ।।१३२७ ।। प्रश्न - इन्द्रादि से साधारण मनुष्य की तुलना करने का क्या अभिप्राय है ? उत्तर - इसका अभिप्राय यह है कि सर्वार्थसिद्धि के देव तैंतीस-सागर पर्यन्त, भोगभूमिज मनुष्य तीन पल्य पर्यन्त, छ्यानवे हजार रानियों का एक साथ भोग करने की शक्ति युक्त तथा नव निधियों से प्राप्त विपुल भोग दीर्घकाल पर्यन्त भोगते हुए भी जब चक्रवर्ती तृप्ति को प्राप्त नहीं होते तन अल्प बल, अल्पायु और अल्प भोगसामग्री वाले साधारण मनुष्य कैसे तृप्त हो सकते हैं ? अपितु कभी तृप्त नहीं हो सकते । व्याकुली भवति प्राणी, ग्रहणे रक्षणेऽर्जने । नाशे सम्पदि तत्तस्य, भोगायोत्कण्ठितश्चलः ।।१३२८॥ अर्थ - सम्पत्ति होते हुए भी मनुष्य अप्राप्य द्रव्य के अर्जन में, अर्जित-द्रव्य के रक्षण में तथा दूसरों को दी हुई सम्पत्ति को उनसे ग्रहण करने में सदैव व्याकुल रहता है। इसी प्रकार प्राप्त भोगसामग्री को भोगने में एवं भोग-सम्पदा नाश हो जाने पर भी मनुष्य का चित्त व्याकुल रहता है और अन्य-अन्य भोगों के लिए उत्कंठित रहता है ।।१३२८ ।। व्याकुलस्य सुखं नास्ति, कुतः प्रीतिर्विना सुखम् । कुतो रतिविना प्रीतिमुत्कण्ठां वहतः परम् ॥१३२९ ।। अर्थ - जिसका चित्त व्याकुल रहता है उसे सुख प्राप्त नहीं होता, सुख के बिना प्रीति नहीं होती और प्रीति अर्थात् तृप्ति के बिना रति नहीं होती। इस प्रकार कामुक एवं व्याकुल चित्त मनुष्य को अतिशयरूप से मात्र उत्कण्ठा ही रहती है ।।१३२९॥ निःसार भोगों का त्याग कर देने वाले साधु को यदि रमने की इच्छा हो तो वह कहाँ रमे ? निरस्त-दारादि-विपक्ष-सङ्गती, रिरंसुरध्यात्म-सुखे निरन्तरम् । रतिं विधत्तां शिव-शर्म-कारणे, तया समा नास्ति जगत्त्रये रतिः॥१३३० ।। अर्थ - जो सत्यार्थ सुख का विपक्षी है ऐसे स्त्री, पुत्र एवं धनादि का त्याग कर देने वाले साधुओं को यदि रमण करने की इच्छा है तो उन्हें निरन्तर मोक्षसुख के कारणभूत अध्यात्म अर्थात् आत्मोत्थ सुख में रति करनी चाहिए, क्योंकि तीन लोक में इस रति के सदृश सर्वोत्कृष्ट और कोई रति नहीं है ॥१३३०॥ स्वस्थाध्यात्म-रतिजन्तोर्नेव भोगरतिः पुनः। भोगरत्यास्ति निर्मुक्तो, परया न कदाचन ॥१३३१॥ ___ अर्थ - अपने स्वस्थ अर्थात् आत्मस्वभावी अध्यात्म में जीवों को जैसी रति होती है वैसी रति भोगों में नहीं होती, क्योंकि भोगरति से तो निर्मुक्त हो जाता है किन्तु अध्यात्म रति से कभी निर्मुक्त नहीं होता ॥१३३१ ।। Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ३८२ प्रश्न - अध्यात्मरति, भोगरति सदृश क्यों नहीं है ? उत्तर - अध्यात्मरति के लिए पर-द्रव्य की अपेक्षा नहीं रहती अतः वह स्वाधीन है, किन्तु पर-द्रव्य के अवलम्बन बिना भोगरति नहीं होती अतः वह पराधीन है। अध्यात्म रति स्वाधीन है अतः उसमें कभी थकावट नहीं होती, भोगरति में पर-पदार्थों की संयोजना आदि में कष्ट एवं थकावट होती है, तथा स्वभावभूत होने से अध्यात्म रति सदा-सर्वदा साथ ही रहती है, इसके विपरीत भोग-रति सदा नहीं रह सकती, परावलम्बी एवं श्रमसाध्य होने के कारण उससे मुक्त होना ही पड़ता है। नाशो भोगरतेरस्ति, प्रत्यूहाश्च सहस्रशः। नाशाsध्यात्म-तनास्ति, अप्रत्यूहा: कुतश्चन ॥३३२ ।। अर्थ - भोगरति का नियम से विनाश होता है और उसमें विघ्न बाधाएँ आती हैं किन्तु भावित अध्यात्म रति का कभी विनाश नहीं होता और उसमें किसी कारण विघ्न भी नहीं आते। अथवा भोगरति से आत्मा का घात होता है किन्तु अध्यात्म रति से आत्मा का विकार रूप घात नहीं होता और भोगरति नश्वर तथा अध्यात्मरति अविनश्वर है।।१३३२।। कुर्वन्तो देहिनां दुःखं, जायन्ते यदि शत्रषः। तदानीं न कथं भोगा, लोक-द्वितय-दुःखदाः ।।१३३३॥ अर्थ - जो जीवों को दुख देते हैं उन्हें यदि शत्रु मानाजाता है तो इस लोक और परलोक में दुख उत्पन्न करने वाले भोग किस प्रकार शत्रु नहीं हैं ? अपितु वे शत्रु ही हैं॥१३३३ ॥ प्रश्न - भोग किसे कहते हैं? और वे दुख के कारण क्यों हैं? उत्तर - इन्द्रियजन्य सुख को भोग कहते हैं और जो स्त्री एवं वस्त्रालंकार आदि पर-द्रव्य का निमित्त मिलने से ही उत्पन्न होता है उसे इन्द्रिय सुख कहते हैं। यह इन्द्रियसुख धनहीन दरिद्री को अति-दुर्लभ है। धनादि की प्रामि कृषि आदि में परिश्रम किये बिना नहीं होती और कृषि आदि आरम्भ-समारम्भ के बिना नहीं होती, आरम्भ-समारम्भ अर्थात् हिंसादि पापों की प्रवृत्ति महान् कर्मानव का कारण है। वे स्वोपार्जित कर्म उसे ऐसे संसार में डाल देते हैं जिसका पार पाना अति दुष्कर होता है। यह जीव उसी में पड़ा-पड़ा दीर्घकाल तक अनेकानेक प्रकार के असह्य दुख भोगता रहता है अतः भोगों को दुख का कारण कहा गया है। शत्रवो यान्ति मित्रत्वमिह वामुत्र वा भषे। मित्रत्वं प्रतिपद्यन्ते, भोगा लोकद्वयेऽपि नो।।१३३४ ॥ अर्थ - इस जन्म में अथवा अन्य किन्हीं भवों में शत्रु अपनी शत्रुता छोड़कर मित्र बन जाते हैं किन्तु भोग तो इह एवं पर-अर्थात् दोनों भवों में मित्रपने को प्राप्त नहीं होते। ये तो दोनों भवों में शत्रु से भी अधिक दुख देते हैं॥१३३४॥ वैरिणो देहिनां दुःखं, यच्छन्त्येकत्र जन्मनि । सन्ततं दुस्सहं दुःखं, भोगा जन्मनि जन्मनि ॥१३३५॥ Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ३८३ अर्थ - जीवों को शत्रुजन तो एक ही भव में दुख देते हैं किन्तु भोग जन्म-जन्म में सतत दुस्सह दुख ही दुख देते हैं ।। १३३५ ॥ निदान प्रेक्षते भोगान्न, संसारमनारतम् । मध्वेष प्रेक्षते पातं, तद-स्थायी न दुस्सहम् ।। १३३६ ।। अर्थ - जैसे कुए की दीवार के तटभाग पर लटका हुआ कोई अज्ञानी मनुष्य मक्खियों के छरे में गिरती हुई मधु बूंद को तो देखता है अर्थात् इसके स्वाद का लोलुपी है किन्तु अपने कूप- पतन को और उससे होने वाले दुस्सह दुखों को नहीं देखता अर्थात् नहीं सोचता, वैसे ही निदान करने वाला साधु भोगों को तो देखता है किन्तु अपने दीर्घ संसार को नहीं देखता । अर्थात् ये भोग मुझे चिरकाल तक संसार वन में भटकाएँगे, यह नहीं सोचता ॥ १३३६ ॥ भोग मध्ये प्रदीव्यन्ति, जन्म- दुःखमनारतम् । अपश्यन्तो मृति- त्रास, जाल - मध्ये झष इव ।। १३३७ ।। अर्थ- जैसे धीवर के जाल में फँसी हुई मछली मरण त्रास को न देखते हुए जाल में क्रीड़ा करती हैं, वैसे ही भोग लोलुपी अज्ञानी निरन्तर एवं अनेक जन्मों में दुख देने वाले भोगों के मध्य रमता है किन्तु उससे होने वाले दुखों को नहीं देखता ॥ १३३७ ॥ प्राप्यापि कृच्छ्रतो जीवो, देव-मानव सम्पदम् । प्रवासीव निजं स्थानं, कुयोनिं याति निश्चितम् ।। १३३८ ।। अर्थ - जैसे देशान्तर में गया हुआ मनुष्य सर्वत्र घूमकर अपने घर को ही जाता है, वैसे ही संयम का कष्ट उठाकर किन्तु निदान के वशीभूत होकर कष्ट से प्राप्त होने वाली देव एवं अर्धचक्री आदि की सम्पदा को अर्थात् भोगों को भोग कर आयु पूर्ण होते ही पुन: नरक - तिर्यंचरूप कुयोनियों में चला जाता है ॥१३३८ ॥ किं करिष्यन्ति ते भोगा, योनिं यातस्य कुत्सिताम् । किं कुर्वन्ति मृता वैद्या, म्रियमाणस्य देहिनः ।। १३३९ ।। अर्थ - क्या कभी मरा हुआ वैद्य किसी अन्य रोगी की चिकित्सा कर सकता है ? अपितु नहीं ही कर सकता। उसी प्रकार क्या निदान से प्राप्त होने वाली सम्पत्ति या स्त्री आदि भोग कुयोनियों में जाने वाले भोगी एवं पापी जीव का कुछ भी उपकार कर सकते हैं ? कदापि नहीं कर सकते ॥१३३९ ॥ संसारं पुनरायान्ति, निदानेन नियन्त्रिताः । दूरं यातोऽपि पक्षीव, रश्मिना निजमास्पदम् ॥१३४० ॥ अर्थ- जैसे लम्बे धागे से बँधा हुआ पक्षी सुदूर जाकर भी पुन: वहीं लौट आता है वैसे ही निदान द्वारा नियंत्रित अर्थात् निदान रूपी रस्सी से बँधा हुआ प्राणी स्वर्गादि में जाकर भी पुनः पुनः कुयोनियों में जन्म मरण करता रहता है ।। १३४० ॥ Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका- ३८४ अधमर्णी निजे गेहे, रोधमुक्तो सुखं वसेत् । दत्त्वार्थं समये प्राप्ते, यथा भूयो निरुध्यते ॥ १३४१ ।। इदानीं चरणं कृत्वा, सुखं भुक्त्वाऽवतिष्ठते । त्रिदिवे समये प्राप्ते, तथा याति पुनर्भवम् ॥ १३४२ ॥ अर्थ - जैसे कर्जदार व्यक्ति कुछ धन देकर बन्धनमुक्त हो कुछ समय के लिए अपने घर में सुख पूर्वक रहता है किन्तु जब कर्ज लौटाने का समय आता है तब कर्ज देने वालों के द्वारा पुनः बन्धन में डाल दिया जाता है, वैसे ही निदान करने वाला मुनि चारित्र पालन कर स्वर्गादि में क्लेशरहित सुख भोगता है किन्तु समय आयु पूर्ण होते ही वहाँ से च्युत होकर संसार परिभ्रमण ही करता है ।। १३४१-१३४२ । देवश्चक्री सुखं भुक्त्वा, सम्भूतो हि निदानतः । निरन्तरं महादुःखं, प्राप्तश्च प्रतिवासितम् ।। १३४३ ।। अर्थ - सम्भुत नामक मुनि ने निदानपूर्वक तपश्चरण किया। मर कर देव हुआ, वहाँ से च्युत हो ब्रह्मदत्त नाम का चक्रवर्ती हुआ। पश्चात् मर कर नरक में निरन्तर महादुख को प्राप्त हुआ ॥ १३४३ ॥ * संभूत की कथा * वाराणसी नगरीमें दो भाई रहते थे। बड़े भाई का नाम चित्त और छोटे भाई का नाम संभूत था । ये दोनों नृत्यकलामें अति निपुण हुए। स्त्रीका वेष लेकर जब वे नृत्य करते तब सब जनता अत्यंत मुग्ध होती, कोई भी नहीं पहिचानता कि ये दोनों पुरुष हैं। नृत्यकला ही इन दोनोंकी आजीविका थी । किसी दिन दिगंबर जैन मुनि गुरुदत्तके मुखकमलसे श्रेष्ठ जैनधर्मका उपदेश सुनकर दोनों भाइयोंको वैराग्य हुआ और उन्होंने उन्हीं गुरुदेवके निकट दैगंबरी दीक्षा ग्रहण की। गुरुचरणके समीप समस्त आगमका अभ्यास किया। अब दोनों मुनि सर्वत्र देशोंमें विहार करते हुए तपस्या करने लगे। उनकी उग्र तपस्यासे प्रसन्न हुआ कोई देव चक्रवर्तीका रूप धारण करके मुनियुगलकी सेवा करने लगा। चक्रवर्तीका वैभव देखकर संभूत नामके छोटे मुनिने निदान किया कि मैं अपनी इस श्रेष्ठ तपस्या द्वारा आगामी भवमें चक्रवर्ती बनूँ । यथासमय मरणकर संभूतमुनि प्रथम सौधर्म स्वर्ग में देव बना और वहांसे च्युत होकर भरत क्षेत्रका इस अवसर्पिणी कालका अंतिम बारहवाँ चक्री ब्रह्मदत्त नामका हुआ। निदान द्वारा प्राप्त वैभवमें अत्यंत आसक्ति होनेके कारण ब्रह्मदत्त आयुके अंतमें मरकर नरकमें चला गया। इस प्रकार संभूत मुनिने निदान द्वारा अपनी सारभूत तपस्याको नष्ट किया और अंतमें कुगतिमें चला गया। अत: कभी भोगादि का अप्रशस्त निदान नहीं करना चाहिये । अतर्पकमविश्रामं, भोग- सौख्यं विनश्वरम् । दुरन्तं सर्वथा त्यक्त्वा, मुक्ति-सौख्ये मतिं कुरु ।। १३४४ ।। अर्थ - भोगों से उत्पन्न होनेवाला सुख अतृप्तिकारक है, अनित्य है, विनश्वर है और ऐसा दुख देता Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ į मरणकण्डिका- ३८५ है जिसका अन्त होना दुष्कर है अतः हे क्षपक ! तुम उस भोगवांछा को सर्वथा छोड़ दो और अपनी बुद्धि मोक्षसुख में लगाओ। अर्थात् ऐसा उपाय करो जिससे शाश्वत सुख देने वाला मोक्ष प्राप्त हो ॥ १३४४ ॥ निदान रहित तपश्चरण के गुण विशोध्य दर्शन- ज्ञान - चारित्र त्रितयं यतिः । निर्निदानो विशुद्धात्मा, कर्मणां कुरुते क्षयम् ॥ ९३४५ ।। अर्थ - निदान न करने वाले मुनिजन सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप रत्नत्रय को भली प्रकार शुद्ध कर तथा विशुद्धात्मा होकर तप के द्वारा सब कर्मों का क्षय कर देते हैं ।। १३४५ ।। दोषानिति सुधीर्बुद्ध्वा निदानं विदधाति नो । जानानो दारुणं मृत्युं, को हि भक्षयते विषम् ।।१३४६ ।। अर्थ - बुद्धिमान जन इस प्रकार दोषों को जान कर कभी निदान नहीं करते हैं क्योंकि ऐसा कौन पुरुष है जो दारुण मृत्युदायक विष को जानता हुआ भक्षण करेगा ? ।। १३४६ ।। लुम्पति पातकलोपि चरित्रं, सिद्धि-सुखं विधुनोति पवित्रम् । देहवतामुरु-दोष - निधानं, किं कुशलो न शृणाति निदानम् ।। १३४७ ।। अर्थ - यह निदान पापों का नाश करने वाले चारित्र को लूट लेता है तथा पवित्र सिद्धिसुख को नष्ट कर डालता है, ऐसे महान् दोषों के भण्डार स्वरूप निदान बन्ध को क्या बुद्धिमान् कुशल भुनिजन नष्ट नहीं कर देंगे ? अवश्यमेव नष्ट कर देंगे ।। १३४७ ॥ आलोचनाधिकारस्य, मायाशल्यस्य दूषणम् । उक्तं मिथ्यात्व - शल्यस्य, मिथ्यात्व - वमन - स्तवे ।। १३४८ ॥ अर्थ - (निर्यापकाचार्य क्षपक को स्मरण दिला रहे हैं कि हे क्षपक !) आलोचनाधिकार में मायाशल्य के दोष कहे जा चुके हैं, 'मिध्यात्व - वमन प्रकरण में मिथ्यात्वशल्य के भी दोष कहे गये हैं अतः इस निदान शल्य के साथ-साथ तुम माया और मिथ्याशल्य का भी त्याग करो ।। १३४८ ॥ माया शल्य का त्याग न करने से संसारभ्रमण करना पड़ता है, उसका दृष्टान्त इस प्रकार है मायाशयेन ही बोधेः, प्रभ्रष्टा कुथितानना । दासी सागरदत्तस्य पुष्पदन्तार्जिका - भवे ।। १३४९ ॥ अर्थ - पुष्पदन्ता नामक आर्थिका मायाशल्य के कारण रत्नत्रय से भ्रष्ट होकर अगले भव में सागरदत्त सेठ के यहाँ दुर्गन्धित मुखवाली दासी हुई थी ।। १३४९ ।। Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरणकण्डिका ३८६ * पुष्पदंता आर्यिका की कथा * अजितावर्त्त नगरके राजा पुष्पचूलकी पट्टरानीका नाम पुष्पदंता था। किसी दिन संसारसे विरक्त हो राजाने दैगंबरी दीक्षा ग्रहण की। देखादेखी पुष्पदंताने भी आर्यिकाप्रमुख ब्रह्मिला के निकट आर्यिका दीक्षा ली किन्तु इसे अपने रूप, सौभाग्य पट्टरानी पदका बहुत अभिमान था जिससे वह किसी अन्य आर्यिकाका विनय नहीं करती, न किसीको नमस्कार करती, सदा अपनी उच्चताका प्रदर्शन करती रहती। अपने शरीरमें सुगंधित तैलादिका संस्कार करती। एक दिन गणिनी ब्रह्मिला आर्यिकाने उसे बहुत समझाया कि देखो ! आर्यिका पदमें ऐसा शरीर - संस्कार वर्जित हैं तथा तुम्हें गुरुजनोंका, आयिंकाओंका विनय करना चाहिये इत्यादि । किन्तु पुष्पदंताने मायाचारसे असत्य वचन कहा कि मेरे शरीर में निसर्गत: भुगंध आती है मैं कुछ नहीं लगाती, इत्यादि । इस मायाचारके साथ उसकी मृत्यु हुई अर्थात् उसने अंततक माया शल्यको नहीं छोड़ा। फलस्वरूप वह चंपापुरीके सेठ सागरदत्तके यहाँ दासी होकर जन्मी । निदान - माया - विपरीतदर्शनैर्विदार्यतेऽङ्गी निशितैः शरैरिव ॥ विबुध्य दोषानिति शुद्ध-बुद्धयस्त्रिधापि शल्यं दवयन्ति यत्नतः || १३५० ॥ अर्थ - निदान, माया एवं मिथ्यात्व इन तीन शल्यों द्वारा यह प्राणी इसप्रकार विदीर्ण किया जाता है मानों पैने और नुकीले बार्णो द्वारा ही विदीर्ण हुआ हो, अतः इन शल्यों के दोषों को जानकर शुद्ध बुद्धिवाले पुरुष प्रयत्नपूर्वक मन, वचन एवं काय से सदा के लिए इन शल्यों को दूर कर देते हैं ।। १३५० ।। विद्धो मिथ्यात्व - शल्येन, धार्मिको वत्सलाशयः । मरीचिरभ्रमद्धीमे, चिरं संसार कानने ।। १३५१ ।। अर्थ • जो धर्मप्रेमी एवं साधुओं के प्रति वात्सल्यभाव रखने वाला था, ऐसा गुणज्ञ मरीचिकुमार मिथ्याशल्य से वेधित हो जाने के कारण चिरकाल पर्यन्त संसाररूपी भयानक वन में भटकता रहा ।। १३५१ ॥ * मरीचि की कथा आदिनाथ तीर्थंकरके ज्येष्ठ पुत्र भरत चक्रवर्त्तीके हजारों पुत्रोंमें एक मरीचिकुमार नामका पुत्र था । आदिनाथ भगवान् जब विरक्त होकर दीक्षित हुए तब उनके साथ यह मरीचि भी दीक्षित हुआ था किन्तु क्षुधा आदिसे पीड़ित होकर अन्य राजाओं के समान यह भी भ्रष्ट हो गया । वृक्षकी छाल पहनकर जटाधारी तापसी बन गया। आत्मा सर्वथा शुद्ध है, भोक्तामात्र है, कर्त्ता नहीं, कर्त्ता तो प्रकृति है; इत्यादि सांख्याभि प्रायानुसार मिथ्यात्वा चिरकाल तक प्रचार करता रहा। वृषभदेवको केवलज्ञान प्राप्त होनेके अनंतर उन भ्रष्ट राजाओंने समवशरणमें दिव्यध्वनिको सुनकर जिनदीक्षा ग्रहण की किन्तु मरीचिने तीव्र मिध्यात्वके कारण दीक्षा नहीं ली। आयुके अंत में मरकर वह स्वर्गमें देव हुआ। पुनः मनुष्य लोकमें ब्राह्मण कुलमें उत्पन्न होकर पूर्वभव के संस्कारवश उसी मिथ्यामतमें परिव्राजक साधु बन गया। पुनः स्वर्ग गया। इसके अनंतर यत्र तत्र चारों गतियोंमें, चौरासी लाख योनियोंमें, नस-स्थावर पर्यायोंमें चिरकाल तक - इक्कीस हजार वर्ष कम एक कोटा कोटी सागर प्रमाण Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ३८७ कालतक भटकता रहा। पुनः सिंहकी पर्यायमें चारणऋद्धिधारी मुनियुगलसे धर्मोपदेश सुनकर सम्यक्त्वको ग्रहण क्रिया और महादुःखदायी मिथ्यात्वका त्याग किया। आगामी कुछ भवोंके अनंतर अंतिम तीर्थंकर भगवान् महावीर बनकर सिद्धपद पाया। इसप्रकार मरीचिने मिथ्यात्व शल्यके कारण घोर कष्ट सहा । निर्यापकाचार्य द्वारा संस्तुत साधुवर्ग के साथ-साथ क्षपक को महाव्रत-आदि के निर्दोष परिपालन हेतु उपदेश प्रव्रज्यागंत्रिकां गुप्ति-चक्रां ज्ञान-महाधुरम् । समित्युक्षाणमारुह्य, क्षपको दर्शनादिकम् ॥१३५२ ।। प्रस्थितः साधु-सार्थेन, व्रतभाण्डभृता सह। सिद्धि-सौख्य-महाभाण्डं, ग्रहीतुं सिद्धि-पत्तनम् ॥१३५३॥ अर्थ - जिसमें तीन गुप्ति रूप पहिये लगे हैं, जो ज्ञानरूपी महाधुरा से युक्त है और समितिरूपी बैलों द्वारा ले जाई जाती है ऐसी जिन-दीक्षारूपी गाड़ी है। महाव्रतरूपी माल साथ लेकर जाने वाले अन्य व्यापारियों के साथ एक क्षपक साधुरूपी व्यापारी अपने सम्यग्दर्शनादि को लेकर उस गाड़ी पर चढ़ जाता है और निर्वाण सुखरूपी माल खरीदने के लिए बह निर्वाणनगर के प्रति प्रस्थान कर देता है ।।१३५२-१३५३ ।। सार्थः संस्क्रियमाणोऽसौ, भीमां जन्म-महाटवीम् । आचार्य-सार्थवाहेन, महोद्योगेन लङ्यते ।।१३५४ ।। अर्थ - उन व्यापारियों के संघाधिपति निर्यापकाचार्य हैं। उनके द्वारा समीचीन मार्गदर्शन प्राप्त कर वह आराधक साधु समुदाय संसाररूपी भयावह अटवी को महान् उद्योग अर्थात् पुरुषार्थ के साथ पार कर जाता है।।१३५४॥ तं भावना-महाभाण्डं, त्रायते भव-कानने । कषाय-व्यालतः सूरिरिन्द्रिय-स्तेनतस्तथा ॥१३५५ ॥ अर्थ - वे सार्थवाहियों के संघाधिपति निर्यापकाचार्य भावनारूपी बहुमूल्य माल ले जाने वाले साधुसमुदाय की उस संसार रूपी भयंकर वन में कषायरूपी अनेक जंगली हिंसक पशुओं से एवं इन्द्रियविषयरूपी चोर लुटेरों से रक्षा करते हैं ।।१३५५ ।। प्रश्न - भावनारूपी बहुमूल्य माल क्या है और इस श्लोक का तात्पर्य अर्थ क्या है ? उत्तर - यहाँ पाँच महाव्रतों की पच्चीस भावनाएं ही बहुमूल्य धन कहा गया है। संसार रूपी वन में पद-पद पर कषाय रूपी हिंसक पशु और स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण एवं शब्दादि इन्द्रिय विषय रूपी चोर व्याप्त हैं। इनके अर्थात् इष्टानिष्ट इन्द्रिय विषयों के निमित्त से उत्पन्न होने वाले राग-द्वेष प्रमादी साधु के चारित्र को नष्ट कर देते हैं, किन्तु संघाधिपति निर्यापकाचार्य क्षएक सहित सर्व संघ को ध्यान एवं अध्ययन में लगा कर Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरणकण्डिका - ३८८ निष्प्रमादी अर्थात् जाग्रत रखते हैं, जिससे उनका चरित्रकी धन सुरक्षित रह जाता है, लोनिविदाधु को विषयरूपी चोर लूट नहीं पाते । उक्त कथन का यही तात्पर्य अर्थ है। अवसन्न नामक भ्रष्ट मुनि प्रमाद-वशतो यातो, भ्रष्टो विषय-कानने। तदीयं व्रत-सर्वस्वं, लुप्यतेऽक्षमलिम्लुचैः॥१३५६ ।। अर्थ - जो साधु विषयरूपी वन में प्रमाद के वशीभूत हो मार्गभ्रष्ट हो जाते हैं, उनके व्रतरूपी सर्वस्व धन को इन्द्रियरूपी चोर बलात् लूट लेते हैं ।।१३५६ ॥ तमसंयम-दन्ष्ट्राभिः, संक्लेश-दशनैः शितैः। कषाय-श्वापदाः क्षिप्रं, दूरक्षा भक्षयन्ति च ।।१३५७ ।। अर्थ - अधवा निर्यापकाचार्य को छोड़कर मार्गभ्रष्ट स्वच्छन्द रहने वाले साधु को कषायरूपी दुष्ट श्वापद असंयमरूपी दाढ़ों से और संक्लेश रूपी पैने दाँतों से शीघ्र खा जाते हैं ||१३५७ ॥ यः साधुः सार्थतो भ्रष्टः, सिद्धि-मार्गानुयायिनः । सोऽवसन्न-क्रियाः साधुः, सेवमानोऽस्त्यसंयतः ॥१३५८॥ कषायाक्ष-गुरुत्वेन, तपस्वी सुख-भावनः। अवसन्न-क्रियो भूत्वा, सेवते करणालसः॥१३५९ ।। (इति अवसन्नः) अर्थ - जो साधु निर्वाणमार्ग में साथ चलने वाले सार्थ अर्थात् संघ को छोड़कर भ्रष्ट हो जाता है, वह अवसन्न क्रिया अर्थात् आवश्यक क्रियाओं में शिथिल होता हुआ असंयमी हो जाता है। सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करने की इच्छायुक्त वह तपस्वी कषाय एवं इन्द्रिय विषयों के आधीन होकर तेरह प्रकार के चारित्र में आलसी होता हुआ शिथिलाचारी हो जाता है। ऐसा साधु अवसन्न कहलाता है॥१३५८१३५९ ॥ इस प्रकार अवसन्न साधु प्रकरण पूर्ण हुआ। पार्श्वस्थ नामक भ्रष्ट मुनि हृषीक-तस्करीमैः, कषाय-श्वापदैरपि। विमोच्य नीयते मार्गे, साधुः सार्थस्य पार्श्वत: ।।१३६०॥ अर्थ - जो साधु इन्द्रियरूपी चोरों और कषायरूपी श्वापदों अर्थात् हिंसक जीवों द्वारा पकड़े जाने के कारण सुखी जीवन में आसक्त होता हुआ साधुरूपी व्यापारियों को छोड़ देता है और स्वच्छन्द होकर पार्श्वस्थ अर्थात् भ्रष्ट मुनियों का आचरण करने लगता है वह पार्श्वस्थ कहलाता है॥१३६० ।। Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ३८९ साधुः सार्थ परित्यज्य, नीयमानो महाभयम् । सहते दारुणं दुःखं, प्राप्तो गौरव-काननम् ॥१३६१ ॥ अर्थ - साधु समूह रूपी सार्थ को छोड़कर वे पार्श्वस्थ साधु ऋद्धि-गौरव, रस गौरव एवं सात गौरव से भरे गहन वन में प्रविष्ट होकर दारुण अर्थात् तीव्र दुख सहन करते हैं।॥१३६१ ।। शल्य-दुःकण्टकैर्विद्धाः, पतिता दुःखमासते। एकाकिनोऽटवीं याता, विद्धा वा विष-कण्टकैः ।।१३६२ ।। अर्थ - जैसे विषैले काँटों से बिंधे हुए मनुष्य अटवी में अकेले पड़े हुए दुख पाते हैं, वैसे ही मिथ्या, माया और निदान शल्य रूपी काँटों से विद्ध हुए वे पार्श्वस्थ मुनि महादुखमयी स्थान को प्राप्त होते हैं ।।१३६२ ।। साधः सार्थपथं त्यक्त्वा, स पार्श्वे यानि संयतः। पार्श्वस्थानां क्रियां याति, यश्चारित्र-विवर्जितः ।।१३६३ ॥ अर्थ - वह पार्श्वस्थ साधु सार्थपथ अर्थात् साधुवर्ग के मार्ग को छोड़कर ऐसे मुनि के पास चला जाता है जो चारित्र से भ्रष्ट होकर पार्श्वस्थ मुनियों के सदृश आचरण करता है।।१३६३ ॥ कषायाक्ष-गुरुत्वेन, पश्यन्वृत्तं तृणं यथा । भूत्वा निर्धर्मको याति, पार्श्वस्थानां सदा क्रियाः॥१३६४॥ (इति पार्श्वस्थः) अर्थ - जो भ्रष्ट मुनि की संगति करता है वह कषाय एवं इन्द्रियों की तीव्रता के भार से युक्त होता हुआ महाव्रतादि रूप चारित्र को तृण सदृश तुच्छ समझता है। इस प्रकार धर्मरहित होता हुआ वह साधु पार्श्वस्थ अर्थात् भ्रष्ट मुनि का आचरण करने लगता है ।।१३६४ ॥ प्रश्न - पार्श्वस्थ मुनि को चारित्रभ्रष्ट क्यों कहा गया है? उत्तर - कषाय और इन्द्रिय विषयों की तीव्रता से राग-द्वेषरूप अशुभ परिणाम होते हैं। ये अशुभ परिणाम तत्त्वज्ञान के प्रतिबन्धक हैं, अत: उस मुनि का ज्ञान दूषित हो जाता है जिससे वह चारित्र को सारहीन मानता है। चारित्र में आदरभाव न होना ही चारित्रभ्रष्टता है | चारित्रभ्रष्ट होकर वह मुनि पार्श्वस्थ मुनियों की सेवा में लग जाता है। || इस प्रकार पार्श्वस्थ का कथन पूर्ण हुआ॥ कुशील नामक भ्रष्टमुनि अक्ष-चौर-हताः केचित्, कषाय-व्याल-भीतितः। उन्मार्गेण पलायन्ते, साधु-सार्थस्य दूरतः॥१३६५॥ अर्थ - कोई साधु इन्द्रिय रूपी चोरों द्वारा पीड़ित होकर तथा कषाय रूपी हिंसक पशुओं से भयभीत सार्थ अर्थात् संघ को दूर से छोड़ कर उन्मार्ग अर्थात् रत्नत्रय से विपरीत मार्ग पर भाग जाते हैं।।१३६५ ।। Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ३९० ततोऽपथेन धावन्तः, कुशीलानां क्रियावने । क्लेश-स्रोतोभिरुहान्ते, याता: संज्ञा-महानदीः॥१३६६ ॥ अर्थ - कुमार्ग पर दौड़ते हुए वे साधु कुशीलरूप वन में स्थित आहार, भय, मैथुन और परिग्रह संज्ञा रूपी महानदी को प्राप्त हो क्लेशरूपी प्रवाह द्वारा बहा कर ले जाये जाते हैं ।।१३६६॥ संज्ञा-नदीषु ते मग्नाः, क्वचिदप्यनवस्थिताः। पश्चाजन्मोदधिं यान्ति, दुःख-भीम-झषाकुलम् ॥१३६७ ।। अर्थ - संज्ञारूपी महानदी में डूब जाने वाले उस साधु को वहाँ कहीं पर भी स्थिर ठहरने का स्थान नहीं मिलता अतः वे आगे-आगे बहते जाते हैं और अन्ततोगत्वा भयानक दुखरूपी मछलियों से व्याप्त जन्मकामरूपी संसार मु में जिलाते हैं : १३६७।। दुराशा-गिरि-दुर्गाणि, गत्वा दण्ड-शिलोत्करे। . भ्रष्टाः सन्ताश्चिरं कालं, गमयन्ति महाव्यथाः॥१३६८ ।। __अर्थ - संसार-समुद्र में प्रविष्ट हो जाने पर वे मुनि आशारूपी पर्वतों के दुर्गम स्थानों को लांघते हुए दण्ड रूपी निष्ठुर शिला पर गिरते हैं। अर्थात् मन, वचन और काय की असत् प्रवृत्तियों में तल्लीन हो जाते हैं, इस प्रकार चारित्र से भ्रष्ट होकर चिरकाल तक महादुख भोगते हुए समय बिताते हैं।।१३६८।। पापकर्म-महाटव्यां, विप्रनष्टा: कदाचन ।। सुख-मार्गमपश्यन्तस्तत्रैवायान्ति ते पुनः ॥१३६९॥ अर्थ - अशुभ कर्मरूप महा भयंकर अटवी में दिग्मूढ़ हुए वे मुनि निर्वाणमार्ग कभी न देख पाने से पुन: पुन: वहीं भ्रमण करते हैं। अर्थात् सर्वप्रथम वे उत्तर गुण छोड़ते हैं फिर मूलगुण और सम्यक्त्व से भी भ्रष्ट होकर अनन्तकाल पर्यन्त संसार में भटकते रहते हैं ॥१३६९ ।। साधु-सार्थं स दूरेण, त्यक्त्वोन्मार्गेण नश्यति । क्रिया यान्ति कुशीलाना, या सूत्रे प्रतिदर्शिताः ॥१३७० ।। अर्थ - ऐसे साधु साधर्मियों के संग को दूर से ही त्याग कर कुमार्ग में दौड़ते हुए चारित्रभ्रष्ट हो जाते हैं और आगम में कही हुई कुशील मुनियों की क्रियाओं के सदृश ही आचरण करने लगते हैं।।१३७० ॥ कषायाक्ष-गुरुत्वेन, वृत्तं पश्यस्तृणं यथा। सेवते ह्रस्वको भूत्वा, कुशील-विषयाः क्रियाः॥१३७१॥ (इति कुशीलः) अर्थ - वे मुनि इन्द्रिय और कषायरूप परिणामों की तीव्रता के कारण चारित्र को तृण के सदृश मानते हैं और अत्यन्त हीन अर्थात् निर्लज्ज होकर कुशील विषयजन्य क्रियाओं का आचरण करते हैं ।।१३७१ ।। ॥ इस प्रकार कुशील मुनि का कथन पूर्ण हुआ। Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चल मरणकण्डिका ३९९ स्वच्छन्द नामक भ्रष्ट मुनि केचित्सिद्धि - पुरासन्नाः, कषायेन्द्रिय- तस्करैः । मुक्तमाना निवर्तन्ते, लुप्त चारित्र - सम्पदः ।। १३७२ ॥ अर्थ- कोई मुनि निर्वाणनगर के निकट तक जाकर भी कषाय और इन्द्रिय रूपी चोरों के द्वारा चारित्ररूपी सम्पदा चुरा लेने के कारण संयम का अभिमान त्याग, मिथ्यात्वी होते हुए वापिस लौट आते हैं । १३७२ ।। ततः शील- दरिद्रास्ते, लभन्ते दुःखमुल्वणम् । बहुभेद - परीवारा, निर्धना इव सर्वदा ।। १३७३ ।। अर्थ - जैसे बहुत संसार के महाभयंकर दुख भोगते हैं ।। १३७३ ।। परिवार वाला दरिद्री मनुष्य तीव्र दुख पाता है, वैसे ही वे शील से दरिद्री भ्रष्ट मुनि - स सिद्धि-यायिनः साधुर्निर्गतः साधु-मार्गतः । स्वच्छन्द - स्वेच्छमुत्सूत्रं, चरित्रं यः प्रकल्पते ॥ ३१३७४ ।। अर्थ - निर्वाण मार्ग में चलने वाले साधु संघ से निकल कर पूर्वाचार्यों द्वारा नहीं प्रतिपादित आगमविरुद्ध मार्ग की जो अपनी स्वेच्छानुसार कल्पना करते हैं, वे चारित्रभ्रष्ट स्वच्छन्द साधु होते हैं ।। १ ३७४ ॥ यज्जायते यथाछन्दो, नितरामपि कुर्वतः । वृत्तं न विद्यते तस्य, सम्यक्त्व - सह चारितः ॥ १३७५ ।। अर्थ - जो बाह्य में उत्कृष्ट संयमाचरण का दिखावा करते हुए भी मनचाही प्रवृत्तियों में यथाछन्द हो गया है उसके सम्यक्त्व का सहचारी चारित्र नहीं होता ।। १३७५ || प्रश्न यथाछन्द साधु के सम्यक्त्व नहीं होता, यह कैसे जाना ? उत्तर - पूर्वाचार्यों द्वारा प्रतिपादित आगम पर दृढ़ श्रद्धा रखते हुए यथाशक्ति आचरण स्वयं करना और शिष्य समुदाय से कराना यही सम्यक्त्वी का लक्षण है, किन्तु जो स्वच्छन्द होता है वह तो जो उसकी इच्छा होती है तदनुसार ही आचरण करता/कराता है और उसी का प्रचार-प्रसार करता है, आगम का अनुसरण नहीं करता, अत: सिद्ध हो जाता है कि उसके सम्यक्त्व नहीं होता । सम्यग्दृष्टि के तो आगम ही प्राण होते हैं। जिनेन्द्र - भाषितं तथ्यं, कषायाक्ष-गुरुकृतः । प्रमाणी - कुरुते वाक्यं यथाछन्दो न दुर्मनाः ॥१३७६ ॥ (इति स्वच्छन्दः ) अर्थ - कषाय और इन्द्रियों की प्रबलता के भार से आक्रान्त यथाछन्द भ्रष्ट साधु खोटे मन वाला होता है, अतः वह आगम को प्रमाण नहीं मानता और जिनेन्द्र द्वारा कहे हुए अर्थ को अपनी इच्छानुसार विपरीत रूप से ग्रहण कर उसे ही प्रमाणभूत मानता है ॥ १३७६ ।। || स्वच्छन्द नामक भ्रष्ट मुनि का कथन पूर्ण हुआ ।। Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ - जो कषाय एवं इन्द्रियों के दोष के कारण सामान्य ध्यानादि से विरक्त हो चारित्र से गिर जाता है वह अपने आचरण से परिश्रान्त अर्थात् च्युत होता हुआ साधुसंघ से पृथक् हो जाता है अर्थात् साधु-संघ को छोड़ देता है ।। १३७७ ।। भरणकण्डेका - ३९२ संसक्त नामक भ्रष्ट मुनि कषायेन्द्रिय दोषेण, वृत्तात् सामान्य - योगतः । यः प्रभ्रष्टः परिश्रान्त:, स भ्रष्टः साधु-सार्थतः ॥ १३७७ ।। - अर्थ कोई दुर्बुद्धि मुनि कषाय एवं इन्द्रियों की तीव्रता द्वारा निर्मित सम्पूर्ण दोषों से संसक्त अर्थात् युक्त होकर उन सब अशुभ स्थानों को प्राप्त हो जाते हैं अर्थात् सर्व अशुभ परिणामों को प्राप्त हो जाते हैं ॥१३७८ ॥ स्थानानि तानि सर्वाणि, कषायाक्ष-गुरुकृता: । संसक्ताः सकलैर्दोषैः केचिद्रच्छन्ति दुर्धियः ॥१३७८ ।। - इत्येते साधवः पञ्च, निन्दिता जिन शासने । प्रत्यनीक-क्रियारम्भाः कषायाक्ष-गुरुकृताः ॥ १३७९ ॥ अर्थ - इस प्रकार अवसन्न, पार्श्वस्थ, कुशील, यथाछन्द और संसक्त ये पाँच प्रकार के साधु जिनागम में निन्दनीय कहे गये हैं। ये सदा कषायों एवं इन्द्रिय विषयों में आसक्ति की प्रबलता के कारण साधु पद के विरुद्ध आचरण करते हैं । १३७९ ।। दुरन्ताश्चञ्चला दुष्टा, वृत्त सर्वस्व हारिणः । दुर्जयाः सन्ति जीवानां, कषायेन्द्रिय तस्कराः ॥१३८० ॥ अर्थ- इन्द्रिय-विषय एवं कषायरूप परिणाम ही यथार्थतः दुर्जय चोर हैं। ये अन्त में अत्यन्त खोटा फल देते हैं, दुष्ट हैं, अनवस्थित होने से चंचल हैं और साधुओं का चारित्ररूपी धन हरण करने वाले हैं ।। १३८० ॥ साधुओं के भी कषायरूप परिणाम और इन्द्रिय विषयभोग के परिणाम क्यों होते हैं? और इन्हें चंचल एवं नित्यादि क्यों कहा है? प्रश्न उत्तर - संसारी जीवों के साथ जब तक चारित्र मोहनीय कर्म का सम्बन्ध रहेगा तब तक आत्मा में इन्द्रिय-विषयों का और कषायों का सद्भाव रहेगा ही रहेगा। जिन जीवों के चारित्रमोह के क्षयोपशम की प्रकर्षता नहीं होती वे जीव बड़े कष्ट से इन पर विजय प्राप्त कर पाते हैं। इन्हीं में से जो जीव इनके आधीन हो जाते हैं वे चारित्र से भ्रष्ट होकर बह जाते हैं। इन्द्रियों और कषायों का परम्परागत सम्बन्ध बना रहता है अतः ये नित्य सदृश हैं। कषाय परिणाम कभी एक स्वरूप में नहीं रहते, कभी क्रोध, कभी मान कभी लोभादि रूप होते रहते हैं अतः इन्हें चंचल कहा है । यह अनुभवसिद्ध बात है कि भोगों के अलाभ में या प्राप्ति हो जाने पर या उनका नाश हो जाने पर जीवों को कष्ट होता है अतः इन भोगों को दुष्ट कहा गया है। Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका -३१३ छिद्रापेक्षाः सेव्यमाना विभीमा, नो पार्श्वस्थाः कस्य कुर्षन्ति दुःखम्। क्रोधाविष्टाः पन्नगा वा, द्विजिह्वाः विज्ञायेत्थं दूरतो वर्जनीयाः ।।१३८१॥ अर्थ - ये पार्श्वस्थादि भ्रष्ट मुनि दूसरों के दोष ढूंढने वाले हैं, भयानक हैं और क्रोधित सर्प के समान या दुमुँही के समान हैं। जो इनकी संगति करता है उनमें से ये किसको दुख नहीं देते ? अपितु सभी को दुख देते हैं। ऐसा जान कर इन्हें दूर से ही छोड़ देना चाहिए ||१३८१॥ तृण-तुल्यमवेत्य विशिष्टफलं, परिमुच्य चरित्रमपास्तमलम् । बहुदोष-कषाय-हषीक-दशा, निवसन्ति चिरं कुगतावषशाः ।।१३८२ ।। (इति संसक्ता) अर्थ - अनुपम फल देने वाले निर्दोष चारित्र को तृण के समान मान कर छोड़ देते हैं और अत्यधिक दोषों के निधान स्वरूप कषायों एवं इन्द्रियों के आधीन हो जाते हैं। इस प्रकार अशुभ भावों के वशवर्ती हो ये भ्रष्ट मुनि कुगतियों में चिरकाल तक निवास करते हैं ।।१३८२॥ इस प्रकार संसक्त मुनि का कथन पूर्ण हुआ। दृष्टान्त पूर्वक भ्रष्ट मुनियों की अवस्था कश्चिद्दीक्षामुपेतोऽपि, कषायाक्षं निषेवते। तैलमागुरवं बस्तः, प्रतिवाति पिवन्नपि ॥१३८३॥ अर्थ - जैसे अगुरु चन्दन का अत्यन्त सुगन्धित तेल पीता हुआ भी बकरा अपनी दुर्गन्ध नहीं छोड़ता, वैसे ही जिनदीक्षा लेकर अर्थात् असंयम का परित्याग कर देने पर भी कोई-कोई साधु कषायों और इन्द्रियविषयों का आनन्द से सेवन करते हैं। अर्थात् कषायों और विषयों की भयंकर दुर्गन्ध नहीं छोड़ पाते ।।१३८३ ॥ मुक्त्वापि कश्मन ग्रन्थं, कषायाक्षं न मुञ्चति । हित्वापि कञ्चुकं सर्पो, विजहाति विषं नहि ॥१३८४॥ ___ अर्थ - जैसे सर्प कांचली छोड़ देता है किन्तु विष नहीं छोड़ पाता, वैसे ही कितने मनुष्य बाह्य परिग्रह त्याग करके भी कषायों एवं इन्द्रिय-विषयों को नहीं छोड़ पाते ।।१३८४ ।। ___ दीक्षितोप्यधम: कश्चित्, कषायाक्षं चिकीर्षति । शूकरः शोभनैः रत्नैर्मलं तृप्तोपि कांक्षति ॥१३८५ ॥ अर्थ - जैसे सूकर सुन्दर एवं उत्तम रत्न स्वरूप उत्तमोत्तम भोजन से तृप्त हो जाने पर भी मल (विष्ठा) की इच्छा करता रहता है, वैसे ही कोई-कोई नीच मनुष्य दीक्षित होकर भी कषाय भावों की मलिनता एवं इन्द्रिय भोगों की वांछा करते रहते हैं अर्थात् उन्हें नहीं छोड़ पाते ।।१३८५॥ प्रश्न - इस श्लोक का तात्पर्यार्थ क्या है ? उत्तर - इसका तात्पर्य यह है कि जैसे सूकर विष्ठाभक्षण का ही अभ्यासी है अत: वह कदाचित् अच्छे Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परणकण्डिका - ३९४ पदार्थ खाकर तृप्त हो गया हो, फिर भी संस्कारों की वशवर्तिता से विष्ठा को देखते ही उसे खाने की इच्छा करेगा । वैसे ही मनुष्य को गृहस्थावस्था में पद-पद पर राग, द्वेष, लोभ, ईर्षा, मात्सर्य एवं मायाचार के भाव तथा मनोहर भोजन-पानादि विषयों के सेवन का अभ्यास रहता है अत: दीक्षित होकर भी कदाचित् कोई अधम पूर्व संस्कारों के वशवर्ती हो उन्हीं कषायों एवं विषयों में तल्लीन रहते हैं और उन्हीं को चाहते हैं। दुशन्नों द्वारा कहते हैं कि गुफ के उपदेश से एवं स्वयं के पुरुषार्थ से भोगों का तथा परिग्रह का त्याग करके भी पुन: उन्हीं की वांछा करता है विहाय हरिणो यूथं, व्याध-भीत: पलायितः । स्वयं पुनर्यथा याति, वागुरां यूथ-तृष्णया॥१३८६ ।। अर्थ - जैसे शिकारी के भय से भागा हुआ कोई हिरण अपने झुण्ड को जाल में फंसा देखकर भी झुण्ड को प्राप्त करने की तृष्णा से स्वयं आकर पुन: उस जाल में फंस जाता है।।१३८६ ।। आरामे विचरन्स्वेच्छं, पतत्री पञ्जर-च्युतः। यथा याति पुनर्मूढः, पञ्जरं नीड-तृष्णया ॥१३८७ ॥ अर्थ - जैसे पिंजरे से मुक्त हुआ पक्षी उद्यानों में स्वेच्छा पूर्वक विचरण करते हुए स्वयं ही अपने नीड़ अर्थात् आवासप्रेम की आसक्ति से उसी पिंजरे में चला जाता है ॥१३८७ ।। उत्तारित: करीन्द्रेण, पङ्कत: कलभो यथा। स्वयमेव पुनः पळू, प्रयाति जल-तृष्णया ।।१३८८ ॥ अर्थ - जैसे महती कीचड़ में फँसा हाथी का बच्चा हाथी के द्वारा निकाल दिया गया, किन्तु जल की तृष्णावश अर्थात् जल पीने की इच्छा से वह स्वयं ही जाकर उसी कीचड़ में फँस गया ||१३८८ ।। उड्डीय शाखिनः पक्षी, सर्वतो वह्निवेष्टितात् । तत्रैव नीड-लोभेन, यथा याति पुनः स्वयम् ॥१३८९॥ अर्थ - पूर्णरूपेण अग्नि से घिरे हुए वृक्ष का त्याग कर अपने घोंसले के लोभ से जैसे कोई पक्षी पुनरपि स्वयं उसी वृक्ष पर आ जाता है।।१३८९ ॥ लयमानोऽहिना सुप्तो, जाग्रतोत्थापितो यथा। कौतुकेन तमादातुं, कश्चिदिच्छति मूढ-धीः ॥१३९० ॥ अर्थ - जैसे किसी सोते हुए मनुष्य के ऊपर से सर्प जा रहा था। किसी दयावान् मनुष्य ने उसे जगाकर उठा दिया, किन्तु वह मूढ़ बुद्धि उठ कर कौतूहलवश उस सर्प को पकड़ना चाहता है ।।१३९० ॥ स्वयमेवाशनं वान्तं, निर्लज्जो निघृणाशयः । सारमेयो यथानाति, कृपणोऽशन-तृष्णया॥१३९१ ।। अर्थ - जैसे कोई कृपण, निर्लज्ज और घिनावना कुत्ता भोजन की तृष्णावश अपने ही वमन किये हुए भोजन को लोलुपता से खाता है ॥१३९१ ।। Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ f मरणकण्डिका- ३९५ गृहवास तथा त्यक्त्वा, कश्चिद्दोष - शताकुलम् । कषायेन्द्रिय- दोषात, याति तं भोग-तृष्णया ।। १३९२ ।। अर्थ - वैसे ही सैकड़ों दोषों से युक्त गृहवास को छोड़कर कोई दीक्षा ग्रहण करता है किन्तु भोगों की तृष्णा के वशवर्ती हो कषाय और इन्द्रियविषयों की पीड़ा से भरे हुए गृहबास को पुनः स्वीकार कर लेता है ॥१३९२ ।। - प्रश्न गृहवास को सैकड़ों दोष युक्त एवं बुरा क्यों कहा जा रहा है ? में उत्तर - गृहस्थाश्रम ममत्व का अनुष्ठान अर्थात् "यह मेरा है" इस ममत्व का मूल कारण है, इसके स्वामी को माया एवं लोभ के जनक ऐसे जीवनोपाय सदैव करने पड़ते हैं, यह सर्व कषायों की खान है, दूसरों को पीड़ा देने तथा दूसरों का अनुग्रह करने में सदैव तत्पर रहता है, षट्काय के जीवसमूह के विधात का द्वार है, परिजनों द्वारा दुराचारादि का सेवन कर लेने के कारण अपकीर्ति होती है अतः यह मलिनता का कारण है। इसका निवासी मन, वचन, काय से सचित्ताचित द्रव्यों के ग्रहण और वृद्धि का सदैव प्रयास करता रहता है। इसमें रह कर मनुष्य असार में सारता, अनित्य में नित्यता, अशरण में शरणता, अशुचि में शुचिता, दुख सुखपना, अहित में हितपना, अनाश्रय में आश्रयपना तथा शत्रु में मित्रता मानता हुआ सब ओर दौड़ता है। जिससे निकलना कठिन है ऐसे काल रूपी लोहे के पिंजरे रूपी पेट में गये सिंह के सदृश, जाल में फँसे हिरणों के सदृश, अन्याय रूपी कीचड़ में धँसे वृद्ध हाथी के सदृश, पाशबद्ध पक्षी सदृश, जेल में बन्द चोर सदृश, व्याघ्रों के मध्य बैठे हुए निर्बल हिरण के सदृश एवं जाल में फँसे मगरमच्छ के सदृश, जिस गृहस्थाश्रम में रहने वाला गृहस्थ काल रूपी अत्यन्त गाढ़ अन्धकार के पटल से आच्छादित हो जाता है; उसे सदा राग रूपी महानाग सताते रहते हैं, चिन्ता रूपी डाकिनी सदा मुख फाड़े रहती है, शोक रूपी भेड़िये उसके पीछे दौड़ते रहते हैं, कोप रूपी अग्नि सतत जलाती रहती है, दुराशारूपीलताएँ उसे चारों ओर से वेष्टित किये रहती हैं, प्रिय वियोगरूपी बज्रपात उसके हृदय के टुकड़े-टुकड़े कर देता है, माया रूपी बुढ़िया उससे निरन्तर चिपकी रहती है, तिरस्कार रूपी कठोर कुठार उसे काटता रहता है, अपयश रूपी मल से उसका चित्त मलिन रहता है, महामोह रूपी सबल हाथी के द्वारा वह मारा जाता है, पाप रूपी पातकों द्वारा वह ज्ञान शून्य कर दिया जाता है, भय रूपी सुइयों से सतत कौंचा जाता है, प्रतिदिन श्रमरूपी कौओं के द्वारा खाया जाता है। ईर्षारूपी काजलसे विरूप किया जाता है, परिग्रह रूपी मगरमच्छों द्वारा पकड़ा जाता है, असूयारूपी पत्नी का प्यारा होता है, मानरूपी दानव का स्वामी होता है। वह संयममार्ग पर पैर नहीं रख पाता, अपने आप को संसाररूपी जेल से नहीं छुड़ा पाता, मृत्यु रूपी विषवृक्ष को नहीं जला पाता, मोहरूपी साँकल को नहीं तोड़ पाता, अपने को नाना प्रकार की योनियों में जाने से नहीं रोक पाता, कर्मों का जड़मूल से विनाश नहीं कर पाता, विशाल एवं धवल चारित्र रूपी तीन छत्रों की छाया का सुख प्राप्त नहीं कर पाता एवं अपनी आत्मा को सुखभूत स्थान पर नहीं ले जा पाता, इसी कारण गृहवास को दोषपूर्ण कहा गया है। दीक्षा लेकर भी विषय कषायों के वशीभूत होने वालों की स्थिति बन्ध-मुक्तः पुनर्बन्धं, निश्चितं स विवासति । यो दीक्षितः कषायाक्षान्सिषेवयिषते कुधीः ।। १३९३ ॥ Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ३९६ अर्थ - जो दीक्षित होकर भी कषायों एवं इन्द्रियों के विषयों का सेवन करने की इच्छा करता है वह दुर्बुद्धि निश्चित ही बन्धनमुक्त होकर मानों पुन: बन्धन में पड़ना चाहता है ।।१३९३॥ दीक्षित्वापि पुनः साधुः, कषायाक्ष-कलिं यदि। जिघृक्षति कलिं मुक्त्वा , पुन: स्वीकुरुते कलिम् ॥१३९४॥ अर्थ - जो दीक्षित होकर भी कषाय एवं इन्द्रिय विषय रूपी कलह को चाहता है वह मनुष्य कलह का त्याग कर मानों पुन: उसी कलह को स्वीकार करता है, क्योंकि इस लोक में कषायों एवं इन्द्रियविषयों के कारण ही कलह होती है ॥१३९४ ॥ विधाय ज्वलितं हस्ते मुर्मुरं स बभुक्षते। आक्रामति स कृष्णाहिं, व्याघ्रं स्पृशति सक्षुधम् ।।१३९५ ।। अर्थ - जो दीक्षित होकर पुनरपि कषाय एवं इन्द्रिय विषयों को स्वीकारता है वह हाथ में स्थित धधकते अलात को मानों नहीं छोड़ना चाहता, या कृष्ण सर्प को लांघ कर जाना चाहता है, या क्षुधा-पीड़ित व्याघ्र का स्पर्श करना चाहता है॥१३९५ ॥ कण्ठालग्न-शिलोऽगाधं, सोऽज्ञानो गाहते हृदम् । अबलो वापि यो दीक्षां, कषायाक्षं प्रपद्यते ।।१३९६ ॥ अर्थ - जो दीक्षा लेकर भी कषायां एवं इन्द्रियों के आधीन रहता है वह अज्ञानी मानों अपने गले में पत्थर की शिला बाँध कर अगाध समुद्र में प्रवेश करता है।।१३९६ ॥ गृहीतोऽक्ष-ग्रहाघ्रातो, नापरो ग्रह-पीडितः। अक्षयः स सदा दोषं, विदधाति कदाग्रहः ।।१३९७ ॥ अर्थ - जो इन्द्रिय रूपी ग्रह से पकड़ा हुआ है, वही यथार्थतः ग्रहपीड़ित है। जो शनि आदि ग्रह से पीड़ित है वह ग्रह पीड़ित नहीं है, क्योंकि ग्रह तो कदाचित् (अधिक से अधिक एक भव में) ही कष्ट देते हैं किन्तु इन्द्रियरूपी ग्रह भव-भव में सतत कष्ट देते हैं ।।१३९७ ॥ कषाय-मत्त उन्मत्तः, पित्तोन्मत्तोऽपि नो पुनः । प्रमत्तं कुरुते पापं, द्वितीयो न तथा स्फुटम् ॥१३९८ ।। अर्थ - जो कषाय से उन्मत्त है, वही यथार्थत: उन्मत्त पागल है, जो पित्त प्रकोप से उन्मत्त है वह उन्मत्त नहीं है, क्योंकि जो कषाय से उन्मत्त है वह जैसा पाप करता है, पित्तज्वर से उन्मत्त वैसा पाप नहीं करता ।।१३९८ ।। प्रश्न - कषायोन्मत्त और पित्त से उन्मत्त, इन दोनों में क्या अन्तर है ? उत्तर - पित्तज्वर से उत्पन्न उन्माद मात्र विवेकमूलक ज्ञान का ही तिरस्कार करता है किन्तु एक-एक भी क्रोधादि कषाय हिंसादि पापों में और विषय-वासनाओं में प्रवृत्ति कराती है। वे प्रवृत्तियाँ कर्मों के स्थितिबन्ध एवं अनुभागबन्ध के साथ-साथ जीव के संसार-भ्रमण को भी वृद्धिंगत करती हैं, अतः इन दोनों प्रकार के उन्मादों में बहुत बड़ा अन्तर है। Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका-३९७ कषायाक्ष-पिशाचेन, पिशाची-क्रियते जनः । जनानां प्रेक्षणीभतस्तीव-पाप-क्रियोद्यतः ॥१३९९ ।। अर्थ - कषाय एवं इन्द्रियरूपी पिशाच मनुष्य को पिशाचरूप ही कर देता है, पिशाच तो अदृश्य रहकर कुचेष्टा कराता है किन्तु कषाय और इन्द्रियरूपी पिशाच अन्य मनुष्यों के देखने योग्य तीव्र पापमयी कुचेष्टाएँ कराते हैं ॥१३९९॥ कुलवान संयमी साधुओं का कर्तव्य संयतस्य कुलीनस्य, योगिनो मरणं वरम् । लोकद्वय-सुख-ध्वंसि, न कषायाक्ष-पोषणम् ।।१४०० ।। अर्थ - संयमी और कुलीन साधु का मर जाना श्रेष्ठ है किन्तु दीक्षित होकर इस लोक और परलोक के सुख का नाश करने वाले कषायों एवं इन्द्रियों का पोषण उसे कभी नहीं करना चाहिए ।।१४०० ॥ निन्द्यते संयतः सर्वैः, कषायाक्ष-वशंगतः। सन्नद्धो धृत-कोदण्डो, नश्यन्निय रणाङ्गणे॥१४०१॥ अर्थ - जैसे धनुष-बाण हाथ में लेकर युद्ध के लिए तैयार हुआ कोई योद्धा यदि युद्धक्षेत्र से भागता है तो वह सभी के द्वारा निन्दा का पात्र होता है, वैसे ही दीक्षित साधु यदि कषायों एवं इन्द्रियों के आधीन होता है तो वह भी सभी के द्वारा निन्दनीय होता है ।।१४०१।। कषायाक्ष-वश-स्थायी, दूष्यते कैर्न संयतः। याचमानो यथा भिक्षा, भूषितो मुकुटादिभिः ।।१४०२ ।। अर्थ - जैसे मुकुट, हार एवं कुण्डलादि आभूषणों से सुशोभित कोई भिक्षार्थ भ्रमण करता है तो हँसी एवं निन्दा का पात्र होता है, वैसे ही दीक्षित होकर कषायों तथा इन्द्रियों के वशीभूत होने वाला साधु हँसी का पात्र होता है ।।१४०२॥ सर्वाङ्गीण-मलालीढो, ननो मुण्डो महातपाः। जायते सकषायाक्षश्चित्र-श्रमण-सन्निभः ।।१४०३ ।। अर्थ - अस्नान मूलगुण की पालना के कारण जो सर्वांग में मललिप्त है, वस्त्रमात्र का त्याग होने से जो नग्न है, केशलोच करने के कारण मुण्ड है और अनशनादितप करने के कारण महातपस्वी है किन्तु यदि वह कषाय एवं इन्द्रिय-विषयजन्य परिणामों से युक्त है तो वह साधु चित्र-अंकित श्रमण सदृश है अर्थात् श्रमणरूप का धारी होने पर भी श्रमण नहीं है॥१४०३॥ कषाय एवं इन्द्रिय विजय से लाभ ज्ञानदोषविनाशाय, कषायेन्द्रिय-निर्जयः। शस्त्रं शत्रु-विघाताय, जायते सत्व-सम्भवे ॥१४०४॥ Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका- ३९८ अर्थ - जैसे धैर्यशाली मनुष्य का शस्त्र ही शत्रु का विघात करता है, वैसे ही कषाय एवं इन्द्रिय विजेता साधु का ही ज्ञान, दोषों का अर्थात् कर्मों का क्षय करने में समर्थ होता है । १४०४ ॥ दोषाय जायते ज्ञानं, कषायेन्द्रिय- दूषितम् । आहारो हरते किं न, जीवितं विष मिश्रितम् ॥ १४०५ ॥ अर्थ - कषाय और इन्द्रिय-विषय रूप परिणामों के दोष से ज्ञान भी साधुओं में दोष ही उत्पन्न करता है । अर्थात् दूषित ज्ञान कर्मबंध का कारण है। सो ठीक ही है, क्या विषमिश्रित आहार जीवन का नाश नहीं करता अपितु करता ही है ।। १४०५ ॥ विदधाति गुणं ज्ञानं, कषायेन्द्रिय वर्जितम् । वपुर्योग्यं करोत्यन्नं, बल-वर्णादि- सुन्दरम् ।।१४०६ ॥ अर्थ - जैसे शरीर के योग्य विष रहित उत्तम आहार बल, रूप, तेज एवं लावण्यादि को बढ़ाता है, वैसे ही कषाय एवं इन्द्रिय विषय रूप परिणामों से रहित ज्ञान साधुओं के गुणों को वृद्धिंगत करता है ॥ १४०६ ।। कषायेन्द्रिय-दोषेण, ज्ञानं नाशयते गुणम् । शस्त्रमात्म-विनाशाय, किन्न भीरु- करस्थितम् ।। १४०७ ।। अर्थ - कषाय एवं इन्द्रिय रूप परिणामों के दोष से ज्ञान साधुओं के गुणों को नष्ट कर देता है। ठीक ही है, कायर पुरुष के हाथ में आया हुआ शस्त्र क्या उसके ही वध में निमित्त नहीं होता ? अपितु होता ही है || १४०७ ॥ कषायेन्द्रिय- दोषार्तः, शास्त्रज्ञोऽप्यवमन्यते । किं प्रेत: शस्त्र - हस्तोऽपि न खगैः परिभूयते ॥ १४०८ ॥ अर्थ - कषाय एवं इन्द्रियों के दोष से भली प्रकार शास्त्रों का ज्ञाता विद्वान् साधु भी अपमान का पात्र होता है। ठीक है, हाथ में शस्त्र होते हुए भी मृत योद्धा के शव को क्या गृद्ध आदि पक्षी नहीं खा जाते ? अपितु खा ही जाते हैं ||१४०८ ॥ वत्ते नाक्ष- कषायाः, श्रुतज्ञोऽपि प्रवर्तते । उड्डीयते कुत: पक्षी, लून-पक्षः कदाचन ॥। १४०९ ।। अर्थ - जैसे कटे हुए पंख वाला पक्षी इच्छा करते हुए भी उड़ नहीं सकता, वैसे ही इन्द्रियविषयों एवं कषायों के वशवर्ती हुआ बहुश्रुतज्ञ विद्वान् भी चारित्र में उद्यम नहीं कर पाता || १४०९ ॥ स्रंसते बह्वपि ज्ञानं, कषायेन्द्रिय- दूषितम् । सशर्करमपि क्षीरं, सविषं मंक्षु नश्यति ॥ १४१० ॥ अर्थ- जैसे शर्करा या मिश्री मिश्रित भी दूध विष के सम्पर्क से शीघ्र ही नष्ट अर्थात् विषैला हो जाता है, वैसे ही कषायों एवं इन्द्रियों के योग से विशाल ज्ञान भी नष्ट हो जाता है ।। १४९० ।। Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ३९९ ज्ञानं परोपकाराय, कषायेन्द्रिय-दूषितम्। किमूढमुपकाराय, रासभस्य हि चन्दनम् ।।१४११ ।। अर्थ - कषायों और इन्द्रियों से दूषित ज्ञान मात्र परोपकार के लिए होता है। ठीक ही है, गधे के द्वारा ढोया हुआ चन्दन क्या कभी गधे का उपकार करता है? अपितु नहीं करता॥१४११।। प्रश्न - दूषित ज्ञान पर का उपकारी होता है, यह कैसे कहा? उत्तर - गधे को चन्दन की सुगन्ध का ज्ञान नहीं होता अतः उसकी पीठ पर लदे हुए चन्दन से गधे को कोई लाभ नहीं होता, उसका लाभ अन्य लोग ही लेते हैं। वैसे ही शास्त्रज्ञान का फल है कषायों का शमन एवं इन्द्रियों के विषयों से विरक्ति । किन्तु जिनका ज्ञान इन्हीं दूषणों से दूषित है, वह ज्ञान परोपकार के लिए ही माना जायेगा। आत्मा, ज्ञान गुण से भिन्न नहीं है अत: उसे स्वयं अपना ही उपकार करना चाहिए, किन्तु दूषित हो जाने से वह स्वोपकारी नहीं बन पाता, उपदेश आदि के निमित्त से दूसरों का उपकार अवश्य कर देता है। स्वोपकार में कषायें एवं भोग-विषय बाधक बन जाते हैं। कषायाक्ष-गृहीतस्य, न विज्ञान प्रकाशते। निमीलितेक्षणस्येव, दीप: प्रज्वलितो निशि ।।१४१२ ॥ अर्थ - जैसे जिसने अपने नेत्र बन्द कर रखे हैं उसके लिए रात्रि में तीव्रता से जलता हुआ भी दीपक पदार्थों को प्रकाशित करने में समर्थ नहीं होता, वैसे ही जिसका ज्ञान इन्द्रियों एवं कषायों से प्रभावित रहता है, उसका ज्ञान वस्तुस्वरूप का प्रकाशक नहीं होता ||१४१२ ।। बहिर्निभृत-वेषेण, गृहीते विषयान्सदा। अन्तरामलिन: कङ्को, मीनानिव दुराशयः ।।१४१३ ।। अर्ध - जैसे बाह्य से श्वेत एवं निश्चल खड़ा बगुला अन्तरंग के खोटे परिणामों से युक्त होने के कारण अपनी ही चोंच से मछलियों को खाता है, वैसे ही बाह्य में नग्न दिगम्बर मुद्रा एवं गमनागमनादि क्रियाओं के द्वारा अन्तरंग में स्थित इन्द्रियविषयों एवं कषाय युक्त मलिन परिणामों को मायाचार द्वारा छिपाते हुए सदा विषयों का सेवन करता है ।।१४१३॥ घोटकोच्चार-तुल्यस्य, किमन्तः कुथितात्मनः । दुष्टस्य बक-चेष्टस्य, करिष्यति बहिः क्रिया ॥१४१४ ॥ अर्थ - जैसे घोड़े की लीद ऊपर से चिकनी किन्तु भीतर खुरदरी एवं दुर्गन्धित होती है अत: उससे क्या लाभ? वैसे ही जो साधु दुष्ट-स्वभावी बगुले के सदृश चेष्टा करता है उसकी प्रतिक्रमणादि बाह्य क्रियाएँ एवं अनशनादि बाह्य तपोवृत्तियाँ (अभ्यन्तर तपोवृत्ति नष्ट कर देने वाले) उस कुथित आत्मा को क्या फल प्रदान करेंगी ? कुछ भी नहीं ॥१४१४ ।। मता बहिः क्रिया-शुद्धिरन्तर्मल-विशुद्धये। बहिर्मल-क्षयेनैव, तन्दुलोऽन्तर्विशोध्यते ।।१४१५॥ - - Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ४०० अर्थ - अन्तरंग मल की विशुद्धि के लिए बाह्य क्रियाशुद्धि मानी जाती है क्योंकि चावल के तुषादि बाह्यमल के क्षय होने पर ही उसकी लालिमादि अन्तरंग मल की विशुद्धि होना सम्भव है ।।१४१५ ।। प्रश्न - बाह्य तप भी अपना फल देता है तब उसे गौण क्यों किया जा रहा है ? उत्तर - "जो जिसके लिए होता है वही प्रधान होता है" इस नीत्यनुसार अभ्यन्तर तप प्रधान है। जैसे चावल का तुषादि बाह्य मल निकालने के बाद ही उसका लालिमादि अन्तरंग मल शुद्ध किया जा सकता है वैसे ही शीघ्र ही बहुत सारे कर्मों की निर्जरा करने की क्षमता वाले अभ्यन्तर तप की वृद्धि के लिए अनशनादि बाह्य तप किये जाते हैं, फिर भी जैसे चावल का बाह्य तुष पहले निकाला जाता है पश्चात् अभ्यन्तर की लालिमा निकलती है, उसी प्रकार सर्वप्रथम बाह्य-क्रियाशुद्धि होती है, पश्चात् अन्तरंग शुद्धि होती है। यदि अन्तरंग शुद्धि नहीं हुई तो बाह्य क्रियाशुद्धि व्यर्थ है। अन्त: शुद्धौ बहिः शुद्धिनिश्चिता जायते यतः। बाां हि कुरुते दोषमन्तर्दोष विना कुत्तः ॥१४१६ ।। __ अर्थ - अन्तरंग शुद्धि होने पर नियमतः बाह्य शुद्धि होती है, क्योंकि इन्द्रियकषायादि परिणामरूप अभ्यन्तर दोर्षों के बिना साधु असत्य भाषणादि बाह्य दोष कहाँ से करेगा ? नहीं करेगा, अतः अन्तरंग परिणाम निर्मल बनाये रखने का पुरुषार्थ सतत करते रहना चाहिए ।।१४१६॥ बहिः शुद्धिर्यतो लिङ्गमन्तः शुद्धेः प्रजायते। नान्त: कोप-विमुक्तेन, भृकुटि: क्रियते बहिः ॥१४१७ ।। अर्थ - जो अन्तरंग में क्रोधादि कषायों से रहित है वह पुरुष बाह्य में भौंहादि टेढ़ी नहीं करता, इमा सिद्ध होता है कि अनशनादि तप विषयक बाह्य शुद्धि अभ्यन्तर परिणामों की विशुद्धि का चिह्न है ।।१४१८ । प्रश्न - बाह्य एवं अन्तरंग शुद्धि में क्या सम्बन्ध है ? उत्तर - जैसे आग होने पर ही धूम्र होता है वैसे ही बाह्य शुद्धि, अभ्यन्तर शुद्धि पर अवलम्बित है। जैसे धूम्र लिंग है और अग्नि लिंगी है, वैसे ही साधु की बाह्य शुद्धि लिंग है और अभ्यन्तर शुद्धि लिंगी है। इन दोनों शुद्धियों में जैसे लिंग-लिंगी सम्बन्ध है, वैसे ही अविनाभाव सम्बन्ध भी है। प्रश्न - अविनाभाव सम्बन्ध किसे कहते हैं ? उत्तर - जिसके होने पर जो होता ही है उसे अविनाभाव सम्बन्ध कहते हैं। जैसे जहाँ धूम्र होता है, वहाँ अग्नि अवश्य होती है, वैसे ही जिन साधुओं की अभ्यन्तर शुद्धि होती है उनकी बाह्य शुद्धि अवश्यंभावी है, होती ही है। यन्त्र प्रयान्ति स्थिति-जन्म-वृद्धीस्तद्दाते यैहृदयं कषायैः । काष्ठं हुताशैरिवतीव्र-तापैस्ते कस्य कुर्वन्ति न दुःखमुग्रम् ॥१४१८॥ अर्थ - जैसे तीव्र ताप युक्त अग्नि के द्वारा काष्ठ सन्तप्त किया जाता है, अर्थात् जलाया जाता है वैसे ही जिन कषायों के द्वारा हृदय संतप्त किये जाते हैं और जहाँ अर्थात् जिनसे संसार की स्थिति एवं जन्म की वृद्धि होती है, वे कषायें किसको भयंकर दुख नहीं देती ? सभी को दुख देती हैं ।।१४१८॥ Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + मरणकण्डिका- ४०१ यैः पोष्यन्ते दुःख-दान- प्रवीणास्तेषां पीडां ये ददन्ते दुरन्ताम् । भीमाकारा व्याधयो वा प्ररूढाः, सन्त्यक्षार्थाः कस्य ते न क्षयाय ॥१४१९ ॥ ॥ इति सामान्याक्ष - कषाय-दोषाः ॥ अर्थ- जो भयंकर दुख देने में प्रवीण हैं, प्राणियों को दुरन्त पीड़ा देने वाले अशुभ कर्मों को जो पुष्ट करते हैं और जो उत्पन्न हुए भयंकर रोगों के सदृश हैं वे इन्द्रियजन्य विषय किसका नाश नहीं करते ? अपितु सभी को भयंकर दुख देते हैं ॥ १४१९ ।। इस प्रकार सामान्यरूप से कषायों एवं इन्द्रियों के दोषों का कथन पूर्ण हुआ ।। ये रामा - काम - भोगानां प्रपञ्चेन निरूपिताः । अक्षाणामपि ते दोषा द्रष्टव्याः सकलाः स्फुटम् ।। १४२० ।। अर्थ- स्त्री और काम भोगों के जो दोष विस्तार पूर्वक पहले कहे गये हैं, वे सभी दोष इन्द्रिय-विषयों में होते हैं, ऐसा निश्चय करना चाहिए । १४२० ॥ इन्द्रियजन्य दोषों का विशेष कथन मधु - लिप्तामसेर्धारां, तीक्ष्णां लेढि स मूढ - धीः । इन्द्रियार्थं सुखं भुङ्क्ते, यो लोकद्वय दुःखदम् ।। १४२१ ।। अर्थ - जो मनुष्य दोनों लोकों में दुख देने वाले इन्द्रिय-भोगों को सुख मान कर भोगता है, वह मूढबुद्धि मान मधुलिप्त तलवार की तीक्ष्णधार को जिह्वा से चाटता है ।। १४२१ ॥ प्रश्न - इस श्लोक का क्या भाव है ? उत्तर के इसका भाव यह है कि जैसे मधुलिप्त तलवार की तीक्ष्ण धार जिह्वा से चाटते समय मधु कारण प्रारम्भ में थोड़ा सुख होता है किन्तु जिह्वा कट जाने से बहुत दुख होता है, वैसे ही विषय-भोगों में सुख अल्प होता है और दुख भयंकर होते हैं। - रूप-शब्द-रस- स्पर्श-गन्धासक्ता यथाक्रमम् । पतङ्ग - मृग-मीनेभ- भ्रमराः प्रलयं गताः ।। १४२२ ॥ - अर्थ तिर्यंचगति में जन्म लेने वाला रूपासक्त पतंगा, शब्दासक्त मृग, रसासक्त मछली, स्पर्शसक्त हाथी एवं गन्धासक्त भ्रमर नष्ट हो जाता है अर्थात् एक-एक विषय की आसक्ति भी इन प्राणियों के लिए प्राणघातक होती है || १४२२ ॥ मनुष्यगति का विषय राग रूप-शब्द-रस- स्पर्श-गन्धानां यदि हन्यते । एकैकेन तदा कस्य, सौख्यं पञ्चनिषेविणाम् ॥ ११४२३ ।। अर्थ - जब रूप, शब्द, रस, स्पर्श एवं गन्ध इन पाँच विषयों में से एक-एक विषयाधीन पतंगे आदि Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ४०२ प्राणी नष्ट हो जाते हैं तब जो एक ही पुरुष पाँचों इन्द्रियों के द्वारा पाँचों विषयों का सेवन करता है वह कौनसा सुख प्राप्त कर सकेगा? ॥१४२३ ।। मायां गध-रिवारज्यो, मोन्द्रिय-वशं गतः। विष-प्रसूनमाघ्राय, विपद्य नरकं गतः॥१४२४ ।। अर्थ - अयोध्यापुरी का राजा गन्धमित्र घ्राणेन्द्रिय के वशीभूत होकर नदी में विषैले फूल को सूंघ कर मरा और नरक चला गया ||१४२४ ।। * गंधमित्र की कथा ** अयोध्यानरेश विजयसेन के दो पुत्र थे, जयसेन और गंधमित्र । एक दिन राजा ने बड़े पुत्र जयसेन को राजा एवं छोटे पुत्र को युवराजका पद दिया और स्वयं मुनि दीक्षा लेकर वन में चले गये। गंधमित्र को युवराजपद अच्छा नहीं लगा, उस अन्यायी ने कूटनीति द्वारा जयसेन को राज्य से च्युत कर दिया। इससे जयसेन भी कुपित हुआ और गंधमित्र को मारने का विचार करने लगा। गंधमित्र विविध प्रकार के फूलों को सूंघने में सदा आसक्त रहता था। एक दिन रानियों के साथ वह सरयू नदी में जलक्रीड़ा कर रहा था । जयसेन ने मौका पाकर नदी के प्रवाह में ऊपर की ओर से भयकर विष जिनमें छिड़का गया है ऐसे फूलों को छोड़ दिया। गंधमित्र ने उन फूलों को सूंघा, उससे वह तत्काल प्राण रहित हुआ और घ्राणेन्द्रिय के विषय सुगंधि की आसक्ति के कारण नरकगति में उत्पन्न हुआ। इस प्रकार एक घ्राणेन्द्रिय के विषय के दोष से राजा महादुःख को प्राप्त हुआ था। मूर्छिता पाटलीपुत्रं, श्रव्य-पञ्चाल-गीतितः। मृता गन्धर्वदत्तापि, प्रासादात्पतिता सती ।।१४२५॥ अर्थ - पाटलीपुत्र नगर में पांचाल नामक गायनाचार्य का गीत सुन कर गन्धर्वदत्ता नामक गणिका मूर्छित हो महल से नीचे गिरकर मर गई ।।१४२५ ॥ * गंधर्वदत्ता की कथा * पाटलीपुत्रके नरेशकी गंधर्वदत्ता नामकी अनिंद्य सुंदरी राजकन्या थी। वह गानविद्या में महानिपुण थी उसने प्रतिज्ञा की कि जो मुझे गायन कलामें जीतेगा उसे मैं वरूंगी। बहुतसे राजकुमार उसकी सुंदरतासे आकृष्ट होकर आये किन्तु कोई उस कन्याको जीत नहीं सका । एक दिन बहुत दूर देशसे एक गानविद्या का पंडित पंचाल नामका संगीताचार्य अपने पाँचसौ शिष्यों के साथ उस नगरीमें आया । राजकन्याकी प्रतिज्ञासे वह परिचित हुआ। उसने राजासे कहा कि आपकी कन्या गानविद्या में चतुर है। मैं भी इस विद्यासे परिचित हूँ। मैं आपकी पुत्रीका गीत-संगीत सुननेका इच्छुक हूँ। इसतरह की युक्तिसे उसने गंधर्वदत्ताके महलके पास अपना निवास स्थान प्राप्त किया। मध्य रात्रिके अनंतर शांत वातावरणमें वीणा की झंकारके साथ उसने सुमधुर गान प्रारंभ किया। गंधर्वदत्ता गहरी नींदमें सो रही थी, धीरे-धीरे उसके कर्णप्रदेश में संगीतकी लहरियाँ पहुँची और सहसा वह उठी। संगीत की ध्वनिने उसको ऐसा आकृष्ट किया कि वह बेभान हो जिधरसे वह मधुर शब्द आरहा था, उधर दौड़कर जाने लगी और उसका पैर चूक जानेसे महलसे गिरकर मृत्युको प्राप्त हुई। Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ४०३ मर्त्य मांस- रसासक्तः, काम्पिल्य- नगराधिपः । राज्य-भ्रष्टो मृतः प्राप्तो, भीमः श्वभ्रमुरुव्यथाम् ।। १४२६ ।। अर्थ- काम्पिल्य नगर का राजा भीम मनुष्य के मांस रस का प्रेमी था, जिस कारण राज्य से भ्रष्ट हुआ और मरकर नरक की महावेदना को प्राप्त हुआ था ।। १४२६ ।। * भीम राजाकी कथा कांपिल्य नगरका शासक राजा भीम था। वह दुर्बुद्धि मांसभक्षी होगया। नंदीश्वर पर्व में उसे मांस का भोजन नहीं मिला तो उसने रसोइये को कहा कि कहीं से मांस लाओ। रसोइया इधर-उधर खोजकर जब मांस को नहीं प्राप्त कर सका तो श्मशानसे मरे बालक को लाकर उसका मांस राजा को खिलाया। राजा तबसे नरमांसका लोलुपी हो गया। रसोइया उसके लिये गली-गलीमें घूमकर छोटे-छोटे बच्चों को कुछ मिठाई देकर इकट्टा करता और छलसे एक बालक को पकड़कर मार देता था और उसका मांस राजा को खिलाता। नगर मैं चंद दिनों बाद इस कुकृत्य का भंडाफोड़ हुआ और नागरिकों ने राजा तथा रसोइये को देश से निकाल दिया। दोनों पापी जंगल में घूमने लगे। राजा ने भूख से पीड़ित हो रसोइये को मारकर खा लिया। अंत में वह पापी नरभक्षक वासुदेव द्वारा मारा गया और अपने पाप का फल भोगने के लिये नरक में पहुँचा । सुवेगस्तस्करो दीनो, रामा - रूप - विषक्त - धीः । बाण-विद्धेक्षणो मृत्वा प्रपेदे नारकी पुरीम् ।। १४२७ ।। अर्थ - सुवेग नामक चोर युवती स्त्रियों के रूप को देखने का अनुरागी था, वह बाणों से विद्ध होकर मरा और नरकपुरी को प्राप्त हुआ || १४२७ ॥ * सुवेग चोर की कथा मद्दिल्ल नामके नगर में एक भर्तृमित्र नामका श्रेष्ठी पुत्र रहता था । उसकी पत्नीका नाम देवदत्ता था। वसंत ऋतुका समय था । सेठ भर्तृमित्र अपने अनेक मित्रोंके साथ वसंतोत्सवके लिये वनमें गया था। वहाँ पर वसंतसेन नाम के मित्र ने बाण द्वारा आम्र मंजरी को तोड़कर अपनी पत्नी को कर्णाभूषण पहनाये। उसे देखकर देवदत्ता ने अपने पति भर्तृमित्र से कहा- हे प्राणनाथ ! आप भी बाण द्वारा मंजरी तोड़कर मुझे दीजिये । भर्तृमित्र को बाणविद्या नहीं आती थी अतः वह उसे मंजरी नहीं दे सका। उसे बहुत लज्जा आयी । भर्तृमित्र ने मन में निश्चय किया कि मुझे बाणविद्या अवश्य सीखनी है। मेघपुर नामके नगरमें धनुर्विद्याका पंडित रहता था, उसके पास जाकर भर्तृमित्रने बहुत से रत्न देकर तथा उसकी सेवा करके बाणविद्या में अत्यंत निपुणता प्राप्त की। पुनश्च उस नगरके राजाकी कन्या मेघमालाको चंद्रक वेध प्रणमें जीतकर उसके साथ विवाह किया। दोनों सुखपूर्वक रहने लगे। किसी दिन भर्तृमित्रके घरसे समाचार आनेसे उसने राजासे विदा ली। राजवैभवके साथ रथमें सवार हो मेघमाला एवं भर्तृमित्र मद्दिल नगरकी ओर जा रहे थे। रास्ते में वनमें भीलोंकी पल्ली आयी । बनमें आगत पथिकोंको लूटना ही उन भीलोंका काम था। उनका सरदार सुवेग नामका था। सुवेग मेघमालाका मनोहर रूप देखकर मोहित हुआ और उसका अपहरण करनेके लिये युद्ध करने लगा। मेघमाला उसका मन युद्ध से विचलित 'करनेके लिये उसकी तरफ जाने लगी । सुवेग उसके रूपको देखने लगा इतनेंमें भर्तृमित्र ने बाण द्वारा उसके दोनों Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ४०४ नेत्र नष्ट कर दिये। उससे सुवेग घायल हो मृत्यु को प्राप्त हुआ। भर्तृमित्र मेघमालाके साथ निर्विघ्नरूपसे अपने नगरमें पहुँच गया। इसप्रकार सुवेग नेत्रेन्द्रिय के विषय में आसक्त होकर मृत्यु को प्राप्त हुआ। गोपासक्ता सुतं हत्वा, नासिक्य-नगरे मृता! पापा गृहपतेर्भार्या, दुहित्रा मारिता सती॥१४२८ ।। अर्थ - नासिक्य नगर में गृहपति सागरदत्त की पत्नी नागदत्ता स्पर्शन इन्द्रिय के कारण एक ग्वाले पर आसक्त थी, उस पापिनी ने अपने पुत्र को मारा, इस कृत्य से कुपित हो उसकी पुत्री श्रीषेणा ने अपनी माँ को मार दिया ॥१४२८ ।। दुःख-दान-निपुणा निषेविताः, स्पर्श-रूप-रस-गन्ध-निस्वनाः। दुर्जना इव विमोय मानवं, योजयन्ति कुपथे प्रथीयसि ॥१४२९ ॥ अर्थ - जैसे दुर्जनों की संगति करने वाले को वे दुर्जन लोग मोहित करके सप्त व्यसनरूपी महान् खोटे मार्ग में फंसा देते हैं, वैसे ही दुख देने में निपुण ऐसे सेवन किये गये ये स्पर्श, रस, गन्ध, रूप एवं शब्द मनुष्य को कुगतिरूपी भयंकर मार्ग में लगा देते हैं॥१४२९ ।। अग्निनेव हृदयं प्रदयते, मुहयते नु विषयैर्विशक्तितः। तत्कथं विषय-वैरिणो जनाः, पोषयन्ति भुजगानियाधमान् ॥१४३०॥ _इति इन्द्रिय-विशेष-दोषाः । अर्थ - शक्तिहीन विषयासक्त पुरुषों का हृदय विषयों द्वारा मोहित होता हुआ अग्नि से जलाये गये के सदृश अतिशय रूप से जलता रहता है। ऐसे सर्प सदृश अधम विषयरूपी वैरियों को मनुष्य कैसे पुष्ट कर सकते है ? अपितु कदापि नहीं कर सकते ॥१४३०॥ इस प्रकार इन्द्रियों के विशेष दोषों का कथन पूर्ण हुआ। ___ कोपजन्य दोष अरत्यर्चिः करालेन, श्यामली-कृत-विग्रहम् । प्रस्विधति तुषारेऽपि, तापितः कोप-वह्निना ।।१४३१ ।। अर्थ - क्रोधरूपी अग्नि से तप्नायमान मनुष्य अरतिरूपी अग्नि से संतप्त होता है, उसके शरीर का रंग काला हो जाता है, क्रोधाग्नि से तपाये जाने से ठण्ड में भी उसे पसीना आने लगता है ।।१४३१ ।। अभाष्यां भाषते भाषामकृतां कुरुते क्रियाम् । कोप-व्याकुलितो जीवो, ग्रहार्तं इस कम्पते ।।१४३२ ॥ ___ अर्थ - क्रोध से व्याकुलित हुआ मनुष्य अयोग्य भाषा बोलने लगता है, अयोग्य क्रियाएँ करने लगता है तथा ग्रह से पीड़ित हुए के सदृश काँपने लगता है॥१४३२ ।। Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ४०५ त्रिवली - कलितालीको, रक्त स्तब्धी - कृतेक्षणः । दन्त - दष्टाधरो दुष्टो, जायते राक्षसोपमः || १४३३ ।। अर्थ - भृकुटी चढ़ जाने से मस्तक पर तीन रेखाएँ पड़ जाती हैं, लाल-लाल निश्चल आँखें बाहर आ जाती हैं एवं दाँतों से ओलों को चबाने लगता है, इस प्रकार क्रोधी मनुष्य हरे मनुष्यों के लिए साक्षात् राक्षस के सदृश भयानक एवं दुष्ट हो जाता है ॥ १४३३ ।। आददानो यथा लोहं, पर - दाहाय कोपतः । स्वयं प्रदयते पूर्व, पर- दाहे विकल्पनम् ॥१४३४ ॥ विदधानस्तथा कोपं, पर - घाताय मूढ - धीः । स्वयं निहन्यते पूर्वमन्य घातो विकल्प्यते ॥१४३५ ।। अर्थ - जैसे कोई क्रोध में आकर दूसरे को जलाने के लिए गर्म लोहा उठाता है, किन्तु उससे पहले वह स्वयं जलता है, दूसरा जले अथवा न भी जले। वैसे ही कोई मूढबुद्धि पर का घात करने हेतु क्रोध करता है किन्तु उस क्रोध से पहले वह स्वयं जलता है। अन्य का घात कर सके अथवा न भी कर सके, इसमें दोनों विकल्प सम्भव हैं ॥ १४३४-१४३५ ।। - आधारं पुरुषं हत्वा पापः कोप: पलायते । प्रद जनकं काष्ठं, वह्निः किं नोपशाम्यति ।। १४३६ ।। अर्थ - यह पापी क्रोध अपने आधारभूत पुरुष को नष्ट करके स्वयं भाग जाता है। अर्थात् निराधार हो जाने से स्वयं नष्ट हो जाता है, सो ठीक है ! देखो ! अपने को उत्पन्न करने वाली अग्नि आधारभूत लकड़ी को जला कर क्या शान्त नहीं हो जाती ? अपितु हो ही जाती है ॥१४३६ ॥ शत्रूपकाराद्रोषो यः, स्व- बन्धूनां च शोककृत् । स्थानं कुलं बलं क्रोधं हत्वा नाशयते नरम् ॥१४३७ ॥ अर्थ - यह क्रोध शत्रु का उपकार करता है और स्व-जनों को शोक कराने वाला है, यह स्थान, कुल एवं बल को नष्ट करके अन्त में मनुष्य का भी नाश करा देता है || १४३७ ।। प्रश्न क्रोध शत्रु का उपकार एवं स्वजनों का अपकार कैसे करता है ? उत्तर जब मनुष्य कुपित हो जाता है तब उसके शत्रुओं को आनन्द आता है और वे ऐसी भावना भाते हैं कि यह सदैव इसी प्रकार क्रोध पिशाच के वशीभूत बना रहे, अतः कहा गया है कि क्रोध शत्रुओं का उपकार करता है। क्रोधी मनुष्य के स्वजन दुखी रहते हैं क्योंकि क्रोध में आकर वह अपने परिवार को कष्ट देता है। क्रोध से अपने उच्च पद, शारीरिक बल और कुल को भी नष्ट कर देता है अतः कहा गया है कि क्रोधी मनुष्य स्वजनों को शोक सन्तप्त करता रहता है। Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ४०६ गुणागुणौ न जानाति, वचो जल्पति निष्ठुरम् । नरो रौद्रमना सृष्टो, जायते नारकोपमः ।।१४३८ ।। अर्थ - क्रोधी मनुष्य अत्यन्त क्रूर परिणामी हो जाता है, वह जिस पर क्रोध करता है उसके गुणअवगुण नहीं देख पाता, उसके गुणों को भी निन्दा करता है और कठोर तथा असभ्य वचन बोलता है। इस प्रकार क्रोध के आवेश में मनुष्य नारकी के समान हो जाता है ।।१४३८॥ धान्यं कृषीवलस्येव, पावकः क्लेशतोऽर्जितम्। श्रामण्यं प्लोषते रोषः, क्षणेन व्रतिनोऽखिलम् ॥१४३९ ।। अर्थ - जैसे आग एक वर्ष पर्यन्त अनेक क्लेश सहन करके श्रम से प्राप्त खलिहान में आये किसान के धान्य को जला देती है, वैसे ही क्रोधाग्नि श्रमण के जीवन भर में उपार्जित पुण्य रूपी धान्य को अर्थात् श्रामण्यधर्म को क्षणमात्र में जला देती है॥१४३९॥ यथैवोग-विष:सर्पः, क्रुद्धो दर्भ-तृणाहतः । निर्विषो जायते शीघ्रं, निःसारोऽस्ति तथा यतिः ।।१४४० ।। अर्थ - जैसे विधवाले सपं को घास के एक सिनक से मारने पर वह रोष में आकर उस तिनके पर अपना विष वमन कर तत्काल निर्विष हो जाता है, वैसे यति भी क्रोध के कारण अपने रत्नत्रय का विनाश कर निःसार हो जाता है ।।१४४० ।। सुरूपोऽपि नरो रुष्टो, जायते मर्कटोपमः । कोपोपार्जित-पापश्च, विरूपो जन्म-कोटिषु ।।१४४१॥ अर्थ - सुन्दर मनुष्य भी क्रोधित होने पर बन्दर जैसे मुख वाला अर्थात् कुरूप हो जाता है और उस क्रोध के द्वारा उत्पन्न हुए पाप के कारण करोड़ों जन्मों में कुरूप ही होता रहता है ।।१४४१ ।। द्वेष्यो जनः प्रकोपेन, जायते वल्लभोऽपि सन् । अकृत्य-कारिणस्तस्य, नश्यति प्रथितं यशः ॥१४४२॥ अर्थ - क्रोध करने से अत्यन्त प्रिय व्यक्ति भी अप्रिय बन जाता है तथा वह क्रोधावेश में अकृत्य भी करने लगता है, जिससे उसका फैला हुआ यश भी नष्ट हो जाता है ।।१४४२ ॥ कुपित: कुरुते मूढो, बान्धवानपि विद्विषः। परं मारयते तैर्वा, मार्यते म्रियते स्वयम् ।।१४४३ ॥ अर्थ - मूढ़ बुद्धि मनुष्य क्रोध करके अपने निकट बन्धुजनों को या सम्बन्धियों को भी शत्रु बना लेता है, उनको मारता है, या उनके द्वारा मारा जाता है या स्वयं मर जाता है।।१४४३ ।। रुषित: पूजनीयोऽपि, मण्डलो वापमन्यते। समस्तं लोक-विख्यातं, माहात्म्यं च पलायते ॥१४४४ ।। Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ४०७ अर्थ - पूजनीय मनुष्य भी क्रोध करने से कुत्ते के सदृश तिरस्कृत होने लगता है और उसका लोकप्रसिद्ध भी माहात्म्य नष्ट हो जाता है ।।१४४४ ॥ कृत्वा हिंसानृत-स्तेय कर्माणि कुपितो यथा । सर्व हिंसानृत-स्तेय-दोषमाप्नोति निश्चितम् ।।१४४५ ।। अर्थ - क्रोधावेश में मनुष्य हिंसा, झूठ एवं चोरी आदि पाप क्रियाओं को जिस प्रकार करता है, उसको वे हिंसा, झूठ एवं चोरी आदि सभी दोष निश्चित ही प्राप्त होते हैं ।।१४४५ ।। प्रश्न - क्रोधी मनुष्य को हिंसादि दोष कैसे प्राप्त होते हैं ? उत्तर - क्रोधावेश में मनुष्य यही किसी की हिंसा करता है, मूठादि मार देता है या मरवा देता है, या किसी पर झूठे आरोप लगा देता है, पर-धन चुरा लेता है या दूसरों पर छापे आदि डलवा देता है उससे पापबन्ध होता है, जब वह पापकर्म उदय में आता है तब अन्य लोग वैसी ही क्रियाएँ उसके प्रति करते हैं, उसे मार डालते हैं, उसके साथ असत्य व्यवहार करते हैं या उस पर झूठे आरोप लगा देते हैं, तथा कोई उसका धन हरण कर लेते हैं, इस प्रकार वह क्रोध के फलस्वरूप उन्हीं दोषों को प्राप्त करता हुआ भव-भव में भयंकर दुख भोगता द्वीपायनेन नि:शेषा, दग्धा द्वारावती रुषा। पापं च दारुणं दग्धं, तेन दुर्गति-भीतिदम् ॥१४४६ ।। इति कोपः ॥ अर्थ - द्वीपायन मुनि ने क्रोधावेश में समस्त द्वारका नगरी भस्म कर दी। वह स्वयं उसी में जला और दारुण पाप-संचय कर भयंकर दुख देने वाली दुर्गति का पात्र बना ।।१४४६।। ___* द्वीपायन मुनिकी कथा * सोरठ देशमें प्रसिद्ध द्वारिका नगरी थी। इसमें बलदेव और कृष्ण नारायण राज्य करते थे। किसी दिन दोनों बलभद्र नारायण भगवान् नेमिनाथके दर्शनके लिये समवसरणमें गये। धर्मोपदेश सुननेके अनंतर बलभद्रने प्रश्न किया कि यह द्वारिका कबतक समृद्धिशाली रहेगी। दिव्यध्वनिमें उत्तर मिला कि बारह वर्ष बाद शराबके कारण द्वीपायन द्वारा द्वारिका भस्म होगी एवं जरत्कुमार द्वारा श्रीकृष्णकी मृत्यु होगी। इस भावी दुर्घटनाको सुनकर सभीको दुःख हुआ। बहुतसे दीक्षित हुए। द्वीपायनने भी मुनिदीक्षा ग्रहणकर दूर देशमें जाकर तपस्या की। द्वारिकाकी सब शराब वनमें डाली गयी । बारह वर्षमें कुछ दिन शेष थे। द्वीपायन मुनि नगरके निकट आकर ध्यान करने लगे। बहुत से यदुवंशी राजकुमार वनक्रीड़ाके हेतु गये थे, वहाँ तृषासे पीड़ित होकर शराब मिश्रित पानीको उन्होंने पी लिया और उन्मत्त हो गये, पासमें द्वीपायन मुनिको देखकर वे कुमार उनको पत्थरोंसे मारने लगे। मुनिको क्रोध आया और उनके कंधेसे तैजस पुतला निकल गया, उस तैजस पुतलेसे समस्त द्वारिका भस्म हो गयी। द्वीपायन भी भस्म हुए और कुगतिमें चले गये। इस प्रकार क्रोध के दोषों का कथन समाप्त हुआ। Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ४०८ मान कषाय के दोष जाति-रूप-कुलैश्वर्य-विज्ञानाज्ञा-तपो-बलैः। कुर्वाणोऽहंकृतिं नीचं, गोत्रं बध्नाति मानवः ॥१४४७ ।। अर्थ - जाति, रूप, कुल, ऐश्वर्य, श्रुत, आज्ञा, तप एवं बल आदि से जो अपने को बड़ा मानकर अहंकार करता है वह नीच गोत्र नामक कर्म का बन्ध करता है।।१४४७॥ दृष्ट्वात्मनः परं हीनं, मूर्यो मानं करोति ना। दृष्ट्वात्मनोऽधिकं प्राज्ञो, मानं मुञ्चति सर्वथा ॥१४४८ ॥ अर्थ - अपने से हीन व्यक्ति को देखकर मूर्ख जन अहंकार करते हैं किन्तु विद्वान् लोग अपने से बड़ों को देखकर मान का त्याग कर देते हैं।।१४४८ ।। द्वेष कलिं भयं वैरं, युद्धं दुःखं यशः क्षतिम् । पूजा-भ्रंशं पराभूति, मानी लोकद्वयेऽस्तुतः ।।१४४९।। अर्थ - अभिमानी मनुष्य से सब द्वेष करते हैं। वह कलह, भय, वैर, युद्ध और दुख देने वाले ही कार्य करता है या इनका पात्र होता है। उसके यश का नाश हो जाता है, पूजा अर्थात् प्रतिष्ठा भंग हो जाती है तथा दूसरों के द्वारा तिरस्कृत होता रहता है और दोनों लोकों में निन्दा को प्राप्त होता है॥१४४९।। सर्वेऽपि कोपिनो दोषा, मानिनः सन्ति निश्चितम्। मानी हिंसानृत-स्तेय- मैथुनानि निषेवते ॥१४५०।। अर्थ - पहले जो क्रोध के दोष कहे गये हैं वे सब दोष मानकषाय के भी जानने चाहिए | मानी मनुष्य भी हिंसा, झूठ, चोरी और कुशील आदि पापों में प्रवृत्ति करने लगता है ।।१४५० ।। ___निरभिमानी की प्रशंसा निर्मानो लभते पूजा, दुःखं गर्वमपास्यति। कीर्ति साधयते शुद्धामास्पदं भवति श्रियाम् ॥१४५१ ॥ अर्थ - निरभिमानी व्यक्ति स्वजनों-परजनों से आदर प्राप्त करता है, दुख देने वाले गर्व को दूर कर देता है, निर्मल कीर्ति को सिद्ध कर लेता है और अन्त में मोक्षलक्ष्मी के शुद्ध स्थान को प्राप्त कर लेता है।।१४५१॥ मार्दवं कुर्वतो जन्तोः, कश्चनार्थो न हीयते। सम्पद्यते परं सद्य:, कल्याणानां परम्परा ॥१४५२॥ अर्थ - मान के अभाव में अर्थात् मार्दव गुण युक्त जीवों के किसी भी प्रयोजन की हानि नहीं होती, अपितु मार्दव धर्मधारी विनयवान मनुष्यों को अभ्युदयादि कल्याणों की परम्परा तत्काल प्राप्त हो जाती है ।।१४५२ ।। मानेन सद्यः सगरस्य पुत्रा, महाबलाः षष्ठि-सहस्र-संख्याः । दृढेन भिन्नाः कुलिशेन तुङ्गा, धराधरेन्द्रा इव भूरि-सत्वाः ॥१४५३॥ ॥ इति मानः ॥ Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका -४०९ अर्थ - जैसे बहुत ऊँचे और सत्त्वशाली अर्थात् मजबूत भी पर्वतराज दृढ़ वज्र द्वारा चूर-चूर हो जाते हैं, वैसे ही सगर चक्रवर्ती के पुत्र संख्या में साठ हजार एवं महाबलशाली होते हुए भी मानकषाय रूपी वज्र से मृत्यु को प्राप्त हो गये थे||१४५३ ।। * सगर चक्रवर्ती के साठ हजार पुत्रों की कथा * इस अवसर्पिणी कालके बारह चक्रवर्तियों में से सगर दूसरे चक्री हुए। उनके साठ हजार पुत्र थे। वे सभी बल-वीर्य-पराक्रमके धारक थे, उन सबने मिलकर एक दिन पितासे कहा कि हम सबको कोई राज्य आदि संबंधी कार्य बताइये। पिताने कहा-पुत्रो ! यहाँ कार्य करनेकी क्या आवश्यकता ! सुखपूर्वक रहो। किन्तु पुत्रों का अधिक आग्रह होनेसे चक्रीने कहा-कैलाश पर्वतके चारों ओर खाई खोदकर उसमें गंगाजल भर दो। सब पुत्र प्रसन्न हुए। उन्हें अपने बल पराक्रम का बड़ा ही अभिमान था । दण्डरत्न को लेकर वे खाई खोदने कैलाश पर्वतकी ओर चल पड़े। सगर चक्रवर्तीका पूर्व जन्मका एक मित्र देव हुआ था। वह सगरको जिनदीक्षा दिलाना चाहता था इस विषयमें उसने पहले प्रयत्न भी किये थे किन्तु वे प्रयत्न सफल नहीं हुए थे। अतः दण्डरत्नसे धरणीको खोदते हुए चक्रीके उन पुत्रोंको देखकर चक्रीको वैराग्य उत्पन्न कराने हेतु उस देवने अपनी मायासे सब पुत्रोंको बेहोश कर दिया (मार दिया)। जब यह वार्ता मंत्री आदिको विदित हुई तब वे अत्यंत विचारमें पड़ गये कि यह हाल चक्रीको कैसे सुनाया जाय। फिर भी किसी बहानेसे चक्री तक यह वार्ता पहुँचाई। प्रथम सगर ने बहुत शोक किया किन्तु फिर वैराग्य रूप अमृत जलसे शोकाग्नि को शांत कर उसने जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर ली। अब उस मित्रवर देवका मनोरथ पूर्ण हुआ। उसने सगर मुनिराजकी तीन प्रदक्षिणा दी, नमस्कार किया और सर्व सत्य वृत्तांत कह दिया। सगर अब संपूर्ण मोह मायासे मुक्त हो चुके थे। उन्हें कुछ संताप नहीं हुआ। वैराग्य तथा ज्ञान शक्तिसे उन्होंने अपना कल्याण कर लिया। इसप्रकार बलके अभिमानके कारण चक्रीके सब पुत्र नष्ट होगये थे। इस प्रकार मान के दोषों का कथन पूर्ण हुआ। माया कषाय के दोष विदधानोऽपि चारित्रं, माया-शल्येन शल्यित:। न धृतिं लभते कुत्र, शल्येनेव धनर्द्धिकः ॥१४५४ ।। अर्थ - जैसे विपुल धन का स्वामी होने पर भी यदि शरीर में चुभे हुए काँटे से पीड़ित है तो वह कहीं पर भी स्थिरता एवं सुख प्राप्त नहीं कर सकता, वैसे ही चारित्रादि से समृद्ध होने पर भी यदि साधु के हृदय में माया शल्य घुसा है तो वह शल्य युक्त साधु कहीं पर भी आत्मोत्थ सुख रूप स्थिरता को प्राप्त नहीं हो सकता॥१४५४॥ द्वेषमप्रत्ययं निन्दा, पराभूतिमगौरवम्। सर्वत्र लभते मायी, लोकन्वय विरोधकः ॥१४५५ ।। अर्थ - माया कषाय से दूषित मनुष्य सर्वत्र द्वेष, अविश्वास, निन्दा, तिरस्कार एवं नीचता का पात्र होता है और उसे दोनों लोकों में सुख प्राप्त नहीं होता। अर्थात् उसके दोनों लोक बिगड़ते हैं ।।१४५५॥ Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डका ४१० अरतिर्जायते मायी, बन्धूनामपि दारुणः । महान्तमश्नुते दोषमपराध-निराकृतः ।। १४५६ ।। अर्थ - मायावी मनुष्य सभी को अप्रिय लगता है, वह बन्धु-बांधवों को भी दारुण दुखदायी प्रतीत होता है एवं वह अपराध रहित होने पर भी महादोषी माना जाता है। अथवा मायाचारी के कारण महादोष को प्राप्त हो जाता है ।। १४५६ ॥ एका सत्य - सहस्राणि, माया नाशयते कृता । मुहूर्तेन तुषाणीव, नित्योद्वेग - विधायिनी ।। १४५७ ।। अर्थ - एक बार भी की जाने वाली मायाचारी हजार सत्यों का विनाश कर देती है। यदि वह मायाचारी बार-बार की जाय तो शरीर में प्रविष्ट कांटे के सदृश वह नित्य ही सन्ताप देती है ॥ १४५७ ॥ मित्र - भेदे कृते सद्य:, कार्यं नश्यति मायया । विष मिश्रमिव क्षीरं, समायं नश्यति व्रतम् ।। १४५८ ।। अर्थ - मायाचारी करने से मित्रता नष्ट हो जाती है और उससे इस लोक सम्बन्धी सर्व कार्यों का विनाश हो जाता है, तथा विष मिश्रित दूध के सदृश मुनिधर्म सम्बन्धी सर्व व्रत नष्ट हो जाते हैं ।। १४५८ ॥ स्त्रेण षंढत्व - तैरव - नीचगोत्र- पराभवाः । माया- दोषेण लभ्यन्ते, पुंसा जन्मनि जन्मनि ॥ १४५९ ।। अर्थ - मायाचारी के दोष से जीव को भव भव में स्त्रीपना, नपुंसकपना, तिर्यचपना, नीचगोत्र एवं पराभव प्राप्त होते रहते हैं ।। १४५९ ।। यः क्रोध-मान- लोभानामाविर्भावोस्ति मायिनः । सम्पद्यन्तेऽखिला दोषास्ततस्तेषामसंयमम् ॥ १४६० ॥ अर्थ - जहाँ मायाचारी है वहाँ नियमतः क्रोध, मान एवं लोभ की उत्पत्ति होती ही है, उस कारण से अर्थात् क्रोधादि उत्पन्न हो जाने से उनमें अन्य सब दोष उत्पन्न हो जाते हैं, पश्चात् वह साधु असंयम को प्राप्त हो जाता है || १४६० ।। सप्त वर्षाणि निःशेषं, कुम्भकारेण कोपिना । भस्मितं भरत - ग्रामशस्यं प्राप्तेन वञ्चनाम् ।। १४६१ ।। अर्थ - रुष्ट हुआ कुम्भकार मायाचार से भरत नामक ग्राम का धान्य पूर्णरूप से सात वर्ष तक जलाता रहा ।। १४६१ ।। * मायावी कुम्हारकी कथा * अंगक नामक देश के बृहद् ग्राम में एक कुम्हार रहता था। एक दिन मिट्टीके बहुत से बर्तनों को बैल पर लादकर वह कुम्हार दूसरे ग्राम में बेचने के लिये गाँवके बाहर बैलको खड़ाकरके ठहर गया। ग्रामीण लोगों, Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ४११ बालकों, स्त्रियों आदिने उससे घड़े, दीये, सकोरे आदि खरीद लिये और कुम्हारको भोला जानकर किसीने उसको बर्तनोंका मूल्य नहीं दिया। उसको कहा कि कल देवेंगे। बालक उसके साथ हँसी-मजाक करने लगे। संध्या हो गयी। कुम्हारने दुःखित मनसे रात पूर्ण की। रातमें किसी ने उसके बैलको भी चुरा लिया। प्रात: जब किसीने बर्तनोंके रुपये नहीं दिये तब कुम्हार अत्यंत कुपित हो गया। उसने घर-घर जाकर पैसे मांगे किन्तु किसीने कुछ नहीं दिया। कुम्हारने उस गाँवमें आग लगादी । सात वर्ष तक धान्योंसे भरे उस ग्राम को वह जलाता रहा। इससे उसने महान् पाप का संचय किया। इसप्रकार क्रोधके वशमें हुए कुम्हार के उभय लोक नष्ट होगये। धर्म-पादप-निकर्तन-शस्त्री, जन्म-सागर-निपातन-की। दुःख-शोक भय-वैर-सहाया, निन्दितं किमु करोति न माया ।।१४६२ ॥ इति मायादोषः। अर्थ - यह माया कषाय धर्मरूप वृक्ष को काटने के लिए करोंत के समान है एवं जन्मरूप सागर में गिराने वाली है। दुख, भय, शोक एवं वैर स्वरूप अवगुण इस माया के सहायक हैं। ऐसा कौन सा निन्द्य कर्म है जिसको माया कषाय नहीं करती है ? अपितु माया सर्व ही निन्द्यकार्य करती है ।।१४६२ ।। इस प्रकार मायादोष का कथन समाप्त हुआ। लोभ कषाय के दोष लोभतो लभते दोष, पातकं कुरूते परम् । जानीते परमात्मानं, नीचमुच्चं न नष्ट-धीः ।।१४६३ ।। अर्थ - यह मानव लोभ कषाय के दशवर्ती होकर अत्यन्त अशुभ पाप करता हुआ अनेक दोषों को प्राप्त होता है। वह नष्टबुद्धि अपने आप को श्रेष्ठ और पर को नीच मानता है, वह पर को कभी श्रेष्ठ मानता ही नहीं है।।१४६३ ॥ लोभस्तुणेऽपि पापार्थमितरत्र किमुच्यते। मुकुटादि-धरस्यापि, निर्लोभस्य न पातकम् ।।१४६४॥ अर्थ - जब एक नि:सार तृण में भी उत्पन्न हुआ लोभ पापबंध का कारण है तब फिर अन्य सारभूत विशिष्ट धन-धान्यादि में उत्पन्न लोभ का तो कहना ही क्या है ? जो मनुष्य लोभाधीन नहीं होते उनके शरीर पर मुकुट, हार एवं कुण्डलादि परिग्रह होने पर भी वे तज्जन्य कर्मबन्ध नहीं करते । अर्थात् मूल्यवान पदार्थ भी लोभ के अभाव में बन्ध का कारण नहीं होता ।।१४६४ ।। सुखं त्रैलोक्य-लाभेऽपि, नासन्तुष्टस्य जायते । सन्तुष्टो लभते सौख्य, दरिद्रोऽपि निरन्तरम् ।।१४६५॥ अर्थ - ('समाधानवृत्ति सन्तोष के आधीन रहती है द्रव्य के आधीन नहीं इसी कारण) असन्तुष्ट व्यक्ति को तीनों लोकों की सम्पत्ति प्राप्त हो जाने पर भी सुख नहीं होता और ममत्वभाव के अभाव में सन्तुष्ट व्यक्ति दरिद्री होते हुए भी निरन्तर सुखी रहता है॥१४६५ ।। Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ४१२ जायन्ते सकला दोषा, लोभिनो ग्रन्थ-तापिनः । लोभी हिंसानृत-स्तेय-मैथुनेषु प्रवर्तते ॥१४६६ ॥ अर्थ - परिग्रहरूपी सन्ताप से पीड़ित लोभी मनुष्य में सर्व दोष होते हैं क्योंकि लोभी व्यक्ति ही हिंसा, झूठ, चोरी एवं मैथुनादि पापों में प्रवृत्त होता है ।।१४६६ ।।। रामस्य जामदग्न्यस्य, गृहीत्वा लुब्ध-मानसः । कार्तवीर्यो नृपः प्राप्तः, सकुल: सबस्न: क्षयम् ॥१४६७ ।। अर्थ - परशुराम अथवा श्वेतराम एवं महेन्द्रराम जमदग्नि नामक तापसी के पुत्र थे। तापसी के पास कामधेनु गाय थी, लुब्धमन वाले कार्तवीर्य नामक राजा ने हठात् उस कामधेनु का हरण कर लिया उससे वह राजा अपने पूरे वंश एवं सेना के साथ नष्ट हो गया था ॥१४६७ ।। * कार्तवीर्य की कथा * एक वनमें जटाधारी तापसियोंका आश्रम था। उसमें जमदग्नि नामका एक मिथ्या तापसी रेणुका स्त्री एवं श्वेतराम और महेन्द्रराम नामके दो पुत्रोंके साथ रहता था। एक दिन उस वनमें हाथी पकड़नेको कार्तवीर्य नामका राजा आया। वह थककर विश्राम हेतु जमदग्निकी कुटीके पास बैठा था। रेणुका ने उसको मिष्टान्न द्वारा तृप्त किया। आश्चर्ययुक्त हो राजाने प्रश्न किया कि इतना श्रेष्ठ भोजन तुम लोगोंके पास इस निर्जन वनमें कहाँसे आया ? रेणुका ने कहा कि हमारे पास कामधेनु है। उसके द्वारा सब कुछ मिलता है, राजाको कामधेनुका लोभ सताने लगा। उसने उसकी याचना की किन्तु जमदग्नि ने मना किया तब उस लोभी अन्यायी राजाने हठात् कामधेनुका हरण कर लिया और जमदग्निको मारकर अपने नगरमें लौट आया। इधर श्वेतराम महेन्द्रराम वनसे ईंधन लेकर कुटीमें पहुँचे और पिताको मरा देखकर बहुत दुःखी होगये। दोनों पुत्र अत्यंत पराक्रमी थे। उन्हें देवोपनीत शस्त्र परशु भी प्राप्त था। उन्होंने कार्तवीर्यको सेना सहित नष्ट कर दिया, सर्व वंश का सर्वथा नाश कर डाला और दोनों भाई उस राज्यके स्वामी बन गये। इसप्रकार लोभ के कारण कार्तवीर्य नरेश मारा गया और मरकर नरकमें चला गया। लोभेन लोभः परिवर्धमानो, दिवा-निशं वह्निरिवेन्धनेन । निषेव्यमाणो मलिनत्वकारी, न कस्य तापं कुरुते महान्तम् ॥१४६८ ॥ इति लोभः। इति कषाय-विशेष-दोषाः । अर्थ - जैसे ईंधन से अग्नि वृद्धिंगत होती है, वैसे ही लोभ से लोभ अहर्निश बढ़ता जाता है। लोभ का सेवन करने से आत्मा में मलिनता आती है। इस प्रकार यह लोभ किसको महा सन्तापित नहीं करता ? अपितु सभी को सन्तापित करता है ||१४६८॥ इस प्रकार लोभ दोष का कथन पूर्ण हुआ। इस प्रकार चारों कषायों के विशेष दोषों का कथन पूर्ण हुआ॥ Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 129 - मरणकण्डिका • एवं व्याघ्र भी कभी नहीं करते || १४६९ ॥ - अर्थ संसारी जीवों के कषायरूपी शत्रु जिस महादोष को करते हैं, उस महादोष को शत्रु, सर्प, अग्नि ४१३ कषायों को जीतने का सामान्य कथन शत्रु - सर्पानल - व्याघ्राः, कदाचित्तन्न कुर्वते । यं करोति महादोषं, कषायारिः शरीरिणाम् ।। १४६९ ।। कषायेन्द्रिय- दुष्टाश्चैर्दोष- दुर्गेषु पात्यते । त्यक्त-निर्वेद-खलिनः पुरुषो बलवानपि ॥ १४७ ॥ अर्थ - वैराग्य रूपी लगाम से रहित शक्तिशाली पुरुष को भी ये कषाय और इन्द्रिय रूपी दुष्ट घोड़े दोषरूपी अर्थात् पापरूपी विषम स्थान में गिरा देते हैं । १४७० ॥ - कषायेन्द्रिय- दुष्टामैर्दृढ-निर्वेद-यन्त्रितैः । दोष- दुर्गेषु पात्यन्ते, न सद्ध्यान- कशावरीः ।। १४७१ ।। अर्थ - किन्तु जिनको वैराग्य रूपी दृढ लगाम से नियन्त्रित कर लिया जाता है तथा उत्तम ध्यानरूपी चाबुक से वश कर लिया जाता है वे कषाय एवं इन्द्रिय रूपी दुष्ट भी घोड़े पापरूपी विषम स्थानों में नहीं गिराते ।११४७१ ।। विचित्र - वेदना - दष्टाः, कषायाक्ष - भुजङ्गमैः । नष्ट-ध्यानन-सुखाः सद्यो, मुञ्चन्ते वृत्त - जीवितम् ।। १४७२ । अर्थ - कषाय एवं इन्द्रियरूपी सर्पों से इसे हुए एवं उसकी विषम वेदना से पीड़ित साधु ध्यानरूपी सुख से रहित होकर चारित्ररूपी प्राणों को तत्काल छोड़ देते हैं। अर्थात् वे चारित्र से भ्रष्ट हो जाते हैं ।। १४७२ || सद्ध्यान-मन्त्र-वैराग्य- भेषजैर्निर्विषी - कृताः । न साधोस्ते क्षमा हर्तुं दीर्घं संयम जीवितम् ॥। १४७३ ॥ अर्थ - किन्तु वे कषाय एवं इन्द्रियरूपी सर्प सम्यग्ध्यान या शुभ ध्यान या धर्मध्यान या शुक्लध्यानरूपी मन्त्र तथा वैराग्यरूपी सिद्ध औषधियों द्वारा निर्विष कर दिये जाते हैं तब साधु के संयमरूपी दीर्घ जीवन को हरण करने में समर्थ नहीं होते || १४७३ ॥ हृषीक मार्गणास्तीक्ष्णाश्चिन्ता पुंखाः स्मृतिस्यदाः । नरं मनो धनुर्मुक्ता, विध्यन्ति सुख - हारिणः || १४७४ ॥ अर्थ - चिन्तारूपी पुंख से युक्त, स्मरणरूपी वेग वाले तथा आत्मीक सुख का हरण करने में समर्थ ये मनरूपी धनुष के द्वारा छोड़े गये इन्द्रिय रूपी तीक्ष्ण बाण नियमतः साधुओं को वेध देते हैं ।। १४७४ || प्रश्न- यहाँ इन्द्रियों को बाण की उपमा क्यों दी गई है ? उत्तर बाण में पुंख होते हैं, वेग होता है, गति होती है, वह विषसे लिप्त होता है, धनुष द्वारा छोड़ा Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ४१४ जाता है और अपने शिकारका वेध करता है। इन्द्रियों में भी भोगे हुए भोगों का स्मरण रूपी पुंख है, आगामी भोगों की चिन्तारूप वेग है, रति इनकी गति है. ये विषय रूपी विष से लिप्त हैं, मनरूपी धनुष द्वारा छोड़े जाते हैं एवं साधुरूपी हिरन का वेध करते हैं अतः इन्हें बाण की उपमा दी गई है। संयमीजन ही इन्द्रियरूपी बाणों का निवारण कर सकते हैं हृषीक-मार्गणास्तीक्ष्णा, साधुभिधृति खेटकैः। ध्यान-सायकमादाय, खण्ड्यन्ते ज्ञान-दृष्टिभिः॥१४७५ ।। अर्थ - धैर्यशाली श्रमण योधा सम्यग्ज्ञानरूपी दृष्टि से देखकर, धैर्य रूपी फलक एवं ध्यानरूपी बाणों द्वारा इन्द्रियरूप तीक्ष्ण बाणों को खण्डित कर देते हैं ॥१४७५ ।। प्रमाद-वदनाः साधु, चरन्तं सङ्ग-कानने। धृत्युपानद्विनिर्मुक्तं, विध्यन्तीन्द्रिय-कण्टकाः ॥१४७६ ।। अर्थ - परिग्रह रूपी घनघोर जंगल में धैर्यरूपी जूतों से रहित विचरण करने वाले साधुओं को प्रमादरूप तीक्ष्ण नोक अर्थात् मुख वाले इन्द्रिय रूपी कॉट बींध देते हैं ।।१४७६ ।। आबद्ध-धृत्युपानत्कमुपयोग-विलोचनम्। कषाय-कण्टका: माधु, न विध्यन्ति मनापि ॥१४७ ।। अर्थ - जिस मुनि ने धैर्य रूपी पादत्राण पहन रखे हैं और जो सम्यग्ज्ञानोपयोग रूप दृष्टि से सम्पन्न है, उस मुनि को वे कषाय-रूपी काँटे किंचित् भी नहीं बींधते/दुख नहीं देते॥१४७७ ।। कषाय-मर्कटा लोलाः, परिग्रह-फलैषिणः । लुम्पन्ति संयमाराम, योगिनो निग्रहं विना ।।१४७८ ॥ अर्थ - कषाय रूपी बन्दर चंचल हैं एवं परिग्रहरूपी फलों में आसक्त हैं, यदि इनका निग्रह नहीं किया तो ये साधुओं के संयमरूपी बगीचे को अवश्य ही नष्ट-भ्रष्ट कर डालते हैं ॥१४७८ ।। त्रिकाल-दोषदा नित्यं, चञ्चला मुनि-पुङ्गवैः। कषाय-मर्कटा गाढं, बध्यन्ते वृत्त-रज्जुभिः ॥१४७९ ।। अर्थ - त्रिकालवर्ती दोषों को उत्पन्न करने वाले तथा सदा चंचल स्वभावी इन कषाय रूपी बन्दरों को श्रेष्ठ मुनिजन चारित्ररूपी रस्सी से दृढ़ बाँध कर रखते हैं ॥१४७९ ।। महोपशम-सत्वाम्यैर्ज्ञानास्त्रैधृति-वर्मितैः । साधु-योधैर्विजीयन्ते, कषायेन्द्रिय-विद्विषः ।।१४८० ॥ अर्थ - महा उपशमरूपी शक्ति, सम्यग्ज्ञानरूपी शस्त्र एवं धैर्यरूपी कवच युक्त साधुरूपी योद्धाओं के द्वारा ही कषाय रूपी शत्रु जीते जा सकते हैं ||१४८० ॥ Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ४१५ कषायाक्ष-द्विषो बद्धा, भावनाभिस्तपस्विना। शृङ्खलाभिरिव स्तेना, न दोषं जातु कुर्वते ॥१४८१॥ अर्थ - जैसे शृंखला से बंधे हुए चोर चोरी आदि दोष नहीं कर पाते वैसे ही तपस्वीजनों द्वारा कषायरूपी शत्रु अहिंसादि महाव्रतों की पच्चीस भावनाओं की अथवा शुभध्यान रूपी भावों की सांकल से बाँध दिये जाने पर संयमरूपी धन का अपहरण आदि नहीं कर पाते॥१४८१ ।। कषायाक्ष-महाव्याघ्राः, संयम-प्राण-भक्षिणः। अधिरोप्य नियम्यन्ते, वैराग्य-दृढ-पञ्जरे ॥१४८२ ।। अर्थ - कषाय और इन्द्रियरूपी महाव्याघ्र साधुके संयमरूपी प्राणों का भक्षण करने वाले होते हैं। इन्हें वैराग्यरूपी दृढ़ पिंजरे में बन्द करके ही रोका जा सकता है।।१४८२ ।। नीता व्रत-महावारिं, कषायाक्ष-मतङ्गजाः । वशा सन्त्यवशाः सन्तो, बद्धा विनय-रश्मिभिः ।।१४८३ ।। अर्थ - कषाय एवं इन्द्रिय रूपी हाथी स्वच्छन्द होने से अवश हैं अर्थात् किसी के वशीभूत नहीं होते, किन्तु यदि इन्हें व्रतरूपी बाड़े में ले जाकर विनयरूपी रस्सी से बाँध दिया जाता है तो वे वश में हो जाते हैं॥१४८३ || कषायाक्ष-गजा: शील-परिखा-लङ्घनैषिणः । धर्तव्याः सहसा वीरैधृति-कर्ण-प्रतोदनैः॥१४८४॥ अर्थ - कषाय एवं इन्द्रियरूपी हाथी शील रूपी खाई को उल्लंघन करना चाहते हैं, अतः वीर पुरुषों को अकस्मात् जाकर उन्हें धैर्यरूपी कर्णप्रहारों से पकड़ लेना चाहिए॥१४८४ ।। कषायाक्ष-द्विपा भत्ता, दुःशील-वन-कांक्षिणः। ज्ञानाङ्कुशैर्विधीयन्ते, तरसा वशवर्तिनः ।।१४८५॥ अर्थ - कषाय एवं इन्द्रियरूपी मदोन्मत्त हाथी सदा दुःशीलरूपी वन में प्रवेश करना चाहते हैं, अत: उन्हें ज्ञानरूपी अंकुश द्वारा वश में रखना चाहिए ||१४८५॥ ध्यान-योधा-वशीभूता, राग-द्वेष-मदाकुलाः। ज्ञानाकुशं विना यान्ति, तदा विषय-काननम् ।।१४८६ ।। अर्थ - जो ध्यानरूपी योधाओं द्वारा वश किये जा सकते हैं ऐसे रागद्वेष रूपी मद से आकुलित हाथी ज्ञानरूपी अंकुश के बिना नियमतः विषय रूपी वन में चले जाते हैं ।।१४८६ ।। तदा शम-बने रम्ये, कषायाक्ष-महागजाः। रम्यमाणा न कुर्वन्ति, दोषं साधोर्मनागपि ॥१४८७ ।। इति सामान्य-कषाय-निर्जयः। Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरणकण्डिका - ४१६ अर्थ - कषाय एवं इन्द्रियरूपी महागज जब ज्ञानांकुश द्वारा वश में कर लिये जाते हैं तब वे समताभाव रूपी रमणीक वन में ही रमते रहते हैं, फिर वे साधु के संयम में किंचित् भी दोष उत्पन्न नहीं करते ॥१४८७ ।। इस प्रकार सामान्य से कषायों को जीतने का कथन पूर्ण हुआ। सामान्यतः इन्द्रियविजय कथन । शब्दे वर्णे रसे गन्धे, स्पर्शे साधुः शुभाशुभे। राग-द्वेष-परित्यागी, हृषीक-विजयी मतः॥१४८८॥ अर्थ - शुभ एवं अशुभ शब्द, वर्ण, रस, स्पर्श और गंध में राग तथा द्वेष का परित्याग करने वाला साधु इन्द्रियविजयी माना जाता है ।।१४८८ ।। हृषीक-विजयः सद्भिः, कटुकोऽपि निषेव्यते । भेषज्यमिव वांछद्भिर्नित्य-सौख्यं यथाजसा ।।१४८९ ।। अर्थ - यद्यपि पाँचों इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करना अत्यन्त कठिन है फिर भी जैसे जीवन का इच्छुक रोगी पुरुष कड़वी औषधि भी पीता है, वैसे शाश्वत सुख के इच्छुक साधुजनों के द्वारा अत्यन्त कठिन भी इन्द्रियजय का सेवन किया जाना चाहिए ।।१४८९ ।। इन्द्रियविजय का उपाय पुद्गला ये शुभाः पूर्वमशुभाः सन्ति तेऽधुना। अशुभाः पूर्वमासन्ये, साम्प्रतं सन्ति ते शुभाः ।।१४९० ।। अर्थ - इन्द्रिय-विषयों में शुभपना एवं अशुभपना सदा स्थिररूप से नहीं रहता । इन्द्रियों के विषयभूत जो पुद्गल पूर्व में शुभ थे वे ही इस समय अशुभ होते और जो पूर्व में अशुभ थे वे शुभ होते देखे जाते हैं। अथवा जो वर्तमान में शुभ या अशुभ हैं वे ही भविष्य में अशुभ एवं शुभ होते देखे जाते हैं अत: इन विषयों में रागद्वेष करना योग्य नहीं है॥१४९० ।। भुक्तोज्झिताः कृताः सर्वे, पूर्व तेऽनन्तशोऽङ्गिना। को मे हर्षो विषादो वा, द्रव्ये प्राप्ते शुभाशुभे ।।१४९१ ।। अर्थ - संसारी प्राणियों ने अतीत भवों में स्पर्श-रसादि शुभ-अशुभ विषय अनन्तबार भोगे हैं और अनन्तबार त्यागे हैं। अब मुझ ज्ञानी साधु को शुभ अथवा अशुभ पदार्थों की प्राप्ति में क्या तो हर्ष और क्या विषाद ? साधुजनों को इस प्रकार विचार करना चाहिए ।।१४९१॥ रूपे शुभाशुभे न स्त:, साधनं सुख-दुःखयो। सङ्कल्प-बशतः सर्वं, कारणं जायते तयोः॥१४९२ ।। अर्थ - कोई अच्छा या बुरा रस-गन्धादिरूप पुद्गल सुख या दुख का साधन नहीं है। सुख या दुख के जितने भी कारण बनते हैं वे सब संकल्पवश अर्थात् मन की कल्पनावश ही उत्पन्न होते हैं॥१४९२॥ Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका- ४१७ विदधाति यतश्चक्षुर्महादोषमनिर्जितम् । निर्जेतव्यं ततः सद्भिः, सर्वथा तदतन्द्रितैः ॥१४९३ ॥ अर्थ - चक्षु इन्द्रिय पर विजय प्राप्त न करने से यह महादोष उत्पन्न करती है अतः साधुजनों को सर्व प्रकार से इस चक्षु इन्द्रिय को हीं जीतना चाहिए ॥१४९३ ।। शब्द - गन्ध-रस - स्पर्श-गोचराण्यपि यत्नतः । जेतव्यानि हृषीकाणि, योगिना शम-भागिना ।। १४९४ ।। अर्थ • प्रशम भाव को धारण करने वाले साधुजनों को प्रयत्नपूर्वक स्पर्श, रस, गन्ध एवं शब्द को - विषय करने वाली स्पर्शनेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, प्राणेन्द्रिय एवं कर्णेन्द्रिय को भी जीतना चाहिए। अर्थात् स्पर्शादि विषयों में रागद्वेष का संकल्प करना छोड़ कर सम भावना रखनी चाहिए | १४९४ ॥ दुर्जयान्नर - निर्लिप - भर्तृभिः, पञ्च यो विजयतेऽक्ष - विद्विषः । तस्य सन्ति सकलाः कर- स्थिताः, सम्पदो भुवननाथ- पूजिताः ।। १४९५ ।। इति इन्द्रिय - निर्जय: । अर्थ - मनुष्यों के अधिपति चक्रवर्ती एवं देवों के ईश इन्द्र के द्वारा भी जो जीते नहीं जाते उन पंचेन्द्रिय रूपी शत्रुओं को जो साधु जीतता है, पृथिवीपति द्वारा आदरणीय ऐसी सकल सम्पदाएँ स्वयमेव आकर उसके हाथ में स्थित हो जाती हैं। अर्थात् अन्य सम्पदाओं के अतिरिक्त इन्द्रियविजयी साधु को मोक्षसम्पदा भी प्राप्त हो जाती है ।। १४९५ ।। इस प्रकार इन्द्रियविजय का कथन पूर्ण हुआ । कषायविशेष को जीतने का दिशा निर्देश क्षमा गुण का स्वरूप दत्ते शापं विना दोषं नायं मेऽस्तीति सद्यते । कृपा कृत्येत्ययं पापं वराक: कर्ममर्जति ॥१४९६ ॥ अर्थ - यदि कोई व्यक्ति बिना किसी अपराध के गाली आदि दे रहा है और मुझ में वह दोष नहीं है तो इसमें मेरी क्या हानि है ? यह बेचारा झूठ बोल कर व्यर्थ ही पापबन्ध कर रहा है। अहो ! यह तो दया का पात्र है। इस प्रकार के चिन्तन द्वारा गाली आदि के कटु वचन सहन करने चाहिए ॥। १४९६ ।। सत्येऽपि सर्वतो दोषे, सहनीयं मनीषिणा । विद्यते मम दोषोऽयं, न मिथ्यानेन जल्पितम् ।। १४९७ ।। अर्थ - यदि कोई विद्यमान दोष भी कहता है तो भी बुद्धिमान साधु को सहन ही करना चाहिए और चिन्तन करना चाहिए कि यह जो कह रहा है वे दोष तो मुझ में विद्यमान हैं अतः यह झूठ तो कह नहीं रहा फिर क्रोध किस बात का, यह तो क्षमा का ही पात्र है ।। १४९७ ।। Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ४१८ शमोऽस्मि न हतोऽनेन, निहतोऽस्मि न मारितः। मरणेऽपि न मे धर्मो, नश्यतीति विषयते ।।१४९८ ॥ अर्थ - गाली आदि देने वाले के प्रति साधु को चिन्तन करना चाहिए कि यह व्यक्ति मुझे केवल गाली दे रहा है, मार तो नहीं रहा, यह समता रूपी गुण तो इसमें है। अथवा मात्र मार रहा है, मेरे प्राण तो नहीं ले रहा है। अथवा यह कवल मेरे प्राण ले रहा है किन्तु सर्व सुख देने में समर्थ ऐसे मेरे रत्नत्रय धर्म को तो नष्ट नहीं कर रहा है। इस प्रकार के पावन विचारों से एवं समतारूपी सम्बल से क्रोध पर विजय प्राप्त करते रहना चाहिए||१४९८॥ क्रोध को जीतने का अन्य उपाय क्रोधो नाशयते धर्म, विभावसुरिवेन्धनम् । पापं च कुरुते घोरमिति मत्वा विषह्यते॥१४९९ ।। अर्थ - जैसे अग्नि ईंधन को जलाती है वैसे ही क्रोध रत्नत्रय धर्म को जला देता है और घोर पापोपार्जन करता है, ऐसा जान कर साधु को क्षमा ही धारण करनी चाहिए ।।१४९९ ।। प्रश्न - क्रोध को अग्नि की उपमा क्यों दी गई है ? उत्तर - क्रोध में अग्नि के सदृश गुण-धर्म पाये जाते हैं अतः उसको अग्नि की उपमा दी गई है। यथायह क्रोधरूपी अग्नि अज्ञानरूपी काष्ट से उत्पन्न होती है, अपमान रूपी वायु से वृद्धिंगत होकर भड़कती है, इसमें से कठोर वचनरूपी स्फुलिंग निकलते हैं, हिंसा इसकी शिखा है, अत्यन्त बढ़ता हुआ वैर इसका धूम है और यह क्रोधानि धर्मरूपी उद्यान को भस्मसात् कर देती है अतः साधु को क्षमा धारण करनी चाहिए। पर-दुःख-क्रियोत्पन्नमुदीर्णं कल्मषं मम। ऋण-मोक्षोऽधुना प्राप्तो, विज्ञायेति विषयते ॥१५०० ।। अर्थ - पूर्व भव में दूसरों को दुख देकर या गाली देकर या मार कर अथवा अन्य भी पाप क्रिया से मैंने जो पापोपार्जन किया था उसी का फल अब उदय में आया है, सो अच्छा ही है। अब 'मैं ऋणमुक्त हो जाऊँगा' ऐसा चिन्तन कर क्रोध नहीं करना चाहिए ।।१५०० ।। अनुभुक्तं स्वयं यावत्काले न्यायेन तत्समम् । अधमर्णस्य किं दुःखमुत्तमर्णाय यच्छत्तः ॥१५०१॥ अर्थ - निर्धन व्यक्ति साहूकार से कर्ज लेकर स्वयं उसका उपभोग करता है। कर्ज का अवधिकाल आने पर उतना धन साहूकार को देना ही न्याय है। क्या कोई भी कर्जदार लिया हुआ कर्ज वापिस देते समय दुखी होता है ? नहीं, न्यायवान् को दुख नहीं होता। वैसे ही पूर्वभव में मैंने जिनका अहित किया था, या अपराध किया था उससे जो पाप कर्म उपार्जित किया था, अब उसका अवधिकाल आ चुका है, अर्थात् यह जो व्यक्ति मुझे गाली दे रहा है, या मार रहा है यह सब उसी पापकर्म की उदीरणा का फल है अतः इसे न्यायपूर्वक शान्ति से सहन करना ही मेरा कर्त्तव्य है, इस समय क्रोध करना तो अन्याय है। इस प्रकार के चिन्तन द्वारा साधु क्रोध पर विजय प्राप्त करता है।।१५०१।। Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ४१५ निषेवित: कोप-रिपुर्यतोऽङ्गिना, ददाति दुःखान्युभयत्र जन्मनि । निकर्तनीयः शम-खड्गधारया तपो-वियोथैः स ततोऽन्य-दुर्जयः ।।१५०२ ।। । इति क्रोधनिर्जयः। अर्थ - यह क्रोध रूपी शत्रु अपने सेवन करने वाले जीवों को इस भव में और परभव में भी दुख देता है अतः तपोधन साधुओं को अपनी समताभाव रूपी तलवार से उसे काट देना चाहिए, क्योंकि यह क्रोध-रूपी शत्रु साधुओं के अतिरिक्त अन्य किसीके भी द्वारा जीता नहीं जा सकता ||१५०२।। इस प्रकार क्रोध-विजय का कथन पूर्ण हुआ। मार्दव भाव नीचत्वे मम किं दुःखमुच्चत्वे कोऽत्र विस्मयः । नीचत्वोच्चत्वयो स्ति, नित्यत्वं हि कदाचन ॥१५०३ ।। अर्थ - नीवत्व और उच्चत्व ये दोनों धर्म अनित्य हैं, ये शाश्वत नहीं रहते, अतः यदि किसी न मेरा सम्मान नहीं किया, उच्चासन नहीं दिया तो इससे मुझे क्या दुख ? तथा कदाचित् किसी ने उच्च पद पर आरूढ़ भी कर दिया, अपना प्य से कोई इन्च पर प्राण भी हो गया तो इसमें क्या आश्चर्य ? इन्हें तो मैंने अनन्तबार प्राप्त किया है अत: इसमें मुझे कोई हर्ष-विषाद नहीं है॥१५०३ ।। परेषु विद्यमानेषु, किं दुःखमधिकेषु मे। योनि-हीनेष्वहङ्कारः, संसारे परिवर्तिनि ॥१५०४।। अर्थ - कुल, रूप, ज्ञान एवं तपादि में मुझ से अधिक श्रेष्ठ व्यक्ति इस जगत् में विद्यमान हैं अत: जो कुछ ज्ञानादि मुझे प्राप्त हुआ है उसमें आंभमान कैसा ? इस परिवर्तनशील संसार में मैं अनेक बार नीच-योनियों में जन्म ले चुका हूँ अत: वर्तमान के इस उच्च कुलादि में भी क्या अहंकार ? इस प्रकार के चिन्तन द्वारा अभिमान पर विजय प्राप्त करनी चाहिए ॥१५०४ ।। न मानी कुरुते दोषमपमानकर न यः। न कुर्वाण: पुनर्मानमपमान-विवर्धकम् ॥१५०५ ।। अर्थ - जो पुरुष अपमान के कारणभूत कारणों का त्याग करता है और सदा दोष रहित-प्रवृत्ति करता है वही यथार्थतः मानी है। गुणरहित होते हुए भी अभिमान करने वाला मानी नहीं होता ||१५०५॥ द्वितय-लोक-भयङ्करमुत्तमो, विविध-दुःख-शिलातत-दुर्गमम्। प्रबल-मार्दव-वन-विघाततो, नयति मान-नगं शत-खण्डनम् ॥१५०६ ।। इति मान-निर्जयः। अर्थ - जो इस लोक एवं पर-लोक में भयंकर है तथा घोर दुखरूपी विषम पाषाण की शिलाओं के समूह से दुर्गम है, ऐसे मानरूपी पर्वत के उत्तम साधुजन प्रबल मार्दव भावरूपी वज्र के आघात से सहस्रों खण्ड कर डालते हैं अर्थात् साधुजनों को मान कषाय रूपी पर्वत को मार्दव भाव द्वारा नष्ट कर देना चाहिए ।।१५०६ ।। इस प्रकार मानकषाय विजय का कथन पूर्ण हुआ। Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ४२० माया कषाय पर विजय प्राप्त करने का उपाय दोषो निगुह्यमानोऽपि, स्पष्टतां याति कालतः। निक्षिप्तं हि जले वर्चा, न चिरं व्यवतिष्ठते ।।१५०७ ॥ अर्थ - जैसे जल में डाला गया मल अधिक समय तक नीचे नहीं ठहरता, ऊपर आ ही जाता है, वैसे भली प्रकार अर्थात् सतर्कता पूर्वक भी छिपाये गये दोष समय पर प्रगट हो ही जाते हैं अत: मायाचार करने से क्या लाभ ? ||१५०७ ॥ प्रकटोऽपि जनैर्दोषः, सभाग्यस्य न गृह्यते । समलं मलिनं केन, गृह्यते सारसं जलम् ॥१५०८ ।। अर्थ - जैसे तालाब का जल मैला हो तो भी लोग उसे मैला नहीं मानते, वैसे ही भाग्यशाली जीवों का दोष प्रगट भी हो जाये तो भी लोगों द्वारा वह दोष ग्रहण नहीं किया जाता है॥१५०८।। प्रश्न - इस श्लोक का तात्पर्यार्थ क्या है ? उत्तर - इसका तात्पर्य अर्थ यह है कि दोषों का प्रगट होना और न होना पुण्य-पाप के आधीन है। दोष प्रगट हो जाने पर भी लोग पुण्यवान को हीन नहीं मानते और भाग्यहीन का छिपाया हुआ भी दोष उसके तिरस्कार का कारण बन जाता है। मान्यता या प्रतिष्ठा विनाश के भय से ही मनुष्य दोषों को छिपाते हैं, किन्तु पुण्यवान जीव के दोष प्रगट हो जाने पर भी जगत् में उसकी मान्यता यथावत् बनी रहती है अतः भाग्यशाली पुरुष को मायाचार करने से कोई लाभ नहीं होता। इसी प्रकार भाग्यहीन को भी मायाचार करने से कोई लाभ नहीं, क्योंकि छिपाये जाने पर भी उसके दोष छिपे नहीं रह पाते। पापोदय के कारण वे दोष उसका तिरस्कार एवं मान्यता या प्रतिष्ठा की हानि कराते ही हैं, अतः किसी को भी मायाचार नहीं करना चाहिए। नीचेन छाधमानोऽपि, स्पष्टतामेति निर्मलः। राहुणा पिहित शन्द्रो, भूय: किं न प्रकाशते॥१५०९ ।। अर्थ - भाग्यहीन पुरुष द्वारा प्रयत्नपूर्वक भी छिपाया हुआ दोष प्रगट हो जाता है, सो ठीक ही है, राहु द्वारा चन्द्रमा का ग्रसित होना क्या प्रगट नहीं होता ? अपितु होता ही है ।।१५०९।। दम्भेऽर्थः क्रियमाणेऽपि, विपुण्यस्य न जायते। आयाति स्वयमेवासी, सुकृते विहिते सति ॥१५१० ।। अर्थ - व्यापारादि में अत्यधिक छल-कपट करने पर भी भाग्यहीन व्यक्ति को धन प्रास नहीं होता और पुण्य करने पर वहीं धन अपने आप अवश्यमेव आ जाता है, अत: मायाचार पूर्वक धन कमाने की चेष्टा करना व्यर्थ है।॥१५१०।। वितरति विपुला निकृति-धरित्री, बहुविधमसुखं दुरित-सवित्री। इयमिति निहता विपुल-मनस्कै, ऋजुगुण-पविना विमल-यशस्कैः ।।१५११ ।। इति माया-निर्जयः। Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परणकण्डिका - ४२१ अर्थ - पाप उत्पन्न करने में माता सदृश यह मायाचारी रूप धरित्री जीवों को अनेक प्रकार के दुख देती है, ऐसा जानकर विमल यश के धारक बुद्धिमान साधुजन इस माया कषाय को आर्जव धर्मरूपी वज्र से नष्ट कर देते हैं ॥१५११॥ इस प्रकार मायादोष के विजय का कथन पूर्ण हुआ। लोभ कषाय पर विजय प्राप्त करने के उपाय सम्पद्यते सपुण्यस्य, स्वयमेत्यान्यतो धनम् । गरज. सप्तमपि सिर, निपुण माग्ने ॥ अर्थ - लोभ करने पर भी पुण्यहीन मनुष्य के हाथ में आया हुआ भी धन क्षणमात्र में विलय हो जाता है और वहीं धन पुण्यवानों के पास अन्य स्थान से स्वयं आकर प्राप्त हो जाता है।।१५१२ ॥ प्रश्न - धनप्राप्ति का मूल कारण अथवा उपाय क्या है ? उत्तर - धनप्राप्ति का मूल निमित्त धन का लोभ नहीं है अपितु पुण्य' ही उसका मूल हेतु है अतः जब धन पुण्य का ही अनुसरण करता है, अर्थात् पुण्योदय में ही प्राप्त होता है तब उस धनार्जन के लिए रात्रिभोजन, लोभ, मायाचारी, कृपणता एवं हिंसादि में प्रवृत्ति करके दूसरों के प्रति अन्याय करना योग्य नहीं है। ऐसा चिन्तन कर धनासक्ति का त्याग कर देना चाहिए। संसारेऽटाट्यमानेन, प्राप्ताः सर्वे सहस्रशः। विस्मयो लब्ध-मुक्तेषु, कस्तेषु मम साम्प्रतम् ॥१५१३॥ __ अर्थ - संसार में परिभ्रमण करते हुए मैंने सर्व सम्पत्तियाँ और सर्व वैभव सहस्रों बार प्राप्त किये हैं। त्याग करके पुनः प्राप्त होने वाले वैभव में अब आश्चर्य कैसा ? ||१५१३।। लोक-द्वये दुःखफलानि दत्ते, गार्धक्य-तोयेन विवर्धितोऽयम् । सन्तोष-शस्त्रेण निकर्तनीयः, स लोभ-वृक्षो बहुलः क्षणेन ।११५१४॥ अर्थ - जो गृद्धतारूपी जल से वृद्धिंगत हुआ है और दोनों लोकों में भयंकर दुख रूपी फल देता है, ऐसे इस बहुत विस्तृत लोभ रूपी वृक्ष को सन्तोष-रूपी शस्त्र द्वारा तत्काल काट देना चाहिए ||१५१४ ।। कषाय-चौरानति-दुःखकारिणः, पवित्र-चारित्र-धनापहारिणः । शृणाति यश्शारु-चरित्र-मार्गणैः, कर-स्थितास्तस्य मनीषिताः श्रियः ।।१५१५ ॥ इति लोभ-निर्जयः। अर्थ - पवित्र चारित्ररूपी धन को लूटने में तत्पर इन अतिदुखदाई कषायरूपी चोरों को जो अपने निर्दोष आचरण रूपी बाणों से नष्ट कर देता है उस महापुरुष के हाथ में मनोवांछित सम्पत्ति अर्थात् मोक्षरूपी लक्ष्मी स्थित हो चुकी है, ऐसा मानना चाहिए ॥१५१५ ।। इस प्रकार लोभ विजय का कथन पूर्ण हुआ। १. अर्थासक्तिरर्थ-लाभे मम न निमित्तमपि तु पुण्यमित्यनया..... । भगवती आराधना पृ. ६८०, जीवराज ग्रन्थमाला । Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परणकटिका - २ इस प्रकार निर्यापकाचार्य ने क्षपक को यहाँ तक कषायविजय एवं इन्द्रियविजय के उपायों का उपदेश दिया है। निद्रा-विजय के उपाय निद्रां जय नरं निद्रा, विद्धाति विचेतनम् । सुप्त: प्रवर्तते योगी, दोषेषु सकलेष्वपि ॥१५१६ ॥ अर्थ - हे क्षपकराज ! तुम निद्रा पर विजय प्राप्त करो, क्योंकि यह निद्रा मनुष्य को अचेतन बना देती है। निद्रित साधु सकल दोषों में प्रवृत्ति करता है ।।१५१६॥ प्रश्न - यहाँ अचेतन का क्या अर्थ है ? क्या सोता हुआ व्यक्ति निर्जीव हो जाता है ? उत्तर - जो गहरी नींद में सोता है वह उस समय योग्यायोग्य के विवेक से शून्य हो जाता है, इस अभिप्राय से आचार्यदेव ने उसे अचेतन कहा है अर्थात् यहाँ अचेतन का अर्थ 'विवेकज्ञान से रहित होना' है। यदा प्रबाधते निद्रा, स्वाध्यायं त्वं तदाश्रय । अर्थानणीयसो ध्यायन्, कुरु संवेग-निर्विदौ ॥१५१७ ।। अर्थ - भो क्षपक ! यदि तुम्हें निद्रा बाधक है, अर्थात् निद्रा सताती है तो तुम स्वाध्याय करो और स्वाध्याय के आश्रय से सूक्ष्म अर्थों का चिन्तन करो, अथवा संवेग तथा निर्वेद को वृद्धिंगत करने वाली कथाएँ सुनो या पढ़ो॥१५१७॥ निद्राविजय के उपाय निद्रा प्रीतौ भये शोके, यतः पुंसो न जायते । निर्जयाय ततस्तस्यास्त्वमिदं त्रितयं भज ॥१५१८ ।। अर्थ - प्रीति, भय एवं शोक होने पर मनुष्यों को स्वभावतः निद्रा नहीं आती, अत: हे क्षपक! तुम निद्रा पर विजय प्राप्त करने के लिए प्रीति, भय एवं शोक का सेवन करो॥१५१८ ॥ प्रीति आदि के आधार ज्ञानाधाराधने प्रीति, भयं संसार-दुःखतः । पापे पूर्वार्जिते शोक, निद्रां जेतुं सदा कुरु ॥१५१९॥ अर्थ - हे क्षपक ! तुम निद्रा पर विजय प्राप्त करने के लिए सदैव ज्ञान-दर्शनादि आराधनों में प्रीति, संसार के दुखों से भय एवं पूर्वोपार्जित पापों में शोक करो ।।१५१९ ।। प्रश्न - प्रीति, भय एवं शोक ये तीनों मोह की पर्याय होने से अशुभ हैं, अत: ये अशुभ कर्मासव में ही कारण पड़ेगी, इस प्रकार इनमें और निद्रा में कोई अन्तर नहीं रहा, फिर जो संवर के इच्छुक हैं उनके द्वारा इनका सेवन करना कैसे योग्य है ? उत्तर - समस्त आपत्तियों के समूह का विनाश करने के लिए, शाश्वत सुख प्राप्त करने के लिए, असार Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ४२३ शरीर का भार उतारने के लिए, अनन्त चतुष्टय रूप लक्ष्मी को आकर्षित करने के लिए, मोक्ष एवं स्वर्गादि सुख प्राप्त करने के लिए एवं कर्मरूपी विषवृक्ष को उखाड़ने के लिए मैं दर्शनाराधना, ज्ञानाराधना, चारित्राराधना एवं तप आराधना में प्रीति करता हूँ। अहो ! आज मैं ऐसी अपूर्व आराधनाओं की आराधना करने में उद्यमशील हूँ जिसे मैंने कभी अनन्तभवों में भी प्राप्त नहीं किया है। आज मैं धन्य हूँ, पुण्य स्वरूप हूँ इत्यादि। इस प्रकार चारों आराधनाओं में एवं रत्नत्रय में प्रीतिरूप भावना की जाग्रति से निद्रा भाग जाती है। शारीरिक, मानसिक, आगन्तुक एवं स्वाभाविक ऐसे चार प्रकार के महाभयंकर दुख इस परिभ्रमणरूप संसार में मैंने अनन्त बार भोगे हैं, मैं इन दुखों से अब अत्यधिक भयभीत हूँ। यदि इन उत्तम आराधनाओं से मैं च्युत होता हूँ तो मुझे भविष्य में पुन: ऐसे ही दुख भोगने पड़ेंगे, इस विचार से मेरा हृदय कम्पित हो रहा है एवं भय के कारण मेरे शरीर में कम्पन आ रहा है। इस प्रकार भयातुर परिणामों के चिन्तन से भी निद्रा नहीं आती है। हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह, मिथ्यात्व, कषाय एवं अशुभ मन, वचन एवं काय ये सब नाना प्रकार के कर्मानव के मूल हैं और चार प्रकार के बन्ध में निमित्त हैं। मैं अभागा निरन्तर इन्हीं पापों में लिप्त रहा। क्योंकि हिताहित के विचार में मूढबुद्धि होने से, या सन्मार्ग का उपदेश देने वालों की प्राप्ति न होने से, या प्रबल ज्ञानावरण कर्म का उदय होने से, या उनके द्वारा कहे गये अर्थ एवं तत्त्व को न जान सकने के कारण, या जान लेने पर भी श्रद्धा न बन पाने के कारण तथा चारित्र मोहनीय कर्म की वशवर्तिता के कारण सन्मार्ग में प्रवृत्ति न कर पाने के कारण मैं भयानक दुख समुद्र में डूबा रहा। इस प्रकार के चिन्तन से चित्त उद्विग्न हो जाता है और उद्विग्न चित्त वाले को निद्रा नहीं आती। व्यवहार में भी यही देखा जाता है कि जब कोई विवाहादि का प्रीतिजन्य कार्य घर में उपस्थित हो जाता है तब निद्रा नहीं आती, घर में सर्पादि का भय हो जाने पर निद्रा नहीं आती और इष्टवियोग या इष्ट वस्तु के मष्ट हो जाने पर शोकाकुल मनुष्य को या उद्विग्न चित्त वाले को निद्रा नहीं आती। सदैवमुपयुक्तेन, निद्रां निर्जयता त्वया। ... न ध्यानेन विना स्थेयं, पवित्रेण कदाचन ।।१५२० ।। ___ अर्थ - हे क्षपक ! तुम निद्रा पर विजय प्राप्त करने में सदा उद्यमशील रहो । देखो ! पवित्र या शुभ ध्यान के बिना कदाचित् भी चित्त में स्थिरता नहीं आ सकती है अत: ध्यान बिना एक क्षण भी नहीं रहना चाहिए ||१५२०॥ न दोषाननपाकृत्य, स्वप्तुं जन्मनि युज्यते। अनर्थकारिणो रौद्रान्, पन्नगानिव मन्दिरे॥१५२१ ।। अर्थ - जिस घर । अनर्थकारी एवं क्रूर सर्प घुस गया हो उस घर में जैसे सोना शक्य नहीं है, वैसे ही इस जन्म में अथवा साधु पर्याय में मिथ्यात्वादि दोषों को दूर किये बिना सोना उचित नहीं है ।।१५२१ ।। संसारे युज्यते स्वप्नु, कस्य दोषैः प्रदीपिते । महाताप-करै हे, पावकैरिव भीषणे ॥१५२२ ।। Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ४२४ अर्थ - महासन्तापकारी अग्नि के द्वारा जाज्वल्यमान भयानक घर में सोना जैसे उचित नहीं है, वैसे ही जन्म, जरा, मरण, आधि, व्याधि, शोक, भय एवं हिंसादि दोषों से भरे हुए इस भयावह संसार में निद्रा लेना किसे अथवा किसके लिए उचित है ? ||१५२२॥ को दोषेष्यप्रशान्तेषु, निरुद्वेगोऽस्ति पण्डितः । द्विषत्स्विव समीपेषु, विविधानर्थकारिषु ।।१५२३ ।। अर्थ - नाना प्रकार के अनर्थ करने वाले शत्रुओं के निकट रहने पर जैसे कोई निर्भय होकर नहीं सो सकता, वैसे ही संसार की वृद्धि करने वाले राग-द्वेषादि दोषों को उपशान्त किये बिना कौन ऐसा ज्ञानी है जो निरुद्वेग अर्थात् निर्भय होकर सो सकता है ।।१५२३ ।। नास्ति निद्रा-तमस्तुल्यं, परं लोके यतस्तमः । सर्व-व्यापार-विध्वंसि', जयेद सर्वदा ततः ।।१५२४॥ अर्थ - इस लोक में निद्रा रूपी अंधकार के सदृश और कोई अन्धकार नहीं है, क्योंकि यह निद्रा ध्यानादि सर्व ही शुभ कार्यों को ध्वंस करती है, अतः हे क्षपक ! तुम निद्रा को जीतने का सदैव प्रयत्न करो॥१५२४ | निद्रा-विमोक्ष-काले त्वं, निद्रां मुञ्चाथषा यते । यथा वा क्लान्त-देहस्य, समाधानं तथा कुरु ॥१५२५॥ अर्थ - अथवा यदि निद्रा पर विजय प्राप्त नहीं कर सकते हो तो हे क्षपक ! रात्रि का तृतीय पहर का जो समय आगम में निद्रात्याग का कहा है, उस समय तुम निद्रा को अवश्य त्यागो। अथवा उपवास, विहार या रोगादि के कारण शरीर क्लान्त हो रहा हो तो जिस प्रकार आपके परिणामों में शान्ति एवं समाधान रहे उस प्रकार निद्रा का त्याग करो।।१५२५ ।। कर्मास्रव-निरोधेऽयमुपायः कथितस्तव। कल्मषस्य पुराणस्य, तपसा निर्जरा पुनः ।।१५२६॥ __अर्थ - हे क्षपक ! जिसके द्वारा कासव रुक जाता है और तपादि के माध्यम से प्राचीन बंधे कर्मों की निर्जरा हो जाती है ऐसे कषाय-विजय एवं इन्द्रियविजय के साथ तुम्हारे लिए मैंने निद्रा विजय नाम का यह एक अचूक उपाय बताया है ।।१५२६ ।। उदीयमानेन महोद्यमेन, क्षत्रेण ? निद्रा तमसां सवित्री। प्रशस्त-कर्म-व्यवधान-शक्ता, विजीयते भानुमतेव रात्रि: ।।१५२७ ॥ इति निद्रा-निर्जयः॥ अर्थ - जैसे उदित होते हुए महाप्रचण्ड सूर्य के द्वारा प्रशस्त कार्यों में विघ्न उपस्थित करने वाली एवं १. निद्रा मूलमनाना, निद्रा श्रेयो विघातिनी। निद्रा प्रमाद-जननी, निद्रा संसार-वर्धिनी॥ Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ४२५ अन्धकार की जननी स्वरूप रात्रि जीती जाती है वैसे ही महाउद्यमशील उदित क्षपक के द्वारा-सामायिक तथा ध्यानादि कार्यों में व्यवधान करने वाली एवं पायकार की जननी सदृश निद्रा जीती जाती है। अर्थात् जो महान् उद्यमशील एवं वैराग्य युक्त साधु हैं वे ही निद्रा को जीत सकते हैं, अन्य नहीं ॥१५२७।। इस प्रकार निद्राविजय वर्णन पूर्ण हुआ। अंतरंग-बहिरंग एवं अंतरंग तप का कथन यतस्वाभ्यन्तरे बाह्ये, स्वां शक्तिमनिगूहयन् । तपस्यनलसः स त्वं, देह-सौख्य-पराङ्मुखः ॥१५२८ ।। अर्थ - हे क्षपक ! तुम शरीर और सुख से पराङ्मुख हो, अर्थात् शरीर एवं सुखियापने की आसक्ति तथा आलस्य छोड़कर, अपनी शक्ति को न छिपाते हुए अभ्यन्तर और बाह्य तप में उद्यम करो ॥१५२८ ।। प्रश्न - देह-सुख एवं आलस्य क्यों छुड़ाये जा रहे हैं ? उत्तर - शरीर एवं सुन की आसक्ति तथा आलस्य ये तीनों तप में विघ्न करने वाले हैं, क्योंकि जो शरीर और सुख में आसक्त है अथवा उनमें जिसका आदर भाव है या जो आलसी या प्रमादी है वह कदापि तप में प्रयत्न नहीं कर सकता, अत: तप के इच्छुक को इन तीनों के छोड़ने की प्रेरणा दी गई है। आलस्य-सुख-शीलत्वे, शरीर-प्रतिबन्धने । विदधाति तपो भक्त्या, स्व-शक्ति-सदृशं न यः ।।१५२९॥ तस्य शुद्धो न भावोऽस्ति, माया तेन प्रकाशिता। शरीर-सौख्य-सक्तस्य, धर्म-श्रद्धा न विद्यते ।।१५३० ।। अर्थ - आलस्य से, सुखिया स्वभाव होने से एवं अपने शरीर के प्रति प्रतिबद्ध होने से जो अपनी शक्ति के अनुसार भक्तिपूर्वक तप नहीं करता उसके भावों की शुद्धि नहीं है। शक्ति के अनुसार तप में प्रवृत्ति न करने वाला मायाचारी है। तथा सुख और शरीर में आसक्ति होने से उसकी धर्म में तीव्र श्रद्धा नहीं है, अर्थात् यथाशक्ति तप न करने वाला धर्माचरण से जी चुराने वाला सिद्ध होता है।।१५२९-१५३०॥ वीर्य निगूयते येन, तेनात्मा वञ्च्यते स्वयम् । सुख-शीलतया तेन, कर्मासातं च बध्यते ।।१५३१॥ अर्थ - जो साधु अपनी शक्ति को छिपाता है, अर्थात् शक्ति के अनुसार तप में तत्पर नहीं होता वह अपनी ही आत्मा को ठगता है। तथा सुख में आसक्त रहने से भयंकर दुख देने वाले असाताकर्म को बांधता है ।।१५३१ ।। आलस्य दोष वीर्यान्तराय-चारित्र-मोहावर्जयतेऽलसः। शरीर-प्रतिबन्धेन, जायते सपरिग्रहः ॥१५३२॥ Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका- ४२६ अर्ध - आलस्य के कारण अर्थात् आ पा वीर्या एवं मोहन तथा शरीर की प्रतिबन्धता अर्थात् आसक्ति से वह साधु परिग्रही भी होता है ।। १५३२ ।। माया- दोषाः पुरोद्दिष्टाः समस्ताः सन्ति मायया । धर्मेऽपि नि: प्रियाशस्य, धर्मोऽस्य सुलभः कथम् ।। १५३३ ।। अर्थ - तप में अपनी शक्ति छिपाने रूप मायाचारी में वे ही सब दोष होते हैं जो पूर्व में मायाचारी के दोष कहे गये हैं। इस प्रकार उत्तम तप धर्म में जिसका प्रीतिभाव नहीं है, अर्थात् जो धर्म में अनादर भाव रखता है उसको दूसरे आगामी भवों में सुलभता पूर्वक धर्म की प्राप्ति कैसे होगी ? अपितु नहीं होगी ॥ १५३३ ॥ अकुर्वाणस्तपः सर्वैर्वञ्चितोऽस्ति तपो - गुणैः । माया - वीर्यान्तरायौ च तीखी बध्नाति कर्मणी ।। १५३४ । 1 का करता है, अर्थ - पूर्व में जो संबर एवं निर्जरादि तप के गुण कहे हैं, तप न करने वाला साधु उन सब गुणों से वंचित रहता है, तथा इसके विपरीत वह साधु अपनी शक्ति छिपाने के कारण माया कषाय एवं वीर्यान्तराय कर्मों का तीव्र कर्मबन्ध करता है || १५३४ || अकुर्वतस्तपोऽन्येऽपि दोषाः सन्ति तपस्विनः । कुर्वाणस्य पुनः शक्त्या, जायन्ते विविधाः गुणा: ।। १५३५ ।। अर्थ- जो साधु शक्ति के अनुसार तप नहीं करते वे ये दोष एवं अन्य भी दोषों को उत्पन्न करते हैं तथा शक्त्यनुसार तप में तत्पर साधु को नाना प्रकार के गुणों की प्राप्ति होती है ॥। १५३५ ॥ तप के गुण लोक-द्वये पराः पूजा:, प्राप्यन्ते कुर्वता तपः । आवर्ण्यन्तेऽखिला देवाः पुरन्दर - पुरःसरा ।। १५३६ ।। अर्थ - सम्यक् तप करने वाले साधु इह लोक एवं परलोक में भी सातिशय पूजा अर्थात् आदर-सत्कार प्राप्त करते हैं, तथा तप के माहात्म्य से इन्द्र जिनके आगे है ऐसे सर्व देव उन्हें प्रणाम करते हैं । १५३६ ॥ तपः फलति कल्याणं, कृतमल्पमपि स्फुटम् । बहु - शाखोपशाखाढ्यं वट-बीजं यथा वटम् ॥। १५३७ ।। अर्थ - जैसे छोटा सा वट का बीज बहुत सी शाखा प्रशाखाओं से युक्त विस्तृत वटवृक्ष रूप से फलता है, वैसे ही विधि या संयम पूर्वक किया गया अल्प सा भी तप अत्यधिक कल्याणकारी होता है || १५३७ ॥ विधिनोप्तस्य सस्यस्य, विघ्नाः सन्ति सहस्रशः । तपसो विहितस्यास्ति, प्रत्यूहो न मनागपि । १५३८ ।। अर्थ - धान्यादि की खेती विधिपूर्वक, बहुत सावधानी एवं परिश्रम से सम्पन्न करते हुए भी उसमें सहस्रों विघ्न-बाधायें आ जाती हैं। किन्तु आगमोक्त विधि से किये जाने वाले सम्यक् तप की फल प्राप्ति में किंचित् भी कोई विघ्न नहीं आते अर्थात् तपश्चरण का फल निर्विघ्न प्राप्त होता है ।। १५३८ ।। Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ४२७ मृत्यु-जन्म-जरातस्य, तपः सुख-विधायकम्। महारोगातुरस्येव, भैषज्यं वीर्य-संयुतम् ॥१५३९॥ अर्थ - जैसे महारोग से आकुलित रोगी को यत्न पूर्वक दी गई अत्यन्त शक्तिशाली औषधि सुख कारक होती है, जैसे ही जन्म, जाा एतं पृत्युमणी रोगों से पीड़ित प्राणियों को सम्यक् प्रकार से किया हुआ तप ही औषधि के सदृश सुख देने वाला है।।१५३९ ।। संसारस्याविषयेन, ग्रीष्मकस्येव भास्वतः । तापेन तप्यमानस्य, तपो धारा-गृहायते ।।१५४० ॥ अर्थ - जैसे सूर्य की किरणों से तप्तायमान मनुष्य के शरीर का ताप धारागृह से शान्त हो जाता है, वैसे ही संसाररूपी असहय महादाह से जलते हुए प्राणियों के लिए तप जलगृह के सदृश शान्ति देने वाला है। अर्थात् तप कर्मों का नाश कर शाश्वत सुख देता है ।।१५४०॥ विदधानस्तपो भक्त्या, निरालस्यो विधानतः। देशान्तरमपि प्राप्तः, स बन्धुरिव गृहयते ।।१५४१॥ अर्थ - जो आलस्य छोड़कर श्रद्धा एवं भक्ति से गद्गद होता हुआ विधिपूर्वक तपश्चरण करता है वह देशान्तर में भी बन्धु जनों के सदृश सभी को प्रिय होता है। अर्थात् यह 'जगत् विश्वसनीयता गुण' तपश्चरण से ही प्राप्त होता है॥१५४१॥ मातेवास्ति सुविश्वास्यः, पूज्यो गुरुरिवाखिलैः । महानिधिरिव ग्रायः, सर्वत्रैव तपोधनः ।।१५४२ ।। अर्थ - तपस्वी मुनि सर्वत्र माता सदृश विश्वासपात्र, गुरु सदृश सभी से पूज्य एवं महानिधि के सदृश ग्रहण करने योग्य होता है ।।१५४२।। लभ्यन्ते नर-देवानां, सर्वाः कल्याण-सम्पदः । परमं सिद्धि-सौख्यं च, कुर्वता निर्मलं तपः॥१५४३॥ अर्थ - निर्मल एवं सम्यक् तपश्चरण करने वाले साधु को अर्धचक्री, चक्रवर्ती एवं इन्द्रों की सर्व ही कल्याणप्रद सम्पदाएँ प्राप्त होती हैं तथा सर्वोत्कृष्ट मोक्षसुख भी प्राप्त होता है ।।१५४३॥ चिन्तामणिस्तपः पुंसो, धेनुः कामदुधा तपः । तिलकोऽस्ति तपो भव्यस्तपो मान-विभूषणम् ॥१५४४ ।। अर्थ - सम्यक्तप मनुष्य के लिए चिन्तामणिरत्न है, कामदुधा कामधेनु गाय है, मनुष्य के मस्तक पर शोभित होने वाले तिलक के समान है और मान का विशिष्ट आभूषण है।।१५४४ ।। प्रश्न - तप को चिन्तामणिरत्नादि की उपमा क्यों दी गई है ? । उत्तर - जैसे चिन्तामणिरत्न चिन्तित वस्तुएँ देता है वैसे तप भी मनोवांछित फल देता है। जैसे कामधेनु -- - 17 Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका- ४२८ गाय सभी प्रकार के इच्छित पदार्थ देती है, वैसे ही तप इच्छित पदार्थ देता है। जैसे तिलक मनुष्य के ललाट की सुन्दरता को वृद्धिंगत करता है वैसे तप भी साधु जीवन की शोभा को वृद्धिंगत करता है तथा जैसे विशिष्ट आभूषण देना मानवृद्धि का द्योतक है वैसे ही सर्व जगत् के द्वारा तप करने वाले मान्य साधुओं का सम्मान . सुशोभित होता है अतः तप को इन उत्तम पदार्थों की उपमा दी गई है। अज्ञान तिमिरोच्छेदि, जायते दीपकस्तपः । पितेव सर्वावस्थासु, करोति नृ-हितं तपः । १५४५ ॥ अर्थ- सम्यक् तप अज्ञानरूपी घोर अन्धकार में विचरण करने वालों के लिए दीपक के सदृश है और सर्व अवस्थाओं में मनुष्य को हित में लगाने के लिए पिता के सदृश है ।। १५४५ ।। विभीम-विषयाम्भोधेस्तपो निस्तारणे प्लवः । तप उत्तारकं ज्ञेयं, विभीम विषयावटात् ॥१५४६ ।। अर्थ - यह सम्यक् तप अतिभयानक विषयरूपी समुद्र से पार होने के लिए नौका सदृश है और अत्यन्त भयावह पंचेन्द्रियों के विषयरूपी गर्त से निकालने में समर्थ है || १५४६ || - इन्द्रियार्थ-महातृष्णाच्छेदकं सलिलं तपः । दुर्गती नामराम्यानां निषेधे परिघस्तपः ।। १५४७ ॥ अर्थ- यह सम्यक् तप इन्द्रियों की विषवरूपा महातृष्णा को उपशान्त करने के लिए जल के समान है और अत्यन्त दुखदाईं दुर्गति को रोकने के लिए अगला के सदृश है || १५४७ ॥ मन: कायासुख - व्याघ्र - प्रस्तानां शरणं तपः । कल्मषाणामशेषाणां तीर्थं प्रक्षालने तपः ।। १५४८ ।। 3 अर्थ - जो प्राणी मानसिक एवं शारीरिक दुख रूपी व्याघ्र से भयभीत हैं, उनके लिए यह सम्यकू तप शरणभूत है, तथा सम्पूर्ण पापरूपी मैल को धो डालने के लिए यही तप तीर्थ है, अर्थात् नदी का स्नानतट है। तप: संसार- कान्तारे, नष्टानां देशकं यत: । दीर्घे भव-पथे जन्तोस्तपः सम्बलकायते ॥। १५४९ ।। अर्थ संसाररूपी भयावह वन में जो प्राणी दिशा भूल गये हैं, उन्हें उपदेश अर्थात् मार्गदर्शन देने वाला यह सम्यक् तप ही है। सुदीर्घ भव-रूपी भयानक वन के लम्बे मार्ग को पार करने के लिए यह तप कलेवा के सदृश सहायक है ॥१५४९ ।। श्रेयसामाकरो ज्ञेयं, भयेभ्यो रक्षकं तपः । सोपानमारुरुक्षूणामबाधं सिद्धि - मन्दिरम् ।। १५५० ॥ अर्थ - यह सम्यक् तप अभ्युदय सुखों की खान है, भयभीत प्राणियों का रक्षक है और अविनाशी सुख स्वरूप मोक्षमन्दिर में जाने के लिए नसैनी अर्थात् सीढ़ियों के सदृश है ।। १५५० ।। Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ४२२ तन्नास्ति भुषने वस्तु, तपसा यन्न लभ्यते। तपसा दयते कर्म, वह्निनेव तृणोत्करः ।।१५५१।। अर्थ - जैसे अग्नि तृणसमूह को जला देती है, वैसे ही सम्यक् तप कर्मों को जला देता है अतः लोक में कोई ऐसी वस्तु नहीं है जो सम्यक् प्रकार किये गये तप के द्वारा प्राप्त न होती हो॥१५५१ ॥ चिन्तितं यच्छतो वस्तु, सर्व चिन्तामणेरिव । तपसः शक्यते वक्तुं, न माहात्म्यं कथयन ।।१५५२॥ अर्थ - चिन्तामणि रत्न सदृश चिन्तित पदार्थ को देने वाले इस सम्यक् तप का माहात्म्य किसी प्रकार भी कहना शक्य नहीं है॥१५५२ ॥ इति विलोक्य तप: फलमुत्तमं, विमल-वृत्त-निवेशित-मानसः । तपसि पूत-मतिर्यतते यतिः, कुतपसः स फले विगतादरः ।।१५५३।। अर्थ - इस प्रकार जिन यतिजनों का मन निर्दोष चारित्रपालन में स्थिर है, वे तपस्या के उत्कृष्ट फल को देख कर पवित्र बुद्धि युक्त हो सम्यक् तप में ही प्रयत्नशील होते हैं, खोटे तप के फल में आदर नहीं करते ।।१५५३।। तपः क्रियायामनिशं स्व-विग्रहो, नियोजनीयो यतिना हितैषिणा। नियोज्यते किं न गृहीत-वेतनो, मनीषिते कर्मणि न स्व-चेटकः॥१५५४॥ अर्थ - आत्मा का हित चाहने वाले यतिजनों द्वारा अपने-अपने शरीर को तपस्या की क्रियाओं में अहर्निश लगाये रखना चाहिए। देखो ! जिसने अपना वेतन/पारिश्रमिक ले लिया है उस भृत्य को क्या इच्छित कार्य में नहीं लगाया जाता ? लगाते ही हैं ।।१५५४॥ गुणैरशेषैः कलिते मनोरमैर्निरस्त-दोषे कथिते तपोधनैः। सदात्र धर्मे शिव-सौख्य-कारणे, प्रमाद-मुक्तः क्रियतां महादरः ॥१५५५ ।। इति तपसः क्रमः॥ अर्थ - निर्यापकाचार्य महोदय कह रहे हैं कि हे क्षपक ! सम्पूर्ण मनोरम गुणों से संयुक्त एवं दोषों से रहित, तपोधन गणधरादि महात्माओं द्वारा कहा हुआ मोक्ष-सुख के कारण-स्वरूप यह उत्तम तप धर्म है, अत: प्रमाद छोड़कर आप सभी को इस सम्यक् तप में आदर करना चाहिए। अर्थात् इस तप का सम्यक् प्रकार से अनुष्ठान करते रहना चाहिए ॥१५५५ ॥ इस प्रकार तपश्चरण के क्रम का वर्णन पूर्ण हुआ। उपदेश सुनने वाले क्षपक की स्थिति क्षपकानन राजीवं, ततो भाति विकाशितम्। हत-मोह-तमस्काण्डै:, सूरि-वाक्य-मरीचिभिः॥१५५६ ॥ Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ४३० अर्थ - इस प्रकार तप का माहात्म्य सुनकर मोहरूपी अन्धकार समूह को नष्ट कर देने वाले निर्यापकाचार्यरूपी सूर्य के वचनरूपी किरण-समूह से क्षपक का मुख कमल विकसित/प्रफुल्लित हो जाता है ॥१५५६॥ प्रश्न - क्या क्षपक का मुख उदास रहता है ? उत्तर - क्षपक उदास नहीं रहता, फिर भूख, प्यास या रोगादि की पीड़ा से अथवा अनशनादि तप के से श्रम से मुखाकृति पर कुछ विरूपता या थकावटजन्य ग्लानि आ जाती है तो गुरुमुख से प्रसारित शिक्षा-रूपी वचन-किरणों से वह विरूपता नष्ट हो जाती है और उसमें से रत्नत्रय की प्रीतिरूपी पुष्परस झरने लगता है, तथा चित्त प्रसन्न एवं हृदय आहलादित हो उठता है। सूरे ति प्रभावेण, तत्सदो मुख-पङ्कजैः। सरोवरमिवाकीर्णं, पौर्विकसितैः रवैः ।।१५५७।। __ अर्थ - सूर्य की किरणों से विकसित हुए कमलों के द्वारा भरा हुआ सरोवर जैसे सुशोभित होता है, वैसे ही आचार्य के वचन प्रभाव से मुनियों के विकसित हुए मुखरूपी कमलों द्वारा वह परिषद् अत्यन्त सुशोभित होती है॥१५५७ ॥ प्राप्तोपदेश-पीयूषं, क्षपकोऽजनि निर्वृतः। समस्त-श्रम-विध्वंसि, तृषार्त इव पानकम् ।।१५५८ ॥ अर्थ - जैसे प्यास से पीड़ित पुरुष समस्त श्रम और प्यास को शमन करने वाले पेय को प्राप्त कर प्रसन्न होता है, वैसे ही क्षपक आचार्य श्री के उपदेश रूपी धर्मामृत को पीकर सुखी एवं आनन्दित होता है ।।१५५८ ।। क्षपक द्वारा आचार्य की वन्दना एवं विनय पूर्वक प्रज्ञप्ति ततोऽमुं शासनं श्रव्यं, श्रुत्वा संविग्न-मानसः। उत्थाय वन्दते सूरिं, स नम्री-कृत-विग्रहः।।१५५९।। अर्थ - तदनन्तर कर्णप्रिय वचनों द्वारा जिनशासन के अथवा तप धर्म के माहात्म्य को सुनकर वह क्षपक वैराग्य से भर जाता है अत: संस्तर से उठकर बैठ जाता है, पश्चात् सर्वांगों को अति ननीभूत कर श्रद्धा एवं विनय पूर्वक आचार्यश्री की वन्दना करता है ।।१५५९॥ तवेमा देशनां कृत्वा, शेषामिव शिरस्यहम् । यथोक्तमाचरिष्यामि, पराजित-परीषहः ॥१५६० ।। अर्थ - क्षपक कहता है कि हे गुरुदेव ! आपके द्वारा दिये हुए इस सम्यग्ज्ञानामृत रूप उपदेश को मैं शेषाक्षत के सदृश मस्तक पर धारण कर तथा परीषहों को जीत कर वैसा ही आचरण करूँगा जैसा कि आपने मार्गदर्शन किया है॥१५६० ॥ यथा मे निस्तरत्यात्मा, तुष्टिरस्ति यथा तव । सङ्घस्य सर्वस्य यथा, तवास्ति सफल: श्रमः॥१५६१॥ Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ४३१ अर्थ - जिस प्रकार से मेरी आत्मा संसार-समुद्र से पार हो, जिस प्रकार से आपको परम सन्तुष्टि प्राप्त हो तथा मेरे कल्याण में संलग्न आपका एवं सर्वसंघ का परिश्रम सफल हो, मैं उसी प्रकार का आचरण और तप करूँगा ।।१५६१॥ यथात्मनो गणस्यापि, कीर्तिरस्ति प्रधीयसी। अहमाराधयिष्यामि, तथा सङ्घ-प्रसादतः ॥१५६२ ॥ अर्थ - भो गुरुदेव ! जिस प्रकार मेरी और संघ की कीर्ति विस्तार से फैले, मैं सर्व संघ की कृपा से उसी प्रकार रत्नत्रय की आराधना करूँगा।।१५६२ ।। याराधिता महाधीरैरधीरैर्मनसापि नो। अस्तायां साधयिष्यामि, देवीमाराधनामहम् ।।१५६३ ॥ अर्थ - हे पूज्यवर! महाधीर-वीर पुरुषों ने जो आराधना की है, या रत्नत्रय की वृद्धि के लिए जो आधा किया, पुरुष जिमीन से कल्पना भी नहीं कर सकते, पापों को नष्ट करने वाली उस आराधना देवी की मैं सिद्धि करूँगा ।।१५६३॥ तवोपदेश-पीयूषं, पीत्वा को नाम पावनम् । विभेतीह क्षुधादिभ्यः, कातरोऽपि नरः प्रभो ! ॥१५६४॥ अर्थ - हे प्रभो ! आपके धर्मोपदेशरूपी पवित्र अमृत को पीकर कौन कायर भी मनुष्य भूख-प्यास एवं मृत्यु आदि से डरेगा ? अपितु कोई भी नहीं डरेगा ।।१५६४॥ पलालैरिव निःसारैर्बहुभिर्भाषितैः किमु। प्रत्यूह-करणे शक्तो, न मे शक्रोऽपि निश्चितम् ॥१५६५ ।। अर्थ - घास-फूस के सदृश बहुत अधिक बोलने से क्या प्रयोजन, आपकी अनुकम्पा से इन्द्रादि देव भी मेरी आराधना में नियमतः विघ्न उत्पन्न नहीं कर सकते ॥१५६५ ।। ध्यान-विघ्नं करिष्यन्ति, किं क्षुधादि-परीषहाः। कषायाक्ष-द्विषो वा मे, त्वत्प्रसादमुपेयुषः ॥१५६६॥ अर्थ - हे गुरुदेव ! आपकी कृपा को प्राप्त हुए मुझ क्षपक के ध्यान में ये भूख-प्यास आदि परीषह और कषाय एवं इन्द्रियरूपी शत्रु क्या विघ्न कर सकते हैं ? अर्थात् कुछ भी नहीं कर सकते ।।१५६६॥ स्थानतश्चलति नाक-पर्वतः, पुष्करं वसुमतिं प्रपद्यते । त्वत्प्रसादमुपगम्य न प्रभो ! जातु यामि विकृतिं मनागपि॥१५६७ ॥ अर्थ - हे प्रभो ! कदाचित् सुमेरु पर्वत अपने स्थान से चलायमान हो जाये और पुष्कर अर्थात् सरोवर पृथिवीपने को प्राप्त हो जावे किन्तु आपके अनुग्रह से मैं किंचित् भी विकार को प्राप्त नहीं होऊँगा ॥१५६७ ।। Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ४३२ मनसा वपुषा वचसा भगवन्ननुशासनमेतदनन्य-मतिः। तव यो विदधाति सदा, विधिना शिवतातिपति स मुक्त ममः ॥९५६८॥ इति अनुशिष्टिः॥ अर्थ - हे प्रभो ! आपके इस अनुशासन अर्थात् उपदेश को जो भव्य-पुरुष अनन्य मति अर्थात् एकाग्रचित्त होकर मन, वचन और काय से विधिपूर्वक सदा धारण करता है वह पुरुष कर्ममल से मुक्त होता हुआ मोक्षसुख की परम्परा को प्राप्त होता है ।।१५६८॥ इस प्रकार अनुशिष्टि नामक महाधिकार पूर्ण हुआ॥३३॥ विशेषार्थ - इस मरणकण्डिका ग्रन्थ में समाधिमरण की सिद्धि हेतु अर्ह, लिंग एवं शिक्षादि चालीस अधिकार हैं। उनमें से अनुशिष्टि नामक यह ३३ वाँ अधिकार अति विस्तृत है। इस अधिकार में निर्यापकाचार्य का क्षपक के लिए जो उपदेश दिया गया और क्षपक ने जिस विनम्रता से उसे ग्रहण किया है तथा उसमें दृढ़ रहने की जो प्रतिज्ञा की है वह सब हृदयग्राही है। इस अधिकार के प्रारम्भ में क्षपक को जो निर्देश दिया गया था कि आहार और उपधि को निर्दोष ग्रहण करना, शल्य त्याग, मिथ्यात्व वमन, सम्यक्त्व की भावना, भक्ति, पंच नमस्कार में प्रीति, ज्ञानाभ्यास की प्रेरणा, महाव्रतों का विस्तृत विवेचन, कषायनिग्रह, इन्द्रियविजय एवं निद्राविजय तथा अन्त में तपस्या का माहात्म्य, उसके गुण एवं उसके फल का निरूपण करते हुए यह अनुशिष्टि नामक तैंतीसवाँ अधिकार पूर्ण किया गया है। सारणादि अधिकार आचार्य की शिक्षा तप में और तप निर्जरा में कारण है निर्जरां कुरुते गु:, कुर्वाण: क्षपकस्तपः। दत्ते निर्यापकः शिक्षामनिर्विण्णः प्रियम्वदः ।।१५६९॥ अर्थ - इस प्रकार हित एवं प्रियवचन बोलने वाले निर्यापकाचार्य बिना विरक्त हुए अथवा बिना विश्राम के क्षपक को शिक्षा देते हैं, जिससे वह विशिष्ट तप करता हुआ पूर्वबद्ध कर्मों की एकदेश अथवा उनके बहुभाग की निर्जरा करता है ।।१५६९॥ पानक के भेद एवं उनका त्याग कटु-तिक्त-कषायाम्ल-लवण-स्वादुभी-रसैः। पानकं मध्यमैर्युक्तं, तस्मै क्षीणाय दीयते ॥१५७० ।। अर्थ - समाधिमरण में उद्यत क्षीणकाय क्षपक के लिए कटुक, तीखा, कषायला, नमकीन, स्वादु एवं मीठा इन रसों में से मध्यम रसों का पानक देना चाहिए ।।१५७० ।। Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका -४३३ प्रश्न - 'क्षपक को मध्यम रसों का पानक देना चाहिए' इसमें मध्यम शब्द का क्या अभिप्राय है ? उत्तर - मध्यम शब्द का यह भाव है कि वह अधिक कटुक न हो, चरपरा न हो, खट्टा न हो, कषायला न हो, खारा न हो, मीठा न हो, अधिक गर्म या ठण्डा न हो, स्वादहीन न हो, दुर्गन्धित न हो, वात, पित्त एवं कफादि को उत्पन्न करने वाला न हो, समाधि में विघ्न उत्पन्न करने वाला न हो, स्वच्छ हो एवं कपड़े से छान लिया गया हो। ऐसा पानक संस्तरारूढ़ क्षीणकाय क्षपक को देना योग्य है। पानक का भी त्याग यदासौ नितरां क्षीणस्तदपि त्याज्यते तदा। पटीयांसो न कुर्वन्ति, निरर्थक नियोजनम् ॥१५७१।। अर्थ - जब संस्तरारूढ़ क्षपक अतिक्षीण हो जाय तब हानि' नामक सूत्र में कहीं गई विधि के अनुसार पानक का भी त्याग करा देना चाहिए । ठीक है, बुद्धिमान पुरुष व्यर्थ का नियन्त्रण नहीं करते अर्थात् निर्यापकाचार्य क्षपक की क्षमतानुसार शनैःशनैः क्रमश: ही पानक का त्याग कराते हैं ॥१५७१ ।। वेदनादि उत्पन्न हो जाने पर करने योग्य कर्तव्य इत्थं शुश्रूषमाणस्य, संस्तरस्थस्य वेदना । पूर्व-कर्मानुभावेन, काये काप्यस्य जायते ॥१५७२ ।। अर्थ - इस प्रकार निर्यापकाचार्य के निर्देशानुसार जिसकी सेवा एवं वैयावृत्य हो रही है ऐसे संस्तरारूद क्षीणकाय क्षपक के शरीर में पूर्वबद्ध असाताकर्मोदयसे विघ्नकारी वेदना उत्पन्न हो सकती है ॥१५७२ ।। दर्शन-ज्ञान-चारित्र-तपो-रत्न-भृतस्ततः । संसार-सागरे घोरे, यति-पोतो निमज्जति ।।१५७३ ।। अर्थ - भयंकर वेदना के कारण सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र एवं तप रूपी रत्नों से भरी हुई यह क्षपक मुनि रूपी नौका घोर संसार सागर में डूब सकती है।।१५७३॥ निमज्जन्तं भवाम्भोधौ, यो दृष्ट्वा तमुपेक्षते । अधार्मिको निराचारो, नापरो विद्यते ततः ॥१५७४।। अर्थ - सम्यग्दर्शनादि गुणों से भरी क्षपक रूपी नाव को संसार-समुद्र में डूबते हुए देखकर जो निर्यापकाचार्य उसकी उपेक्षा करता है उससे अधिक अधार्मिक एवं आचारहीन अन्य कोई नहीं है ॥१५७४ ।। वैयावृत्य-गुणाः पूर्व, कथिता ये प्रपञ्चतः। तैरुपेक्षापरो नीचस्त्यज्यते निखिलैरपि ॥१५७५ ॥ अर्थ - जो क्षपक की उपेक्षा करता है वह नीच है और पूर्व में वैयावृत्य के विस्तार पूर्वक जो गुण कहे गये हैं, उन सब गुणों से वह भ्रष्ट होता है ।।१५७५ ।। Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डेिका - ४३४ वैयावृत्यं ततः कार्य, चिकित्सां जानता स्वयम् । वैद्योपदेशतश्चास्य, शक्तितो भक्तित: सदा॥१५७६ ॥ अर्थ - अत: उस क्षपक के रोग की चिकित्सा जानने वाले निर्यापकाचार्य को स्वयं अथवा चतुर वैद्य के परामर्श से शक्ति और भक्ति पूर्वक मदा नैयावृत्य करना गहिए ।।१५५७६ ।। विज्ञाय विकृति तस्य, वेदनाया: प्रतिक्रिया। औषधैः पानकैः कार्या, वात-पित्त-कफापहः॥१५७७ ।। अर्थ - उस क्षपक की वेदना के विकार को जानकर वात, पित्त या कफ की नाशक प्रासुक पेय औषधि द्वारा उसका प्रतिकार करना चाहिए ॥१५७७ ॥ अभ्यङ्ग-स्वेदनालेप-वस्ति-कङ्गि-मर्दनैः । परिचर्या-परेणापि, कृत्यास्य परिकर्मणा ।।१५७८ ।। अर्थ - तेल लगाना, पसीना लाना, लेप लगाना, वस्तिकर्म अर्थात् एनिमा लगाना, अंग मर्दन करना, गर्म पानी से सेकना अथवा शीतल आदि अन्य-अन्य उपचार करके क्षपक की वेदना को शमन करने योग्य परिचर्या करनी चाहिए।॥१५७८॥ कस्यचित् क्रियमाणेऽपि, बहुधा परिकर्मणि। पाप-कर्मोदये तीव्र, न प्रशाम्यति वेदना ॥१५७९ ।। अर्थ - इस प्रकार अनेक उपचार किये जाने पर भी तीव्र पाप-कर्म के उदय से कभी क्षपक की वेदना शान्त नहीं होती है।।१५७९ ।। प्रश्न - उपचार के उपरान्त भी वेदना शान्त क्यों नहीं होती ? उत्तर - यह अनुभव सिद्ध बात है कि जो बाह्य औषधि किसी व्यक्ति के रोगसमन में सहायक होती देखी जाती है वही औषधि किसी अन्य के उसी रोगशमन में सहायक नहीं होती है। इसका कारण है कि अन्तरंग कारण के बिना मात्र बाह्य कारण से कार्य सम्पन्न नहीं होते। पुण्योदय के योग में ही औषधि आदि बाहा द्रव्य अपना कार्य करने में समर्थ होते हैं। क्षपको जायते तीबेरुपसर्ग-परीषहैः। अभिभूतः परायत्तो, विह्वलीभूत-चेतनः ॥१५८० ।। अर्थ - तीव्र उपसर्गों से अथवा भूख-प्यासादि परीषहों से अभिभूत होता हुआ क्षपक कभी-कभी वेदना के आधीन हो जाता है, जिससे उसकी चेतना विह्वल हो जाती है अर्थात् वह क्षपक मूर्छित हो जाता है।।१५८०॥ व्याकुलो वेदना-ग्रस्तः, परीषह-करालितः। प्रलपत्य-निबद्धानि, वाक्यानि स विचेतनः ॥१५८१॥ Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ L अर्थ पाता, तब वह असम्बद्ध एवं अयोग्य कुछ भी बकने लग जाता है ।। १५८१ ॥ - मरणकण्डिका ४३५ अथवा वेदनाग्रस्त क्षपक व्याकुलता से या परीषहों की असह्य पीड़ा से स्व वश में नहीं रह अयोग्यमशनं पानं, रात्रि - भुक्तिं स कांक्षति । चारित्र - त्यजनाकांक्षी, जायते वेदनाकुलः ॥ १५८२ ।। अर्थ - वेदना से आकुलित होता हुआ क्षपक अयोग्य भोजन-पान की एवं रात्रि में भोजन करने की भावना से प्रेरित होता हुआ चारित्र को त्यागने की आकांक्षा करने लगता है ।। १५८२ ॥ तथेति मोहमापन्नः सारणीयो गणेशिना । सात कुलेश्वाणः प्रत्यागत-चेतनः ॥ १५८३ ॥ अर्थ - इस प्रकार मोह अर्थात् मूर्च्छा की विषम परिस्थिति से घिरे हुए क्षपक का मूर्च्छाभाव दूर करने के लिए निर्यापकाचार्य उचित सारणा करते हैं। अर्थात् जिस प्रकार क्षपक अपने व्रतादिकों का स्मरण कर सके तथा सावधान हो शुद्ध लेश्या में आ सके उसी प्रकार का प्रयत्न करते हैं ।। १५८३ ।। सारणा के उपाय कस्त्वं किं नाम ते कालः, साम्प्रतं कः क्व वर्तसे । कोऽहं किं मम नामेति, तं पृच्छति गणी यतिम् ।। १५८४ ।। अर्थ - आचार्य क्षपक को सावधान करने हेतु पूछते हैं कि तुम कौन हो ? तुम्हारा नाम क्या है ? अभी दिन है या रात्रि है? तुम कौन से देश में रह रहे हो ? बताओ मैं कौन हूँ और मेरा नाम क्या है ।। १५८४ ।। इत्थं क्षपकमापृच्छ्य, चित्तं जिज्ञासता सता । वत्सलत्वेन कर्तव्या, सारणा तस्य सूरिणा ।। १५८५ ।। - अर्थ - इस प्रकार निर्यापकाचार्य क्षपक से बार-बार पूछ कर यह परीक्षा करते हैं कि यह सचेत है अथवा बेसुध है। यदि क्षपक बेसुध है तो वात्सल्य भाव से अर्थात् धर्मस्नेह से प्रेरित हो वे आचार्य संयमरक्षणार्थ उसे सचेत करने का उपाय करते हैं || १५८५ ॥ मुह्यतः क्षपकस्येत्थं यः करोति न सारणम् । तेनासौ वर्जितो नूनं, जिनधर्म - इवोज्ज्वलः ।। १५८६ ।। अर्थ - यदि मोहित हुए उस क्षपक की सारणा नहीं करते हैं अर्थात् व्रतादि का स्मरण दिलाने का उपाय नहीं करते हैं तो समझना कि आचार्य ने नियमतः क्षपक का त्याग किया है और क्षपक का त्याग ही उज्ज्वल जिनधर्म का त्याग करना है ।। १५८६ ॥ प्रश्न - 'क्षपक का त्याग ही जिनधर्म का त्याग है" ऐसा क्यों कहा ? उत्तर "न धर्मो धार्मिकैः बिना" धर्म धर्मात्मा के बिना नहीं रह सकता । अर्थात् जैनधर्म रत्नत्रय स्वरूप है और रत्नत्रय धर्म साधुओं में ही रहता है, इसीलिए साधुको धर्मात्मा कहते हैं। इससे स्वयमेव यह सिद्ध हो जाता है कि धर्मात्मा क्षपक का त्याग ही जिनधर्म का त्याग है। Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ - इस प्रकार सारणा करने पर अर्थात् स्मरण दिलाने पर कोई-कोई क्षपक स्मृति को प्राप्त हो जाते हैं किन्तु तीव्र कर्मोदय से कोई-कोई क्षपक स्मृति को प्राप्त नहीं हो पाते अर्थात् सचेत नहीं हो पाते || १५८७ ॥ प्रश्न - सचेत एवं अचेत होने के अभ्यन्तर कारण क्या हैं और सचेत हो जाने वाला क्षपक क्या करता है? मरणकण्डिका ४३६ तस्येति सार्यमाणस्य कस्यचिज्जायते स्मृतिः । तीव्र - कर्मोदये नान्यः, स्मरणं प्रतिपद्यते ॥१५८७ ॥ उत्तर अभ्यन्तर में नोइन्द्रिय-मतिज्ञानावरण कर्मप्रकृति की उदीरणा हो जाने के कारण क्षपक स्मृति को प्राप्त नहीं हो पाते तथा जिनके इसकी उदीरणा नहीं होती और चारित्र मोह अथवा असातावेदनीय का भी उपशम हो जाता है वे सचेत होकर स्मृति को प्राप्त कर लेते हैं। - स्मृति आते ही वे विचार करते हैं कि अहो ! मैं व्याकुल होकर अपने चारित्र से च्युत हो रहा हूँ, अकाल में खाने-पीने की इच्छा करना मेरे लिए योग्य नहीं है। जिन वस्तुओं का मैं त्याग कर चुका हूँ उन्हें तो काल में भी ग्रहण करना योग्य नहीं है, तब अकाल में कैसे ? यह मुझसे महानतम अपराध हुआ है, इसका मैं पश्चाताप पूर्वक प्रायश्चित्त करता हूँ और इन परमोपकारी करुणानिधान गुरु की असीम कृपा से अपने चित्त को धर्म में स्थिर करता हूँ। इस प्रकार स्मृति को प्राप्त क्षपक स्वयं को पुनः धर्म में स्थिर कर लेता है। संतत - सारण-वारणकारी काम कषाय- हृषीक-निवारी । धर्मवतो विदधीत समाधिं, सर्वमपास्य गणी तरसाधिम् ।। १५८८ ॥ इति सारणं । अर्थ- काम, कषाय और इन्द्रियों का निवारण करने वाला वह धर्मात्मा आचार्य सतत ही क्षपक की सारणा वारणा करता है तथा उसकी पीड़ा को शीघ्रता से दूर करता हुआ समाधि कराता है || १५८८ ॥ इस प्रकार सारणा अधिकार पूर्ण हुआ ।। ३४ । ३५. कवच - अधिकार स्मृति न आने पर अथवा अयोग्य क्रिया करने पर आचार्य का कर्त्तव्य प्रतिकर्म विधातव्यं तस्य स्मृतिमगच्छतः । उपदेशोऽपि कर्त्तव्यः, स्मरणारोपण-क्षमः ।। १५८९ ।। अर्थ- स्मृति को प्राप्त न होने वाले क्षपक के प्रति भी निर्यापकाचार्य को निरन्तर प्रतिकार करते रहना चाहिए एवं स्मृति आ जाने पर उपदेश अवश्य देना चाहिए ।। १५८९ ॥ १. भगवती आराधना गाथा १५०३ की टीका । Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ४३७ परीषहातुरः कश्चिज्जानानोऽपि न बुध्यते। आर्तः पूत्कुरुते दीनो, मर्यादां च बिभित्सति ॥१५९० ॥ अर्थ - कोई क्षपक चेतना को प्राम करके भी कर्मोदय से परीषहों की वेदना से पीड़ित होकर अपने ग्राह्य चारित्र का बोध नहीं कर पाता है तथा दुखी होता है, या चिल्लाता है, दीन होता है, रोता है और अपनी व्रत प्रतिज्ञा को भंग करना चाहता है।।१५९० ॥ न बिभीष्य: स नो वाच्यो, वचनं कटुकादिकम् । न त्याज्य: सूरिणा तस्य, कर्तव्यासादना न च ॥१५९९ ।। अर्थ - इस प्रकार क्षपक की विपरीत चेष्टा देखकर भी आचार्य भय न दिखावें, कटुवचन न कहें, उसका तिरस्कार न करें और उसका त्याग न करें ||१५९१ ॥ कठोर व्यवहार से हानि विगधिन भवन्मानो अन्ननैः कनकादिभिः । जिघृक्षत्यसमाधानं, प्रत्याख्यानं जिहासति ।।१५९२ ॥ अर्थ - क्योंकि कटुक वचनादि से विराधित होने वाला क्षपक भड़क कर अशान्ति या आर्तध्यान कर सकता है और अपने द्वारा ग्राहय संयमादि को छोड़ने की भी इच्छा कर सकता है।।१५९२ ।। निर्यापकेन मर्यादां, तस्य मनु मुमुक्षतः। कर्तव्यः कवचो गाढः, परीषह-निवारणः॥१५९३॥ ___ अर्थ - यदि क्षपक अपनी प्रतिज्ञारूपी मर्यादा को तोड़ने का इच्छुक है तो निर्यापकाचार्य का कर्तव्य है कि उसकी रक्षा के लिए वात्सल्य पूर्वक ऐसा गाढ़ कवच करें जो परीषहों का निवारण कर सके ।।१५९३ ।। गम्भीरं मधुरं स्निग्धमादेयं हृदयङ्गमम् । सूरिणा शिक्षणीयोऽसौ, प्रज्ञापन-पटीयसा ॥१५९४ ।। __ अर्थ - समझाने की कला में निपुण आचार्य को गम्भीर, मधुर, स्निग्ध एवं हृदय में प्रवेश कर जाने वाली शिक्षा द्वारा उसे धीरे-धीरे समझा कर विश्वास में लेना चाहिए ।।१५९४ ॥ सन्तोष-बलतस्तीवास्ता रोगान्तक-वेदनाः। अकारतो जयामूढो, वृत्त-विघ्नं च सर्वथा ॥१५९५ ।। अर्थ - हे क्षपक ! तुम कायरता एवं मूढ़ता को छोड़ो, सावधान होओ और चारित्र में विघ्न डालने के लिए आई हुई इन छोटी-बड़ी व्याधियों को तथा तीव्र वेदना को सन्तोष बल से सर्वथा नष्ट कर दो॥१५९५ ।। प्रश्न - चारित्र में विघ्न डालने वाले कौन हैं ? उत्तर - राग और द्वेष के त्याग का नाम चारित्र है। अतः आचार्यदेव क्षपक को समझाते हैं कि तुम व्याधियों के प्रतिकारक उपायों में एवं उपाय करने वालों में राग मत करो और व्याधियों से एवं उनके द्वारा उत्पन्न वेदनाओं से द्वेष मत करो, क्योंकि ये राग-द्वेष ही चारित्र रूपी सम्पत्ति को लूटने वाले हैं। Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ४३८ त्वं पराजित्य निःशेषानुपसर्ग-परीषहान् । समाधानपरो भद्र !, मृत्यावाराधको भव ॥१५९६ ।। अर्थ - हे भद्र ! तुम समस्त परीषहों और उपसर्गों को जीतो और सावधानी पूर्वक मरणकाल में इन चतुर्विध आराधनाओं की आराधना में उद्यम करो ।।१५९६॥ प्रश्न - उपसर्गों एवं परीषों को कैसे जीतना चाहिए ? उत्तर - मन, बचन एवं काय के अशुभ या विपरीत परिणमन पर नियन्त्रण करना ही उपसर्ग एवं परीषहों का जीतना है। यथा-यह साधु डरपोक है, या क्षीणकाय है या आराधनारत है अत: दया करके भूख-प्यासादि की वेदनाएँ उसे दुख नहीं देंगी ? ऐसी बात नहीं है, कारण कि द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भावादि सहकारी कारणों की उपस्थिति में असातावेदनीय कर्म उदय में आता ही है, उसकी शक्ति को रोकना अशक्य है, अत: वह कष्ट देता ही है, तब मैं उसे धैर्यरूपी शक्ति से जीतूंगा, कायरता नहीं आने दूंगा, मैं वीर की सन्तान हूँ अत: वीरता के कार्य ही करूँगा, ऐसी भावनाएँ उत्पन्न होना मन से जीतना कहलाता है। अयोग्य वचन नहीं बोलना और उदार या हितकारी वचन ही बोलना, इन दो प्रकारों से परीषहों आदि पर विजय प्राप्त करना । यथा - मैं अत्यन्त थक गया हूँ, ये भूख-प्यास के दुख अति दुःसह हैं, मेरी इस अतिकष्टकर और दु:सह वेदना युक्त अवस्था को देखो, मेरे शरीर में आग लगी है, मैं इन असह्य पीड़ाओं द्वारा पीटा जा रहा हूँ. इत्यादि दीनता प्रकट करने वाले अयोग्य वचन मख से नहीं बोलना। यह वचन से परीषहजय है। अथवा-मैंने पूर्व में नरकादि गतियों को प्राप्त कर इन भूख-प्यासादि की असह्य वेदनाओं को अनन्त बार सहन किया है, मैंने अनन्त बार घोर उपसर्गों का भी अनुभव किया है, जोर-जोर चिल्लाने पर या रोने पर या हाय-हाय करने पर भी ये दुख मुझे छोड़ेंगे तो नहीं ? एकत्र जनसमुदाय भी मेरे दुखों का बँटवारा नहीं करेगा? अपितु मेरी निन्दा ही करेगा कि देखो ! यह क्षपक अति कायर है, धैर्यगुण से रहित है, दीन है, बार-बार रोता और चिल्लाता है। मैं धीर-वीर हूँ, ये तो क्या, इससे भी भयंकर उपसर्गादि मुझे मेरे चारित्र से भ्रष्ट करने में समर्थ नहीं हैं, मेरी आत्मा इनके आधीन नहीं है, इत्यादि उदार, उत्साहवर्धक एवं धैर्ययुक्त योग्य वचन बोलना वचन से परीषह एवं उपसर्ग जय है। भूख-प्यासादि की असह्य वेदना होने पर भी मुख पर दीनता न दिखाना, आँखों से कायरता प्रकट न होने देना, मुखादि की विपरीत चेष्टा न करना, हाथ-पैर न पटकना, छटपटाहट या तड़फन व्यक्त न होने देना, शरीर को निश्चल रखना, मुख पर प्रसन्नता और हृदय का आह्लादित होना ये शरीर से परीषह और उपसर्ग जय हैं। इस प्रकार इन उपसगौ एवं परीषहों पर विजय प्राप्त कर आराधनाओं की आराधना में सम्यक प्रकार रहने पर ही रत्नत्रय की सिद्धि होती है। उपसर्गों एवं परीषहों से जिसका चित्त व्याकुल रहता है वह कदापि आराधक नहीं हो सकता। अहमाराधयिष्यामि, प्रतिज्ञा या त्वया कृता। मध्ये सधस्य सर्वस्य, तां स्मरस्यधुना न किम् ॥१५९७ ।। अर्थ - अहो क्षफ्क! तुमने चतुर्विध संघ के मध्य जो महती प्रतिज्ञा की थी कि “मैं सम्यगाराधना करूँगा" क्या आज तुम्हें वह प्रतिज्ञा स्मरण नहीं है ? क्या तुम उसे भूल गये हो ?॥१५९७ ।। Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ४३९ जन-मध्ये भुजास्फालं, विधाय बल-गर्षितः। कः कुलीनो रणे मानी, शत्रु-त्रस्तः पलायते ॥१५९८॥ अर्थ - जन समुदाय के बीच अपनी भुजाओं को ठोक-ठोक कर युद्ध में शत्रुओं को हराने की घोषणा करने वाला कुलीन एवं स्वाभिमानी कौन ऐसा योद्धा है जो सामने आये हुए शत्रु से डर कर भाग जायगा ?॥१५९८॥ कः कृत्वा स्व-स्तव, मानी, सङ्च मध्ये तपोधनः । परीषह-रिपु-त्रस्तः, क्लिश्यत्यापात-मात्रतः ॥१५९९ ॥ अर्थ - ऐसा कौन स्वाभिमानी तपोधन है जो चतुर्विध संघ के मध्य अपनी सम्यक् समाधि की प्रशंसा करके आपत्तियों की प्रतिकूलता में मात्र परीषहरूपी शत्रुओं से त्रस्त हो क्लेशित होगा? अपितु नहीं होगा ॥१५९९ ।। प्रविशन्ति रणं पूर्व, शत्रु-मर्दन-लालसाः। यच्छन्ति नासु-नाशेऽपि, शत्रूणां प्रसरं पुनः॥१६००॥ मानिनो योगिनो धीराः, परीषह-निषूदिनः । सहन्ते वेदना घोराः, प्रपद्यन्ते न विक्रियाम् ॥१६०१॥ अर्थ - जैसे शत्रुओं को पराजित करने की इच्छा से जो शूरवीर योद्धा रण में प्रविष्ट होते हैं वे प्राण नष्ट होने पर भी शत्रुओं के आधीन नहीं होते हैं। वैसे ही स्वाभिमानी योगी धीर-वीर मुनिजन परीषहों को सहन करने वाले होते हैं वे कभी भी कातरता, दीनता एवं तीव्र वेदना की क्लेशता रूप विकारभाव को प्राप्त नहीं होते हैं ।।१६००-१६०१॥ रणारम्भे वरं मृत्युर्भुजा-स्फालन-कारिणः । यावज्जीवं कुलीनस्य, न पुनर्जन-जल्पनम् ॥१६०२।। संयतस्य वरं मृत्युर्मानिनोंऽसक-ताडिनः । न दीनत्य-विषण्णत्वे, परीषह-रिपूदये ।।१६०३ ॥ अर्थ - जैसे जनसमूह में भुजा-स्फालन द्वारा युद्ध की प्रतिज्ञा करने वाले कुलीन योद्धा का रणांगण में मरण हो जाना श्रेष्ठ है, किन्तु जीवन-पर्यन्त यह जनापवाद श्रेष्ठ नहीं कि "यह युद्धभूमि से भाग कर आया था" | वैसे ही संघ के मध्य समाधि की प्रतिज्ञा करने वाले स्वाभिमानी संयत का मरण हो जाना श्रेष्ठ है, किन्तु परीषहरूपी शत्रु के आने पर दीनपने और विषादपने का प्रदर्शन करना श्रेष्ठ नहीं है।।१६०२-१६०३ ॥ प्रश्न - संयत का मरण हो जाना श्रेष्ठ क्यों कहा है ? उत्तर - यहाँ अभिप्राय यह है कि चारित्र या सल्लेखनाव्रत या रत्नत्रय की ग्रहण की हुई प्रतिज्ञा पर अटल होकर रागद्वेष रहित अवस्था का मरण श्रेष्ठ है किन्तु रत्नत्रय से च्युत होना, प्रतिज्ञा भंग करना, चित्त में व्याकुलता होना, भयभीत होना एवं "मैं अब प्रतिज्ञा-पालन में असमर्थ हूँ" ऐसे दीन वचन बोलकर निन्दा के या हास्य के पात्र बनना श्रेष्ठ नहीं है। Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका-४४० वरं मृत्युः कुलीनस्य, पुत्र-पौत्रादि-सन्ततेः । न युद्धे नश्यतोऽरिभ्यः, कर्तुं स्व-कुल-लाञ्छनम् ॥१६०४।। मा कार्षी-र्जीवितार्थ त्वं, दैन्यं स्व-कुल-लाञ्छनम् । कुलस्य स्वस्य सधस्य, मा गास्त्वं वेदनावशम् ॥१६०५॥ अर्थ - जैसे कुलीन योद्धा की मृत्यु हो जाना श्रेष्ठ है किन्तु मात्र एक अपने जीवन के लिए युद्ध-भूमि से भाग कर अपने पुत्र-पौत्रादि के लिए अपवाद का कारण बनना एवं अपने कुल को लांछन लगाना श्रेष्ठ नहीं है। वैसे ही हे क्षपक ! तुम मात्र अपने जीवन के लिए दीनता प्रदर्शित करके अपने कुल को लांछित मत करो। वेदना के वशीभूत होकर तुम अपने आचार्य को एवं चतुर्विध संघ को लोकापवाद का पात्र मत बनाओ ॥१६०४१६०५॥ नियन्ते समरे वीराः, प्रहाराकुलिता अपि । कुर्वन्ति भृकुटी-भङ्गं, न पुनरिणां पुरः ।।१६०६ ॥ कातरत्वं न कुर्वन्ति, परिषह-करालिताः। किं पुनर्दीनतादीनि, करिष्यन्ति महाधियः ।।१६०७ ।। अर्थ - जैसे शाशा से पीड़ित हुए भ जी सोसायुद्ध में ना जाने हो किन्तु शत्रुओं के सामने अपनी भृकुटि भंग नहीं करते अर्थात् कायरता नहीं दिखाते और शत्रुओं को पीठ दिखा कर भागते नहीं हैं; वैसे ही महाबुद्धिशाली मुनि परीषहों से आक्रान्त हो जाने पर भी भयभीत नहीं होते। और जो परीषहों से भयभीत ही नहीं होते वे क्या दीनता या मुख-विवर्णता या विषाद आदि करेंगे ? अपितु नहीं ही करेंगे॥१६०६-१६०७॥ अग्नि-मध्य-गताः केचिद्दह्यमानाः समन्ततः । अवेदना वितिष्ठन्ते, जल-मध्ये गता इव ।।१६०८॥ अर्थ - कितने ही वीर-धीर पुरुष अग्नि के मध्य चारों ओर से आग में जलते हुए भी जल के मध्य प्रविष्ट हुए पुरुष के सदृश शान्त भाव से बैठे रहते हैं।।१६०८ ।। साधुकारं परे तन्त्र, कुर्वन्त्यमुलि-नर्तनैः। आनन्दित-जन-स्वान्ता, उत्कृष्टिं कुर्वते परे॥१६०९॥ ____ अर्थ - अन्य कोई धीर-वीर पुरुष अग्नि के मध्य जलते हुए भी अपने अंगुलि-संचालन द्वारा साधुकार करते हैं और कोई वीर पुरुष विशिष्ट शब्दों द्वारा हृदयंगत आनन्द प्रगट करते हैं ॥१६०९।। प्रश्न - साधुकार का क्या भाव है ? उत्तर - "कितना अच्छा हुआ कि आज इस अग्नि के निमित्त से मेरा पूर्वबद्ध अशुभ कर्म क्षय को प्राप्त हुआ" ऐसा अभिप्राय अंगुलि-संचालन द्वारा प्रकट करना साधुकार है। अथवा कोई हृदयंगत उछलते हुए आनन्द को विशिष्ट शब्दों द्वारा प्रगट करते हुए आगत उपसर्ग को सहन कर लेते हैं। Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ४४१ वेदनायामसयायां, कुर्वन्त्यज्ञानिनो धृतिम् । लेश्यया भव-वर्धिन्या, सुखास्वादपरा यदि ॥१६१०॥ तदा धृतिं न कुर्वन्ति, किं भवच्छेदनोद्यताः । ज्ञात "संसार-न:सायां, बेदनायां तपोधनाः ।।१६११ ।। अर्थ - यदि संसार को वृद्धिंगत करने वाली अशुभ लेश्या से युक्त अनेक अज्ञानी मनुष्य सांसारिक या इन्द्रियजन्य सुख-स्वाद की लालसा से तीव्र वेदना भी धैर्यपूर्वक सहम कर लेते हैं, तब जो तपोधन क्षपक संसार की नि:सारता को भली प्रकार जानते हैं और संसार का उच्छेद करने में उद्यतशील हैं, वे तपोधन मुनिराज क्या वेदना के आने पर धैर्य धारण नहीं करेंगे ? अवश्य ही धैर्य धारण करेंगे ॥१६१०-१६११॥ दुर्भिक्षे मरके कक्ष-भये रोगे दुरुत्तरे। मानं क्वापि विमुञ्चन्ति-कुलीना जातु नापदि ।।१६१२ ।। अर्थ - दुर्भिक्ष में, मरी आदि रोग में, भयानक वन में, अत्यन्त प्रगाढ़ रोग में और अनेक आपत्तियों में भी कुलीन पुरुष कभी अपना स्वाभिमान नहीं छोड़ते हैं ।।१६१२॥ . सेवन्ते मद्य-गोमांस-पलावादि न मानिनः । कर्मान्यदपि कृच्छ्रेऽपि, लज्जनीयं न कुर्वते ॥१६१३॥ अर्थ - कुल का स्वाभिमान रखने वाले सामान्य गृहस्थजन प्रतिकूल परिस्थिति उपस्थित हो जाने पर भी शराब नहीं पीते, गोमांस एवं लहसुन-प्याज आदि नहीं खाते तथा अन्य भी निन्दनीय कन्दादि का सेवन नहीं करते। इसी प्रकार अन्य भी कोई लज्जास्पद कार्य नहीं करते ॥१६१३ ।। कुल-सङ्घ-यशस्कामाः, किं कर्म-जगदर्चिताः। मानं विमुच्य कुर्वन्ति, लज्जनीयं तपोधनाः ॥१६१४॥ अर्थ - जन सामान्य गृहस्थों की यह बात है तब फिर जो कुल, गण एवं संघ के यश की कामना करने वाले हैं और जगत् पूज्य हैं वे साधु अपना स्वाभिमान त्याग कर लज्जाजनक पद के विपरीत कार्य करेंगे क्या? अर्थात् नहीं करेंगे॥१६१४ ।। । लघ्वी विपत्तिमुर्वी, वा यः प्रयातो विषीदति । नरा वदन्ति तं षण्ढं, धीरा: पुरुष-कातरम् ॥१६१५॥ अर्थ - जो छोटी-बड़ी विपत्ति आने पर खेद-खिन्न होता है, धीर-वीर पुरुष उस कायर को नपुंसक कहते हैं ।।१६१५॥ समुद्रा इव गम्भीरा, नि:कम्पाः पर्वता इव । विपद्यपि महिष्ठायां, न क्षुभ्यन्ति महाधियः ॥१६१६ ॥ अर्थ - महाबुद्धिमान् सज्जन पुरुष महती विपत्ति आ जाने पर भी कभी क्षुब्ध नहीं होते, वे समुद्र सदृश गम्भीर एवं सुमेरु सदृश अकम्प रहते हैं।१६१६ ।। Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका -४४२ स्वारोपित-भराः केचिनिःसङ्गा निःप्रतिक्रियाः। गिरि-प्राग्भारमापन्नाश्चित्र-श्वापद-सङ्कटम् ॥१६१७॥ अर्थ - कितने ही महापुरुष समस्त परिग्रह का त्याग कर और अपने आत्मा को आत्मा में ही आरोपित कर, आगत विपत्तियों के प्रतिकार से रहित हो, हिंस्रश्वापद आदि पशुओं से भरे हुए पर्वतों की गुफाओं में जाकर रत्नत्रय की सिद्धि करते हैं।।१६१७ ।। । राधान्त-सचिवा: सारा, सन्तुष्टाः गुला-मुत्तमः । साधयन्ति स्थिताः स्वार्थं, व्याल-दन्तान्तरेष्वपि ॥१६१८ ।। अर्थ - जो सिद्धान्तग्रन्थों में कुशल हैं अर्थात् श्रुत के पारगामी हैं, संतोष-भाक्युक्त हैं एवं अत्यन्त शुद्ध चारित्रधारी हैं, ऐसे सन्त पुरुष क्रूर सिंहादि पशुओं की दाढ़ों के मध्य जाकर भी उत्तमार्थ रत्नत्रय-रूप अपने स्वार्थ को सिद्ध कर लेते हैं ॥१६१८ ॥ धीरोऽवन्तिकुमारोऽगात्रिरात्रं शुद्ध-मानसः। शृगाल्या खाद्यमानोऽपि, देवीमाराधनां प्रति ।।१६१९ ॥ अर्थ - अहो क्षपक ! देखो ! अत्यन्त धीर एवं शुद्धमानस अर्थात् शुद्धचारित्र के धारी अवन्ति सुकुमार महामुनि तीन रात्रि पर्यन्त शृगाली द्वारा खाये जाने पर भी आराधना देवी अर्थात् रत्नत्रय की आराधना को प्राप्त हुए॥१६१९ ॥ * सुकुमाल मुनिकी कथा * अवन्ति देश के उज्जैन नगरमें रहने वाले सुरेन्द्रदत्त सेठ और यशोभद्रा सेठानी के एक सुकुमाल नामका पुत्र था, जो इतना सुकुमार था कि उसको आसन पर पड़े हुए राई के दाने भी चुभते थे। दीपक की लौ भी वे देख नहीं सकते थे और अतुल वैभव के बीच स्वर्गापम भोगोंको भोगते हुए सुखपूर्वक अपना जीवन यापन कर रहे थे। एक दिन आपके मामा यशोभद्र मुनिराज त्रिलोकप्रज्ञप्ति का पाठ कर रहे थे, उसे सुनकर इन्हें जातिस्मरण हो गया। उसी समय महल से निकलकर मुनिराज के पास जाकर दीक्षित हो गये। अपनी आयु मात्र तीन दिन की जानकर सुकुमाल मुनि जंगलमें चले गये और वहाँ प्रायोपगमन संन्यास लेकर आत्मध्यानमें लीन हो गये। उसी समय पूर्व-भवके वैर संस्कारके वशीभूत होती हुई एक स्यालनी बच्चों सहित आई और उनके शरीरको खाना शुरू कर दिया तथा तीन दिन तक निरन्तर खाती रही। इस भयंकर उपसर्गके आ जाने पर भी सुकुमाल मुनि सुमेरु सदृश निश्चल रहे और अपनी चारों आराधनाओं के अवलम्बन से समतापूर्वक शरीर त्याग कर अच्युत-स्वर्ग में महर्धिक देव हुए। शिश्रायाराधनां देवीं, मुद्गलाद्रौ सुकोशलः। भक्ष्यमाणो मुनिर्व्याघ्रया, सैद्धार्थिरविषण्णा-धीः ॥१६२०॥ अर्थ - मुद्गल नामक पर्वत पर सिद्धार्थ राजा के पुत्र निर्मल बुद्धिधारी सुकौशल महामुनि (पूर्व जन्म की माता) व्याघ्री द्वारा खाये जाने पर भी आराधनादेवी को अर्थात् उत्तमार्थ को प्राप्त हुए ।।१६२०॥ Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ४४३ * सुकौशल मुनिकी कथा * अयोध्या नगरीमें प्रजापाल राजा राज्य करते थे। उसी नगरमें सिद्धार्थ नामके सेठ अपनी सहदेवी आदि ३२ स्त्रियोंके साथ सुखसे रहते थे। बहुत समय व्यतीत हो जाने के बाद उनके सुकौशल नामका पुत्र हुआ, जिसका मुख देखते ही सिद्धार्थ सेठ मुनि हो गये। सुकौशलकुमार का भी ३२ कन्याओंसे विवाह हुआ, उनके साथ वे महाविभूतिका उपभोग करते हुए सुखसे जीवन यापन करने लगे। एक समय विहार करते हुए सिद्धार्थ मुनि भिक्षार्थ अयोध्या आये। “इन्हें देखकर मेरा पुत्र मुनि हो जायेगा" इस भयसे सेठानी ने उन्हें नगरसे बाहर निकलवा दिया। “जो एक दिन इस नगरंके स्वामी थे, उन्हींका आज इतना अनादर किया जा रहा है" यह सोचकर सुकौशलकी धायको बहुत दुःख हुआ और वह रोने लगी। सुकौशलने उसके रोनेका कारण पूछा। धायसे (अपने पिता) मुनिराजके अपमानकी बात सुनकर उन्हें दुःख हुआ और उसी समय उन्हीं मुनिराजके पास जाकर दीक्षा ग्रहण कर ली। दीक्षा की बात सुनते ही सुकौशल की माँ अत्यन्त दुःखी हुई और पुत्रवियोगजन्य आर्तध्यानसे मरकर मगध देशके मौगिल नामक पर्वतपर व्याघ्री हुई। सिद्धार्थ और सुकौशल मुनिराज ने उसी पर्वत पर योग धारण किया था। योग समाप्त होनेपर भिक्षाके लिए पर्वतसे उतरते हुए युगल मुनिराजोंको व्याघ्रीने देखा और झपट कर अपने ही पुत्र सुकौशल मुनिको खाने लगी। मुनिराजने उपसर्ग प्राप्त होनेपर समाधि द्वारा प्राण त्यागे और साथींसद्धिर्भ गये। धरण्यामा-चर्मेव, किल-कीलित-विग्रहः । प्रापद्-गजकुमारोऽपि, स्वार्थ निर्मल-मानसः॥१६२१।। अर्थ - पृथ्वी के साथ गीले चमड़े के सदृश शरीर में कीलें ठोक कर एकमेक कर देने पर भी निर्मल परिणाम वाले महामुनि गजकुमार उत्तमार्थ को प्राम हुए। अर्थात् अन्तःकृत केवली हुए ॥१६२१ ।। * गजकुमार मुनि की कथा * श्रीकृष्ण नारायणके सुपुत्र गजकुमार अति सुकुमार थे। वे अपने पिता आदि के साथ धर्मोपदेश सुननेके लिए भगवान नेमिनाथके समोशरणमें जा रहे थे। मार्गमें एक ब्राह्मण की नव-यौवना, सर्वगुणसम्पन्ना, सुलक्षणा और सौन्दर्यमूर्ति पुत्रीको देखकर श्रीकृष्ण ने उसे उसके पितासे गजकुमारके लिए मंगनी कर ली और उसे अन्तःपुरमें भिजवा दिया। भगवान का उपदेश सुनकर श्रीकृष्ण तो सपरिवार द्वारका लौट आये परन्तु गजकुमार नहीं लौटे और जैनेश्वरी दीक्षा धारण करके किसी एकान्त स्थानमें ध्यानारूढ़ हो गये। जिस लड़की का संबंध गजकुमार से हुआ था उसका पिता जंगलसे काष्ठ-भार लेकर लौट रहा था, उसकी दृष्टि जैसे ही गजकुमार पर पड़ी, वह आगबबूला हो उठा और बोला - "अरे दुष्ट ! मेरी अत्यन्त प्रिय सुकुमारी पुत्रीको विधवा बनाकर तू साधु बन गया है, मैं देखता हूँ तेरी साधुता को।" ऐसा कहकर उस दुष्ट ने मुनिराज के शरीरमें कीलें ठीक दी। उस घोर वेदना को सहनकर गजकुमार महामुनि अंतकृत केवली हुए। कास-शोषाधिश्च्छर्दि-कच्छु-प्रभृति-वेदनाः। सोदाः सनत्कुमारण, यतिना शरदां शतम् ॥१६२२ ॥ Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ४४४ अर्थ- सनत्कुमार मुनि ने सौ वर्षों तक कास, शोष, अरुचि, वमन एवं खुजली आदि की वेदनाएँ धैर्यपूर्वक सहन की थीं ॥ १६२२ ॥ * सनत्कुमार मुनि की कथा भारतवर्षके अन्तर्गत वीतशोक नगरमें राजा अनन्तवीर्य रानी सीताके साथ कालयापन करते थे। उनके सनत्कुमार नामका अत्यन्त रूपवान् पुत्र उत्पन्न हुआ जो महापुण्योदयसे चक्रवर्ती की विभूति को प्राप्तकर नवनिधि और १४ रत्नों का स्वामी हुआ । एक दिन सौधर्म स्वर्ग का इन्द्र अपनी सभा में उनके रूप की प्रशंसा कर रहा था, जिसे सुनकर मणिमाल और रत्नचूल नामके दो देव गुप्त भेषमें आये और स्नान करते हुए चक्रवर्ती का त्रिभुवनप्रिय सर्व सुन्दर रूप देखकर आश्चर्यान्वित हुए। इसके बाद उन देवोंने अपने असली वेषमें आकर वस्त्रालंकारोंसे अलंकृत, सिंहासन पर स्थित चक्रवर्तीके रूपको देखा और खेदित हो उठे । राजाने इसका कारण पूछा, तब देव बोले- महाराज ! यथार्थमें आपका रूप देवोंको भी दुर्लभ है, इसकी तो हमें प्रसन्नता है किन्तु मनुष्य का रूप क्षणक्षयी है यह देखकर हमें खेद हुआ। जो रूप कुछ समय पहले स्नानगृहमें देखा था, वह अब दिखाई नहीं देता। यह बात सभासदोंकी समझमें नहीं आई, तब देवोंने एक पानीसे भरा हुआ घड़ा मंगाया और उसमें से एक बूंद जल निकालकर सभासदोंसे पूछा कि बताओ पहलेसे इस घड़े में कुछ विशेषता दिखाई दी क्या ? यह सब चमत्कार देखकर चक्रवर्तीको वैराग्य हो गया और वे जैनेश्वरी दीक्षा धारण करके तपश्चरणमें संलग्न हो गये । पूर्व पापोदयसे उनके सारे शरीरमें भयंकर कुष्ठ रोग उत्पन्न हो गया। एक देव उनके धैर्यकी परीक्षा लेनेके लिए वैद्यका वेष धारण करके आया और उपचार करानेका आग्रह करने लगा। तब मुनिराज बोले- भो वैद्य ! मुझे जन्म-मरण का भयंकर रोग दुःख दे रहा है, यदि आप इस रोगकी चिकित्सा कर सकते हो तो करो। महाराज की बात सुनकर वैद्य अत्यन्त लज्जित हुआ और चरणोंमें गिरकर बोला- स्वामिन् ! इस रोग की रामबाण औषधि तो आपके पास ही है। इसप्रकार देव मुनिराजके निर्दोष चारित्र की और शरीरमें निर्मोहपने की प्रशंसा करता हुआ स्वर्ग चला गया और सनत्कुमार मुनिराजने अपने धैर्यसे उस परीषह पर विजय प्राप्त की और अष्ट कर्मोंको नष्टकर मोक्षलक्ष्मीके स्वामी बने । गङ्गायां नावि मग्नायां, एणिका तनयो यतिः । अमूढ-मानसः स्वार्थं, साधयामास शाश्वतम् ॥ १६२३ ।। अर्थ- गंगा नदी के मध्य नाव डूबने पर एणिका के पुत्र पणिक मुनिराज निर्मोही होकर आराधनाओं को साधते हुए शाश्वत धाम अर्थात् मोक्ष पधारे ॥ १६२३ ।। * एणिका पुत्र पणिक मुनि की कथा पणीश्वर नामक नगरमें राजा प्रजापाल राज्य करते थे। वहाँ एक सागरदत्त सेठ अपनी एणिका नामकी स्त्रीके साथ आनन्दसे रह रहा था। उन दोनोंके एक पणिक नाम का पुत्र था, जो सरल, शान्त और पवित्र हृदय का था। एक दिन पणिक भगवान के समवसरणमें गया। वहाँ उसने गंधकुटीमें स्थित वर्द्धमान स्वामी का दिव्य स्वरूप देखा, जिससे उसका रोम-रोम पुलकित हो उठा। भगवान की स्तुति और पूजन आदि कर चुकने के बाद पणिकने धर्मोपदेश सुना और अपनी आयुके विषयमें प्रश्न भी किया तथा अल्प आयु जानकर वह वहीं दीक्षित Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ४४५ हो गया। दीक्षा लेकर पणिक मुनिराज अनेक देशोंमें विहार करते हुए गंगापार करनेके लिए एक नावमें बैठे। मल्लाह सुचारु-रीत्या नाव खे रहा था कि अचानक भयंकर आँधी आई, नाव डगमगाने लगी, उसमें पानी भर गया, फलस्वरूप नाव डूबने ही वाली थी कि पणिक मुनिराज विशेष आत्म-विशुद्धि के साथ शुक्लध्यान में लीन हो गये और केवलज्ञान की प्राप्तिके साथ ही उन्होंने मोक्ष प्राप्त कर लिया। अवमोदर्य-मन्त्रेण, भद्रबाहुमहामनाः। बुभुक्षा-राक्षसी जित्वा, स्वीचकारार्थमुत्तमम् ॥१६२४॥ __ अर्थ - भद्रबाहु नामक महामुनिराज ने अवमोदर्यतप रूप मन्त्र द्वारा क्षुधारूपी राक्षसी को जीतकर उत्तम रत्नत्रय रूप महाअर्थ को प्रास किया ॥१६२४ ।। मासोपवास-सम्पन्नश्चम्पायां तृड्-ज्वरादितः । धर्मघोषो मुनिः प्राप्तः, स्वार्थ गङ्गानदी-तटे॥१६२५ ॥ अर्थ - चम्पानगरी में गंगानदी के तट पर एक मास के उपवास करने वाले धर्मघोष नामक महामुनि तीव्र प्यास से पीड़ित होकर आराधनाओं की आर.' : को हुए मोदा धाः ।।१६१५ । * धर्मघोष मुनिकी कथा * धर्ममूर्ति परम तपस्वी धर्मघोष मुनिराज एक माहके उपवास करके चम्पापुरी नगरमें पारणाके अर्थ गये थे। पारणा करके तपोवन की ओर लौटते हुए रास्ता भूल गये जिससे चलनेमें अधिक परिश्रम हुआ और उन्हें तृषा वेदना उत्पन्न हो गई। वे गंगा किनारे आकर एक छायादार वृक्षके नीचे बैठ गये। उन्हें प्याससे व्याकुल देख गंगादेवी पवित्र जलसे भरा हुआ लोटा लाकर बोली-“योगिराज ! मैं ठण्डा जल लाई हूँ, आप इसे पीकर अपनी प्यास शांत कीजिए।" मुनिराज ने जल तो ग्रहण नहीं किया और प्राण हरण करने वाली तृषा वेदनाके मात्र ज्ञाता द्रष्टा बनते हुए ध्यानारूढ़ हो गये। यह देखकर देवी चकित हुई और विदेह क्षेत्र जाकर उसने समवसरणमें प्रश्न किया कि जब मुनिराज प्यासे हैं तो जल ग्रहण क्यों नहीं करते ? वहाँ गणधर-देवने उत्तर दिया कि दिगम्बर साधु न तो असमय भोजन-पान ग्रहण करते हैं और न देवों द्वारा दिया गया आहार आदि ही ग्रहण करते हैं। यह सुनकर देवी बहुत प्रभावित हुई और उसने मुनिराजको शांति प्राप्त कराने हेतु उनके चारों ओर सुगन्धित और ठण्डे जलकी वर्षा प्रारम्भ कर दी। यहाँ मुनिराज ने आत्मोत्थ अनुपम सुखके रसास्वाद द्वारा कर्मोत्पत्र तृषा वेदना पर विजय प्राप्त की और चार घातिया कर्मोका नाश करके केवलज्ञान प्राप्त किया। पूर्व-काराति-देवेन, कृतैः शीतोष्ण-मारुतैः। श्रीदत्तः पीड्यमानोऽपि, जग्राहाराधनां सुधीः ॥१६२६ ॥ अर्थ - पूर्व भव के वैरी देव द्वारा विक्रिया पूर्वक किये गये शीत एवं उष्ण वायु से पीड़ित होते हुए भी बुद्धिमान श्रीदत्त नामक महामुनिराज ने सम्यक्त्वादि चारों आराधनाएँ ग्रहण की थीं ॥१६२६ ।। Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ४४६ * श्रीदत्तमुनिकी कथा * __ इलावर्धन नगरीके राजाका नाम जितशत्रु था। उनकी इला नामकी रानी थी जिससे श्रीदत्त नामक पुत्रने जन्म लिया। श्रीदत्तकुमार का विवाह अयोध्याके राजा अंशुमान की पुत्री अंशुमतीसे हुआ था। अंशुमतीने एक तोता पाल रखा था। चौपड़ आदि खेलते हुए जब राजा विजयी होता तब तो तोता एक रेखा खींचता और जब रानी जीतती थी तब वह तोता चालाकी से दो रेखाएं खींच देता था। उसकी यह शरारत दो-चार बार तो राजाने सहन करली आखिर उसे गुस्सा आ गया और उसने तोतेकी गरदन मरोड़ दी। तोता मरकर व्यन्तर देव हुआ | श्रीदत्त राजाको एक दिन बादलकी टुकड़ी को छिन्न-भिन्न होते देखकर वैराग्य हो गया और उन्होंने संसारपरिभ्रमणका अन्त करने वाली जैनेश्वरी दीक्षा धारण करली। अनेक प्रकारके कठोर तपश्चरण करते हुए और अनेक देशोंमें विहार करते हुए श्रीदत्त मुनिराज इलावर्धन नगरी आये और नगरके बाहर कायोत्सर्ग ध्यानसे खड़े हो गये । ठण्ड कड़ाके की पड़ रही थी। उसी समय शुकचर व्यन्तर देवने पूर्व वैरके कारण मुनिराज पर घोर उपसर्ग प्रारम्भ कर दिया। वैसे ही ठण्डका समय था और उस देवने शरीरको छिन्न-भिन्न कर देनेवाली खुब ठण्डी हवा चलाई, पानी बरसाया तथा खूब ओले गिराये । पर मुनिराजने अपने धैर्यरूपी गर्भगृहमें बैठकर तथा समता रूपी कपाट बन्द करके संयमादि गुणरत्नोंको उस जलके प्रवाहमें नहीं बहने दिया, उसके फलस्वरूप वे उसी समय केवलज्ञानको प्राप्त करते हुए मोक्ष पधारे। मारुतं गृष्मकं तापं, वह्नि-तप्तं शिला-तलम् । सोढ्वा वृषभसमोऽपि, स्वार्थ प्रापयामः ।।९६९७ .. अर्थ - अति उष्ण वायु, अत्यन्त गर्म आताप और अग्नि से तप्तायमान शिलातल की उष्ण बाधाओं को सहन करके अनाकुलभाव से आराधनाओं की आराधना करते हुए वृषभसेन महामुनिराज उत्तमार्थ अर्थात् मोक्षपुरी को प्राप्त हुए ।।१६२७ ।। * वृषभसेन मुनिकी कथा * उज्जैनके राजा प्रद्योत एक दिन हाथी पर बैठकर हाथी पकड़नेके लिये जंगल की ओर जा रहे थे। मार्ग में हाथी उन्मत्त हो उठा और उन्हें भगाकर बहुत दूर लेगया। राजा प्रद्योत एक वृक्षकी डाल पकड़कर ज्यों-त्यों बचे। प्याससे व्याकुल चलते हुए वे खेट ग्रामके कुए पर पहुंचे। उसी समय जल भरनेके निमित्त आई हुई जिनपाल की पुत्री जिनदत्ताने उन्हें जल पिलाया और पितासे जाकर सब समाचार कह दिये। "ये कोई महापुरुष हैं" ऐसा विचारकर जिनपाल उन्हें आदरसत्कार पूर्वक अपने घर ले गया और जिनदत्ताके साथ उसकी शादी कर दी। जिनदत्ताको पटरानीके पदपर नियुक्त कर राजा सुखसे रहने लगा। समय पाकर उन दोनों के वृषभसेन नामका पुत्र हुआ। वृषभसेन जब आठ वर्षके थे तब राजा प्रद्योत पुत्रको राज्य-भार देकर दीक्षा लेना चाहते थे। पुत्रने दीक्षा लेनेका कारण पूछा। पिताने कहा-बेटा ! राज्य का भोग भोगते हुए सच्चे सुख की प्राप्ति नहीं होती, उसके लिये तपश्चरण आवश्यक है। सच्चे सुखकी बात सुनकर बहुत समझाए जानेपर भी पुत्रने इन्द्रिय-सुखोंके कारणभूत राज्यको ग्रहण नहीं किया और पिताके साथ ही जिनदीक्षा धारण कर ली। वृषभसेन मुनिराज तपस्या करते एवं अकेले ही अनेक देशोंमें घूमते हुए कौशाम्बी नगरीमें आये और छोटी सी पहाड़ी पर ठहर गये। गर्मीका Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ४४७ समय था, धूप तेज पड़ रही थी। मुनिराज एक पवित्र शिलापर बैठकर ध्यान करते थे। कड़ी धूपमें इस प्रकारकी योग साधना तथा आत्मतेजसे उनके शरीरका सौन्दर्य इतना देदीप्यमान हो उठा कि लोगोंके मनमें उनके प्रति श्रद्धा अति दृढ़ होती गयी जिससे जैनधर्मका प्रभाव वृद्धिंगत होने लगा। एक दिन महाराज जब शहरमें भिक्षार्थ गये थे तब जैनधर्मद्वेषी एक बौद्ध भिक्षुने दुष्टतासे महाराजके ध्यान करनेके लिये बैठनेकी शिलाको अग्निसे तपा दिया। मुनिराज आहारसे लौटे, शिला को संतप्त देखसमझ गये कि यह उपसर्ग आया है। उन वीर-धीर मुनिराजने उसी तप्त शिला पर आरूढ़ हो समाधिपूर्वक आराधनाको साधते हुए प्राण त्याग किया और उत्तमगति प्राप्त की। अग्निराजसुतः शक्त्या विद्धः, क्रौञ्चेन संयतः। रोहेडकपुरे सोवा, देवीमाराधनां श्रितः ।।१६२८ ।। अर्थ - रोहडक नामक नगर में क्रांच राजा द्वारा शक्ति नामक शस्त्र से वेधे गये अग्निदत्त राजा के पुत्र कार्तिकेय महामुनिराज ने असह्य पीड़ा सहकर भी आराधना देवी के आश्रय से उत्तम गति प्राप्त की ॥१६२८॥ कार्तिकेय मुनिकी कथा * राजा अग्निदत्तके वीरवती रानीसे कृत्तिका नामकी पुत्री हुई। जब वह यौवनवती हुई तो राजा उसपर मोहित हो गया। उसने छलसे राजसभा प्रश्न किया कि राजमहलमें जो भी पदार्थ हैं उन सबका स्वामी कौन होता है? मंत्री आदिने कहा, आप ही तो स्वामी हैं। किन्तु वहाँ पर उपस्थित जैन मुनिने कहा राजन्! कन्याओंको छोड़कर और सब पदार्थों के स्वामी आप हैं। राजाको यह मुनिवाक्य रुचा नहीं । रुचता भी कैसे ? कामीको कभी गुरुके वाक्य रुचते नहीं। राजाने जबरदस्ती अपनी पुत्री कृत्तिकाके साथ विवाह कर लिया। कुछ समय बाद उसके दो संतानें हुई - एक पुत्र और एक पुत्री । यथा समय पुत्री वीरमतीका विवाह रोहेडक नामक नगरके राजा क्रौंचके साथ हुआ। पुत्र कार्तिकेय अभी अविवाहित था। एक दिन मित्रोंके यहाँ उनके नानाके घरसे आये वस्त्राभूषण देख उसने मातासे प्रश्न किया कि हमारे नानाके यहाँसे वस्त्राभूषण क्यों नहीं आते ? पुत्रका प्रश्न सुनकर माताके हृदयपर मानों वज्रपात ही हुआ। नयन नीरसे भर आये। माताकी दशा देखकर पुत्रने कारण पूछा। बहुत हठ करनेपर माताने सब कह डाला कि तुम्हारा पिता ही तुम्हारा नाना है, कार्तिकेयका हुदय ग्लानिसे भर गया। उसने कहा माता ! ऐसा कुकृत्य करते हुए राजा को किसी ने नहीं रोका? माता ने कहा-जैनमुनिने रोका था किन्तु राजा ने सुना नहीं, उलटे उन मुनिको नगरसे बाहर निकलवा दिया। कार्तिकेय का मन वैराग्ययुक्त हुआ। उसने वनमें जाकर मुनिराजसे जिनदीक्षा ग्रहण की। क्रमशः विहार करते हुए कार्तिकेय मुनि रोहेडक नगरीमें आये जहां उनकी बहिन राजा क्रौंच से ब्याही थी। मुनिराज को राजमार्ग से आते हुए देखकर वीरमती बहिन ने उन्हें पहिचान लिया और धर्मप्रेम तथा भ्राता प्रेमसे विह्वल हो समीपमें बैठे राजाको बिना पूछे ही वह शीघ्रता से महलसे उतरकर मुनिराजके चरणोंमें गिरी। राजा विधर्मी था, मुनिके रूप को नहीं जानता था। उसने क्रोधमें आकर कर्मचारियोंको आज्ञा दी कि इस व्यक्ति की चमडी-चमडी छील डालो । कर्मचारियों द्वारा मुनिराज पर महान् उपसर्ग प्रारंभ हुआ। उनका सारा तन छेदा गया किन्तु भेदज्ञानी परम ध्यानमें लीन मुनिराज ने अत्यंत शांत भावसे सल्लेखना पूर्वक प्राणत्याग किया। धन्य है कार्तिकेय मुनिराज जिन्होंने घोर वेदनामें भी आत्मध्यान नहीं छोड़ा। Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ४४८ काङ्कयां चण्डवेगेन, छिन्न-निःशेष-विग्रहः । विषयाभयघोषोऽपि, पीडामाराधनां गतः ॥१६२९ ।। अर्थ - काकन्दी नगरीमें चण्डवेग नामक दुष्ट व्यक्ति द्वारा सारा शरीर छेद डालने पर भी अभयघोष महामुनिराज उस असह्य पीड़ा को सहन कर चारों आराधनाओं के माध्यम से मोक्षगति को प्राप्त हुए ।।१६२९ ।। * अभयघोष मुनिकी कथा * काकन्दीपुरमें राजा अभयघोष राज्य करते थे। उनकी रानीका नाम अभयमती था। इन दोनों में अत्यन्त प्रीति थी। एक दिन राजा अभयघोष घूमने जा रहे थे। रास्ते में उन्हें एक मल्लाह मिला जो जीवित कछुए के चारों पैर बाँधकर लकड़ी में लटकाये हुए जा रहा था। राजा ने अज्ञानता वश तलवार से उसके चारों पैर काट दिये । कछुआ तड़फड़ा कर मर गया और अकाम निर्जरा के फल से उसी राजा के चण्डवेग नाम का पुत्र हुआ। एक दिन चन्द्रग्रहण देखकर राजा को वैराग्य हो गया, उसने पुत्र को राज्य-भार सौंपकर दीक्षा धारण करली। वे कई वर्षों तक गुरु के समीप रहे। इसके बाद संसार समुद्र से पार करने वाले और जन्म, जरा तथा मृत्यु को नष्ट करने वाले अपने गुरु महाराज से आज्ञा लेकर और उन्हें नमस्कार करके धर्मोपदेशार्थ अकेले ही विहार कर गये। कितने ही वर्षों बाद घूमते-घूमते काकन्दीपुर आये और वीरासनमें स्थित होकर तपस्या करने लगे। इसी समय जो कछुआ मरकर उनका पुत्र चण्डवेग हुआ था वह वहाँ से आ निकला और पूर्वभव (कछुआ की पर्याय) की कषायके संस्कारवश तीव्र क्रोधस अन्धे होते हुए उस बण्डवेग ने उनके हाथ पैर काट दिये और तीव्र कष्ट दिया। इस भयंकर उपसर्ग के आजाने पर भी अभयघोष मुनिराज मेरु सदृश निश्चल रहे और शुक्लध्यानके बलसे अक्षयानन्त मोक्षलाभ किया। प्रपेदे मशकैर्दशैः, स्वाद्यमानो महामनाः। विद्युच्चोर-मुनिः स्वार्थ, सोढ-दुःसह-वेदनः ॥१६३० ।। अर्थ - डाँस-मच्छरों द्वारा खाये जाने पर भी उदारमना विद्युच्चर महामुनिराज ने अत्यन्त घोर वेदना को सहन कर उत्तमार्थ प्राप्त किया अर्थात् मोक्षपद प्राप्त किया।१६३० ॥ * विद्युच्चर मुनिकी कथा * मिथिलापुर के राजा वामरथ के राज्य में यमदण्ड नामका कोतवाल और विद्युच्चर नामका चोर था। विद्युच्चर चोरियाँ बहुत करता था, पर अपनी चालाकीके कारण पकड़ा नहीं जाता था। वह दिनमें कुष्ठी का रूप धारण कर किसी शून्य मन्दिर में गरीब बनकर रहता था और रात्रिमें दिव्य मनुष्य का रूप धारण कर चोरी करता था। एक दिन उसने अपने दिव्यरूप से राजा को मोहित कर उनके देखते-देखते हार चुरा लिया। राजाने कोतवाल को बुलाकर सात दिन के भीतर चोर को पकड़ लाने की आज्ञा दी। छह दिन व्यतीत हो जाने पर भी चोर नहीं पकड़ा गया, सातवें दिन देवी के सुनसान मन्दिर में एक कोढ़ी को पड़ा हुआ देखकर कोतवाल को उसके ऊपर सन्देह हुआ और उसने उसे बहुत अधिक मार लगाई परन्तु कोढ़ी ने अपने को चोर स्वीकार नहीं किया। तब राजा ने कहा-अच्छा, मैं तेरा सर्व अपराध क्षमा करता हूँ और अभय का वचन देता हूँ, तू यथार्थ बात बतला Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ४४९ दे। अभय की बात सुनते ही कोढ़ी रूपधारी विद्युच्चर बोला-महाराज ! मैं आभीर प्रान्त के अन्तर्गत वेगातट शहर के राजा जितशत्रु और रानी जयावती का विद्युच्चर नाम का पुत्र हूँ और यह यमदण्ड उसी राजाके यमपाश कोतवाल का पुत्र है। मैंने बचपन में विनोद के लिए चौर्यशास्त्र का अध्ययन किया था और अपने मित्र यमदण्ड से कहा था कि जहाँ आप कोतवाली करेंगे, वहीं मैं चोरी करूंगा। हम दोनों के पिता अपना-अपना कार्यभार हम लोगों को सौंपकर दीक्षित हो गये। मेरे भय से यमदंड यहाँ भाग आया और अपनी बचपन की प्रतिज्ञा पूर्ण करने के उद्देश्य से मैंने भी यहाँ आकर चोरी का कार्य प्रारम्भ कर दिया। विधुच्चर की बात सुनकर राजा वामरथ बड़ा प्रसन्न हुआ। विद्युच्चर अपने मित्र यमदण्ड को लेकर अपने नगर चला गया। किन्तु इस घटना से उसे वैराग्य हो गया और उसने अपने पुत्र को राज्यभार सौंपकर जिनदीक्षा ग्रहण कर ली। संघ सहित विहार करते हुए विधुच्चर मुनिराज ताम्रलिप्तपुरी की ओर आये। संघ सहित नगरमें प्रवेश करने को थे कि वहाँ की चामुण्डा देवी ने कहा"हे साधो ! अभी मेरी पूजाविधि हो रही है। आप भीतर मत जाइये।" इसप्रकार रोके जाने पर भी महाराजश्री अपने शिष्यों के आग्रह से भीतर चले गये और परकोटे के पास की भूमि देखकर बैठ गये तथा ध्यानारूद हो गये। अपनी अवज्ञा जानकर देवी को क्रोध आगया और उसने कबूतरों के आकार के, खून पीने वाले डाँसमच्छरों की सृष्टि करके मुनिराज पर धोर उपसर्ग किया। मुनिराज ने यह उपसर्ग बड़ी शान्ति से सहन किया और अपने मन को चारों आराधनाओं में रमाते हुए मोक्षनगर के स्वामी बने। __ वास्तव्यो हास्तिने धीरो, द्रोणीमति-महीधरे। गुरुदत्तो यति: स्वार्थ, जग्राहानल-वेष्टितः ॥१६३१॥ अर्थ - हस्तिनापुरवासी महामुनि गुरुदत्त द्रोणमति/द्रोणगिरि पर्वत पर ध्यानस्थ थे, किसी दुष्ट ने उनका शरीर सेमर की रुई से वेष्टित कर आग लगा दी। उस घोर वेदना में भी वे धीर-वीर रत्नत्रयरूप स्वार्थ की सिद्धि कर मोक्षपद को प्राप्त हो गये ॥१६३१॥ * गुरुदत्त मुनिकी कथा * हस्तिनापुरमें गुरुदत्त नामके राजा राज्य करते थे। उसी समय द्रोणीमति पर्वतके समीप चन्द्रपुरी नगरीमें राजा चन्द्रकीर्ति था, उसकी अभयमती नामकी अनिंद्य-सुंदरी कन्या हुई। गुरुदत्तने उस कन्या की मांग की किन्तु चन्द्रकीर्त्तिने मना किया। उससे कुपित होकर गुरुदत्तने उसपर चढ़ाई कर दी। अभयमती को जब यह वृत्तांत ज्ञात हुआ तब उसने पिता से प्रार्थना की कि मेरा इस जन्ममें गुरुदत्त ही पति हो, ऐसा मेरा प्रण है अत: आप उसीसे विवाह कर दीजिये। पुत्री की बात पिता को माननी पड़ी। मंगल वेलामें विवाह सम्पन्न हुआ। गुरुदत्त राजा अभयमतीके साथ आनंदसे रहने लगा। द्रोणीमति पर्वतमें रहने वाला एक सिंह जनता को बहुत कष्ट दे रहा है, ऐसा सुनकर गुरुदत्त राजा वहाँ आया और सिंहकी गुफामें चारों ओर आग लगाकर सिंहको जला दिया। सिंह अकामनिर्जरा करके उसी चन्द्रपुरीमें ब्राह्मण का पुत्र हुआ। गुरुदत्त नरेश कुछ समय तक राज्य करके दीक्षित होते हैं और क्रमशः विहार करते हुए उसी द्रोणीमति पर्वतके निकट उसी कपिल ब्राह्मणके खेतमें ध्यानस्थ होते हैं। उस समय कपिल अपनी पत्नी को खेत पर भोजन लानेके लिये कहकर खेत पर आया। वहाँ मुनि को देखकर उस खेत को जोतना उचित नहीं समझा अत: दूसरे Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ४५० खेतमें जाने का सोचा। उसने मुनिराजसे कहा-मैं दूसरे खेत पर जा रहा हूँ। मेरी पत्नी भोजन लेकर आयेगी, उसको कह देना। मुनि ध्यानस्थ थे। उन्होंने कपिल की पत्नी को पूछने पर भी कुछ उत्तर नहीं दिया। ब्राह्मणी घर चली गयी। कपिल को समय पर भोजन नहीं मिला अत: उसने घर आनेपर अपनी पत्नी को पीटना प्रारंभ किया, ब्राह्मणी ने घबराकर कहा कि मैं तो खेत पर गयी थी किन्तु आप नहीं मिले, वहाँ एक महात्मा बैठे थे। उन्हें भी पूछा किन्तु कुछ उत्तर नहीं मिलनेसे वापिस आयी हूँ। इतना सुनते ही कपिलका क्रोध और अधिक बढ़ गया। उसने तत्काल खेतमें जाकर सेमर नाम की रुई से मुनिराज गुरुदत्त को लपेट दिया और आग लगा दी। उस घोर उपसर्गकी धीर वीर मुनिने अत्यंत शांतभावसे सहा। वे शरीर की ममताका त्यागकर शुक्ल ध्यानमें लीन हो गये और उन्होंने ध्यान द्वारा केवलज्ञानको प्राप्त किया। केवलज्ञान की पूजाके लिये चतुर्निकाय के देव आये। कपिल ब्राह्मण को बहुत पश्चात्ताप हुआ। उसने गुरुदत्त केवलीसे पुनः पुनः क्षमा मांगी और उनकी दिव्य देशना द्वारा अपना कल्याण किया। देखो! संवलियाली के समान शरीर जलते हुए भी गुरुदत्त मुनिराज आत्मामें लीन हुए और केवलज्ञान प्राप्त किया। प्रश्न - संवलिथाली किसे कहते हैं? उत्तर - मिट्टी के घड़े में उड़द की फलियाँ भर कर उसका मुख ढाक के पत्तों से बन्द कर उसे जमीन पर उल्टा अर्थात् मुख नीचा कर रखते हैं, पश्चात् घड़े को चारों ओर से अग्नि द्वारा वेष्टित कर देते हैं। उसे संवलियाली कहते हैं। गुरुदत्त महामुनि को सेमर की रुई लपेट कर आग लगा दी गई थी, वे सिर से पैरों पर्यन्त चारों ओर से जल रहे थे। गाढ-प्रहार विद्धोऽपि, कीटिकाभिरनाकुलः। स्वार्थं चिलातपुत्रोऽगाच्चालनी-कृत्त-विग्रहः ॥१६३२।। अर्थ - चिलातपुत्र नामक महामुनि का शरीर कीड़ों के तीव्र डंक प्रहार से चलनी के सदृश बिंध गया था, फिर भी अनाकुल भावों के प्रभाव से उन्होंने उत्तमार्थ मोक्ष प्राप्त कर लिया ॥१६३२ ।। * चिलातपुत्र मुनिकी कथा * राजगृह नगरीमें राजा उपश्रेणिक राज्य करते थे। एक दिन वे घोड़े पर बैठकर घूमने गये। घोड़ा दुष्ट था सो उसने उन्हें एक भयानक वनमें छोड़ा। उस वन का मालिक यमदण्ड नाम का भील था। उसके एक तिलकवती नामकी सुन्दर कन्या थी। राजा ने उसकी मांगकी। "इसका पुत्र ही राज्य का अधिकारी होगा" इस शर्तके साथ भील ने कन्या राजा को सौंप दी। उससे चिलातपुत्र नामका पुत्र उत्पन्न हुआ। राजा अपने वचनानुसार राज्यका भार उसे सौंपकर दीक्षित हो गये। राजा बनते ही चिलातपुत्र प्रजापर नाना प्रकारके अन्याय करने लगा। जब कुमार श्रेणिक ने यह बात सुनी तब उन्होंने अपने पौरुषसे चिलातपुत्र को राज्यसे बहिष्कृत करके पिताका राज्य संभाला अर्थात् वे मगधके सम्राट् बन गये। चिलातपुत्र मगधसे निकलकर किसी वनमें जाकर बस गया और आस-पास के ग्रामोंसे जबरदस्ती कर वसूल कर उनका मालिक बन बैठा। उसके एक भर्तृमित्र नामका मित्र था। भर्तृमित्रने अपने मामा रुद्रदत्तसे उनकी कन्या सुभद्रा चिलात-पुत्रके लिए माँगी। रुद्रदत्तने इसे स्वीकार नहीं किया, तब Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ४५१ चिलातपुत्र ने विवाह-स्नान करती हुई सुभद्राका हरण कर लिया। जब यह बात श्रेणिक ने सुनी तब वह सेना लेकर उनके पीछे दौड़ा ! श्रेणिकसे अपनी रक्षा न होते देख चिलात ने उस कन्या को निर्दयतापूर्वक मार डाला और आप अपनी जान बचाकर वैभार पर्वत परसे भागा जा रहा था कि उसे वहाँ मुनियों का एक संघ दिखाई दिया और उसने उनसे दीक्षाकी याचना की। "तेरी आयु अब मात्र आठ दिन की रही है" ऐसा कहकर आचार्य ने उसे दीक्षा दे दी। दीक्षा लेकर चिलात मुनिराज प्रायोपगमन संन्यास लेकर आत्मध्यानमें लीन हो गये। सेना सहित पीछा करने वाले श्रेणिक ने जब उन्हें इस अवस्थामें देखा तब वे बहुत आश्चर्यान्वित हुए और मुनिराजको भक्तिपूर्वक नमस्कार करके राजगृह लौट आए। चिलातपुत्रने जिस कन्या को मारा था वह मरकर व्यंतर देवी हुई और "इसने मुझे निर्दयता पूर्वक मारा था" इस वैरका बदला लेने हेतु वह चील का रूप ले चिलात मुनिके सिर पर बैठ गई : उसने उसकी दोनों माँ नियम ली और सारे शरीर को छिन्न-भिन्न कर दिया। जिससे उनके घावों में बड़े-बड़े कीड़े पड़ गये। इसप्रकार आठ दिन तक वह देवी उन्हें अनिर्वचनीय वेदना पहुँचाती रही, किन्तु मन, इन्द्रियों और कषायों को वशमें करने वाले मुनिराज अपने ध्यानसे किंचित् भी विचलित नहीं हुए तथा समाधिपूर्वक शरीर छोड़कर सर्वार्थसिद्धि की प्राप्ति की। यमुनावक्र-निक्षिप्तः, शर-पूरित-विग्रहः। अध्यास्य वेदनां चण्डः, स्वार्थ शिश्राय धीर-धीः ॥१६३३॥ अर्थ - चण्ड या दण्ड या धन्य नामक महामुनिराज के शरीर को यमुनावक्र नामक राजा ने तीक्ष्ण बाणों से छेद कर भर दिया, फिर भी धैर्य-बुद्धिशाली वे मुनिराज उस असह्य वेदना को सहन करके उत्तमार्थ को प्राप्त हुए अर्थात् अन्त:कृत केवली होकर मोक्ष को प्राप्त हुए।१६३३॥ * (धन्य) चंड या दंड नामके मुनिकी कथा * पूर्व विदेहक्षेत्रकी प्रसिद्ध राजधानी वीतशोकपुर का राजा अशोक अत्यन्त लोभी था । वह धान्यका दाय करते समय बैलों के मुख बँधवा दिया करता था जिससे वे अनाज न खा सकें और रसोई गृहमें रसोई करने वाली स्त्रियों के स्तन बँधवा देता था ताकि उनके बच्चे दूध न पी पावें । एक समय राजा अशोक के मुखमें कोई भयंकर रोग हो गया। उसने उस रोगकी औषधि बनवाई। वह उसे पीने ही वाला था कि इतने में उसी रोगसे पीड़ित एक मुनिराज आहारके लिए इसी ओर आ निकले। राजा ने पथ्य सहित वह औषधि मुनिराज को पिला दी, जिससे उनका बारह वर्ष पुराना रोग ठीक हो गया। उस पुण्यके फलसे आगामी भवमें राजा अमलकपुरके राजा नंदीसेन और रानी नन्दमतीके धन्य नामका पुत्र हुआ। समय पाकर उसने राज्य-सिंहासन को सुशोभित किया। एक समय धन्य राजा भगवान नेमिनाथके समवशरणमें धर्मोपदेश सुननेके लिए गये थे। वहाँ उन्हें वैराग्य हो गया और वे वहीं दीक्षित हो गये। पूर्वभव में जो बच्चों और पशुओं के भोजनमें अन्तराय डाला था उस पापोदयसे प्रतिदिन गोचरी को जाते हुए भी उन्हें लगातार नौ माह तक आहारका लाभ नहीं हुआ अन्तिम दिन वे सौरीपुरके निकट यमुनाके किनारे ध्यानस्थ हो गये। उस दिन वहाँका राजा वनमें शिकार खेलने आया, पर दिनभरमें उसे कुछ भी हाथ न लगा। नगर को लौटते हुए राजा की दृष्टि मुनिराज पर पड़ी। उन्हें देखते ही उसका क्रोध उबल पड़ा कि इसने ही आज अपशकुन किया है। प्रतिशोध की भावना से राजा ने मुनि के शरीरको तीक्ष्ण बाणों से बींध डाला। सैकड़ों बाणों के एक साथ प्रहारसे मुनिराज का शरीर चलनी की सदृश जर्जरित हो गया और सारे शरीर से रक्त Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ४५२ धाराएँ फूट पड़ी। मुनिराज ने उपसर्ग प्रारम्भ होते ही प्रायोपगमन संन्यास ग्रहण कर लिया और चारों आराधनाओं में संलग्न होते हुए अन्तकृत केवली होकर मोक्ष पधारे। यन्त्रेण पीड्यमानाङ्गाः, प्राप्ताः पञ्च-शतः प्रमाः। कुम्भकारकटे स्वार्थमभिनन्दन-पूर्वगाः॥१६३४ ।। अर्थ - कुम्भकारकट नामक नगर में अभिनन्दनादि पाँच सौ महामुनिराज यन्त्र में अर्थात् कोल्हू में पेल दिये जाने पर भी रत्नत्रय की आराधना करके उत्तमार्थ को प्राप्त हुए ।।१६३४ ।। * आभनंदन आदि पांचसी मुनिराजोंकी कथा * दक्षिण भारतमें स्थित कुम्भकारकट नगरके राजा का नाम दण्डक, रानी का नाम सुव्रता और राजमन्त्री का नाम बालक था। बालक मन्त्री जैनधर्म का विरोधी और अभिमानी था। एक समय उस नगरमें अभिनन्दन आदि पाँच सौ मुनिराज पधारे। मन्त्री बालक उनसे शास्त्रार्थ करनेके लिए जा रहा था। मार्गमें उसे खण्डक नामके मुनिराज मिले और वह उन्हीं से विवाद करने लगा। महाराजश्री के स्याद्वाद सिद्धान्त के सामने वह एक क्षण भी न टिक सका और लज्जित होता हुआ घर लौट गया, पर उसके हृदय में अपमान की आग धधकने लगी। उसकी शान्ति के लिए उसने एक भांड को मुनि बनाकर रानी सुव्रता के महल में भेज दिया और राजा को वहीं लाकर खड़ा कर दिया। उस मुनि भेषी भांड की कुत्सित क्रियाएँ देखकर राजा क्रोध से अन्धा हो गया और उसने उसी समय आदेश दिया कि नगरमें जितने दिगम्बर साधु हों वे सब पानी में पेल दिये जाँय । मन्त्री तो यह चाहता ही था। उसने तत्काल सब मुनिराजों को घानी में पेल दिया । इस महान् दुःसह उपसर्ग को प्राप्त होकर भी साधु समूह अपने साम्य-भाव से विचलित नहीं हुआ और उसने उत्तमार्थ को प्राप्त किया। कुलालेऽरिष्ट-संज्ञेन, दग्धायां वसतौ गणी। साधं वृषभसेनोऽगादुत्तमार्थं तपोधनैः ।।१६३५॥ अर्थ - कुलाल नामक नगर में अरिष्ट नामक दुष्ट मन्त्री के द्वारा वसतिका में आग लगा देने के कारण आचार्य वृषभसेन अपने संघस्थ साधुओं के साथ रत्नत्रय स्वरूप आराधनाओं को प्राप्त हुए ||१६३५॥ * आचार्य वृषभसेनकी कथा * दक्षिण दिशा की ओर बसे हुए कुलाल नगरके राजा वैश्रवण बड़े धर्मात्मा और सम्यग्दृष्टि थे। इनका मंत्री इनसे बिल्कुल उल्टा मिथ्यात्वी और जैनधर्मका बड़ा द्वेषी था। सो ठीक ही है, चन्दन के वृक्षों के आसपास सर्प रहा ही करते हैं । एक दिन वृषभसेन मुनि अपने संघ को साथ लिये कुलाल नगर की ओर आये। वैश्रवण उनके आने का समाचार सुन बड़ी विभूति के साथ भव्यजनों को संग लिये उनकी वन्दना को गये। भक्ति से उसने उनकी प्रदक्षिणा की, स्तुति की, वन्दना की और पवित्र द्रव्यों से पूजा की तथा उनसे जैनधर्म का उपदेश सुना। मंत्री ने मुनियों का अपमान करने की गर्ज से उनसे शास्त्रार्थ किया, पर अपमान उसी का हुआ। मुनियों के साथ उसे हार जाना पड़ा। इस अपमान की उसके हृदय पर गहरी चोट लगी। इसका बदला चुकाने का विचार कर वह शाम को मुनिसंघ के पास आया और जिस स्थानमें संघ ठहरा था उसमें उस पापी ने आग लगा दी। पर तत्त्वज्ञानी, वस्तुस्थिति को जानने वाले मुनियों ने इस कष्ट की कुछ परवाह न कर बड़ी सहनशीलताके साथ सब Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ४५३ कुछ सह लिया और अन्तमें अपने-अपने भावों की पवित्रता के अनुसार उनमें से कितने ही तपोधन मोक्ष गये और कितने ही स्वर्ग गये। अमी तपोधनाः प्राप्ताः, स्वार्थमेकाकिनो यदि । अध्यास्य वेदनास्तीव्राः, निःप्रतीकार-विग्रहाः ।। १६३६ ।। चतुर्विधेन सचेन, विनीतेन निषेवितः । तदाराधयसे न त्वं, देवीमाराधनां कथम् ।। १६३७ ।। अर्थ - इस प्रकार यदि ये मुनिराज उपरूनों का प्रतिकार किये बिना को सहन करते हुए एकाकी होकर भी रत्नत्रय को प्राप्त हुए थे तब तो विनयवान् चतुर्विध संघ द्वारा सेवित तुम आराधनादेवी की आराधना क्यों नहीं कर सकते ? अर्थात् कैसे नहीं कर सकते ? ।।१६३६ - १६३७ ।। कर्णाञ्जलिपुटैः पीत्वा, जिनेन्द्र वचनामृतम् । सङ्घ-मध्ये स्थितः शक्तः, स्वार्थ साधयितुं सुखम् ।। १६३८ ॥ अर्थ- हे क्षपक ! संघ के मध्य कर्णरूपी अंजुलिपुटों द्वारा जिनेन्द्रदेव की वाणी रूप अमृत पीकर मोक्षरूप अपना स्वार्थ सुखपूर्वक साध लेना तुम्हारे लिए इस समय सरल है ।। १६३८ ।। - चतुर्गति के दुखों का स्मरण श्वभ्र - तिर्यतर - स्वर्ग-सुख - दुःखानि सर्वथा । त्वं चिन्तय महाबुद्धे - भव- लब्धान्यनेकशः ॥ १६३९ ॥ अर्थ- हे क्षपक ! हे महाबुद्धे ! अतीत काल में अनेक बार नरकगति, तिर्यंच-गति, मनुष्यगति एवं देवगति के दुखों एवं सुखों को तुमने सब प्रकारसे प्राप्त किया है, उनका अब तुम स्मरण करो अर्थात् एकाग्र मन से चिन्तन करो । १६३९ ॥ नरके वेदनाचित्रा, दुःसहासात - दायिनी । देहासक्त-तया प्राप्ताश्विरं यास्ता विचिन्तय ।।१६४० ॥ अर्थ - हे क्षपक ! शरीर से मोह करने के कारण नरकों में तीव्र असाता को देने वाली नाना प्रकार की वेदनाओं को जो चिरकाल तक भोगा है, तुम उनका स्मरण करो / चिन्तन करो ।। १६४० ।। प्रश्न शरीर में मोह करने से नरक में क्यों जाना पड़ता है ? उत्तर - यथार्थतः तो मोह ही सबसे बड़ा पाप है, यह सर्व दुखों का मूल है । असाताजन्य जो वेदनाएँ नरक में हैं उस प्रकार की वेदनाएँ जगत् में अन्यत्र कहीं नहीं हैं और इन वेदनाओं का मूल कारण शरीर है, क्योंकि शरीरासक्त मनुष्य संयम धारण नहीं कर सकते। संयम के बिना वे असातावेदनीय कर्म का तीव्र बन्ध करते हैं और नरक चले जाते हैं। नरक में उस असाता का प्रचुरता से उदय आता रहता है। इस प्रकार कारण की बहुलता से वेदना रूप कार्य निरन्तर होता रहता है। Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ४५४ नरकों में उष्ण-शीत की महत्ता क्षिप्तः श्नभ्रावनी क्षिप्रं, मेरु-मानोऽपि सर्वथा। उष्णामुर्वीमनासाद्य, लोह-पिण्डो विलीयते॥१६४१ ।। अर्थ - उष्ण नरकों में इतनी भयंकर उष्णता है कि यदि कोई देव-दानव मेरु बराबर लोहपिण्ड को उष्ण नरकों में फेंके तो वह लोहपिण्ड वहाँ की भूमि को प्राप्त होने के पूर्व मार्ग में ही विलीन हो जाएगा अर्थात् पिघल जाएगा ||१६४१ ॥ क्षिप्तस्तत्राग्निना तप्तो, मेरु-मात्रः सहस्रधा। शीतामवनिमप्राप्य, लोह-पिण्डो विशीर्यते ।।१६४२॥ अर्थ - उसी प्रकार अग्नि से तपे/पिघले हुए उस मेरु प्रमाण लोहपिण्ड को यदि शीत-नरकों में फेंक दिया जाय तो उन शीत-पृथिवियों को प्राप्त होने के पूर्व मार्ग में ही वह हजारों खण्डरूप में विशीर्ण हो जाय अर्थात् जमकर खण्ड-खण्ड हो जाय ।।१६४२ ।। शारीरिक वेदना की कल्पना तादृशी वेदना श्वभ्रे, घोर-दुःखे निसर्गजा। यादृशी चूर्णितस्यास्ति, क्षिप्त-क्षारस्य चेततः ।।१६४३॥ अर्थ - किसी मूर्छा रहित मनुष्य के शरीर को मुद्गर आदि से पीट/कुचल कर खारे जल में डाल दिये जाने पर जैसी वेदना होती है, वैसी ही वेदना घोर दुखों से भरे हुए नरकों में स्वभावतः होती है ॥१६४३ ।। यच्छ्वभ्रावसथे भीमे, प्राप्नोहःखमनेकधा। निशितैः कण्टकैलॊहैस्तुधमानः समन्ततः॥१६४४ ।। अर्थ - उस भयंकर नरक भूमि में पैने/नुकीले लोहमयी काँटों के द्वारा चारों ओर से छेदे जाकर तुम अनेक बार दुखों को प्राप्त हो चुके हो । (उनका स्मरण करो)।।१६४४ ॥ यच्छूले कूट-शाल्मल्यामसिपत्र-वने गतः। सर्वतो भक्ष्यमाणोऽयं, का-काकादि-पक्षिभिः ।।१६४५॥ अर्थ - जहाँ कूट शाल्मलि वृक्ष हैं ऐसे असिपत्र वन में जाने पर तुम सब ओर से कंक और काक आदि पक्षियों के द्वारा खाये गये थे॥१६४५ ।। प्रश्न - नरकों में वृक्ष एवं वन आदि होते हैं? तथा कूट शाल्मली वृक्ष और असिपत्र वन किसे कहते उत्तर - नरक भूमियों में वृक्षादि वनस्पतियाँ नहीं होती। नारकी जीव अपृथक् विक्रिया द्वारा स्वयं वृक्ष एवं वनादि का रूप धारणकर अन्य नारकियों को दुख देते हैं। शाल्मली वृक्ष काँटों से घिरे हुए होते हैं जिनमें से कुछ काँटे ऊपर की ओर मुख वाले और कुछ नीचे की ओर मुख वाले होते हैं, उन्हें कूट शाल्मली वृक्ष कहते Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका-४५५ जिस वन में तलवार की धार सदृश पत्ते वाले वृक्ष होते हैं उसे असिपत्र वन कहते हैं। ये वन भी विक्रियारूप हैं। अन्य नारकियों के भय से भयभीत नये नारकी घबराकर ऐसे कूट-शाल्मली वृक्षों पर चढ़कर दुख पाते हैं। नारकियों द्वारा अथवा असुरकुमार देवों की विक्रिया द्वारा रचे गये विचित्र आयुध रूप पत्रों से युक्त होते हैं। उन आयुध सदृश पत्रों के गिरने पर नारकियों का सर्वांग छिद जाता है। उन वृक्षों पर बैठे हुए गिद्ध, कंक एवं काक पक्षीरूपधारी नारकी अपनी वज्रमयी चोंचों से उन्हें नोचते हैं, तीक्ष्ण आरे के सदृश पंखों से प्रहार करते हैं और अत्यन्त तीक्ष्ण एवं कठोर चरणरूपी अंकुशों से मारते हैं। हे क्षपकराज ! ऐसे दुख तुमने अनेक बार भोगे हैं। असुरैर्वैतरण्यां च, प्रापितो निर्घणाशयः । कदम्ब-वालुका-पुञ्ज, गाढमाना यदा सृतः॥१६४६॥ अर्थ - दे क्षपक ! निर्दय अपुरणों द्वारा वैतरणी में तुम अनेक बार डुबोये गये हो और कदम्ब पुष्प की आकृति वाले बालू के पुंज पर बलात् सुलाये गये हो, उस समय के दुख स्मरण करो।।१६४६॥ प्रश्न - वैतरणी नदी का क्या स्वरूप है और इसके माध्यम से नारकी जीव किस-किस प्रकार के दुख भोगते हैं ? उत्तर - श्याम सबल नामक असुरकुमारों की पृथक् विक्रिया एवं नारकियों की अपृथक् विक्रिया के द्वारा वैतरणी नदियों का उद्गम होता है, वे नदियाँ रंगीन तरंगों से व्याप्त और अगाध नीले जल से भरी होती हैं, विषय-सुख-सेवन की तरह तृष्णा की परम्परा को बढ़ाने वाली होती हैं, संसार के सदृश उन्हें पार करना कठिन होता है, आशा के समान विशाल होती हैं और कर्म पुद्गलों के स्कन्धों के समूह के समान अनेक विपत्तियों को लाने वाली होती हैं। जब प्यास से व्याकुल नारकी जल की खोज में दौड़ते हैं, उनकी आँखें दीन हो जाती हैं, कण्ठ और तालू सूख जाता है तब दूर से ही उन नदियों को देखकर उनकी उत्कण्ठा बढ़ जाती है और उन्हें विश्वास हो जाता है कि 'अब हम जी गये', ऐसा मानते हुए वे दौड़कर नदी में प्रवेश करते हैं। प्रवेश करते ही वे आतुरता पूर्वक हाधों की अंजुलि से पिघले हुए तांबे के सदृश वह जल पीते हैं। वह जल कठोर वचनों के समान हृदय को जलाने वाला होता है तब वे चीत्कार करते हैं कि "अरे ! हम ठगाये गये हैं"। उसी क्षण तलवार की धार सदृश और कठोर वायु से प्रेरित नदी के जल की लहरें उनके हाथ-पैरों को काटती हुई निकल जाती हैं तब कालकूट विष के समान अत्यन्त खारा और गर्म जल उनके घावों में भरकर असहनीय पीड़ा देता है, उससे घबड़ाकर वे तट की ओर भागते हैं और उनके कटे हुए हाथ-पैर यथावत् जुड़ जाते हैं। अन्य नारकी उनकी गर्दनों में वज्रमयी साँकलों से भारी-शिलाएँ बाँध कर उन्हें पुनः उसी वैतरणी में डाल देते हैं, वे उसमें डूबने-उतराने लगते हैं। असुरकुमारों की विक्रिया से निर्मित भीमकाय मगर-मच्छों के प्रहार से उनके मस्तक छिन्न-भिन्न होकर गिरते और जुड़ते रहते हैं। वे पुन: तट पर आते हैं, वहाँ निश्चल बाँध दिये जाते हैं और उन्हें लाखों तीक्ष्ण बाणों से बींध देते हैं । पश्चात् कदम्ब के फूलों के आकार वाली ऐसी बालू में जिसमें बालिका के चित्त के समान प्रवेश करना कठिन है, जो वज्रमय दल से शोभित है तथा खैर की लकड़ी के अंगारों के कण समूह के समान गर्म है उस पर बलपूर्वक घसीटे जाने पर जो वेदना होती है वह सहन जिलाओं से भी नहीं कही जा सकती है। Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ४५६ ततायः प्रतिमाकीर्णे, यत्प्राप्तो लोह-मण्डपे। आयसं पाय्यमानोऽपि, प्रतप्तं कललं कटु ॥१६४७॥ अर्थ - लोहे से निर्मित मण्डप में तपाये हुए लोहे से बनी प्रतिमारूपी युवतियों से बलपूर्वक आलिंगन कराये जाने पर तथा खारा, कडुवा और तपा हुआ लोहा एवं कलल पिलाये जाने पर जो भयंकर दुख तुमने वहाँ भोगे हैं उनका स्मरण करो॥१६४७ ।। प्रश्न - कलल किसे कहते हैं ? उत्तर - ताम्बा, सीसा, सज्जी एवं गूगलादि को पका कर जो काढ़ा बनाया जाता है, उसे कलल कहते हैं दुःस्पश्य खाद्यमानो यल्लोहमङ्गार-सञ्चयम् । पच्यमानः कन्दकासु, मण्डका इव रन्धितः ।।१६४८॥ अर्थ - हे क्षपक ! जिनका स्पर्श करना भी कठिन है ऐसे धधकते हुए लोहे के अंगार वहाँ तुम्हें बल पूर्वक खिलाये गये और तुम्हें कड़ाही में डालकर मंडकों के समान तला गया। उनका स्मरण करो॥१६४८ ।। चूर्णित: कुट्टितश्छिन्नो, यन्मुद्गर-मुसण्डिभिः । बहुशः खण्डितो लोकैर्यच्छ्वभ्र-स्थैरितस्ततः ॥१६४९ ।। अर्थ - नरकों में इधर-उधर से आने-जाने वाले नारकी जीवों द्वारा तुम अनेक बार चूर्ण-चूर्ण कर दिये गये, कूटे गये, खण्ड-खण्ड कर दिये गये और मूसल एवं मुसंडी आदि के द्वारा छिन्न-भिन्न कर दिये गये थे।।१६४९ ।। प्रश्न - नरकों में नारकी जीवों को क्या-क्या दुर्लभ है? और उन्हें अन्य क्या-क्या दुख दिये जाते हैं? अथवा भोगने पड़ते हैं? उत्तर - अनुकूल क्रिया, मिष्ट भाषा, सज्जनता, नम्रता, लज्जा, सुख-शीलता, परोपकार, दया, क्षमा, प्रसन्नता, दान, इन्द्रियदमन, मार्दव आदि जितने भी प्रशस्त सुगुण श्रेष्ठ पुरुषों में होते हैं वे गुण नारकी जीवों में वैसे ही दुर्लभ हैं जैसे घनघोर जंगल में मनुष्यों का मिलना दुर्लभ है। मनुष्यादि लोक में शत्रु, मित्र एवं उदासीन, ऐसे तीन प्रकार के प्राणी होते हैं किन्तु नरकों में सब नारकी एक दूसरे के शत्रु ही होते हैं। वे अपने विभंग ज्ञान से पूर्वजन्म के बैरों का स्मरण कर और क्रोध से भर कर वज्र, बाण, करोंत, नख, गदा, मूसल, शूल, भाला, लोष्ट, शंकु, शक्ति, तलवार, छुरी, भाला, दण्डा, गुर्ज एवं पाषाण से निर्मित शस्त्र तथा अन्य भी अनेक तीक्ष्ण अस्त्र-शस्त्रों से जो वहाँ की पृथिवी के स्वभाव से स्वयं उत्पन्न हो जाते हैं तथा विक्रिया से निर्मित आयुधों से परस्पर मारते हैं, छेदते हैं, भेदते हैं, कोंचते हैं, लोचते हैं, बींधते हैं, खाते हैं और प्रहार करते हैं। अन्य नारकी कुत्ता, भेड़िया, सियार, व्याघ्र, गृद्ध एवं सिंह आदि की विक्रिया बनाकर परस्पर अनिर्वचनीय कष्ट देते हैं। कुछ नारकी काष्ठ, पर्वत और शिलारूप बनकर दूसरे नारकियों पर बरसते हैं, कुछ नारकी जल बनकर दूसरों को डुबाते हैं, कुछ वायु बनकर उड़ाते हैं और कुछ अग्नि बनकर जलाते हैं । वे Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ४५७ परस्पर कभी और किसी भी परिस्थिति में दया नहीं करते। कठोर वचन बोलते हुए उनकी ओर दौड़ते हैं कि रे नीच दासीपुत्र ! ठहर जा, कहाँ भागा जाता है ? आज मैं तुझे मारकर ही छोडूंगा। तेरी मृत्यु आ चुकी है। पकड़ो, इसका छेदन करो, भेदन करो, खींचलो, जला दो, खालो, चीर डालो एवं मार डालो इत्यादि अशुभ शब्द ही निरन्तर और सर्वत्र सुनाई देते हैं। इस प्रकार आयु पर्यन्त वे नारकी निरन्तर दुख भोगते रहते हैं। उत्पाट्य बहुशो नेत्रे, जिह्वा संछिद्य मूलतः । यन्नीतो नारकैर्दुखं, दुःखदान-विशारदैः ।।१६५०॥ अर्थ - हे क्षपक ! दुख देने में अत्यधिक निपुण नारकी जीवों द्वारा तेरे नेत्रों को उपाड़ कर और मूलसे जिह्वा उखाड़कर जो दुख दिये गये हैं उनका स्मरण करो ॥१६५०॥ कुम्भी पाके महातापे, क्वथितो यत् समन्ततः । अङ्गार-प्रकरैः पक्वो, यच्छूल-प्रोत-मांसवत् ॥१६५१ ।। अर्थ - हे मुने ! तुम महासन्तापकारी कुम्भीपाक में चारों ओर से अनेक बार पकाये गये हो और शूल में लगे मांस के समान अंगारों के समूह के मध्य पकाये गये हो, उस दुख का स्मरण करो ॥१६५१।। शाकवद्-भृज्यमानो यत्, गाल्यमानो रसेन्द्रवत् । चूर्णवच्चूर्ण्यमानो यद्, वल्लूरमिव कर्तितः ।।१६५२ ।। अर्थ - तुम वहाँ नारकी जीवों द्वारा शाक-सब्जी के समान पूँजे गये हो, गुड़ के रस के समान पकाये गये हो, चूर्ण की तरह चूर्ण-चूर्ण किये गये हो और माँस के सदृश काटे गये हो ॥१६५२ ।। दारित: क्रकचैश्छिन्न;, खड्गैर्विद्धः शरादिभिः। यत्पाटित: परश्वास्ताडितो मुद्गरादिभिः ।।१६५३ ॥ अर्थ - हे क्षपक ! वहाँ तुम करोंत द्वारा विदारित किये गये हो, खड्ग द्वारा छिन्न-अवयव किये गये हो, बाणों द्वारा विद्ध किये गये हो, फरसा आदि के द्वारा उपाड़े गये हो एवं मुद्गर आदि के द्वारा पीटे गये हो ॥१६५३॥ पाशैर्बद्धोऽभितो भिन्नो, द्रुघणैरवशो धनैः। दुर्गमेऽधोमुखीभूतो, यत्क्षिप्तः क्षार-कर्दमे ।।१६५४ ।। अर्थ - हे क्षपक ! तुम पाश द्वारा चारों ओर से कस कर बाँधे गये हो, कुल्हाड़ी द्वारा छिन्न-भिन्न किये गये हो, घन द्वारा कूटे गये हो और पराधीन होकर खारे जल के गहन कीचड़ में नीचे को मुख मस्तक करके गाड़े गये हो॥१६५४॥ यदापन्नः परायत्तो, नारकैः क्रूर-कर्मभिः । लोह-शृङ्गाटके तीक्ष्णे, लोट्यमानोऽतिवेगतः ।।१६५५॥ अर्थ - क्रूर कर्म करने वाले नारकी जीवों द्वारा जब तुम पकड़े जाते थे तब लोहमयी तीक्ष्ण काँटों पर अतिवेग से लोटाये/घसीटे गये हो ॥१६५५ ।। Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ४५८ तष्ट्वा लोकेऽखिलं गात्रं, क्षुरप्रैनिशितैश्चिरम् । वीजित: क्षार-पानीयैः, सिक्त्वा सिक्त्वा निरन्तरम् ॥१६५६ ।। अर्थ - उस नरक लोक में नारकियों ने पैने खुरपे से तुम्हारा सारा शरीर चिरकाल तक छीला था तथा निरन्तर खारे जल से सींच-सींच कर वेदना-वृद्धि हेतु पंखों से हवा की थी॥१६५६॥ शामिः सूचिपि माछिसाखिल-विग्रहः । विगलद्रक्तधाराभिः, कर्दमी-कृत-भूतलः ॥१६५७।। अर्थ - वहाँ तुम्हारा सारा शरीर शक्ति नामक शस्त्र से, सुइयों से एवं तलवारों से छिन्न-भिन्न किया गया था जिससे तुम्हारे शरीर से निकलती हुई रक्त की बड़ी-बड़ी धाराओं ने वहाँ के सारे भूतल को कीचड़-युक्त कर दिया था।॥१६५७॥ प्रश्न - नारकियों के वैक्रियिक शरीर में रक्त एवं हड्डी आदि होते हैं क्या ? उत्तर - किसी भी वैक्रियिक शरीर में रक्त एवं हड्डी आदि सप्त धातुएँ नहीं होती हैं। वहाँ ये सब वस्तुएँ दुख देने की दृष्टि से विक्रिया द्वारा ही दर्शायी जाती हैं। यत् स्फुटल्लोचनो दग्धो, ज्वलिते वज्र-पावके। यच्छिन्न-हस्त-पादादिच्छिद्यमानास्थि-सञ्चयः ॥१६५८।। अर्थ - हे क्षपक ! आँखें फोड़ देने पर, जलती हुई वज्रमयी अग्नि से शरीर दग्ध कर देने पर, हाथपैर काट देने पर और हड्डियाँ तोड़ देने पर तुमने वहाँ जो दुख भोगे हैं उनका स्मरण करो ॥१६५८ ॥ शोषणे पेषणे कर्षणे घर्षणे, लोटने मोटने कुट्टने पाटने। त्रासने ताडणे मर्दने चूर्णने, छेदने भेदने तोदने यच्छ्रितः ॥१६५९॥ अर्थ - हे क्षपक ! नरकों में नारकी जीवों द्वारा शोषण करना, पीसना, कर्षण/कसना, घर्षण/घिसना, लुटाना, मोड़ना, कूटना, उपाड़ना, डराना, ताड़ना, मर्दन करना या मसलना, चूर्ण करना, छेदना, भेदना एवं पीड़ा, इन क्रियाओं से जो भयंकर दुख दिये गये हैं, उनका स्मरण करो॥१६५९ ॥ दुःकृतकर्म-विपाक-वशोत्थं, कालमपारमनन्तमसह्यम् । सोढमिदं हृदये कुरु सर्व, कातरतां विजहीहि सुबुद्धे ! ।।१६६०॥ इति श्वन-गतिः। अर्थ - हे क्षपकराज ! नरकों में तुमने अपार अर्थात् अनन्तानन्त काल में अनन्त काल तक पूर्वोपार्जित पाप कर्म के उदय से उत्पन्न अपार, अनन्त और असहय दुख सहन किये हैं। हे सुबुद्धे ! अब तुम उन सब भुक्त दुखों का हृदय में विचार करो एवं वर्तमान की किंचित् वेदना से आयी हुई इस कायरता को छोड़ दो, छोड़ दो॥१६६०॥ इस प्रकार क्षुधा-तृषा आदि की वेदना से आकुलित क्षपक को निर्यापकाचार्य ने नरकगति के दुखों का उपदेश देकर धैर्य दिलाया है। इस प्रकार नरकगति के दुःखों का वर्णन समाप्त हुआ। Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ४५९ तिर्यंचगति के दुखों का कथन जन्म-मृत्यु-जराकीणी, घोरां तिर्यग्गतिं गतः। किं तीव्रां बहुशो लब्धां, स्मरसि त्वं न वेदनाम् ।।१६६१॥ अर्थ - हे क्षपक ! नरक से निकल कर तुम घोर दुख देने वाली तिर्यंच गति में आये। यह तिर्यंच गति भी जन्म, मृत्यु एवं जरा आदि से आकीर्ण/भरी हुई है, वहाँ तुमने बहुत बार जो तीव्र वेदनाएँ भोगी हैं, इस समय उन वेदनाओं का स्मरण क्यों नहीं करते हो? ||१६६१॥ एकेन्द्रिय पर्यायजन्य दुख पञ्चधा स्थावरा जीवा, विमूढीभूत-चेतनाः। लभन्त यानि दुःखानि, कः शक्तस्तानि भाषितुम् ॥१६६२ ।। अर्थ - सुप्त है चेतना जिनकी ऐसे पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक एवं वनस्पतिकायिक के भेद वाले पाँच स्थावर कायों में जो-जो दुख तुमने भोगे हैं उनका वर्णन करने में कौन समर्थ है ? कोई भी नहीं ॥१६६२ ॥ प्रश्न - दुखों का स्मरण करने से क्या लाभ है? उत्तर - कितने ही प्रमादी मनुष्य अपने द्वारा उसी पर्याय में भोगे हुए दुख भी भूल जाते हैं फिर देखे हुए, सुने हुए, पढ़े हुए और दूसरों द्वारा भोगे हुए दुखों को भूल जाने में क्या आश्चर्य है ? अतः मनुष्यों द्वारा अनुभूत प्रमाद को दूर करने के लिए आचार्यदेव कहते हैं कि जिन दुखों का स्मरण करने से संसार से भय उत्पन्न करने वाला संवेग गुण प्रगट होता है और जिन्हें भूल जाने से अनेक दोष उत्पन्न हो जाते हैं ऐसे दुखों का सदा स्मरण करते रहना चाहिए। प्रश्न - एकेन्द्रिय जीवों को क्या दुख हैं? उत्तर - जो जंगम प्राणी हैं वे शीत में, वायु रहित स्थान में, गर्मी में तथा जलादि में भय उत्पन्न हो जाने पर आश्रयभूत निरापद स्थान पर जा सकते हैं और अपनी-अपनी भाषा के माध्यम से संकेत भी दे सकते हैं, किन्तु खेद है कि एकेन्द्रिय जीवों की ऐसी शक्ति नहीं है। जैसे मोक्ष के अभिलाषी विरागी मुनि सर्व उपसर्गों को बिना प्रतिक्रिया के मौनपूर्वक एक स्थान पर स्थिर रहकर सहन करते हैं। बेचारे एकेन्द्रिय जीव भी पराधीन होते हुए शीतोष्ण को आदि लेकर सर्व उपसर्ग बिना किसी प्रतिकार के सहन करते हैं, उनके दुखों को कह सकने का सामर्थ्य किसी में भी नहीं है। त्रस जीवों के भेद एवं दुख सदा परवशी-भूताश्चतुर्धा प्रसकायिकाः। दुःखं बहुविधं दीना, लभन्ते चिरमुल्वणम् ।।१६६३ ॥ अर्थ - द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय एवं पंचेन्द्रिय के भेद से त्रस जीव चार प्रकार के होते हैं। ये सदा पराधीन रहते हैं और दीन होकर चिरकाल तक बहुत प्रकार के उत्कट एवं घोर दुख भोगते हैं ॥१६६३ ।। Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ४६० प्रश्न - विकलत्रय जीव किस प्रकार के दुख भोगते हैं? उत्तर - जैसे जन्म से अन्धे, गूंगे एवं बहिरे बालक रक्षा एवं शरण से विहीन हो जाने पर विवश हो मार्गों में हाथी, घोड़े एवं रथादि सवारियों से कुचल कर मर जाते हैं, विकलेन्द्रिय जीवों की भी ऐसी ही दशा है । उनका दुख भी नारकियों के समान है, गृह, ग्राम एवं वन आदि में उन्हें कहीं भी कोई शरण नहीं है। सदा ही उनकी घोर मृत्यु होती रहती है। वे मार्ग में गाय-बैल आदि पशुओं से, सवारियों द्वारा कुचले जाते हैं। गाड़ी आदि के चक्कों से पिस जाते हैं, परस्पर एक दूसरे के मुखों द्वारा पीड़ित होकर वे दुखों तथा मृत्यु को प्राप्त होते हैं, सिर आदि भंग हो जाने पर, पैर आदि टूट जाने पर तथा रोगग्रस्त हो जाने पर बिना प्रतिकार के वे चिरकाल तक तड़फड़ाते रहते हैं। जो जल की एक बूंद में भी डूब जाते हैं, प्राणियों की श्वास वायु से भी पीड़ित हो उठते हैं एवं जरा सी भी गर्मी प्राप्त कर मर जाते हैं, उनकी क्या कथा कही जाय ? जैसे कोई स्वाधीन वयस्क पुरुष क्रीड़ासक्त हो, सरोवर में प्रवेश कर बहुत बार जल में डूबता एवं उतरता है, वैसे ही ये विकलत्रय जीव जन्म रूपी समुद्र के मध्य प्रवेश करके दुखरूपी कटुकजल पीते हुए एक अन्तर्मुहूर्त में अनेक बार जन्म लेते हैं और मरते हैं। जिनका ज्ञान अत्यल्प है, जिनका कोई रक्षक नहीं, जिन्हें भोजन-पान सहज उपलब्ध नहीं और उसके लिए विशेष पुरुषार्थ की सामर्थ्य नहीं उन्हें सुख कैसे हो सकता है ? माता का वियोग हो जाने पर भी मनुष्य को असह्य दुख होता है फिर जिनके माता ही नहीं, उनकी दुख-राशि का तो कहना ही क्या है ? इस प्रकार के और भी अनेक दुख विकलत्रय पर्याय में अनन्त बार परवशता से भोगे हैं। उस दुखराशि का शतांश दुख भी इस पर्याय में नहीं है अत: उन पर्यायों के अपरिमित एवं असह्य दुखों का चिन्तन कर हे क्षपक! समता धारण करने में ही तुम्हारा कल्याण है। ___ पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याय के दुख ताजने वाहने बन्धने त्रासने, नासिका-तोदने कर्णयो:कर्तने। लांछने दाहने दोहने हण्डने, पीडने मर्दने हिंसने शातने ॥१६६४॥ अर्थ - लकड़ी आदि से ताड़ना, बोझा लादना एवं गाड़ी आदि में जोतमा, रस्सी आदि से बाँधना, भय दिखाना, नाक में नकेल डालना, कान कतरना, शरीर की चमड़ी पर चिह्न बनाना, दाग लगाना, दुहना, कष्ट देना, यातनाएँ देना, मसल देना, मारना एवं छीलना, इत्यादि क्रियाओं द्वारा बैल, गधा, ऊँट एवं बकरा आदि पंचेन्द्रिय तिर्यंचों को भी नाना प्रकार के असह्य दुख भोगने पड़ते हैं ।।१६६४।। सलिल-मारुत-शीत-महातप-भ्रमण-भक्षण-पान-निरोधनैः। दमन-तोदन-गालन-भजन, जल-वियोजन भोजन-वर्जने ॥१६६५ ॥ अर्थ - वर्षाऋतु में जल से, शीत ऋतु में ठण्ड से, ग्रीष्म ऋतु में महान् आतप से एवं घुमाने और आहार-पान रोकने रूप अनेक क्रियाओं से अनेक कष्ट होते हैं। दमन अर्थात् इच्छित स्थान पर जाने से रोक देना, तोदन अर्थात् व्यथा पहुँचाना, पानी में गीले रहना, पेलना, पानी नहीं दिया जाना एवं घास आवि सामने होते हुए नहीं खाने देना, इस प्रकार के और भी अनेक कष्ट तिर्यंच जीवों को भोगने पड़ते हैं ।।१६६५ ।। Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ४६१ अत्राण-पतित: क्षोण्यां, निःप्रतीकार-विग्रहः । दुःसहा वेदनां सोढ्वा, बहुभिर्वासरैर्मृतः ।।१६६६ ।। अर्थ - जिन दीन पशुओं का कोई स्वामी नहीं होता अथवा स्वामी जिन अपंग या वृद्ध पशुओं को छोड़ देता है वे रक्षक विहीन पशु रोगादि हो जाने पर या चलने में असमर्थ हो जाने से कहीं भी जमीन पर या गड्ढे आदि में गिर जाने पर बिना औषधि-उपचार एवं रक्षण के वहीं पर पड़े-पड़े दुःसह वेदना सहन करते रहते हैं। बहुत समय के बाद वे बेचारे भूखे-प्यासे, दीन एवं अनाथ पशु मर जाते हैं ।।१६६६ ॥ क्षुत्तृष्णा-व्याधि-संहार-विह्वलीभूत-मानसः । यहुःखं बहुश: प्रामस्तत्सर्वं हृदये कुरु ॥१६६७॥ अर्थ - हे क्षपकराज ! अतीत काल में तिर्यंचगति में अनन्तबार भूख-प्यास, भयंकर रोग एवं मार-पीट से विह्वल होकर तुम्हारा मन जितना दुखी हुआ है उन सब दुखों को हृदय में धारण कर स्मरण करो॥१६६७ ।। तिर्यग्गति तीव्र-विचित्र-वेदनां, गतोजरा-जन्म-विपर्ययाकुलम्। दुःखासिकां यां गतवाननारतं, विचिन्तयेस्तामपहाय दीनताम् ।।१६६८ ॥ इति तिर्यग्गतिः॥ अर्थ - तिर्यंचगति को प्राप्त कर तुमने अत्यन्त तीव्र नाना प्रकार की वेदनाएँ भोगी हैं। जन्म, जरा, मरण आदि से आकुलित हो निरन्तर जिस दुखमय अवस्था को तुमने अतीतकाल में पाया था उसका बार-बार चिन्तन करो। हे क्षपकोत्तम! तुम दीनता का त्याग करो और अतीत में भोगे हुए कष्टों का ऐसा चिन्तन करो जिससे वर्तमान के क्षुधा-तृषादि जन्य अत्यल्प दुख सहन करने का साहस तुम्हें प्राप्त हो सके ।।१६६८ ।। प्रश्न - तिर्यंचगति में पंचेन्द्रिय तिर्यच और क्या-क्या दुख भोगते हैं ? उत्तर - पंचेन्द्रिय तिर्यंच परस्पर एक दूसरे से, पापी मनुष्यों से एवं भूख, प्यास एवं रोगादि से जो महा भयंकर दुख भोगते हैं उनकी कोई उपमा नहीं है। वे अपने बच्चों को भी खा जाते हैं। परस्पर एक दूसरे का घात करने के लिए प्रहार करते हैं, उसको मारने के लिए दूसरा कोई पशु उसके पीछे दौड़ता है, उसी समय कोई अन्य तीसरा पशु उसे मार देता है, धिक्कार है ऐसी पर्याय को, इससे भयानक और क्या हो सकता है ? जो एक दूसरे को मार कर ही जीना चाहते हैं; जो परस्पर में एक-दूसरे के भय से निश्चिंतता पूर्वक सो भी नहीं सकते वे भला सुखी कैसे रह सकते हैं ? वन में रहने वाले मृग तृण खाकर और जल पीकर अपनी सहचरी हिरणी के साथ प्रेम से रहते हैं किन्तु वे अपराध बिना ही व्याघ्र आदि द्वारा या शिकारियों द्वारा अनायास मार दिये जाते हैं। स्वभाव से पापी, दुर्गति से न डरने वाले तथा शिकार आदि हिंसक कार्यों से ही अपना हित मानने वाले मनुष्यों द्वारा और हिंसक पशुओं द्वारा अन्य पशु निरन्तर मारे जाते हैं, काटे जाते हैं, पेले जाते हैं, भूने जाते हैं, पकाये जाते हैं, घसीटे जाते हैं और नोच-नोच कर खाये जाते हैं। हाथी अंकुश आदि के भेदने से, घोड़े कोड़े आदि की मार से और बैल पैनी आरी आदि के घात से मरण पर्यन्त मनुष्यों का कार्य करते हैं। जंगल में लगी आग के वेग से जलते हुए अथवा महा जलसमूह के प्रबल प्रहार से बहाये जाते हुए मृग, सर्प, सरीसृप तथा पक्षी आदि बहुत से तिर्यंच जीव अनायास एक साथ मारे जाते हैं। इस प्रकार पंचेन्द्रिय तिर्यंचों के दुख कहने में कौन समर्थ है? - --+ ----- Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका जो बुद्धिमान हैं उनके वैराग्य उत्पन्न होने में और जो समाधिस्थ होकर भूख, ध्यास एवं रोगादि की आगत वेदना हैं उन्हें धैर्य या दृढ़ता उत्पन्न करने में जिसे यह जीव अनन्त बार भोग चुका है ऐसे ये तिर्यंच गति के दुखों का स्मरण या चिन्तन निमित्त है। या इस प्रकार तिर्यंचगति के दुखों का प्रकरण समाप्त हुआ । मनुष्यगति के दुख मानुषीं गतिमापद्य, यानि दुःखान्यनेकशः । त्वमवाप्तचिरं कालं तानि स्मर महामते ! ।।१६६९ ॥ - ४६२ अर्थ - हे महाबुद्धिमान् क्षपक ! तुमने मनुष्य गति में जन्म ले ले कर भी जिन महान् घोर दुखों को अनेक बार और बहुत समय तक भोगा था, उन दुखों का स्मरण करो || १६६९ ॥ - - अर्थ- प्रियजनों के वियोग का दुख, अप्रियजनों या अप्रिय वस्तुओं के समागम का दुख और प्रार्थित वस्तु आदि न मिलने पर तुम्हें जो मानसिक दुख हुआ था, उसका स्मरण करो ।। १६७० ॥ प्रश्न प्रिय और अप्रिय किसे कहते हैं ? उत्तर जिस व्यक्ति या वस्तु का नाम सुनने मात्र से सर्वांग रोमांचित हो जाता है, देखते ही नेत्र अमृतसिंचन सदृश शीतल हो जाते हैं और मन मयूर आह्लादित हो नाच उठता है उस व्यक्ति को या उस वस्तु को प्रिय कहते हैं। तथा जिस व्यक्ति या वस्तु के नाम श्रवण मात्र से मस्तक में शूल उत्पन्न हो जाता है, देखते ही नेत्र लाल होकर घूमने जैसे लगते हैं और मन उद्वेग से भर जाता है उसे अप्रिय जन या अप्रिय वस्तु कहते हैं। प्रियस्य विगमे दुःखमप्रियस्य समागमे । अलाभे याच्यमानस्य, सम्पन्नं मानसं स्मर ।। १६७० ॥ कर्कशे निष्ठुरे निःश्रवे भाषणे, तर्जने भर्त्सने ताडने पीडने ! अङ्कने दम्भने मुण्डने सेवने, बाधने वर्तने मर्दने छेदने ।। १६७१ ।। अर्थ - हे क्षपक ! मनुष्य पर्याय में भी तुमने स्वामी आदि के द्वारा कहे गये कठोर वचन, निष्ठुर वचन, नहीं सुनने योग्य भी गाली आदि के अयोग्य वचन सुने थे। उनके द्वारा तर्जना, भर्त्सना, ताड़ना एवं उनके द्वारा दी गई पीड़ा सहन की थी। रात्रि जागरण कर रोकड़ आदि मिलाना, दूसरों के द्वारा छले जाना, राजादि के द्वारा मुण्डन करा देना, धनाढ्यों की सेवा चाकरी करना, अपने इच्छित कार्यों में स्वामी आदि के द्वारा बाधा डालना, दूसरों के द्वारा किये जाने वाले निन्द्य बर्ताव सहन करना, कुपित मनुष्यों के द्वारा काँटों आदि पर सुलाकर घोर मर्दन करना एवं नाक, कान आदि का छेदन करना ये सब दुख तुमने अनेक बार सहन किये थे । १६७१ ।। दुःसहं किङ्करीभूतः करणे निन्द्य - कर्मणः । यदवापश्चिरं दुःखं, तन्निवेशय मानसे ।। १६७२ ।। अर्थ - दूसरों का किंकर होकर पराधीन हो चिरकाल तक निन्द्य कार्य किये और आयु पर्यन्त असह्य दुख सहे । हे क्षपकराज ! तुम इन सब दुखों का हृदय में विचार कर चिन्तन करो ॥१६७२ ॥ Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ४६३ भी-शोक-मान-मात्सर्य-रागद्वेष-मदादिभिः । तप्यमानो गतो दुःखं, पावकैरिव चिन्तय ॥१६७३ ।। अर्थ - आजीविका आदि की विकट समस्याओं में, परिवार के पालन-पोषण आदि में एवं धन-संरक्षण आदि में तुमने अनेक प्रकार के भय, शोक, अपमान, असहनशीलता, राग, द्वेष एवं मदादि से अग्नि में संतप्त हुए के समान जो दुख भोगे हैं, हे क्षपक ! तुम उन सबका चिन्तन करो ।।१६७३ ।। स्तेनाग्नि-जल-दायाद-पार्थिवैर्धन-विप्लवे। कशा-दण्डादिभिर्घाते, हस्त-पादादि-मर्दने ॥१६७४ ।। अर्थ - मनुष्य पर्याय में कष्ट पूर्वक संचित धन चुरा लिये जाने पर, दुकान-मकानादि में अग्नि लग जाने से, जलप्रवाह में बह जाने से साझेदार, भाई-बन्धु या राजा आदि के द्वारा धन नष्ट या हरण कर लेने से, किंकर अवस्था में कोड़ों की मार से और हाथ-पैर आदि अवयवों का मर्दन किये जाने से तुमने असह्य दुख भोगे हैं ||१६७४।। मूर्ध्नि प्रज्वालने वह्नर्भक्त-पानादि-रोधने। शृङ्खले रज्जुभिः काष्र्हस्त-पादादि-बन्धने ॥१६७५ ॥ अर्थ - मस्तक पर अग्नि जला देने से, भोजन-पान रोक देने से, सांकल, रस्सी या काष्ठ आदि द्वारा हाथ-पैर बाँध देने से अथवा पीछे हाथ करके बाँध देने से तुमने घोर कष्ट सहे हैं ।।१६७५ ॥ पराभवे तिरस्कारे, वृक्षशाखावलम्बने। व्याघ्र-सर्प-विषाराति-रोगादिभ्यो विपर्यये॥१६७६ ।। अर्थ - शत्रुओं द्वारा या भाई-बन्धुओं द्वारा पराभव हो जाने से, तिरस्कार हो जाने से, गर्दन में रस्सी बाँध कर वृक्ष-शाखा पर लटका दिये जाने से, व्याघ्र से, सर्प से, विषादि से, शत्रुओं से एवं रोगादि के निमित्त से तुमने असह्य दुखों का अनुभव किया है।।१६७६ ॥ जिह्वा-काष्ठ-नासाक्षि-पाणि-पादादि-कर्तने । शीत-वातातपोदन्या-बुभुक्षादि-कदर्थने ।।१६७७ ।। अर्थ - जिह्वा उपाड़ लेने से, कर्ण, ओष्ठ एवं नाक काट लेने से, नेत्र फोड़ देने से एवं हाथ-पैर काट देने से घोर दुख सहे। शीत अर्थात् ठण्ड, गरमी, वायु एवं भूख-प्यासादि के भी महान् कष्ट बार-बार भोगे हैं॥१६७७॥ शारीरं मानसं दुःखं, साधो ! प्राप्तमनेकशः। यहुःसहं त्वया नृत्वे, तत्वं चिन्तय यत्नतः ॥१६७८ ।। अर्थ - हे साधो ! मनुष्य पर्याय में भी शारीरिक एवं मानसिक अनेक प्रकार के दुःसह दुख तुमने अनेक बार भोगे हैं, इस समय तुम उन घोर दुखों का प्रयत्नपूर्वक तात्त्विक चिन्तन करो ।।१६७८ ।। गर्हितं दुरितकर्म-निर्मितं मानुषीं, गतिमुपेयुषा त्वया॥ दुःसहं चिरमवाप्तमूर्जितं, किं न चिन्तयसि तत्त्वतोऽसुखम् ।।१६७९ ॥ इति नृ-गतिः। Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ४६४ . अर्थ - मनुष्यगति प्राप्त होने पर तुमने गर्हित पाप कर्म किये, उससे अशुभ पापानब कर पापकर्म का बन्ध किया और उसके उदय में दुःसह एवं भयंकर दुख भोगे हैं। भो क्षपक ! तुम तत्त्वदृष्टि से उन दुखों का चिन्तन क्यों नहीं करते हो ? हे धीर ! तुम्हें मनुष्यगति सम्बन्धी सभी दुखों का चिन्तन अवश्य ही करना चाहिए जिससे वर्तमान में समाधिजन्य ये किंचित् कष्ट सहज ही सहन हो जायेंगे ।।१६७९ ।। इस प्रकार मनुष्यगति के दुखों का वर्णन समाप्त हुआ। देवगतिजन्य दुख देवत्वे मानसं दुःखं, घोरं कायिकतोऽङ्गिनः। पराधीनस्य बाह्यत्वं, नीयमानस्य जायते॥१६८०।। अर्थ - देवगति में यदि आभियोग्य जाति का देव हुआ तो पराधीन होकर इन्द्रादि देवों द्वारा वाहन बनाया गया, सवारी का रूप धारण कर अन्य ऋद्धिधारी देवों को यहाँ-वहाँ लाते-ले जाते समय जो मानसिक दुख होता था रह शारीरिक दुखों मे भाधिक होना था ।।१६८०॥ गुर्षी दृष्ट्वामरो मानी, महर्धिक-सुर-श्रियम्। तदा स श्रयते दुःखं, मान-भङ्गेन मानसम् ।।१६८१ ।। अर्थ - अभिमानी देव हुआ तो अन्य महर्धिक देवों को देखकर मानभंग की कल्पना से जो घोर मानसिक दुख भोगा था, उसका स्मरण करो।।१६८१॥ प्रश्न - महर्धिक देवों को देखकर मानभंग की कल्पना क्यों होती है ? उत्तर - जिन किल्विषादि नीच देवों के ऋद्धियाँ और वैभव कम तथा अभिमान अधिक होता है वे महर्धिक देवों को देख-देख कर स्वभावतः विचार करते रहते हैं कि देखो ! ये भी देव हैं और मैं भी देव हूँ किन्तु ये कितने ऋद्धिसम्पन्न हैं, मुझे तो इनके समक्ष नीचा ही देखना पड़ता है। अहो ! मैंने पूर्वभव में चारित्र का या रत्नत्रय का निर्दोष पालन नहीं किया जिसके फलस्वरूप देवों में उत्पन्न होकर भी मुझे अन्य देवों की दासता स्वीकार करनी पड़ रही है ? इस प्रकार के विचार उन्हें मानहानिजन्य असह्य भानसिक पीड़ा देते हैं। सुन्दरास्त्रिदिव-वासि-सुन्दरीर्मुञ्चतो विबुधभोग-सम्पदः । ध्यायतो भवति दुःखमुल्वणं, गर्भवास-वसतिं च निन्दिताम् ।।१६८२ ।। अर्थ - माला आदि मुरझा जाने से जब मृत्यु के पाश गले में आ पड़ने की सूचना प्राप्त हो जाती है तब उसे स्वर्ग का निवास, वहाँ के मनोहर और दिव्यभोग, विपुल-अनुपम सम्पदायें, दिव्य वस्त्रालंकार, दिव्य शरीर, अनुपम सुन्दर देवांगनाएँ एवं अप्सराएँ छोड़ने का तथा मल से भरे अतिशय निन्ध गर्भवास में नौ-दस मास पर्यन्त रहने का ध्यान आते ही अतिशय और अनिर्वचनीय मानसिक दुख होता है ।।१६८२ ।। पूर्वभवार्जित-दुष्कृत-जातं, उत्पन्न त्रिदशत्वमशस्तम् । दुःखमसयमपारमवाप्तं, चिन्तय भद्र विमुच्य विषादम् ॥१६८३॥ इति देवगतिः। Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ४६५ अर्थ - हे भद्र क्षपकराज ! पूर्वभव में उपार्जित पापोदय से उत्पन्न असह्य मानसिक दुखों की कारणभूत देव पर्याय से च्युत होते समय जीव को दिव्य देवत्व भी अप्रशस्त प्रतीत होने लगता है। हे कल्याणेच्छु! इस प्रकार तुमने संसार में सर्वत्र ही अपार दुख प्राप्त किये हैं। अब विषाद छोड़ो, अतीत के समस्त दुखों का चिन्तन करो और मन की समाधानता पूर्वक ग्रहण की हुई सल्लेखना में दृढ़ता पूर्वक संलग्न हो जाओ ॥१६८३ ।। इस प्रकार देवगतिजन्य दुखों का वर्णन समाप्त हुआ। सल्लेखनागत दुख शान्तिपूर्वक सहन करने का निर्देश दुर्गतौ यत्त्वया प्राप्तमेवं दुःखमनेकशः। न तस्यानन्त-भावोऽपि, भद्र ! दुःखमिदं स्फुटम् ।।१६८४॥ अर्थ - हे भद्र ! इस प्रकार तुमने चारों गतियों में जो अनेक प्रकार के दुख भोगे हैं उन दुखों की अपेक्षा समाधिमरण में भूख, प्यास एवं रोगादि की तुम्हारी यह वेदना तो उसके अनन्तभाग प्रमाण भी नहीं है॥१६८४ ।। संख्यातमप्यसंख्यातं, कालमध्यास्य तादृशम्। अल्पकालमिदं दुःखं, सहमानस्य का व्यथा ।।१६८५॥ अर्थ - हे क्षपक ! तुमने अतीत में संख्यात और असंख्यात वर्ष प्रमाण काल में निरन्तर भयंकर दुःख सहन किये थे तब अब बहुत थोड़े से काल का यह किंचित्सा दुख सहते हुए क्या व्यथा मानना? अर्थात् यह थोड़ा सा दुख क्यों सहन नहीं कर पा रहे हो ? क्यों आकुलता करते हो? ।।१६८५ ।। अवशेन त्वया सोढास्तादृश्यो वेदना यदि । किं सदा धर्मबुद्ध्येयं, स्व-वशेन न सह्यते ॥१६८६ ॥ अर्थ - यदि तुमने परवशता से वैसी महावेदनाएँ सहन की थीं, तब इस समय धर्मबुद्धि से स्वाधीनता पूर्वक यह अल्पसा दुख क्यों नहीं सहन करते हो? अर्थात यह भूखादि की वेदना तो समतापूर्वक सहन करनी चाहिए ।।१६८६॥ संसारे भ्रमतस्तृष्णा, दुरन्ता या तवाभवत् । न सा शमयितुं शक्या, सर्वाम्भोधि-जलैरपि ।।१६८७ ।। बुभुक्षा तादृशी जाता, संसारे सरतस्तव। न शक्या यादृशी हन्तुं, सर्व-पुद्गल-राशिना ॥१६८८॥ अर्थ - हे क्षपक ! संसार-भ्रमण करते हुए तुम्हें प्यास की ऐसी दुरन्त वेदना उत्पन्न हुई थी जिसका शमन करने के लिए सर्व समुद्रों का जल भी समर्थ नहीं था। उसी प्रकार चिरकाल से संसार-परिभ्रमण करने वाले तुम्हें भूख की ऐसी वेदना अनन्त बार हुई थी कि जिसका शमन करने के लिए समस्त पुद्गल राशि भी समर्थ नहीं थी।१६८७-१६८८।। सोदवा तृष्णा-बुभुक्षे ते, त्वं नेमे सहसे कथम् । स्व-वशे धर्म-वृद्ध्यर्थमल्पकाले महामते ! ॥१६८९॥ । - - - .--- Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ४६६ अर्थ - हे महामते ! यदि तुमने परवश होकर वैसी भूख-प्यास की घोर एवं असह्य वेदना सही है तो अब रत्नत्रयधर्म की वृद्धि या रक्षण के लिए अल्प काल की यह किंचित् वेदना स्वेच्छा पूर्वक क्यों सहन नहीं करते हो ? ||१६८९ ॥ समुद्रो लङ्यितो येन, मकरग्राह-सङ्कुलः। गोष्पदं लङ्वतस्तस्य, न खेदः कोऽपि विद्यते ।।१६९०॥ अर्थ - देखो ! जिसने मकर-मत्स्यादि भयावह जलचर जीवों से व्याप्त समुद्र पारकर लिया है उसे गोष्पद प्रमाण जल का उल्लंघन करने में कुछ भी खेद नहीं होता है।।१६९० ॥ प्रश्न - इस दृष्टान्त का क्या प्रयोजन है ? उत्तर - इस दृष्टान्त का यह प्रयोजन है कि हे क्षपक ! जब तुम नरकादि दुर्गतियों में सागरों पर्यन्त सागर के समान ही विशाल भूख-प्यास की दुरन्त वेदनाएँ अनेक बार सहन कर चुके हो तो अब समाधिकाल के शुभ समय में स्वयं आमन्त्रित अल्पकालीन गोपदसदृश इस भूख-प्यास की वेदना को शान्तिपूर्वक सहन क्यों नहीं कर रहे हो ? क्यों चिल्लाते हो, क्यों संक्लेशित होते हो तथा दीनता दिखाकर या रो-रोकर क्यों धर्म को लजाते हो? श्रुति-पानक-शिक्षान-श्रुत:ध्यानौषधैर्यते। वेदनानुगृहीतेन, सोढुं तीव्रापि शक्यते ॥१६९१ ।। अर्थ - हे मुने ! इस समय तुम भूख, प्यास एवं रोग से आक्रान्त होकर आकुलित हो रहे हो अत: हम उपदेश रूपी अमृतमयी पेय पिलाकर शिक्षा रूपी भोजन खिलाकर एवं सूत्रार्थ की ध्यान रूपी औषधि का प्रयोग कर तुम्हारा अनुग्रह कर रहे हैं, इस भोजन-पान तथा औषधि से तुम इससे तीव्र भी वेदना सहन करने में समर्थ हो जाओगे ॥१६९१॥ पीडानामुपकारस्य, सोपकारस्य चोदिता। नाभीतस्य न भीतस्य, जन्तोर्नश्यति कर्मणि ॥१६९२ ।। अर्थ - असातावेदनीय कर्म की उदीरणा से प्रेरित होकर जो वेदना उत्पन्न हो गई है, वह डरो या न डरो, प्रतिकार करो या न करो वह तो अब बिना भोगे नष्ट नहीं हो सकती है अर्थात् उदयागत वेदना तो अवश्यमेव भोगनी पड़ेगी॥१६९२।। औषधानि सवीर्याणि, प्रयुक्तान्यपि यत्नतः। पापकर्मोदये पुंसः शमयन्ति न वेदनाम् ।।१६९३ ।। अर्थ - जब मनुष्य के तीव्र पापकर्म का उदय होता है तब अतिशय शक्तिशाली, बड़े यत्न एवं विधिविधान पूर्वक प्रयुक्त हुई औषधियाँ भी वेदना को शान्त नहीं करती हैं ।।१६९३ ।। असंयम-प्रवृत्तानां, पार्थिवादि-कुटुम्बिनाम् । पीडा धन्वन्तरिः शक्तो, निराकर्तुं न कर्मजाम् ॥१६९४ ।। Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकपिडका - ४६७ दयालोः सर्व-जीवानामौषधेन व्यथा-शमम्। प्रार्थनाप्नेन किं साधोः, प्रासुकेन करिष्यति ।।१६९५ ॥ अर्थ - जो राजा आदि असंयमी हैं, बहुत कुटुम्बादि परिचारकों से युक्त हैं, प्रचुर सम्पत्तिवान् हैं एवं धन्वन्तरि जैसे वैद्य जिनके उपचारक हैं, तीव्र कर्मोदय के कारण जब उनके रोगों का या पीड़ा का भी शमन करने में कोई समर्थ नहीं है, तब जो निर्यापकाचार्य सब जीवों पर दया करने वाले हैं अर्थात् संयमी हैं वे याचना से प्राप्त प्रासुक औषधियों द्वारा क्षपक की वेदना का शमन कैसे कर सकेंगे ? ॥१६९४-१६९५ ।। प्रश्न - यहाँ राजा आदि का दृष्टान्त क्यों दिया गया है ? उत्तर - रोग की अत्यन्त पीड़ा से आकुलित कोई क्षपक ऐसा विचार करे कि इस समय यदि मैं राजा या मन्त्री होता और असंयमी होता तो इतना कष्ट न भोगना पड़ता, मैं धन्वन्तरि आदि उत्तम वैद्यों की जिस किसी प्रकार की भी औषधियों का प्रयोग करके ठीक हो जाता । उसे आचार्यदेव समझा रहे हैं कि राजा आदि अतिशय धनवान होते हैं, मन्त्री एवं राजकुमार आदि उनके पुत्र शुश्रूषा करने में सदा तत्पर रहते हैं, धन्वन्तरि जैसे उत्तम वैद्य उनके रोग का निदान करते हैं, अति बहुमूल्य औषधियों का प्रयोग करने में समर्थ हैं एवं संयम या प्रासुकता की सीमा से बहुत दूर हैं। अर्थात् असंयमवर्धक अप्रासुक औषधियों का भी प्रयोग कर लेते हैं तथा जो दिन में कई बार औषधि ले रहे हैं; जब पापकर्म की प्रबलता के कारण उनकी वेदना का भी शमन नहीं हो पाता है तब जो दयालु हैं, सर्व परिग्रह के त्यागी हैं, वैद्य आदि की खोज में कहीं जा-आ नहीं सकते है, उपचारक भी अल्प से अल्प हैं और जो भी हैं वे सब भी संयम-रक्षण की डोर से बंधे हैं, अप्रासुक औषधि के त्यागी हैं तथा औषधियाँ प्राप्त करने में असमर्थ हैं और औषधि भी दिन में एक बार से अधिक नहीं दे सकते हैं वे निर्यापकाचार्य पापोदय से प्रेरित तुम्हारी तीव्र वेदना का तत्काल शमन करने में कैसे समर्थ हो सकते हैं ? संयतस्य वरं साधोर्मरणं मोक्ष-कांक्षिणः। वेदनोपशमं कर्तुं, नाप्रासुक-निषेवणम् ॥१६९६ ॥ __ अर्थ - हे क्षपक ! मोक्ष के इच्छुक संयमी साधु का मरण हो जाना श्रेष्ठ है, किन्तु वेदना की शान्ति के लिए अप्रासुक एवं अयोग्य औषधि का सेवन करना योग्य नहीं है ।।१६९६ ।। एकत्र निधनं नाशो, न तु भाविषु जन्मसु। असंयमः पुनर्नाशं, दत्ते बहुषु जन्मसु॥१६९७ ।। अर्थ - प्रासुक औषधि के अभाव में संयम की रक्षा करते हुए यदि मरण होता है तो उससे एक ही भव का विनाश है, भावी जन्मों का नाश नहीं है, किन्तु अप्राप्सुक औषधि अथवा पीडाजन्य शोकादि से प्राप्त असंयम तो भविष्य के अनेक जन्मों का नाश कर देता है॥१६९७॥ प्रश्न - प्रासुक औषधि प्राप्त न हो रही हो अथवा औषधि एवं उपचार का प्रयोग करते हुए भी यदि पीड़ा शमित न हो रही हो तो पीड़ित साधु को क्या करना चाहिए ? उत्तर - असह्य पीड़ा होने पर भी साधु को शोक या व्याकुलता नहीं करना चाहिए; क्योंकि दुख, शोक, Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ४६८ पश्चाताप, रुदन, वध और हृदय को व्यथित करने वाला रुदन स्वयं करे या दूसरे के रुदन आदि में निमित्त बने या ये दोनों करे तो असातावेदनीय कर्म का क्रमश: तीव्र, तीव्रतर और तीव्रतम आस्रव होता है जो पीड़ा आदि की वृद्धि में ही कारण बनता है। अधिक व्याकुलता जीव को असंयमी बना देती है और असंयम असातावेदनीय के अनुभाग को बढ़ाता रहता है, अतः पीड़ित साधु को पीड़ा, भूख एवं प्यास आदि की वेदना से उपयोग हटा कर अपने संयम को दृढ़ रखते हुए रत्नत्रय की भावना भानी चाहिए क्योंकि जो संयमी रत्नत्रय की भावना में तत्पर रहते हैं, वेदना उनका पीछा नहीं करती अपितु रत्नत्रय की भावना असाता के उदय को मन्द-मन्द ही करती है। कांक्षन्तोऽपि न जीवस्य, पाप-कर्मोदये क्षमाः । वेदनोपशमं कर्तुं, त्रिदशा: सपुरन्दराः ॥१६९८ ।। अर्थ - जीव के पाप कर्म का उदय आ जाने पर स्वर्गस्थ सब देवों सहित चाहते हुए अर्थात् इच्छा करते हुए भी इन्द्र मनुष्य की पीड़ा को दूर करने में अथवा उसे सुखी करने में समर्थ नहीं होता है ।।१६९८ ।। उदीर्ण-कर्मण: पीडा, शमयिष्यति किं परः। अभग्नो दन्तिना वृक्षः, शशकेन न भज्यते ॥१६९९ ।। अर्थ - असातावेदनीय कर्म के उदय से होने वाली पीड़ा को रोकने में जब इन्द्रादि भी असमर्थ हैं तब अन्य साधारण पुरुष क्या उसका शमन कर सकते हैं ? जिस वृक्ष को तोड़ने में महाबलशाली हाथी भी असमर्थ है उसे बेचारा कमजोर खरगोश नहीं तोड़ सकता अर्थात् नहीं गिरा सकता ।।१६९९ ।। कर्माण्युदीर्यमाणानि, स्वकीये समये सति । प्रतिषेधुं न शक्यन्ते, नक्षत्राणीव केनचित् ।।१७०० ।। अर्थ - जैसे यथासमय उदित होने वाले नक्षत्रों का उदय रोकना अशक्य है, वैसे ही अपने-अपने समय पर या स्थिति पूर्ण हो जाने पर उदय में आने वाले कर्मों को रोकना अति अशक्य है॥१७०० ॥ ये शक्राः पतनं शक्ता, न धारयितुमात्मनः । ते परित्रां करिष्यन्ति, परस्य पततः कथम् ॥१७०१ ।। अर्थ - दिव्य एवं विक्रिया शक्ति सम्पन्न इन्द्र, आयु पूर्ण हो जाने पर जब स्वयं अपने आप को वहाँ से च्युत होते नहीं रोक सकते तब कर्मोदय से ग्रसित व्यक्तियों की अधवा गिरते हुए अन्य व्यक्तियों की रक्षा कैसे कर सकते हैं ? अर्थात् नहीं कर सकते ॥१७०१ ॥ तरसा येन नीयन्ते, कुज्जरा मद-मन्थराः। शशकानामसाराणां, तत्र स्रोतसि का स्थितिः ॥१७०२ ।। अर्थ - जिस जलप्रवाह में मदोन्मत्त अर्थात् महाबली, महापराक्रमी और विशालकाय हाथी बह जाते हैं तब उस जलप्रवाह में कमजोर खरगोशों की क्या स्थिति हो सकती है ? ||१७०२ ।। त्रिदशा येन पात्यन्ते, विक्रिया-बलशालिनः । नायासो विद्यते तस्य, कर्मणोऽन्य-निपातने ॥१७०३।। Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका ४६९ अर्थ- जो कर्मोदय (देवायु की पूर्णता और मनुष्य या निर्यचायुका उदय) विक्रियाशक्ति सम्पन्न देवों को भी स्वर्ग से गिरा देता है, उस कर्मोदय को अन्य सामान्य मनुष्यादि को गिरा देने में या दुखी करने में परिश्रम नहीं होसकता ||१७०३ ॥ कर्मणा पततीन्द्रे तु परस्य क्व व्यवस्थिति: । पतति वातेन शुष्क र निति ॥ १७०४ ॥ अर्थ - जिस वायु से मेरु सदृश पर्वतों का भी पतन हो जाता है उस वायु के सामने सूखा पत्ता कैसे ठहर सकता है ? इसी प्रकार जो कर्म शक्तिशाली इन्द्र को भी गिरा देता है अर्थात् दुखी कर देता है उसके सामने अन्य की अर्थात् तुम्हारे जैसे क्षीण-बली एवं मरणोन्मुख मनुष्य की क्या स्थिति या गिनती है ? || १७०४ ॥ बलीयेभ्यः समस्तेभ्यो, बलीयः कर्म निश्चितम् । तद्बलीयांसि मृद्नाति, कमलानीव कुञ्जरः ।। १७०५ ।। अर्थ - जगत् में जितने बलशाली पदार्थ हैं उन सब में सर्वाधिक बलवान् कर्म है। जैसे हाथी कमलों को मसल देता है या निगल जाता है, वैसे ही कर्म सभी बलवान् पदार्थों को अर्थात् कोट, प्राकार, खाई, द्रव्य, ज्ञान, सेना एवं परिवार आदि सर्वबलों 'नष्ट कर देता है ॥ १७०५ ॥ कर्मोदयमिति ज्ञात्वा दुर्निवारं सुरैरपि । मा कार्षीर्मानसे दुःखमुदीर्णे सति कर्मणि ।।१७०६ ॥ अर्थ - कर्मोदय दुर्निवार है, वह देवों द्वारा भी रोका नहीं जा सकता, ऐसा जान कर हे क्षपक ! आये हुए इस कर्मोदय में तुम मन में दुख मत करो अर्थात् आगत पीड़ा को शान्तिपूर्वक सहन करो || १७०६ || विषादे रोदने शोके, संक्लेशे विहिते सति । न पीडोपशमं याति, न विशेषं प्रपद्यते ॥ १७०७ ॥ अर्थ - विषाद करने पर, रोने पर, शोक करने पर तथा संक्लेश करने पर भी पीड़ा शान्त नहीं होती और उसमें कोई विशेषता भी नहीं आती है ।। १७०७ ॥ नान्योऽपि लभ्यते कोऽपि संक्लेश-करणे गुणः । केवलं बध्यते कर्म, तिर्यग्गति - निबन्धनम् ॥ १७०८ ।। अर्थ - हे क्षपक ! संक्लेश आदि करने से तुम्हें कोई विशिष्ट गुण प्राप्त होने वाले नहीं हैं अपितु तिर्यंचगति का कारणभूत कर्मबंध ही होगा || १७०८ ॥ प्रश्न संक्लेश आदि करने से कौनसे लाभ नहीं होंगे ? और तिर्येच गति का बन्ध क्यों होगा ? उत्तर- बुद्धिमान मनुष्य वही कार्य प्रारम्भ करते हैं जिसमें उन्हें कोई लाभ होता है। मुमुक्षु क्षपक यदि दुख, शोक या संक्लेश आदि करता है तो उसे कोई भी लाभ नहीं होता, कारण रोने, चिल्लाने से रोगजन्य पीड़ा का शमन नहीं होता, भूख-प्यास के कारण विषाद करने से भी निर्यापकाचार्य असमय में, अयोग्य एवं त्याग किये Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ४७० हुए पदार्थों को तो कदापि देते नहीं फिर विषादादि से क्या लाभ । संक्लेश परिणामों से अमनोज्ञ-विप्रयोग नामक आर्तध्यान अर्थात् अनिष्ट पदार्थों के दूर होने का चिन्तन होता है। अथवा मेरा रोग कब दूर होगा? कौन सा उपाय करूँ? इसकी औषधि कहाँ मिलेगी? इत्यादि चिन्तन या प्रलाप करने से पीड़ा-चिन्तन नामक आर्तध्यान उत्पन्न होगा। अथवा परिचारक अनुकूल वृत्ति वाले होने चाहिए, अमुक साधु मेरे पास नहीं आते हैं वे मेरे मन के अनुकूल आहार-पान एवं औषधादि देते हैं अतः उन्हें मेरे पास से नहीं हटना चाहिए, इत्यादि चिन्तन से इष्ट वियोगज आर्तध्यान होगा। ये सब आर्तध्यान तिर्यंचायु का बन्ध कराने वाले हैं, अत: तुम अपना परिणाम सम्हालो, समता परिणाम रखो अन्यथा वर्तमान में समाधिजन्य थोड़े से दुख में घबराने वाले या डरने वाले आपको यह संक्लेश परिणाम तिर्यंचगति रूपी ऐसी भंवर में डाल देगा जिससे निकलना बहुत ही कठिन है और जहाँ के दुख अनिर्वचनीय हैं। संक्लेश निरर्थक ही होता है हतं मुष्टिभिराकाश, विहितं तुव-खण्डनम् ! सलिलं मथितं तेन, संक्लेशो येन सेषितः ।।१७०९॥ अर्थ - जैसे मुट्ठियों से आकाश को मारना, चावल के लिए तुष या छिलकों को कूटना तथा घी के लिए जल का मन्धन करना निरर्थक है वैसे ही भूख, प्यास या रोगादि की पीड़ा होने पर संक्लेश करना निरर्थक है, कारण कि संक्लेश परिणाम किसी भी प्रकार की वेदना का शमन करने में समर्थ नहीं हैं ॥१७०९ ॥ पूर्व भुक्तं स्वयं द्रव्यं, काले न्यायेन तत्स्वयम्। अधर्मणस्य कि दुःखमुत्तमाय यच्छतः ।।१७१०॥ अर्थ - जैसे कोई साहूकार से कर्ज लेकर उसका उपभोग करता है, उचित काल व्यतीत हो जाने पर जब वह लाया हुआ धन ब्याज सहित साहूकार को देता है तब अर्थात् देते समय क्या उसे दुख होता है ? नहीं होता, क्योंकि 'लाया हुआ कर्ज समय पर देना' यह न्याय है। इसे वह कर्जदार भली प्रकार जानता है ।।१७१०॥ कृतस्य कर्मण: पूर्व, स्वयं पाकमुपेयुषः । विकारं बुध्यमानस्य, कस्य दुःखायते मनः ॥१७११॥ __ अर्थ - यह दुख मेरे पूर्व में किये गये कर्मों का ही फल है, ऐसा जानो। भला, अपने किये कर्मविपाक को ऋणमुक्ति के समान भोगते हुए किस मनुष्य का मन दुखित होगा ? ॥१७११॥ पूर्व-कर्मागतासात, सहस्व त्वं महामते ! ऋण-मोक्षमिव ज्ञात्वा, मा भूर्मनसि दुः खितः ।।१७१२ ॥ अर्थ - हे महामते ! पूर्व जन्म में बाँधा हुआ तुम्हारा ही असाता कर्म उदय में आया है। यह तुम्हारा पूर्वकृत ऋण उतर रहा है। ऐसा विचार कर तुम इस पीड़ा को शान्तिपूर्वक सहन करो, मन में दुखी मत होओ॥१७१२॥ Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ४७१ स्वयं पुराकृतं कर्म ममाद्य फलितं स्फुटम् । दोषो नैवान कस्यापि, मत्वा दुःखासिकां त्यज ॥१७१३॥ अर्थ - भो यते ! तुम इस अल्प से पीडाजन्य दुख को छोड़ दो और विचार करो कि मैंने स्वयं ने पूर्वभवों में ऐसे असाताकर्म का बन्ध किया था, उसके उदय में आज स्पष्ट रूप से यह दुख रूप फल मिल रहा है, इसमें अन्य किसी का दोष नहीं है ।।१७१३॥ अभूतपूर्वमन्येषामात्मनो यदि जायते। तदा दुःखासिका कर्तुं मानसे युज्यते तव ॥१७१४ ।। अवश्यमेव दातव्यं, काले न्यायेन यच्छतः । सर्वसाधारणं दण्डं, दुःखं कस्य मनीषिणः॥१७१५॥ अर्थ - भो मुने यदि यह दुख पूर्व में दूसरों को कभी नहीं हुआ हो केवल तुम्हें ही यह अभूतपूर्व दुख हो रहा हो तब तो तुम्हारा मन में इतना दुखी होना युक्त भी है, किन्तु वेदनाजन्य ये पीड़ाएँ अथवा ये दुख सर्वजीवों को भोगना एक सर्वसाधारण बात है। जैसे दण्ड या टैक्स या कर यथासमय अवश्यमेव देना ही न्याय है, उस कर को देते किस बुद्धिमान को दुख होगा ? वैसे ही पूर्वकृत कर्मों का फल सभी को भोगना सर्वसाधारण बात है, टैक्स देने के समान उसे भोगते समय किस बुद्धिमान को दुख होगा? अपितु नहीं होगा ।।१७१४-१७१५ ।। सर्व-साधारणं दुःखं, दुर्निवारमुपागतम्। सहमानो मुने ! माभूर्दुःखितस्त्वं भज स्मृतिम् ॥१७१६॥ ___ अर्थ - भो मुने ! कर्मोदय से प्राप्त यह दुख सर्व साधारण है और दुर्निवार है, अतः इसे भोगते हुए दुख मत करो। तुम शीघ्र ही अपने पद की अर्थात् अपने स्वरूप की स्मृति करो और धैर्य धारण करो ॥१७१६ ।। साक्षी-कृत्य गृहीतस्य, पञ्चापि परमेष्ठिनः। संयतस्य वरं मृत्युः, प्रत्याख्यानस्य भङ्गतः ।।१७१७ ॥ अर्थ - भो क्षपक ! पंच परमेष्ठी (तनिवासी देव और सर्व संघ) की साक्षी पूर्वक ग्रहण किये हुए प्रत्याख्यान को अर्थात् आहार-जल त्याग की प्रतिज्ञा को भंग करने की अपेक्षा तो तुम्हें मरण कर लेना अर्थात् तुम्हारा मरण हो जाना ही श्रेष्ठ है ||१७१७।। अप्रमाणयता तेन, न्यक्कृताः परमेष्ठिनः। कार्यान्निवर्तमानेन, साक्षी-कृत-नृपा इव ।।१७१८॥ अर्थ - जैसे राजा को साक्षी बना कर किये गये कार्य की प्रतिज्ञा में विसंवाद या आनाकानी करने वाला पुरुष राजा की अवज्ञा करने का दोषी होता है, वैसे ही पंच परमेष्ठियों की साक्षीपूर्वक-स्वीकार किये गये आहारजलादि के प्रत्याख्यान को अर्थात् प्रतिज्ञा को भंग करने वाला अरहन्तादि को प्रमाण न मानने से उनकी अवज्ञा का दोषी होता है|१७१८॥ Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ४७२ प्रमाणी-कुरुते भक्तो, यो योगी परमेष्ठिनः । तत्साक्षीकमसौ जातु, प्रत्याख्यानं न मुञ्चति ।। १७१९॥ अर्थ - जो योगी पंचपरमेष्ठी का सच्चा भक्त है और उन्हें प्रमाणभूत मानता है, वह कभी उनकी साक्षी में लिये हुए प्रत्याख्यान को अर्थात् प्रतिज्ञा को कभी नहीं छोड़ता है॥१७१९।। साक्षी-कृत्य पराभूता:, कुर्वतो परमेष्ठिनः। पुनः सद्यो महादोष, भूमिपाला इव स्फुटम् ।।१७२० ॥ अर्थ - जैसे राजा को साक्षी बनाकर फिर उनकी अवज्ञा करना मनुष्य को महादोष का भागी बनाता है, वैसे ही पंच परमेष्ठी की साक्षी में आहार-जलादि के त्याग की प्रतिज्ञा लेकर उस प्रतिज्ञा का तिरस्कार करना ही परमेष्ठियों की आसादना है। इस आसादना से उस साधु को तत्काल घोर पाप का बंध कराने वाला महादोष लगता है।।१७२० ॥ सङ्ग-तीर्थकराचार्य-श्रुताधिक-महर्द्धिकान् । पराभवति योगी च, स पराञ्चिकमञ्चति ।।१७२१॥ अर्थ - संघ, तीर्थंकर, आचार्य, उपाध्याय एवं महान् ऋद्धिधारी मुनिराजों की आसादना या तिरस्कार करने वाला साधु पारंचिक नामक प्रायश्चित्त का भागी होता है। अर्थात् उस साधु की शुद्धि पारंचिक प्रायश्चित्त द्वारा ही होती है, अन्य से नहीं ॥१७२१॥ तिरस्कृता नृपाः सन्त:, साक्षित्वेऽस्य शरीरिणः । एकत्र ददते दुःखं, जिनेन्द्रा भष-कोटिषु ।।१७२२ ।। अर्थ - साक्षी बनाये गये उस राजा की आसादना या तिरस्कार से तो जीवों को राजा द्वारा दण्डित आदि होने का दुख केवल उसी एक भव में होता है, किन्तु जिनेन्द्रदेवादि की आसादना से अर्थात् उनकी साक्षी में ली हुई प्रतिज्ञा को भंग कर उनका तिरस्कार करने से कोटि-कोटि भवों में महान् दुख भोगना पड़ता है ।।१७२२ ।। मोक्षाभिलाषिण: साधोर्मरणं शरणं वरम्। प्रत्याख्यानस्य न त्यागो, जिन-सिद्धादि-साक्षिणः ॥१७२३ ॥ एकत्र कुरुते दोषं, मरणं न भवान्तरे। व्रत-भङ्गः पुनर्जातो, भवानां कोटि-कोटिषु ।।१७२४ ।। अर्थ - मोक्षाभिलाषी संयमी को मरण की शरण लेना श्रेष्ठ है किन्तु अरहन्त एवं सिद्धादि परमेष्ठियों की साक्षी करके लिये गये त्याग का भंग करना श्रेष्ठ नहीं है, क्योंकि मरण एक भव का ही विनाश करता है उससे आगे के भवों का विनाश नहीं होता किन्तु व्रत का भंग कर दिया जाय तो कोटि-कोटि भवों में दोष होता है। अर्थात् अनन्त भवों तक दुर्गतिजन्य दुख भोगने पड़ते हैं ।।१७२३-२४॥ प्रत्याख्यानमनादाय, म्रियमाणस्य देहिनः। न तथा जायते दोष: प्रत्याख्यात्यजने यथा ।।१७२५ ॥ Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ४७३ अर्थ - त्याग ग्रहण किये बिना मनुष्यों के मर जाने पर इतना दोष नहीं होता जितना महादोष त्याग लेकर उसका भंग करने पर होता है॥१७२५ ॥ प्रश्न - इस श्लोक का क्या अभिप्राय है ? उत्तर - इसका अभिप्राय यह है कि आहार के त्याग की प्रतिज्ञा किये बिना जो साधु मरण करते हैं उनके जलादिका त्याग तो नहीं हो पाता किन्तु व्रतभंग के परिणामरूप संक्लेश नहीं होता अत: वह महान् दोष का भागी नहीं होता किन्तु आहार-जल के त्याग की प्रतिज्ञा लेने के बाद यदि भूख-प्यास की वेदना उत्पन्न हो जाती है और उसे क्षपक सहन नहीं कर पाता तब उसके मन में प्रतिज्ञाभंग करने रूप तीव्र संक्लेश रूप परिणाम उत्पन्न हो जाते हैं या वह उस प्रतिज्ञा को तोड़ देता है तब वह महादोष का भागी होता है। हिनस्ति देहिनोऽन्नार्थ, भाषते वितथं वचः । परस्य हरते द्रव्यं, स्वीकरोति परिग्रहम् ।।१७२६ ।। रत्नत्रयं जगत्सारमाहारार्थ विमुञ्चति । निस्त्रपो भुवन-ख्यातं. मलिनी-कुरुते कुस्म।१७ !! अर्थ - जैसे संसारी प्राणी भोजन के लिए जीवों का घात करता है, झूठ वचन बोलता है, दूसरों का धन चुराता है और परिग्रह का संचय करता है, वैसे ही निर्लज्ज साधु आहार के लिए जगत् में सार-भूत अपने रत्नत्रय को छोड़ देता है और अपने जगत् विख्यात कुल को मलिन कर देता है।।१७२६-१७२७ ।। प्रश्न - प्रतिज्ञा भंग करने से रत्नत्रय का नाश कैसे होता है और जगत्-विख्यात कुल कौन सा है ? उत्तर - परमेष्ठी की साक्षी में आहार-जल का त्याग कर यदि आहारादि ग्रहण कर लेता है तो परमेष्ठी के प्रति उस साधु की श्रद्धा के भाव नष्ट हुए, हिताहित का ज्ञान नष्ट हुआ और प्रतिज्ञा भंग कर देने से चारित्र भी नष्ट हुआ। इस प्रकार प्रतिज्ञा भंग करते ही साधु रत्नत्रय से भ्रष्ट हो जाता है। दीक्षा का कुल तो अर्हन्त देव का कुल है, या आचार्य परम्परा का कुल है, या संघ ही साधु का कुल है अत: दीक्षा का कुल तो जगत् विख्यात कुल ही कहा जाता है और आहारादि का त्याग कर पुन: उसे ग्रहण करने वाले साधु का अपने जन्म का कुल भी महान् हो सकता है। प्रतिज्ञा भंग करते ही ये दोनों कुल मलिन हो जाते हैं, क्योंकि लौकिक जन अपवाद करते हैं कि देखो ! सुनो ! सुनो ! अमुक कुल में जन्मे या अमुक आचार्य परम्परा के साधु ने या अमुक संघस्थ साधु ने आहार-जल का त्याग कर दिया था किन्तु अब पुनः ग्रहण कर रहा है। देखो ! अमुक संघ के साधु ने प्रत्याख्यान का भंगकर दिया है, प्रतिज्ञा नष्ट कर दी है, इत्यादि। जिह्वेन्द्रिय-वशस्याशु, बुद्धिस्तीक्ष्णापि नश्यति । सम्पद्यते परायत्तो, योनिगश्लेषलग्नवत् ।।१७२८ ॥ अर्थ - तीक्ष्ण बुद्धि धारण करने वाला मनुष्य भी यदि जिह्वा इन्द्रिय के वशीभूत हो जाता है तो उसकी बुद्धि नष्ट हो जाती है और वह आहारलोलुपी साधु वज्रमयी बन्धन से बँधे हुए के समान पूर्णतः परतन्त्र जैसा हो जाता है॥१७२८ ।। Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ४७४ धर्म-धैर्य-कृतज्ञत्व-माहात्म्यानि निरस्थति । महान्तं कुरुतेऽनर्थ, गल-लग्नो यथा झषः ।।१७२९ ।। अर्थ - जैसे जाल में फंसी हुई मछली जालगत खाद्य वस्तु के वशीभूत हो अपने प्राण खोनेरूप महा अनर्थ कर डालती है, वैसे ही आहारलुब्ध साधु आहार के पीछे रत्नत्रय धर्म, धैर्य, संघ की कृतज्ञता और संघ एवं अपने स्वयं के माहात्म्य को खोकर अपना महान् अनर्थ कर लेता है ।।१७२९ ।। कुलीनो धार्मिको मानी, ख्यात-कीर्तिर्विचक्षणः । अभक्ष्यं वल्भते वस्तु, विरुद्धां कुरुते क्रियाम् ॥१७३० ।। अर्थ - कुलीन, धार्मिक, स्वाभिमानी, प्रसिद्ध कीर्तिशाली एवं विलक्षण बुद्धिमान मनुष्य भी आहार के वशीभूत हो कुल के विपरीत अयोग्य क्रियाओं के साथ-साथ अभक्ष्यभक्षण भी करने लगता है॥१७३० ।। दुर्भिक्षादिषु माओरी-शिंशुमाराहि-मानवाः । वल्लभान्यप्यपत्यानि, भक्षयन्ति बुभुक्षिसाः ॥९७३१ ।। अर्थ - भूख से पीड़ित होने वाले बिल्ली, शिंशुमार, सर्प तथा मनुष्य दुर्भिक्षादि कुसमय में अपने प्रिय पुत्र-पुत्री आदि को भी खा जाते हैं॥१७३१ ।। ये जन्म-द्वितये दोषाः, केचनानर्थकारिणः । ते जायन्तेऽखिला जन्तोराहारासक्त-चेतसः ।।१७३२॥ __ अर्थ - उभय लोको में मनुष्य का अनर्थ करने वाले अर्थात् उसे दुख देने वाले जो-जो दोष हैं, वे सब दोष आहार में आसक्तचित्त वाले साधु या मनुष्य को आहार की लम्पटता से सहज प्राप्त हो जाते हैं ॥१७३२ ।। आहार-संज्ञया श्वभ्रं, महान्तं सप्तमं परम् । गच्छन्ति तिमयो यातः, शालिसिक्थोऽपि नष्ट-धीः ।।१७३३ ॥ अर्थ - आहार संज्ञा के वशवर्ती महामत्स्य महाभयावह सातवें नरक में जाते हैं, तथा नष्टबुद्धि तन्दुल मत्स्य भी सातवें नरक में जाते हैं ।।१७३३ ॥ प्रश्न - महामत्स्य और तन्दुलमत्स्य कौन हैं, कहाँ रहते हैं, कितने बड़े-छोटे होते हैं और दोनों सातवें नरक क्यों जाते हैं ? ___ उत्तर - मध्यलोक में असंख्यात समुद्र हैं। इनमें प्रथम लवण समुद्र, द्वितीय कालोदधि और अन्तिम स्वयम्भूरमण, ये तीन समुद्र कर्मभूमि सम्बन्धी हैं अत: इन तीन समुद्रों में महामत्स्यादि जलचर जीव पाये जाते हैं, शेष असंख्यात समुद्र जलचरजीवों से रहित हैं क्योंकि वे जघन्य भोगभूमि के अन्तर्गत हैं। ये महामत्स्य इन्हीं तीन समुद्रों में रहते हैं। यथा-लवणसमुद्र के तट पर रहने वाले मत्स्यों के शरीर की लम्बाई ९ योजन (अनुमानतः ७२ मील), चौड़ाई ४, १/२ योजन (३६ मील) और ऊँचाई २, १/४ योजन (१८ मील) प्रमाण है। इसी १. त्रिलोकसार गाथा ३२१ और उसकी टीका। Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ४७५ समुद्र के मध्य में रहने वाले मत्स्यों के शरीर की अवगाहनादि इससे दुगुणी अर्थात् लम्बाई १८ योजन (१४४ मील), चौड़ाई ९ योजन और ऊँचाई साढ़े चार योजन है। दूसरे कालोदधि समुद्र तट के समीप रहने वाले मत्स्यों के शरीर की लम्बाई १८ योजन, चौड़ाई ९ योजन और ऊँचाई ४, १/२ योजन है, तथा मध्यगत मत्स्यों के शरीर की लम्बाई ३६ योजन (२८८ मील), चौड़ाई १८ योजन और ऊँचाई ९ योजन प्रमाण है। अन्तिम स्वयम्भूरमण समुद्र के तटगत मत्स्यों के शरीर की लम्बाई ५०० योजन (४००० मील), चौड़ाई २५० योजन (२००० मील) और ऊँचाई ५२५ योजन (१००० मील) है और इसी समुद्र के मध्य में रहने वाले महामत्स्यों के शरीर की लम्बाई १००० योजन (८००० मील), चौड़ाई ५०० योजन और ऊँचाई २५० योजन प्रमाण है। जैसे शुनि पुर में गिरे दुगा जलबिदुओं का मुक्तापल कप में परिणमन हो जाता है उसी प्रकार इन महामत्स्यों की पीठगत पानी में गिरे हुए शैल वृक्ष के पत्तों का शिला एवं मिट्टी आदि रूप परिणमन हो जाता है अत: इनकी पीठ पर मिट्टी का प्रचय, पत्थर, सर्ज नामक वृक्ष विशेष, अर्जुन, नीम, कदम्ब, आम, जामुन एवं जम्बीरादि के अनेक वृक्ष और सिंह तथा हरिण आदि गर्भज पशु पाये जाते हैं। वर्षाकाल के प्रारम्भ में वर्षा के जल एवं पृथ्वी के सम्बन्ध से मेंढ़क, मछली, कछुआ एवं चूहा आदि पंचेन्द्रिय सम्मूर्च्छन जीव भी उसकी उसी पीठ पर उत्पन्न होते रहते हैं और मरते रहते हैं। स्वयम्भूरमण समुद्र में ये तिमितिमिंगल नामक महामत्स्य छह मास पर्यन्त मुख खुला रखकर सोते रहते हैं। उस समय जल-प्रवाह के साथ अनेक जलचर जीव मुख में आकर भी निकल जाते हैं। जाग्रत अवस्था में वे अपने मुखमें आये हुए मत्स्यों आदि को खाते रहते हैं अत: मर कर सातवें नरक जाते हैं। इनके कानों में सालिसिक्थ नामक मत्स्य रहते हैं जो इनके कान का मैल खाकर जीवित रहते हैं। इनका शरीर मात्र चावल के बराबर होता है अतः इन्हें सालिसिक्थ कहते हैं। कान में बैठे हुए ये मन में सतत सोचते रहते हैं कि यदि मेरा मुख इतना बड़ा होता तो क्या एक भी जीव बच कर जा सकता था? मैं तो सबको खा जाता। इस प्रकार के संकल्प मात्र से मरकर वे भी सातवें नरक ही जाते हैं। चतुरङ्ग-बलोपेतः, सुभूमः फल-लालस:। नष्टोऽम्भोधौ निजैः सार्थ, ततोऽपि नरकं गतः॥१७३४।। अर्थ – चतुरंग बल से युक्त होते हुए भी सुभौम चक्रवर्ती फलों में आसक्त होकर अपने परिवार सहित समुद्र में नष्ट हुआ और मरकर सातवें नरक गया ||१७३४ ।। -- - --- -- १. धवन पु. १४ सूत्र ५८० की टीका । २, भगवती आराधना, गाथा १६४२-४३ की टीका देखें। Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ४७६ * सुभौम चक्रवत्ती की कथा * छह खंड का अधिपति चक्रवर्ती सुभौम जिह्वालोलुपी था, निधियों द्वारा अनेक तरह के भोग-उपभोग प्राप्त होनेपर भी वह सदा अतृप्त ही रहता था। एक दिन अधिक गरम खीर परोसने के कारण उसने गुस्सेमें आकर अपने रसोइये जयसेन को थाली फेंककर मारा, थाली मर्मस्थान पर लग जानेसे रसोइया तत्काल मर गया और अकामनिर्जरा के फलस्वरूप व्यंतरदेव हो गया और कुअवधिज्ञान से जानकर चक्री पर कुपित होकर उसने उसको मारनेका षड़यंत्र रचा | व्यंतरदेव ने सोचा कि यह रसनेन्द्रिय के वश में है अतः इसे मधुर फल देकर छलसे मार देंगे । वह देव ब्राह्मण वेष में चक्री के पास आया। उसने दिव्य मधुर फल भेंट में देकर अपना परिचय दिया कि मैं समुद्र के उस पार रहता हूँ, मैं आपको अपना स्वामी मानता हूँ अतः ये मिष्ट फल लाया हूँ। चक्री प्रसन्न हुआ और उसने प्रतिदिन फल लानेको कहा। ब्राह्मण वेषधारी देवने कहा-राजन् ! आप कृपाकर मेरे उस रम्य स्थानपर चलिये वहाँ अनेक उद्यान फलोंसे भरे हैं। चक्री उसके साथ चला, समुद्र से पार होते समय ठीक मध्य समुद्र में उस देवने अपना परिचय दिया कि "अरे दुष्ट ! तुमने मुझे थाली फेंककर मारा था उस समय मैं निर्बल था, अब उसका बदला अवश्य लूंगा।" इतना कहकर देवने नौका समुद्रमें डुबो दी। सुभौम चक्रवर्ती उस अगाध समुद्र में मरा और नरक चला गया। इस प्रकार भोजन की लम्पटता से सुभौम चक्रवर्ती को भी चिरकाल तक नरकवास के भयंकर दुख भोगने पड़े। आहार-संज्ञया भद्र ! कृत्वा पापं दुरुत्तरम्। चिरकालं भवाम्भोधौ, प्राप्तो दुःखमनारतम् ।।१७३५ ।। अर्थ - हे भद्र ! आहार संज्ञा के वशवर्ती होकर ही अतीत काल में तुमने अनेक बार अत्यन्त पाप संचय किया है और उसके फलस्वरूप चिरकाल तक इस संसार समुद्र में सतत महान् दुख भोगे हैं।।१७३५ ।। किं त्वमिच्छसि भूयोऽपि, भ्रमितुं भव-कानने।। दुःखदामशनाकांक्षा, येनाधापि न मुञ्चसि ।।१७३६ ॥ अर्थ - हे क्षपकराज ! अब क्या तुम पुनः इस संसाररूपी भयावह वन में भ्रमण करना चाहते हो ? जो भोजन की इस दुखदायिनी इच्छा को आज भी नहीं छोड़ पा रहे हो? ||१७३६ ।। आहारं बल्भमानरेऽपि, चिरं जीवो न तृप्यति । उद्वृत्तं सर्वदा चित्तं, जायते तृप्तितो विना ॥१७३७ ।। अर्थ - हे क्षपकराज ! देखो ! चिरकाल तक भोजन करके भी जीव को कभी तृप्ति प्राप्त नहीं होती और तृप्ति न होने से सदा ही मन में भोजन करने की उत्कण्ठा या व्याकुलता बनी रहती है।।१७३७ ।। ईन्धनेनेव सप्तार्चिः, सलिलेनेव वारिधिः। अन्धसा गुह्यमाणेन, जीवो जातु न तृप्यति ।।१७३८ ॥ अर्थ - जैसे ईंधन से अग्नि की और जल से समुद्र की तृप्ति नहीं होती है वैसे ही ग्रहण किये हुए भोजन द्वारा यह जीव कभी तृप्त नहीं होता है ||१७३८ ।। Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परणकण्डिका - ४७० भोगिनश्चक्रिणो रामा, वासुदेवाः पुरन्दराः । नाहारैस्तृप्तिमायातास्तृप्यन्त्यत्र परे कथम् ।।१७३९ ।। अर्थ - भोगभूमिज मनुष्य, चक्रवर्ती, बलभद्र, नारायण और इन्द्रादि महान् जीव भी जब विशिष्ट आहार से भी तृप्त नहीं होते या नहीं हुए तब अन्य साधारण जीव साधारण आहार द्वारा कैसे तृप्त हो सकते हैं ? अपितु नहीं हो सकते ॥१७३९ ।। प्रश्न - चक्रवतों आदि का विशिष्ट आहार किस प्रकार का होता है ? उत्तर - स्वर्ग में देवेन्द्रों का मानसिक आहार होता है। इन देवेन्द्रों के लाभान्तराय कर्म का क्षयोपशम बहुत तीव्र होता है अतः इन्हें शरीर की कांति स्थिर रखने वाले आहार की प्राप्ति होती है। आयु प्रमाण के अनुसार नियत समय पर ही इन्हें भोजन की इच्छा उत्पन्न होती है जो कण्ठ से अमृत झरते ही पूर्ण हो जाती है किन्तु उस अमृत से भी वे इन्द्रादि देव सदा के लिए तृप्त नहीं हो पाते। ___ भोगभूमिज मनुष्य भोजनांग एवं पानांग नामक कल्पवृक्षों से भोजन-पान प्राप्त करते हैं। भोजनांग वृक्ष इन्हें १६' प्रकार का आहार, १७ प्रकार के व्यंजन, १४ प्रकार की दाल, १०८ प्रकार के खाद्य-पदार्थ, ३६३ प्रकार के स्वाद्य पदार्थ एवं ६३ प्रकार के रस देते हैं, तथा पानांग वृक्ष ३२ प्रकार के पेय पदार्थ देते हैं। ऐसे उत्तम पदार्थों को खाकर भी वे जीव सदा के लिए तृप्त नहीं होते हैं। चक्रवर्ती के भी तीन सौ साठ रसोइया होते हैं और वे सब मिल कर एक वर्ष का आहार एक दिन में बनाते हैं। चक्रवर्तियों के लिए जो लड्डू बनते हैं वे इतने पौष्टिक होते हैं कि मात्र अर्ध लड्डू में उनका पूरा कटक तृप्त हो जाता है। ऐसे उत्तम एवं पौष्टिक भोजन से भी सदा के लिए उनकी भोजन वांछा तृप्त नहीं हो पाती। बलभद्र, नारायण एवं प्रतिनारायणों की भी यही स्थिति है। आचार्यदेव क्षपक को समझा रहे हैं कि हे क्षपक ! जब दिव्यभोजी महापुरुष भी कभी इस भोजन से तृप्ति को प्राप्त नहीं हुए तब गोचरी वृत्ति से पराये घर में किंचित् आहार से क्या तुप्ति होगी? अतः अब अन्त समय में आहार की इच्छा करना व्यर्थ है। रत्याकुलित-चित्तस्य, प्रीति स्ति रति विना । प्रीतिं विना कुत: सौख्यं, सर्वदा गृद्ध-चेतसा ।।१७४० ।। अर्थ - 'यह आहार उत्तम है', इससे भी अधिक उत्तम यह आहार है' इस प्रकार जिस आहार-लम्पटी का चित्त चंचल रहता है, उसके चित्त में रति उत्पन्न नहीं होती। बिना रति के प्रीति उत्पन्न नहीं हो सकती और प्रीति के बिना मनुष्य को आहार से सुख प्राप्त कैसे हो सकता है ? अपितु नहीं हो सकता॥१७४० ॥ पुद्गला विविधोपायैः, सकला भक्षितास्त्वया। अतीतेऽनन्तश: काले, न च तृप्तिं मनः श्रितम् ॥१७४१ ।। अर्थ - हे क्षपक ! अतीत काल में अनन्तबार अन्न, पान, खाद्य, स्वाद्य एवं लेयादि अनेक उपायों के द्वारा तुमने समस्त पुद्गलों का भक्षण किया है फिर भी तुम्हारा मन तृप्त नहीं हुआ॥१७४१ ॥ १. तिलोयपपणती भाग दो, अधिकार चौथा, गाथा ३४७ से ३५२ तक। Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ४७८ भोज्यं कण्ठगत प्राणैर्भुक्त्वा प्रार्थनयाहृतम् । किमिदानीं पुनस्तृप्तिं, सुबुद्धे ! त्वं गमिष्यसि ॥ १७४२ ।। अर्थ - हे सुबुद्धे ! अब तुम्हारे प्राण कण्ठगत हैं। जब अतीत में विपुल एवं पुष्ट भोजन से भी तुम्हें तृप्ति प्राप्त नहीं हुई तब इस मरण बेला में गोचरी द्वारा लाये हुए किंचित् आहार को खाकर क्या तृप्ति प्राप्त कर सकोगे ? नहीं कर सकोगे ।। १७४२ ॥ न तृप्तिर्यस्य सम्पन्ना, पीते जलनिधेर्जले । अवश्याय - कणैर्द्वित्रैः पीतैः किमु स तृप्यति ? || १७४३ ॥ > - • जिसे समुद्र को पीकर भी तृप्ति प्राप्त नहीं हुई क्या उसे ओस के दो-तीन बिन्दुकणों को चाट अर्थ लेने से तृप्ति हो जायेगी ? कदापि नहीं हो सकती ।। १७४३ ॥ भुक्त-पूर्वे यते ! कोऽस्मिन्नाहारे तव विस्मयः । अपूर्वे युज्यते कर्तुमभिलाषो हि वस्तुनि ।। १७४४ ॥ अर्थ - हे क्षपक ! जो आहार पूर्व में तुम अनेक बार आ चुके ही उसने तुम्हारी यह उत्सुकता वा इच्छा या विस्मय कैसा ? क्योंकि यह सब तो अनेक बार प्राप्त हो चुका है। अपूर्व वस्तु में ही अभिलाषा जाग्रत होती है। यह आहार भी यदि अपूर्व होता तो उसमें अभिलाषा करना योग्य भी था। इस तथ्य का चिन्तन करो || १७४४ || आपात सुखदे भोज्ये, न सुखं बहु विद्यते । गुद्धितो जायते भूरि, दुःखमेवाभिलाप्यतः ॥ १७४५ ।। अर्थ - आहार में बहुत सुख नहीं है। केवल तत्काल में सुखदायक इस भोज्य पदार्थ के स्पर्श मात्र का किंचित् सुख है, किन्तु इच्छित आहार की गृद्धता या लिप्सा से जो दुख होता है वह दुख बहुत अधिक है ।। १७४५ ।। आहार में स्वल्प सुख होने का कारण अतिक्रामति वाजीव, जिह्वामूलं स वेगत: । तत्रैव बुध्यते स्वादं भुञ्जानो न पुनः परे ।। १७४६ ।। अर्थ - जैसे उत्तम घोड़ा अतिवेग से दौड़ता है, वैसे ही भोज्य पदार्थ जिह्वा के मूलभाग का अतिवेग से उल्लंघन कर जाते हैं । अर्थात् जिह्वा पर ग्रास आते ही वह झट पेट में चला जाता है और आहार के स्वाद का ज्ञान या प्रतीति जिह्वा के अग्रभाग पर रहते हुए ही होती है, न पहले होती है और न पीछे होती है। अर्थात् भोजन करने वाले को आहार का आस्वादन उसके जिह्वा पर पहुँचने के पूर्व और जिह्वा के अग्रभाग से आगे बढ़ते एवं गले से नीचे उतरते समय नहीं आता। इस प्रकार आहार का सुखानुभव अत्यन्त अल्प है || १७४६ ॥ निमेष - मात्र सौख्यमाहार-ग्रहणे परम् । द्धितो गिलति क्षिप्रं तया न हि विना सुखम् ।। १७४७ ।। Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ४७९ अर्थ - इस प्रकार आहार ग्रहण से होने वाले सुख का काल एक निमेष मात्र का है। अर्थात् एक बार आँख की पलक बन्द करके पुनः आंख खोलने में जितना समय लगता है, उतना ही है। आहार की गृद्धता अर्थात् अभिलाषा से ही मनुष्य उसे जल्दी-जल्दी (वेग से) निगलता जाता है क्योंकि अभिलाषा बिना इन्द्रियसुख नहीं होता ||१७४७ ॥ अशनं कांक्षतो नित्यं, व्याकुलीभूत-चेतसः। दरिद्र-चेटकस्येव, गृद्धस्यास्ति कुत: सुखम् ।।१७४८ ॥ अर्थ - आहारविषयक लम्पटता के साथ जिसके चित्त में नित्य ही आहार-आकांक्षा की व्याकुलता रहती है उसे सुख कहाँ से हो सकता है ? जैसे चिरकाल से अन्न की अभिलाषा करने वाले दरिद्र दास को सुख नहीं होता, वैसे ही आहार लम्पटी को सुख नहीं होता ||१७४८ ।। को नामाल्प-सुखस्यार्थे, वळ्यते सुखतो बहोः। सङ्करलेश:क्रियते येन, मृतिकालेऽपि दुर्धिया ।।१७४९ ।। अर्थ - कौन ऐसा पुरुष है जो अल्प सुख के लिए बहुत सुख से वंचित होना चाहेगा ? हे क्षपक! यदि तुम आहार के अल्प सुख में आसक्त हो जाते हो अर्थात् अल्प आहार के लिए समाधिमरण के शुभावसर पर भी दुर्बुद्धि से संक्लेश करते हो तो तुम्हें स्वर्गादि के महान सखों से वंचित रहना पड़ेगा ।।१७४९॥ मधु-लिप्तामसेर्धारा, निशातां स लिलिक्षति । बुभुक्षते विषं घोरं, संन्यस्तो योऽशनायति ॥१७५०॥ अर्थ - जो क्षपक संन्यास ग्रहण कर अयोग्य आहार की लिप्सा करता है वह शहद से लिप्त तलवार की तीक्ष्ण धार को चाटना चाहता है, अथवा घोर विष खाकर भूख शान्त करना चाहता है। अर्थात् जैसे मधुलिप्त तलवार चाटते समय मधु के स्वाद से सुख होता है किन्तु जिह्वा कट जाने से भयंकर पीड़ा होती है, वैसे ही संन्यास में मरते समय यदि परमेष्ठी की साक्षीपूर्वक त्याग किये हुए आहार को खाता है तो तत्काल इच्छापूर्तिजन्य सुख होगा किन्तु आराधना गल जाने से दुर्गति में घोर वेदना होगी॥१७५० ।। असिधारा-विषे दोषमेकत्र कुरुते भवे। अशनायाः पुनर्जन्तोर्दुरितं भव-कोटिषु ।।१७५१॥ अर्थ - मधु लिप्त तलवार की धार और विष ये एक ही भव में अनर्थ करते हैं किन्तु क्षपक द्वारा ग्रहण किया हुआ आहार उस जीव को करोड़ों भवों में दुख देता है ।।१७५१ ।। शरीरं मानसं दुःखं,दृश्यते यज्जगत्त्रये। तद्ददाति यते: सर्वं, अशनाया विसंशयम्॥१७५२।। अर्थ - तीन लोक में जो-जो शारीरिक और मानसिक दुख दिखाई देते हैं वे सब साधु को अयोग्य भोजन के फलस्वरूप मिलते हैं, इसमें संशय नहीं है। अर्थात् अनादि संसार में जीव को जो अनन्तबार शारीरिक और मानसिक दुख भोगने पड़ते हैं उसका कारण अयोग्य आहार ही है।।१७५२ ।। Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ४८० यते ! देह-ममत्वेन, प्राप्तं दुःखमनारतम्। इदानीं सर्वथा साधो ! तत्ततस्त्वं निराकुरु ।।१७५३ ।। अर्थ - हे मुने ! इस शरीर सम्बन्धी ममत्व से ही तुमने सतत दुख प्राप्त किया है, अतः हे साधो! अब इस समय तुम इस शारीरिक ममत्व को सर्वथा त्याग दो ॥१७५३ ।। दुःखं जन्म-समं नास्ति, न मृत्यु-सदृशं भयम् । जन्म-मृत्यु-करी छिद्धि, शरीर-ममतां ततः॥१७५४॥ अर्थ - हे साधो ! इस संसार में जन्म के सदृश कोई दुख नहीं है और मरण के सदृश कोई भय नहीं है और जन्म-मरण रूपी रोग का प्रधान कारण शरीरजन्य ममत्व है अत: तुम शारीरिक ममत्त्व छेद डालो अर्थात् छोड़ दो ॥१७५४ ॥ परोऽयं विग्रहः साधो ! चेतनोऽयं यतः परः। ततस्त्वं विग्रह-स्नेहं, महाक्लेश-करं त्यज ॥१७५५॥ अर्थ - हे साधो ! क्योंकि यह शरीर भिन्न है और तुम्हारी चेतनात्मा भिन्न है इसलिए तुम महाक्लेश को उत्पन्न करने वाली इस शरीर की ममता को छोड़ दो ॥१७५५ ।। महमानो मने ! सम्यगुपसर्ग-परीषहान् । निःसङ्गस्त्वमसंक्लिष्टो, देह-मोह तनूकुरु ॥१७५६ ।। अर्थ - हे साधो ! तुम सब उपसर्गों को और सर्व परीषहों को सहन करते हुए नि:संगत्व-भावना से संक्लिष्ट परिणामों के बिना मोह को कृश करो ॥१७५६॥ संक्लेश परिणामों के त्याग बिना समाधि नहीं तृणादि-संस्तरो योग्यश्चतुर्धा सङ्ग-मीलनम्। नि:फलं जायते साधो ! मृत्यौ संक्लिष्ट-चेतसः ॥१७५७ ।। अर्थ - हे साधो ! (समाधि का अन्तरंग कारण समता भाव है, शय्या एवं संघ तो बहिरंग कारण हैं अतः) यदि मरते समय संक्लेश परिणाम होते हैं तो तृणादि चार प्रकार का योग्य संस्तर ग्रहण करना एवं चतुर्विध संघ का एकत्र होना निष्फल है।।१७५७ ।। रलसम्भृत-पात्रस्था, वणिजः सागरे यथा। पत्तनं निकषा साधो ! निमज्जन्ति प्रमादतः ।।१७५८ ।। तथा सिद्धि-समीपस्था:, शुद्ध-संस्तर-यायिनः । निपतन्ति भवावर्ते, जीवा: सङ्क्लेश-योगतः ।।१७५९॥ अर्थ - जैसे व्यापारी का रत्नों से भरा जहाज नगर के समीप तक आकर भी उसके प्रमाद के कारण समुद्र में डूब जाता है, वैसे ही शुद्ध-संस्तर में स्थित और समाधि सिद्धि के निकट पहुँचे हुए भी कई क्षपक संक्लेश परिणामों के योग से संसार-समुद्र में डूब जाते हैं॥१७५८-१७५९ ।। Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणाकण्डिका - ४८१ सल्लेखना-श्रमं साधो ! चारित्रं च सुदुश्चरम् । मास्म त्याक्षीजगत्सारमल्प-सौख्य-जिघृक्षया ॥१७६० ॥ अर्थ - हे साधो ! जगत् में सारभूत इस सल्लेखना के श्रम को अर्थात् अनशन आदि तप द्वारा तथा जल आदि चारों प्रकार के आहार के त्याग द्वारा तुमने शरीर को कृश करने में जो परिश्रम किया है और यह अत्यन्त कठिन चारित्र धारण किया है, यह सब तुम्हें स्वर्ग और मोक्ष का सुख देने वाला है, इसे तुम आहारजन्य अल्प सुख की वांछा से छोड़ मत देना ।।१७६० ।। पुरुषैः कथितं धीरैर्मार्ग सद्भिर्निषेवितम्। निरपेक्षाः श्रिता धन्याः, संस्तरस्था निशेरते ॥१७६१ ।। अर्थ - उपसर्ग एवं परीषहों के आने पर भी जो विचलित नहीं होते उन धीर-वीर पुरुषों द्वारा कहे गये एवं श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा सेक्ति रत्नत्रय स्वरूप इस मार्ग को अपना कर पुण्यशाली क्षपक त्याग तथा ग्रहण के विकल्पों से निरपेक्ष होते हुए संस्तर पर आरूढ़ होकर ही विशुद्ध होते हैं अर्थात् रत्नत्रय की पूर्णता को प्राप्त कर पाते हैं, संस्तरारूढ़ हुए बिना नहीं ।।१७६४ ॥ कलेवरमिदं त्याज्यमिति विज्ञाय निःस्पृहः । सहस्व कर्मजं दुःखं, निर्वेदन इवाखिलम्॥१७६२।। अर्थ - हे क्षपक ! यह शरीर त्यागने योग्य ही है, ऐसा मान कर शरीर से निस्पृह हो अर्थात् शरीर से ममत्व मत करो । असाताकर्म के उदय से उत्पन्न हुए दुखों को ऐसे सहन करो मानों कोई दुख है ही नहीं ।।१७६२ ।। एवं प्रज्ञाप्य-मानोऽसौ, त्यक्त-सङ्क्लेश-वासनः। अन्य-दुःखमिवात्मीय, दुःखं पश्यति सर्वदा ।।१७६३॥ ___ अर्थ - इस प्रकार उपदेश द्वारा समझाये जाने पर वह क्षपक पूर्व में उत्पन्न संक्लेश वासना को अर्थात् परिणामों को छोड़ देता है और क्षुधा-तृषादि से उत्पन्न अपने दुखों को इस प्रकार देखता है मानों ये दुख उसके शरीर में नहीं, किन्तु किसी दूसरे के शरीर में हो रहे हैं ।।१७६३ ।। मान-दान देकर कवच करने की प्रेरणा धन्यस्य पार्थिवादीनामागमादि-प्रयोगतः। क्षपकस्यापि दातव्यो, मानिनः कवचो दृढः ॥१७६४॥ अर्थ - ऐसे क्षपक को धन्य है जिसके दृढ़ कवच के लिए आचार्य प्रयोगतः अर्थात् प्रेरणा पूर्वक राजा, मन्त्री एवं ऐश्वर्यशालियों को बुला कर मान-दान देते हैं। क्योंकि राजादि के आगमन को देखकर-स्वाभिमानी क्षपक विचार करता है कि इन राजादि के सामने मेरे प्राण जाँय तो भले चले जाँय किन्तु अब मैं व्रतभंग भी नहीं करूँगा और दीनतापूर्ण वचनादि भी नहीं बोलूंगा ||१७६४ ।। प्रश्न - आचार्य प्रेरणा करके राजादि को बुलाकर स्वाभिमानी क्षपक को मान-दान देकर कवच क्यों करते हैं ? Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ४८२ उत्तर - येन-केन-प्रकारेण क्षपक के गृहीत व्रतों की रक्षा करना ही आचार्य का प्रमुख कर्तव्य है। अनेकानेक प्रकार के उपदेश द्वारा भी जब क्षपक का धैर्य स्थिर नहीं रहता है तब आचार्य क्षपक को प्रशंसात्मक वाक्यों द्वारा व्रतों में एवं प्रत्याख्यान आदि में कवचवत् दृढ़ बनाते हैं। अपनी प्रशंसा सुन कर एवं राजा आदि का आगमन देखकर क्षपक मन में विचार करता है कि मेरी समाधि की दृढ़ता देखने हेतु ये राजादि महापुरुष यहाँ पधारे हैं. इनके समक्ष मेरे प्राण चले जाँय तो भी कोई बात नहीं. मैं तो सर्वथा धैर्य ही धारण करूंगा। मैं धर्म की प्रतिष्ठा, संघ का आदर्श और अपना मान नष्ट नहीं करूंगा। इससे भी अधिक पीड़ा उत्पन्न हो जाय तो भी व्रत भंग करके अपना अपयश नहीं कराऊँगा, इत्यादि। इस प्रकार क्षपक के मन में स्वाभिमान की रक्षा के भाव उत्पन्न कराकर आचार्यदेव दृढ़ कवच करते हैं अर्थात् क्षपक के व्रतों की रक्षा करते हैं। इत्येष कवचोऽवाचि, संक्षेपेण श्रुतोदितः। विशेषेणापि कर्तव्यो, दुःखे सति दुरुत्तरे ।।१७६५ ।। अर्थ - इस प्रकार यहाँ आगमानुसार कवच का सामान्य स्वरूप कहा है। यदि कर्मवशात् क्षपक को कोई दुरुत्तर दुख उत्पन्न हो जाय तो उसके परिणामों की स्थिरता हेतु विशेष रूप से भी कवच करना चाहिए॥१७६५॥ प्रश्न - कवच किसे कहते हैं ? तथा सामान्य कवच कब करना चाहिए और विशेष कवच कब करना चाहिए ? उत्तर - कवच का अर्थ है, रक्षा करना। युद्ध में कवच पहन कर जाने वाले योद्धा का हृदय जैसे बाणादि शस्त्रों से ताड़ित नहीं हो पाता, जिससे योद्धा में युद्ध करने की फुर्ती रहती है और उत्साह यथावत् बना रहता है। वैसे ही प्रशंसनीय या वैराग्य-वर्धक या संवेगवर्धक या शरीर की असारतावर्धक मधुर वचनों द्वारा क्षपक के हृदय को दृढ़ बनाये रखना और उसके धैर्य भावों की रक्षा करना 'कवच' कहलाता है। जिसका मरण अभी दूर है उसके लिए ऊपर कहे अनुसार सामान्य रूप से कवच करना चाहिए किन्तु आसन्न मरण वाले क्षपक को ध्यान में या समता परिणामों में विघ्न डालने वाली कोई पीड़ा या भूख-प्यास का कोई विशेष दुख यदि तत्काल उत्पन्न हो जाता है तो उसे दूर करने के लिए अपवादरूप किन्तु यथायोग्य विशेष कवच करना चाहिए। स्तोष्यते क्षपकः सूरेर्वचनैर्हदयङ्गमैः। चन्द्रस्येव करैः शुद्धैः, शीतलैः कुमुदाकरः॥१७६६ ।। अर्थ - जैसे चन्द्रमा की शुद्ध एवं शीतल किरणों से रात्रिक्किासी कमलों का सरोवर विकसित हो जाता है, वैसे ही आचार्यदेव के हृदयग्राही, मधुर एवं हितकर वचन सुनते ही क्षपक का मन प्रसन्न हो जाता है, मन के भाव शुद्ध हो जाते हैं और वह व्रताचरण में आत्मविश्वासपूर्वक स्थिर हो जाता है ।।१७६६ ।। क्षणेन दोषोपचयापसारिणः, समेत्य वाक्यानि तमोऽपहारिणः । जड़ोऽपि सूरेः क्षपको विबुध्यते, महांसि भानोरिव नीरजाकरः ॥१७६७॥ अर्थ - जैसे रात्रि को दूर करने वाली एवं अन्धकार को नष्ट करने वाली सूर्य की किरणों का स्पर्श प्राप्त Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका ४८३ कर कमलों से व्याप्त सरोवर विबोध को प्राप्त हो जाता है। अर्थात् खिल जाता है, वैसे ही क्षणभर में दोषों को दूर करने वाले और मन के अज्ञान अंधकार को हटा देने वाले आचार्य के मधुर वचनों को प्राप्त कर अल्पबुद्धि भी क्षपक अतिशयरूप से बोध को प्राप्त हो रत्नत्रय की आराधना में सावधान हो जाता है || १७६७ ॥ परीषहं प्रभवति संस्तरे स्थितो, निकर्तितुं परम-पराक्रम - क्रमः । निराकुलः कवचधरस्तपोधनो, रणाङ्गणे रिपुमिव कर्कशः भटः || १७६८ ।। इति कवचः ॥ अर्थ- जैसे परम पराक्रमी अभेद्य कवच द्वारा सुरक्षित योद्धा युद्धभूमि में स्थित होकर अत्यन्त बलशाली शत्रुओं पर भी प्रहार करने में समर्थ होता है, वैसे ही आचार्य के उपदेशामृतरूप दृढ़ कवच-धारी क्षपक रूपी योद्धा निराकुल एवं परम पराक्रमी होता हुआ संस्तर में स्थिर होकर परीषह एवं उपसर्ग रूपी कठिन शत्रुओं को भी जीतने में समर्थ होता है ।। १७६८ ॥ इस प्रकार सल्लेखना के चालीस अधिकारों में से कवच नाम का पैंतीसवाँ अधिकार पूर्ण हुआ || ३५ ॥ ३६. समता - अधिकार इत्येवं क्षपकः सर्वान्, सहमान: परीषहान् । सर्वत्र निःस्पृहीभूतः प्रयाति सम - चित्तताम् ।। १७६९ ।। + अर्थ - इस प्रकार ( आचार्यदेव की कृपा से मन में धैर्यरूपी दृढ़ कवच धारण करने वाला) क्षपक समस्त परीषहों को सहन करता हुआ सर्व विषय कषाय, परिग्रह, शरीर एवं संघ आदि में अत्यन्त निस्पृह हो समता परिणामों को धारण करता है ।। १७६९ ।। समस्त - द्रव्य - पर्याय-ममत्वासङ्ग-वर्जितः । निः प्रेम- राग - मोहोऽस्ति सर्वत्र सम-दर्शनः ।। १७७० ।। अर्थ - वह क्षपक जीवादि समस्त द्रव्य उनके गुण एवं द्रव्य और गुणों की समस्त पर्यायों में “ये मेरे सुख के साधनभूत हैं" इस प्रकार के ममत्व तथा आसक्ति भाव से रहित हो जाता है, और भी सर्वत्र राग, द्वेष एवं मोह से रहित होता हुआ समता भाव धारण कर लेता है ।।१७७० ॥ प्रियाप्रिय पदार्थानां समागम-वियोगयोः । विजहीहि त्वमौत्सुक्यं दीनत्वमरतिरतिम् ॥१७७१ ।। अर्थ- हे क्षपक ! तुम प्रिय अर्थात् इष्ट वस्तुओं के संयोग में उत्कण्ठा एवं रतिभावों को तथा अप्रिय/ अनिष्ट पदार्थों के वियोग हेतु दीनता एवं अरति भावों को छोड़ दो ॥। १७७१ ।। मित्रे शत्रौ कुले सङ्के, शिष्ये साधर्मिके गुरौ । राग-द्वेषं पुरोत्पन्नं, विमुञ्चस्व प्रधीर्यते ! ।। १७७२ ।। Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ४८४ अर्थ - हे उत्कृष्ट बुद्धिधारक यत्ते ! तुम मित्रों में, शत्रुओं में, कुल में, संघ में, शिष्यों में एवं साधर्मी जनों में दीक्षा के अथवा समाधिग्रहण के पूर्व जो रागद्वेषात्मक परिणाम रखते थे, उन्हें छोड़ दो॥१७७२।। कुर्यादिव्यादि-भोगानां, क्षपकः प्रार्थनां न तु | उक्ता विराधना-मूलं, विषयेषु स्पृहाः यतः १७७३ । अर्थ - विषय-भोगों की अभिलाषा ही रत्नत्रय की/मोक्षमार्ग की चारों आराधनाओं की विराधना का मूल है, ऐसा आगम में कहा है अत: हे क्षपकराज ! तुम देवों के एवं चक्रवर्ती आदि के दिव्य भोगों की अभिलाषा कदापि मत करना ।।१७७३ ।। शब्द रूपे रसे गन्धे, स्पर्शे साधो ! शुभेऽशुभे । सर्वत्र समतामेहि, तथा मानापमानयोः ।।१७७४ ।। समानो भव सर्वत्र, निर्विशेषो महामते ! राग-द्वेषोदये जन्मो म.र्थो विजयते .. १५ : - अर्थ - हे साधो ! तुम इष्ट-अनिष्ट शब्दों में, रूप में, रस में, गन्ध में, स्पर्श में, मान में तथा अपमान में सर्वत्र ही सदा समता भाव धारण करो, क्योंकि जीवों के उत्पन्न होने वाले राग-द्वेषरूप परिणाम ही उत्तमार्थ रत्नत्रय/सम्यग् ध्यान समाधिमरण को नष्ट कर देते हैं। यह पदार्थ बहुत उपकारी है एवं उत्तम है अथवा यह पदार्थ मुझे कष्ट देता है इस प्रकार की विशेषताएँ राग-द्वेष को उत्पन्न करती हैं अतः हे महामते ! तुम सर्व पदार्थों एवं सर्व परिस्थितियों में निर्विशेषता पूर्वक समता भाव धारण करो ॥१७७४-१७७५ ।। गुर्वी यद्यपि पीडास्ति, प्रकृष्टा मारणान्तिकी। तथापि क्षपको याति, सर्वत्र सम-चित्तताम् ।।१७७६ ।। अर्थ - यद्यपि उस क्षपक को अन्तिम समय में मरण पर्यन्त अत्यधिक प्रकृष्ट पीड़ा होती है तथापि वह सर्वत्र समताभावों को धारण करता है ।।१७७६|| प्रश्न - इस श्लोक का तात्पर्य अर्थ क्या है ? उत्तर - इस देह से जीव का अनादिकालीन सम्बन्ध है। जीव ने भेदविज्ञान के अभाव में अद्यावधि इस सम्बन्ध पर विचार नहीं किया। सुख-दुख, भूख एवं प्यास आदि के वेदन शरीर के माध्यम से ही होते हैं अतः इसने शरीर को ही आत्मा माना। किसी विशिष्ट पुण्य योग से समाधिमरण का शुभ अवसर प्राप्त हुआ है, जीवन का अवसान अति निकट है। यद्यपि मरण समय जीव को असह्य पीड़ा होती है तथापि धैर्यरूप दृढ़ कवच-धारी क्षपक गुरु के उपदेश से भेदविज्ञान की प्रकृष्टता को प्राप्त कर मोहरहित होता हुआ समता भाव धारण कर अपना प्रयोजन सिद्ध कर लेता है। एवं भावित-चारित्रो, यावद्वीयं कलेवरे। तावत्प्रवर्तते साधुरुत्थाय शयनादिषु ।।१७७७ ।।। Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परणकण्डिका - ४८५ अर्थ - इस प्रकार निर्यापकाचार्य के उपदेश से उत्तम चारित्र से भावित होता हुआ वह क्षपक जब तक शरीर में शक्ति रहती है तब तक उठने, बैठने एवं सोने आदि की सर्व क्रियाओं में स्वयं प्रवृत्ति करता है ।।१७७७ ।। क्षीण-शक्तेयंदा चेष्टा, स्वल्पा भवति सर्वथा। तदा देह-प्रहाणाय, यतते निःस्पृहाशयः।।१७७८ ।। अर्थ - जब शक्तिहीन हो जाने पर उसकी शारीरिक चेष्टाएँ सर्वथा मन्द अल्प पड़ जाती हैं तब निःस्पृह भाव युक्त होता हुआ क्षपक शरीर का त्याग करने हेतु प्रयत्नशील होता है ।।१७७८ ।। शरीर आदि की त्याज्यता उपधिं संस्तरं शय्यां, पानं व्यावृत्तिकारिणः। शरीरं मुञ्चते योगी, सम्यक्त्वारूढ-मानसः ।।१७७९ ।। अर्थ - सम्यक्त्वारूढ़ मानसयुक्त वह योगी क्षपक पीछी, कमण्डलु, संस्तर, शय्या, जल, वैयावृत्य करने वाले मुनिपरिकर एवं शरीर को छोड़ देता है अर्थात् उन सबसे निरपेक्ष हो जाता है ।।१७७९ ।। निराकृत्य वचो-योगं, काय-योगं च सर्वथा । स विशुद्धे मनोयोगे, स्थिरात्मा व्यवतिष्ठते ।।१७८० ।। अर्थ - वह क्षीणकाय क्षपक काययोग अर्थात् शारीरिक क्रियाओं का एवं वचनयोग अर्थात् वचनप्रलाप का निराकरण कर विशुद्ध मनोयोग में अर्थात् आत्मस्वरूप में या पंच परमेष्ठी के चिन्तन में स्थिर-चित्त हो जाता है।।१७८० ॥ समत्वमिति सर्वत्र, प्रपद्यामल-मानसः। स मैत्री-करुणोपेक्षा-मुदिताः प्रतिपद्यते ॥१७८१ ॥ अर्थ - इस प्रकार सब पदार्थों में और सब जीवों में समता भाव धारण करने वाला वह क्षपक निर्मलचित्त होकर मैत्री, करुणा, उपेक्षा और मुदित अर्थात् मैत्री, प्रमोद, कारुण्य एवं माध्यस्थ्य भावनाओं को भाता है ।।१७८१ ॥ मैत्री आदि भावनाओं का स्वरूप जीवेषु सेव्या सकलेषु मैत्री, परानुकम्पा करुणा पवित्रा। बुधैरुपेक्षा सुख-दुःख-साम्यं, गुणानुरागो मुदितावगम्या ।।१७८२ ।। अर्थ - बुद्धिमानों को सदा ही सकल जीवों में मैत्री भाव, दीन-दुखी जीवों में उत्कृष्ट एवं पवित्र करुणा भाव, सुख-दुख में अथवा विपरीत आचरण करने वाले जीवों में माध्यस्थ्य अर्थात् समताभाव और गुणवान पुरुषों में प्रमोद भाव रखना चाहिए ।।१७८२ ।। प्रश्न - उपर्युक्त चारों भावनाओं के क्या लक्षण हैं ? उत्तर - मेरा आत्मा अनादि काल से घटीयन्त्र सदृश चारों गतियों में परिभ्रमण कर रहा है, इस बीच Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ४८६ सभी प्राणियों ने मेरा उपकार किया है अतः सभीजीव मेरे मित्र हैं। ऐसी भावना करना मैत्री भावना है अथवा सभी जीव सदा सुखी रहें, ऐसे भाव होना मैत्री भावना है। असह्य शारीरिक, मानसिक, आगन्तुक एवं स्वाभाविक दुखों से दुखी जीवों को देखकर विचार आना कि अहो ! मिथ्यादर्शन, अविरति और कषायादि से उपार्जित अशुभ कर्मों के उदय से उत्पन्न हुई नाना प्रकार की वेदनाओं को ये जीव विवश हो भोग रहे हैं, इनका दुख कैसे दूर हो ? इस प्रकार के भाव जाग्रत होना कारुण्य भावना है। ___ मुनिजन राग, रोष, भय, लोभ, माया एवं मान आदि से रहित और विनयादि गुण सहित होते हैं। मुनि, गुरु तथा साधर्मी जनों के इस प्रकार के गुणों के चिन्तन से हृदय का आह्लादित हो उठना प्रमोद या मुदिता भावना है तथा सुख में राग एवं दुख में द्वेष न होना अथवा विपरीत चेष्टा करने वाले प्राणियों के प्रति मध्यस्थ भाव रखना माध्यस्थ्य भावना है। दर्शन-ज्ञान-चारित्र-तपो-वीर्य-निविष्ट-धीः। कृष्टां कुरुते चेष्ट्रां, मनो-वाक्कायकर्मभिः ॥१७८३ ।। अर्थ - मैत्री आदि भावनाओं के बल से वह क्षपक सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र अर्थात् वीतरागता, तप अर्थात् भोजन-पान का त्याग और वीर्य में मन, वचन एवं काय द्वारा सम्यक्त्व आदि की विशिष्टता में अपनी बुद्धि लगाता है अर्थात् अपने परिणामों को अति उज्ज्वल करने की चेष्टा करता है ।।१७८३ ॥ राग-द्वेष-क्रोध-मात्सर्य-मोदाः, येन त्यक्ता निर्जिताक्षेण सर्वे। ध्यानं ध्यातुं योग्यता तस्य साधोः, सामग्रीतो याति कार्यं प्रसिद्धिम् ॥१७८४ ।। इति समता। अर्थ - जिस जितेन्द्रिय साधु ने राग, द्वेष, क्रोध, मात्सर्य एवं हर्ष आदि सभी का त्याग कर दिया है, उस साधु में ध्यान करने की योग्यता आ जाती है और साथ-ही-साथ यदि उसे ध्यान की सामग्री भी मिल जाती है तो तत्काल उसके ध्यानरूप कार्य की सिद्धि भी हो जाती है॥१७८४ ।। इस प्रकार समता नामक अधिकार पूर्ण हुआ॥३६ ।। विशेष - इस अधिकार की अन्तिम पाँच कारिकाएँ ध्यानविषयक प्रतीत होती हैं, जो विचारणीय हैं। ध्यानादि अधिकार शुक्लध्यान में प्रवृत्त होने की प्रेरणा धर्म चतुर्विधं ध्यात्वा, संसारासुख-भीरुकः। शुक्लं चतुर्विधं ध्यानं, ध्यातुं प्रक्रमते यतिः ।।१७८५ ॥ Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ४८७ अर्थ - संसार के दुखों से भयभीत क्षपक चार प्रकार के धर्मध्यानों का ध्यान करने के बाद अब चार प्रकार के शुक्ल ध्यानों का ध्यान करने के लिए प्रवृत्त होता है ।।१७८५ ॥ प्रश्न - ध्यान किसे कहते हैं ? उसके भेद-प्रभेद कितने हैं ? उत्तर - एक पदार्थ में मन का स्थिर होना ध्यान है। अप्रशस्त और प्रशस्त के भेद से ध्यान दो प्रकार का है। आर्तध्यान एवं रौद्रध्यान के भेद से अप्रशस्त ध्यान दो प्रकार का है। ये दोनों ध्यान संसार के कारण हैं अतः सर्वदा त्याज्य हैं। धर्मध्यान और शुक्लध्यान के भेद से प्रशस्त ध्यान भी दो प्रकार का है। ये दोनों ध्यान नियमत: स्वर्ग एवं मोक्ष के हेतु हैं। शुक्लध्यान तो साक्षात् मोक्ष का हेतु है किन्तु वह वर्तमान पंचम काल में नहीं होता। इन चारों ध्यानों के पुनः चार-चार भेद होते हैं, जिनका विशेष विवेचन क्रमश: किया जा रहा है। आर्त-रौद्र-द्वयं त्याज्यं, सर्वदा दुःख-दायकम् । तेन विध्वस्यते ध्यानं, दुर्नयेनेव सन्नयः ।।१७८६ ।। अर्थ - जैसे कुनयों से सुनय नष्ट हो जाते हैं, वैसे ही अप्रशस्तध्यानों से धर्मध्यानादि प्रशस्त ध्यान नष्ट हो जाते हैं अत: परीषह एवं उपसर्गों से पीड़ित होने पर भी क्षपक को दुख देने वाले आर्तध्यान और रौद्रध्यान इन दोनों को सर्वदा छोड़ देना चाहिए ॥१७८६ ।। रौद्रं चतुर्विधं ध्यानं, ये चान्ते सन्ति केचन । ते भेदा दूरतस्त्याज्या, विज्ञाय विधि-वेदिना ॥१७८७ ।। अर्थ - आर्तध्यान और रौद्रध्यान के जो चार-चार भेद हैं उन्हें ध्यान की विधि एवं उनके फल को जानने वाले संस्तरारूढ़ क्षपक को दूर से ही छोड़ देना चाहिए ।।१७८७ ।। रौद्रध्यान के भेद स्तेयासत्यवचो-रक्षा-षड्विधारम्भ-भेदतः। कषाय-सहितं रौद्रं, ध्यानं ज्ञेयं समासतः ।।१७८८ ।। अर्थ - कषाय सहित ध्यान को रौद्र ध्यान कहते हैं। रौद्र ध्यान का यह संक्षिप्त लक्षण है। चोरी का विचार, असत्यभाषण का चिन्तन, परिग्रह की रक्षा में तत्परता का भाव, षट्काय के जीवों के आरम्भ में संलग्नता अर्थात् चौर्यानन्दी, मृषानन्दी, परिग्रहानन्दी एवं हिंसानन्दी के भेद से रौद्र ध्यान चार प्रकार का है।।१७८८ ।। आर्तध्यान के भेद प्रियायोगाप्रिय-प्राप्ति-परीषह-निदानतः। कषाय-कलितं ध्यानमात प्रोक्तं चतुर्विधम् ॥१७८९ ॥ अर्थ - प्रिय वस्तु के वियोग में इष्टवियोगज, अप्रिय वस्तु के संयोग में अनिष्टसंयोगज, परीषह आने पर पीड़ाचिन्तन एवं आगामी काल में भोगप्राप्ति की वांछाजन्य निदानबन्ध के भेद से आर्तध्यान भी चार प्रकार का है। यह आर्तध्यान भी कषायभावों से युक्त होता है।।१७८९ ।। Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ४८८ रौद्रमात त्रिधा त्यक्त्वा, सुगति-प्रतिबन्धकम् । धर्म-शुक्ल-द्वये योगी, साम्यं कर्तुं प्रवर्तते ।।१७९० ॥ अर्थ - उत्तम गतियों के प्रतिबन्धक इन आर्तध्यान एवं रौद्रध्यानों को मन, वचन एवं काय से छोड़कर योगी अथवा क्षपक को समता भावों की स्थिरता के लिए धर्म-ध्यान एवं शुक्ल ध्यानों में प्रवृत्त हो जाना चाहिए ।।१७९० ॥ प्रशस्त ध्यानों में प्रवृत्त होने की प्रेरणा ध्याने प्रवर्तते कांक्षन-कषायाक्ष-निरोधनम। वश्यत्वं मनसो मार्गादभ्रंशं निर्जरा परम् ॥१७९१ ।। अर्थ - कषायों और इन्द्रियों का प्रसार रोकने के लिए, चित्त को वश में करने के लिए, रत्नत्रय स्वरूप मोक्षमार्ग से च्युत न होने के लिए और अत्यधिक निर्जरा के लिए योगीजन धर्मध्यान एवं शुक्लध्यान में प्रवृत्त होते हैं ।।१७९१ ॥ प्रश्न-किसका चित्त स्व-वश में रह सकता है और प्रशस्तध्यान में प्रवृत्त रहने को क्यों कहा गया है? उत्तर - यहाँ काशय और इन्द्रिय शब्दों से क्रोधादि कषायों में एवं स्पर्शादि इन्द्रियों के विषयों में उपयोग की स्थिति है। जिसका चित्त वस्तु के यथार्थ स्वरूप में स्थिर रहता है उसकी प्रवृत्ति इन्द्रियों के विषयों से उत्पन्न हुए उपयोग की ओर नहीं जाती और न उसमें कषायों की उत्पत्ति ही होती है तथा जो आत्महित रूप इष्ट विषय में चित्त को बार-बार संलग्न करता है और विषय-कषायरूप अनिष्ट से चित्त को हटाता है उसका मन स्व-वश में रहता है। क्षपक भी जानता है कि यदि मैं अशुभ ध्यान में जुटा रहूँगा तो रत्नत्रय से च्युत हो जाऊँगा, अतः वह शुभ ध्यान में संलग्न रहने का सतत प्रयत्न करता है। ध्यान का परिकर एकाग्र-मानसश्चक्षुळवयं पर-वस्तुतः । आत्मनि स्मृतिमाधाय, ध्यानं श्रयति मुक्तये ।।१७९२ ।। अर्थ - पर वस्तु से दृष्टि हटाकर, मन को एकाग्र कर और अपनी आत्मा में स्मृति अर्थात् बुद्धि को लगाकर मुनिजन मुक्तिप्राप्ति के लिए ध्यान का आश्रय लेते हैं ।।१७९२॥ प्रश्न - ध्यान के इस परिकर को कैसे साधना चाहिए ? उत्तर - जब तक दृष्टि इधर-उधर जाती रहती है तब-तक मन चंचल ही रहता है, अत: पर-वस्तुओं से हटा कर दृष्टि को नाक के अग्रभाग पर स्थिर करके, किसी एक परोक्ष वस्तुविषयक ज्ञान में मन को जुटा कर श्रुतज्ञान से जाने हुए विषयों का स्मरण करते हुए आत्मा में लीन हो जाना चाहिए, यही ध्यान संसार से छूटने का कारण है। प्रत्याहृत्य मनोऽक्षाणि, विषयेभ्यो महाबलः । प्रणिधानं विधत्तेऽसावात्मनि ध्यान-लालसः ।।१७९३ ।। Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ४८९ अर्थ - ध्यान के इच्छुक महाबलशाली मुनिजन मन एवं इन्द्रियों को विषयों से हटाकर आत्मा में एकाग्र कर लेते हैं॥१७९३ ।। मन को रोककर क्या करना चाहिए ? ध्यायत्येकाग्र-चेतस्को, धर्म्यध्यानं चतुर्विधम् । आज्ञापाय-विपाकानां, संस्थाया विषयं सुधीः ॥१७९४ ।। अर्थ - मन को रोक लेने वाले वे बुद्धिशाली मुनिराज एकाग्र चित्त से आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय एवं संस्थानविचय नामक चार प्रकार के धर्म्यध्यानों का ध्यान करते हैं॥१७९४ ।। प्रश्न - धर्मध्यान किसे कहते हैं ? उत्तर - जिसमें स्वभावरूप अतिशयता विद्यमान होती है उसे वस्तु कहते हैं और जो वस्तु की वस्तुता को धारण करता है उसे धर्म कहते हैं अर्थात् धर्म शब्द वस्तु-वभाव का वाचक है। चैतन्यादि रूप स्वभाव की अतिशयता से ही जीवादि वस्तुएँ हैं। यहाँ धर्म शब्द विवक्षित धर्मविशेष को कहते हैं अतः आज्ञा, अपाय, विपाक एवं संस्थान आदि धर्म जिसमें ध्येयरूप होते हैं उसे धर्मध्यान कहते हैं। प्रश्न - ध्यान किसे कहते हैं ? उत्तर - छह संहननों में से आदि के तीन अर्थात् वज्रर्षभनाराच, वज्रनाराच एवं नाराच ये तीन संहनन उत्तम कहे जाते हैं। इनमें से किसी एक संहनन वाले के एकाग्रचिन्ता-निरोध को ध्यान कहते हैं। प्रश्न - चिन्तानिरोध का क्या अभिप्राय है ? उत्तर - यहाँ चिन्ताशब्द चैतन्य का वाचक है। यह चैतन्य अन्य-अन्य पदार्थों को जानते हुए ज्ञान पर्यायरूप से वर्तन करता है अत: वह परिस्पन्दन वाला है, इसका कुछ समय के लिए एक ही विषय में प्रवृत्ति करना चिन्तानिरोध का अभिप्राय है । प्रश्न - ध्येय किसे कहते हैं ? उत्तर - ध्यान के अवलम्बनभूत पदार्थों को अथवा उनके विषयों को ध्येय कहते हैं । आत्मा, परमात्मा एवं जिनेन्द्र देव के द्वारा उपदिष्ट नौ पदार्थ ध्येय हैं। ये नौ पदार्थ जीवाजीवात्मक हैं। फिर भी रागादि का निरोध करने में निमित्त होते हैं। इस प्रकार ध्याता जिस-जिस वस्तु में अपना मन एकाग्र करता है वह-वह वस्तु ध्यान का अवलम्बन होने से ध्येय बन जाती है तथा रागादि के अभाव में वही ध्येय कर्मक्षय का निमित्त बन जाते हैं। प्रश्न - धर्मध्यान कितने प्रकार का है और उनके लक्षण क्या हैं ? उत्तर - ध्येय के भेद से धर्मध्यान चार प्रकार का होता है। आज्ञा विचय, अपाय विचय, विपाक विषय एवं संस्थान विचय । आज्ञा विचय - राग-द्वेषादि अठारह दोषों से रहित होने के कारण जिनेन्द्र “अन्यथा वादी नहीं होते" ऐसी दृढ़ श्रद्धापूर्वक आज्ञा के बल से प्रत्यक्ष और अनुमानादि प्रमाणागम के विषयभूत पदार्थों का अर्थात् पंचास्तिकाय, छह जीव निकाय तथा कालद्रव्यादि आज्ञा-ग्राह्य अन्य-अन्य पदार्थों का ध्यान करना आज्ञाविचय धर्मध्यान है। Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ४९० प्रश्न - जिनेन्द्राज्ञा का अवलम्बन क्यों लेना पड़ता है ? उत्तर - बुद्धि की दुर्बलता होने से, अध्यात्म विद्या के ज्ञाता आचार्यों का विरह होने से, ज्ञेय पदार्थों की गहनता होने से, ज्ञानावरण कर्म की तीव्रता होने से और स्वयं को तो ज्ञान है किन्तु सिद्धान्त प्रतिपादित पदार्थ एवं तत्त्व दूसरों को समझाने में हतुभूत युक्तियों, हेतुओं एवं उदाहरणों की प्राप्ति सम्भव न हो पाने से "सर्वज्ञ प्रतिपादित आगम में जो तत्त्व जैसे कहे गये हैं, वैसे ही हैं अन्यरूप नहीं हैं" इस प्रकार की आज्ञा ही अवलम्बनीय होती है। प्रश्न - जिनेन्द्राज्ञा में ऐसी क्या प्रकर्षता है जो कर्मनिर्जरा एवं कर्मक्षय तक का निमित्त बन जाती है? उत्तर - भगवान् जिनेन्द्र की आज्ञा जगत् के लिए प्रदीप स्वरूप है, सुनिपुण है, अनादिनिधन है, जगहितकारी है, अमूल्य है, अमित है, अजित है, महान् अर्थ से परिपूर्ण है, महानुभाव है, महान् विषयवाली है, निरवद्य है, अनिपुण एवं अज्ञों के लिए दुर्जेय है तथा नय-भंगों से प्रमाणागम से गहन है। ऐसी जिनेन्द्राज्ञा जगत् के जीवों द्वारा सेवित है। अपाय विचय- मार्ग दिखाई न देने से जैसे जन्मान्ध मनुष्य सन्मार्ग से दूर रहते हैं, वैसे ही मिथ्यादृष्टि जीव सर्वज्ञप्रणीत मोक्षमार्ग से विमुख हो रहे हैं। ये बेचारे तत्त्व के यथार्थ स्वरूप को नहीं समझ पा रहे हैं। इन अज्ञानी प्राणियों का यह मिथ्यात्व एवं अज्ञान कैसे दूर हो; इत्यादि प्रकार से विचार करना अपायविचय धर्मध्यान है। विपाक विचय - ज्ञानावरणादि कर्मों की बंध, उदय, सत्त्व एवं संक्रमण आदि अवस्थाओं का, उनके उदयागत फलों का एवं किस द्रव्य-क्षेत्रादि से कौनसा कर्म फल देने के सम्मुख होता है, इन विषयों का चिन्तन करना विपाक विचय धर्मध्यान है। संस्थान विचय - तीन लोक का स्वभाव, आकार, स्वर्ग, नरक आदि की अवस्थिति एवं इन सब के प्रमाणादि का चिन्तन करना संस्थानविचय धर्मध्यान है। धर्मध्यानी एवं धर्मध्यान के लक्षण (चिह्न) मार्दवार्जव-नैःसङ्ग्य-हेयोपादेय-पाटवम्। ज्ञेयं प्रवर्तमानस्य, धर्मध्यानस्य लक्षणम् ॥१७९५ ॥ अर्थ - मार्दव, आर्जव, नि:संगपना और हेयोपादेय तत्त्व को समझने-समझाने की पटुता, ये सब धर्मध्यानी के तथा धर्मध्यान के लक्षण हैं ।।१७९५॥ प्रश्न - मार्दवार्जवादि गुणों के क्या लक्षण हैं? और इन गुणों का धर्मध्यान से क्या सम्बन्ध है? उत्तर - जाति, कुलादि का अभिमान नहीं करना मार्दव गुण है। एक धागे के दोनों छोर पकड़ कर खींचने से जैसे उसमें सरलता प्राप्त हो जाती है, कुटिलता नहीं रहती, वैसे ही कुटिलता नहीं रहने अथवा परिणामों की सरलता को आर्जव कहते हैं। परिग्रह में अनासक्ति, निर्लोभता एवं लघुता को नि:संगत्वगुण कहते हैं और जिनमत के विवेचन द्वारा आस्रवादि हेय तत्त्व और आत्मा, संवर-निर्जरादि उपादेय तत्त्वों को समझाने में या स्वयं समझने में प्रवीण होना धर्मध्यान के लक्षण या चिह्न हैं। जिसमें ये गुण होते हैं उसे धर्मध्यानी कहते हैं। अथवा मार्दवादि गुणों से युक्त जीवों के ही धर्मध्यान सम्भव है। मार्दवादि गुण कारण हैं और धर्मध्यान लक्ष्य है, अतः मार्दवादि गुणों में और धर्मध्यान में कार्य-कारण भाव या लक्ष्य-लक्षणभाव है | Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका- ४९१ ध्यान के अवलम्बन वाचना-पृच्छनाम्नायानुप्रेक्षा- धर्मदेशनाः । भवत्यालम्बनं साधोर्धर्मध्यानं चिकीर्षतः ।। १७९६ ।। अर्थ - धर्मध्यान के इच्छुक साधु को वाचना, पृच्छना, आम्नाय, अनुप्रेक्षा एवं धर्मोपदेश ये पाँच प्रकार के स्वाध्याय अवलम्बनभूत हैं अर्थात् इन स्वाध्यायरूप तप के माध्यम से ही धर्मध्यान की सिद्धि सम्भव है ॥ १७९६ ॥ हैं ? प्रश्न- वाचनादि स्वाध्याय के क्या लक्षण हैं तथा ये धर्मध्यान की सिद्धि में किस प्रकार सहायक होते उत्तर - सर्वज्ञप्रणीत एवं संसारभीरु दिगम्बराचार्यों द्वारा रचित शास्त्रों का स्वाध्याय करना वाचना है। आगमकथित विषय में शंका उत्पन्न हो जाने पर अथवा ज्ञात तत्त्व की श्रद्धा दृढ़ करने हेतु प्रश्नात्मक चर्चा करना पृच्छना है | गाथा, श्लोक एवं सूत्रादि कण्ठस्थ करने हेतु पुनः पुनः घोष करना आम्नाय है, वस्तु के अनित्यादि स्वभाव का चिन्तन करना अनुप्रेक्षा है। सब अनुप्रेक्षाएँ एक समय में एकाश्रयरूप से रह सकती हैं अतः ये भी धर्मध्यान के अनुकूल हैं। धर्मध्यान में अन्तर्भूत होने से अनुप्रेक्षा शब्द यहाँ बीज स्वरूप है। आगे इसका विस्तृत विवेचन आचार्य स्वयं करेंगे। भव्य जीवों को हित का अर्थात् धर्म का उपदेश देना धर्मोपदेश नामक स्वाध्याय तप है। जब तक वाचना एवं पृच्छनादि रूप स्वाध्याय नहीं किया जावेगा तब तक धर्मध्यान की ध्येयरूप वस्तुओं का अर्थात् पंचास्तिकाय, छह द्रव्य एवं षट्काय जीवसमूह का ज्ञान या निर्णय नहीं हो सकता और निर्णय बिना, ध्येय वस्तु पर मन की एकाग्रता रूप ध्यान नहीं हो सकता अतः वाचनादि स्वाध्याय को धर्मध्यान का अवलम्बन कहा है। आज्ञा-विचय धर्मध्यान का स्वरूप पञ्चास्तिकाय - षट्काय-काल- द्रव्याणि यत्नतः । आज्ञा- ग्राहयाणि दक्षेण, विचार्याणि जिनाज्ञया ।। १७९७ ।। अर्थ - जीवास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय एवं आकाशास्तिकाय, इन पाँच अस्तिकाय द्रव्यों को, पाँच स्थावर काय और व्रसकाय इन छह जीव निकायों को, काल द्रव्य को, तथा अन्य कर्मबन्ध, उदय तथा उसके फलभेदों को, अन्य और भी अतीन्द्रिय पदार्थों को जिनाशानुसार जो दक्ष पुरुष अपने चिन्तन का विषय बनाते हैं उसे आज्ञाविचय धर्मध्यान कहते हैं ॥ १७९७ ॥ प्रश्न- अस्तिकाय किसे कहते हैं और यहाँ सात तत्त्व ग्रहण क्यों नहीं किये गये हैं ? उत्तर - अस्तिकाय में 'अस्ति' शब्द का अर्थ है विद्यमान अर्थात् 'है', और 'काय' शब्द का अर्थ है बहुत अर्थात् जो द्रव्य बहुतप्रदेशी हैं, उन्हें अस्तिकाय कहते हैं। एक जीव द्रव्य, धर्म द्रव्य, अधर्मद्रव्य और लोकाकाश ये असंख्यात प्रदेशी हैं, पुद्गलों में कोई संख्यात प्रदेशी, कोई असंख्यात प्रदेशी और कोई अनन्त Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ४९२ प्रदेशी भी होते हैं तथा आकाश द्रव्य अनन्त प्रदेशी है। काल, द्रव्य तो है किन्तु बहुत प्रदेशी नहीं है । कालद्रव्य असंख्यात हैं किन्तु प्रत्येक कालाणु एक-एक प्रदेश वाला ही है। इस प्रकार द्रव्य छह हैं। जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये सात तत्त्व हैं। इनमें से जीव तत्त्व, जीव द्रव्य में और अजीव तत्त्व पुद्गलादि पाँच अजीव द्रव्यों में अन्तर्निहित हो जाता है। जीव एवं अजीब के संयोग-वियोग से निर्मित शेष बन्धादि तत्त्व भी जीव द्रव्य और पुद्गल द्रव्य में ही अन्तलीन हो जाते हैं अतः भिन्न रूप से नहीं कहे गये हैं। अपाय विचय धर्मध्यान का लक्षण कल्याण प्रापकान्तिनीयो जिनागमे । शुभाशुभ - विकल्पानामपायः कर्मणां परम् ।। १७९८ ।। अर्थ - जिनागम में कल्याण अर्थात् सुखप्राप्ति के जो उपाय दर्शाये गये हैं, उनका चिन्तन करना, अथवा शुभ-अशुभ कर्मों का अभाव कैसे हो या इनसे कैसे छूटे, ऐसा चिन्तन करना, अपाय विचय धर्मध्यान है ।। १७९८ ।। " प्रश्न कल्याण का क्या अर्थ है और वह कितने प्रकार का होता है तथा शुभाशुभ कर्मों के अपाय का चिन्तन करने से क्या लाभ है ? उत्तर - कल्याण का अर्थ है सुख । निःश्रेयस् एवं अभ्युदय के भेद से यह सुख दो प्रकार का है। मोक्षसुख निःश्रेय और देव-मनुष्यों के सुख को अभ्युदय सुख कहते हैं। शुभ-अशुभ कर्मों का बन्ध इष्टानिष्ट कल्पना से होता है। यही कल्पना रागद्वेष की जनक है और रागद्वेष संसार परिभ्रमण का मूल कारण है, इनसे एवं मिथ्यात्व असंयमादि से छूटने का तथा तीर्थंकर पद देने वाली दर्शनविशुद्धि आदि भावनाओं का, सम्यक्त्व पुष्ट करने वाले नि:शंकित आदि अंगों का और निःश्रेयस् सुख के कारणभूत रत्नत्रय की प्राप्ति के उपायों का चिंतन करना अपायवित्रय धर्मध्यान है । इस ध्यान से आत्मा सुखस्थानों को प्राप्त हो जाता | विपाकविचय धर्मध्यान का लक्षण एकानेक-भवोपात्त पुण्य-पापात्म-कर्मणाम् । उदयोदीरणादीनि चिन्तनीयानि श्रीमताम् ।। १७९९ ।। अर्थ- बुद्धिमानों को जीवों के एक भव या अनेक भव सम्बन्धी पुण्यकर्म एवं पापकर्म के फल, उदय, उदीरणा, संक्रमण, बन्ध एवं सत्त्व आदि का विचार करना चाहिए। ऐसा चिन्तन ही विपाकविचय धर्मध्यान कहा जाता है ।। १७९९ ।। प्रश्न- पुण्य-पाप कर्म के एवं उदय उदीरणादि के क्या लक्षण हैं ? उत्तर - जिन कर्मों के उदय से देवगति आदि के सुख प्राप्त होते हैं उन्हें पुण्यकर्म और जिन कर्मों के उदय से नरकादि गतियों के दुख प्राप्त होते हैं उन्हें पापकर्म कहते हैं। इन कर्मों की दस अवस्थाएँ होती हैं। यथाबन्ध, सत्त्व, उदय, उदीरणा, संक्रमण, उपशम, अपकर्षण, उत्कर्षण, निधत्ति और निकाचित । Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परणकण्डिका - ४१३ बन्ध - द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भावों के आश्रय से कार्मण वर्गणारूप विस्रसोपचयों का दूध-पानी सदृश आत्मप्रदेशों से मिल जाना बंध है। सत्त्व - कर्मबन्ध से उदय आने के पूर्व समय पर्यन्त कर्मों का आत्मा के साथ स्थित रहना सत्त्व है। उदय - द्रव्य-क्षेत्रादि के आश्रय से योग्य काल में क्रम से कर्मों का अनुभवन होना अथवा फल देना उदय है। उदीरणा - असमय में अक्रम से कर्मों का फल देना उदीरणा है। अथवा जो कर्म उदय में नहीं आ रहा है, उसकी स्थिति को बलपूर्वक घटाकर कर्म को उदय में लाना उदीरणा है। संक्रमण - एक कर्मप्रकृति का अपनी सजातीय अन्य प्रकृतिरूप बदलना संक्रमण है। उपशम - कारणविशेष से कर्म की उदीरणा न हो सकना, उन्हें कुछ समय तक दबा कर रखना उपशम अपकर्षण - कर्मों की स्थिति को घटा देना अपकर्षण है। उत्कर्षण - कर्मों की स्थिति में वृद्धि हो जाना उत्कर्षण है। निधत्ति - जिन कर्मों में उदीरणा और संक्रमण न हो सके वह कर्म निधत्ति है। निकाचित - जिस कर्मप्रकृति में उदीरणा, संक्रमण, अपकर्षण एवं उत्कर्षण ये चारों न हो सकें वह कर्मप्रकृति निकाचित है। इस प्रकार कर्मों की नाना अवस्था विशेषों का चिन्तन करना विपाकविचय धर्मध्यान है। संस्थान विचय धर्मध्यान का लक्षण ऊर्ध्वाधः सत्रिलोकस्था, द्रव्य-पर्याय-संस्थितीः । विचिन्तयत्यनुप्रेक्षास्तत्रैवानुगतो यतिः ।।१८०० ।। अर्थ - द्रव्य-पर्यायों से खचित तथा क्रमश: वेत्रासन, झल्लरी एवं मृदंग सदृश अधोलोक, मध्यलोक एवं ऊर्ध्वलोक का चिन्तन करना संस्थान विचय धर्मध्यान है। इस ध्यान में स्थित मुनिजन बारह भावनाओं का भी चिन्तन करते हैं। अर्थात् बारह-भावनाओं का चिन्तन करना भी संस्थान विचय धर्मध्यान है।।१८०० ॥ बारह भावनाओं के नाम अध्रुवाशरणैकान्य-जन्म-लोक-विसूचिकाः। आस्रवः संवरशिन्त्यो, निर्जरा-धर्म-बोधयः ॥१८०१ ।। अर्थ - अध्रुव, अशरण, एकत्व, अन्यत्व, संसार, लोक, अशुचि, आम्रव, संवर, निर्जरा, धर्म एवं बोधि इन बारह भावनाओं का भी चिन्तन करना चाहिए ।।१८०१॥ --- Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका -४९४ अनित्य भावना का विस्तृत विवेचन डिण्डीर-पिण्ड-वल्लोकः, सकलोऽपि विलीयते। समस्ताःसम्पदश्चात्र, स्वप्न-भूति-समागमाः॥१८०२॥ अर्थ - यह सम्पूर्ण लोक डिंडीरपिंड अर्थात् समुद्र के झाग सदृश नष्टस्वभावी है एवं धन-वैभवरूप समस्त सम्पदाएँ स्वप्न में प्राप्त सम्पदाओं के सदृश क्षणभंगुर हैं ।।१८०२॥ प्रश्न - सर्व सम्पदाएँ लोक में अन्तर्निहित हैं अत: लोक की अनित्यता से ही सर्व सम्पदाओं की अनित्यता सिद्ध हो जाती है फिर यहाँ उन्हें अलग से बिनाशीक कहने का क्या प्रयोजन है ? । उत्तर - समुदाय, अवयवात्मक ही होता है, अतः अवयवों की अनित्यता के बिना समुदाय की अनित्यता का ज्ञान सुखपूर्वक नहीं हो पाता, इसलिए उन्हें अलग कहा गया है। दृष्ट-नष्टानि सौख्यानि, स्फुरितानीव विद्युताम् । बुद्बुदा इव नि:शेषा, नश्वराः सन्ति गोचराः ।।१८०३ ।। अर्थ - इन्द्रियजन्य सर्व इष्ट सुख विद्युत् प्रकाश सदृश नष्ट होने वाले हैं और प्रत्यक्ष दिखाई देने वाले स्थान एवं उच्च पद आदि भी जल के बुलबुले के समान नश्वर हैं ॥१८०३ ।। प्रश्न -- यहाँ इन्द्रियसुख, स्थान एवं पद आदि को विनाशी कहने का क्या प्रयोजन है ? उत्तर - आत्मा नि:संगस्वभावी है और अपने आत्मोत्थ सुख से लबालब परिपूर्ण अर्थात् भरा है, किन्तु इस अपने सहज सुख स्वभाव की श्रद्धा से रहित मिथ्यादृष्टिजीव अनादिकाल से इन्द्रियसुख के लम्पटी हैं। इन्द्रियसुख बाह्य सामग्री अर्थात् द्रव्य के एवं इन्द्रियों के अधीन है। इनमें भी इन्द्रिय सुखों का मूल 'द्रव्य' है। है कि कभी-कभी यह प्राणी द्रव्यप्राप्ति की अभिलाषा में अधवा इन्द्रिय सख की आसक्ति में अपने प्राणों की भी बाजी लगा देता है तथा सुख-लम्पटी मनुष्य सैकड़ों वज्रपातों के पतन से होने वाले कष्टों को सहन करता है। इन क्षणभंगुर सुखों से एवं इस सुख के मूल धनादि रूप द्रव्यों से विमुख होने के उपाय दर्शाने हेतु आचार्यदेव ने इन्द्रियसुखों को विद्युत् प्रकाश सदृश क्षणक्षयी एवं द्रव्यों को सर्वथा अनित्य कहा है। जीव के आश्रयभूत राष्ट्र, देश, नगर, ग्राम एवं गृह भवनादि को स्थान कहते हैं, तथा इन्द्रपद, चक्रवर्ती पद, राष्ट्रपति पद, मंत्री पद इत्यादि पद हैं। "यह मेरा स्थान है क्योंकि मैं यहाँ रहता हूँ" और मैं चक्रवर्ती हूँ, नारायण हूँ, मंत्री हूँ, वकील हूँ, डॉक्टर हूँ, सरपंच हूँ, प्रधान हूँ, पुरुष हूँ अथवा पति हूँ, इस प्रकार के संकल्पों द्वारा इन स्थानों को और पदों को नित्य मानकर अभिमानादि करता है, किन्तु अनित्य स्वभावी होने से जब ये नष्ट हो जाते हैं तब अत्यन्त संक्लेशित होकर दुष्ट कर्मों का बन्ध करता है अत: आचार्य इन्हें जल के बुलबुले सदृश अध्रुव कहकर सन्मार्ग दर्शन करा रहे हैं। नानादेशागताः पान्था, नौगता इव बान्धवाः । गत्वरा आश्रयाः सर्वे, शारदा इव नीरदाः ।।१८०४।। अर्थ - नदी से पार होने के लिए नाना देशों से आकर एक नाव में बैठने वाले पथिक जनों के समान Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ४९५ जीव के आश्रयभूत पिता, पति, पुत्र अथवा स्वामी, नौकर, सेवकादि सभी बान्धव एवं आश्रित जन शरद् ऋतु के मेघ सदृश अस्थिर अर्थात् नश्वर हैं ।।१८०४ ।। प्रश्न - बन्धुजनों को एवं आश्रयभूत स्वामी आदि को अनित्य कहने का क्या कारण है ? उत्तर - जैसे नाव में बैठे हुए सब पथिक सदा, एक साथ, नाव में बैठे नहीं रह सकते, वैसे ही एक परिवार में रहने वाले पिता-पुत्र, स्त्री आदि एवं स्वामी-सेवकाटि सट भाशुभ परिणामों से बाँधे गये आयु कर्म के वशवर्ती हो देवगति, मनुष्यगति, तिर्यंचगति एवं नरकगति रूप पर्याय ग्रहण करने के लिए यथास्थान चले जाते हैं और वहाँ की आयु पूर्ण होते पुनः अन्यगति में चले जाते हैं, इसी कारण बन्धुतादि को अनित्य कहा गया है। छायानामिव पान्थानां, संवासो नश्वरोऽङ्गिनाम् । चक्षुषामिव रागोऽत्र, न स्नेहो जायते स्थिरः ।।१८०५ ।। अर्थ - जैसे मार्ग में चलते हुए पथिक का मार्ग स्थित वृक्षों की छाया से किंचित् ही संयोग होता है, वैसे परिवारजनों से अल्पकालीन संयोग ही हो पाता है। अथवा जैसे प्रणय अर्थात् प्रेम-कलहादि से कुपित मनुष्यों के नेत्र किंचित् काल तक ही लालिमायुक्त दिखाई देते हैं वैसे ही प्रियजनों का स्नेह अल्पकाल तक ही रहता है. स्थिर नहीं रहता इसलिए उसे अनित्य कहा जा रहा है॥१८०५॥ संयोगो देहिनां वृक्षे, शर्वर्यामिव पक्षिणाम् । आज्ञैश्वर्यादयो भावाः, परिवेषा इव स्थिराः ।।१८०६॥ अर्थ - जैसे जिस किसी वृक्ष पर पक्षियों का पारस्परिक संयोग रात्रि में होता है और प्रातः समाप्त हो जाता है, वैसे ही परिवार जनों का सम्बन्ध अस्थिर है, तथा जैसे सूर्य या चन्द्र पर होने वाला परिवेश क्षणिक है, वैसे ही आज्ञा, ऐश्वर्य, आरोग्य, धन-वैभव एवं प्रभुतादि भी क्षणिक हैं, अनित्य हैं ।।१८०६।। जीवानामक्ष-सामग्री, शंपेवास्ति चला चलम् । विनश्वरमशेषाणां, मध्याह्न इव यौवनम् ।।१८०७॥ अर्थ - जीवों की इन्द्रियों की भोगसामग्री भी विद्युत्वत् चंचल है। अर्थात् कभी इन्द्रियाँ यथावत् रहती हैं किन्तु पापोदय से भोगसामग्री नष्ट हो जाती है अथवा कभी नेत्रादि इन्द्रियाँ कमजोर अथवा नष्ट हो जाती हैं तथा मनुष्यों का यौवन भी मध्याह्नकाल के समान विनश्वर है।।१८०७ ।। चन्द्रमा वर्धते क्षीण, ऋतुरेति पुनर्गतः। नदीजलमिवातीतं, भूयो नायाति यौवनम् ।।१८०८।। अर्थ - जैसे चन्द्रमा की कलाएँ क्षीण होकर पुन: वृद्धिंगत हो जाती हैं, हेमन्त, शिशिर एवं वसन्तादि ऋतुएँ भी जाकर पुन: लौट आती हैं वैसे हमारा प्यारा यौवन एक बार व्यतीत हो जाने पर उसी भवन में उसी प्रकार पुन: लौट कर नहीं आता जैसे नदीप्रवाह में गया हुआ जल फिर वापिस नहीं आता ॥१८०८ ॥ धावते देहिनामायुरापगानामिवोदकम् । क्षिप्रं पलायते रूपं, जलरूपमिवाङ्गिनाम् ॥१८०९॥ Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ४९६ अर्थ - लोक में सब जीवों की आयु नदी के प्रवाह सदृश दौड़ रही है और शारीरिक रूप-लावण्य जल में पड़ने वाले प्रतिबिम्ब सदृश शीघ्र ही पलायमान हो जाता है।॥१८०९॥ पौर्वाह्निकी यथा छाया, हीयते सुकुमारता। पराह्निकी यथा छाया, सर्वदा वर्धते जरा ॥१८१०।। अर्थ - जैसे प्रातःकाल जैसे-जैसे सूर्य ऊपर आता जाता है वैसे ही शरीर या वृक्ष आदि की छाया घटती जाती है, वैसे ही ज्यों-ज्यों आयु बढ़ती है त्यों-त्यों शरीर की सुकुमारता आदि घटती जाती है। इसी प्रकार अपराह्नकाल में जैसे छाया क्रमशः बढ़ती जाती है, वैसे ही ज्यों-ज्यों आयु अवसान की ओर बढ़ती है त्योंत्यों एक बार प्रारम्भ हो जाने के बाद बुढ़ापा बढ़ता जाता है ।।१८१० ॥ प्रश्न - यदि दिन-प्रतिदिन वृद्धावस्था बढ़ती है तो क्या हानि है ? उत्तर - बढ़ती हुई वृद्धावस्था मनुष्य की सुन्दरता, सुभगता, तारुण्य, शारीरिक शक्ति, ज्ञान एवं तप को क्षीण करती जाती है। इतना ही नहीं, यह वृद्धावस्था दीनता की माता है, तिरस्कार की धाय है, मृत्यु की दूती है और सभी प्रिय साली है। अर्थात पन प्रकार की हानियों की मूल जड़ वृद्धावस्था ही है। तेजो नश्यति जीवानां, निलिंप-धनुषामिव । उत्क्ले श-नश्वरी बुद्धिर्दृष्ट-नष्टा प्रजायते ॥१८११ ।। अर्थ - जीवों के शरीर की कान्ति या तेज इन्द्रधनुष के सदृश नष्ट हो जाता है। जो बुद्धि वस्तुओं के यथार्थ स्वरूप को दर्शाने वाली है, नाना प्रकार के दुखों की खानरूपी कुगति को रोकने वाली है, चारित्र रूपी निधि को दिखाने के लिए दीपक के सदृश है एवं मुक्तिरूपी वनिता की सखी है, वह भी देखते-देखते नष्ट हो जाती है।।१८११॥ बलं पलायते रूपमिव रथ्यागतं रजः। जलानामिव कल्लोलो, वीर्यं नश्वरमङ्गिनाम् ॥१८१२ ।। अर्थ - (जीवों के शरीर की दृढ़ता को बल और उनके आत्मपरिणाम की दृढ़ता को वीर्य कहते हैं।) जैसे मार्ग में धूल से रचा गया कोई आकार शीघ्र ही नष्ट हो जाता है, वैसे जीवों का बल शीघ्र ही पलायमान हो जाता है और उनका वीर्य भी प्रचण्ड वायु के अभिघात से उठने वाली समुद्र की लहरों के सदृश नश्वर है|१८१२॥ हिमपुजा इवानित्या, भवन्ति स्व-जनादयः। जन्तूनां गत्वरी कीर्तिः, सन्ध्या-श्रीरिव सर्वथा ॥१८१३ ।। अर्थ - स्वजन स्त्री-पुत्रादि एवं भवन, विभूति, शय्या एवं आसन आदि बर्फ के समूह के सदृश अध्रुव हैं और यश या कीर्ति भी आकाश में सुशोभित होने वाली सन्ध्या की लालिमा सदृश अनित्य है॥१८१३ ।। इदं जगच्छारद-वारिदोपमं, न जानते नश्वरमङ्गिनः कथम् । यमेन हन्तुं सकला: पुरस्कृता, मृगाधिपेनेव मृगा बलीयसा ॥१८१४ ।। इति अनित्यः। Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ४९७ अर्थ - यह जगत् शरद ऋतु के मेघ सदृश नश्वर है। अहो ! ये प्राणिगण इस सत्य को क्यों नहीं जानते? जैसे बलशाली सिंह द्वारा हरिण केवल मारने के लिए पकड़े जाते हैं, वैसे ही संसारी-प्राणियों को मारने के लिए ही यमराज सामने आ रहा है। अर्थात् सभी के सामने मृत्यु मँडरा रही है ।।१८१४ ।। इस प्रकार अनित्य अनुप्रेक्षा पूर्ण हुई॥१।। अशरण अनुप्रेक्षा कर्मोदये मतिर्याति, नोपायो विद्यतेऽङ्गिनाम् । सुधा विषं तृणं शस्त्रं, बन्धुः शत्रुश्च जायते ॥१८१५॥ अस्ति कर्मोदये बुद्धिरुपायमवस्नोकते । विपक्षो जायते बन्धुः, शस्त्रं पुष्पं विषं सुधा ॥१८१६ ।। अर्थ - इस संसार में जीवों के ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम की हीनता अज्ञता लाती है जिससे हेयउपादेय तत्त्व का विचार करने वाली बुद्धि नष्ट हो जाती है, उस अज्ञता का निवारण करने में शरणभूत कोई उपाय नहीं रहता। असातावेदनीय कर्मोदय से अमृत विष सदृश मारक, तृण शस्त्र सदृश घातक और बन्धुजन शत्रु सदृश बन जाते हैं। इससे विपरीत जन्म पुण्योदय आता है तब सम्पूर्ण पदार्थों को जानने में एवं हेय-उपादेय को समझने में समर्थ बुद्धि उत्पन्न हो जाती है, दुःख एवं कष्टादि को दूर करने का उपाय समझ में आ जाता है, मोक्षप्राप्ति के आध -गोचर होने लगते हैं। यं सातवेदनीय के उदय में शत्रु बन्धु बन जाता है, शस्त्रप्रहार पुष्पहार और विष अमृत बन जाता है ।।१८१५-१८१६॥ प्रश्न - बुद्धि कैसे उत्पन्न होती है और वह कितने प्रकार की है ? उत्तर - मनुष्यों को मतिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम विशेष से बुद्धि उत्पन्न होती है। स्वाभाविक एवं आगमोत्पन्न के भेद से बुद्धि दो प्रकार की होती है। जिसके पास स्वाभाविक बुद्धि तो है किन्तु यदि उसने शास्त्राभ्यास करके आगमिक बुद्धि प्राप्त नहीं की है तो वह हितकारी धर्म को उसी प्रकार प्राप्त नहीं कर सकता जिस प्रकार दृष्टिसम्पन्न पुरुष रूपादि को देखते हुए भी भाषा बिना उसे कह नहीं सकता। जिसके पास गुरुप्रदत्त शास्त्र तो है किन्तु उसे समझने की स्वाभाविक निजी बुद्धि नहीं है वह भी श्रुत का फल उसी प्रकार प्राप्त नहीं कर पाता, जिस प्रकार अन्धा पुरुष अपने हाथ में स्थित दीपक का फल प्राप्त नहीं कर पाता। जिसके नेत्र बन्द हैं उसे दर्पण से क्या लाभ? जो न दान देता है और न भोगता है उसे धन से क्या लाभ ? इसी प्रकार मन्दबद्धि पुरुष को शास्त्र से क्या लाभ ? जिस महापुरुष के पास स्वाभाविक और आगमिक ये दोनों बुद्धियाँ होती हैं वही अपने इष्ट आत्महित को प्राप्त कर सकता है। प्रश्न - जिस कर्मोदय से बुद्धि नष्ट हो जाती है, उस ज्ञानावरण कर्म का बन्ध किस-किस कारण से होता है ? उत्तर - ज्ञानी, ज्ञान एवं ज्ञान के उपकरणों के प्रति द्वेष भाव रखने से, ज्ञान एवं ज्ञान के साधनों को छिपाने से, प्रशंसनीय ज्ञान में दूषण लगाने से, ईर्षावश किसी को ज्ञानदान न देने से, किसी के ज्ञान में बाधा डालने से Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ४९८ एवं प्रशस्त ज्ञान की प्रशंसा न करने से जीव ज्ञानावरण कर्म का बन्ध करते हैं तथा विद्यमान भी अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा भेद वाला मतिज्ञान तथा श्रुतज्ञान ज्ञानादि का निग्रह करने से, अकाल में स्वाध्याय करने से, दूसरों की इन्द्रियों का घात करने से एवं अपनी इन्द्रियों की विशिष्टता का अभिमान करने से नष्ट हो जाता है। प्रश्न- जीव ज्ञानावरण कर्म के उदय का और क्या-क्या फल भोगता है ? उत्तर - जो पहले ज्ञानावरण कर्म का नीच कर्मबन्ध कर चुका है वह सम्यक्रूरूप से पदार्थ को अवग्रहित करने में, ईहित करने में, अवाय रूप से निर्णय करने में एवं जाने हुए को धारण करने में असमर्थ रहता है अर्थात् उसे पदार्थों का अवग्रह, ईहा, अवाय एवं धारणाजन्य ज्ञान नहीं हो पाता । ज्ञानावरण कर्मरूपी महामेघ से ढका हुआ वह जीव एकेन्द्रिय, दो इन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चौइन्द्रिय एवं असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्यायों को प्राप्त कर चिरकाल तक दुख भोगता है। संज्ञी पंचेन्द्रिय मनुष्य ज्ञानावरण कर्म के विशेष उदय की वशवर्तिता के कारण न हित को देखता है, न जानता है, न हित को जानने की इच्छा ही करता है, न पात्र को विधिपूर्वक दान देता है और न जिनेन्द्र की पूजनादिरूप षट्कर्म करता है। इस प्रकार वह पशु सदृश जीवन व्यतीत करता है। बुद्धिमात्र से प्राप्त करने योग्य अपने समीपवर्ती को भी नहीं पावर्ती एवं शास्त्रों द्वारा जानने योग्य परलोक सम्बन्धी हित को कैसे जान सकता है ? ऐसे मनुष्यों का यह अज्ञानभाव महा भयंकर अंधकारमय गुफा के भीतर प्रवेश करने से, निरन्तर अगाधजल में डूबे रहने से और चिरकाल तक जेलखाने में पड़े रहने से भी अधिक कष्टदायी होता है। श्रुतज्ञान तीसरा विशाल नेत्र है किन्तु बुद्धिहीन मनुष्य साधन-सामग्री होते. ग्रहण नहीं कर सकता ! हुए अर्थः पापोदये पुंसो, हस्त प्राप्तोऽपि नश्यति । दूरतो हस्तमायाति, पुण्य कर्मोदये सति ।। १८१७ ।। भी उस हितकारी ज्ञान को अर्थ - जीव के जब पाप अर्थात् लाभान्तराय कर्म का उदय आता है तब उसके हाथ में आया हुआ भी धन नष्ट हो जाता है और पुण्य कर्म का अर्थात् लाभान्तराय कर्म का क्षयोपशम होने पर देशान्तर आदि में बहुत दूर भी स्थित धनादि वैभव बिना प्रयत्न किये हाथ में आ जाता है || १८१७ ॥ नरः पापोदये दोषं, यतमानोऽपि गच्छति । गुणं पुण्योदये श्रेष्ठ, यत्न-हीनोऽपि तत्त्वतः ।। १८१८ ॥ अर्थ - पाप अर्थात् अयश: कीर्ति नाम कर्म के उदय से सम्यक् प्रयत्न करने वाला भी मनुष्य दोषी सिद्ध हो जाता है और पुण्य अर्थात् यशःकीर्ति नामकर्म के उदय में बिना प्रयत्न किये ही अथवा अयोग्य कार्य करते हुए भी यश एवं कीर्ति को प्राप्त हो जाता है ॥ १८१८ ।। पुण्योदये परां कीर्ति, लभते गुण-वर्जितः । पापोदयेऽश्नुते गुर्वीमकीर्तिं गुणवानपि ।। १८१९ ॥ अर्थ - गुणरहित भी कोई मनुष्य पुण्य कर्मोदय में यश को प्राप्त हो जाता है और पाप के उदय में गुणवान् भी अत्यधिक अपयश को प्राप्त हो जाता है || १८१९ ॥ Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ४९९ जन्म - मृत्यु-जरातंके, दुःख-शोक- भयादिके । दीयमाने विपक्षेण, निरुपक्रम - कर्मणा ।। १८२० ।। न कोऽपि विद्यते त्राणं, देहिनो भुवनत्रये । न प्रविष्टोऽपि पातालं, मुच्यते कर्मणा जनः ।। १८२१ ।। अर्थ - जिसका कोई प्रतिकार नहीं है ऐसे निधत्ति आदि विपक्षी सदृश कर्म का उदय आने पर जन्म, मरण, बुढ़ापा, रोग, शोक, दुख एवं भयादि दुख भोगने ही पड़ते हैं। ऐसी अवस्था में तीनों लोकों के अन्तर्गत इस जीव का कोई भी रक्षक नहीं होता जिसकी वह शरण ग्रहण करे। स्वोपार्जित कर्मोदय में पाताल में प्रविष्ट कर जाने पर भी उन कर्मों से छुटकारा नहीं हो सकता । १४१०-१८१९ ।। नग - दुर्गे क्षितौ शैले, लोकान्ते काननेऽम्बुधौ । गतोऽपि कर्मणा जीवो, नोदीर्णेन विमुच्यते ।। १८२२ ।। अर्थ - पहाड़ की गुफा, दुर्ग, भूमि, शिला, वन, समुद्र, यहाँ तक कि लोक के अन्त पर्यन्त चले जाने पर भी जीव, उदीरणा को प्राप्त हुए कर्म से नहीं छोड़ा जाता अर्थात् इन स्थानों पर भी कर्म अपना फल अवश्य देता है ।। १८२२ ।। द्वि-चतुर्बाहु - पादा ये, ते गच्छन्ति महीतले । जले मीनाः खगा व्योम्नि, कर्म सर्वत्र सर्वदा ।।१८२३ ।। अर्थ- दो पाये अर्थात् स्त्री-पुरुष आदि, चौपाये अर्थात् गाय, घोड़ा, बैल एवं सिंह आदि पशु एवं अनेक पैर वाले सर्प आदि तो भूमि पर ही आते-जाते हैं, मगरमच्छ एवं मछली आदि जल में जाते-आते हैं और पक्षी आकाश तक जाते हैं किन्तु यह कर्म तो सर्वत्र पहुँचता है अर्थात् इसकी गति अबाधरूप से सर्वत्र है ।। १८२३ ॥ अगम्या विषयाः सन्ति, रवि चन्द्रानिलामरैः । प्रदेशी विद्यते कोऽपि नागम्यः कर्मणा पुनः ॥ १८२४ ॥ अर्थ 1- इस जगत् में कुछ ऐसे प्रदेश भी हैं जो सूर्य, चन्द्र, पवन एवं देवों द्वारा भी अगम्य हैं अर्थात् वहाँ ये सूर्यादि नहीं जा सकते, किन्तु कोई भी ऐसा प्रदेश नहीं है जहाँ कर्म की गति न हो ॥ १८२४ ॥ न योधा रथ- हस्ताश्वा, विद्या - मन्त्रौषधादयः । सामादयोऽपि चोपायाः, पान्ति कर्मोदयेङ्गिनाम् ।। १८२५ ।। अर्थ - कर्म सर्वाधिक बलवान है। इसका उदय होने पर योधा, रथ, हाथी, घोड़ा, विद्या, मन्त्र, औषधि आदि एवं साम, दाम, दण्ड एवं भेदादि कोई भी उपाय शरणभूत नहीं होते हैं ।। १८२५ ।। प्रश्न- विद्या, मन्त्र, वीर्य एवं बल किसे कहते हैं? उत्तर - जिसके अन्त में स्वाहा होता है उसे विद्या कहते हैं। जिसके अन्त में स्वाहाकार नहीं होता, Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणर्काण्डका - ५०० उसे मंत्र कहते हैं। आत्मा की शक्ति विशेष को वीर्य एवं आहार तथा व्यायाम आदि से उत्पन्न शरीर की दृढ़ता को बल कहते हैं। केनेहोदीयमानानां, कर्मणां ज्योतिषामिव । निषेधः शक्यते कर्तु, स्वकीये समये सति ॥१८२६ ।। अर्थ - जैसे आकाश में उदय होते हुए सूर्य, चन्द्र एवं नक्षत्रादि को कोई रोक नहीं सकता, वैसे ही द्रव्य, क्षेत्रादि सहकारी कारणों के मिल जाने पर उदय में आते हुए कर्मों को इस जगत् में कोई भी नहीं रोक सकता॥१८२६ ॥ प्रतीकारोऽस्ति रोगाणां, कर्मणां न पुनर्जने । कर्म मृद्गाति हस्तीव, लोकं मत्तो निरङ्कुशः ।।१८२७ ।। अर्थ - मनुष्यों के पास रोगों के प्रतिकार हेतु औषधि आदि तो हैं किन्तु उदयागत कर्मों को रोकने का कोई प्रतिकार नहीं है। जैसे निरंकुश मदोन्मत्त हाथी लोगों को या कमलिनी के वन को नष्ट कर देता है, वैसे ही कर्म सभी संसारी जीवों को मसल रहा है॥१८२७ ।। प्रतीकारो न रोगाणां, कर्मणामुदये सति। उपचारो ध्रुवं तेषामस्ति कर्म-शमे सति ॥१८२८ ।। अर्थ - असातावेदनीय कर्म का उदय होने पर रोगों का प्रतिकार नहीं हो पाता। औषध एवं पथ्यादि से जो रोग शमन होते हैं वे भी कर्मों का उपशम होने पर ही होते हैं। अर्थात् कर्म का उपशम न होने पर औषधि आदि लाभकारी नहीं होती ।।१८२८!। बल-केशव-चक्रश-देव-विद्याधरादयः। सन्ति कर्मोदये व्यक्तं, शरणं न शरीरिणाम् ।।१८२९ ॥ अर्थ - जीवों के कर्मों का तीव्र उदय आने पर बलदेव, नारायण, चक्रवर्ती, विद्याधर एवं देव भी शरण नहीं होते। यह स्पष्ट ही है।।१८२९ ।। गच्छन्नुल्लङ्घते क्षोणी, नरस्तरति नीरधिम् । नातिक्रान्तुं पुनः कोऽपि, कर्मणामुदयं क्षमः ॥१८३०॥ अर्थ - चलता हुआ प्राणी भूमि को लांघ सकता है और समुद्र को भी भुजाओं से पार कर सकता है किन्तु उदयागत कर्म के फल का उल्लंघन करने में कोई महाबली भी समर्थ नहीं है अर्थात उदयागत कर्म का फल सभी को भोगना ही पड़ता है॥१८३०॥ मृग-मीनौ परौ जन्त्वोः , सिंह-मीन-गृहीतयोः । जायते रक्षकः कोऽपि, कर्म-ग्रस्तस्य नो पुनः ॥१८३१॥ अर्थ - सिंह द्वारा पकड़े हुए हिरण का कोई अन्य पशु सम्भवत: रक्षक हो सकता है, तथा तिमिंगल Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ▾ मरणकण्डिका ५०१ आदि महामत्स्य आदि के द्वारा पकड़ी हुई छोटी-छोटी मछलियों का भी कथंचित् कोई रक्षक हो सकता है किन्तु उदयागत कर्मग्रस्त जीव का कोई भी रक्षक नहीं है ।। १८३१ ।। जीव के शरणभूत पदार्थ कौनसे हैं ? कर्म - नाशनसहान जनानां ज्ञान दर्शन- चरित्र तपांसि । नापहाय सति कर्मणि पक्वे, रक्षकानि खलु संति पराणि ।। १८३२ ।। इति अशरणम् ।। अर्थ - भव्य जीवों के लिए यदि कोई सच्चे शरणभूत हैं तो अपने-अपने दर्शन, ज्ञान, चारित्र एवं तप ही हैं। ये दर्शन - ज्ञानादि ही दुखदाई कर्मों का नाश करने में समर्थ हैं। दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप इन चार आराधनाओं के अतिरिक्त अन्य कोई पदार्थ उदयागत कर्म से ग्रसित जीव का रक्षक या सहायक या शरणभूत नहीं हो सकता। ऐसा दृढ़ निश्चय करना चाहिए ।। १८३२ ।। इस प्रकार अशरण भावना पूर्ण हुई ॥ २ ॥ एकत्व भावना करोति पातकं जन्तुर्देह-बान्धव-हेतवे । श्वभ्रादिषु पुनर्दुःखमेकाकी सहते चिरम् ।। १८३३ ॥ अर्थ - यह मोही प्राणी अपने शरीर के एवं बन्धु-बान्धवों के पोषणार्थ पाप करता है किन्तु नरकादि दुर्गतियों में चिरकाल पर्यन्त दुख अकेले ही भोगता है, वहाँ कोई भी बन्धुजन दुख भोगने में साथी नहीं होते हैं ।। १८३३ ।। - वेदनां कर्मणा दत्तां, रोग-शोक-भयादिकाम् । किं भुञ्जानस्य कुर्वन्ति, पश्यन्त्यो ज्ञातयोऽङ्गिनः ।। १८३४ ।। अर्थ - अपने मन, वचन एवं काय योग से संचित कर्म, परिपाक काल में रोग, शोक एवं भयादि रूप फल देते हैं, जिसे परिवारजन प्रत्यक्ष देखते हुए भी क्या उसमें पाँती बाँटते हैं ? नहीं। वह वेदना अकेले उसी को भोगनी पड़ती है ॥ १८३४ ॥ प्रश्न इस श्लोक का तात्पर्य क्या है ? उत्तर इसका अर्थ है कि जीव परिवारादि के भरण-पोषण हेतु जो पापोपार्जित करता है, नरक में उसका फल भोगते हुए उसका परिवार उसे प्रत्यक्ष नहीं देख पाता अतः उसमें पाँती कैसे बाँटे या प्रतिकार कैसे करे ? क्योंकि वहाँ उसका परिवार साथ में नहीं है, इसलिए वे कुछ नहीं कर सकते, जीव को स्वयमेव सारे दुख अकेले ही भोगने पड़ते हैं। इस पर आचार्यदेव श्लोक १८३४ में कहते हैं कि भाई ! मनुष्य पर्याय में तो सारे परिवार जन अपने स्त्री- पुत्रादि की वेदना प्रत्यक्ष देख रहे हैं, किन्तु क्या वे उसके भागीदार बन सकते हैं ? या तत्काल उसे वेदनादि से मुक्त कर सकते हैं ? नहीं, कदापि नहीं। क्योंकि स्वोपार्जित कर्मों का फल शुभ हो या अशुभ एकाकी ही भोगना पड़ता है। Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ५०२ एकाकी म्रियते जीवो, न द्वितीयोऽस्य कञ्चन । सहाया भोग-सेवायां, न कर्मफल-सेवने ॥१८३५॥ अर्थ - (जैसे जीव स्वोपार्जित कर्मफल स्वयं ही भोगता है वैसे ही) अपनी आयु समाप्त होते जीव अकेला ही मरता है। अर्थात् परिवार का कोई भी सदस्य उसके मरण में भागीदार नहीं होता। मनोहर वस्त्राभरण एवं भोजनादि भोगों को भोगने में तो परिवार का प्रत्येक सदस्य सहायक या भागीदार होता है किन्तु भोग-सामग्री एकत्र करने में जो पापोपार्जन किया है उन कर्मों का फल भोगने में कोई भागीदार या सहायक नहीं होता ||१८३५ ।। प्रकारान्तर से एकत्व भावना देहार्थ-बान्धवाः सार्धं, न केनापि भवान्तरम् । वल्लभा अपि गच्छन्ति, कुर्वन्तोऽपि महादरम् ।।१८३६ ॥ स्वकीया देहिनोऽत्रैव, देहार्थ-स्वजनादयः। स्वीकृताः सम्भ्रमेणापि, न कदाचिद् भवान्तरे ॥१८३७ ।। अई .. शरीर, ' क प्रिय बा-अब जन यद्यपि मरणासन्न अपने स्वजन का महान् आदर करते हैं, वे अत्यन्त प्रिय भी हैं किन्तु कोई भवान्तर अर्थात् परलोक में साथ नहीं जाते। मरणासन्न व्यक्ति भी अपने शरीर, धन एवं स्वजनादि को साथ ले जाने के लिए अत्यन्त उत्कण्ठित है तो भी वे सब इसी लोक में रह जाते हैं, चाहते हुए भी वह पुरुष उन्हें साथ नहीं ले जा सकता, उसे सब कुछ छोड़ कर अकेले ही जाना पड़ता है।।१८३६१८३७॥ स्वकीयं परकीयं न, विद्यते भुवनम्रये। नैकस्याटाट्यमानस्य, परमाणोरिवाशिनः ॥१८३८ ॥ अर्थ - जैसे पुद्गल रूप परमाणु अन्य परमाणु या स्कन्ध आदि के सम्बन्ध बिना तीन लोक में सर्वत्र अकेला ही घूमता है, वैसे ही तीन लोक में एकाकी परिभ्रमण करते हुए इस जीव के अपना या पराया कोई भी नहीं है, यह जीव अकेला ही है। ये मेरे हैं,' अथवा 'मेरे साथ ही जावेंगे' ऐसी आशा रखना यह अज्ञानता का ही फल है।।१८३८।। जीव का सच्चा सहायक भवान्तरं समं गत्वा, धर्मो रत्नत्रयात्मकः । उपकारं परं नित्यं, पितेव कुरुतेऽङ्गिनः॥१८३९ ॥ अर्थ - जैसे पिता सदैव पुत्र का उपकार करता है, वैसे ही सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्ररूप रत्नत्रय धर्म सदैव जीव का परमोपकार करता है। इतना ही नहीं यह धर्म जीव के साथ परलोक में भी जाता है।।१८३९ ।। प्रश्न - धर्म किसे कहते हैं, यह जीव का क्या उपकार करता है और असहाय भावना के अधिकार में इस सहाय रूप धर्म के कथन का क्या औचित्य है ? Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ५०३ उत्तर - जो दुर्गति जाने वाले जीवों को वहाँ से रोक कर इन्द्र एवं चक्रवर्ती आदि के उत्तम पदों में अथवा मोक्षपद में स्थापित कर देता है उसे धर्म कहते हैं। यह धर्म जीव की रक्षा करता है; भय, शोक, रोग एवं विषादादि से रहित ऐसे राजेन्द्रों एवं देवेन्द्रों के उत्तम सुख तथा शत इन्द्र और तीन लोक से पूजित तीर्थकर पद देकर जीवों का अनेक प्रकार से उपकार करता है। अन्त में जन्म, मरण, रोग, शोक, जरा, व्याधि एवं प्रिय-वियोग आदि सर्व दुखों से रहित अनुपम, अव्याबाध, उत्कृष्ट और शाश्वत सुख स्वरूप मोक्षपद देता है। इस असहाय रूप एकत्व भावना में धन, गृह, स्त्री, पुत्र, पिता आदि सहयोगी जनों के प्रति अनादर भाव उत्पन्न कराया गया है। अब मेरा कोई सहाय नहीं है' इस प्रकार की उत्पन्न हुई चिन्ता से मुक्त करने हेतु आचार्य ने शाश्वत सहायरूप धर्म का समावेश इस भावना में किया है कि यह रत्नत्रय धर्म आत्मा का निजी धर्म है, आत्मा से अभिन्न है। मिथ्यात्व आदि के उदय से यह धर्म आच्छादित हो जाता है किन्तु मिथ्यात्व आदि के हटते ही पुन: प्रगट हो जाता है। यह धर्म कल्याणकारी मित्र सदृश है, परलोक में भी साथ जाता है क्योंकि यह अभ्युदय और मोक्षसुख को देने वाला है। इस प्रकार रत्नत्रयरूप धर्म ही यथार्थ सहायक है ऐसी दृढ़ श्रद्धा उत्पन्न कराना ही इस कथन का औचित्य प्रश्न - रत्नत्रय धर्म से तो मोक्षसुख ही प्राप्त होना चाहिए, उससे अभ्युदय सुख कैसे प्राप्त होता है ? उत्तर - सरागी संयत जीवों के रत्नत्रयरूप शुभ परिणामों से पुण्य बंध होता है। इसके अर्थात् सातावेदनीय, उच्चगोत्र एवं अन्य भी पुण्य प्रकृतियों के उदय में जीव को उत्तम मनुष्यगति, उत्तम जाति, उच्च गोत्र, उत्तम संहनन, शुभ संस्थान, पंचेन्द्रियों की पूर्णता, पर्याप्तक अवस्था, नीरोग शरीर, दीर्घायु एवं सुखावस्था प्राप्त होती है। धर्मानुबन्धी पुण्य के उदय से बुद्धि मुनिदीक्षा के अभिमुख होती है। मुनिदीक्षा लेकर भी बुद्धि निरतिचार व्रतपालन की ओर ही अग्रसर होती रहती है। जो आसन्न भव्य निश्चय रत्नत्रय की प्राप्ति रूप पुरुषार्थ में सफल हो जाते हैं वे तद्भव मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं, अथवा वही रत्नत्रय उन्हें अभ्युदय सुख प्राप्त कराता है। भोगं रोगं धनं शल्यं, गेहं गुप्तिः स्त्रियो यथा। बन्धुं च मन्यते बन्धं, साधुरेकत्व-वासितः॥१८४० ।। अर्थ - जो साधु सदा एकत्व भावना को भाते हैं, वे भोगों को रोग सदृश दुखदायी, धन को शल्यक्त् कष्टप्रद, घर एवं स्त्रियों को कारागृह के सदृश और बन्धुजनों को बन्धरूप मानता है ।।१८४०।। बद्धस्य बन्धनेनेव, रागो यस्य न विग्रहे। स करोत्यादरं साधुः, किमर्थेऽनर्थकारिणी ॥१८४१ ।। अर्थ - जैसे बेड़ी या सांकल से बँधे हुए मनुष्य को उस साँकल आदि में प्रीति उत्पन्न नहीं होती, वैसे ही जिस साधु की शरीर में ही प्रीति नहीं है वह भला अनर्थकारी धन में क्या प्रीति कर सकता है ? नहीं कर सकता॥१८४१।। प्रश्न - धन को अनर्थकारी क्यों कहा गया है ? Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ५०४ उत्तर - जो जिसका अनुपकार करता है उसे विवेकी पुरुष अनर्थकारी ही मानते हैं, अपना सच्चा सहायक कदापि नहीं मानते । उपार्जन एवं रक्षण करने वाले को यह धन महान् दुख देता है। प्राणीगण धन के निमित्त (परस्पर में) एक दूसरे का घात तक कर देते हैं। धनान्ध व्यक्ति धन के अतिरिक्त देव, गुरु, माता-पिता, पत्नी, पुत्र एवं मित्रादि किसी को कुछ नहीं मानता अत: आचार्यों ने धन को महाभयरूप कहा है और जो भयकारी है वह कभी कल्याणकारी नहीं हो सकता | धन की मूर्छा इस जीव को सप्तम नरक तक ले जाती है। इससे अधिक अनर्थकारी और कौन होगा? कोई नहीं। बन्धन-तुल्यं चरण-सहायं, पश्यति गात्रं मथित-कषायः । यो मुनिवर्यो जन-धन-सङ्गे, तस्य न रागः कृत-हित-भङ्गे॥१८४२।। इति एकत्वम् । अर्थ - जिन्होंने कषायों का मथन कर दिया है वे मुनिजन अपने शरीर को भी बन्धनरूप मानते हैं। इस शरीर को तो वे मात्र चारित्र-पालन में ही सहायक मानते हैं। इस प्रकार जिन मुनिश्रेष्ठों का स्व शरीर में भी राग नहीं होता उनके हित का नाश करने वाले परिवार में, धन में एवं परिग्रह आदि में क्या राग होगा ? कदापि नहीं होगा। इस प्रकार अपने को सदा एकाकी मानना एकत्व भावना है।।१८४२ ।। इस प्रकार एकत्व भावना का वर्णन समाप्त ॥ __ अन्यत्व भावना दुःख-व्याकुलितं दृष्ट्वा, किमन्योऽन्येन शोच्यते। किं नात्मा शोच्यते जन्म-मृत्यु-दुःख-पुरस्कृतः॥१८४३॥ अर्थ - अहो ! महदाश्चर्य है कि इस संसार में मोही प्राणी पति, पुत्रादि अन्य को दुख से व्याकुल देख कर स्वयं शोक करते हैं ? स्वयं की आत्मा जन्म-मरण के और नरकादि गतियों के दुख भोग रही है, उसका शोक क्यों नहीं करते? ||१८४३ ।। प्रश्न - अन्यत्वानुप्रेक्षा का कथन प्रारम्भ करते ही अन्य के दुख देखकर दुखी क्यों होता है ऐसा प्रसंग क्यों ग्रहण किया गया ? उत्तर - यह अज्ञानी प्राणी अनादि काल से चारों गतियों में असातावेदनीय कर्मोदय के साथ द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भावरूप सहकारी कारणों के मिलने से निरन्तर शारीरिक, आगन्तुक, मानसिक, स्वाभाविक तथा क्षेत्रजादि अनेक आपदाएँ भोग चुका है, भोग रहा है और 'ये आपदाएँ पुनः मुझे दुख देने हेतु भविष्य में आयेंगी', ऐसा जान रहा है फिर भी अपने दुखों को दूर करने का समीचीन पुरुषार्थ तो नहीं करता अपितु दूसरों को दुख से व्याकुल देख स्वयं शोक करता है, इतना ही नहीं, उनकी आपत्तियों को दूर करने का सतत प्रयत्न करता रहता है, जो कदापि शक्य नहीं है, क्योंकि जिसने पूर्व में मन, वचन, काय से जो कर्मोपार्जित किये हैं उनका फल उसे भोगना ही पड़ेगा। सब इन्द्र, प्रतीन्द्र मिल कर भी उसके आगत कर्मफल का निवारण करने में असमर्थ हैं तब परिवार के शोक करने से उसका निवारण कैसे हो जायेगा? वह सुखी कैसे हो जायेगा? कदापि नहीं। इसलिए Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ५०५ आचार्यदेव अन्यत्वभावना के प्रारम्भ में ही उसे समझा रहे हैं कि दूसरों का दुख देख कर शोक करना व्यर्थ है। पर का दुख स्वात्मा से या अपने दुख से सर्वथा भिन्न है, उसका निवारण करना भी अशक्य है अत: अन्यत्वभावना के बल से अपना दुख-विनाश करने में प्रयत्नशील रहना ही श्रेयस् है । संसारे भ्रममाणानामनन्ते कर्मणाङ्गिनः। कः कस्यास्ति निजो मूढः, सज्जतेऽत्र जने-जने ॥१८४४॥ अर्थ - पंच परावर्तन रूप संसार में कर्म-वशवर्तिता से परिभ्रमण करते हुए जीवों के कब, कौन, किसका शाश्वत स्वजन हुआ है ? अर्थात् कोई भी अपना मात्र स्वजन नहीं हुआ फिर भी मूढ जन व्यर्थ ही जन-जन में 'यह मेरा है', 'यह मेरा है', ऐसा मानकर आसक्त होता रहता है।।१८४४।। प्रश्न - माता-पिता आदि बन्धुजन 'स्वजन' ही कहे जाते हैं। यह जगत्प्रसिद्ध बात है, इसका यहाँ निषेध क्यों किया जा रहा है ? उत्तर - यह जगत्प्रसिद्ध बात मात्र एक पर्याय को दृष्टिगत रखकर कही जाती है और यह मेरा पिता, पुत्र, भाई, मामा, दास, सेवक एवं स्वामी है, इस प्रकार की मान्यता या आसक्ति केवल मोहाधीन जीवों के ही होती है। किसी के प्रति दया एवं श्रीति तथा किता के प्रति निर्दयता एवं अप्रीतिरूप असमान व्यवहार मिथ्यात्वादि परिणामों से ही उत्पन्न होते हैं किन्तु जो सदा अन्यत्व भावना का चिन्तन करते हैं, जो राग-द्वेष रहित हैं तथा जिनका चारित्र सर्वत्र एकरूप रहता है उनका न कोई स्वजन होता है और न परिजन होता है, क्योंकि वस्तुतत्त्व तो मात्र अनन्यतारूप है उसमें कोई स्वजन है ही नहीं। प्रकारान्तर से स्वजन-परिजन के भेद का अभाव कालेऽतीतेऽभवत्सर्वः, सर्वस्यापि निजो जनः । तथा कर्मानुभावेन, भविष्यति भविष्यति ।।१८४५ ।। अर्थ - अतीत काल में सभी प्राणियों के अनन्तानन्त सभी प्राणी स्वजन थे। अर्थात् सब जीवों की सब जीवों के साथ आत्मीयता बन चुकी है कोई जीव शेष नहीं रहा और कर्मोदय से भविष्य काल में भी सब जीवों के सब जीव स्वजन होंगे॥१८४५॥ प्रश्न - इस श्लोक द्वारा क्या कहा गया है ? उत्तर - इस श्लोक में यह कहा गया है कि अतीत काल में सभी जीव एक दूसरे के स्वजन बन चुके हैं और भविष्य में भी जब तक मोक्षप्राप्ति नहीं होती तब तक कर्मोदयसे जन्म-मरण करते हुए पुन: सबके सब जीव स्वजन बनेंगे। इस प्रकार जब सभी जीव स्वजन हैं तब “यही मेरा स्वजन है" इस प्रकार का संकल्प मिथ्या है। वे मुझ से अन्य हैं और मैं भी उनसे सर्वथा अन्य हूँ' इस स्व-परविषयक अन्यत्व तत्त्व का चिन्तन करना ही श्रेयस्कर है। सङ्गमोऽस्ति शकुन्तानां रात्रौ-रात्रौ तरौ-तरौ। तथा-तथा तनूभाजां, जाती-जाती भवे-भवे ॥१८४६ ।। Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ५०६ अर्थ - जैसे प्रत्येक रात्रि में वृक्ष-वृक्ष पर पक्षियों का समागम होता है वैसे ही संसारी जीवों का जातिजाति अर्थात् योनियों के माध्यम से भव-भव में परिवार जनों का समागम होता रहता है ॥१८४६॥ प्रश्न - इस दृष्टान्त-दाष्टन्ति से क्या सिद्ध किया जा रहा है ? उत्तर - इस श्लोक का यह अभिप्राय है कि जैसे रात्रि में आश्रय बिना रहने में असमर्थ पक्षीगण योग्य वृक्ष को देख कर बसेरा कर लेते हैं और प्रातः उस वृक्ष को छोड़ देते हैं; रात्रि होते पुनः किसी वृक्ष का आश्रय ग्रहण कर लेते हैं। इसी प्रकार प्रत्येक संसारी प्राणी वर्तमान पर्याय में आयु कर्म के पुद्गल स्कन्ध पूर्ण रूप से गल जाने पर उस शरीर का आश्रय छोड़ देते हैं। बिना आश्रय रह नहीं सकते अत: नवीन शरीर ग्रहण करना चाहते हैं, तब वे कर्मोदय से प्रेरित होकर शरीरग्रहण के योग्य किसी एक योनि में जाते हैं, वहाँ उन्हें जिनके अत्यन्त अपवित्र रज-वीर्य का आश्रय प्राप्त होता है उनमें माता-पिता का संकल्प कर लेते हैं और उन्हीं माता-पिता के रज-वीर्य का अन्य जो-जो प्राणी आश्रय लेते हैं, उनमें भाई-बहिन का संकल्प कर लेते हैं। वहाँ की आयु पूर्ण होते फिर किसी अन्य योनि का आश्रय ग्रहण कर लेते हैं, यही क्रम अनादि काल से चल रहा है क्योंकि जैसे वन में पक्षियों के निवासयोग्य वृक्ष सुलभ हैं वैसे ही संसारी प्राणियों को स्वजन-वास भी सुलभ है। अध्वनीना इवैकत्र, प्राण्य सङ्ग ततोऽङ्गिनः। स्थान निबं मिधान्ति, हित्वा कर्म-वशीकृताः ॥१८४७॥ अर्थ - जैसे किसी नगर या ग्राम की धर्मशाला में अथवा किसी वृक्ष की छाया में पथिकजन एकत्र होते हैं और वहाँ अपना भोजन-पानादि का व्यवहार भी करते हैं, पश्चात् वे सब उस धर्मशाला को छोड़कर अपने-अपने देश चले जाते हैं; उसी प्रकार सभी बन्धु-बांधवों का समागम होकर वे अपने-अपने कर्मानुसार प्राप्त हुई गतियों में चले जाते हैं अर्थात् बिछुड़ जाते हैं ।।१८४७ ॥ नाना-प्रकृतिके लोके, कस्य कस्तत्त्वतः प्रियः। कार्यमुद्दिश्य सम्बन्धो, वालुका-मुष्टि-वज्जनः ।।१८४८ ।। अर्थ - जैसे बालूरेत स्वभावत: तो कण-कणरूप अर्थात् भिन्न-भिन्न ही होती है, जलादि के सम्पर्क से कदाचित् मुट्टी रूप बँध जाती है किन्तु जल सूखते ही पुन: बिखर जाती है। वैसे ही इस लोक में नाना स्वभाव वाले मनुष्य हैं। ऐसे नाना स्वभाव-वालों में स्वभावत: अर्थात् स्वभाव से कौन किसको प्रिय है? क्योंकि मित्रता तो समान शील वालों में ही होती है और सब बन्धु-बांधव समान शील वाले होते नहीं हैं तब कैसे वह उनका बन्धु हो सकता है ? अपने-अपने कार्य का उद्देश्य लेकर ही सम्बन्ध स्थापित होते हैं और उद्देश्य पूर्ण हो जाने पर सम्बन्ध नष्ट हो जाते हैं।।१८४८ ॥ माता पोषयते पुत्रमाधारोऽयं भविष्यति । मातरं पोषयत्येष, गर्भेऽहं विधृतोऽनया ।।१८४९ ॥ अर्थ - वृद्धावस्था में यह पुत्र मेरा आधार होगा, इस भावना से माता पुत्र का पालन करती है और इस माता ने मुझे गर्भ में धारण किया था, यह सोचकर पुत्र माता का पालन करता है।।१८४९ ॥ Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका -५०७ शत्रुता-मित्रता-अपकार और उपकार से बंधे हैं अमित्रं जायते मित्र-मुपकार-विधानतः । तनूजो जायते शत्रुरपकार-विधानतः ॥१८५०।। न कोपि देहिनः शत्रुर्न मित्रं विद्यते ततः । जायते कार्यमाश्रित्य, शत्रुर्मित्रं विनिश्चितम् ।।१८५१॥ अर्थ - शत्रु होकर भी उपकार कर देने से मित्र हो जाता है और स्वयं का पुत्र भी अपकार अर्थात् मातापिता की भर्त्सना, मारना, पीटना आदि दुर्व्यवहार करने से एक क्षण में शत्रु हो जाता है, अत: इस संसार में यथार्थत: कोई किसी का शत्रु या परजन एवं कोई किसी का मित्र या स्वजन नहीं है। उपकार या अपकाररूप कार्यों पर ही मित्रता या शत्रुता का व्यवहार निर्भर है। हे भव्य जीवो ! इससे यह निश्चय समझो कि मेरी आत्मा से ये सब ही पृथक् हैं ॥१८५०-१८५१॥ शत्रु-मित्र के लक्षण हितं करोति यो यस्य, स मतस्तस्य बान्धवः। स तस्य भण्यते वैरी, यो यस्याहित-कारकः ।।१८५२॥ अर्थ - संसार में कोई किसी का स्वाभाविक बन्धु एवं वैरी नहीं है। जो जिसका हित करता है वह उसका बन्धु माना जाता है और जो जिसका अहित करता है वह उसका वैरी माना जाता है॥१८५२ ।। बन्धुओं में शत्रुता के लक्षण कुर्वन्ति बान्धवा विघ्नं, धर्मस्य शिवदायिनः । तीव्र-दुःखकरं घोरं, कारयन्त्यप्यसंयमम् ।।१८५३॥ अर्थ - मोक्ष में शाश्वत सुख है। मोक्ष की प्राप्ति रत्नत्रय धर्म से ही होती है। हमारे जो इष्ट बन्धुजन रत्नत्रय रूप धर्मपालन में विघ्न-बाधाएँ उपस्थित करते रहते हैं और घोर तथा अत्यन्त तीव्र दुख देने वाले हिंसादि पापों में एवं असंयमादि की प्रवृत्तियों में प्रेरित करते रहते हैं वे ही हमारे यथार्थ शत्रु हैं। ऐसा चिन्तन कर सबसे अपने को अन्य मानना चाहिए ।।१८५३ ॥ बन्धुरं साधवो धर्म, वर्धयन्ति शरीरिणः । संसार-कारणं निन्ध, त्याजयन्त्यप्यसंयमम् ॥१८५४ ।। साधवो बान्धवास्तस्माद्देहिनः परमार्थतः । ज्ञातयः शत्रवो रौद्र-भवाम्भोधि-निपाततः ।।१८५५ ॥ अर्थ - साधुजन संसारी जीवों के उद्धार हेतु उनके महामनोहर रत्नत्रय धर्म की वृद्धि कराते हैं तथा जो निन्ध है एवं संसार का कारण है ऐसे मिथ्यात्व तथा असंयम का त्याग कराते हैं अतः साधुजन ही परमार्थतः स्वजन या बन्धु हैं। एक कुल-जाति में उत्पन्न परिवार जन यथार्थत: शत्रु ही हैं, क्योंकि वे बन्धुजन महाभयंकर संसारसागर में गिराने वाले होते हैं॥१८५४-१८५५ ।। Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका -५०८ प्रश्न - इन श्लोकों से क्या कहा गया है ? उत्तर - इन श्लोकों द्वारा अपने से अन्य साधुजनों को बन्धु या मित्र और अपने से अन्य परिवार जनों को शत्रु कहा गया है। ‘साधुजन हित में प्रवृत्ति कराते हैं और अहित से निवृत्ति कराते हैं। ये इन्द्रियजन्य एवं अतीन्द्रिय सुख के कारण हैं तथा नाना प्रकार के दुखों से भरे अपार संसार-सागर से पार उतारने वाले हैं ऐसा चिन्तन करने से रत्नत्रय धर्म में और धर्मोपदेशक साधुजनों के प्रति महान् आदर उत्पन्न होता है तथा रत्नत्रयधर्म में विघ्न करने वालों में और जिसके ऊपर से उतरना दुष्कर है उस चार गतिरूपी घटीयन्त्र पर चढ़ाने वाले बन्धुजनों के प्रति अत्यन्त अनादर भाव उत्पन्न हो जाता है। शरीरादात्मनोऽन्यत्वं, निस्त्रिंशस्येव कोशतः । परवत्तं (परतत्त्वं) न जानन्ति, मोहान्ध-तमसावृताः॥१८५६।। अर्थ - जैसे म्यान से तलवार पृथक् है वैसे ही शरीर से आत्मा पृथक् है, किन्तु जिनके ज्ञानरूपी नेत्र मोहरूपी अन्धकार से ढक गये हैं वे पुरुष इस अन्यत्वरूप श्रेष्ठ तत्त्व को नहीं जानते ॥१८५६॥ अनादिनिधनो ज्ञानी, कर्ता भोक्ता च कर्मणाम्। सर्वेषां देहिनां ज्ञेयो, मतो देहस्ततोऽन्यथा ।।१८५७॥ अर्थ - सभी संसारी प्राणियों का आत्मा अनादिनिधन है, अर्थात् शाश्वत रहने वाला है, ज्ञानी है, कर्मों का कर्ता एवं कर्म-फलों का भोक्ता है तथा शरीर इससे सर्वथा भिन्न स्वभाव वाला है अर्थात् शरीर शाश्वत नहीं है, नाशवान है, जड़ होने से अज्ञानी है अर्थात् कुछ जानता नहीं है। इस प्रकार आत्मा और शरीर का लक्षण सर्वथा भिन्न-भिन्न है ।।१८५७ ।। पूर्वजन्म-कृत-कर्मनिर्मितं, पुत्र-मित्र-धन-बान्धवादिकम् । न स्वकीयमखिलं शरीरिणो, ज्ञान-दर्शनमपास्य विद्यते ।।१८५८ ॥ इति अन्यत्व। अर्थ - संसारी जीवों के पुत्र, मित्र, धन तथा माता-पितादि बन्धु-जन आदि तो पूर्व जन्म में उपार्जित कर्मों के फल से निर्मित हैं अतः ये कोई भी स्वकीय नहीं हैं। यथार्थत: जीव का अपना-अपना ज्ञान, दर्शन ही उनका स्वकीय है।।१८५८ ॥ इस प्रकार अन्यत्व भावना का कथन पूर्ण हुआ ॥४॥ संसार अनुप्रेक्षा मिथ्यात्व-मोहित-स्वान्तो, भवे भ्रमति दुर्गमे । मार्गभ्रष्ट इवारण्ये भवेभारि-भयङ्करे ।। १८५९ ।। अर्थ - जैसे हाथियों एवं लुटेरों आदि शत्रुओं से युक्त भयंकर जंगल में पथिक मार्ग भूल कर इधरउधर भटकता रहता है, वैसे ही संसार रूपी दुर्गम वन में मिथ्यात्व से मोहित मन वाले जीव अनादिकाल से भ्रमण कर रहे हैं ।।१८५९॥ Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका -५०९ प्रश्न - मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योग जब ये चारों संसार-भ्रमण के कारण हैं तब यहाँ मात्र मिथ्यात्व को ही क्यों कहा गया है ? उत्तर - मिथ्यात्व का ग्रहण असंयम आदि का उपलक्षण है क्योंकि जहाँ मिथ्यात्व है वहाँ असंयम आदि भी अवश्यमेव हैं। अन्य बात यह है कि यह जीव अनाटिकाल से मिथ्यात्व के कारण ही संसार रूपी अट में भटक रहा है। दर्शनमोहनीय कर्म की मिथ्यात्व प्रकृति के उदय से यह मिथ्यात्व परिणाम होता है । इस परिणाम से युक्त जीव मिध्यादृष्टि कहे जाते हैं। चार घातियाकर्म नाश कर देने वाले जिनेन्द्र देव के वचन जीवादि पदार्थों के यथार्थ स्वरूप को प्रकाशित करने में दक्ष होते हैं और वे वचन प्रत्यक्षादि अन्य प्रमाणों से अविरुद्ध भी होते हैं, किन्तु मिथ्यादृष्टि जीव को उन कल्याणकारी वचनों पर एवं वचनों द्वारा कहे गये जीवादि तत्त्वों पर श्रद्धान नहीं हो पाता अत: वह जीव अनन्त संसार में भ्रमण करता रहता है। एक बार सम्यग्दर्शन हो जाने के बाद संयमादि के साथ बीच अधिक से अधिय सुद्गल परिवर्तन काल तक ही भ्रमण करता है, अत: यहाँ मिथ्यात्व को ही संसार-वन में भटकने का कारण कहा गया है। संसार रूपी महासमुद्र का स्वरूप अनेक-दुःख-पानीये, नाना-योनि-भ्रमाकुले । अनन्तकाय-पाताले, विचित्रगति-पत्तने ॥१८६०॥ राग-द्वेष-मद-क्रोध-लोभ-मोहादियादसि। अनेक-जाति-कल्लोले, बस-स्थावर-बुद्दे ।।१८६१ ।। जीव-पोतो भवाम्भोधी, कर्म-नाविक-चोदितः। जन्म-मृत्यु-जरावर्ते, चिरं भ्राम्यति सन्ततम् ।।१८६२॥ अर्थ - जिसमें अनेक प्रकार का तीव्र दुखरूपी जल भरा है, नाना अर्थात् चौरासी लाख योनि रूप भँवरों से व्याप्त है, अनन्तकाय साधारण वनस्पति रूप पातालों से युक्त है, जिसके तट पर विचित्र चार गतिरूप बेला पत्तन स्थित हैं, जो राग, द्वेष, मद, क्रोध, लोभ एवं मोहादि रूप भयंकर मगरमच्छादि जलचर जीवों से भरा है, एकेन्द्रिय आदि अनेक जाति रूप तरंगों से तरंगित है, बस-स्थावर जीवरूप बुबुदों से भरपूर है अर्थात् जिसमें ऐसे बुबुदे उठ रहे हैं और जिसमें जन्म, मरण, जरा रूप आवर्त है ऐसे संसार रूपी भयावह समुद्र में कर्मरूपी खेवटिया के द्वारा चलाया गया यह जीव रूपी जहाज चिरकाल से सतत भ्रमण कर रहा है।।१८६२, १८६१, १८६२॥ प्रश्न - अनन्तकाय किसे कहते हैं ? उत्तर - अनन्त जीवों के काय अर्थात् शरीर को अनन्तकाय कहते हैं। अथवा "यह शरीर इसी जीव का है" ऐसा अन्त अर्थात् निश्चय जहाँ नहीं है वह काय अनन्त है, क्योंकि एक शरीर के आश्रित अनन्त जीव समान रूप से रहते हैं। वह अनन्तकाय जिस जीव की है वह अनन्तकाय है। प्रश्न - संसार को समुद्र की उपमा क्यों दी है ? -- 135 । Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ५१० उत्तर - समुद्र जल से भरा रहता है, संसार दुखों से भरा हुआ है, समुद्र में भंवर उठती हैं, संसार में चौरासी लाख योनि रूप भँवर हैं, समुद्र में पाताल होते हैं, जिनमें प्रवेश करके निकलना कठिन होता है, संसार में अनन्तकाय निगोद रूप पाताल हैं उसमें भी प्रवेश करके निकलना कठिन है, समुद्र तट पर बेला-पत्तन होते हैं, संसार में चार गति रूप बेला-पत्तन हैं जहाँ जीव कुछ समय तक ठहर लेता है। समुद्र मगर-मत्स्यादि जलचर जीवों से भरा रहता है, संसार भी राग, द्वेष, मद, मोह एवं लोभादि मगरमच्छों से भरा हुआ है, समुद्र तरंगों से तरंगित होता रहता है संसार एकेन्द्रिय आदि अनेक जाति रूप तरंगों से तरंगित है, समुद्र में बुबुदे उठते हैं, संसार में त्रस-स्थावर जीव रूप बुबुदे उठते रहते हैं तथा समुद्र में आवर्त उठते हैं, संसार में जन्म, मरण एवं जरा रूप आवर्त हैं। जैसे समुद्र की सैर करने के लिए जहाज एवं खेवटिया होता है जो घुमाता रहता है, वैसे ही संसार रूपी समुद्र में जीवरूपी जहाज को कर्मरूपी खेवटिया अनादिकाल से निरन्तर भ्रमण करा रहा है। एक-द्वि-त्रि-चतुः-पञ्च-हृषीकाणामनन्तशः। जातयः सकला भ्रान्ता, देहिना भ्रमता भवे ।।१८६३ ॥ अर्थ - संसार में भ्रमण करते हुए इस जीव ने एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, व्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय एवं पंचेन्द्रिय जासियों अनन्त बारा किला है।।१८५३. गृह्णीते मुञ्चमानोऽङ्गी, शरीराणि सहस्रशः । भ्रमति द्रव्य-संसारे, घटीयन्त्रमिवानिशम् ॥१८६४ ।। अर्थ - जैसे घटी यन्त्र पूर्व जल का त्याग और दूसरे-दूसरे जल का ग्रहण करते हुए सतत घूमता रहता है वैसे ही द्रव्यसंसार में पूर्व-पूर्व शरीरों को छोड़ते हुए और नवीन शरीरों को ग्रहण करते हुए जीव निरन्तर भ्रमण कर रहा है ।।१८६४॥ प्रश्न - 'द्रव्यसंसार किसे कहते हैं और संसारभ्रमण के कितने भेद हैं ? उत्तर - नाना प्रकार के शरीरों को द्रव्य कहते हैं, इन शरीरों को धारण कर जीव का संसार में जो भ्रमण होता है उसे द्रव्य-संसार कहते हैं । द्रव्य परिवर्तन, क्षेत्र परिवर्तन, काल-परिवर्तन, भव परिवर्तन एवं भाव परिवर्तन के भेद से संसार भ्रमण पाँच प्रकार का है। द्रव्य परिवर्तन बहुसंस्थान-रूपाणि, चित्र-चेष्टा-विधायकः। रङ्गस्थ-नट-वज्जीवो, गृह्णीते मुञ्चते भवे ॥१८६५ ॥ अर्थ - जैसे रंगभूमि में प्रविष्ट होने वाला नट अनेक प्रकार के रूपों को धारण करता है और नाना प्रकार की चेष्टाएँ करता है वैसे ही इस द्रव्य संसार में भ्रमण करता हुआ यह जीव अनेक आकारादि रूप शरीरों को अनेक चेष्टाओं सहित पुन:पुनः धारण करते एवं छोड़ते हुए द्रव्य परिवर्तन करता है ।।१८६५ ।। प्रश्न - द्रव्य-परिवर्तन के कितने भेद हैं और उनका स्वरूप क्या है ? उत्तर - द्रव्य परिवर्तन के दो भेद हैं। नोकर्म द्रव्य परिवर्तन और कर्मद्रव्य परिवर्तन । Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ५११ नोकर्मद्रव्य-परिवर्तन - किसी एक जीव ने एक समय में तीन शरीरों में से किसी एक विवक्षित शरीर के एव छह पर्याप्तियों के योग्य पुद्गल ग्रहण किया और दूसरे समय में उस द्रव्य की निर्जरा कर दी। ग्रहण करते समय जीव के तीव्र, मध्यम या मन्द जैसे भाव रहे हों और उन गृहीत पुद्गलों में जैसा स्पर्श, रस, गन्ध एवं वर्ण रहा हो वही विवक्षित है। उसके पश्चात् अनन्त बार अगृहीत को ग्रहण करके, अनन्तबार मिश्र को ग्रहण करके मध्य में गृहीत और आगृहीत को अनन्तबार ग्रहण करके वे पूर्व विवक्षित पुद्गल उसी जीव के उन्हीं भावों से जब नोकर्मरूप को प्राप्त होते हैं तब प्रारम्भ से उतने काल समुदाय को नोकर्म द्रव्य परिवर्तन कहते हैं। कर्मद्रव्य परिवर्तन - नोकर्मद्रव्य परिवर्तन करने वाले उसी जीवने जैसे स्पर्श, रस, गन्ध एवं वर्णवाले जिस तीव्र, मध्यम एवं मन्दभावों से अष्ट कर्मों के योग्य कर्म पुद्गल द्रव्य का समयप्रबद्ध रूप से एक समय में ग्रहण किया, पश्चात् एक समय अधिक एक आवली काल के पश्चात् द्वितीयादि समयों में उन्हें भोग कर छोड़ दिया । पश्चात् अनन्तबार अगृहीत, अनन्त बार मिश्र एवं अनन्तबार गृहीत को विधिविधान पूर्वक ग्रहण कर एवं छोड़ कर जब वही जीव उन्हीं भावों से और उसी प्रकार के स्पर्श-रसादि गुणों से युक्त उन्हीं कार्मण वर्गणाओं को ग्रहण करे तब प्रारम्भ से लेकर उतने काल समुदाय को कर्मद्रव्य परिवर्तन कहते हैं। तथा नोकर्मद्रव्य परिवर्तन और कर्मद्रव्य परिवर्तन के अनन्त-कालात्मक समूह को द्रव्य परिवर्तन कहते हैं। क्षेत्र परिवर्तन भूत्वा भूत्वा मृतो यत्र,जीवो मेऽयमनन्तशः। अणुमात्रोऽपि नो देशो, विद्यते स जगत्त्रये ।।१८६६॥ अर्थ - तीन लोक में ऐसा कोई एक भी प्रदेश नहीं है जहाँ मेरे इस जीव ने अनन्तबार जन्म ले-लेकर मरण न किया हो। अर्थात् अनेक अवगाहनाओं के साथ इस जीव ने क्षेत्र-परिवर्तन रूप संसार में परिभ्रमण किया है॥१८६६॥ प्रश्न - क्षेत्र परिवर्तन के कितने भेद हैं और उनका क्या स्वरूप है? उत्तर - क्षेत्रपरिवर्तन के दो भेद हैं। स्वक्षेत्र परिवर्तन और परक्षेत्र परिवर्तन । स्वक्षेत्र परिवर्तन - एक जीव सर्वजघन्य अवगाहना के प्रदेशों का जितना प्रमाण है उतनी बार जघन्य अवगाहना को धारण कर पश्चात् क्रमश: एक-एक प्रदेश अधिक-अधिक की अवगाहनाओं को धारण करते-करते महामत्स्य की उत्कृष्ट अवगाहना पर्यन्त अवगाहनाओं को जितने समय में धारण कर सके उतने काल-समुदाय को एक स्वक्षेत्र परिवर्तन कहते हैं। परक्षेत्र परिवर्तन - सूक्ष्म निगोदियालब्ध्यपर्याप्तक जीव सर्वजघन्य प्रदेश वाला शरीर लेकर सुदर्शन मेरु के नीचे मध्य में अचलरूप से स्थित लोक के इन अष्ट मध्य प्रदेशों को अपने शरीर के मध्यप्रदेश बनाकर उत्पन्न हुआ और क्षुद्रभव ग्रहण कर एक श्वास के अठारहवें भाग तक जीवित रह कर मरा। वही जीव पुनः उसी अवगाहना को लेकर उसी स्थान पर दूसरी, तीसरी एवं चौथी बार उत्पन्न हुआ। इस प्रकार अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण आकाश में जघन्य अवगाहना के जितने प्रदेश हैं उतनी बार उसी क्रम से वहीं उत्पन्न हुआ और श्वास के अठारहवें भाग प्रमाण क्षुद्र आयु को भोग-भोग कर मरण को प्राप्त होता रहा। पश्चात् एक-एक प्रदेश के अधिक क्रम से जितने काल में सम्पूर्ण लोक को अपना जन्मक्षेत्र बना ले उतने काल समुदाय को एक परक्षेत्रपरिवर्तन कहते हैं और इन्हीं सब को क्षेत्र परिवर्तन कहते हैं। Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परणकण्डिका - ५१२ काल परिवर्तन ये कल्पानामनन्तानां, समयाः सन्ति भो यते !। जातो मृतः समस्तेषु, शरीरी तेष्वनेकशः ।।१८६७ ।। अर्थ - हे यते ! अनन्त कल्पकालों के जितने समय हैं उन सभी समयों में यह जीव अनन्तबार उत्पन्न हुआ और अनन्तबार मरा ॥१८६७ ।। प्रश्न - काल परिवर्तन किसे कहते हैं? उत्तर - उत्सर्पिणीकाल के प्रथम समय में उत्पन्न हुआ कोई जीव अपनी आयु पूर्ण कर मरा। वही जीव पुनः दूसरी उत्सर्पिणी के दूसरे समय में उत्पन्न हुआ और अपनी आयु पूर्ण कर मरा। वही जीव पुन: तीसरी उत्सर्पिणी के तीसरे समय में उत्पन्न हुआ और मरः । इसी क्रम स उत्सर्पिणी समाप्त की और इसी क्रम से अवसर्पिणी समाप्त की। अर्थात् उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी के बीस कोड़ाकोड़ी सागर के जितने समय हैं उनमें क्रमश: उत्पन्न हुआ तथा इसी क्रम से मरण को प्राप्त हुआ। इसमें जितना काल लगा उतने काल समुदाय को एक काल परिवर्तन कहते हैं। भव परिवर्तन प्रदेशाष्टकमत्यस्य, शेषेषु कुरुते भवी। उद्वर्तन-परावर्त, सन्तप्ताप्स्विव तन्दुलाः ॥१८६८ ।। अर्थ - जैसे उबलते हुए जल में निक्षिप्त चावल ऊपर नीचे होते रहते हैं, वैसे ही जीव के आठ प्रदेश छोड़कर शेष प्रदेश सदैव उद्वर्तन-परावर्तन करते रहते हैं अर्थात् ऊपर-नीचे होते रहते हैं ।।१८६८॥ प्रश्न - इस श्लोक से क्या कहा जा रहा है ? उत्तर - लोक असंख्यातप्रदेशी है। लोक के मध्य में अर्थात् मध्यलोक के ठीक मध्य में सुदर्शन मेरु स्थित है। इसके नीचे ठीक मध्य में गौ के स्तन के आकार को लिये हुए अर्थात् लम्बाई, चौड़ाई एवं ऊँचाई को लिये हए दो के घनस्वरूप आठ प्रदेश सदा स्थिर रहते हैं। जीव भी लोक के प्रदेश प्रमाण असंख्यातप्रदेशी है। इसके भी आठ प्रदेश सदैव स्थिर रहते हैं। केवली समुद्घात में अर्थात् दण्ड समुद्घात के पूर्व केवली के और क्षेत्र परिवर्तन प्रारम्भ करने वाले सूक्ष्मनिगोदिया लब्ध्यपर्याप्त जीव के आठ मध्य प्रदेश ज्यों का त्यों आकार लिये हुए लोक के आठ प्रदेशों पर स्थित होकर समुद्घात का एवं क्षेत्र परिवर्तन का प्रारम्भ करते हैं। जीव के शेष प्रदेश चंचल हैं अत: वे उबलते हुए चावलों के सदृश ऊपर-नीचे होते रहते हैं। यह श्लोक का तात्पर्य अर्थ प्रश्न - वे आठ प्रदेश “दो के घन स्वरूप” हैं, इसका क्या अर्थ है ? उत्तर - जिस संख्या में दो का भाग देने पर एक शेष बचे उसे विषम राशि कहते हैं और जो राशि दो से भाजित करने पर पूर्ण विभक्त हो जाती है उसे सम राशि कहते हैं। जैसे एक कतार में रखे हुए सात फलों में विषमरूप चतुर्थ फल मध्यवर्ती होगा और यदि सम संख्यारूप आठ फल एक कतार में रखे हैं तो आगे-पीछे के तीन-तीन फल छोड़कर बीच के सम संख्या रूप दो फल मध्यवर्ती होंगे। Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरणकण्डल ५२५ आकाश द्रव्य के लोक के, धर्म-अधर्म द्रव्य के और एक जीव द्रव्य के प्रदेश सम संख्यावाले हैं, अत: दो प्रदेश मध्यवर्ती बने। दो का घन आठ होता है। यही घनात्मक आठ प्रदेश लोक के एवं प्रत्येक जीव द्रव्य के अचल रहते हैं। प्रश्न उत्तर - कोई एक जीव दस हजार वर्ष के जितने समय होते हैं उतनी बार नरक सम्बन्धी दस हजार वर्ष की जघन्याय से प्रथम नरक में उत्पन्न हुआ। पश्चात् एक-एक समय के अधिक क्रम से वहाँ की तैंतीस सागर की उत्कृष्ट आयु को उसने क्रम से पूर्ण किया। पश्चात् अन्तर्मुहूर्त के जितने समय होते हैं उतनी बार तिर्यंचगति सम्बन्धी अन्तर्मुहूर्त की जघन्यायु से तिर्यंचगति में उत्पन्न हुआ। पश्चात् एक-एक समय के अधिक क्रम से वहाँ की तीन पल्य की उत्कृष्ट आयु उसने क्रम से पूर्ण किया। पश्चात् अन्तर्मुहूर्त के जितने समय होते हैं, उतनी बार मनुष्यगति सम्बन्धी अन्तर्मुहूर्त की जघन्याय से मनुष्य गति में उत्पन्न हुआ । पश्चात् एक-एक समय के अधिक क्रम से वहाँ की तीन पल्य की उत्कृष्ट आयु को उसने क्रम से पूर्ण किया। पश्चात् दस हजार वर्ष के जितने समय होते हैं उतनी बार स्वर्ग सम्बन्धी दस हजार वर्ष की जघन्य आयु लेकर देवगति में उत्पन्न हुआ। पश्चात् एक-एक समय के अधिक क्रम से इकतीस सागर की आयु को पूर्ण किया, क्योंकि मिथ्यादृष्टि देव की आयु इकतीस सागर से अधिक नहीं होती। इस क्रम से चारों गतियों में भ्रमण करने में जितना काल लगे, उतने काल समुदाय को एक भव-परिवर्तन का काल कहते हैं, तथा इतने काल में जितना भ्रमण किया जाय उसे भव परिवर्तन कहते हैं। भाव परिवर्तन असंख्यलोक-मानेषु, परिणामेषु वर्तते । शरीरी भवसंसारे, कर्मभूप - वशीकृतः ।। १८६९ ।। जघन्या मध्यमा वर्या, निविष्टाः स्थितयोऽखिलाः । अतीतानन्तशः काले, भव-भ्रमण - कारिणा ।। १८७० ।। - भव परिवर्तन किसे कहते हैं ? परिणामान्तरेष्वङ्गी, सर्वदा परिवर्तते । वर्णेषु चित्र - रूपेषु, कृकलास इव स्फुटम् ।। १८७१ ।। अर्थ - जीव के अध्यवसाय स्थान असंख्यातलोक प्रमाण होते हैं अर्थात् लोकाकाश के असंख्यात प्रदेशों को असंख्यात से गुणा करने पर जितनी राशि होती है उतने होते हैं। कर्मरूपी राजा के वशवर्ती हो यह जीव भव संसार में उन्हीं असंख्यात लोक प्रमाण अध्यवसाय रूप भावों में परावर्तन करता है। कर्मों की जघन्य, मध्यम एवं उत्कृष्ट तीनों प्रकार की कर्मस्थितियों को बाँधने में कारणभूत स्थिति बन्धाध्यवसान स्थान भी असंख्यात लोक है। अतीतकाल में इस जीव ने इन सब भवभ्रमणकारी परिणामों को अनन्तबार धारण किया है। जैसे कृकलास या सरड या गिरगिट नानाप्रकार के रंग बदलता है वैसे ही यह संसारी जीव उपर्युक्त परिणामों में बदल-बदल कर प्रत्येक क्षण परिणमन करता रहता है। इसी को भाव परिवर्तन कहते हैं ।। १८६९-१८७०-१८७१ ॥ Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ५१४ प्रश्न - भाव परिवर्तन का विस्तृत स्वरूप क्या है ? उत्तर - कषाय और योग ये नवीन कर्मबन्ध में कारण हैं। कषाय परिणामों के असंख्यात भेद हैं, इन्हीं को कषाय बन्धाध्यवसाय स्थान कहते हैं। मनोवर्गणा आदि के अवलम्बन से आत्मप्रदेशों में कम्पन होकर कर्मग्रहण की जो शक्ति उत्पन्न होती है उसे योग कहते हैं। इसी के द्वारा जीव नित्य ही कर्मवर्गणाओं को ग्रहण करता रहता है। इस योगस्थान के भी असंख्यात भेद हैं। आत्मा के जो परिणाम कर्मों की स्थिति में कारण हैं उन्हें स्थिति बन्धाध्यवसान स्थान कहते हैं और जो परिणाम अनुभाग में कारण होते हैं उन्हें अनुभाग बन्धाध्यवसाय स्थान कहते हैं। श्रेणी के असंख्यातवेंभाग प्रमाण योग स्थानों के हो जाने पर एक अनुभाग बन्ध-अध्यवसाय स्थान होता है। असंख्यात लोक प्रमाण अनुभागबन्धाध्यवसाय स्थानों के हो जाने पर एक स्थितिबन्ध अध्यवसाय स्थान होता है और असंख्यात लोकप्रमाण स्थितिबन्ध अध्यवसाय स्थानों के हो जाने पर एक स्थिति स्थान होता है। इसी क्रम से ज्ञानावरणादि सर्व मूल प्रकृतियों के एवं उत्तर प्रकृतियों के समस्त स्थानों के पूर्ण हो जाने का नाम भाव-परिवर्तन है। यथा- पंचेन्द्रिय, संज्ञी, पर्याप्तक, मिथ्यादृष्टि कोई जीव अपने योग्य ज्ञानावरण कर्म का सबसे जघन्य अन्तःकोटाकोटिसागर प्रमाण स्थितिबन्ध करता है। उस जीव के उस स्थितिबन्ध के योग्य असंख्यात-लोक प्रमाण कषायाध्यवसाय स्थान होते हैं, उनमें से सबसे जघन्यकषायाध्यवसाय स्थान में निमित्त असंख्यात लोक प्रमाण अनुभागाध्यवसाय स्थान होते हैं। इस प्रकार सबसे जघन्य स्थिति, सबसे जधन्य कषायअध्यवसाय स्थान और सबसे जघन्य ही अनुभाग स्थान को प्राप्त उस जीव के उसके योग्य सबसे जघन्य एक योगस्थान होता है, फिर उसी स्थिति, उसी कषायस्थान और उसी अनुभाग स्थान को प्राप्त उस जीव के दूसरा योगस्थान होता है, जो पहले से असंख्यात भाग वृद्धियुक्त होता है। इस प्रकार श्रेणी के असंख्यातवेंभाग प्रमाण योगस्थानों के समाप्त हो जाने पर पनः वही स्थिति और उसी कषायाध्यवसाय स्थान को प्राप्त उसी जीव के दूसरा अनुभागाध्यवसाय स्थान होता है। उसके भी योगस्थान पूर्ववत् जानना। इस प्रकार तीसरे आदि असंख्यात लोक प्रमाण अनुभागाध्यवसाय स्थानों के समाप्त हो जाने पर उसी स्थिति को प्राप्त उसी जीव के द्वारा दूसरा कषायाध्यवसाय स्थान होता है उसके भी अनुभाग अध्यवसायस्थान पूर्ववत् जानना। इस प्रकार तीसरे आदि कषायाध्यवसाय स्थानों के समाप्त होने पर वही जीव एक समय अधिक जघन्य स्थिति को बाँधता है, उसके भी कषायादि स्थान पूर्ववत् जानना । इसी प्रकार एक-एक समय अधिक के क्रम से ज्ञानावरण कर्म की उत्कृष्ट स्थिति तीस कोड़ाकोड़ी सागर पूर्ववत् बाँधता है। इसी प्रकार सब मूलकर्मों की सब उत्तर प्रकृतियों की सब स्थितियों को उसी प्रकार से बाँधता है। द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव इन पाँचों में से प्रत्येक परिवर्तन का काल अनन्त होते हुए भी क्रमश: आगे-आगे इनमें अनन्तगुणा-अनन्तगुणा काल लगता है। ___ मिथ्यादृष्टि जीव अनन्तकाल प्रमाण वाले इन परिवर्तनों को अनन्तामन्त बार भी कर लेता है। यह पंच परावर्तनों का निरूपण मिथ्यादृष्टि जीव की अपेक्षा ही होता है, क्योंकि जो जीव एक बार भी सम्यक्त्व प्राप्त कर लेता है वह अर्धपुद्गल परिवर्तन काल से अधिक संसार में नहीं रहता, नियमत: मोक्ष चला जाता है। नोकर्म Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ५१५ पुद्गल परिवर्तन का जितना काल है उतना ही काल अर्धपुद्गल परिवर्तन का है। केवलज्ञान का विषय होने से यह भी अनन्त रूप है। संसार भय प्रदर्शन आकाशे पक्षिणोऽन्योन्यं, स्थले स्थल-विहारिणः। जले मीनाश्च हिंसन्ति, सर्वत्रापि भयं भवे ।।१८७२ ।। अर्थ - संसार में सर्वत्र भय है, क्योंकि आकाश में उड़ने वाले छोटे पक्षियों को बड़े पक्षी त्रास देते हैं, या समान शक्ति वाले परस्पर में घात करते हैं। स्थल पर विचरण करने वाले हिरण एवं चूहा आदि को सिंह तथा बिल्ली आदि मार कर खा जाते हैं तथा जल में मीन आदि परस्पर में घात करते हैं या एक दूसरे को निगल जाते हैं ॥१८७२ ।। शयालोर्मुखमभ्येत्य, व्याधारन्धो यथा शशः । मन्वानो विवरं दीनः, प्रयाति यम-मन्दिरम् ।।१८७३ ।। क्षुत्तृष्णादि-महाव्याध-प्रारब्धश्चेतनस्तथा । अज्ञो दुःखकर याति, संसार-भुजगाननम् ।।१८७४ ॥ अर्थ - जैसे खरगोश शिकारी (व्याध) द्वारा सताये जाने पर बिल समझकर अजगर के मुख में प्रवेश करता है, वह उस मुख को अपना शरण मानकर मृत्यु के मुख में प्रवेश करता है, वैसे ही ये अज्ञानी जीव भूखप्यास आदि व्याधों के द्वारा पीड़ित होने पर सुखप्राति की आशा से अत्यन्त दुख के निमित्तभूत संसाररूपी अजगर के मुख में प्रवेश करते हैं ।।१८७३-१८७४॥ यावन्ति सन्ति सौख्यानि, लोके सर्वासु योनिषु । प्राप्तानि तानि सर्वाणि, बहुबारं शरीरिणा ॥१८७५ ।। अर्थ - लोकगत सब योनियों में जितने प्रकार के सुख हैं, उन सब सुखों को भी इस जीव ने अनन्त बार भोगा है।।१८७५|| अवाप्यानन्तशो दुःखमेकशो लभते यदि। सुखं तथापि सर्वाणि, तानि लब्धान्यनेकशः॥१८७६ ॥ अर्थ - यह संसार का सुख भी अनन्त बार दुख भोग लेने के बाद कहीं एक बार प्राप्त होता है। अर्थात् अनन्त बार दुख, एक बार सुख, फिर अनन्त बार दुख, एक बार सुख, इस क्रम के कारण दुख भोगने का समय अधिक और सुखमय समय कम होता है। तथापि संसार के जो भी इन्द्रियजन्य सुख हैं उन सभी को भी यह जीव अनेक बार भोग चुका है ।।१८७६ ॥ प्रश्न - संसार के कौन से सुख इस जीव ने अनेक बार भोगे हैं और कौन से ऐसे सुख हैं जो इसे अद्यावधि प्राप्त नहीं हुए? Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ५१६ उत्तर - इस जीव ने देवगति के, भोगभूमि के, विद्याधरों के एवं राजा-महाराजा आदि के सुख अनेक बार भोग लिये हैं, किन्तु गणधर, चक्रवर्ती, नारायण, प्रतिनारायण, बलभद्र, पंच अनुत्तर विमान-वासी, अनुदिश विमानवासी देव, सौधर्मेन्द्र, उसकी शची, उसके लोकपाल एवं लौकान्तिक देव इनके सुख प्राप्त नहीं किए, क्योंकि इन स्थानों में से कुछ स्थान आसन्नभव्यों को, कुछ स्थान सम्यग्दृष्टि को और कुछ स्थान तद्भव मोक्षगामी जीव को ही प्राप्त होते हैं। स चतुर्भिस्त्रिभिाभ्यामेकेनाक्षेण वर्जितः । संसार-सागरेऽनन्ते, जायतेऽनन्तशोऽसुमान् ॥१८७७ ।। अर्थ - इस जीव ने इस अनन्त संसार में परिभ्रमण करते हुए कभी चार इन्द्रियों से, कभी तीन इन्द्रियों से, कभी दो इन्द्रियों से और कभी एक इन्द्रिय से रहित होकर एक-एक पर्याय में अनन्त-अनन्त बार जन्म लिया है अर्थात् अनन्त-अनन्त बार एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय एवं चतुरिन्द्रिय पर्यायों में जन्म लिया है ।।१८७७ ।। प्रश्न - इन पर्यायों में सबसे अधिक काल और सबसे कम काल किसका होता है? उत्तर - संसारी जीव का सबसे अधिक काल एकेन्द्रिय पर्याय में, उससे कम द्वीन्द्रिय में, उससे कम श्रीन्द्रिय में और उससे भी कम चतुरिन्द्रिय पर्याय में व्यतीत होता है। विचक्षुर्बधिरो मूको, वामन: पामनः कुणिः। दुर्वर्णो-दुःस्वरो मूर्खश्चुल्लश्चिपिट-नासिकः॥१८७८ ।। व्याधितो व्यसनी शोकी, मत्सरी पिशुन: शठः । दुर्भगो गुण-विद्वेषी, वञ्चको जायते भवे ॥१८७९ ।। क्षुधितस्तृषितः श्रान्तो, दुःखभार-वशीकृतः। एकाकी दुर्गमे दीनो, हिण्डते भव-कानने ॥१८८० ।। अर्थ - यह जीव किसी पुण्योदय से मनुष्य भी हो गया तो अंधा या बहरा, मूक अर्थात् गूंगा, या बौना, पंगु, कुबड़ा, बदसूरत, कर्कश वाणी बोलने वाला, मूर्ख, चिड़चिड़े स्वभाव वाला, चिपटी नाक वाला, दीर्घरोगी, व्यसनी, सदा शोक से संतप्त, मत्सरस्वभावी, चुगलखोर, शठ, दरिद्री या दुर्भग, गुणों से द्वेष करने वाला, छलकपट स्वभाव वाला, हीन-दीन, दुखी एवं पापमय अवस्थाओं को प्राप्त कर दुख पाता है। संसाररूपी भयानक अटवी में दुखभार के वशवर्ती हुआ यह दीन-अनाथ प्राणी भूखा, प्यासा, थका-माँदा अकेला ही परिभ्रमण करता है अर्थात् मार्गभ्रष्ट पथिक सदृश मोक्षमार्ग से भ्रष्ट होकर जन्मरूपी वन में असहाय होकर अकेला ही भ्रमण करता रहता है।।१८७८-१८७९-१८८०॥ एकेन्द्रियेष्वयं जीव:, पञ्चस्वपि निरन्तरम् । उत्थान-वीर्य-रहितो, दीनो बंभ्रमते घिरम् ॥१८८१।। अर्थ - पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक एवं वनस्पतिकायिक इन पाँच प्रकार के स्थावर की एकेन्द्रिय पर्यायों में यह जीव बल-वीर्य से रहित होता हुआ चिरकाल तक परिभ्रमण करता है अर्थात् Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. मरणकण्डिका इन पर्यायों में इतनी भी शक्ति नहीं होती कि त्रसकाय की प्राप्ति के लिए परिणाम सम्हालने का प्रयत्न कर सकें ॥ १८८१ ।। - ५१७ चित्र - दुःख - महावर्तामिमां संसृति-वाहिनीम् । अज्ञान मिलितो जीवो, गाहते पाप-पाथसम् ॥। १८८२ ॥ अर्थ - जिसमें अनेक प्रकार के दुखरूपी महाआवर्त उठ रहे हैं और पापरूपी जलप्रवाह से प्रवाहित हो रही है ऐसी संसाररूपी विशाल एवं भयानक नदी में यह अज्ञानी जीव बहता जा रहा है। अर्थात् उस नदी में डूबा रहता है ।। १८८२ ॥ इन्द्रियार्थाभिलाषारं, चञ्चलं योनिनेमिकम् । मिथ्याज्ञान- महातुम्बं दुःख - कीलक- यन्त्रितम् ।। १८८३ ।। कषाय - पट्टिकाबद्धं, जरा-मरण-वर्तनम् । संसार-चक्रमारुह्य, चिरं भ्राम्यति चेतनः ।। १८८४ ॥ अर्थ - यह संसार रूपी वाहन या चक्र इन्द्रिय विषयों की अभिलाषा रूपी आरों से युक्त है, कुयोनिरूपी नेमि अर्थात् हाल उस पर चढ़ी हुई है, वह मिथ्याज्ञान रूपी महातुम्ब पर स्थित है, दुख रूपी महाकीलों से नियन्त्रित है, कषायरूपी दृढ़ पट्टिका से बद्ध है और जरा तथा मरण रूपी दो पहियों से युक्त है, ऐसे संसार रूपी चक्र पर चढ़कर यह चेतन प्राणी पराधीन हुआ हजारों जन्मरूपी विशाल मार्ग पर चिरकाल से परिभ्रमण कर रहा है ।। १८८३ - १८८४ ॥ वहमानो नरो भारं क्वापि विश्राम्यति ध्रुवम् । न देह-भारमादाय, विश्राम्यति कदाचन ।। १८८५ ।। अर्थ - भारवाही मनुष्य तो किसी क्षेत्र और काल में कभी अपना भार उतार कर विश्राम कर लेता है किन्तु शरीर के भार को ढोने वाले संसारी प्राणी एक क्षण के लिए भी भारमुक्त होकर विश्राम नहीं पाते अर्थात् औदारिक, वैक्रियिक शरीर छूट जाने पर भी कार्मण और तेजस शरीर बराबर बने रहते हैं ।। १८८५ ॥ बम्भ्रमीति चिरंजीवो, मोहान्ध-तमसावृतः । संसारे दुःखित-स्वान्तो, विचक्षुरिव कानने ।। १८८६ ॥ अर्थ - जैसे अन्धा व्यक्ति जंगल में भटकते हुए दुखी होता रहता है, वैसे ही संसार रूपी भयावह बन में यह जीव मोहरूपी अन्धकार से आवृत अर्थात् अन्धा होकर चिरकाल तक भटकता रहता है ।। १८८६ ॥ भीतः करोति दुःखेभ्यः, सुख-सङ्गम - लालसः । अज्ञान - तमसाछन्नो, हिंसारम्भादि-‍ ६- पातकम् ।। १८८७ ।। हिंसारम्भादि दोषेण, गृहीत - नव - कल्मषः । प्रदह्यते प्रविष्टोऽङ्गी, पावकादिव पावकम् ।। १८८८ ॥ Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परणकण्डिका - ५१८ अर्थ - अज्ञान अंधकार से आच्छादित यह मोही प्राणी दुखों से डरता है और सुखप्राप्ति की अभिलाषा करता है तथा उस अभिलाषा की पूर्ति हेतु हिंसा, झूठ, चोरी एवं आरम्भ आदि पाप करता है। इस प्रकार वह हिंसा-आरम्भादि दोषों के कारण नये-नये असातावेदनीय, नौचगोत्र एवं नरकायु आदि पाप प्रकृतियों का बन्ध करता है। जिसके फलस्वरूप वह कुगतियों में प्रविष्ट हो अत्यधिक दुखों से उसी प्रकार जलता है, जिस प्रकार एक अग्नि से निकल कर दूसरी अग्नि में प्रविष्ट होने वाला मूर्ख प्राणी सदा जलता रहता है॥१८८७-१८८८ ।। गृह्णता मुञ्चता दारुणं कल्मषं, सौख्य-कांक्षेण जीवेन मूढात्मना । भ्रम्यते संसृतौ सर्वदा दुःखिना, पावनं मुक्तिमार्ग ततोऽपश्यता ॥१८८१ ।। इति जन्मानुप्रेक्षा। अर्थ - मूढ़ अज्ञानी जीव, जो कर्म उदय में आकर फल दे चुकते हैं, उन्हें छोड़ देता है तथा कर्मफल भोगते समय होने वाले राग-द्वेष रूप परिणामों से एवं भविष्य में इन्द्रिय सुख की वांछा से दारुण नवीन पापकर्मों का बन्ध करता है। इस ग्रहण-मोचन में संलग्न रहने के कारण वह परम-पावन रत्नत्रयरूप मोक्षमार्ग को न जान पाता है और न देख पाता है, इसलिए बहुत भयंकर दुखों से भरे संसार में भ्रमण कर संतप्त होता रहता है।।१८८९॥ इस प्रकार संसारानुप्रेक्षा पूर्ण हुई ।।५।। लोक भावना सर्वे सर्वैः समं प्राप्ताः, सम्बन्धा जन्तुनाङ्गिभिः । भवति भ्रमत: कस्य, तत्र तत्रास्य बान्धवाः ॥१८९०॥ अर्थ - इस लोक में सभी जीव सभी जीवों के साथ सम्बन्ध प्राप्त कर चुके हैं। भ्रमण करते हुए इस जीव ने चारों गति सम्बन्धी नाना योनियों में जहाँ-जहाँ जन्म लिया, वहीं-वहीं कौन-कौन इसका बन्धु-बांधव नहीं हुआ ? अपितु सभी जीव अनेक बार बाँधव हो चुके हैं ॥१८९० ॥ माता सुता स्नुषा भार्या, सुता कान्ता स्वसा स्नुषा। पिता पुत्रो नृपो दासो, जायतेऽनन्तशो भवे ॥१८९१॥ अर्थ - संसार में जो इस जन्म में माता है, वही किसी भव में पुत्री हो जाती है, पुत्रवधू पत्नी हो जाती है, पुत्री पत्नी, और बहिन-पुत्रवधू बन जाती है। जो पूर्व भव में पिता था वह पुत्र, जो राजा था वह दास और जो दास था वह राजा बन जाता है। इस प्रकार का यह परिवर्तन अनन्तबार हो चुका है ।१८९१ ॥ वसन्ततिलका माता, भगिनी कमला च ते। एकत्र धनदेवस्य, भार्या जाता भवे ततः ॥१८९२ ।। अर्थ - देखो ! अन्य भवों में सम्बन्ध बदलने की तो बात ही क्या है ? किन्तु एक ही भव में धनदेव की माता वसन्ततिलका एवं बहिन कमला, ये दोनों उसी धनदेव की पत्नियाँ हुई ।।१८९२ ।। Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ५११ प्रश्न - माता और बहिन उसी भव में उसी की पत्नियाँ बन जॉय, भला यह कैसे सम्भव है ? उत्तर - विषयभोगों से उपार्जित पापकर्मों के लिए कुछ भी असम्भव नहीं है। यदि एक शरीर भी धारण करने पर जीव नाना प्रकार के अपवादों और दुखों को प्राप्त होता है और अपनी मानसिक वेदना से उग्र पापबन्ध करता है तब विषयसेवन द्वारा पापकर्म उपार्जित करने वाला पापी पुरुष नाना शरीर धारण करने पर कैसे दुख नहीं पावेगा? अवश्य ही दुख प्राप्त करेगा। क्योंकि मदोन्मत्त एवं बलशाली हाथी द्वारा वेग से फेंकी हुई तीक्ष्ण तलवार जितना दुख नहीं देती, उससे भी अधिक दुख विषयभोग देते हैं, इसीलिए तत्त्वज्ञानी जन विषयों का त्याग कर देते हैं। * धनदेव (अठारह नाते) की कथा * मालवदेश की उज्जैनी नगरी में राजा विश्वसेन, सेठ सुदत्त और वसंततिलका वेश्या रहती थी। सेठ सुदत्त सोलह करोड़ द्रव्य का स्वामी था। उसने वसंततिलका वेश्याको अपने घर में रख लिया। वह गर्भवती हुई और खाज, खाँसी, श्वास आदि रोगोंने उसे घेर लिया। तब सेठने उसे अपने घरसे निकाल दिया। अपने घर में आकर वसंतुनिलका ने एक न और एक पुत्रीको जन्म दिया। खिन्न होकर उसने रत्न कम्बल में लपेट कर कमला नाम की पुत्री को तो दक्षिण ओर की गलीमें डाल दिया। उसे प्रयाग का व्यापारी सुकेत ले गया और उसने उसे अपनी सुपुत्रा नामकी पत्नी को सौंप दिया तथा धनदेव पुत्र को उसी तरह रत्नकम्बल से लपेटकर उत्तर ओर की गली में रख दिया। उसे अयोध्यावासी सुभद्र ले गया और उसने उसे अपनी सुव्रता नाम की पत्नी को सौंप दिया। पूर्वजन्म में उपार्जित पापकर्म के उदय से धनदेव और कमला का आपस में विवाह हो गया। एक बार धनदेव व्यापारके लिए उज्जैनी गया। वहाँ वसंततिलका वेश्यासे उसका सम्बन्ध हो गया। दोनों के सम्बन्ध से वरुण नामका पुत्र हुआ। एक बार कमला ने श्री मुनिदत्त से अपने पूर्वभव का वृत्तान्त पूछा। श्री मुनिदत्त ने सब सम्बन्ध बतलाया, जो इस प्रकार है। उज्जैनी में सोमशर्मा नाम का ब्राह्मण था। उसकी पत्नी का नाम काश्यपी था। उन दोनों के अग्निभूति और सोमभूति नामके दो पुत्र थे। वे दोनों परदेश से विद्याध्ययन करके लौट रहे थे। मार्ग में उन्होंने जिनमति आर्यिका को अपने पुत्र जिनदत्त मुनि से कुशलक्षेम पूछते हुए देखा तथा सुभद्रा आर्यिका को अपने श्वसुर जिनभद्र मुनिसे कुशलक्षेम पूछते हुए देखा। इस पर दोनों भाइयों ने उपहास किया। जवान की स्त्री बूढी और बूढ़े की स्त्री जवान, 'विधाता ने अच्छा उलट फेर किया है। कुछ समय पश्चात् अपने उपार्जित कर्मों के अनुसार सोमशर्मा ब्राह्मण मरकर उज्जैनी में ही वसन्तसेना की पुत्री वसंततिलका हुई और अग्निभूति तथा सोमभूति दोनों मरकर उसके धनदेव और कमला नाम के पुत्र और पुत्री हुए। ब्राह्मण की पत्नी व्यभिचारिणी काश्यपी मरकर धनदेव के सम्बन्ध से वसंततिलका के वरुण नाम का पुत्र हुई। इस कथा को सुनकर कमला को जातिस्मरण हो आया। उसने मुनिराज से अणुव्रत ग्रहण किये और उज्जैनी जाकर वसन्त-तिलका के घरमें घुसकर पालने में पड़े हुए वरुण को झुलाने लगी और उससे कहने लगी (१) मेरे पति के पुत्र होने से मेरे पुत्र हो। (२) मेरे भाई धनदेव के पुत्र होने से तुम मेरे भतीजे हो। (३) तुम्हारी और मेरी माता एक ही है, अतः तुम मेरे भाई हो। (४) धनदेव के छोटे भाई होने से तुम मेरे देवर हो। (५) धनदेव मेरी माता वसंततिलका का पति है, इसलिए धनदेव मेरे पिता हैं। उसके भाई होने से तुम मेरे काका हो। (६) मैं वेश्या वसंततिलका की Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ५२० सौत हूँ अतः धनदेव मेरा पुत्र है। तुम उसके भी पुत्र हो, अत: तुम मेरे पौत्र हो। यह छह नाते बच्चे के साथ हुए। आगे-(१) वसंततिलका का पति होने से धनदेव मेरा पिता है। (२) तुम मेरे काका हो और धनदेव तुम्हारा भी पिता है, अतः वह मेरा दादा है। (३) तथा वह मेरा पति भी है। (४) उसकी और मेरी माता एक ही है; अत: धनदेव मेरा भाई है। (५) मैं वेश्या वसंततिलका की सौत हूँ और उस वेश्या का वह पुत्र है; अतः मेरा भी पुत्र है। (६) वेश्या मेरी सास है, मैं उसकी पुत्रवधू हूँ और धनदेव वेश्या का पति है; अतः वह मेरा श्वसुर है। ये छह नाते धनदेव के साथ हुए। आगे-(१) मेरे भाई धनदेव की पत्नी होने से वेश्या मेरी भावज है। (२) तेरे मेरे दोनों के धनदेव पिता हैं और वेश्या उनकी माता है; अत: वह मेरी दादी है। (३) धनदेव की और तेरी भी माता होने से वह मेरी भी भाता है। (४) मेरे पति धनदेव की भाषा होने से वह मेरी सौत है। (५) धनदेव मेरी सौत का पुत्र होने से मेरा भी पुत्र कहलाया। उसकी स्त्री होने से वह वेश्या मेरी पुत्रवधू है। (६) मैं धनदेव की स्त्री हूँ और वह उसकी माता है; अतः वह मेरी सास है। इन अठारह नातों को सुनकर वेश्या एवं धनदेव आदि को भी सब बातें ज्ञात हो जाने से जातिस्मरण हो आया और उन्हें वैराग्य हो गया। संसारे जायते यस्मिन्नुपोऽपि खलु किङ्करः । कीदृशी क्रियते तत्र, रति-निन्दा-निधानके ॥१८९३ ।। अर्थ - जिस संसार में निश्चय से राजा भी किंकर हो जाता है, निन्दा के भण्डार स्वरूप इस संसार से प्रेम किस प्रकार किया जाता है ? अर्थात् जो बुद्धिमान और विवेकी हैं वे संसार से प्रेम नहीं करते, वैराग्य धारण कर लेते हैं॥१८९३॥ विदेहाधिपती राजा, तेजो-रूप-कुलाधिकः । जातो वक़-गृहे कीटः, सुभोगः पूर्व-कर्मभिः ।।१८९४ ॥ अर्थ - विदेह देश का राजा सुभोग तेज, रूप एवं कुल से अधिक होते हुए भी अपने द्वारा उपार्जित कर्मोदय से प्रेरित हो अपने ही भवन के विष्ठागृह में स्थित विष्ठा में कीड़ा हुआ अर्थात् जब राजादि श्रेष्ठ पुरुषों की भी ऐसी हीन दशा हो जाती है तब अन्य जीवों की क्या कथा ! ॥१८९४ ।। *सुभोग राजा की कथा * विदेह देशकी मिथिला नगरीमें राजा सुभोग राज्य करता था, उसकी रानी मनोरमा और पुत्र देवरति था, एक दिन मिथिलाके उद्यानमें देवगुरु नामके अवधिज्ञानी आचार्य संघ सहित आये। राजा उनके दर्शनके लिये गया। धर्मोपदेश सुननेके अनंतर राजा ने प्रश्न किया कि मैं आगामी भवमें कौनसी पर्याय धारण करूंगा? मुनि ने कहा - राजन् ! सुनो, पापकर्मों के उदय से आप विष्ठा में कीड़ा होओगे। मुनिराजने मरणकालकी निकटता एवं उसके चिह्न भी बताये । राजा उदास हो महलमें लौट आया । क्रमश: मृत्युके चिह्न जैसे बताये थे वैसे प्रगट होने लगे जिससे मुनिके वचनों पर पूर्ण विश्वास हुआ। उसने पुत्र देवरति को बुलाकर मुनिके मुखसे सुना हुआ आगामी भवका हाल बताकर कहा कि हे पुत्र ! मैं मरणकर विष्ठागृह में पंचरंग का कीड़ा होवूगा । उस निंद्य पर्याय में रहना सर्वथा अनुचित है अतः तुम उस कीड़े को मार देना । मुनिराजके कथनानुसार राजा की निश्चित समयपर मृत्यु हो जाती है और वह विष्ठाका कीड़ा बनता है। देवरति उसको देखकर मारना चाहता है किन्तु Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ५२१ कीड़ा विष्ठा समूह में घुस जाता है। अनंतर किसी एक दिन देवरति किसी ज्ञानी मुनिसे अपने पिताके कीड़ा होना आदिका वृत्तांत कहकर पूछता है कि हे पूज्यवर ! पिताकी इच्छानुसार उनकी इस निंद्य पर्यायको नष्ट करने के लिये मैंने प्रयत्न किया किन्तु वह कीड़ा तो विष्ठामें भीतर भीतर घुसता है सो क्या कारण है ? मुनिराजने कहा यह संसारी मोहीप्राणी जहाँ जिस पर्यायमें जाता है वहाँ उसी में रमता है, यही मोह की विचित्र लीला है, इस पर्यायबुद्धि के कारण ही आजतक जीवों का कल्याण नहीं हुआ है । इत्यादि, अनेक प्रकारसे देवरतिको वैराग्यप्रद उपदेश दिया जिससे राजाने भोगों से विरक्त हो जिनदीक्षा ग्रहण कर ली। देवो महर्द्धिको भूत्वा पवित्र गुण-विग्रहः । गर्भे वसति वीभत्से, धिक्संसारमसारकम् ।। १८९५ ।। अर्थ यह जीव पुण्योदय से पवित्र गुणों से सहित, सम धातु रहित दिव्य वैक्रियिक शरीर तथा अणिमा-महिमादि अष्ट महा ऋद्धियों से सम्पन्न वैमानिक देव होकर भी आयु पूर्ण होने के पश्चात् घिनावने गर्भ में आकर नौ मास तक मस्तक नीचे और पैर ऊपर कर निवास करता है। हाय ! इस असार संसार को धिक्कार है, धिक्कार है ।। १८९५ ।। प्रश्न देव कितने प्रकार के होते हैं और उनकी ऋद्धियों के क्या लक्षण हैं ? उत्तर- भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी एवं वैमानिक के भेद से देव चार प्रकार के होते हैं। इनमें से वैमानिक देवों की ऋद्धियाँ अधिक प्रभावशाली होती हैं। अणिमाऋद्धि - दिव्यबल, वीर्य, विक्रम, शरीर और आयु वाले देव अणिमा ऋद्धि द्वारा अपने वैक्रियिक शरीर को अत्यन्त सूक्ष्म बना सकते हैं। महिमा शरीर बहुत बड़ा बना सकते हैं। लघिमा अर्कतूलवत् हल्का शरीर निर्माण कर सुदूर तक ऊपर उठ सकते हैं। गरिमा पर्वत से भारी शरीर बनाकर बड़ोंबड़ों को रोक सकते हैं। प्राप्ति अपने स्थान पर रहकर अर्थात् पृथ्वी पर खड़े रह कर सुदूरवर्ती सुमेरु की चोटी के अग्रभाग का स्पर्श कर सकते हैं। प्राकाम्य - इच्छानुसार हजारों रूप बना सकते हैं अर्थात् पृथ्वी, जल, अमि, वायु, काष्ठ और प्राणियों के शरीर में भी प्रवेश कर उन्हीं के सदृश हो जाते हैं। ईशत्व - ऐश्वर्य एवं प्रभावशाली होकर बिना प्रयत्न के देवों और मनुष्यों का स्वामित्व कर सकते हैं। वशित्व सबको अर्थात् चपल स्वभावी मृर्गों को भी अपने वश में कर सकते हैं। - - - यत्र खादति पुत्रस्य, जनन्यपि कलेवरम् । तत्तत्रामुत्र वा बन्धौ शत्रुत्वे कोऽस्ति विस्मयः ।। १८९६ ।। - देव इन ऋद्धियों के अतिरिक्त और भी अनेक विशेषताओं से युक्त हुआ करते हैं, किन्तु आयु समाप्त होते ही मनुष्य भव में आकर माता के वीभत्स गर्भालय में पड़े रहते हैं, अतः ज्ञानीजन संसार के किसी भी पदार्थ से स्नेह नहीं करते। अर्थ - जहाँ माता भी अपने पुत्र के शरीर को खा जाती है वहाँ इस लोक या परलोक में यदि बन्धुजन शत्रु बन जाते हैं, तो इसमें क्या आश्चर्य है ? || १८९६ ॥ Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरणकण्डिका - ५२२ बन्धू रिप गिन्धुिर्जायते मार्यतस्ततः । यतो रिपुत्व-बन्धुत्वे, संसारे न निसर्गतः ।।१८९७ ।। अर्थ - संसार में अपने-अपने कार्यवश बन्धुजन शत्रु और शत्रुजन बन्धु बन जाते हैं अतः यह निश्चित मानो कि इस संसार में बन्धुत्व और शत्रुत्व स्वाभाविक नहीं हैं॥१८९७ ।। वक्रेण विमला-हेतोः, सुदृष्टिर्विनिपातितः। निजाङ्गनाङ्गजो भूत्वा, जातिस्मरो बत ॥१८९८ ।। अर्थ - सुदृष्टि नामक रत्नपारखी अपनी पत्नी विमला के निमित्त अपने सेवक वक्र के द्वारा मारा गया और भरकर अपनी पत्नी विमला के ही गर्भ से पुत्र उत्पन्न हुआ। वहाँ उसे जातिस्मरण हो गया। अर्थात् उसे ज्ञान हो गया कि मैं अपनी पत्नी के गर्भ में अपने ही वीर्य से पैदा होने वाला पुत्र हूँ॥१८९८ ॥ * सुदृष्टि सुनारकी कथा * उज्जैन में सुदृष्टि नामका एक सुनार था। वह जवाहरातके जेवर बनानेमें बड़ा निपुण था। उसकी पत्नी विमला दुराचारिणी थी। अपने ही घर में रहने वाले विद्यार्थी वक्र से उसका अनुचित संबंध था। विमला ने एक दिन उस यार से कहकर अपने पति सुदृष्टि को मरवा डाला । वह मरकर उसी विमला के गर्भ में आया, यथासमय पुत्र हुआ और क्रमशः बड़ा हो गया। किसी दिन उस उज्जैन नगरी के राजा प्रजापाल की पट्टदेवी सुप्रभा का मूल्यवान रत्नहार टूट गया। अनेक सुनारों के पास उसे भेजा गया, किन्तु कोई भी उस हार को ठीकसे बना नहीं पाया। अन्तमें उसी विमलाके यहाँ वह हार पहुँचा। उसके पुत्र ने जैसे ही हार देखा, वैसे उसको जातिस्मरण होगया। उसने हार तो बना दिया, किन्तु उस दिनसे वह अत्यंत उदास रहने लगा। राजाको हार ठीक हो जानेसे बड़ी प्रसन्नता हुई, अतः उसने उस सुनारपुत्र को बुलाकर पूछा कि-इस हारको कोई बना नहीं पा रहा था, तुमने कैसे बनाया ? तब उसने एकांतमें अपने पूर्वभवसे अब तक का सारा वृत्तांत सुनाया। राजा प्रजापाल आश्चर्यचकित हो गया, उसे इस विचित्र भव परम्परा को देखकर वैराग्य हुआ। सुनारपुत्र तो पहले से ही उदास हो चुका था, उसका मन ग्लानिसे भरा था कि अहो ! यह कैसा परिवर्तनशील संसार है ! जहाँ स्वयंकी पत्नी से पतिका जन्म पुत्र रूपसे होता है । धिक् ! धिक् ! मोहतम को ! इसप्रकार विचार कर उसने भी अपना कल्याण किया। श्रोत्रियो ब्राह्मणो भूत्वा, कृत्वा मानेन पातकम् । सूकरो मण्डल: पाणो, शृगालो जायते बकः ॥१८९९ ।। अर्थ - श्रोत्रिय ब्राह्मण होकर अपनी जाति का मान कर नीच गोत्रकर्म का बन्ध करता है जिसके फलस्वरूप मनुष्य आयु पूर्ण होने पर सूकर, कुत्ता, चाण्डाल, सियार और बगुला हो जाता है अर्थात् जो उच्च पर्याय में था वही नीच से भी नीच पर्याय प्राप्त कर लेता है ।।१८९९॥ निन्दा दारिद्र्यमैश्चर्य, पूजामभ्युदयं स्तुतिम् । स्त्रैणं पौंस्नं चिरं जीवः, षण्ढत्वं प्रतिपद्यते ।।१९०० ॥ अर्थ - यह जीव कर्माधीन होने के कारण किसी एक अवस्था में सदा स्थिर नहीं रहता। कभी निन्दा Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका -५२३ का पात्र बनता है, कभी दरिद्री तो कभी ऐश्वर्यवान् होता है, कभी पूजा-आदर, वैभव एवं प्रशंसा प्राप्त करता है तथा चिरकाल कभी स्त्री, कभी पुरुष और कभी नपुंसक होता रहता है।।१९०० ।। निकाशि नि:शुण्य, सदोषं मन्यते जनः । सदोषमपि पुण्यादयं, निर्दोष पुरुषः पुनः ॥१९०१॥ अर्थ - इस लोक में पुण्यहीन मनुष्य निर्दोष होने पर भी सदोष सिद्ध कर दिये जाते हैं और पुण्यवान् मनुष्य सदोष होते हुए भी निर्दोष सिद्ध हो जाते हैं ।।१९०१ ।। निसर्गतः कोपि समेऽपि वल्लभो, विचेष्टतेऽन्योऽसुमतामवल्लभः। समानरूपे सति चन्द्रिकोदये, प्रियो हि पक्षो धवलः प्रियोऽपरः ।।१९०२॥ अर्थ - जैसे दोनों पक्षों में चन्द्र की चाँदनी का समान उदय होने पर भी लोग कृष्ण पक्ष से द्वेष और शुक्ल पक्ष से प्रेम करते हैं, वैसे ही स्वभाव से समान होते हुए भी कोई व्यक्ति तो जीवों को प्रिय लगता है और कोई अप्रिय लगता है।।१९०२।। विचिन्त्य मानं जगतो विचेष्टितं, विचित्ररूपं भयदायि दुर्गमम् । करोति वैराग्यमनन्यगोचरं, दुरीहितं पूर्वमिवोदयं गतम् ॥१९०३॥ अर्थ - इस प्रकार जगत् की विचित्र चेष्टाओं का और अत्यन्त दुख तथा भय देने वाले अहंकार का चिन्तन करने वाला बुद्धिमान् व्यक्ति वैराग्यभाव को प्राप्त हो जाता है। उनका वैराग्य जन-साधारण के अगोचर, अत्यन्त कठिन और ऐसा दृढ़ होता है मानों पूर्व से प्राप्त किया हो एवं अभ्यासयुक्त हो ॥१९०३ ।। लोक-स्वभावं चपलं दुरन्तं, दुःखानि दातुं सकलानि शक्तम् । निरीक्षमाणा न बुधा रमन्ते, भयङ्करं व्याघ्रमिवानिवार्यम् ॥१९०४।। इति लोकानुप्रेक्षा। अर्थ - जिसको रोकना दुर्निवार ही नहीं किन्तु अशक्य है ऐसे भयंकर व्याघ्र को देखकर जैसे उसमें प्रीति नहीं होती अपितु भय ही उत्पन्न होता है, वैसे ही स्वभाव से चंचल, दुरन्त और सब प्रकार के दुख देने में समर्थ ऐसे लोक को देखने वाले ज्ञानीजन उसमें अनुराग नहीं करते अपितु भयभीत होते हुए वैराग्य धारण कर लेते हैं ॥१९०४॥ इस प्रकार लोकभावना का वर्णन पूर्ण हुआ। अशुचि भावना अशुभाः सन्ति नि:शेषा:, पुंसां कामार्थ-विग्रहाः । शुभोऽत्र केवलं धर्मो, लोकद्वय-सुखप्रदः ।।१९०५ ।। अर्थ - दोनों लोकों में सुख देने वाला मात्र धर्म ही शुभ एवं पवित्र है। कामभोग, धन तथा सब मनुष्यों के शरीर अशुभ हैं ॥१९०५॥ Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ५२४ - धनकी अशुभता अर्थो मूलमनर्थानां निर्वाण-प्रतिबन्धकः । लोकद्वये महादोषं, दत्ते पुंसां दुरुत्तरम् ॥१९०६ ।। अर्थ धन सब अनर्थों की जड़ है, मोक्षमार्ग का प्रतिबन्धक है और यह धन पुरुषों को दोनों लोकों में महादोष देता है अर्थात् धन प्राप्त कर मनुष्य व्यसनों में फँस जाता है उससे वह इस लोक में निन्दा का पात्र होता है और परलोक में कष्ट प्राप्त करता है । १९०६ ॥ काम पुरुषार्थ की अशुभता निन्द्य-स्थान- भवा: कामा, भीमा लाघव- -हेतवः ! दुःखप्रदा द्वये लोके, स्वल्प- कालाः सुदुर्लभाः ।। १९०७ ॥ अर्थ - ये कामभोग निन्द्यस्थान से उत्पन्न होते हैं, भयंकर हैं, आत्मा को लघु-हीन करने में कारण हैं, दोनों लोकों में दुखदायी हैं, अल्पकालीन हैं और बड़ी कठिनाई से प्राप्त होते हैं ॥। १९०७ ॥ मांसलिप्ता सिराबद्धा कुथितास्थिदाचिता । सतां कायकुटी कुत्स्या कुथितैर्विविधैर्धृता ॥। १९०८ ॥ अर्थ - यह मानव शरीररूपी झोंपड़ी मांस रूपी मिट्टी से लीपी गई है, शिराओंरूपी छाल से बाँधी गई है, कुत्सित अस्थिरूप पत्तों से छाई हुई है और अनेक घिनावनी एवं अपवित्र वस्तुओं से भरी हुई है अतः सज्जनों द्वारा ग्लानि करने योग्य ही है । १९०८ ॥ निसर्ग-मलिनः कायो, धाव्यमानो जलादिभिः । अङ्गार इव नायाति, स्फुटं शुद्धिं कदाचन ।। १९०९४ अर्थ - जैसे कोयलों को जलादि से धोने पर भी वे श्वेत नहीं होते, वैसे ही स्वभाव से मलिन यह शरीर जलादि से धोने पर भी कभी शुद्धि को प्राप्त नहीं होता है || १९०९ || मेध्यान्यमेध्यानि करोत्यमेध्यं, सद्यः शरीरं सलिलानि नूनम् । अमेध्य - मिश्राणि पुनः शरीरं, न तानि मेध्यं विदधात्यमेध्यम् ॥१९९० ॥ अर्थ - अपवित्र शरीर पवित्रजलादि को शीघ्र ही अपवित्र कर देता है। जल स्वयं अपवित्र नहीं है किन्तु अपवित्र शरीरादि के स्पर्श या मिश्रित होने पर अपवित्र हो जाता है। पवित्र जल शरीर को पवित्र नहीं बना पाता किन्तु अपवित्र शरीर पवित्र जल को अवश्यमेव अपवित्र कर डालता है ॥ १९१० ॥ अमेध्य-निर्मितो देहः, शोध्यमानो जलादिभिः । अमेध्यैर्विविधैः पूर्णो, न कुम्भ इव शुद्ध्यति ॥ १९११ ।। अर्थ - जैसे विविध मल, मूत्र, थूक आदि से भरा हुआ घट बाहर जलादि पवित्र पदार्थों से धोये जाने पर भी शुद्ध नहीं होता, वैसे ही अपवित्र माँस, भज्जा एवं हड्डी आदि से निर्मित यह शरीर जलादि से धोये जाने पर भी शुद्ध नहीं होता । १९११ ॥ Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ५२५ पवित्र पदार्थ का निर्देश भवन्ति जल्लोषधयो मुनीन्द्रा, धर्मेण देवा: प्रणमन्ति सेन्द्राः। यतस्ततो नास्ति ततः प्रशस्तः, कल्याण-विश्राणन-कल्पवृक्षः ।।१९१२ ।। इति अशुच्यनुप्रेक्षा। अर्थ - जिस कारण से धर्म द्वारा अपवित्र शरीरधारी मनुष्य भी पूज्य हो जाता है, उस कारण से रत्नत्रय धर्म के अतिरिक्त अन्य कोई पदार्थ प्रशस्त या पवित्र नहीं है। धर्म सम्पूर्ण सुख-परम्परा को देने वाला कल्पवृक्ष है। सब देवों सहित इन्द्र भी धर्ममूर्ति मुनीन्द्रों की वन्दना तथा सेवा करता है। इस पवित्र रत्नत्रय धर्म द्वारा महामुनिराज जल्लौषधि आदि ऋद्धियों से सम्पन्न हो जाते हैं अर्थात् रत्नत्रय धर्म का पालन करने से अनेक मुनिराजों के शरीर का नैसर्गिक मल भी औषधिरूप परिणत हो जाता है। इससे सिद्ध होता है कि इस जगत् में सबसे अधिक पवित्र या प्रशस्त या शुद्ध या पावन या शुचि मात्र रत्नत्रय धर्म ही है ।।१९१२ ।। इस प्रकार अशुचि भावना पूर्ण हुई ॥७॥ आनव भावना संसार-परिभ्रमण का कारण दुःखोदके भवाम्भोधौ, कषायेन्द्रियवाचरैः। आस्रवः कारणं ज्ञेयं, भ्रमतो भव-भागिनः॥१९१३ ॥ अर्थ - यह संसाररूपी समुद्र दुखरूपी जल से परिपूर्ण एवं कषाय और इन्द्रिय रूपी जलचर जीवों से भरा हुआ है। इसमें परिभ्रमण का कारण आस्रव है, ऐसा जानना चाहिए ।।१९१३ ।। प्रश्न - संसार-परिभ्रमण का कारण तो कर्म है, यहाँ आसव को क्यों कहा जा रहा है ? उत्तर - मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और प्रमादादि आम्रव के कारण हैं, आस्रव कर्मबन्ध का कारण है और कर्मोदय का फल जीव के संसार-परिभ्रमण का कारण है अत: यहाँ आस्रव को ही बन्ध का कारण कह दिया गया है। कर्माप्रवति जीवस्य, संसारे विषयादिभिः । सलिलं विविधैः रन्धैः, पोतस्येव पयोनिधौ ।।१९१४॥ अर्थ - जैसे समुद्र में स्थित छिद्रयुक्त नाव या जहाज में जल आता है वैसे ही संसार रूपी समुद्र में स्थित जीवों के स्पर्शादि पंचेन्द्रियों के विषयों द्वारा कर्म आते हैं ॥१९१४ ।। कर्म-सम्बन्धता जाता, राग-द्वेषाक्त-चेतसः। स्नेहाभ्यक्त-शरीरस्य, रजो-राशिरिवानिशम् ॥१९१५॥ अर्थ - जैसे तेल की मालिश सहित शरीर पर सतत धूल या मिट्टी की तह जमती जाती है, वैसे ही राग-द्वेष में आसक्त चित्त वाले जीवों की आत्मा के प्रदेशों पर स्थित विनसोपचयरूप पुद्गल स्कन्ध कर्मरूप परिणत हो जाते हैं ॥१९१५ ।। 236 Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका- ५२६ अदृश्यै चक्षुषा दृश्यैः, स्थूलैः सूक्ष्मैश्च पुद्गलैः । विविधैर्निचितो लोकः, कुम्भो धूमैरिवाभितः ॥ १९१६ ॥ अर्थ- जैसे कोई घट धुएँ द्वारा चारों ओर से भर दिया जाता है, वैसे ही यह लोक सर्वत्र कर्मरूप परिणमन करने योग्य नेत्रों से अदृश्यमान, सूक्ष्म पुद्गल स्कन्धों से और दृश्यमान एवं अदृश्यमान बादर पुद्गल स्कन्धों से ठसाठस भरा हुआ है । १९१६ ।। मिथ्यात्वाव्रत- कोपादि - योगानत्रास्रवान्विदुः । मिथ्यात्वमर्हदुक्तानां पदार्थानामरोचनम् । १९१७ ॥ अर्थ - मिथ्यात्व, अव्रत, कषाय और योग ये आस्रव है अर्थात् जिन कारणों से पुद्गल स्कन्ध कर्मरूप परिणत होकर आते हैं उन मिथ्यात्व आदि को आस्रव कहते हैं। इनमें से अर्हन्त भगवान् द्वारा कहे गये अनन्त द्रव्यात्मक जीवादि पदार्थों में अर्थात् सात तत्त्व और छह द्रव्यादि में श्रद्धान नहीं होना मिथ्यात्व नामका आस्रव है ।।१९९७ ॥ हिंसादयो मत्ता दोषाः, पञ्चाप्यव्रत-संज्ञकाः । कोपादयः कषायाः स्यूः, राग-द्वेष - द्वयात्मकाः ॥ १९१८ ।। अर्थ - हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह इन पाँच पापों को असंयम कहते हैं। क्रोध, मान, माया और लोभ रूप कषाय भाव अनेक प्रकार के होते हैं, इनमें से माया और लोभ का राग में तथा क्रोध और मान का द्वेष में अन्तर्भाव हो जाता है, अतः कषाय को द्वयात्मक कहा है ।। १९१८ ।। प्रश्न- पाँच पापों के क्या लक्षण हैं ? उत्तर - कषाययुक्त परिणामों से प्राणियों के प्राणों का नाश करना हिंसा है। प्राणियों को पीड़ा देने वाला अप्रशस्त वचन बोलना असत्य पाप है। बिना दी हुई या बिना पूछे अन्य की वस्तु ग्रहण करना चोरी पाप है। चारित्र मोहनीय कर्मोदय की वशवर्तिता से रागाविष्ट होकर स्त्री-पुरुषों में परस्पर स्पर्शनादि की इच्छा उत्पन्न होना मैथुन पाप है और चेतन, अचेतन और मिश्र पदार्थों में और अपने राग-द्वेषादि रूप परिणामों में ममत्वबुद्धि होना परिग्रह पाप है । राग और द्वेष का माहात्म्य जानन्तं कुथिते काये, रागो रञ्जयते कथम् । बान्धवं कुरुते द्वेष्यं, द्वेषो हि क्षणतः कथम् ॥ १९१९ ॥ अर्थ - अहो आश्चर्य है कि राग के अयोग्य और अशुचि शरीर के स्वभाव को जानने वाले पुरुषों को भी यह रागभाव वीभत्स एवं घृणास्पद शरीर में कैसे रंजायमान कर देता है, तथा यह द्वेष्य भाव अपने भाई, पिता और पुत्र के प्रति भी क्षणमात्र में कैसे द्वेषभाव उत्पन्न करा देता है अर्थात् यह राग-द्वेष जिस शरीरादि से द्वेष करना चाहिए था उस पर तो राग कराता है और जिन बन्धु बान्धवों पर राग या प्रीति भाव होना चाहिए उनमें द्वेष करा देता है । १९१९ ॥ Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ५२७ कल्मषं कार्यते घोरं, सदृष्टिरपि यैर्जनः । रागद्वेष-विपक्षांस्तान्धिक् संज्ञा-गौरवात्मनः॥१९२० ।। अर्थ - सम्यग्दृष्टि मनुष्य भी जिनके दोष से घोर पाप कर बैठता है उन राग-द्वेष रूपी शत्रुओं को, चारों संज्ञाओं को, ऋद्धि आदि गारों को, इन्द्रियों को और मद आदिकों को धिक्कार है ॥१९२० ।। विषयेष्वभिलाषो यः, पुरुषस्य प्रवर्तते। न ततो जायते सौख्यं, पातकं बध्यते परम् ॥१९२१॥ अर्थ - पंचेन्द्रियों के स्पर्शनादि मनोहर विषयों में पुरुष की जो अभिलाषा उत्पन्न होती है वह सुखप्राप्ति के लिए नहीं होती, अपितु उस अभिलाषा के निमित्त से वह कर्मबन्ध ही करता है ।।१९२१ ॥ इन्द्रियार्थ-सुखे येन, मानुष्यं प्राप्य योज्यते। भस्मार्थ प्लोषते काष्ठं,महामौल्यमसौ स्फुटम् ॥१९२२॥ ___ अर्थ - जैसे कोई मूर्ख मनुष्य राख/भस्म के लिए महामूल्यवान् हरिचन्दन का काष्ठ अर्थात् लकड़ी जला देता है, वैसे ही मूढ मनुष्य इन्द्रिय-विषय भोगों में रत रहकर अर्थात् इन्द्रियसुख के अर्थ निश्चयतः महादुर्लभ मनुष्य पर्याय को उन विषयसुखों में लगाकर नष्ट कर देता है ।।१९२२॥ प्रश्न - मनुष्य पर्याय को मूल्यवान् और विषयसुखों को तुच्छ क्यों कहा जा रहा है? उत्तर - धर्म पुरुषार्थ एवं मोक्ष पुरुषार्थ द्वारा इस मनुष्य पर्याय से अतीन्द्रिय एवं अनन्त सुख प्राप्त हो सकता है अतः मनुष्य पर्याय को महामूल्यवान् कहा गया है। इन्द्रियविषय रसीले ज्ञात होते हैं तथा आनन्द भी उत्पन्न करते हैं किन्तु विष से संस्कारित किये गये भोजन के सदृश विषय-भोगों को भोगने के पश्चात् अत्यन्त भयंकर परिणाम प्राप्त होता है अर्थात् जिसका चंचल चित्त विषयसुख में आसक्त रहता है, वह विषयों की प्राप्ति के लिए नाना प्रकार के अनिष्ट कार्य और पापाचरण करता है, जिसके फलस्वरूप कुयोनियों में जन्म लेकर दुख ही दुख भोगता है अत: इन्हें तुच्छ कहा गया है। नृत्वे योऽक्ष-सुखं मूढो, धर्म मुक्त्वा निषेवते । लोष्ठं गृह्णात्यसौ मुक्त्वा , रत्नद्वीपेऽनधं मणिम् ॥१९२३ ।। अर्थ - जैसे कोई मूर्ख मनुष्य उत्कृष्ट रत्नों की खान स्वरूप रत्नद्वीप जाकर रत्नों को छोड़कर लोष्ठ या लकड़ी या मिट्टी के ढेलों का संचय करता है, वैसे ही विषयाभिलाषी मूढ़ मनुष्य, उत्तम नर पर्याय प्राप्त कर भी धर्म को छोड़ देता है और इन्द्रियविषयों के संचय एवं सेवन में संलग्न रहता है ।।१९२३ ॥ यो नृत्वे सेवते भोगं, हित्वा धर्ममकल्मषम्। असौ विमुच्य पीयूषं, विषं गृह्णाति नन्दने ॥१९२४॥ अर्थ - जैसे कोई मनुष्य नन्दन वन में जाकर भी अमृत को छोड़कर विष पीता है, वैसे ही मनुष्यपर्याय प्राप्त कर भी मूढ़ मानव निर्दोष धर्म को छोड़ भोगों का सेवन करता है ।।१९२४ ।। Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ५२८ योग शब्द का अर्थ योगः कर्मास्रवं दुष्टो, मनो-वाक्काय-लक्षणः। यथा भुक्तो दुराहारो, विदधाति व्रणाम्रवम्॥१९२५।। अर्थ - जैसे अपथ्य/खोटा आहार घाव में पीप पैदा करता है, वैसे ही मन, वचन और काय की पाप प्रवृत्ति या अशुभ चेष्टारूप योग कर्मयोग्य पुद्गल स्कन्धों को कर्मरूप परिणमाते हैं अर्थात् पापासव कराते हैं ।।१९२५॥ शुभाशुभ कर्मासव के कारण कार दुरुले लोगो, विशुद्धः पुण्य-कर्मणाम् । विपरीतः परं सद्यः सेवितः पापकर्मणाम् ।।१९२६॥ अर्थ - विशुद्ध अर्थात् शुभ चेष्टारूप योग सातावेदनीय आदि शुभ कर्मासवों को करता है और इससे विपरीत अर्थात् मन, वचन एवं काय की अशुभ-चेष्टारूप से सेवित योग तत्क्षण पापकर्मों का आस्रव करता है।॥१९२६॥ प्रश्न - शुभाशुभ आस्रव कितने प्रकार से हो सकता है ? उत्तर - कृत, कारित और अनुमोदना अर्थात् स्वयं करना, दूसरों से कराना एवं करते हुए की अनुमोदना करना। मन, वचन तथा काय, इन तीन प्रकार की शुभाशुभ चेष्टा रूप योग, शुभाशुभ कर्मानव में कारण होता है। प्रश्न - मन, वचन, काय की शुभ चेष्टाएँ कौन-कौन सी हैं ? उत्तर - अनुकम्पा, दया, दान और पूजा आदि के भाव होना मन की शुभ चेष्टा है। हित, मित, प्रिय एवं धर्म सापेक्ष वाणी बोलना वचन की शुभ चेष्टा है और वैयावृत्त्य करना, परोपकार पूजाभिषेक और तीर्थयात्रा आदि करना शरीर की शुभ चेष्टाएँ हैं। इन शुभ चेष्टाओं से सातावेदनीय, देवगति, देवायु एवं उच्चगोत्रादि पुण्य कर्मों का आस्रव होता है। प्रश्न - अनुकम्पा किसे कहते हैं, वह कितने प्रकार की है और किस-किस पर की जाती है ? उत्तर - अनुग्रह से दयाई चित्त वाले के दूसरे की पीड़ा को अपनी ही मानने का जो भाव होता है उसे अनुकम्पा कहते हैं। अथवा वैर भाव के त्यागपूर्वक सब जीवों पर अनुग्रह, मैत्रीभाव, या माध्यस्थभाव और शल्य रहित वृत्ति अनुकम्पा है। धर्मानुकम्पा, मिश्रानुकम्पा एवं सर्वानुकम्पा के भेद से यह तीन प्रकार की होती है। धर्मानुकम्पा - जिन्होंने नौ कोटि से असंयम का त्याग किया है, मन एवं इन्द्रियों का दमन किया है, उग्र कषाय तथा उसके कारणों का त्याग किया है, दिव्य भोगों में भी दोषों को देखकर दृढ़ विरागता को अपनाया है और नि:संगता को अपनाया है, तथा जो मान-अपमान, सुख-दुख, लाभ-अलाभ, तृण-स्वर्ण, Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका -५२२ संयोग-वियोग एवं शत्रु-मित्र में समता भाव रखते हैं, उत्तम क्षमादि दस धर्मों में लीन रहते हैं तथा संसाररूपी महासमुद्र में डूब जाने के भय से रात्रि में भी अल्प निद्रा लेते हैं ऐसे मुनिराज, आर्यिका, ऐलक, क्षुल्लक एवं क्षुल्लिका के प्रति जो अनुकम्पा उत्पन्न होती है उसे धर्मानुकम्पा कहते हैं। प्रश्न - इस अनुकम्पा का क्या फल है ? उत्तर - इस अनुकम्पा से प्रेरित होकर विवेकीजन उन मुनिराजों या पात्रों के योग्य आहार-पान, औषधि तथा वसतिका आदि संयम के साधन प्रदान करते हैं, अपनी शक्ति को न छिपाकर उनके उपसर्ग और दोषों को दूर करते हैं, “हमें आज्ञा दीजिए" इस प्रकार का निवेदन कर सेवा करते हैं, मार्ग से भ्रष्ट होने वालों को सन्मार्ग दिखाते हैं, संघ का संयोग प्राप्त होने पर 'अहो ! हम विशिष्ट पुण्यशाली हैं ऐसा विचार कर प्रसन्न होते हैं। सभाओं में उनके गुणानुवाद गाते हैं, उन्हें गुरु समान सम्मान देते हैं, उनके गुणों का स्मरण करते हुए बार-बार समागम प्राप्त करने की वांछा रखते हैं, उनके आगमन की प्रतीक्षा करते हैं और दूसरों के द्वारा उनके गुणों की प्रशंसा सुनते हैं। इस प्रकार अनुकम्पा में तत्पर मनुष्य सेवा आदि कार्य स्वयं करते हैं, अन्य से कराते हैं और करते हुए की अनुमोदना कर महा सातिशय पुण्यासव करते हैं। प्रश्न - मिश्रानुकम्पा के पात्र कौन हैं ? उत्तर - जो महान् पाप के मूल हिंसादि पापों से निवृत्त हैं, सन्तोष और वैराग्य गुण सम्पन्न हैं, विनीत हैं, दिग्विरति, देशविरति एवं अनर्थदण्डविरति को धारण किये हुए हैं, तीव्र दोष वाले भोग-उपभोग का त्याग कर शेष भोगोपभोग की सामग्री का परिमाण किये हुए हैं, पापों से भयभीत रहते हैं, जो विशिष्ट देश-काल में सर्व सावद्य का त्याग करते हैं अर्थात् त्रिकाल सामायिक करते हैं और पर्व के दिनों में सर्वारम्भ का त्याग कर उपवास करते हैं उन संयमासंयमियों के प्रति जो अनुकम्पा उत्पन्न होती है वह मिश्रानुकम्पा है। इस मिश्रानुकम्पा से भी जीव पुण्यास्रव करते हैं। अथवा, मिथ्यात्व से सदोषी अन्य धर्मावलम्बी कष्टदायक तपस्या करने वाले विनयी तपस्वियों के प्रति होने वाली अनुकम्पा भी मिश्रानुकम्पा है। प्रश्न - सर्वानुकम्पा का क्या लक्षण है ? उत्तर - जो स्वभावत: मार्दव गुण से सम्पन्न हैं ऐसे सम्यग्दृष्टि या मिथ्यादृष्टि आदि सभी प्राणियों के प्रति उत्पन्न होने वाली अनुकम्पा सर्वानुकम्पा कही जाती है। इसके अतिरिक्त जिनके अवयव कट गये हैं, जो बाँधे गये हैं, पीटे जा रहे हैं, खोये हुए हैं, रोके हुए हैं और भूखादि से अति व्याकुल हैं, ऐसे निरपराध या अपराधी मनुष्यों को देखकर तथा मांसादि के लिए पशुओं एवं पक्षियों का वधादि होते देखकर या पशुओं आदि का परस्पर का हिंसात्मक घात-प्रतिघात देखकर, रोग से पीड़ित प्राणी को देखकर, गुरु, पुत्र, पिता, माता या स्त्री आदि के सहसावियोग से दुखी जनों को चिल्लाते हुए देखकर, अपने अंगों को शोक से पीटते हुए, अर्जित धन के नष्ट हो जाने से दीन हुए तथा धैर्य, शिल्पादि विद्या और व्यवसाय से रहित गरीबों को देखकर उनके दुख को अपना ही दुख मानकर कम्पित हो उठना अनुकम्पा है। उपकार की अपेक्षा किये बिना ही ऐसे जीवों की शान्ति का उपाय करना आवश्यक कर्तव्य है। जैसे माता पुत्र के लिए सदैव शुभ होती है, वैसे ही अनुकम्पा सभी प्राणियों के लिए शुभप्रदा है। Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ५३० उपसंहार कुदर्शनावृत्त - - कषाय - योगेजवो भवे मज्जति कर्म पूर्णः । दुरापपारे विवरैरनेकैः, पोतः पयोधाविव वारि-पूर्णः । । १९२७ ॥ इत्यास्रवानुप्रेक्षा । अर्थ · जैसे अनेक छिद्रों द्वारा जिसमें जल भर चुका है ऐसी नौका दुरन्त समुद्र में डूब जाती है, वैसे ही मिथ्यादर्शन, अविरति, कषाय और योगों द्वारा आये हुए कर्मभार से युक्त जीव भवसागर में डूब जाता है । १९२७ ॥ इस प्रकार आसानुप्रेक्षा पूर्ण हुई ॥८ ॥ संबर- अनुप्रेक्षा संवर करने की विधि मिथ्यात्वमात्रय द्वारं पिधत्ते तत्त्व- रोचनम् । संयमासंयमं सद्यो, गृहीत्वारभिवाररे ।। १९२८ ।। अर्थ जैसे द्वार को बन्द कर अर्गला, साँकल या कुन्दादि लगाकर बाहर से आने वाले चोरादि को रोक दिया जाता है वैसे ही सम्यग्दर्शन, मिथ्यात्व आस्रव द्वार को और देशसंयम एवं सकलसंयमरूप व्रतों को ग्रहण कर विवेकी जीव अविरति नामक आस्रव द्वार को शीघ्र ही बन्द कर देते हैं || १९२८ ॥ कषाय- तस्कराः रौद्राः, दया दम- शमायुधैः । शक्यन्ते रक्षितुं दिव्यैरायुधैरिव - तस्कराः ।।१९२९ ।। अर्थ - जैसे दिव्य शस्त्रों द्वारा चोर एवं डाकुओं को भगाकर धन-जन की रक्षा करना शक्य है वैसे ही दया, दम और शम इन तीन शस्त्रों द्वारा ही कषायरूपी क्रूर डाकुओं को रोकना शक्य है ।। १९२९ ॥ प्रश्न - दया, दम और शम किसे कहते हैं, यहाँ मात्र कषायों को जीतने का उपदेश क्यों दिया गया है तथा कौनसी कषाय किस भाव से जीती जा सकती ? उत्तर • सब प्राणियों पर आर्द्र परिणाम होना दया है। कषायों के दोषों का विचार कर चित्त का निग्रह - करना दम है और कषाय वेदनीय कर्म को उदय अवस्था को प्राप्त न होने देना शम अर्थात् उपशम है। सब कर्मबन्ध की स्थिति कषाय से ही बँधती है अतः कर्मबन्ध का मूल कारण कषाय है। जिसने कषाय को जीत लिया उसने मानों सबको जीत लिया, इसीलिए कषायों को जीतने का उपदेश दिया गया है। क्रोध के दोषों को जानने से, क्रोधादि में निमित्तभूत पदार्थों से अपना बचाव करने से और क्षमादि परिणामों से क्रोध को, मार्दवभाव धारण करके मान को, आर्जवभावों की उत्कर्षता से माया को और सन्तोष भावों द्वारा लोभ कषाय को जीतना चाहिए। Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकाण्डका - ५३१ इन्द्रियाचा नियम्यन्ते, वैराग्य-खलिनैर्देवैः। उत्पथ-प्रस्थिताः दुष्टास्तुरगाः खलिनैरिव ॥१९३० ।। अर्थ - जैसे कुमार्ग में जाने वाले दुष्ट घोड़ों को कठोर लगाम द्वारा वश में किया जाता है, वैसे ही कुगति में ले जाने वाले दुष्ट इन्द्रियरूपी घोड़ों पर वैराग्यरूपी दृढ़ लगाम द्वारा नियन्त्रण किया जाता है ।।१९३० ।। नाक्षस निगृह्यन्ते, भीषणाश्चल-मानसैः। दंदशूका इव ग्राह्या, विद्या-संवाद-वर्जितैः॥१९३१ ॥ अर्थ - जैसे विषापहार मन्त्र, विद्या एवं औषधि से रहित मनुष्य विषैले सर्प को वश में नहीं कर सकता, वैसे ही जिसका मन चंचल है वह मनुष्य इन्द्रियरूपी भयंकर सर्प को निगृहीत नहीं कर सकता ।।१९३१॥ अप्रमाद-कपाटेन, जीवे योग-निरोधनम् । क्रियते फलकेनेव, पोते जल-निरोधनम् ॥१९३२ ।। अर्थ - जैसे फलक या कपाट या लकड़ी के पटिये द्वारा नाव में आने वाला जल रोका जाता है, वैसे ही अप्रमाद रूपी कपाट या पटिये के द्वारा अशुभ परिणाम रूपी आसवों का निरोध किया जाता है। इसी निरोध को मंवर कहते हैं !!१९३२ !! प्रश्न - प्रमाद कितने और कौन-कौन से हैं तथा इनके प्रतिपक्षी अप्रमाद रूप कपाट कौन-कौन से उत्तर - प्रमाद पन्द्रह प्रकार के हैं। यथा-भक्तकथा, स्त्रीकथा, राजकथा और राष्ट्रकथा रूप चार विकथायें, क्रोधादि चार कषायें, पाँच इन्द्रियाँ, निद्रा और स्नेह। सत्य वचन, अनुभय वचन, स्वाध्याय एवं ध्यान की एकाग्रता ये विकथा प्रमाद के प्रतिपक्षी हैं अर्थात् इनमें संलग्न रहने से विकथाओं को अवसर प्राप्त नहीं होता। क्षमा, मार्दव, आर्जव एवं सन्तोष भाव क्रमश: क्रोधादि चारों कषायों के प्रतिपक्षी हैं। राग-द्वेष के कारणभूत इन्द्रियों के विषय है, अतः इन्द्रियविषयों से रहित क्षेत्र में रहना, ज्ञान के बल से मन को एकाग्र रखना, इन्द्रिय-विषयों के निमित्त राग-द्वेष उत्पन्न होते हैं और रागद्वेष के कारण अन्य दोष उत्पन्न होते हैं, उन दोषों का स्मरण करना तथा विषयों की सहज उपलब्धि में भी आदर भाव न होना, ये सब इन्द्रिय नामक प्रमाद के विरोधी हैं। जैसे निर्भय योद्धा रणांगण में शत्रुओं को जीत लेता है वैसे ही सावधानता से वर्तन करने वाला विरक्त साधु इन्द्रियों को जीत लेता है। अपने खोटे आचरणों से उत्पन्न दोषों का स्मरण कर शोक करना, निद्रा के दोषों का चिन्तन, रत्नत्रय के प्रति वृद्धिंगत अनुराग, संसार से भय और अनशन, अवमौदर्य तथा रसपरित्याग रूप तप ये सब अप्रमाद निद्रा नामक प्रमाद के विरोधी हैं। ये सब बन्धु-बान्धव अस्थिर हैं, इनके निमित्त से अनेक प्रकार के आरम्भ-परिग्रह की आकुलता होती है जिससे नरकादि कुगतियों के भयंकर दुख भोगने पड़ते हैं तथा ये बन्धुगण धर्म में विघ्न उपस्थित करने वाले Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका ५३२ - हैं, इत्यादि । इस प्रकार का चिन्तनरूप अप्रमाद स्नेह प्रमाद का प्रतिपक्षी है। अर्थात् ऐसे चिन्तन से स्नेह प्रमाद का नाश हो जाता है। इस प्रकार दृढ़ वैराग्यवान् साधुजन अप्रमादरूपी ढाल हाथ में लेकर प्रमाद रूपी शत्रुओं से लड़ते हैं। इस ढाल के कारण प्रमादजन्य आसव रुक जाता है और संवर हो जाता है। कर्मभिः शक्यते भेत्तुं न चारित्रं कदाचन । सम्यग्गुमि परिक्षिप्तं, विपक्षैरिव पत्तनम् ।।१९३३ ।। अर्थ - जैसे प्रबल भी शत्रु की सेना परिखा आदि से सुरक्षित नगर को नष्ट नहीं कर पाती, वैसे ही चारित्र मोहनीय कर्मरूपी सबल भी शत्रु सेना द्वारा सम्यग्गुप्तिरूपी परिखा से सुरक्षित चारित्ररूपी नगर कदाचित् भी नष्ट नहीं किया जा सकता है ।। १९३३ ॥ प्रश्न- गुप्तियाँ कौन-कौन सी हैं और वे आत्मा का क्या उपकार करती हैं ? उत्तर - मनगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति के भेद से गुप्तियाँ तीन प्रकार की हैं। ये तीनों सबल गुप्तियाँ क्षणमात्र में आस्रवों को निरस्त कर आत्मा को संवर से संयुक्त कर देती हैं, क्योंकि ये तीनों गुप्तियाँ परम संवर का सर्वोत्कृष्ट हेतु हैं। गुण-बन्धनमारुह्य, संयतः समिति - प्लवम् । हिंसादि - मकराग्रस्तो, जन्माम्भोधिं विलङ्घते । १९३४ ॥ अर्थ - प्रमादरहित साधु सम्यक्त्वादि गुणरूप बन्धन से युक्त दृढ़ समिति रूप नाव पर आरूढ़ होकर, हिंसादि पाप रूपी मगरमच्छों से अछूते रहते हुए ही भयावह संसार समुद्र को पार कर जाते हैं ।। १९३४ ॥ द्वारपाल इव द्वारे, यस्यास्ति हृदये स्मृतिः । दूषयन्ति न तं दोषा, गुप्तं पुरमिवारय: ।। १९३५ ॥ अर्थ - जैसे संबल शत्रु भी सुरक्षित नगर को नष्ट नहीं कर सकते, वैसे ही द्वार पर खड़े द्वारपाल के सदृश जिसके हृदय में वस्तुतत्त्व की स्मृति सजग है उस साधु के हृदय को सर्व दोष मिल कर भी दूषित नहीं कर सकते ।। १९३५ ॥ न यस्यास्ति स्मृतिश्चित्ते, स दोषैर्ग्रस्यते स्फुटम् । असहायोऽखिलैः क्षिप्रं विचक्षुरिव वैरिभिः ।। १९३६ ।। अर्थ - जैसे शत्रुओं के मध्य खड़ा असहाय एवं अन्धा मनुष्य शत्रुओं के द्वारा शीघ्र ही पकड़ लिया जाता है, वैसे ही जिस साधु के हृदय में समीचीन वस्तुतत्त्व की स्मृति नहीं रहती, अथवा जो साधु तत्त्व-चिन्तन में स्थिर नहीं रह पाता वह शीघ्र ही तथा नियमतः दोषों द्वारा ग्रसित कर लिया जाता है । १९३६ ॥ ज्ञान दर्शन - चरित्र - सम्पदं, पूर्णतां नयति स व्रती स्फुटम् । यो विमुञ्चति परीषहारिभिर्बाधितोऽपि न कदाचन स्मृतिम् ।।१९३७ ।। इति संवरानुप्रेक्षा । Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ५३३ अर्थ - जो मुनिजन परीषहरूपी शत्रुसमूह से पीड़ित होने पर भी कभी तत्त्व की स्मृति को अर्थात् तत्त्वचिन्तन को नहीं छोड़ता वह निश्चयतः सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र रूपी सम्पदा को अर्थात् चार आराधनाओं को पूर्णरूपेण प्राप्त कर कर्मों का संवर कर देता है ।।१९३७ ।। इस प्रकार संवर अनुप्रेक्षा का वर्णन पूर्ण हुआ॥९॥ निर्जरा-अनुप्रेक्षा निरालिर तप आवश्यक है यो मुनिर्यदि शुद्धात्मा, सर्वथा कर्म-संवरम् । करोति निर्जरा-कांक्षी, सिद्धये विविधं तपः॥१९३८॥ अर्थ - जो शुद्धात्मा मुनि सर्वथा कर्मसंवर करने में उद्यमी होता है वह निर्जरा का आकांक्षी होता हुआ मोक्षप्राप्ति के लिए विविध प्रकार के तपश्चरण करता है, क्योंकि तप निर्जरा का कारण है।।१९३८ ।। न कर्म-निर्जरा जन्तोर्जायते तपसा विना। सञ्चितं क्षीयते धान्यमुपयोगं विना कुतः ।।१९३९॥ अर्थ - जैसे संचित किया हुआ धान्य उपयोग में लाये बिना अर्थात् भोजनादि के काम में लिये बिना घटता नहीं है, अर्थात् समाप्त नहीं होता, वैसे ही तप के बिना संवर मात्र से कर्मों का क्षय नहीं होता अतः निर्जरा के लिए तप करना आवश्यक है।।१९३९ ।। पूर्वस्य कर्मणः पुंसो, निर्जरा द्विविधा मता। आद्या विपाकजा तन्त्र, द्वितीया त्वविपाकजा ।।१९४०॥ अर्थ - जीव के पूर्व संचित कर्मों की निर्जरा दो प्रकार की होती है, एक विपाक निर्जरा और दूसरी अविपाक निर्जरा ॥१९४०॥ दोनों निर्जराओं के लक्षण नानाविधानि कर्माणि, गृहीतानि पुराभवे । फलानीव विपच्यन्ते, कालेनोपक्रमेण च ।।१९४१ ॥ अर्थ - आम्रादि फल जैसे समय पाकर वृक्ष की डाल पर ही पक जाते हैं और कोई असमय में प्रयोग द्वारा पाल में रखकर शीघ्र पका लिये जाते हैं, वैसे ही पूर्वबद्ध कर्म काल-क्रमानुसार एवं अक्रम से अर्थात् दोनों विधियों से निर्जीर्ण होते हैं ।।१९४१ ।। कालेन निर्जरा नूनमुदीर्णस्यैव कर्मणः। तपसा क्रियमाणेन, कर्म-निर्जीर्यतेऽखिलम् ।।१९४२ ।। अर्थ - कर्मों की जो निर्जरा समय पाकर होती है वह मात्र उदयावली में आये हुए कर्म-निषेकों की ही होती है किन्तु तपश्चरण द्वारा अखिल कर्म निर्जीर्ण अर्थात् नष्ट हो जाते हैं ।।१९४२॥ Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका- ५३४ - प्रश्न उत्तर - पूर्वबद्ध पुद्गल स्कन्धों के अवयवों का जीवप्रदेशों से अलग होना निर्जरा है । अथवा प्राचीन कर्मों का एकदेशरूप से झड़ना या क्षय होना या नष्ट होना निर्जरा है । निर्जरा के दो भेद हैं-द्रव्य निर्जरा एवं भावनिर्जरा । भावनिर्जरा के भी दो भेद हैं- सविपाक निर्जरा एवं अविपाक निर्जरा । इस श्लोक का तात्पर्य अर्थ क्या है? सविपाक निर्जरा - कर्मबन्ध के पश्चात् आबाधाकाल व्यतीत हो जाने के तुरन्त बाद ही कर्मों का प्रवाहक्रम से एक - एक निषेक रूप उदय में आकर तथा फल देकर आत्मा से पृथक् हो जाना सविपाक निर्जरा हैं। यह निर्जरा सभी संसारी जीवों के होती है। अर्थात् मिथ्यादृष्टि हों या सम्यग्दृष्टि हों, तपश्चरण में प्रवृत्त हों अथवा भोगों में संलग्न हों, सभी के कर्म उदयपंक्ति में प्रवेश कर तथा अपना फल देकर नष्ट हो जाते हैं। यह सविपाक निर्जरा अल्प होती है, क्योंकि सब कर्मों की स्थिति भिन्न-भिन्न रहती है। द्रव्य-क्षेत्र, काल एवं भावरूप सहकारी कारण सबको अतिशीघ्र प्राप्त नहीं हो पाते अतः सब कर्म एक साथ उदय में आकर फल देकर नष्ट नहीं होते हैं। जो उदय में आता है वही फल देकर नष्ट होता है, अन्य नहीं । अविपाक निर्जरा- जो कर्म अभी उदय के योग्य नहीं हैं उनको तपस्या द्वारा हठात् उदीर्ण करके अर्थात् उदयावली में लाकर असमय में निर्जीर्ण कर देना अविपाक निर्जरा है। सजातीय अन्य प्रकृति रूप कर्मों में संक्रमण करा कर नष्ट कर देना भी अविपाक निर्जरा है, क्योंकि अनेक कर्मप्रकृतियाँ सजातीय कर्मों में संक्रमित होकर परमुख से नष्ट हो जाती हैं। जैसे क्षपक श्रेणी में अप्रत्याख्यान और प्रत्याख्यान कषायें संज्वलन कषाय में संक्रमित होकर नष्ट कर दी जाती हैं। इस अविपाक निर्जरा का हेतु बहिरंग और अन्तरंग तप है। इन तपों में भी धर्मध्यान और शुक्ल ध्यान रूप तप ही निर्जरा का परमोत्कृष्ट कारण है। यह निर्जरा मोक्षमार्ग में परम सहायक होती है। इस प्रकार दोनों प्रकार की निर्जरा का स्वरूप दर्शाना ही इस श्लोक का तात्पर्य अर्थ है। निर्जरा में तपश्चरण का माहात्म्य अनिर्दिष्ट फलं कर्म, तपसा दह्यते परम् । - सस्यं हुताशनेनेष, बहुभेदमुपार्जितम् ।।१९४३ ।। अर्थ - जैसे गेहूँ, चावल, मूँग, मोठ आदि बहुत भेद वाला एकत्र किया हुआ धान्य का समूह अनि द्वारा भस्मसात् हो जाता है, वैसे ही जिन कर्मों ने अभी तक जीव को फल नहीं दिया वे कर्म तपरूपी अग्नि से भस्मसात् हो जाते हैं अर्थात् तपश्चरण द्वारा फल दिये बिना ही कर्मों की निर्जरा हो जाती है ।। १९४३ ॥ तपसा दीयमानेन, नाश्यते कर्म - सञ्चयः । आशुशुक्षणिना क्षिप्रं दीप्तेनेव तृणोत्करः ।। १९४४ ॥ अर्थ - जैसे जाज्वल्यमान अनि द्वारा तृणों का समूह अर्थात् घास का ढेर शीघ्र ही जल जाता है, वैसे ही मुनिजन द्वारा ग्रहण किया हुआ तप कर्मसमूह को क्षणमात्र में नष्ट कर देता है || १९४४ ॥ स्वयं पलायते कर्म, तपसा विरसी - कृतम् । trisaतिष्ठते कुत्र, नीरले स्फटिकेऽश्मनि ।। १९४५ ।। Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ५३५ अर्थ - तपश्चरण द्वारा शक्तिहीन किया हुआ कर्म स्वयं पलायमान हो जाता है सो यथार्थ ही है, क्या स्नेह अर्थात् चिकनाई से रहित स्फटिक पाषाण पर कहीं धूल ठहर सकती है ? अपितु नहीं ठहर सकती ; उसी प्रकार समीचीन तप करने पर कर्म नहीं 3डर पाता, रिजर्ग हो जाता है .....li तपसा ध्मायमानोऽङ्गी, क्षिप्रं शुद्ध्यति कर्मभिः। पाषाणः पावकेनेव, कानकः सकलैर्मलैः॥१९४६ ।। अर्थ - कनक पाषाण जैसे अग्नि द्वारा तपाये जाने पर समस्त मलों का त्याग कर शुद्ध स्वर्ण हो जाता है, संसारी जीव वैसे ही तपरूपी अग्नि द्वारा तपाये जाने पर कर्ममल को त्याग कर शीघ्र ही शुद्ध हो जाता है।।१९४६॥ मोक्ष: संवर-हीनेन, तपसा न जिनागमे । रविणा शोच्यते नीरं, प्रवेशे सति किं सरः ।।१९४७ ।। अर्थ - जिनागम में संवर बिना केवल तप से ही सब कर्मों के विनाशरूप मोक्ष नहीं कहा, सो ठीक ही है। देखो ! जिस सरोवर में सौर द्वारा नवीन जल प्रविष्ट हो रहा है, वह सरोवर क्या सूर्य द्वारा सुखाया जा सकता है ? कदापि नहीं ॥१९४७॥ दर्शन-द्विपमधिष्ठितो बुधो, लब्ध-बोध-सचिवस्तपः शरैः । कर्म-शत्रुमपहत्य संवृतः, सिद्धि-सम्पदमुपैति शाश्वतीम् ॥१९४८ ॥ इति निर्जरा। अर्थ - (जिसने संवर रूपी कवच धारण किया है), जो सभ्यक्त्व रूपी हाथी पर सवार है, सम्यग्ज्ञान या श्रुतज्ञान रूपी मन्त्री जिसके साथ है ऐसा संयमधारी मुनिरूपी राजा तपोमय बाणों के द्वारा कर्मरूपी शत्रुओं की समस्त सेना को पराजित कर शाश्वत और अनुपम मोक्षरूपी लक्ष्मी को प्राप्त कर लेता है ।।१९४८ ।। इस प्रकार निर्जरा की परम उपादेयता, निर्जरा के भेद-विभेद एवं निर्जरा के हेतु आदि का चिन्तन करना निर्जरानुप्रेक्षा है। इस प्रकार निर्जरा अनुप्रेक्षा का कथन पूर्ण हुआ॥१०॥ धर्म-अनुप्रेक्षा धर्म का गुणानुवाद मोक्षावसान-कल्याण-भाजनेन शरीरिणा। आहतो भावना-धर्मों, भावतः प्रतिपद्यते ।।१९४९॥ अर्थ - मोक्षप्राप्ति पर्यन्त जो-जो कल्याण-परम्परा प्राप्त होती हैं, उन सबका भाजन अर्थात् स्वामी जीव है और वे कल्याण रूप सर्व परम्पराएँ जिनेन्द्रोपदिष्ट धर्म के सहयोग से ही प्राप्त होती हैं अतः प्रत्येक प्राणी को भावपूर्वक रत्नत्रय धर्म धारण करना चाहिए ।।१९४९ ।। Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका- ५३६ यशस्वी सुभगः पूज्यो, विश्वास्यो धर्मतः प्रियः । सुसाध्यः सोऽन्य कार्येभ्यो, मनो निर्वृति-कारकः ।। १९५० ॥ अर्थ - मनुष्य को धर्म के माहात्म्य से ही यश प्राप्त होता है, धर्मात्मा मनुष्य सबको प्रिय लगता है, पूज्य होता है, सुन्दर होता है और सबका विश्वासपात्र होता है। यह धर्म मनोनिर्वृत्ति का कारण है, अर्थात् मन को आह्लादित करता है और अन्य जो अर्थ एवं कामादि पुरुषार्थ हैं उनसे यह धर्म-पुरुषार्थ सुसाध्य है, अर्थात्, सरल है । १९५० ॥ धर्मः सवाणि सौख्याने, प्रदाय भुवनेऽङ्गिनम् । निधत्ते शाश्वते स्थाने, निर्बाध सुख - सङ्कुले ॥१९५९ ॥ अर्थ - इस संसार में जीव को धर्म ही सभी सुखों का देने वाला है। यह धर्म, संसार के सभी सुख देकर अन्त में बाधा रहित सुखों से परिपूर्ण शाश्वत स्थान मोक्षसुख भी देता है । १९५१ ॥ धन्या ये नरा धर्म, जैनं सर्व सुखाकरम् । - निरस्त - निखिल - ग्रन्थाः, प्रपन्नाः शुद्ध-मानसाः ।।१९५२ ।। अर्थ - सम्पूर्ण बाह्याभ्यन्तर परिग्रहों के त्यागी और शुद्ध मन वाले वे महापुरुष ही धन्य हैं जिन्होंने समस्त सुखों के पुंज स्वरूप जैनधर्म को प्राप्त किया है ।। १९५२ ।। ये च वीर्येन्द्रियाश्वेभ्यो, नीता विषय-कानने । धर्ममार्गं प्रपद्यन्ते, ते धन्या नर-पुङ्गवाः ।। १९५३ ।। अर्थ - जो विषय रूपी वन में इन्द्रियरूपी घोड़ों के द्वारा बलपूर्वक ले जाये जाकर कुमार्ग पर चलते हुए भी जिनेन्द्रोपदिष्ट मोक्षमार्ग रूपी धर्ममार्ग पर चलने लगते हैं वे नर-धन्य हैं ॥ १९५३ ॥ प्रश्न- इसमें किसे धन्य कहा गया है ? उत्तर - जैसे किसी दुष्ट घोड़े द्वारा भयंकर अटवी में पटक दिये जाने पर भी जो सुरक्षित, नगर के मार्ग का अन्वेषण कर उस पर चल पड़ते हैं वे पुरुष श्रेष्ठ पुरुषार्थी माने जाते हैं। वैसे ही इस उत्तम मनुष्य पर्याय को प्राप्त करके भी जो इन्द्रिय विषय रूपी घोड़े से उतर कर अर्थात् मनलुभावन विषयों के मध्य फँसकर भी जो महान् आत्माएँ उन्हें छोड़ कर जिनदीक्षा के माध्यम से रत्नत्रय धर्म की आराधना में संलग्न हो जाते हैं वे पुरुष श्रेष्ठ और धन्य कहे गये हैं, क्योंकि वे विषयों के मधुर स्वाद का आस्वादन लेकर भी उनके त्याग में समर्थ हुए हैं। अहो ! द्वेषेण रागेण, लोके क्रीडति सर्वदा । वीतरागे निरास्वादे, बोधिधर्मेऽति-दुर्लभा । १९५४ ॥ अर्थ - अहो ! इस संसार में प्रायः सभी प्राणी सर्वदा राग और द्वेष में रत होते हुए उन्हीं में क्रीड़ा कर रहे हैं, ऐसी स्थिति में निःस्वाद वीतराग धर्म में प्रीति होना अति दुर्लभ है ।। १९५४ ।। तदीयं सफलं जन्म, तदीयं वृत्तमुज्वलम् । जन्म - मृत्यु - जराकारि-कर्मास्रव-निरोधकम् ।। १९५५ ।। Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डेिका-५३७ अर्थ - जन्म, मरण और जरा के कारणभूत तथा दुख देने में समर्थ ऐसे कर्मद्वार को अर्थात् आम्रवों को रोकने वाला चारित्र जिसका उज्ज्वल एवं निर्दोष है, इस संसार में उसी का मनुष्य-जन्म सफल है ।।१९५५ ।। यथा यथा विवर्धन्ते, निर्वेद-प्रशमादयः। प्रयात्यासन्नतां पुंसः, सिद्धि-लक्ष्मीस्तथा तथा॥१९५६ ।। ___ अर्थ - मनुष्य में जैसे-जैसे निर्वेद अर्थात् वैराग्य, उपशम, दया एवं चित्त की निग्रहता आदि वृद्धिंगत होते जाते हैं, वैसे-वैसे सिद्धिरूपी लक्ष्मी निकट आती जाती है ।।१९५६॥ द्वादशात्मक-तपोरयन्त्रितं, तत्त्वबोध-रुचि-वृत्त-नेमिकम् । धर्मचक्रमनयद्यमाहतं, विष्टपे विजयतामनश्वरम् ॥१९५७ ।। इति धर्मानुप्रेक्षा। अर्थ - भगवान् जिनेन्द्र का धर्मचक्र जगत् में जयवन्त हो, क्योंकि यह धर्मचक्र तत्त्वरुचि अर्थात् सम्यग्दर्शन रूपी तुंबा अर्थात् नाभि से सुशोभित है, तत्त्वज्ञान अर्थात् सम्यग्ज्ञान रूपी दृढ़ पहियों से युक्त है, वृत्त अर्थात् उज्ज्वल चारित्ररूपी नेमि अर्थात् हाल इसके ऊपर चढ़ी हुई है और बारह प्रकार के तप अथवा बारह अंग रूपी आरों से नियन्त्रित है॥१९५७ ।। इस प्रकार भगवान् जिनेन्द्र देव द्वारा प्रतिपादित रत्नत्रय धर्म जीवों को परम कल्याणकारी है, अनुपम है, महामंगल स्वरूप है, परमशान्तिदायक है, आत्मस्वरूपात्मक है और कल्पवृक्ष के सदृश महान फलदायक है। ऐसा चिन्तन करना धर्म-अनुप्रेक्षा है। इस प्रकार धर्मानुप्रेक्षा का वर्णन पूर्ण हुआ ॥११॥ बोधिदुर्लभ अनुप्रेक्षा बोधि आदि की क्रमशः दुर्लभता धर्मे भवति सम्यक्त्व-ज्ञान-वृत्त-तपोमये । दुर्लभा भ्रमतो बोधिः, संसारे कर्मतोऽङ्गिनः॥१९५८॥ अर्थ - कर्म के वशवर्ती हो संसार परिभ्रमण करने वाले जीव के सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र एवं सम्यक् तप रूप धर्म में बोधि अर्थात् रत्नत्रय की प्राप्ति अति दुर्लभ है ।।१९५८ ।। मनुष्य पर्याय की दुर्लभता संसारे देहिनोऽनन्ते, मानुष्यमतिदुर्लभम् । समिला-युग-साङ्गत्वं, पयोधाविव दुर्गमे ॥१९५९॥ अर्थ - जैसे अपार जलराशि से भरे समुद्र के पूर्वभाग में समिला अर्थात् दो लकड़ी और अपरभाग में युग अर्थात् जुवा डाल देने पर बहते-बहते दोनों का मिल जाना और उन लकड़ियों का जुवा के छिद्र में स्वयमेव प्रवेश कर जाना अतिदुर्लभ है, वैसे ही इस अनन्त अपार संसार में अर्थात् चौरासी लाख योनि एवं एक सौ साढ़े निन्यानवे लाख करोड़ कुलों में मनुष्य पर्याय का प्राप्त होना अतिदुर्लभ है।।१९५९ ।। Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ५३८ मनुष्य पर्थाय की दुर्लभता का कारण प्राचुर्यं गर्हय-भावानां, महत्त्वं जगतोऽङ्गिनाम् । विधत्ते योनि-बाहुल्यं, मानुष्यं जन्म-दुर्लभम् ।।१९६०॥ अर्थ - संसार में जीवों के अशुभ भावों की अत्यधिक प्रचुरता है, इन अशुभ भावों से कुयोनियों की प्राप्ति होती है अत: इन कुयोनियों के मध्य मनुष्य पर्याय की प्राप्ति अतिदुर्लभ है ।।१९६० ।। प्रश्न - मनुष्य-पर्याय की दुर्लभता किसकी अपेक्षा कही गई है ? उत्तर - क्षेत्र की अपेक्षा - इस लोक का प्रमाण तीन सौ तैंतालीस घन राजू है। इस प्रमाण वाले सर्वलोक में सूक्ष्म एकेन्द्रिय आदि तियेच जीव तिलमें तेल सदृश सर्वत्र भरे हैं। लोक के मध्य में एक राजू लम्बी, एक राजू चौड़ी और कुछ कम तेरह राजू ऊँची सनाली है। उसमें विकलेन्द्रियादि जीवों की बहुलता होती है। इसी में नारकियों का क्षेत्र छह राजू और देवों का क्षेत्र सात राजू है किन्तु मनुष्यों का क्षेत्र अढ़ाई द्वीप अर्थात् मात्र पैंतालीस लाख योजन प्रमाण है। संख्या की अपेक्षा - तिर्यंचगति में एकेन्द्रिय जीव अनन्तानन्त हैं। विकलेन्द्रिय, असंज्ञी एवं संज्ञी जीव असंख्यातासख्यात हैं। नारकी असंख्यात हैं, देव भी असंख्यात हैं किन्तु मनुष्य मात्र संख्यात हैं, अत: मनुष्यपर्याय की प्राप्ति अतिदुर्लभ है। अन्य बस्तुओं की भी दुर्लभता देशो जाति: कुल रूपमायुर्नीरोगता मतिः। श्रवणं ग्रहणं श्रद्धा, नृत्वे सत्यपि दुर्लभम् ।।१९६१॥ अर्ध - दुर्लभ मनुष्य पर्याय प्राप्त होने पर भी जिनधर्मयुक्त देश, जाति, कुल, रूप, आयु, नीरोगता, बुद्धि, धर्मश्रवण, ग्रहण एवं श्रद्धा ये उत्तरोत्तर अतिदुर्लभ हैं ॥१९६१ ॥ प्रश्न - देश, कुल एवं जाति आदि की उत्तरोत्तर दुर्लभता क्यों है? उत्तर - देश की दुर्लभता - पुण्योदय से मनुष्य पर्याय प्राप्त हो जाने पर भी जिनोपदिष्ट जिनधर्म में दक्ष मनुष्यों से भरपूर देश प्राप्त होना अतिदुर्लभ है, क्योंकि पाँचम्लेच्छखण्ड क्रिया धर्म से रहित हैं। अढ़ाई द्वीप में भी छियानवे अन्तर्वीप और शक, यवन, किरात, बर्बर, पारसोक एवं सिंहलादि अनेक देश धर्मज्ञ मनुष्यों से रहित हैं। जाति और कुल की दुर्लभता - नीच कुल और नीच जाति की सर्वत्र बहुलता है, क्योंकि अज्ञ प्राणी पर निन्दा, आत्मप्रशंसा एवं गुण और गुणीजनों की निन्दा करके नीच गोत्र का बन्ध किया करते हैं। गुणों में और गुणीजनों में अनुराग तथा अपने कुल-जाति की निरभिमानता कम देखी जाती है अत: उत्तम कुल-जाति की प्राप्ति दुर्लभ है। ___रूप की दुर्लभता - सुन्दर रूप मिल्ना भी दुर्लभ है। कारण कि चारित्र-मोहनीय कर्मोदय से अज्ञ प्राणी छह काय को बाधा पहुँचाने वाले कार्यों में निरन्तर लगे रहते हैं, उनके रूपादि की शोभा विनष्ट करते Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका -५३९ रहते हैं जिससे अशुभकर्म का बन्ध अधिक होता है जिसके फलस्वरूप जीव विरूप होते हैं। प्रशस्त रूप नामकर्म के बन्ध का कारण दयाई परिणाम हैं जो अल्य जीवों में पाये जाते हैं अतः रूप की दुर्लभता है। दीर्घायु की दुर्लभता - अविवेकपूर्ण आरम्भ सारम्भ से एवं कषाय से प्रायः अज्ञ प्राणी जीवों को मारते रहते हैं एवं उनकी आयु का घात करते रहते हैं अत: अल्पायु जीवों की बहुलता है। कदाचित् ही अहिंसा व्रत पालन करते हैं अतः दीर्घायु की प्राप्ति दुर्लभ है। नीरोगता की दुर्लभता - अज्ञ प्राणी सतत परजीवों को संताप देने में तत्पर एवं उत्साहित रहते हैं अतः सदैव रोगी रहते हैं। पर-सन्ताप को दूर करने, वैयावृत्त्य करने और गुरुजनों की सेवा आदि करने के परिणाम होना दुर्लभ है अत: नीरोगता की प्राप्ति दुर्लभ है। समीचीन बुद्धि की दुर्लभता - समीचीन ज्ञान एवं ज्ञानियों को दूषण लगाने से, उनसे डाह तथा मात्सर्य करने से, उनके ज्ञानाराधन में विघ्न डालने से, उनकी आसादना करने से, आचार्यों की वाणी का विपरीत प्रचार-प्रसार करने से तथा चक्षुआदि इन्द्रियों का घात कर देने से मतिज्ञानावरण और श्रुतज्ञानावरण का जाड्य कर्मबन्ध होता है। जिसका उदय होने पर यह जीव अतिमन्दबुद्धि वाला होता है । लक्षावधिसे भी अधिक जन्मों के बाद जब कभी इस जीव के मति-श्रुतज्ञानावरण के क्षयोपशम होने योग्य शुभ परिणाम होते हैं तब कदाचित् विवेक को उत्पन्न करने वाली बुद्धि उत्पन्न होती है अत: उत्तम बुद्धि की प्राप्ति अतिदुर्लभ है। धर्मश्रवण की दुर्लभता - करोड़ों, असंख्य भवों के बाद विवेकपूर्ण बुद्धि प्राप्त हो जाने पर भी धर्मश्रवण दुर्लभ है। कारण कि रागद्वेष से रहित, सच्चे ज्ञान के प्रकाशन द्वारा दुर्भेद्य मोहान्धकार का उन्मूलन करने वाले और सब जीवों पर दया करने वाले मुनिजनों की प्रामि दुर्लभ है। यदि प्राप्ति हो भी जाय तो तीव्र मिथ्यात्व के उदय से या गुणीजनों में द्वेषभाव उत्पन्न हो जाने से या मिथ्याज्ञान की प्राप्ति से या दुराग्रह से या 'मैंने जो जाना है वही सत्य है' ऐसी धारणा बन जाने से या आलस्य से या ये मुनिराज स्व-परोद्धार में दक्ष हैं ऐसा परिज्ञान न होने से अथवा अन्य भी ऐसे अनेक कारणों से मुनिजनों के समीप जाने से धर्म-श्रवण से वंचित रहना पड़ता है। कदाचित् मुनिजनों की सभा में पहुँच ही गये तो निद्रा के झोंके आ जाने से, किसी लेनदेन की विशेष स्मृति आ जाने से, गप्पाष्टक या नि:सार वार्तालाप में उपयोग लग जाने से, मूखों के वचन सुनने से अथवा विनययुक्त व्यवहार न करने से भी धर्मश्रवण दुर्लभ है। पापकर्म का उपशम होना, उपदेश देने वाले मुनिजनों का समागम, विनयपूर्वक प्रश्न करने की दक्षता एवं प्रशस्त वचन बोलने वाले गुरु का समागम विशिष्ट पुण्योदय में होता है इसलिए भी धर्मश्रवण दुर्लभ है। धर्मग्रहण की दुर्लभता - यदि कदाचित् उपयोगपूर्वक धर्म सुन भी लिया तो उसको ग्रहण अर्थात् धारण कर लेना दुर्लभ है क्योंकि श्रुतज्ञानावरणकर्म के उदय से उपदेश का अभिप्राय समझने की पात्रता नहीं होना एवं गुरुमुख से पूर्व में कभी न सुना हुआ उपदेश सुनने एवं समझ लेने पर भी उसमें मन की एकाग्रता दुष्कर होने से धारणा में नहीं रह पाने से भी ग्रहण दुर्लभ है। श्रुतज्ञान का क्षयोपशम प्राप्त होना, जीवादि तत्त्वों का सूक्ष्म विवेचन ग्रहण कर पाना, मन का लगना तथा वक्ता का वचन सौष्ठव ये सभी दुर्लभ होने से भी धर्मज्ञान का ग्रहण दुर्लभ है। Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ५४० श्रद्धा की दुर्लभता - धर्मज्ञान की धारणा स्थायी हो जाने पर भी सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक् तप स्वरूप आत्म-परिणाम ही धर्म है, यही धर्म अभ्युदय एवं मोक्षसुख देता है ऐसी श्रद्धा होना दुर्लभ है क्योंकि दर्शन मोहनीय कर्म का उदय होने से दृढ़ श्रद्धान नहीं हो पाता है। सम्यग्दर्शन कभी देशनादि पाँचलब्धियों के बिना नहीं होता। पाँच लब्धियों में भी करणलब्धि का होना अति-आवश्यक है, किन्तु यह लब्धि सुलभ नहीं है। कभी, क्वचित् किसी जीव को ही प्राप्त होती है, सर्वदा नहीं। इस प्रकार उत्तरोत्तर दुर्लभ ऐसी वस्तुओं की प्राप्ति मुझे हो चुकी है, अब धर्माचरण में प्रमादी होना उचित नहीं है। ऐसा विचार करना बोधिदुर्लभ भावना है। देशादिष्वपि लब्धेषु, दुर्लभा बोधि-रञ्जसा । कुपथाकुलिते लोके, रागद्वेष-वशीकृते ।।१९६२॥ अर्थ - देश-कुल एवं मनुष्य भव आदि के प्राप्त हो जाने पर भी रागद्वेष के वशवर्ती हुए तथा मिथ्यामार्ग से भरे हुए इस लोक में जिनदीक्षा रूप या रत्नत्रय की पूर्णतारूप या समाधिमरण रूप अथवा धर्मध्यानशुक्लध्यानरूप बोधि का प्राप्त होना अति दुर्लभ है ।।१९६२।।।। इत्थं यो दुर्लभां बोधिं, लब्ध्वा तत्र प्रमाद्यति । रत्न-पर्वतमारुहर, ततः पतति नष्ट-धीः ।।१९६३॥ अर्थ - इस प्रकार उक्त क्रमानुसार दुर्लभ बोधि को प्राप्त कर जो मनि उसमें रामाद करता है. मूर्वबुद्धि वह, मानों रत्नों के पर्वत पर चढ़कर उससे नीचे गिरता है।।१९६३ ।। नष्टा प्रमादतो बोधि:, संसारे दुर्लभा भवेत्। नष्टं तमसि सद्रत्नं, पयोधौ लभ्यते कथम् ।।१९६४ ॥ अर्थ - प्रमादरश यदि एक बार बोधि नष्ट हो गई तो इस संसार में उसका पुनः प्राप्त होना महादुर्लभ होगा। अन्धकार में समुद्र के मध्य गिरा हुआ रत्न कैसे मिल सकता है ? अपितु नहीं मिल सकता ।।१९६४ ॥ विपुल-सुखफलानां, कल्पने कल्पवल्लीं, भव-सरण-तरूणां कल्पने या कुठारी । भवति मनसि शुद्धा, सा स्थिरा शुद्ध-बोथिः, फलममलमलम्भि प्राणितव्यस्य तेन ।।१९६५॥ इति बोधिः। अर्थ - विपुल सुखरूपी फलों को देने के लिए जो कल्पलता के समान है और संसाररूपी बन के वृक्षों को काटने के लिए जो कुल्हाड़ी के समान है ऐसी यह शुद्ध बोधि जिसके मन में स्थिरता को प्राप्त हो जाती है उस महामुनि के बोधि द्वारा मोक्षरूपी निर्दोष फल प्राप्त हो गया समझना चाहिए ||१९६५।। इस प्रकार बोधिदुर्लभ भाषना पूर्ण हुई १५१२॥ Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका -५४१ बारह भावनाओं का उपसंहार द्वादशापीत्यनुप्रेक्षा, धर्मध्यानावलम्बनम्। नालम्बनं विना चित्तं, स्थिरतां प्रतिपद्यते॥१९६६ ।। अर्थ - ये अनित्याशरण आदि बारह भावनाएँ धर्मध्यान का अवलंबन हैं, क्योंकि आलम्बन के बिना मन स्थिरता को प्राप्त नहीं हो पाता ।।१९६६॥ प्रश्न - यहाँ अवलम्बन किसके लिए और क्यों आवश्यक है ? उत्तर - यहाँ धर्मध्यान का वर्णन चल रहा है। द्वादशानुप्रेक्षाएँ धर्मध्यान का अवलम्बन हैं। ध्यान को ध्येय की आवश्यकता होती है तथा ध्यान की प्रथम अवस्था चिन्तनरूप होती है और चिन्तन अवलम्बन के बिना सम्भव नहीं है अत: ध्यान के इच्छुक मुनिगण इन अनुप्रेक्षाओं के द्वारा चित्त की एकाग्रता का अभ्यास करते हैं। धर्मध्यान के अन्य अवलम्बन आलम्बनै तो लोको, ध्यातु-कामस्य योगिनः। यदेवालोकते सम्यक्, तदेवालम्बनं मतम् ॥१९६७ ॥ अर्थ – ध्यान के इच्छुक मुनिजनों के लिए यह सर्वलोक आलम्बनों से भरा पड़ा है। योगीजन जिस किसी भी पदार्थ को सम्यक्तया अर्थात् निर्विकार भाव से और ममत्वभाव से रहित होकर देखते हैं एवं चिन्तन करते हैं वही पदार्थ उनके ध्यान का अवलम्बन बन जाता है ।।१९६७।। इस प्रकार धर्मध्यान का कथन पूर्ण हुआ । शुक्लध्यान का कथन धर्मध्यानमतिक्रान्तो, यदा भवति शुद्ध-धीः। शुद्ध-लेश्यस्तदा ध्यानं, शुक्लं ध्यायति सिद्धये ।।१९६८ ।। अर्थ - जब शुद्ध बुद्धि वाला योगी धर्मध्यान को पूर्ण कर लेता है तब वह अति विशुद्धलेश्या के साथ शुक्लध्यान को ध्याता है॥१९६८ ।।। गद्य द्वारा शुक्लध्यान के नाम आदि पृथक्त्व-वितर्क-वीचारैकत्व-वितर्कावीचार-सूक्ष्मक्रिया-समुच्छिन्न क्रियाणि त्र्येकयोग-काययोगायोग-ध्येयानि-चत्वारि शुक्लानि यथार्थानि ॥१९६९॥ अर्थ - शुक्लध्यान का प्रथम पाया पृथक्त्व वितर्कवीचार है। यह प्रथम शुक्लध्यान मनोयोगादि तीनों योगों द्वारा ध्याया जाता है। एकत्व अवितर्क वीचार नामक दूसरा शुक्ल ध्यान है, जो तीनों योगों में से किसी भी एक योग द्वारा ध्याया जाता है। इसका तीसरा पाया सूक्ष्मक्रिया प्रतिपाती है जो काययोग द्वारा ध्याया जाता है और चतुर्थ पाया समुच्छिन्न क्रिया है जो अयोगी जिन द्वारा सम्पन्न होता है। Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ५४२ यह शुक्लध्यान शुक्ललेश्या बालों को ही होता है तथा इसमें उत्तरोत्तर अपूर्व-अपूर्व और अत्यन्त पवित्र परिणाम होते जाते हैं। यह ध्यान आत्मा के साथ लगे हुए नोकर्म, द्रव्यकर्म और भावकर्म रूपी मल को नष्ट कर देता है अर्थात् आत्मा को शुद्ध कर देता है अतः 'शुक्ल ध्यान' इस सार्थक नाम वाला है "शुचिगुणयोगात् शुक्लं" इति ।।१९६९ ॥ प्रथम शुक्लध्यान का शब्दार्थ एवं स्वामी वितर्को भण्यते तत्र, श्रुतध्यान-विचक्षणैः। अर्थ - व्यञ्जन-योगानां, वीचार: संक्रमो बुधैः ।।१९७० ।। तत्र द्रव्याणि सर्वाणि, ध्यायता पूर्व-वेदिना । भेदेन प्रथमं शुक्लं, शान्तमोहेन लभ्यते ॥१९७१॥ __ अर्थ - (प्रथम शुक्लध्यान के नाम में तीन पद हैं, 'पृथक्त्व, वितर्क और वीचार) ध्यान में विचक्षण बुद्धिमान पुरुषों ने अनेकपने को पृथक्त्व, अर्थ एवं श्रुत को वितर्क तथा अर्थों के, व्यञ्जनों के और योगों के परिवर्तन को वीचार कहा है। चौदह पूर्वो के पारगामी मुनिराजों द्वारा जीवादि सभी द्रव्यों को घ्याया जाता है, इन द्रव्यों को ध्याते हुए उपशान्त मोह वाले मुनि के पहला शुक्लध्यान होता हैं।।१९७०-१९७१।। प्रश्न - इस ध्यान में परिवर्तन कितने प्रकार से होता है और इसके नाम की सार्थकता क्या है? उत्तर - प्रथम शुक्लध्यान में तीन प्रकार से परिवर्तन होते हैं। विषय परिवर्तन, योग परिवर्तन और वचन अर्थात् वाक्यपरिवर्तन । इन तीनों प्रकार के परिवर्तनों का होना ही वीचार शब्द का अर्थ है। इस शुक्लध्यान में मुनिराज जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्मादि किसी द्रव्य का या किसी पदार्थ का चिन्तन करते-करते उसे छोड़कर किसी अन्य पदार्थ के चिन्तन में एकाग्र हो जाते हैं। किसी विवक्षित आगम वाक्य का अवलम्बन लेते हैं, पश्चात् उसे छोड़कर किसी अन्य वाक्य का अवलम्बन ले लेते हैं, इसी प्रकार वे मुनिराज तीन योगों में से किसी एक योग से युक्त हो ध्यान करते हैं। पश्चात् उसे छोड़ किसी अन्य योग से युक्त हो जाते हैं। इस प्रकार इस ध्यान में अर्थ, व्यञ्जन और योग इन तीनों का परिवर्तन होता है किन्तु यह परिवर्तन बुद्धिपूर्वक नहीं होता। इस परिवर्तन को ही वीचार कहते हैं। इस ध्यान में श्रुतज्ञान का, श्रुत में कथित अर्थ का एवं शब्दात्मक द्रव्यश्रुत का अवलम्बन लिया जाता है अतः इस ध्यान को वितर्क युक्त कहा जाता है। इस प्रकार के अनेकपनेप्से, वीचार से एवं वितर्क से इसका 'पृथक्त्व वितर्क वीचार' यह सार्थक नाम रखा गया है। द्वितीय शुक्लथ्यान का स्वरूप एवं स्वामी ध्यायता पूर्व-दक्षेण, क्षीणमोहेन साधुना। एकं द्रव्यमभेदेन, द्वितीयं ध्यानमाप्यते ॥१९७२॥ ___अर्थ - (इस ध्यान में अर्थसंक्रमण, योगसंक्रमण एवं शब्दसंक्रमण में से एक भी नहीं होता) इस ध्यान का ध्याता किसी एक योग का आश्रय लेकर किसी विवक्षित एक ही द्रव्य का अभेद रूप से चिन्तन करते हैं। Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका -५४३ इस ध्यान के स्वामी क्षीणमोह नामक बारहवें गुणस्थानवी चतुर्दश पूर्वो के ज्ञान में दक्ष साधु हैं। अर्थात् यह ध्यान वे महात्मा ही कर सकते हैं, अन्य नहीं ।।१९७२ ।। प्रश्न - दूसरे शुक्लध्यान का शब्दार्थ क्या है और दोनों ध्यानों के कार्य क्या-क्या है? उत्तर - यहाँ एकत्व का अर्थ एकरूपता है, श्रुत का अवलम्बन लिया जाता है अत: वितर्क है एवं परिवर्तन रहित होने से अवीचार है, अत: इसका सार्थक नाम एकत्व वितर्कावीचार है। प्रथम शुक्लध्यान के द्वारा दसवें गुणस्थान के अन्तिम समय में मोहनीय कर्म को नष्ट किया जाता है, और यह दूसरा शुक्लध्यान रत्नों की दीपशिखावत् अकम्प, अडोल एवं बदलाहट से रहित होता है। यह ध्यान किसी एक योग तथा किसी एक श्रुतवाक्य के आश्रय से प्रवृत्त होता है। इसके स्वामी क्षीणमोह गुणस्थानवर्ती योगीश्वर हैं, वे बारहवें गुणस्थान के अन्तसमय में इस ध्यान के बल से ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीन घातिया कर्मों को नष्ट कर देते हैं। तृतीय शुक्लध्यान का स्वरूप एवं स्वामी सर्वभाव-गतं शुक्लं, विलोकित-जगत्त्रयम् । सर्वसूक्ष्मक्रियो योगी, तृतीयं ध्यायति प्रभुः ।।१९७३॥ अर्थ - सर्व द्रव्य और सर्व पर्यायगत तथा तीन लोक के विलोकन में समर्थ सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपाती नामका तीसरा शुक्ल ध्यान है। इस ध्यान के स्वामी तेरहवें गुणस्थानवर्ती सयोगकेवली जिनेन्द्र हैं ।।१९७३ ।। प्रश्न - इस ध्यान का अन्वर्थ नाम क्या है, इसका कार्य क्या है और इसके स्वामी कौन हैं? उत्तर - इस ध्यान में सूक्ष्म क्रिया का अप्रतिपात है अर्थात् अभाव है अर्थात् इस ध्यान में एक मात्र काययोगरूप सूक्ष्म क्रिया का अस्तित्व पाया जाता है अतः इसका सूक्ष्म क्रिया अप्रतिपाती यह अन्वर्थ नाम आशय यह है कि यह शुक्लध्यान वितर्क और वीचार से रहित है। यह ध्यान तेरहवें गुणस्थान में भी तब होता है जबकि देश-देश का विहार एवं दिव्यध्वनि रूप क्रियाएँ समाप्त होकर बाह्य क्रियारूप योग निरोध हो जाता है। इसमें श्वासोच्छ्वासादि क्रिया सूक्ष्म रह जाती है अर्थात् यहाँ केवल सूक्ष्मकाय-योग क्रिया का अस्तित्व रहता है। मनोवर्गणा के अवलम्बन से उत्पन्न होने वाला मनोयोग और वचनवर्गणा के अवलम्बन से होने वाला बचनयोग नहीं होता। यह शुक्लध्यान त्रिकालवर्ती अनन्त सामान्य-विशेषात्मक धर्मों से युक्त छह द्रव्यों को एक साथ प्रकाशित करता है अतः सर्वगत है। प्रश्न - सर्वगत लक्षण तो केवलज्ञान का है, तब क्या केवलज्ञान को ध्यान कहते हैं ? उत्तर - ध्यान का लक्षण “..............एकाग्रचिन्ता-निरोधो ध्यानम्..............” किया गया है। इस लक्षणात्मक वाक्य में “चिन्ता" शब्द ज्ञान सामान्य का वाचक है, अत: ज्ञान की निश्चलता ही ध्यान है, यह सिद्ध हुआ। केवलज्ञान सर्वथा निश्चल ही है इसलिए सयोगकेवली भगवान का यह सूक्ष्मक्रियाअप्रतिपात नामक ध्यान केवलज्ञानमूलक है। केवलज्ञान को ध्यान कहने का मूल कारण भी यही है। ज्ञान की Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणपिडका -५४४ निश्चलता सब ज्ञानोपयोगों में साधारण है अतः ध्यान का यह लक्षण भी सभी ज्ञानोपयोगों में घटित हो जाता है। इसी कारण जैसे केवलज्ञान को ध्यान कहा है, वैसे ही श्रुतज्ञान एवं कुश्रुतज्ञान को तथा मतिज्ञान एवं मतिअज्ञान को भी ध्यान कहते हैं। समुच्छिन्नक्रिया या व्युपरत क्रिया नामक चतुर्थ शुक्लध्यान का स्वरूप एवं स्वामी अयोगकेवली शुक्लं, सिद्धि-सौधमियासया। चतुर्थं ध्यायति ध्यानं, समुच्छिन्न-क्रियो जिनः॥१९७४ ।। अर्थ - जिनकी काययोगरूप समस्त क्रियाएँ नष्ट हो चुकी हैं और जो सिद्धिरूप प्रासाद को प्राप्त करने वाले हैं वे अयोग केवली भगवान् समुच्छिन्न क्रिया नामक चतुर्थ शुक्लध्यान को ध्याते हैं ।।१९७४ ।। प्रश्न - इस ध्यान के नाम की सार्थकता, इसके स्वामी एवं कार्य क्या हैं ? उत्तर - इस ध्यान में सम्पूर्ण योगरूप क्रिया नष्ट हो जाती है अतः इसका समुच्छिन्न क्रिया या व्युपरत क्रिया सार्थक नाम है। अयोग केवली जिन इस चतुर्थ शुक्ल ध्यान के स्वामी हैं। ये अयोग केवली भगवान् औदारिक, तैजस और कार्मण शरीरों को नष्ट करते हुए ही इस अन्तिम ध्यान को ध्याते हैं। इस ध्यान में अघातिया कर्मों की पिच्चासी प्रकृतियाँ नष्ट हो जाती हैं। इस प्रकार समस्त अठारह हजार शीलों के स्वामी और चौरासी लाख उत्तर गुणों से परिपूर्ण वे अयोगीजिन सर्व कर्मभार से रहित होकर अष्टम ईषत् प्राग्भार नामा पृथिवी अर्थात् सिद्धशिला से कुछ कम एक योजन ऊपर जाकर सिद्धलोक में सदा-सदा के लिए विराजमान हो जाते हैं और वहाँ निर्द्वन्द्व, अन्यानाथ एवं अनन्त सुख में मग्न रहते हैं। प्रश्न - इस ध्यान में क्या-क्या विशेषताएँ हैं ? उत्तर - इस ध्यान में मनोयोग, वचनयोग, प्राण, अपान, श्वास एवं उच्छ्वास का प्रचार तथा काययोग सम्बन्धी हलन-चलन क्रिया का व्यापार नष्ट हो जाता है अत: यह ध्यान अक्रिय है। यह ध्यान समस्त कर्मों को नष्ट किए बिना समाप्त नहीं होता अतः यह अनिवर्ति है। इस ध्यान से सब कर्मों का आस्रव रुक जाता है अतः इसे निरुद्ध योग कहते हैं। इस निरुद्धयोग से शैलेशीभाव रूप यथाख्यात चारित्र उत्पन्न हो जाता है अतः इस ध्यान को शैलेशी भी कहते हैं। इस ध्यान का प्रादुर्भाव योगनिरोध के पश्चात् ही होता है। इस प्रकार शुक्लध्यान का वर्णन पूर्ण हुआ। ध्यान का माहात्म्य इत्थं यो ध्यायति ध्यानं, गुणश्रेणिगत: शुभम्। निर्जरां कर्मणामेष, क्षपकः कुरुते पराम् ।।१९७५ ।। अर्थ - इस प्रकार वह क्षपक गुणश्रेणी को प्राप्त हो प्रशस्त शुक्ल घ्यान को ध्याता है और उस ध्यान के बल से कर्मों की महान् निर्जरा करता है।।१९७५ ॥ तपस्यवस्थितं चित्रं, चिरं निर्ध्यान-संवरम् । ध्यानेन संवृत: क्षिप्रं, जयति क्षपकः स्फुटम् ॥१९७६ ।। Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ५४५ अर्थ - चिरकाल तक अनेक प्रकार के अनशनादि तप से युक्त किन्तु ध्यानरूप संवर से रहित मुनि को ध्यान रूप संवर करने वाला क्षपक मुनि शीघ्र ही जीत लेता है। अर्थात् पूर्वकोटि काल तक संवर रहित चारित्र एवं तप करने वाले मुनि से एक अन्तर्मुहूर्त मात्र ध्यानरूप संवर से युक्त मुनि श्रेष्ठ है ॥१९७६ ।। आयुधं योगिनो ध्यानं, कषाय-समरे परम् । निर्ध्यान: संस्तरे युद्धे, निरस्त्र-भट-सन्निभः॥१९७७ ॥ अर्थ - जैसे युद्ध क्षेत्र में बिना अस्त्र के कोई भी योधा शत्रु पर विजय प्राप्त नहीं कर सकता, वैसे ही संस्तर में स्थित समाधि का इच्छुक क्षपक ध्यान रूप शस्त्र के बिना कषाय रूप या कर्मरूप शत्रुओं पर विजय प्राप्त नहीं कर सकता, क्योंकि कषायों का नाश करने वाली समरभूमि में योगीरूप सुभट का सर्वोत्कृष्ट शस्त्र ध्यान ही है।।१९७७॥ कषाय-संयुगे ध्यानं, मुमुक्षोः कवचो दृढः। ध्यान-हीनस्तदा युद्धे, नि:कङ्कट-भटोपमः ॥१९७८ ॥ अर्थ - जैसे कवच रहित सुभट युद्धक्षेत्र में शत्रु के शस्त्रप्रहार से अपनी रक्षा नहीं कर सकता, वैसे ही ध्यान रूप कवच से रहित क्षपक रूपी योद्धा कषाय शत्रु के शस्त्र प्रहार को नहीं रोक सकता, क्योंकि कषायरूप शत्रु से युद्ध करने के लिए मुमुक्षुमुनि को यह ध्यान दृढ कवच के सदृश है।।१९७८ ।। ध्यानं करोत्यवष्टम्भं, क्षीण-चेष्टस्य योगिनः। दण्डः प्रवर्तमानस्य, स्थविरस्येव पावनः ।।१९७९ ॥ अर्थ - जैसे चलनक्रिया में असमर्थ वृद्ध पुरुष को गमन करते समय लाठी सहायक होती है वैसे ही क्षीणकाय योगी के ध्यान सहायक होता है अर्थात् शरीर क्षीण हो जाने से जो क्षपक देववन्दनादि षड़ावश्यकों द्वारा कर्मनिर्जरा आदि करने में असमर्थ है वह ध्यान द्वारा कर्मनिर्जरा कर लेता है अतः ध्यान उसका सहायक है।।१९७९॥ बलं ध्यानं यतेश्रुत्ते, मल्लस्येव घृतादिकम् । समोऽपुष्टेन मल्लेन, ध्यान-हीनो यतिमतः ।।१९८० ।। ___ अर्थ - जैसे घी-दूधादि पदार्थ मल्ल पुरुष के बल को दृढ़ करते हैं, वैसे ही ध्यान, क्षपक की शक्ति को दृढ़ करता है। जैसे दूधादि न पीने वाला अपुष्ट अर्थात् कमजोर मल्ल अखाड़े में हार जाता है, वैसे ही ध्यानविहीन क्षपक कषायों से हार जाता है॥१९८० ।। वज्रं रत्लेषु गोशीर्ष, चन्दने च यथा मतम् । ज्ञेयं मणिषु वैडूर्य, यथा ध्यानं व्रतादिषु ।।१९८१॥ अर्थ - जैसे रत्नों में हीरा श्रेष्ठ रत्न है, चन्दनों में गोशीर्ष चन्दन श्रेष्ठ है और मणियों में वैडूर्यमणि श्रेष्ठ है, वैसे ही क्षपक के लिए व्रत, संयम एवं तप आदि में ध्यान श्रेष्ठ है ।।१९८१ ॥ Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ IN मरणकण्डिका - ५४६ अर्थ धन, कषात रूपा के समय में मित्र सदृश है, कषाय रूप जंगली श्वापदों से रक्षा करने वाला है; ध्यान, कषाय रूप आँधी, तूफान एवं वायु से बचाने के लिए गर्भगृह के सदृश है तथा यह ध्यान कषायरूप अग्नि को शान्त करने के लिए सरोबर सदृश है ।। १९८२ ।। कषाय- व्यसने मित्रं, कषाय व्याल-रक्षणम् । कषाय-मारुते गेहं, कषाय- ज्वलने हृदः ॥। १९८२ ।। - कषायार्कातपे छाया, कषाय- शिशिरेऽनलः । कषायारिमये त्राणं, कषाय-व्याधि-भेषजम् ॥। १९८३ ॥ अर्थ यह ध्यान, कषायरूप सूर्य के आतप से बचाने के लिए छाया सदृश है, कषायरूप शिशिर ऋतु सम्बन्धी शीत की बाधा को नष्ट करने के लिए अनि सदृश है, कषाय रूप शत्रु से रक्षा करने वाला है तथा कषाय रूप रोग की औषधि है ।।१९८३ ॥ तोयं विषय- तृष्णायामाहारो विषय क्षुदि । जायते योगिनो ध्यानं, सर्वोपद्रव सूदनम् ।। १९८४ ॥ अर्थ यह ध्यान विषय तृष्णा को शान्त करने के लिए मिष्टजल के सदृश है तथा विषयरूप क्षुधा की बाधा उत्पन्न हो जाने पर यतिजन यह ध्यानरूप आहार ही ग्रहण करते हैं। अधिक क्या कहें ? योगीजनों के समस्त उपद्रवों को शान्त करने वाला यह ध्यान ही है, ऐसा निश्चय करो । १९८४ ॥ - संस्तरारूद एवं ध्यानरत क्षीणकाय क्षपक की सजगता के चिह्न आराधनावबोधार्थं, योगी व्यावृत्ति - कारणम् । तदा करोति चिह्नानि निश्चेष्टो जायते यदा ।। १९८५ ।। अर्थ - संस्तरारूढ़ क्षपक शरीर की कृशता के कारण जब मन, वचन एवं काय से निश्चेष्ट जैसा हो जाता है तब स्वयं अथवा निर्यापकाचार्य द्वारा पूछे जाने पर अपनी आराधना की संलग्नता का बोध कराने के लिए आगे कहे जाने वाले संकेत करता है ।। ९९८५ ॥ हुङ्कारा-नेत्रमूर्धकम्पाञ्जलि क्रियाः । यथा संकेतमव्यग्रः क्षपकः कुरुते सुधीः ॥। १९८६ ।। " अर्थ - निर्यापकाचार्य द्वारा सावधानी पूछी जाने पर ज्ञानवान् किन्तु क्षीणकाय क्षपक अपनी जाग्रति अर्थात् सावधानी का संकेत हुंकार से, अंगुलि से, हाथ उठाकर या भौंहें उठाकर या मस्तक हिलाकर या हाथ की पाँचों अंगुलियाँ उठा कर करता रहता है । १९८६ ।। संकेतवन्त: परिचारकास्ते, चेष्टा- विशेषेण विदन्ति साधोः । आराधनोद्योगमवेत - शास्त्रा, धूमेन चित्रांशुमिव ज्वलन्तम् ।।१९८७ ।। इति ध्यानम् । Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणण्डेिका - ५४७ अर्थ - जैसे धूम के द्वारा, जाज्वल्यमान अग्नि का ज्ञान हो जाता है वैसे ही संकेत समझने में विलक्षण बुद्धि वाले एवं शास्त्र के ज्ञाता निर्यापकाचार्य एवं परिवारक साधुसमुक्षाय अपक धारा किये जाने वाले संकेत विशेषों से उसकी आराधना के उद्योग की सावधानी समझ लेते हैं ।।१९८७ ।। इस प्रकार ध्यान का अधिकार पूर्ण हुआ ।।३७ ।। ३८, लेश्या-अधिकार इत्थं समत्वमापन:, शुभध्यान-परायणः। आरोहति गुणश्रेणी, शुद्ध-लेश्यो महामनाः ॥१९८८ ।। अर्थ - इस प्रकार समता भाव को प्राप्त एवं प्रशस्त ध्यान में परायण वह महामना साधु शुद्ध अर्थात् पीत या पद्म या शुक्ल लेश्या युक्त होता हुआ गुणश्रेणी का आरोहण करता है अर्थात् अंधिक-अधिक विशुद्धि को वृद्धिंगत करता है॥१९८८ ।। लेश्या के भेद बाह्याभ्यन्तर-भेदेन, द्वेधा लेश्या निवेदिता। शुभाशुभ-विभेदेन, पुनधा जिनेश्वरैः ॥१९८९॥ अर्थ - जिनेन्द्रदेव के द्वारा लेश्या के दो भेद कहे गये हैं, बाह्यलेश्या और अभ्यन्तर लेश्या, अर्थात् द्रव्य लेश्या और भाव लेश्या। उन दोनों के पुनः शुभ और अशुभ के भेद से दो-दो भेद होते हैं ।।१९८९ ।। कृष्णा नीला च कापोती, तिम्रो लेश्या विगर्हिताः। धीरो वैराग्यमापन्न:, स्वैरिणीरिव मुञ्चते ।।१९९० ।। अर्थ - कृष्णलेश्या, नीललेश्या और कापोतलेश्या, ये तीन लेश्यायें गर्हित अर्थात् अप्रशस्त हैं। जैसे धीर-वीर पुरुष दुराचारिणी स्वच्छन्द स्त्री का त्याग कर देते हैं, वैसे ही वैराग्य को प्राप्त धीर क्षपक इन तीन अशुभ लेश्याओं का त्याग कर देता है।॥१९९०॥ तेजः पद्मा तथा शुक्ला, तिम्रो लेश्याः प्रियङ्कराः । निर्वृत्तिमिव गृह्णाति, निर्बाध-सुखदायिनीम् ॥१९९१ ।। अर्थ - पीत, पद्म और शुक्ल, ये तीन लेश्यायें प्रियंकर अर्थात् प्रशस्त हैं। जैसे हितेच्छु पुरुष निर्बाध सुख देने वाली मुक्ति को ग्रहण करते हैं, वैसे ही क्षपक तीन शुभ एवं प्रशस्त लेश्याओं को ग्रहण करता है।।१९९१॥ प्रश्न - लेश्या किसे कहते हैं, वे कितनी हैं, उनके भेद-प्रभेद और लक्षण क्या हैं तथा उनके परिणार्मो की तरतमता का क्रम क्या है ? उत्तर - कषाय से अनुरंजित योगों की प्रवृत्ति को लेश्या कहते हैं। कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ५४८ और शुक्ल के नाम वाली ये लेश्यायें छह हैं। द्रव्य और भाव के भेद से ये दो प्रकार की होती हैं। द्रव्य लेश्या शरीर के काले-गोरे वर्णरूप होती है और भाव लेश्या मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग से प्राणियों के जो संस्कार बन जाते हैं, उस रूप होती है अर्थात् मिथ्यात्व आदि के कारण जीव के जो शुभाशुभ भाव होते हैं वह भाव लेश्या है । शुभ और अशुभ के भेद से भाव लेश्या दो प्रकार की है। इनमें से प्रारम्भ की तीन अर्थात् कृष्ण, नील, कापोत अशुभ हैं और पीत, पद्म, शुक्ल ये तीन शुभ हैं। अशुभ लेश्याओं में परिणामों की तरतमता रूप हानि-वृद्धि तीव्र, तीव्रतर और तीव्रतम रूप से होती है। जैसे कापोतलेश्या तीव्र है, नील लेश्या तीव्रतर है और कृष्ण लेश्या तीव्रतम है। इसी प्रकार शुभ लेश्याओं में यह कषाय परिणामों की तरतमता मन्द, मन्दतर और मन्दतम रूप से होती है। जैसे पीतलेश्या मन्द, पद्यलेश्या मन्दतर और शुक्ल लेश्या मन्दतम है। परिणामों की तरतमता एक उदाहरण द्वारा समझी जा सकती है। छह व्यापारी व्यापार हेतु देशान्तर जा रहे थे। मार्ग भूल जाने से जंगल में भटक रहे थे, क्षुधा से भी पीड़ित थे, अनायास आम्रफलों से युक्त एक विशाल वृक्ष दिखाई दिया, उसे देखते ही उन छह पथिकों के भिन्नभिन्न प्रकार के परिणाम बनते हैं। यथा-जो पथिक फलों से लदे वक्ष को जड़ से उखाड का फल खान है उसके परिणाम कृष्ण लेश्या जन्य जो स्कन्ध से पाट त साना चाहता है उसके परिणाम नील लेश्या के हैं, जो मात्र फल यक्त एक शाखा काटकर फल खाना चाहता है उसके परिणाम कापोत लेश्या के हैं, जो फल युक्त उपशाखा या आम्र का गुच्छा तोड़कर फल खाना चाहता है, उसके परिणाम पीतलेश्याजन्य हैं, जो मात्र फल तोड़ कर ही खाना चाहता है उसके परिणाम पद्यलेश्या जन्य हैं और जो पथिक नीचे भूमि पर गिरे हए फल उठाकर अपनी क्षधा शान्त करना चाहता है. उसके परिणाम शक्ल लेश्या जन् थके हुए थे, सभी भूखे थे और उन सबने वृक्ष भी एक साथ देखा था किन्तु उनके परिणाम भिन्न-भिन्न हो रहे प्रश्न - दृष्टान्तर्गत छह लेश्याओं से युक्त पुरुषों के चिह्न क्या-क्या हैं? उत्तर - जो अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ कषाय से युक्त हैं, निर्दय एवं कलहप्रिय हैं, दुराग्रही हैं, दुष्ट हैं, सतत वैरभाव रखने वाले हैं और मद्य-मांसादि के सेवन में आसक्त रहते हैं उन्हें कृष्णलेश्या परिणाम वाले जानना चाहिए। जो मायावी, छली-कपटी, घमण्डी, विषयलम्पटी, आलसी, बुद्धिहीन, अधिक निद्रालु, धन-धान्य में आसक्त एवं नाना प्रकार के आरम्भ और परिग्रहों में मोहित रहने वाले हैं, वे नीललेश्या परिणाम वाले होते जो शोक एवं भय से युक्त होते हैं, बात-बात में रूसते हैं, लड़ाई हो जाने पर तत्काल मरने-मारने को तैयार हो जाते हैं, पर की निन्दा और अपनी प्रशंसा करते रहते हैं, पर का तिरस्कार करते हैं, कषाय के आवेग में हानि-लाभ भी नहीं देखते हैं और अपनी प्रशंसा सुनकर मन-मन आह्लादित होते रहते हैं, वे कापोतलेश्या के परिणाम वाले होते हैं। जो सर्वत्र समदृष्टि रहते हैं, कृत्य-अकृत्य एवं हित-अहित का विवेक रखते हैं और दया, दान तथा पूजा में रत रहते हैं, उन्हें पीत लेश्या के परिणाम वाले जानना चाहिए । Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ५४९ जो त्यागशील, क्षमाशील, भद्र प्रकृति, साधुओं की सेवा, पूजा और दानादि में रत रहते हैं उन्हें पद्मलेश्या के परिणाम वाले जानना चाहिए और जो सर्वक्षेत्र एवं सर्वजनों में समता भाव रखते हैं, निदान नहीं करते तथा इष्टानिष्ट पदार्थों में राग-द्वेष नहीं करते वे शुक्ललेश्या युक्त होते हैं। इनमें कृष्णादि तीन अशुभ लेश्यायें त्याज्य हैं एवं पीतादि तीन शुभ लेश्यायें ग्राह्य हैं। लेश्याओं की शुद्धि का निर्देश कुरुष्व सुख-हेतूनां, सल्लेश्यानां विशोधनम्। यत्सङ्गानामशेषाणां, सर्वथापि विवर्जनम् ।।१९९२ ॥ अर्थ - हे क्षपकराज ! लेश्या अर्थात् परिणामविशुद्धि में परिग्रह ही बाधक होता है अत: सर्व परिग्रह का सर्वधा त्याग कर तुम सुखदायक शुभ लेश्याओं की विशुद्धि करो अर्थात् आगे-आगे परिणाम अधिक निर्मल बनाने का पुरुषार्थ करो ||१९९२ ।। लेश्यानां जायते शुद्धिः, परिणाम-विशुद्धितः । मितिः परिणामानां कषायोपशमे सति ॥१९९३ ।। अर्थ - यह नियम है कि परिणामों की विशुद्धि से लेश्याओं की विशुद्धि होती है और परिणाम विशुद्ध तब होते हैं जब कषायें उपमित होती हैं ।।१९९३ ।। मन्दी भवन्ति जीवस्य, कषायाः सङ्ग-वर्जने । कषाय-बहुल: सर्वं, गृह्णीते हि परिग्रहम् ।।१९९४ ।। अर्थ - जो बाह्य परिग्रह का त्याग करता है उसकी कषायें मन्द होती हैं, क्योंकि जिसकी कषायें तीव्र होती हैं वही सर्व परिग्रह को ग्रहण करता है॥१९९४॥ वृद्धि-हानी कषायाणां, सङ्ग-ग्रहण मोक्षयोः। अग्निनामिव काष्ठादि-प्रक्षेपण-निरासयोः ।।१९९५ ।। अर्थ - जैसे ईंधन डालने से अग्नि वृद्धिंगत होती है और ईंधन न डालने से या निकाल लेने से अग्नि बुझ जाती है, वैसे ही परिग्रह के ग्रहण या संचय करने से कषायें वृद्धिंगत होती हैं और परिग्रह का त्याग कर देने से कषायें मन्द हो जाती हैं।।१९९५॥ कषायो ग्रन्थ-सङ्गेन, क्षोभ्यते तनुधारिणाम्। प्रशान्तोपि ह्रदादीनां, पाषाणेनेव कर्दमः ॥१९९६ ।। अर्थ - जैसे सरोवर में नीचे दबा हुआ भी कीचड़ पत्थर डालने से क्षुभित होता हुआ ऊपर आ जाता है, वैसे ही परिग्रह के सम्पर्क से या ग्रहण करने से संसारी प्राणियों के सत्तास्थित या उपशमित भी कषायें उदय में आ जाती हैं या तीव्र हो जाती हैं ॥१९९६ ॥ अन्तर्विशुद्धितो जीवो, बहिर्ग्रन्थं विमुञ्चति । अन्तरामलिनो बाह्यं, गृहीते हि परिग्रहम् ।।१९९७ ।। Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका -५५० अर्थ – अन्तरंग की विशुद्धि से गाई ल्यायों की मदत होने पर जीव नियतः जाह्य परिग्रह छोड़ देता है क्योंकि अन्तरंग में मलिनता होने पर ही जीव बाह्य परिग्रहों को ग्रहण करता है ।१९९७ ।। अन्तर्विशुद्धितो जन्तोः, शुद्धिः सम्पद्यते बहिः। बाह्यं हि कुरुते दोष, सर्वमान्तर-दोषतः ।।१९९८ ।। अर्थ - जीवों के अन्तरंग की विशुद्धि होने पर नियमत: बाह्य विशुद्धि हो जाती है क्योंकि अन्तरंग दूषित होने पर जीव सर्व बाह्य दोष करता है। अर्थात् कषायों की मन्दता रूप निर्मल परिणाम होने पर बाह्य हिंसा-झूठादि दोष होना सम्भव नहीं हैं किन्तु यदि अभ्यन्तर परिग्रह की आसक्ति से मलिन है तो शरीर और वचन सम्बन्धी मलिनता होगी ही होगी ।।१९९८ ।। ससङ्गस्याङ्गिनः कर्तु, लेश्या-शुद्धिर्न शक्यते। अन्तराशोध्यते केन, तुष-युक्तोऽपि तन्दुलः ।।१९९९ ।। अर्थ - परिग्रही मनुष्य के लेश्याओं की शुद्धि होना शक्य नहीं है, क्या बाह्य छिलके से युक्त चावल की अभ्यन्तर ललाई रूप मलिनता किसी के भी द्वारा दूर करना शक्य है ? नहीं ॥१९९९ ।। लेश्या के आश्रय से आराधक के भेद शुक्ललेश्योत्तमांशं, यः प्रतिपद्य विपद्यते। उत्कृष्टाराधना तस्य, जायते पुण्य-कर्मणः ।।२००० ॥ अर्थ - जो क्षपक शुक्ल लेश्या के उत्कृष्ट अंशों को प्राप्त कर अर्थात् तत् रूप परिणत होकर मरण करता है वह पुण्यात्मा उत्कृष्ट आराधक होता है अर्थात् उसकी आराधना उत्कृष्ट होती है।।२०००॥ शेषांशान् शुक्ललेश्यायाः, पद्मायाश्च तथा श्रितः । म्रियते मध्यमा तस्य, साधोराराधना मता ॥२००१॥ अर्थ - शुक्ललेश्या के शेष मध्यम और जघन्य अंशों का तथा पद्मलेश्या के उत्कृष्ट, मध्यम एवं जघन्य अंशों का आश्रय लेकर संन्यास मरण करने वाले क्षपक की मध्यम आराधना होती है अर्थात् वह मध्यम आराधक होता है।॥२००१॥ तेजो-लेश्यामधिष्ठाय, क्षपको यो विपद्यते। जघन्याराधना तस्य, वर्णिता पूर्व-सूरिभिः ॥२००२॥ अर्थ - पूर्वाचार्यों ने कहा है कि जो क्षपक पोत लेश्या में स्थित होकर संन्यास मरण करता है उसकी जघन्याराधना होती है अर्थात् वह जघन्य आराधक होता है ।।२००२।। प्रतिपद्य तपोवाही, यो यां लेश्यां विपद्यते। तल्लेश्ये जायते स्वर्गे, तल्लेश्य: स सुरोत्तमः ॥२००३।। अर्थ - जो तपस्वी क्षपक जिस-जिस लेश्या से परिणत होकर मरण करता है, वह उसी लेश्या वाले स्वर्ग में उसी लेश्या का धारक उत्तम देव होता है ।।२००३ ।। Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ५५१ सर्व-लेश्या-विनिर्मुक्त:, प्राणांस्त्यजति यो यतिः । आयुषो बन्धनेनैव, मुक्तो याति स निर्वृतिम् ॥२००४।। अर्थ - जो क्षपक सम्पूर्ण लेश्याओं से रहित होकर प्राणविसर्जन करता है वह सदा के लिए आयुबन्धन से मुक्त हो जाता है और परम निर्वाण मोक्ष को प्राप्त करता है ।।२००४ ।। शुद्धतमा गुणवृद्धि-गरिष्ठा, भव्य-शरीरि-निवेशित-चेष्टाः । दूर-निवारित-संसृति-वेश्या, कस्य सुखं जनयन्ति न लेश्याः ॥२००५ ।। इति लेश्याः । अर्थ · शुः गोगा कपल के गुणों की वृद्धि करने में प्रधान हैं, भव्य जीवों की चेष्टाओं को शान्त करने वाली हैं एवं दूर से ही संसार रूपी वेश्या को रोकने वाली हैं। ऐसी लेश्यायें किसे सुख उत्पन्न नहीं करती ? अपितु सभी को सुख देती हैं ।।२००५॥ इस प्रकार लेश्या नामा अधिकार पूर्ण हुआ॥३८ ।। ३९. आराधना फलाधिकार आराधना रूपी ध्वजग्रहण का अधिकारी अविघ्नेन विशुद्धात्मा, लेश्या-शुद्धिमधिष्ठितः। प्रवर्तित-शुभ-ध्यानो, गृह्णात्याराधना-ध्वजाम् ॥२००६ ।। अर्थ - इस प्रकार आहारादि के त्याग से ध्यान पर्यन्त सर्व कार्य जिसने निर्विघ्नता से सम्पन्न कर लिये हैं, जो लेश्या की शुद्धि से युक्त है एवं शुभ ध्यान में प्रवृत्त है, ऐसे क्षपक मुनिराज ही आराधनारूपी ध्वजा को ग्रहण करते हैं ।।२००६॥ आराधना देवी का माहात्म्य ददाति चिन्तितं सौख्यं, छिनत्ति भव-पादपम् । इत्थमाराधना देवी, भव्येनाराध्यते सदा ॥२००७ ।। अर्थ - जो मनोवांछित फल देती है और संसाररूपी वृक्ष को काटती है ऐसी आराधना देवी की आराधना भव्य जीवों के द्वारा सदा की जाती है।।२००७ ।। यैरेषाराथना देवी, सिद्धि-सौध-प्रवेशिनी । आराधिता न तैर्लाभः, को लब्धो भुवनत्रये ॥२००८॥ अर्थ - सिद्धिप्रासाद में प्रवेश कराने वाली इस आराधना देवी का आराधन जिनके द्वारा नहीं किया जाता है उनके द्वारा तीन लोक में क्या प्राप्त किया जाता है? अर्थात् मनुष्य भव प्राप्त करने का उसे क्या लाभ हुआ? कुछ भी नहीं ॥२००८।। Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका- ५५२ यथाख्यात - विधि प्राप्ता, विशुद्ध-ज्ञान-दर्शनाः । दहन्ति घाति - दारुणि, केचिद्ध्यान- कृशानुना ।।२००९ ।। अर्थ- कोई चरमशरीरी क्षपक मुनिराज यथाख्यात चारित्र की विधि प्राप्त कर शुद्ध सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान से युक्त हो ध्यान रूपी प्रचण्ड अग्नि के द्वारा घातिया रूप दारुण कर्मों को अर्थात् मोहनीय, ज्ञानावरण, दर्शनावरण एवं अन्तराय को जला देते हैं अर्थात् सर्वज्ञ और वीतरागी बन जाते हैं ।। २००९ ॥ त्यजन्त्याराधका देहं ध्यायन्तो भुवनत्रयम् । द्रव्य - पर्याय - सम्पूर्णं, केवलालोक-लोकितम् ॥२०१० ॥ अर्थ-के द्वारा द्रत्य और पर्यायों से परिपूर्ण इस तीन लोक को जानते हुए वे भव्यात्मा आराधक मुनिराज ध्यान की एकाग्रता पूर्वक अपना शरीर छोड़ देते हैं अर्थात् केवलज्ञान प्राप्त कर मोक्ष चले जाते हैं || २०१० ॥ रत्नत्रय - कुठारेण, छित्वा संसार-काननम् । भवन्ति सहसा सिद्धा, नृ-सुरासुर वन्दिताः ॥२०११ ॥ अर्थ- वे आराधक क्षपक मुनिराज रत्नत्रय रूपी कुठार द्वारा संसार रूपी वन को काट कर मनुष्यों, देवेन्द्र और असुरों से वन्दित होते हुए शीघ्र ही सिद्ध हो जाते हैं || २०११ ॥ आराध्याराधनामेवमुत्कृष्टां धूत - कल्मषाः । भूत्वा केवलिनः सिद्धाः सन्ति लोकाग्र-वासिनः ।। २०१२ | अर्थ - इस प्रकार उत्कृष्ट आराधना द्वारा कर्मों को नष्ट कर वे आराधक क्षपक मुनिराज केवलज्ञानी होकर लोकाग्रवासी सिद्ध परमेष्ठी हो जाते हैं | २०१२ ॥ मध्यम आराधना का फल अवशेषित - कर्माणः, पवित्रागम मातृकाः । काम - कोपादि - हास्यादि - मिथ्यादर्शन-मोचिनः || २०१३ ॥ सुख-दुःख- सहा वृत्त - ज्ञान दर्शन- संस्थिताः । संवृत्ताः ससमाधाना, शुभध्यान-परायणाः ||२०१४ ॥ विधायाराधना देवी, मध्यमां मुक्त - विग्रहाः । शुद्ध - लेश्यान्विता देवाः, सन्त्यनुत्तर - वासिनः || २०१५ ।। अर्थ - किन्तु जिनके कर्म अभी शेष हैं और जो आगम श्रद्धालु अर्थात् शुद्ध सम्यग्दृष्टि हैं वे क्षपक मुनिराज मिथ्यात्व को नष्ट करके, क्रोधादि कषायों का और हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा और काम अर्थात् तीनों वेदों का मथन करके, अष्ट-प्रवचन मातृका अर्थात् पाँच समिति तथा तीन गुप्तियों द्वारा भली प्रकार संवर करके, सुख-दुख में समता रखते हुए सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र में स्थित रहते हैं। संवृत्त Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ५५३ और समाधान बुद्धि युक्त एवं शुभध्यान अर्थात् धर्मध्यान तथा शुक्लध्यान में संलग्न, मध्यम आराधना देवी के आराधक वे मुनिराज शरीर छोड़कर अनुत्तर विमानवासी देव हो जाते हैं ।।२०१३-२०१४-२०१५ ॥ प्रश्न - अनुत्तर विमानों के नाम, वहाँ के जीवों की संज्ञा, अवगाहना एवं आयु आदि क्या है और वहाँ पर कौन उत्पन्न होते हैं ? उत्तर - विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित और सर्वार्थसिद्धि नाम वाले अनुत्तर विमान पाँच हैं। इनमें शुक्ल लेश्याधारी और एक हाथ की अवगाहना वाले अहमिन्द्रों का निवास है। ये नियमतः सम्यग्दृष्टि ही होते हैं। सर्वार्थसिद्धिवासी अहमिन्द्रों की जघन्योत्कृष्ट आयु तैंतीस सागर प्रमाण होती है तथा विजयादि चार विमानवासियों की जघन्य आयु बत्तीस सागर और उत्कृष्ट आयु तैंतीस सागर प्रमाण होती है। सर्वार्थसिद्धि वाले एक भवावतारी होते हैं और विजयादि विमानवासी अधिक-से-अधिक दो भव लेते हैं। इस प्रकार शुक्ल लेश्या के साथ मध्यम आराधना करने वाले क्षपक मुनि पाँच अनुत्तर विमानों में उत्पन्न होकर दिव्य सुखों का अनुभव करते हैं। सुखं साप्सरसो देवाः, कल्पगा निर्विशन्ति यत् । ततोऽनन्त-गुणं स्वस्थं, लभन्ते लवसत्तमाः ॥२०१६ ।। अर्थ कल्पवासी देन आनी देवांगनाओं के साथ जो सुख भोगते हैं उससे अनन्तगुणा स्वस्थ सुख लवसत्तमदेव अर्थात् अहमिन्द्र देवों को प्राप्त होता है ।।२०१६ ।। प्रश्न - देवांगनाओं के अभाव में अहमिन्द्रदेव कल्पवासी देवों से अधिक सुखी कैसे हो सकते हैं? उत्तर - सोलह स्वर्गों तक कामेच्छा आग्रत रहती है अतः कल्पवासी देवों के अन्य ऋद्धियों के साथसाथ देवांगनाएँ भी रहती हैं, किन्तु अहमिन्द्रों को देवांगनाओं के अभाव में भी उनसे अनन्तगुणा सुख प्राप्त होता है क्योंकि अहमिन्द्रों की कामेच्छा जाग्रत नहीं रहती और विषयों की चाहरूपी दाह भी अल्प होती है अतः वे स्वयं में तृप्त, स्वस्थ और सुखी रहते हैं। विशुद्ध-दर्शन-ज्ञानाः, सयथाख्यात-संयमाः। शश्वन्निर्मल-लेश्याका, वर्धमान-तपो-गुणाः ॥२०१७॥ अदीन-मनसो मुक्त्वा , कचारमिव विग्रहम् । देवेन्द्र-चरम-स्थानं, प्रपद्यन्ते बुधार्चिताः ॥२०१८॥ अर्थ - जो क्षपक विशुद्ध ज्ञान, दर्शन एवं (उपशान्त कषाय सम्बन्धी) यथाख्यात चारित्र में लीन रहते हैं, सदा निर्मल अर्थात् शुक्ललेश्या को धारण करने वाले हैं, वर्धमान तप गुणों से संयुक्त हैं एवं बुद्धिमानों द्वारा पूज्य हैं वे श्रेष्ठ आराधक क्षपक दीन भावों से रहित होते हुए कचरे के समान शरीर को छोड़ कर देवेन्द्र के चरम पद को अर्थात् सोलहवें स्वर्ग के देवेन्द्र पद को प्राप्त कर लेते हैं॥२०१७-२०१८ ॥ वर्य-रत्नत्रयोद्योगाः, कषायाराति-मर्दिनः । सन्ति लौकान्तिका देवा, देहोद्योतित-पुष्कराः ॥२०१९॥ Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ५५४ अर्थ - जो क्षपक उत्तम रत्नत्रय के लिए महान् उद्योग करते हैं एवं कषाय रूपी शत्रुओं का मर्दन कर देते हैं वे मुनिराज अपने शरीर की विपुल कान्ति से स्वर्ग को व्याप्त कर देने वाले लौकान्तिक देव होते ऋद्धयः सन्ति या लोके, यानीन्द्रिय-सुखानि च । क्षपकास्तानि लप्स्यन्ते, सर्वाण्येव्यत्यनेहसि ॥२०२०॥ अर्थ - इस संसार में जितनी ऋद्धियाँ हैं एवं जितने भी इन्द्रियसुख हैं उन सबको भद्र परिणामी क्षपक मुनि आगामी काल में प्राप्त कर लेगा ।।२०२० ॥ जघन्य-आराधना का फल जघन्याराधनां देवीं, तेजो-लेश्या-परायणाः। आराध्य क्षपका: सन्ति, सौधर्मादिषु नाकिनः ॥२०२१ ।। अर्थ - (मध्यम आराधना करने वाले क्षपक की शुक्ल या पद्म लेश्या होती है।) पीतलेश्या वाले क्षपक मुनि जयन्य रूप से आराधना देवी की आराधना करके सौधर्मादि स्वर्गों में देव होते हैं; भवनत्रिक में जन्म नहीं लेते ॥२०२१॥ बहुनान किमुक्तेन, यत्सारं भुवनत्रये। आराध्याराधनां देवीं, लभन्ते सन्मनीषिणः ॥२०२२।। अर्थ - बहुत अधिक कहने से क्या लाभ ? तीन लोक में जो-जो सारभूत पदार्थ हैं एवं सुख हैं, बुद्धिमान क्षपक मुनि उन सबको आराधना देवी की आराधना करके ही प्राप्त कर लेते हैं ।।२०२२ ।। भुक्त्वा भोगं च्युताः सन्तो भूत्वा भुवि नरोत्तमाः । विहाय महतीं भूति, भूत्वा सिध्यन्ति साधवाः ।।२०२३ ॥ अर्थ - संस्तरारूढ़ आराधक क्षपक स्वर्ग जाते हैं, वहाँ के दिव्य भोग भोग कर स्वर्ग से च्युत हो मनुष्यों में भी उत्तम अर्थात् चक्रवर्ती, बलभद्रादि हो यहाँ भी समस्त ऐश्वर्य प्राप्त करते हैं, पश्चात् उसे भी त्याग कर जिनदीक्षा ग्रहण कर चारों आराधनाओं की आराधना करते हुए मोक्ष चले जाते हैं ।।२०२३॥ धृति-स्मृति-मति-श्रद्धा-वीर्य-संवेग-भागिनः । परीषहोपसर्गाणां, जेतारो विजितेन्द्रियाः ।।२०२४ ।। सयथाख्यातचारित्राः, पवित्र-ज्ञान-दर्शनाः। विशोध्य मलिनां लेश्यां, शुद्ध-ध्यान-विवर्धिनः ॥२०२५ ।। शुक्ललेश्याङ्गनाश्लिष्टा, ध्वस्त-नि:शेष-कल्मषाः । भवन्ति सहसा सिद्धा, भुवनोत्तम-वन्दिताः ।।२०२६ ॥ अर्थ - धृति, स्मृति, बुद्धि, श्रद्धा, शक्ति एवं संवेग गुणों से सम्पन्न, उपसर्ग और परीषहों के विजेता, Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ५५५ यथाख्यात चारित्रधारी, पवित्र सम्यग्दर्शन एवं सम्यग्ज्ञान से युक्त, अशुभ लेश्याओं के शोधक, विशुद्ध ध्यान को वृद्धिंगत करने वाले तथा शुक्ल लेश्या रूपो स्त्री से आलिागत क्षपक मुनिराज सम्पूर्ण कर्मों को नष्ट कर शीघ्र ही तीन लोक में उत्तम और तीन लोक से वंदित सिद्ध परमेष्ठी बन जाते हैं अर्थात् मोक्ष चले जाते हैं ।।२०२४, २०२५, २०२६ ।। इस प्रकार प्रशस्त एवं शुभ लेश्या पूर्वक समाधि करने का महान् और श्रेष्ठ फल प्रदर्शित किया। अर्थात् शुभ लेश्याधारी चार आराधनाओं की आराधना करने वाले क्षपक स्वर्ग या मोक्ष जाते हैं, इस उत्तम फल की प्राप्ति का उपाय कहा गया है। आराधना की विराधना का फल इत्थं संस्तरमापन्ना, रौद्रार्त-वशवर्तिनः। रत्नत्रयं विशोध्यापि, भूयो भ्रश्यन्ति केचनः ॥२०२७ ।। आर्तरौद्र-परः साधुर्यो, मुञ्चन्ति कलेवरम्। एतां दुःखप्रदामेष, देव-दुर्गतिमृच्छति ।।२०२८ ।। अर्थ - इस प्रकार संस्तर पर आरूढ़ होकर और रत्नत्रय को निर्मल करके भी कोई-कोई क्षपक कर्मों की गुरुता या वशवर्तिता से आर्तरौद्र ध्यान पूर्वक रत्नत्रय रूप आराधना से भ्रष्ट हो जाते हैं और जो साधु आर्त - रौद्र ध्यान पूर्वक अपना शरीर छोड़ते हैं वे उन खोटे ध्यानों के कारण दुखदायी देवदुर्गति को प्राप्त होते हैं अर्थात् सुदेवत्व प्राप्त नहीं कर पाते ।।२०२७-२०२८ ॥ चिराभ्यस्त-चरित्रोऽपि, कषायाक्ष-वशीकृतः। मृत्युकाले ततः सद्यो, यदि भ्रश्यति संयतः॥२०२९ ।। अवसन्नो यथाछन्दो, य: पार्श्वस्थः कुशीलकः । संसक्तश्च तदा किं न, स भ्रश्यति कुमानसः ॥२०३० ।। अर्थ - जिसने चिरकाल तक उनम चारित्र-पालन का अभ्यास किया है ऐसा संयत क्षपक भी जब मृत्युकाल में भूख-प्यास आदि वेदना के कारण कषायों एवं इन्द्रियों के आधीन हो कर शीघ्र ही चारित्र तथा समाधि से भ्रष्ट हो जाता है तब जो नित्य ही अबसन्न, यथाछन्द, पार्श्वस्थ, कुशील और संसक्त इन भ्रष्ट साधुओं में से कोई है, वह क्या समाधि से च्युत नहीं होगा? अवश्य होगा ।।२०२९, २०३० ।। देवदुर्गति प्राप्त करने वाले अवसन्नादि साधुओं का स्वरूप अशुद्ध-मनसो वश्या:, कषायेन्द्रिय-विद्विषाम् । पूज्यात्यासना-शीला, नीचा माया-निदानिनः ॥२०३१ ।। धर्मकार्य-पराधीना:, पाप-सूत्र-परायणा:। सङ्घ-कृत्ये ममानेन, किं कृत्यमिति वादिनः ।।२०३२ ॥ Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरयाण्डिका - २५६ सर्व-व्रतातिचारस्थाः, सुखास्वादन-लालसाः। अनाराधित-चारित्राः, पर-चिन्ता-कृतोद्यमः ।।२०३३ ॥ इहलोक-क्रियोयुक्ताः, परलोक-क्रियालसाः। मोहिन: शबलाः क्षुद्राः, संक्निष्टा दीन-वृत्तयः ॥२०३४ ।। आलोचनामनाधाय, ये म्रियन्ते कुबुद्धयः। त्रिदिवे निन्दिताचारा, दुर्भगाः सन्ति ते सुराः॥२०३५ ।। अर्थ - जो अशुद्ध मन वाले होते हैं, कषाय और इन्द्रियरूपी शत्रुओं के वशीभूत रहते हैं, पूज्य पुरुषों की अर्थात् तीर्थंकर गणधर, घोर तपस्वी एवं आचार्य आदि की आसादना करने के स्वभाव वाले हैं, नीच हैं, मायाचार करने में तत्पर रहते हैं, प्रत्येक धर्मकार्य पराधीन होकर करते हैं, अर्थात् षड़ावश्यक क्रियाएँ विनय एवं वैयावृत्त्यादि आचार्यादि के भय से करते हैं, स्वयं की रुचि से नहीं करते, पापसूत्रपरायण होते हैं अर्थात् वैद्यकशास्त्र, काव्य, नाटक, चोर-विद्या एवं कामशास्त्र आदि के पढ़ने-पढ़ाने में चतुर होते हैं, संघ में वैयावृत्त्यादि का कोई कार्य उपस्थित हो जाने पर यही उत्तर देते हैं कि मुझे इससे क्या प्रयोजन है, मैं इसमें कुछ भी सहयोग नहीं करूँगा इत्यादि, महाव्रतादि अट्ठाईस मूलगुणों में भी अतिचार लगाते हैं, सुखिया स्वभावी होने से सुखद शय्या तथा स्वादु भोजन में लम्पटी होते हैं, संलग्नतापूर्वक चारित्र की आराधना नहीं करते अपितु गृहस्थादि की चिन्ता में संलग्न रहते हैं, इस लोक संबंधी अर्थात् लोकरंजना, देश, राज्य, पंचायत, गृहस्थ एवं देह सम्बन्धी क्रियाओं में तो तत्पर रहते हैं किन्तु परलोक सम्बन्धी निर्दोष व्रतपालन तथा समीचीन ज्ञानवृद्धिजन्य कार्यों में प्रमादी होते हैं, मोही, शिथिलाचारी, क्षुद्र, संक्लिष्ट परिणामी और याचकों के सदृश दीनवृत्ति वाले होते हैं। कुबुद्धिशाली ऐसे भ्रष्ट मुनि अपने दोषों की आलोचना किये बिना ही मरण कर स्वर्ग में दासकर्म और वाहनादि नीच कार्य करने वाले एवं अप्रिय अर्थात् दुर्भगदेव होते हैं।।२०३१ से २०३५ पर्यन्त ॥ प्रश्न - अवसन्न मुनियों का क्या स्वरूप है? उत्तर - जैसे कीचड़ में फंसे हुए और मार्गभ्रष्ट को द्रव्यावसन्न कहते हैं, वैसे ही जिसका चारित्र अशुद्ध होता है उसे भावासन्न कहते हैं। ऐसे साधु उपकरण अर्थात् पीछी-कमण्डलु आदि में और वसतिका में आसक्ति रखते हैं, संसार शोधने में, विहार करने की भूमि के शोधन में, स्वाध्याय में, गोचरी की शुद्धता में, ईर्या आदि समितियों की शुद्धि में, स्वाध्याय काल का ध्यान रखने में एवं स्वाध्याय-समाप्तिकाल का ध्यान रखने में प्रमादी रहते हैं; छह आवश्यकों में आलस्य करते हैं। इन्हें अवसन्न मुनि अन्य मुनिराजों की अपेक्षा अधिक करते हैं, किन्तु मन से नहीं करते, वचन और काय से ही करते हैं। प्रश्न - यथाछन्द साधु का क्या स्वरूप है? उत्तर - जो बात या जो क्रिया आगम में नहीं कही गई है उसे जो साधु अपनी इच्छानुसार कहते हैं या उसका प्रवर्तन करते-कराते हैं उन्हें यथाछन्द कहते हैं। इनका प्रतिपादन एवं क्रिया उत्सूत्री ही होती है। जैसे वर्षाकाल में जल धारण करना एवं वृक्ष के नीचे बैठकर ध्यान करना असंयम है, छुरा तथा कैंची आदि से केश काटने की प्रशंसा करते हुए यह कहना कि केशलोंच करने से आत्म-विराधना होती है, पृथ्वी पर सोने से तृणों Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ५५७ में रहने वाले जीवों को बाधा होती है, सचित्त तृणपुंज पर बैठने से भी भूमिशय्या मूलगुण का पालन हो जाता है, उद्दिष्ट भोजन में कोई दोष नहीं है क्योंकि भिक्षा हेतु पूरे ग्राम में भ्रमण करने से जीव निकायों की महती विराधना होती है, गृहस्थों के घर के पात्रों में भोजन करने में कोई दोष नहीं है क्योंकि कर-पात्र में आहार करने वाले को परिशातन दोष लगता है तथा आजकल आगमानुसार आचरण करने वाले साधु हैं ही नहीं, इत्यादि । इसी प्रकार की अन्य भी आगमविरुद्ध विसंगतियों का प्रचार-प्रसार करने वाले साधु यथाछन्द अर्थात् स्वच्छन्द कहे जाते हैं। इनसे जिनागम का अत्यधिक विलोप होता है और निर्दोष मोक्षमार्ग अत्यन्त दूषित हो जाता है। पत्थर की नाव के सदृश आगमविरोधी ऐसे साधु स्वयं संसार समुद्र में डूबते हैं और अन्य को भी डुबोते हैं। प्रश्न - पार्श्वस्थ साधुओं का क्या स्वरूप है ? उत्तर - जैसे कोई पथिक मार्ग को देखते हुए भी उस मार्ग से न जाकर उसी के समीपवर्ती अन्य मार्ग से जाता है तो उसे मार्ग पार्श्वस्थ कहते हैं, वैसे ही जो संयम का निरतिचार मार्ग जानते हुए भी उसमें प्रवृत्ति नहीं करते किन्तु संयम के पार्श्ववर्ती मार्ग पर चलते हैं; ये मुनि न तो एकान्त से असंयमी होते हैं और न निरतिचार संयमी होते हैं अत: इन्हें पार्श्वस्थ कहते हैं। ये शय्याधरों के यहाँ नित्य ही आहार ग्रहण करते हैं। प्रश्न - शय्याधर किसे कहते हैं ? उत्तर - वसतिका बनाने वाले, वसतिका का जीर्णोद्धार कराने वाले और 'आप यहाँ ठहरों' ऐसा कह कर वसतिका दान देने वाले, इन तीनों को शय्याधर कहते हैं। आगम में शय्याधरों के यहाँ आहार करने का निषेध है। जो आहार करने के पहले या आहार करने के बाद दाता की स्तुति या प्रशंसा करते हैं, उत्पादन एवं एषणा दोषों से दूषित आहार करते हैं, नित्य एक ही वसतिका में रहते हैं, एक ही क्षेत्र में रहते हैं, एक ही संस्तर पर सोते हैं, गृहस्थों के घरों में जाकर बैठ जाते हैं, गृहस्थों के उपकरणों का उपयोग करते हैं, प्रतिलेखना किए बिना ही वस्तु को ग्रहण कर लेते हैं, या दुष्टतापूर्वक प्रतिलेखना करते हैं, सुई, कैंची, नाखून-कतरनी, छुरी, कान का मैल निकालने की सींक या साधन आदि सामग्रियों पास में रखते हैं, क्षारचूर्ण, सुरमा, नमक, घी एवं नाना प्रकार के तेल आदि बिना कारण ग्रहण करते हैं या अपने पास रखते हैं वे पार्श्वस्थ साधु हैं। जो इच्छानुसार लम्बा-चौड़ा संस्तरा बिछाते हैं और रात्रि भर मनमाना सोते हैं वे उपकरण-वकुश साधु हैं, जो दिन में सोते हैं वे देह-वकुश हैं, ये दोनों भी पार्श्वस्थ हैं। जो बिना कारण पैरादि धोते हैं, तेल-मर्दन करते हैं, वस्त्रों को धोते हैं झटकते हैं, सुखाते हैं एवं रंगवाते हैं, गण के माध्यम से उपजीविका करते हैं, तीन अथवा पाँच मुनियों की ही सेवा में तत्पर रहते हैं वे सब पार्श्वस्थ साधु हैं और जो अपनी सुखशीलता के कारण बिना प्रयोजन अयोग्य का सेवन करते रहते हैं वे साधु तो सर्वथा पार्श्वस्थ ही होते हैं। प्रश्न - कुशील मुनि का क्या स्वरूप है ? और वे कितने प्रकार के हैं ? उत्तर - जिनका खोटा आचरण लोक-प्रसिद्ध हो जाता है, उन्हें कुशील मुनि कहते हैं। ये अनेक प्रकार के होते हैं, यथा-कौतुक कुशील, भूतिकर्म कुशील, प्रसेनिका कुशील, अप्रसेनिका कुशील, निमित्त कुशील, आजीव कुशील, कक्व कुशील, कुहन कुशील, सम्पूर्छन कुशील, प्रतापन कुशीन और सामान्य कुशील आदि। ---- Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ५५८ १. कौतुक कुशील - जो औषधि, विलेपन एवं विद्या के प्रयोगों द्वारा राजद्वार में कौतुक दिखाकर लोकप्रियता सम्पादित करते हैं, उन्हें कौतुक कुशील कहते हैं। २. भूतिकर्म कुशील - यहाँ भूति शब्द उपलक्षण है। अभिमंत्रित किये हुए धूल, श्वेत सरसों, पुष्प, फल एवं जल आदि के द्वारा किसी का रक्षण करने वाले को या किसी को वशमें करने वाले को भूतिकर्म कुशील कहते हैं। ३. प्रसेनिका कुशील - जो अंगुष्ठ प्रसेनिका, अक्षर प्रसेनिका, शशि प्रसेनिका, सूर्य प्रसेनिका एवं स्वप्न प्रसेनिका आदि विद्याओं के द्वारा मनुष्यों का मनोरंजन करते हैं, वे प्रसेनिका कुशील हैं। ४. अप्रसेनिका कुशील - जो विद्या, मन्त्र एवं औषध प्रयोग द्वारा असंयमी जनों की चिकित्सा करते हैं वे अप्रसेनिका कुशील हैं। ५. निमित्त कुशील - जो अष्टांग निमित्तों को जान कर लोगों को इष्टानिष्ट बताते हैं, वे निमित्त कुशील ६. आजीव कुशील - जो अपने कुल एवं जाति आदि को प्रकाशित करके भिक्षादि प्राप्त करते हैं, वे आजीव कुशील हैं अथवा जो किसी के द्वारा उपद्रव होने पर दूसरों की शरण ग्रहण करते हैं अथवा अनाथालय आदि में जाकर अपनी चिकित्सा कराते हैं, वे भी आजीव कुशील हैं। ७. कक्व कुशील - जो विद्याप्रयोग आदि के द्वारा दूसरों का द्रव्यादि हरण करने में एवं दम्भ-प्रदर्शन में तत्पर रहते हैं वे कक्व कुशील हैं। ८, कुहन कुशील - जो इन्द्रजालादि के द्वारा लोगों को आश्चर्य उत्पन्न करते हैं वे कुहन कुशील साधु हैं। ९. सम्मूर्छन कुशील - जो वृक्ष, झाड़ी, पुष्प और फलों को तत्काल उत्पन्न करके बता देते हैं एवं गर्भ स्थापना करवाते हैं वे सम्मूर्छन कुशील हैं। १०. प्रतापन कुशील - जो बस जाति के कीट आदि का, वृक्षों आदि का, पुष्प एवं फलादि का तथा गर्भ का विनाश करवाते हैं और शाप देते हैं, अन्य भी हिंसा आदि के काम करते हैं वे प्रतापन कुशील साधु हैं। ११. अन्य सामान्य कुशील - जो क्षेत्र, स्वर्ण. चौपाये आदि परिग्रह स्वीकार करते हैं; कन्द एवं हरे फल खाते हैं; कृत, कारित, अनुमोदना से युक्त आहार, उपधि तथा वसतिका का सेवन करते हैं; स्त्रीकथा में लीन रहते हैं, मैथुन सेवन करते हैं, आस्रव के अधिकरणों में सदा लगे रहते हैं, धृष्ट हैं, प्रमादी है और विकारयक्त चेष्टा करते हैं वे सब कशील है। प्रश्न - संसक्त साधुओं का क्या स्वरूप है ? उत्तर - जो पंचेन्द्रियों के विषयों में आसक्त रहते हैं, द्धि-गारव, सात गारव और रस गारव में लीन रहते हैं, स्त्रियों के प्रति रागरूप परिणाम रखते हैं, गृहस्थों के प्रेमी होते हैं तथा चात्रप्रेमी साधुओं के साथ Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I די मरणकण्डिका - ५५९ चारित्रप्रेमी और चारित्र से प्रीति न रखने वालों के साथ चारित्र अप्रेमी, इस प्रकार जो नट के सदृश अनेक रूप धारण करते हैं वे संसक्त मुनि होते हैं। ये मुनि पार्श्वस्थ के संसर्ग से पार्श्वस्थ, कुशील के संसर्ग से कुशील और स्वच्छन्द के संसर्ग से स्वयं भी स्वच्छन्द हो जाते हैं। क्षपक साधुओं का मरणसमय सन्मार्ग से च्युत होने का कारण सङ्घ - कृत्ये निरुत्साहाः, किमनेन ममेति ये । ते भवन्ति शुरुलेच्छा, वाह-वादि दिवौकसाम् ।। २०३६ ।। अर्थ - सुखिया स्वभाव आदि के कारण जो साधु संघ के कार्यों में निरुत्साही रहते हुए कहते हैं कि संघस्थ साधुओं की वैयावृत्त्य आदि से तथा अन्य भी कार्यों से मुझे क्या प्रयोजन है ? मैं कुछ भी कार्य नहीं करूँगा, इत्यादि। सन्मार्ग से च्युत होते हुए ऐसे साधु मरण कर स्वर्ग तो जाते हैं किन्तु वहाँ देवसभा में वाद्य बजाने वाले एवं गीत गाने वाले होते हैं || २०३६ ॥ इस श्लोक का तात्पर्य अर्थ क्या है ? प्रश्न उत्तर - इसका तात्पर्य अर्थ यह है कि जो मुनि यहाँ संघ के कार्यों से दूर रहते हैं तथा वैयावृत्त्य आदि का अवसर उपस्थित होने पर मुख छिपाते फिरते हैं कि यह कार्य मुझे न करना पड़े। 'मुझे इससे क्या ऐसा मान कर जो संघ के सभी कार्यों में अनादरभाव रखते हैं, वे मुनि मरण कर स्वर्ग में नीच चाण्डाल जैसे देवों उत्पन्न होते हैं अर्थात् सौधर्मादि कल्पों के अन्त में बसने वाले चाण्डाल जाति के देव होते हैं, ये जैसे मुनिपर्याय में वैयावृत्त्यादि कार्यों से दूर रहते थे उसी के फलस्वरूप यहाँ देवसभा से दूर रहते हैं, इन्हें सभा में प्रवेश नहीं मिलता । - कन्दर्पभावना' - शीलाः, कन्दर्पाः सन्ति नाकिनः । निन्द्या: किल्विषिकाः सन्ति, मृताः किल्विष - भावनाः ॥। २०३७ ॥ अभियोग्य क्रियासक्ता, आभियोग्याः सुरा मृताः । आसुरी- -भावनाः कृत्वा, मृत्वा सन्त्यसुराः पुनः ।।२०३८ ॥ सम्मोह - भावनोद्युक्ताः, सम्मोहास्त्रिदशा मृताः । विराधकैः पराप्येवं प्राप्यते देव - दुर्गति: ।। २०३९ ।। भावना अर्थ - कन्दर्प भावना स्वभाव वाले क्षपक मरण कर स्वर्ग में कन्दर्प जाति के देव होते हैं। किल्विष से युक्त क्षपक मरण कर किल्विषिक जाति के निन्दनीय देव होते हैं। जो क्षपक या साधु अभियोग्य अर्थात् दास क्रियाओं में लगे रहते हैं वे मरण कर आभियोग्य जाति के देव होते हैं तथा आसुरी भावना में तत्पर रहने वाले भ्रष्ट साधु मरण कर असुरकुमार जाति के देव होते हैं। सम्मोहन भावना में संलम रहने वाले साधुजन मरण कर सम्मोह अर्थात् दुदुगजाति के देव होते हैं। ( कामविकार के आधिक्य से ये देव देवियों के साथ सदैव कामसेवन करते रहते हैं ।) मरण काल में रत्नत्रय की एवं चारों आराधनाओं की विराधना करने वाले साधु इसी प्रकार की अन्य भी देवदुर्गति को अर्थात् हीन देवपर्याय को प्राप्त होते हैं ।। २०३७, २०३८, २०३९ ॥ १. कन्दप आदि भावनाओं के लक्षण भक्तप्रत्याख्यानमरण के भावना नामक दसवें अधिकार में श्लोक ९८८ से हैं। वहाँ द्रष्टव्य हैं। Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ५६० इत्थं विराध्य ये जीवा, म्रियन्ते संयमादिकम्। तेषां बालमृतिस्तस्याः , फलं पूर्वत्र' वर्णितम् ।।२०४० ।। अर्थ - इस प्रकार संयम या रत्नत्रय या समाधि आदि की विराधना करके जो जीव मरते हैं, उनका वह मरण बालमरण कहलाता है, उस बालमरण का फल पूर्व में बता दिया गया है ।।२०४०।। विराध्य ये विपद्यन्ते, सम्यक्त्वं नष्ट-बुद्धयः । ज्योतिर्भावन-भौमेषु, ते जायन्ते वितेजसः ॥२०४१॥ अर्थ - जो नष्टबुद्धि सम्यक्त्व की विराधना करके मरण करते हैं, वे भवनवासी, व्यन्तर या ज्योतिषियों में भी हीन जाति के देव होते हैं ।।२०४१॥ दर्शन-ज्ञान-हीनास्ते, प्रच्युता देव-लोकतः।। संसार-सागरे घोरे, बंभ्रमन्ति निरन्तरम् ॥२०४२ ।। अर्थ - सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान से रहित वे जीव देवलोक से च्युत होकर घोर संसार सागर में चिरकाल तक परिभ्रमण करते हैं।।२०४२ ।। ये मृता मुक्त-सम्यक्त्वाः , कृष्णलेश्यादि-भाविताः। तथा लेश्या भवाम्भोधी, ते भ्रमन्ति दुरुत्तरे ।।२०४३ ॥ अर्थ - जिनका अन्त:करण कृष्ण, नील या कापोत लेश्या से भावित है और जो सम्यक्त्वरूपी रत्न को छोड़ चुके हैं वे साधु मरण कर उसी प्रकार की लेश्या से युक्त हो संसार रूपी भयंकर समुद्र में चिरकाल तक परिभ्रमण करते रहते हैं।२०४३ ।। निवेशयन्ती भुवनाधिपत्ये, मनीषितं कामदुधेव धेनुः । आराधिता किं न ददाति पुंसामाराधना सिद्धि-वधू-वयस्या ।।२०४४ ॥ इति फलम्। अर्थ - सम्यग्दर्शन आदि चार प्रकार की आराधना के आराधक मुनियों को यह आराधनादेवी तीन लोक के स्वामित्व में स्थापित करती है। समीचीन रीत्या आराधित यह आराधना मनोवांछित फल प्रदान करने के लिए कामदुधा धेनु/गाय है। सिद्धि रूपी वधू की सखी यह आराधना मनुष्य को क्या फल नहीं देती ? अर्थात् अभ्युदय एवं निःश्रेयस सभी सुखों को देती है।।२०४४ ।। इस प्रकार आराधनाफल नाम का अधिकार पूर्ण हुआ ॥३९॥ १. बालबालमरण नामक दूसरे अधिकार में श्लोक ५.८ से। Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ५६१ ४०. आराधक त्याग नामक अन्तिम अधिकार प्रारम्भ मृतकशरीर के विसर्जन की व्यवस्था एवं कालगतस्यास्य, बहिरन्त-निवासिनः । त्यजन्ति चलती गात्रं, यावृत्व-करा: स्वयम् ।।२०४५।। अर्थ - इस प्रकार नगर आदि के बाहर या भीतर निवास करने वाले क्षपक का मरण हो जाने पर उसके शरीर को वैयावृत्य करने वाले परिचारक मुनि स्वयं ही सावधानी पूर्वक यथास्थान ले जाकर छोड़ देते हैं ।।२०४५ ।। प्रश्न - क्षपक का शव ले जाने वाले साधु कैसे होते हैं ? उत्तर - जो मुनिराज शारीरिक सामर्थ्य से सहित, धैर्यशाली एवं निर्भय हों तथा जिन्होंने अनेक बार सल्लेखना विधि देखी हो या कराई हो ऐसे मुनिगण क्षपक के मृत शरीर को ले जाकर किसी उचित और प्रासुक भूमि पर छोड़ आते हैं। शव को स्वयं विसर्जित करने का और अन्तिम विधि में प्रयत्नशील रहने का कारण साधूनां स्थितिकल्पोऽयं, वर्षासु ऋतु-बन्धयोः। समस्तैः साधुभिर्यत्नाद्यनिरूप्या निषधका ।।२०४६ ।। अर्थ - यह साधुओं का स्थितिकल्प है कि वर्षायोग के प्रारम्भ और अन्त में तथा ऋतु के प्रारम्भ में सर्व साधुओं को प्रयत्न पूर्वक निषद्या का प्रतिलेखन एवं दर्शन करना चाहिए ।।२०४६॥ प्रश्न - निषद्या किसे कहते हैं, स्थितिकल्प कौन-कौन से हैं और अपने शरीर में भी निरीहवृत्ति धारण करने वाले मुमुक्षु साधुगण स्वयं मृतक शरीर को ले जाने का पुरुषार्थ क्यों करते हैं ? उत्तर - जिस स्थान पर क्षपक के शरीर का विसर्जन किया जाता है उस स्थल को निषद्या कहते हैं। मरणकण्डिका के पाँचवें सुस्थितादि अधिकार के श्लोक ४३६ से ४३८ में दश स्थितिकल्प कहे गये हैं। यथा - अचेलकल्व', उद्दिष्ट शय्यात्याग, उद्दिष्ट आहार त्याग, राजपिण्ड त्याग, कृतिकर्म" प्रवृत्त, वृतारोपण अर्हत्व, जेष्ठत्व', प्रतिक्रम, मासैक वासिता और पर्या । यहाँ इन सब के लक्षण भी लिख्खे हुए हैं। मूलाराधना गाथा १९६७ में 'मासेव वासिता' पद के स्थान पर 'वासावासे एवं उडुबंधे पद आया है। पं. आशाधर जी ने अपनी टीका में 'वासावासे' पद का अर्थ किया है कि - वर्षासु चतुर्मास्यामेकत्र । वासे प्रतिपद्यमाने चातुर्मासिकयोगप्रारम्भ इत्यर्थः। उडुबंधे ऋतु-प्रारम्भे, पडिलिहिदब्बा यदि विशेषः। 'उक्तं च' श्लोक में भी इसी की पुष्टि की गई है कि - श्रवणानगं स्थिति कल्पो, मासे मासे तथर्तुबन्धे वा। प्रतिलेख्यैषा नियतं, निष्यका सर्व-संयमिभिः ।। अर्थात् वर्षायोग स्थापन के प्रारम्भ में और ऋतु के प्रारम्भ में सर्व साधुओं को नियमत: निषद्या का प्रतिलेखन एवं दर्शन करना चाहिए। इस प्रकार निषद्यादर्शन साधुओं का आवश्यक कर्तव्य बन गया। इसी कारण मुमुक्षु साधुगण शव को स्वयं स्थापित कर निषद्या-निर्माण के लिए प्रयत्न करते हैं। Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका ५६२ निषेधा का लक्षण निषद्या नातिदूरस्था, विविक्ता प्रासुका घना । कर्तव्यास्ति परागम्या, बाल-वृद्ध गणोचिता ॥। २०४७ ॥ अर्थ - निषद्या नगर आदि से न अति दूर हो और न अति निकट हो, जन- कोलाहल से दूर अर्थात् एकान्त में हो, प्रासुक हो, ठोस भूमि पर हो, मिथ्यादृष्टि जीवों के अगम्य हो एवं बाल-वृद्ध साधु समुदाय वहाँ तक सरलता से पहुँच सके, ऐसे स्थान पर हो । २०४७ ॥ निषद्या की दिशा वसतेऋते भागे, दक्षिणे पश्चिमेऽपि वा । निषद्यका स्थिता या सा, प्रशस्ता परिकीर्तिता ॥ २०४८ ॥ अर्थ - जो निषद्या क्षपक की वसतिका से दक्षिण-पश्चिम के कोण में अर्थात् नैऋत्य दिशा में या दक्षिण दिशा में या पश्चिम दिशा में स्थित हो वह प्रशस्त कही गई है || २०४८ || निषद्या का दिशानुसार फल सर्वस्यापि समाधानं, प्रथमायां तथान्यतः । आहारः सुलभोऽन्यस्यां भवेत्सुख - बिहारिता || २०४९ ।। अर्थ - जहाँ क्षपक की समाधि हुई है उस वसतिका से निषद्या स्थल यदि नैऋत्य दिशा में हो तो सर्वसंघ को समाधि का लाभ होता है। यदि निषद्या दक्षिण दिशा में हो तो संघ को आहार का लाभ सुलभ होता है और यदि निषद्या पश्चिम दिशा में होगी तो संघ का विहार सुखपूर्वक होगा तथा उपकरणों का भी लाभ होगा || २०४९ ॥ तदभावेऽनलाशायां, वायव्यायां हरेर्दिशि । निषद्यकोत्तरस्यां वा, मतेशानस्य वा दिशि । २०५० ॥ क्रमेण फलमेतासु, स्पर्धा राटिश्च जायते । भेदश्चापि तथा व्याधिरन्यस्यप्यपकर्षणम् ॥। २०५१ ।। अर्थ - उपर्युक्त दिशाओं में निषद्या बनाने योग्य स्थान प्राप्त न हो और यदि वह निषद्या आग्नेय दिशा में, वायव्य दिशा में, पूर्व दिशा में, उत्तर दिशा में अथवा ईशान दिशा में बना ली जाएगी तो हानि होगी। इसका क्रमानुसार फल यह है कि यदि निषद्या आग्नेय में होगी तो संघ में स्पर्धा उत्पन्न हो जाएगी। अथवा 'मैं ऐसा हूँ' 'तुम ऐसे हो' इत्यादि रूप से संघर्ष बढ़ जाएगा। वायव्य दिशा में होने से कलह होगा, पूर्व दिशा में निषद्या होने से संघ में फूट पड़ जाएगी अर्थात् संघभेद हो जाएगा, उत्तर दिशा में निषद्या होने से व्याधि प्रकोप और ईशान दिशा में निषद्या होने से संघ में परस्पर खींचातानी हो जाएगी ।। २०५० २०५१ ॥ Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ५६३ प्राणान्त हो जाने पर तत्काल करणीय कर्तव्य यदैव नियते काले, त्यजनीयस्तदैव सः । अवेलायां विधातव्या, छेद-बन्धन-जागराः ॥२०५२ ।। अर्थ - जिस समय साधु का मरण हो उसके शव को उसी समय ले जाना चाहिए, यदि मरण अवेला अर्थात् रात्रिआदि में हो तो शव के अंगूठे को छेद देना चाहिए या बाँध देना चाहिए और रात्रि भर जागरण करना चाहिए।।२०५२॥ जागरण करने वाले साधु भीरु-शैक्ष-गणि-ग्लान-बाल-वृद्ध-तपस्विनः । अपाकृत्यापार-धीरा, जितनिद्राः प्रजाग्रति ॥२०५३॥ अर्थ - डरपोक मुनि, शिक्षक मुनि, आचार्य, रोगी मुनि, बाल मुनि, वृद्ध मुनि एवं तपस्वी मुनि शव के समीप जागरण न करें। इनके अतिरिक्त जो साधु अपार धैर्यशाली और निद्रा-विजयी हैं वे ही जागरण करने .. के पात्र हैं ।।२०५३ ॥ बन्धन-छेदन करने वाले साधु कृतकृत्या गृहीता, महाबल-पराक्रमाः। हस्ताङ्गुष्ठादि-देशेषु, बन्धं छेदं च कुर्वते ।।२०५४ ।। अर्थ - जिन्होंने पूर्व में अनेक बार क्षपक की सेवा की है एवं आगम के अर्थ को जो भली प्रकार जानते हैं, महाबलशाली हैं और पराक्रमी हैं, ऐसे साधु मृतक क्षपक के हाथ या पैर के अंगुष्ठ या अंगुली को छेद देते हैं या बाँध देते हैं ।।२०५४।। छेदन एवं बन्धन का कारण विधीयते न यद्येवं, तदा काचन देवता। कलेवरं तदादाय, विधत्ते भीषण-क्रिया॥२०५५॥ अर्थ - यदि यह छेदने या बाँधने की क्रिया न की जाय तो कोई भी मनोविनोदी व्यन्तर आदि देव उस मृतक देह में प्रविष्ट होकर भयंकर चेष्टाएँ कर सकता है।।२०५५॥ प्रश्न - देव शव में प्रविष्ट होकर क्या भयंकर चेष्टाएँ करता है और उन चेष्टाओं से क्या हानि है? उत्तर - शव के शरीर में प्रविष्ट होकर वह देव उस शव को दौड़ा सकता है, क्रीड़ा करा सकता है, आहार-पान की याचना करा सकता है, रुला सकता है, हँसा सकता है तथा बाधा देने वाली अन्य भी अनेक चेष्टाएँ करा सकता है, जिन्हें देखकर कोई भी बालमुनि एवं भीरु स्वभाव वाले मुनि भयभीत होकर भाग सकते हैं, चिल्ला सकते हैं, अस्वस्थ हो सकते हैं एवं मरण को भी प्राप्त हो सकते हैं, जिससे धर्म की तथा संघ की निन्दा होती है, अतः असमय में मरने वाले क्षपक के शरीर में छेदने या बाँधने की क्रिया करना आवश्यक है। Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परणकण्डिका - ५६४ क्षपक के उपचार हेतु लाये हुए उपकरणों की व्यवस्था यस्योपकरणं किञ्चित् कृत्वा याञ्चां यदाहृतम् । कृत्वा सम्बोथनं सर्व, तत्तस्यायं विधानतः॥२०५६ ।। अर्थ - क्षपक की समाधि में साधक कुछ पदार्थ तैयार किए एवं कराये जाते हैं और कुछ मांग कर लाये जाते हैं। समाधि हो जाने के बाद जो-जो पदार्थ जिन-जिन से लाये गये हैं वे उन-उन को यह कहकर कि "ये वस्तुएँ अब संघ में उपयोगी नहीं हैं अतः आप वापिस ले जाइए' स्वयं दे देनी चाहिए ।।२०५६ ।। प्रश्न - इस श्लोक में उपकरणों के प्रति क्या आदेश दिया जा रहा है ? उत्तर - समाधि-साधन में सहयोगी जिन उपकरणों या पदार्थों का संग्रह किया जाता है, उनमें कुछ उपकरण तो वसतिका से सम्बद्ध होते हैं जो वहीं कराये जाते हैं और कुछ गृहस्थ से सम्बद्ध होते हैं जो मांग कर लाये जाते हैं। उनमें से (उपयोग में लाये गये) वस्त्र, चटाई एवं लघुशंका आदि के पात्र तो त्याज्य होते हैं अत: उन्हें फेंक देना चाहिए, किन्तु जो बर्तन आदि गृहस्थ से मांग कर लाये गये थे वे नियमानुसार उन्हें वापिस • कर देने चाहिए। श्लोक में यही आदेश दिया गया है। आर्यिका के शव-विसर्जन की विधि प्रसिद्धो यदि संन्यासे, स्थान-रक्षार्यिका यदि । विपन्ना विधिना कार्या, तदानीं शिविकोत्तमा ॥२०५७ ॥ अर्थ - यदि भक्तप्रत्याख्यान मरण करने वाली विख्यात या स्थान की रक्षिका आर्यिका हो तो उसका शव ले जाने के लिए विधिपूर्वक कार्य करके उत्तम शिविका अर्थात् विमान बनाना चाहिए ।।२०५७ ।। संस्तरेण समं बद्ध्वा, मृतकं विधिना दृढम् । विधायोत्थान-रक्षार्थ, ग्रामस्थ विमुखं शिरः ।।२०५८॥ अर्थ - पश्चात् उस शव को विधिपूर्वक संस्तर सहित शिविका में रखकर दृढ़ बाँधना चाहिए, भूतप्रेतादि के वशीभूत हो यदि शव उठकर भागे तो ग्राम की ओर न जावे, इस उद्देश्य से शव का मस्तक या पीठ ग्राम की ओर और मुख निषद्या स्थान की ओर होना चाहिए ।।२०५८ ।। क्षिप्रमादाय गच्छन्ति, वीक्षितेनाध्वना पुरा । निवर्तनमवस्थानं, त्यक्त्वा पूर्वावलोकनम् ।।२०५९॥ अर्थ - उस शिविका को ले जाते समय पूर्व में देखे हुए मार्ग से शीघ्र जाना चाहिए, न मार्ग में रुकना चाहिए और न पीछे मुड़ कर देखना चाहिए, अपितु आगे का मार्ग देखते हुए ही जाना चाहिए ।।२०५९ ।। पुरो गन्तव्यमेकेन, गृहीत-कुश-मुष्टिना। पूर्वावलोकन-स्थान-निवर्तन-विवर्जिना ॥२०६०॥ अर्थ - उस शव-विमान के आगे एक मुट्ठी में कुश अर्थात् डाभ लेकर किसी एक मनुष्य को पूर्व में Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ५६५ देखे हुए स्थान की ओर चलना चाहिए। उसे भी न तो मार्ग में रुकना चाहिए और न पीछे ही देखना चाहिए ।।२०६० ॥ कृत्यस्तत्र समस्तेन, संस्तर: कुश-धारया। अच्छिन्नया सकृद्देशे, वीक्षिते सम-पातया ॥२०६१॥ अर्थ - कुश लेकर आगे भय हुए. पुरुष को पूर्व निर्धारित निषद्या स्थान पर पहुँच कर मुट्ठी के कुश से लगातार एक समान कुश डालते हुए एक संस्तर बनाना चाहिए जो सर्वत्र सम हो, कहीं नीचा, ऊँचा या टेढ़ा न हो।।२०६१॥ स चूर्णैः केशरैर्वापि, कुशाभावे विधीयते । समानः सर्वतोऽच्छिन्नो, धीमता विधिना सकृत् ।।२०६२ ॥ अर्थ - यदि कुश उपलब्ध न हो सके तो चावल के अथवा मसूर के चूर्ण से या प्रासुक शुद्ध केशर से किसी विशेष बुद्धिमान मनुष्य को विधि के अनुसार छिद्र रहित एवं चारों ओर से सम संस्तर बनाना चाहिए।।२०६२।। शव-स्थापित भूमि और संस्तर की विषमता का फल आदौ मध्येऽवसाने च, विषमो यदि जायते। आचार्यो वृषभः साधुर्मृत्यु रोगमथाश्नुते ॥२०६३॥ अर्थ - यदि शवस्थापित भूमि अथवा संस्तर उपरिम भाग में विषम होगा तो आचार्य का, मध्य भाग में विषम होगा तो किसी श्रेष्ठ मुनि का और यदि नीचे की ओर विषम होगा तो किसी सामान्य साधु का मरण होगा अथवा उन्हें कोई रोग होगा।॥२०६३ ।। चिता पर शव-स्थापन हेतु दिशा निर्धारण ग्रामस्याभिमुखं कृत्वा, शिरस्त्याज्यं कलेवरम् । उत्थान-रक्षणं कर्तुं, मस्तकं क्रियते तथा ॥२०६४ ।। अर्थ - जिस दिशा में ग्राम हो उस ओर शिर या पीठ करके शव को चिता पर स्थापित करना चाहिए। ग्राम की रक्षा हेतु शिर ग्राम की ओर करने का विधान कहा गया है कि यदि किसी कारण से शव उठकर भागे तो ग्राम की ओर न जावे ।।२०६४ ॥ प्रश्न - शव विसर्जन विधि में अन्य कोई विशेषता है? उत्तर - प्राचीन काल में मुनिजन वन में रहते थे, वहाँ सल्लेखना-रत क्षपक मुनि की समाधि हो जाने पर वैयावृत्य करने वाले धैर्य एवं बल के सामर्थ्य से युक्त साधु क्षपक के शव को स्वयं निषद्या पर्यन्त ले जाते थे। निषद्या वसतिका से नैऋत्य में या दक्षिण में या पश्चिम में होती थी। शव का मस्तक या पृष्ठभाग ग्राम की ओर होता था। शव-स्थापित भूमि पर संस्तर होता था। पं. आशाधर जी के कथनानुसार मृतक क्षपक का मस्तक से पैर पर्यन्त माप लेकर केशर या चूर्ण द्वारा तीन रेखाएँ त्रिकोण रूप में बनाकर चिता बनानी चाहिए। Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका -५६६ शव स्थापित भूमि, संस्तर और रेखाएँ एकदम सम होने चाहिए। पं. आशाधर जी के मतानुसार ये रेखाएँ ऊपर विषम होने से आचार्य का मरण या रोग, मध्य में विषम होने से एलाचार्य को रोग और नीचे विषम होने से साधुओं को रोग होता है। आर्यिका के शव-विसर्जन की जो विधि कही गई है पं. आशाधर जी ने वही विधि ऐलक, क्षुल्लक, क्षुल्लिका एवं व्रती के लिए भी कही है। प्रश्न - वर्तमान में साधु के शव को मुनिजन क्यों नहीं ले जाते ? उत्तर - वर्तमान में साधुजन मगर या ग्राम के मध्य श्रावकों के बीच मन्दिर या धर्मशाला आदि में निवास करते हैं। यहाँ भक्तप्रत्याख्यान संन्यासपूर्वक मरण तो होता है किन्तु श्रावकगण ही काष्ठ का विमान बनवा कर उसमें साधु के शव को स्थापित कर लेते हैं। पश्चात् पूर्व निर्दिष्ट निषद्या स्थान पर्यन्त विधिवत् ले जाते हैं और विधिवत् ही चिता पर स्थापित कर दाह संस्कार कर देते हैं तथा उस स्थान पछी का चबूतराना , कर चरण स्थापित कर प्रशस्ति लिख देते हैं। प्रश्न - क्षपक की समाधि हो जाने बाद उनकी पीछी आदि को कहाँ रखते हैं ? उत्तर - अमितगति आचार्य महाराज ने इस विषय में कुछ नहीं लिखा किन्तु मूलाराधना गाथा १९८६ में कहा गया है कि वे साधुजन निषद्या में उस शव का स्थापन पीछी सहित ही करते हैं। गाथा १९८७ में पीछी रखने का कारण कहा गया है कि यदि क्षपक ने सम्यक्त्व की विराधना पूर्वक मरण कर देव पर्याय प्राप्त की है तो वह देव पीछी सहित अपना शरीर देखकर पुनः सावधान हो जाएगा कि मैं पूर्वभव में मुनि था। इसी प्रयोजन की सिद्धि हेतु वर्तमान में जहाँ क्षपक-शव का दाह-संस्कार करते हैं, वहीं कहीं समीपवर्ती वृक्ष की शाखा पर पीछी और कमण्डलु दोनों बाँध कर टाँग देते हैं। जघन्य आदि नक्षत्रों में क्षपक का मरण होने पर उसके फल का विवेचन शान्तिर्भवति सर्वेषामृक्षेल्पे क्षपके मृते। मध्यमे मृत्युरेकस्य, जायते महति द्वयोः ।।२०६५ ॥ अर्थ - क्षपक का मरण यदि अल्प अर्थात् जघन्य नक्षत्र में होता है तो संघ एवं समाज सभी के लिए कल्याणकारी होता है। यदि मरण मध्यम नक्षत्र में होता है तो संघ में एक का मरण और होता है तथा यदि महानक्षत्र में मरण होता है तो दो का मरण होता है॥२०६५ ।। प्रश्न - जघन्य, मध्यम एवं उत्कृष्ट नक्षत्रों के क्या लक्षण हैं और वे कौन-कौन से हैं ? उत्तर - अमितगति आचार्य ने इस विषय का स्पर्श नहीं किया किन्तु मूलाराधना गाथा १९८९ की टीका में पं. आशाधर जी कहते हैं कि जो नक्षत्र पन्द्रह मुहूर्त तक रहते हैं, उन्हें जघन्य कहते हैं ऐसे नक्षत्र छह हैं। भरणी, आर्द्रा, आश्लेषा, स्वाति, ज्येष्ठा और शताभिषा। इनमें से किसी एक नक्षत्र या उसके अंश में क्षपक का मरण होता है तो सबका कल्याण होता है। जो नक्षत्र तीस मुहूर्त तक रहते हैं, उन्हें मध्यम नक्षत्र कहते हैं, ऐसे नक्षत्र पन्द्रह हैं। यथा-अश्विनी, Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ५६७ कृतिका, मृगशिरा, पुष्य, मघा, पूर्वा फाल्गुनी, हस्त, चित्रा, अनुराधा, मूल, पूर्वाषाढ़ा, श्रवण, धनिष्ठा, पूर्वा भाद्रपद और रेवती। इनमें से किसी एक नक्षत्र या उसके अंश में मरण होने पर संघस्थ किसी एक मुनि का मरण होता है। जो नक्षत्र पैंतालीस मुहूर्त तक रहते हैं, उन्हें उत्कृष्ट नक्षत्र कहते हैं ऐसे नक्षत्र छह हैं। यथा- रोहणी, पुनर्वसु, उत्तराफाल्गुनी, विशाखा, उत्तराषाढ़ा और उत्तराभाद्रपद । इनमें से किसी एक नक्षत्र या उसके अंश में क्षपक का मरण होने पर अन्य दो मुनियों का मरण और होता है। मध्यम एवं उत्कृष्ट नक्षत्रों में क्षपक का मरण होने पर संघ की रक्षा का उपाय महन्मध्यम-नक्षत्रे, मृते शान्तिर्विधीयते। यत्नतो गण-रक्षार्थ, जिनार्चा-करणादिभिः ।।२०६६ ।। अर्थ - मध्यम एवं उत्कृष्ट नक्षत्रों में यदि क्षपक का मरण होता है तो संघ की रक्षा के लिए प्रयत्नपूर्वक जिनेन्द्रदेव की पूजा आदि करा कर शान्ति की जाती है ।।२०६६ ।। प्रश्न - जिनन्द्रदेव की पूजा-अर्चास ही शान हो जाता है अथवा अन्य भी कोई उपाय है? उत्तर - संघ की रक्षा हेतु शिवकोट्याचार्य ने मूलाराधना ग्रन्थ में गाथा १९९० एवं १९९१ में जो प्रतिपादित किया है वह द्रष्टव्य है। इन दोनों गाथाओं की दोनों टीकाओं में कहा गया है कि यदि क्षपक का मरण मध्यम नक्षत्र में होता है तो संघ के रक्षणार्थ तृणों का एक पुतला बना कर मृतक के समीप स्थापित कर तीन बार उच्च स्वर से घोषणा करें कि इस नक्षत्रदोष से जो एक अन्य मुनिराज का मरण होने वाला था वे मुनिराज अब चिरकाल तक जीवित रह कर तपस्या करें क्योंकि मैंने उनके स्थान पर यह दूसरा शव स्थापित कर दिया है। यह एक पुतला देने का विधान है। उत्कृष्ट नक्षत्र में क्षपक का मरण होने पर तृण के दो पुतले शव के साथ स्थापित कर तीन बार उच्च स्वर से घोषणा करें कि इस नक्षत्रदोष से जो अन्य दो मुनिराजों का मरण होने वाला था वे दोनों मुनिराज अब चिरकाल तक जीवित रह कर तपस्या करें क्योंकि मैंने उन दोनों के स्थान पर यह दूसरा और तीसरा पुतला स्थापित किया है। जिनेन्द्रदेव की अर्चा एवं पूजा के साथ उपर्युक्त प्रक्रिया संघ की रक्षा का उपाय है। प्रश्न - यदि समय पर कुश या तृण न मिलें तो क्या करना चाहिए? उत्तर - पुतला बनाने के लिए यदि तृण उपलब्ध न हो सके तो ईट-पत्थर आदि के चूर्ण से या केशरचावल के चूर्ण से या भस्म से शव के निकट ऊपरी भाग में 'का' अक्षर एवं निचले भाग में 'य' अक्षर अर्थात् 'काय' शब्द लिखकर दूसरे या तीसरे शव को स्थापित करने का नियोग पूर्ण करना चाहिए। अथवा जिस स्थान पर क्षपक का शव स्थापित करना है उस स्थान पर पहले चावल आदि के चूर्ण से ऊपर 'का' और नीचे 'य' लिख कर पश्चात् उस पर शव स्थापित करना चाहिए। Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ५६८ शव - विसर्जन के पश्चात् करने योग्य कर्त्तव्य सम्पद्यतां नोऽपि विनान्तरायमाराधनैवेति गणेन कार्यः । पुर्विसर्ग: क्षपकाधिवासे, पृच्छा च तस्मिन्नधिदेवतानाम् ।। २०६७ ।। अर्थ - 'हमें भी इसी प्रकार बिना विघ्न बाधा के आराधना की प्राप्ति हो' इस भावना से संघ एक कायोत्सर्ग करे तथा क्षपक की वसतिका के अधिष्ठाता देवता से उसके प्रति इच्छाकार करे कि आपकी इच्छा से संघ इस स्थान पर बैठना चाहता है || २०६७ ॥ समाधिमरण के पश्चात् संघ का कर्त्तव्य उपवासमनध्यायं कुर्वन्तु स्वगण-स्थिताः । अनध्यायं मृतेऽन्यस्मिन्नुपवासो विकल्प्यते । २०६८ ।। अर्थ - अपने संघ के साधु का स्वर्गवास होने पर उस दिन उपवास करना चाहिए और स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। दूसरे संघ के साधु का मरण होने पर स्वाध्याय तो नहीं ही करना चाहिए, उपवास भजनीय है; करे अथवा न भी करे ।। २०६८ ॥ गत्वा सुख-विहाराय सङ्घस्य विधि - कोविदैः । द्वितीयेऽह्नि तृतीये वा, द्रष्टव्यं तत्कलेवरम् ॥ २०६९ ।। अर्थ - क्षपक के शरीर को स्थापित करने के दूसरे या तीसरे दिन निषद्या स्थल पर जाकर बुद्धिमान साधुजन क्षपक के शव को देखें कि संघ का विहार सुखपूर्वक होगा या नहीं ? ॥२०६९ ॥ यावन्तो वासरा गात्रमिदं तिष्ठत्यविक्षतम् । शिवं तावन्ति वर्षाणि तत्र राज्ये विनिश्चितम् ॥। २०७० ॥ · अर्थ - जितने दिनों तक वह शव गीदड़ आदि पशुओं एवं पक्षियों से सुरक्षित रहता है अर्थात् क्षतविक्षत नहीं होता उतने वर्षों तक उस राज्य में नियमतः सुख-शान्ति रहती है । २०७० ॥ आकृष्य नीयते यस्यां तदङ्गं श्वापदादिभिः । विहर्तुं युज्यते तस्यां सङ्घस्य ककुभि स्फुटम् ॥। २०७१ ॥ अर्थ - ( क्षपक के कलेवर को अथवा उसके किसी अंग को पक्षी आदि जिस दिशा में ले जाते हैं उस दिशा में क्षेमकुशलता रहती है अतः) क्षपक का कलेवर अथवा उसके अंग जंगली पशु-पक्षियों द्वारा खींच कर जिस दिशा में ले जाये गये हों उसी दिशा में संघ को विहार करना चाहिए || २०७१ || क्षपक की गति का अनुमान ज्ञान यदि तस्य शिरो दन्ता, दृश्येरन्नगमूर्धनि । तदा कर्म - मलान्मुक्तो, ज्ञेयः सिद्धिमसौगतः ॥ २०७२ ।। अर्थ - यदि क्षपक का सिर और दाँत पर्वत के शिखर पर दिखाई दें तो वह कर्ममल से छूट कर सिद्धिभवन अर्थात् मोक्ष को प्राप्त हुआ है, ऐसा जानना चाहिए || २०७२ || Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ५६२ वैमानिकः स्थलं यातो,ज्योतिष्को व्यन्तरः समम् । गतां च भावनस्तस्य, गतिरेषा समासतः ।।२०७३॥ अर्थ - यदि क्षपक का मस्तक उन्नत भूमिभाग पर दिखाई दे तो वह मरकर वैमानिक देव हुआ जानना, यदि समभूमि पर दिखाई दे तो वह ज्योतिष्क देव या व्यन्तर देव हुआ जानना और यदि कहीं गड्ढे में दिखाई दे तो वह भवनवासी देव हुआ जानना। इस प्रकार क्षपक की यह गति संक्षेप में कही गई है।॥२०७३ ।। इदं विधानं जिननाथ-देशितं, ये कुर्वते श्रद्दधते च भक्तितः। आदाय कल्याण-परम्परमिमे, प्रयान्ति निष्ठामपनीतकल्मषाम् ।।२०७४ ॥ इति आराधकानत्यागः। अर्थ - इस प्रकार क्षपक के समाधिमरण की तथा उसके मृत शरीर के क्षेपण आदि की सर्व विधि जिनेन्द्र देव द्वारा कही गई है। जो महामना इन समस्त विषयों की श्रद्धा करते हैं एवं सम्पूर्ण आराधना विधि को भक्तिपूर्वक स्वयं सम्पन्न करते हैं, वे कल्याण परम्परा को अर्थात् उत्तम मनुष्य और देवों के सुखों को प्राप्त कर अन्त में सर्व कर्ममलों को नष्ट कर सिद्धालय में निवास करते हैं अर्थात् मोक्ष चले जाते हैं ।।२०७४ ।। इस प्रकार आराधक अंग/शव त्याग नामक चालीसवाँ अधिकार सम्पूर्ण हुआ॥४०॥ आराधक मुनिजनों की स्तुति भगवन्तोत्र ते शूराश्चतुरािधनां मुदा। सङ्घ-मध्ये प्रतिज्ञाय, निर्विघ्नां साधयन्ति ये॥२०७५ ।। अर्थ - जिन्होंने संघ के मध्य प्रतिज्ञा करके चार प्रकार की आराधना को हर्षपूर्वक निर्विघ्न पूर्ण किया है या करते हैं, वे शूरवीर एवं पूज्य हैं।।२०७५ ॥ ते धन्या ज्ञानिनो धीरा, लब्ध-नि:शेष-चिन्तिताः। यैरेषाराधना देवी, सम्पूर्णा स्ववशी-कृत्ता ॥२०७६ ॥ अर्थ - जिन्होंने इस आराधना महादेवी को सर्व प्रकार से अपने वश में करके अपने चिन्तित सम्पूर्ण संयम और तप को प्राप्त कर लिया है, वे धीर-वीर एवं ज्ञानी मुनिजन धन्य हैं ।।२०७६ ॥ किं न तैर्भुवने प्राप्त, वन्दनीयं महोदयैः। लीलयाराधना प्राप्ता, यैरेषा सिद्धि-सम्फली ॥२०७७ ।। अर्थ - जिन महानुभावों ने सिद्धिफल को देने वाली इस आराधना महादेवी को लीलामात्र में प्राप्त कर लिया है, उन महापुरुषों ने इस लोक में कौन से वन्दनीय श्रेष्ठ पद को प्राप्त नहीं कर लिया? अपितु सर्वश्रेष्ठ पद प्राप्त कर लिया है, क्योंकि सर्ववन्दनीय पदों में सिद्ध पद महावन्दनीय पद है।।२०७७॥ निर्यापकाचार्य की प्रशंसा धन्या महानुभावास्ते, भक्तितः क्षपकस्य यैः। ढौकिताराधना पूर्णा, कुर्वद्भिः परमादरम् ।।२०७८ ॥ Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ५७० अर्थ - वे निर्यापक महानुभाव भी धन्य हैं, जिन्होंने क्षपक को परमादर देते हुए भक्तिपूर्वक उसकी आराधना सम्पन्न कराई है।।२०७८ ॥ निर्यापकों को प्राप्त होने वाला फल परस्य ढौकिता येन, धन्यस्याराधनाङ्गिनः। निर्विघ्ना तस्य सा पूर्णा, सुखं सम्पद्यते मृतौ ॥२०७९ ॥ अर्थ - जो निर्यापक, अन्य महाधन्य क्षपक की आराधना सम्पन्न कराते हैं, मरणकाल में उन मुनियों की चार आराधनाएँ नियमतः सुख-शान्ति पूर्वक निर्विघ्न पूर्ण होती हैं ।।२०७९ ।। तीर्थ रूप क्षपक मुनि के दर्शन करने वालों की प्रशंसा स्नान्ति क्षपक-तीर्थे ये, कर्म-कर्दम-सूदने। पाप-पङ्केन मुच्यन्ते, धन्यास्तेऽपि शरीरिणः ॥२०८०।। अर्थ - कर्मरूपी कीचड़ को दूर करने वाले क्षपकरूप तीर्थ में जो भव्य जीव स्नान करते हैं, अर्थात् उनका दर्शन-वन्दन करते हैं वे धन्य हैं, क्योंकि वे भी पापरूप कीचड़ से छूट जाते हैं ।।२०८० ।। क्षपक के तीर्थ रूप होने का समर्थन पर्वतादीनि तीर्थानि, सेवितानि तपोधनैः । जायन्ते यदि सत्तीर्थ, कथं न क्षपकस्तदा ॥२०८१ ॥ अर्थ - जहाँ तपस्वी जन तपस्या करते हैं, अर्थात् जिस पर्वत पर या नदी के तट आदि पर स्थित होकर साधुजन ध्यान करते हैं, आताफ्नादि योग धारण करते हैं एवं उत्कृष्ट श्रुत, अवधि और मनःपर्ययादि ज्ञान प्राप्त करते हैं यदि वे भी तीर्थ माने जाते हैं तब भक्तप्रत्याख्यान संन्यास रूप महातपस्वी क्षपक मुनिराज सत्तीर्थ कैसे नहीं हैं ? अवश्य ही हैं ।।२०८१॥ वन्दमानोऽश्नुते पुण्यं, योगिनां प्रतिमा यदि। भक्तितो न तपो-राशिस्तदानी क्षपकः कथम् ।।२०८२ ।। अर्थ - देखिये ! यदि प्राचीन मुनिराजों की प्रतिमाओं की वन्दना करने वालों को पुण्य की प्राप्ति होती है तो वर्तमान में विद्यमान तप की राशि स्वरूप क्षपक की भक्ति एवं वन्दना करने वाले भव्य जीवों को पुण्योपार्जन कैसे नहीं होगा ? अवश्य ही होगा॥२०८२ ।। क्षपक की वन्दना का फल सेव्यते क्षपको येन, शक्तितो भक्तितः सदा। तस्याप्याराधना देवी, प्रत्यक्षा जायते मृतौ ॥२०८३ ।। अर्थ - जो भव्य जीव अपनी-अपनी शक्ति के आनुसार क्षपक की वन्दना, नमस्कार, पूजा एवं तीव्र भक्तिपूर्वक वैयावृत्य करता है उसे अपने मरणकाल में क्षपक के सदृश आराधना देवी प्रत्यक्ष में प्रगट हो जाती है अर्थात् भक्तिपूर्वक क्षपक की वन्दना एवं वैयावृत्य करने वालों का मरण समाधिपूर्वक ही होता है ।।२०८३॥ Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ५७१ प्रकृत का उपसंहार एवं आगे किये जाने वाले कथन की सूचना भक्तत्याग: सवीचारो, विस्तरेणेति वर्णितः। अधुना तमवीचार, वर्णयामि समासतः ।।२०८४ ।। इति भक्तत्यागः। अर्थ - इस प्रकार यहाँ तक सवीचार अर्थात् विचार पूर्वक किये जाने वाले भक्तप्रत्याख्यान का विस्तार पूर्वक वर्णन किया, अब आगे अवीचार भक्त प्रत्याख्यान मरण का संक्षेप से वर्णन करते हैं ।।२०८४ ॥ प्रश्न - भक्तप्रत्याख्यान मरण के कितने भेद हैं और सवीचार भक्तप्रत्याख्यान का क्या लक्षण है? उत्तर - भक्तप्रत्याख्यान मरण के दो भेद हैं। सवीचार भक्त-प्रत्याख्यान और अवीचार भक्त-प्रत्याख्यान । जिनकी आयु अभी शीघ्र समाप्त होने वाली नहीं है और जो कुछ कारण विशेष से समाधि के लिए उपस्थित हो रहे हैं वे ज्ञानी मुनिजन क्रमशः कषाय एवं आहार को कृश करते हुए जो विधि ग्रहण करते हैं, उसे सवीचार भक्त त्याग कहते हैं। यहाँ तक इसका सविस्तार वर्णन किया गया है। (१०) अवीचार भक्तत्याग, इंगिनी एवं प्रायोपगमनाधिकार अवीचार भक्त प्रत्याख्यान का लक्षण एवं भेद भक्तत्यागोस्त्यवीचारो, निश्चेष्टस्य दुरुत्तरे। सहसोपस्थिते मृत्यौ, योगिनो वीर्य-धारिणः ॥२०८५॥ अर्थ - जिसका रोक सकना कठिन है और जो दूर करने के सामर्थ्य के बाहर है ऐसे भयंकर रोग या उपसर्ग के निमित्त अकस्मात् मरण उपस्थित हो जाने पर वीर्यसम्पन्न साधुजन तत्काल जिस मरण को स्वीकार कर लेते हैं उसे अवीचार भक्त प्रत्याख्यान मरण कहते हैं।।२०८५ ॥ निरुद्धं प्रथमं तत्र, निरुद्धतरमूचिरे। द्वितीयं तु तृतीयं च, निरुद्धतममुत्तमाः॥२०८६॥ अर्थ - गणधरादि उत्तम ऋषियों ने अवीचार भक्तप्रत्याख्यान के तीन भेद कहे हैं । पहला निरुद्ध, दूसरा निरुद्धतर और तीसरा परमनिरुद्ध ॥२०८६ ।। निरुद्ध अवीचार भक्तप्रत्याख्यान का कथन निरुद्धं कथितं तस्य, रोगातङ्कादि-पीडितम् । जवाबल-विहीनो यः, पर-सङ्घ-गमनाक्षमः ।।२०८७ ।। Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ५७२ अर्थ - रोग एवं आतंक आदि से पीड़ित और जंघाबल हीन हो जाने से अर्थात् पैरों में चलने की शक्ति न होने से दूसरे संघ में जाने में असमर्थ, जो साधु भक्तत्याग करते हैं उनके निरुद्ध नामक अवीचार भक्त प्रत्याख्यान शेता है।.२०८७। यावदस्ति बलं वीर्य, स्वयं तावत् प्रवर्तते । क्रियमाणोपकारस्तु, तदभावे गणेन सः ॥२०८८ ।। अर्थ - जब तक उस साधु में बल-वीर्य रहता है तब तक वह अपनी आवश्यक आदि क्रियाओं में स्वयं प्रवृत्ति करता है अर्थात् तब तक अपने संघ में रहते हुए भी किसी से परिचर्या नहीं कराता, किन्तु शक्ति क्षीण हो जाने पर अपने संघ के द्वारा परिचर्या कराता हुआ रत्नत्रय में प्रवृत्ति करता है ।।२०८८ ।। सनिरुद्धमवीचारं स्वगणस्थमितीरितम् । अपरः प्रक्रम; सर्व:, पूर्वोक्तोऽत्रापि जायते ॥२०८१ ॥ अर्थ - इस प्रकार अपने ही संघ में रह कर जो समाधिमरण किया जाता है वह निरुद्ध अवीचार भक्त प्रत्याख्यान मरण कहलाता है, इसमें भी क्रम एवं विधि वहीं है जो सवीचार भक्तप्रत्याख्यान के प्रकरण में कहो गयी है।।२०८९।। प्रश्न - निरुद्ध मरण और अदीचार किसे कहते हैं ? उत्तर - पैरों में चलने की शक्ति न होने से अथवा रोगपीड़ित हो जाने से जो अपने ही संघ में निरुद्ध अर्थात् रुका रहता है, अन्य संघ में नहीं जा सकता उसे निरुद्ध मुनि कहते हैं और ऐसे मुनि के मरण को निरुद्ध मरण कहते हैं। इसमें स्वगण का त्याग कर परगण में जाने की विधि नहीं होती तथा इसमें अनियत विहारादि की विधि नहीं होती अत: इसे अवीचार कहते हैं। ये मुनि स्वगण में रहकर ही आचार्य के चरणमूल में दीक्षा से अद्यावधि पर्यन्त हुए अपराधों की आलोचना कर अपनी निन्दा एवं गर्हा करते हैं, प्रतिक्रमण करते हैं और प्रायश्चित्त लेते हैं। जब तक शक्ति रहती है तब तक दूसरों की सहायता बिना अपने रत्नत्रय रूप निर्मल आचरण में तत्पर रहते हैं, जब स्वयं प्रवृत्ति करने में अत्यन्त असमर्थ हो जाते हैं तब दूसरों से सहायता लेकर रत्नत्रय रूप चारों आराधनाओं का पालन करते हैं। प्रकाशमप्रकाशं च, स्व-गणस्थमिति द्विधा । जन-ज्ञातं मतं पूर्व, जनाज्ञातं परं पुनः॥२०९०॥ अर्थ - अपने गण में स्थित होकर जो निरुद्ध अवीचार भक्तत्याग नामक समाधिमरण किया जाता है वह दो प्रकार का है : प्रकाशरूप और अप्रकाशरूप । जो जनसमुदाय द्वारा जान लिया जाता है वह प्रकाशरूप है और जो जनता को ज़ात नहीं किया जाता वह अप्रकाशरूप है ।।२०९०॥ द्रव्यं क्षेत्रं बलं कालं, ज्ञात्वा क्षपक-मानसम् । अप्रकाशं मतं हेतावन्यनाऽपि सतीदृशे ॥२०९१ ।। इति निरुद्ध। Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका -५७३ अर्थ - द्रव्य, क्षेत्र, शारीरिक शक्ति, काल एवं क्षपक के मनोबलादि कारणों को दृष्टि में रखकर अप्रगट भक्तप्रत्याख्यान होता है अर्थात् उपर्युक्त कारणों में से कोई भी कारण अनुकूल न हो तो साधु की सल्लेखना जनता में प्रगट नहीं की जाती॥२०११॥ प्रश्न - द्रव्य, क्षेत्रादि की अनुकूलता का विचार किस प्रकार करना चाहिए ? उत्तर - क्षपक की वसतिका योग्य है या नहीं, एकान्त में है या नहीं, समाधि योग्य साधक उपकरण उपलब्ध होंगे या नहीं, परिवार के मनुष्य विवेकवान् और सहनशील स्वभाव वाले हैं या नहीं, क्षेत्र निरापद अर्थात् मिथ्यादृष्टि जीवों की बहुलता वाला तो नहीं है, राजा अनुकूल अर्थात् धर्मात्मा है या नहीं ? क्षपक का शारीरिक बल इस सल्लेखना रूपी ध्वजा-पताका का भार उठाने योग्य है या नहीं, काल कैसा है, तीक्ष्ण गर्मी का या सर्दी का समय है या वर्षायोग का समय है तथा क्षपक का स्वयं का मानस दृढ़, धैर्य युक्त एवं भूखप्यास आदि की वेदना सहन करने में उत्साहित है या नहीं और क्षपक के बन्धगण सल्लेखना के पक्ष में हैं या नहीं? इसी प्रकार की अन्य बातों का विचार करके देखना चाहिए। यदि उपर्युक्त बातों की अनुकूलता उपलब्ध नहीं हो रही है तो हमारे इस साधु ने आहार आदि का त्याग कर सल्लेखना धारण की है" यह बात जनता के समक्ष प्रगट नहीं करनी चाहिए। इस प्रकार निरुद्ध अवीचार भक्तप्रत्याख्यान के कथन का प्रकरण पूर्ण हुआ। निरुद्धतर अवीचार भक्तप्रत्याख्यान का विवेचन निरुद्धतर अवीचार भक्त त्याग का लक्षण जलानल-विष-व्याल-सन्निपात-विसूचिकाः। हरन्ति जीवितं साधो नूसा इव तामसम् ।।२०९२।। अर्थ - जैसे सूर्य की किरणें अन्धकार का हरण कर लेती हैं, वैसे ही जल, अग्नि, विष, जंगली क्रूर पशु आदि द्वारा किया हुआ उपसर्ग एवं सन्निपात तथा विसूचिका आदि भयंकर रोगादि में से कोई भी कारण साधु के प्राण तत्काल हरण कर लेता है।।२०९२।। यावन्न क्षीयते वाणी, यावदिन्द्रिय-पाटवम्। यावद्धैर्य बलं चेष्टा, हेयादेय-विवेचनम् ॥२०९३ ।। तावद्वेदनया ज्ञात्वा, ह्रियमाणं स्व-जीवितम् । आलोचनां गुरोः कृत्वा, धीरा मुञ्चन्ति विग्रहम् ॥२०९४ ।। अर्थ - जल-अग्नि आदि का उपसर्ग उपस्थित हो जाने पर अथवा सन्निपात आदि रोगों की उत्पत्ति हो जाने पर जब तक साधक की बोलने की शक्ति नष्ट नहीं होती, जब तक इन्द्रियों की अपने विषय ग्रहण की चतुरता या सक्रियता क्षीण नहीं होती, तीव्र वेदना के कारण उनका धैर्य, बल एवं चेष्टा नष्ट नहीं होती तथा हेयउपादेय की बुद्धि क्षीण नहीं होती और वेदनादि के कारण आयु क्षीण होती दिखाई देती है, तब तक वे धीरवीर मुनिराज गुरु के निकट अथवा निकटवर्ती आचार्यादि के सम्मुख अपने दोषों की सम्यक् आलोचना करके Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मामकण्डिका - 14196 वसति, संस्तर, आहार, उपधि, परिचारक एवं अपने शरीर से भी ममत्व का त्याग कर रत्नत्रय की आराधना में संलग्न होते हुए शरीर छोड़ देते हैं ।। २०९३ २०९४ ॥ स्वगणस्थमिति प्राज्ञैर्निरुद्धतरमीरितम् । अवशेषो विधिस्तस्य, ज्ञेयः पूर्वत्र दर्शितः ॥। २०९५ ।। इति निरुद्धतरम् । अर्थ - इस प्रकार विहार रहित अत्यन्त निरुद्ध अपने संघ में स्थित रहते हुए ही मरण के उपर्युक्त कारणों में से कोई भी कारण अकस्मात् उपस्थित हो जाने पर जो सल्लेखना ग्रहण की जाती है, प्राज्ञजन उसे निरुद्धतर अवीचार भक्तत्याग मरण कहते हैं। इस मरण की शेष विधि पूर्वोक्त विधि के अनुसार ही है || २०९५ ॥ प्रश्न निरुद्ध एवं निरुद्धतर इन दोनों भक्तत्याग मरणों में क्या अन्तर है ? - उत्तर - निरुद्ध और निरुद्धतर ये दोनों अवीचार भक्तत्याग मरण अपने संघ में रह कर ही होते हैं। इनमें निरुद्ध अवीचार भक्तत्याग में जंघा बल घट जाने के कारण अथवा अन्य किसी कारण से परसंघ में जाने लिए असमर्थ हुए साधु के समाधिग्रहण का कोई कारण उपस्थित हो जाने पर क्रमशः आहार का त्याग करते हुए वे आचार्य के निकट आलोचना करके प्रायश्चित्त लेते हैं और शक्ति क्षीण हो जाने पर ही परिचर्या कराते हैं। उसके पूर्वतक वे अपनी चर्या अपने आप ही करते निरुद्धतर अवीचार भक्तत्याग में अचानक ही कोई अनिवारित उपसर्ग या भयंकर रोगादि आ जाने पर जो भी आचार्य आदि निकट हों उनके सम्मुख अपने दोषों की आलोचना, निन्दा एवं गर्हा करके शीघ्रता पूर्वक चतुराहार का आजीवन को त्याग कर शरीर छोड़ देते हैं। निरुद्धतम या परम निरुद्ध अविचार भक्तप्रत्याख्यान का स्वरूप यदा संक्षिप्यते वाणी, व्याधि-व्याल- विषादिभिः । तदा शुद्ध-धियः साधोर्निरुद्धतममिष्यते ॥। २०९६ ।। अर्थ- जब व्याधि या क्रूर पशु-पक्षियों द्वारा घोर उपसर्ग या विषादि के द्वारा वाणी एवं इन्द्रियों आदि की शक्ति समाप्तप्राय होने लगती है तब निर्मल बुद्धिधारी मुनिराज का निरुद्धतम अवीचार भक्त-प्रत्याख्यान मरण होता है || २०९६ ॥ हरन्ती जीवितं दृष्ट्वा, वेदनामनिवारणाम् । जिनादीनां पुरो धीरः, करोत्यालोचनां लघु ॥२०९७ ॥ अर्थ- जिसका रोकना अशक्य है ऐसी भयंकर वेदना द्वारा अपना जीवन हरण होते देख धीर-वीर साधु जिनेन्द्र के समक्ष अर्थात् जिनेन्द्रदेव को अपने हृदय कमल पर विराजमान कर अपने दोषों की शीघ्र ही आलोचना कर लेते हैं ||२०१७ | आराधना-विधिः पूर्वं कथितो विस्तरेण यः । अत्रापि युज्यमानोऽसौ द्रष्टव्यः श्रुतपारगैः ॥ २०१८ ।। अर्थ - श्रुतपारगामी आचार्यों द्वारा आराधना की जो विधि पूर्व में विस्तार पूर्वक कही गई है, वही विधि इस निरुद्धतम अवीचार भक्तत्याग मरण में भी यथायोग्य जाननी चाहिए || २०९८ ॥ Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका -५७५ प्रश्न - अवीचार या अविचार का क्या अर्थ है और इस अवीचार मरण के तीन भेद करने का क्या कारण है ? उत्तर - इस मरण के नाम में अवीचार और अविचार इन दोनों शब्दों का प्रयोग आया है। ये दोनों एकार्थवाची हैं। इन दोनों का अर्थ है विचार नहीं करपाना या सोच नहीं पाना । अर्थात् इस मरण में सोच-विचार का अधिक अवसर प्राप्त नहीं हो पाता है। आयु को ह्रास की ओर उन्मुख देखकर इस मरण का वरण कर लिया जाता है। इसमें मरण की सम्भावना शीघ्र, शीघ्रतर और शीघ्रतम होती है अतः इस मरण के निरुद्ध, निरुद्धतर और निरुद्धतम ये तीन भेद हो जाते हैं। इन तीनों के लक्षण ऊपर कहे जा चुके हैं। अल्प समय में शीघ्रतापूर्वक मरण करने वालों को भी आराधना की सिद्धि हो जाती है आराध्याराधना-देवी, आशुकारं मृतावपि । केचिसिध्यन्ति जायन्ते, केचिद्वैमानिकाः सुराः ।।२०९९ ॥ अर्थ - इस प्रकार चार आराधनारूप देवी की सहसा शीघ्रता पूर्वक आराधना करने वाले आराधक मुनिराजों में कोई-कोई तो कर्मों को तत्क्षण नष्ट कर सिद्ध पद प्राप्त कर लेते हैं और कोई-कोई वैमानिक देव हो जाते हैं।॥२०९९ ॥ प्रमाणं काल-बाहुल्यमस्य नाराधना-विधेः। तीर्णा मुहूर्त-मात्रेण, बहवो भव-नीरधिम् ॥२१०० ।। ____ अर्थ - बहुत अधिक काल में ही आराधना की विधि सम्पन्न हो पाती है ऐसा नहीं है, क्योंकि बहुत से मुनिराज एक मुहूर्त मात्र में आराधनाओं का आराधन कर संसार-समुद्र को पार कर गये हैं ।।२१०० ।। __ प्रश्न - एक मुहूर्त जैसे अल्पकाल में आराधनाओं की सम्यक् आराधना कर मुक्ति की प्राप्ति कैसे सम्भव है? उत्तर - कर्मों को नष्ट करने या उच्चगति को प्राप्त करने के लिए परिणामों की विशुद्धि ही अपेक्षित है, कालप्रमाण की बहुलता अपेक्षित नहीं है। बारह वर्ष पर्यन्त रत्नत्रय की या समाधि की साधना-विधि चलती रहे किन्तु यदि परिणामों में विशुद्धि की उद्भूति न हो पावे तो उच्चगति या मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती है, किन्तु परिणामों की विशुद्धि के साथ अल्पकाल में आराधित आराधनाएँ भी मोक्ष पद की प्राप्ति करा देती हैं। सिद्धो विवर्धनो राजा, चिरं मिथ्यात्व-भावितः। वृषभ-स्वामिनो मूले, क्षणेन थुत-कल्मषः ॥२१०१।। इति निरुद्धतमम्। अर्थ - अनादि मिथ्यादृष्टि विवर्धन नाम का राजा भगवान वृषभदेव के पादमूल में अर्थात् समवसरण में बोध को प्राप्त हो कर अर्थात् दीक्षा लेकर मोक्ष चला गया ।।२१०१॥ * विवर्धन की कथा * ___ इस अवसर्पिणीकालके चतुर्थकालके प्रारंभमें आदि तीर्थंकर वृषभनाथने जिन-दीक्षा ग्रहणकर तपस्या Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ५७६ द्वारा केवलज्ञान प्राप्त किया था। उनके राज्य-अवस्थाके पुत्र भरत थे, जो एकसौ एक भाइयोंमें सर्वजेष्ठ पुत्र थे। महापुण्योदयसे राजा भरत की आयुधशालामें चक्ररत्न उत्पन्न हुआ। संपूर्ण छह खंडोंको जीतकर भरत षट्खंडाधिपति चक्रवर्ती हुए; उनके हजारों पुत्र हुए। उनमें विवर्द्धनकुमार को आदि लेकर कई पुत्र मूक हुए थे- बोलते नहीं थे। किसी दिन चक्रवर्ती उन्हें लेकर समवशरणमें भगवान आदिनाथके दर्शनार्थ गये। समवशरण सभामें बैठकर दिव्यध्वनि सुनते ही वे सब कुमार विरक्त हुए। दिव्यध्वनिमें अपने पूर्वभवोंको सुनकर वैराग्यसे ओतप्रोत होकर तत्काल प्राप्त हुई शक्तिके द्वारा अर्थात् गूंगापन नष्ट हो जानेपर उन्होंने आदि प्रभुसे जिनदीक्षा ग्रहण की, इसतरह उनको लेश्याकी अत्यंत विशुद्धि प्राप्त हुई। छठे-सातवें गुणस्थानोंमें परिवर्तित होते हुए उन्होंने मुहूर्त प्रमाण कालमें ही शुक्लध्यानको प्राप्त किया। क्षपक श्रेणी में क्रमश: आरोहण कर घातिया कर्मोंको नष्ट किया तथा अधातिया कर्माको भी नष्ट कर सिद्धपद पाया । इसतरह अत्यंत अल्पकालमें उन्होंने शाश्वत सुखको पाया था। अतः भव्य जीवोंको चाहिए कि कालको न देखे कि अब अल्पकाल ही रह गया है कैसे आत्मकल्याण करें? इत्यादि, जब आत्मबोध हो तभी वैराग्य धारणकर आत्महित कर लेना चाहिए। भक्तप्रत्याख्यानमरण के उपसंहार की और इंगिनीमरण कथन की सूचना प्रोक्ता भक्त प्रतिज्ञेति, समास-व्यास-योगतः। इदानीमिङ्गिनीं वक्ष्ये, जन्म-कक्ष-कुठारिकाम्॥२१०२॥ अर्थ - इस प्रकार मेरे द्वारा संक्षेप एवं विस्तार से भक्तप्रतिज्ञामरण का संक्षेप एवं विस्तार से वर्णन किया गया है। अब जन्म रूप वन को काट फेंकने के लिए जो कुठार के सदृश है, उस इंगिनीमरण का वर्णन करूँगा ॥२१०२॥ उक्तो भक्तप्रतिज्ञाया, विस्तारो यत्र कश्चन । इङ्गिनीमरणेप्येष, यथायोग्यं विबुध्यताम् ॥२१०३॥ अर्थ - भक्तप्रतिज्ञामरण में आराधना की जो विधि कही गई है वह इंगिनीमरण में भी यथायोग्य जाननी चाहिए।।२१०३॥ इंगिनीमरण की विधि एवं उसके स्वामी का कर्तव्य प्रव्रज्या-ग्रहणे योग्यो, योग्यं लिङ्गमधिष्ठितः। कृत-प्रवचनाभ्यासो, विनयस्थः समाहितः॥२१०४ ।। निष्पाद्य सकलं संझं, इङ्गिनीगत-मानसः। श्रितिस्थो भावित-स्वान्तः, कृत-सल्लेखना-विधिः ॥२१०५।। अर्थ - जो दीक्षा ग्रहण करने योग्य है वह निर्ग्रन्थ लिंग धारण कर श्रुत का अभ्यास अर्थात् आगम में अवगाहन करता है। विनय गुण में स्थित वह साधु समता परिणाम से अपने संघ को मुनियों के आचरण की साधना में योग्य बना कर तदनन्तर स्वयं अपने मन को इंगिनीमरण साधन के योग्य दृढ़ करता है। पश्चात् उत्तरोत्तर शुभ परिणामों की श्रेणी पर आरोहण करता है, कन्दर्पादि भावनाओं के त्यागपूर्वक Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका- ५७७ तपोभावना एवं श्रुतादि उत्तम भावनाओं से अपने मन को भावित करता है तथा अपने शरीर के साथ-साथ कषायों को भी कृश करता है ।। २१०४-२१०५ ॥ संस्थाप्य गणिनं सङ्के, क्षमयित्वा त्रिधाखिलम् । यावज्जीवं वियोगार्थी, दत्वा शिक्षां प्रियङ्कराम् ।। २१०६ ।। कृतार्थतां समापन, हर्षाकुलित-मानसः । निर्यात गणत: सूरिर्गुण-शील- विभूषितः ।। २१०७ ॥ अर्थ - पश्चात् विशिष्ट धार्य, संघ में अपने स्थान पर अन्य किसी योग्य शिष्य को स्थापित कर समस्त संघ को मन, वचन और काय से स्वयं क्षमा करते हैं और क्षमा मांगते हैं। पश्चात् बाल-वृद्ध मुनियों से भरपूर अपने चतुर्विध संघ को अत्यन्त हितकारी एवं प्रियकारी उत्तम उपदेश देते हैं तथा संघ के समक्ष जीवन पर्यन्त के लिए (संघ से ) अलग होने की इच्छा व्यक्त करते हैं। 'मैंने अद्यावधि करने योग्य सब कर्तव्य कर लिया' इस कृतकृत्यता के अनुभव से और इंगिनीमरण जैसे महान् समाधिमरण को धारण करने की उत्सुकता से अत्यन्त हर्षित होते हुए गुण एवं शील से विभूषित वे महान् आचार्य मुनिसंघ से बाहर निकल जाते हैं ।।२१०६-२१०७ ॥ निःक्रम्य स्थण्डिलादौ स, विविक्ते बहिरन्तरे । भू- शिला - संस्तर - स्थायी, स्वं निर्यापयति स्वयम् ।। २१०८ ।। योग्यं पूर्वोदितं कृत्वा, संस्तरं स्थण्डिले तृणै: । पूर्वस्यामुत्तरस्यां वा, शिरो दिशि करोति सः ।। २१०९ ।। अर्थ- संघ से निकल कर वे महामुनि एकान्त स्थान में जो बाहर भीतर से प्रासुक हो ऐसे स्थंडिल अर्थात् सम उन्नत और कठोर स्थान पर पहुँचते हैं, वहाँ वे भूमिसंस्तर या शिलारूप संस्तर का आश्रय लेते हैं। उस समय मात्र शरीर ही उनका सहायक होता है। पश्चात् वे पूर्वकथित अर्थात् भक्त प्रत्याख्यान विधि में संस्तर का जो स्वरूप कहा जा चुका है उसी के अनुसार ग्राम या नगर से स्वयं याचना द्वारा लाये हुए छिद्र रहित, गाँठ एवं कण्टक रहित, जन्तु रहित, मृदु, शरीर की स्थिरता हेतु एवं प्रतिलेखना के योग्य तृण का समूह अर्थात् घास उस स्थंडिल पर स्वयं यत्नपूर्वक बिछाते हैं। यहाँ 'यत्नपूर्वक' का अर्थ है कि प्रकाशयुक्त, विस्तीर्ण, छिद्ररहित, बिलरहित एवं निर्जन्तु कठोर भूमि पर वह तृण इस प्रकार बिछाते हैं जो समय-समय पर अलग किया जा सके, संस्तर भूमि का प्रतिलेखन किया जा सके एवं वह तृण भी झाड़-फटकार कर स्वच्छ किया जा सके। पूर्व दिशा या उत्तर दिशा की ओर मस्तक करने योग्य तथा अपने शरीर प्रमाण ही उस तृण संस्तर की संरचना करते हैं। पश्चात् अपने शरीर के अवयवों अर्थात् मस्तक तथा हाथ-पैर आदि का पीछी से सम्मार्जन करते हैं ।। २१०८-२१०९॥ भाव -शुद्धिमधिष्ठाय, लेश्या -शुद्धि-विवर्धित: । कर्म विध्वंसाकांक्षी, मूर्धन्यस्त- - कर-द्वयः ।।२११० ॥ Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ५७८ विधायालोचनामग्रे, जिनादीनामदूषणम् । दर्शन-ज्ञान-चारित्र-तपसां कृत-शोधनः ।।२१११॥ अर्थ - इंगिनीमरण के और कर्मों को नष्ट करने के इच्छुक वे महा-मुनिराज अपने भावों की शुद्धि करते हुए एवं पीतादि शुभ लेश्या रूप विशुद्धि को वृद्धिंगत करते हुए दोनों हाथ जोड़कर मस्तक पर रखते हैं और जिनेन्द्रदेव को साक्षी करके सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र एवं सम्यक् तपमें लगे हुए अतिचारों की निर्दोष आलोचना करके अपने दोषों का शोधन करते हैं ॥२११०-२१११।। यावज्जीवं त्रिधाहारं, प्रत्याख्याय चतुर्विधम्। बाह्यमाभ्यन्तरं ग्रन्थमपाकृत्य विशेषतः ।।२११२ ।। अर्थ - वे मुनिराज मन, वचन और काय से जीवन पर्यन्त के लिए चारों प्रकार के आहार का त्याग करके समस्त बाय एवं अभ्यन्तर परिग्रह को भी विशेषरूप से त्याग देते हैं।।२११२।। परीषहोपसर्गाणां, कुर्वाणो निर्जयं परम्। गाहमानः परां शुद्धिं, धर्मध्यान-परायणः ॥२११३॥ अर्थ - धैर्य रूपी धन के धनी वे क्षपक मुनिराज परीषह और उपसर्गों पर उत्कृष्ट रूप से विजय प्राप्त करते हुए एवं परम विशुद्धि रूप भावों में अवगाहन करते हुए उत्तम धर्मध्यान में संलग्न रहते हैं ।।२११३ ॥ प्रश्न - श्लोक २१०३ में कहा गया था कि 'भक्तप्रतिज्ञामरण में आराधना की जो विधि कही गई है वह इंगिनी मरण में भी जानना' उपर्युक्त कथित श्लोक २१०४ से २११३ पर्यन्त अर्थात् ग्यारह श्लोकों में भक्तप्रतिज्ञा की विधि कैसे घटित होती है ? उत्तर - वर्तमान काल में भक्तप्रत्याख्यानमरण सम्भव है और प्रशस्त भी है। इस मरण का सविस्तार विवेचन करने हेतु आचार्यदेव ने इसे चालीस अधिकारों में विभाजित किया है। यथा- 'अर्ह, लिंग, शिक्षा, विनय', समाधि', अनियत विहार, परिणाम', उपधि त्याग, श्रिति', भावना, सल्लेखना, दिक्, श्रमण, अनुशिष्टि, परगणचर्या, मार्गणा, सुस्थित", उपसर्पण, निरूपण, प्रतिलेखन, पृच्छा, एकसंग्रह, आलोचना२३, गुणदोष", शय्या", संस्तर, निर्यापक, प्रकाशन, हानि, प्रत्याख्यान, क्षामण, क्षपणार, अनुशिष्टि, सारणा", कवच, समता, ध्यान, लेश्या", फल और शवत्याग। इन अधिकारों में से यथायोग्य अधिकार इंगिनीमरण की विधि में भी ग्रहणयोग्य (श्लोक २१०३) कहे गये हैं । यथा-श्लोक २१०४ में अर्ह, लिंग, शिक्षा, विनय और समाधि इन पाँच अधिकारों का संकेत है। श्लोक २१०४ में श्रिति, भावना और सल्लेखना अधिकारों का संकेत है। श्लोक २१०६ और २१०७ में दिक्, क्षमणा, अनुशिष्टि और परगणचर्या अर्थात् संघत्याग का संकेत है। श्लोक २१०८ और २५०९ में शय्या एवं संस्तर अधिकारों का संकेत है। श्लोक २११० और २१११ में लेश्या तथा आलोचना का संकेत है। श्लोक २११२ में प्रत्याख्यान अधिकार का और श्लोक २११३ में कवच, समता एवं ध्यान अधिकारों का संकेत है। अर्थात् इंगिनीमरण की विधि में भी उपर्युक्त चालीस अधिकारों में से बीस अधिकार ग्राह्य हैं। यह यथायोग्य' पद का अर्थ है। Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ५७९ इंगिनीमरण करने वाले क्षपक की क्रियाविधि एवं धैर्य आदि का विवेचन निषद्योत्थाय निःशेषामात्मनः कुरुते क्रियाम्। विहरन्नुपसर्गेऽसौ, प्रसाराकुचनादिकम् ॥२११४ ।। अर्थ - इंगिनीमरण ग्रहण करने वाले महामुनि उपसर्ग रहित अवस्था में अपनी उठने-बैठने आदि की सर्व क्रियाविधि एवं शरीर को फैलाने सधा सिमोड़ने आदि की सर्व प्रवियः सायं करते हैं ।। ११४ ।। स्वयमेवात्मनः सर्व, प्रतिकर्म करोति सः। आकांक्षति महासत्त्वः, परतोऽनुग्रहं न हि॥२११५ ।। ____ अर्थ - वे महाधैर्यशाली मनोबलयुक्त मुनिराज प्रतिष्ठापना समिति पूर्वक शौचादि क्रियाएँ एवं खड़े होना, गमन करना तथा हाथ-पैर आदि सहलाने की क्रियाएँ स्वयं करते हैं। पर की सेवा, सहायता और अनुग्रह कदाचित् भी नहीं चाहते ॥२११५ ॥ देव-मानव-तिर्यग्भ्यः, सम्पन्नमति-दारुणम्। उपसर्ग महासत्त्वः, सहतेऽसौ निराकुलः ।।२११६॥ अर्थ - वे महाधैर्यशाली अर्थात् उत्तम संहननधारी सम्पन्नमति मुनिराज देवकृत या मनुष्यकृत या तिर्यंचकृत दारुण उपसर्ग आ जाने पर उसका प्रतिकार नहीं करते अपितु उसे निराकुल भाव से सहन कर लेते हैं ।।२११६ ।। दुःशील-भूत-वेताल-शाकिनी-ग्रह-राक्षसैः । न सम्भीषयितुं शक्यो, भीमैरपि कथञ्चन ॥२११७॥ अर्थ - जिनका दर्शन एवं विक्रिया अत्यन्त भयंकर है और जो खोटे स्वभाव वाले हैं ऐसे भूत, वेताल, शाकिनी, ग्रह एवं राक्षसों के द्वारा भी वे भयभीत अथवा विचलित नहीं किये जाते हैं ।।२११७ ।। त्रिदशैर्विक्रियावद्भिश्वेतशोरणकारिणीम् । प्रदर्श्य महतीमृद्धि, लोभ्यमानो न लुभ्यति ॥२११८ ।। अर्थ - चित्त को नाना प्रकार से आकर्षित करने वाली अतुल ऋद्धिरूप विक्रिया दिखाकर अनेक देव एवं देवांगनाएँ उन्हें लुभाना चाहें तो भी वे मुनिराज उनके लोभ में नहीं आते अर्थात् संयम से च्युत नहीं होते ॥२११८॥ सम्पद्यतेऽखिलास्तस्य, दुःखाय यदि पुद्गलाः। तथापि जायते जातु, ध्यान-विघ्नो न धीमतः ॥२११९ ।। अर्थ - यदि तीन लोकवर्ती समस्त पुद्गल द्रव्य दुख देने रूप परिणत होकर उन्हें दुख देना चाहें तो भी वे उन बुद्धिशाली महामुनिराज के ध्यान में विघ्न उत्पन्न नहीं कर सकते ।।२११९ ।। Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका -५८० सुखाय यदि लभ्यन्ते, सर्वे पुदगल-सञ्चयाः। तथापि धीरधी सौ, ध्यानतश्चलति स्फुटम् ॥२१२०॥ अर्थ - यदि लोक का समस्त संचित पुद्गल सुख देने रूप परिणत होकर उन्हें सुखी करना चाहे तो भी धीर बुद्धिवाले वे मुनिराज अपने ध्यान से चलायमान नहीं होते ।।२१२० ।। उपेक्षते विनिक्षिप्तः, सचित्त-हरितादिषु । उपसर्ग-शमे भूयो, योग्यं स्थानमियर्ति सः ।।२१२१ ।। अर्थ - किसी क्रूर व्याघ्र आदि के द्वारा हरित-सचित्त तृणों से व्याप्त प्रदेश में डाल दिये जाने पर भी वे मुनिराज उपसर्ग सहन करते हुए शान्त चित्त से वहीं स्थित रहते हैं। यदि उपसर्ग दूर हो जाता है तो सावधानीपूर्वक तृणरहित भूमि प्रदेश में आ जाते हैं ।।२१२१॥ परीषहोपसर्गाणामेवं विषहनोद्यतः। मनो-वाक्काय-गुप्तोऽसौ, निःकषायो जितेन्द्रियः ।।२१२२॥ अर्थ - वे मुनिराज परीषह एवं उपसर्गों को सहन करने में सदा उद्यमशील रहते हैं, मनोगुप्ति, वचनगुप्ति एवं कायगुप्ति का पालन करते हैं, कषायभाव से रहित होते हैं और जितेन्द्रिय होते हैं ।।२१२२ ।। इहामुत्र सुखे दुःखे, जीविते मरणे सुधीः। सर्वथा निःप्रतीकारश्वतरडे प्रवर्तते ॥२१२३॥ अर्थ - चार आराधनाओं में ही प्रवर्तन करने वाले वे बुद्धिशाली क्षपक मुनिराज इसलोक-परलोक में, सुख-दुख में तथा जीवन और मरण में सर्वथा राग-द्वेष रहित होते हैं ।।२१२३ ।। वाचना-पृच्छनाम्नाय-धर्म देशन-वर्जिताः। धीरः सूत्रार्थयोः सम्यग्ध्यायत्येकाग्रमानसः ॥२१२४॥ अर्थ - स्वाध्याय के पाँच भेदों में से वाचना, पृच्छना, आम्नाय एवं धर्मोपदेश का त्याग कर वे धीरवीर मुनिराज सतत एकाग्र मन से सूत्र और उनके अर्थ का भली प्रकार मात्र चिन्तन करते हैं अर्थात् सतत अनुप्रेक्षारूप स्वाध्याय में ही संलग्न रहते हैं॥२१२४ ।। एवमष्टसु यामेसु, निर्निद्रो ध्यान-लालसः। भवन्तीं हठतो निद्रां, न निषेत्यत्यसौ पराम् ॥२१२५ ॥ अर्थ - इस प्रकार ध्यान के इच्छुक वे मुनिराज दिन-रात्रि के आठों पहर निद्रारहित रहते हैं। यदि कभी बलात् निद्रा आ जाती है तो भी नहीं सोते अथवा कदाचित् अल्प निद्रा ले लेते हैं, बहुत अधिक नहीं सोते॥२१२५॥ स्वाध्याय-काले विक्षेपाद्यन्तास्तस्य न च क्रियाः । ध्यानं श्मशान-मध्येऽपि, कुर्वाणस्य निरन्तरम् ॥२१२६ ।। Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका -५८१ अर्थ - अन्य साधुओं के सदृश उन क्षपक मुनिराज का न तो स्वाध्याय काल ही नियत होता है और न उन्हें प्रतिलेखना आदि क्रिया करना ही आवश्यक होता है क्योंकि उनके वाचना आदि स्वाध्याय नहीं है। वे श्मशान के मध्य भी सतत ध्यान कर सकते हैं ।।२१२६ ।। यथोक्तं कुरुते सर्वमावश्यकमतन्द्रितः। विधत्ते स द्वयं कालं, उपधि-प्रतिलेखनम् ॥२१२७ ॥ अर्थ - दिन रात्रि में सामायिक आदि जो-जो आवश्यक क्रियाएँ करने का विधान है वे सब क्रियाएँ वे अवश्य करते हैं और दोनों सन्ध्याओं में पीछी, कमण्डलु एवं संस्तर आदि का प्रतिलेखन भी करते हैं।।२१२७॥ सहसा स्खलने जाते, मिथ्याकारं करोति सः। आशी-निषद्यका-शब्दौ, विनिःक्रान्ति-प्रवेशयोः ।।२१२८ ।। अर्थ - आवश्यक क्रियाओं में यदि कभी स्खलित हो जाते हैं या अतिचार आदि लग जाते हैं तो 'मि।। दुक कोष मिथ्या हो पा 'मैंने गलत किया' ऐसे शब्द बोलते हैं, तथा कहीं बन, गुफा या वन्दनादि कार्य के लिए जाते समय और प्रवेश करते समय आसही-निसही शब्दों का उच्चारण भी करते हैं।।२१२८॥ पादयोः कण्टके भग्ने, रजईक्षणयोर्गते। तूष्णीमास्ते स्वयं धीरो, परेणोद्धरणेऽपि सः ॥२१२९ ।। अर्थ - इन मुनिराज के पैरों में यदि काँटा लग जाता है या आँख में धूल आदि चली जाती है तो मौन रहते हैं, स्वयं भी उसे दूर नहीं करते, यदि कोई अन्य उसे दूर करता है तब भी वे मौन ही रहते हैं ।।२१२९॥ नाना-विधासु जातासु, लब्धिष्वेष महामनाः । न किञ्चित्सेवते जातु, विरागी-भूत-मानसः॥२१३०॥ अर्थ - नाना प्रकार के कठोर तपश्चरण से यदि उन्हें विक्रिया, आहारक, क्षीरास्रव या चारण आदि ऋद्धियों की उपलब्धि हो जाती है तो विरागयुक्त मानस वाले वे महामनरा कभी भी उन ऋद्धियों का किञ्चित् भी सेवन नहीं करते ।।२१३०।। वेदनानां प्रतीकारं, क्षुदादीनां च धीर-धीः। न जातु कुरुते किञ्चिन्मौनव्रतमवस्थितः ॥२१३१॥ अर्थ - वे धीर बुद्धिधारी मुनिराज मौनव्रत का पालन करते हुए ही अवस्थित रहते हैं। रोगादि से होने वाली वेदना का एवं भूख, प्यास, गर्मी एवं सर्दी आदि का कभी कदाचित् भी प्रतिकार नहीं करते, धैर्यपूर्वक सहन करते हैं ॥२१३१॥ उपदेशोऽन्य-सूरीणामिङ्गिनी-मरणेऽपि सः। त्रिदशैर्मानुषैः पृष्टो, विधत्ते धर्मदेशनाम् ।।२१३२।। Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ५८२ अर्थ - किन्हीं अन्य आचार्यों का मत है कि इंगिनीमरण में संलग्न क्षपक देवों एवं मनुष्यों द्वारा पूछे जाने पर धर्मोपदेश देते हैं ।।२१३२॥ इङ्गिनी-मरणेऽप्येवमाराध्याराधनां बुधाः । केचिसिध्यन्ति केचिच्च, सन्ति वैमानिकाः सुराः॥२१३३ ।। अर्थ - इस प्रकार उपर्युक्त विधिपूर्वक इंगिनी नामक समाधिमरण में चार आराधनाओं की आराधना करने वाले बुद्धिशाली क्षपक मुनियों में अपने-अपने परिणामों के अनुसार कोई तो सिद्धगति प्राप्त कर लेते हैं और कोई वैमानिक देव हो जाते हैं ।।२१३३ ।। इङ्गिनी-मृतिं सुखानुषङ्गिणी, निर्मलां कषाय-नाश-कौशलाम्। पूजिता भजन्ति विघ्न-वर्जितां, ये नरा भवन्ति तेऽजरामराः ॥२१३४॥ इति इङ्गिनी-मरणम्। अर्थ - यह इंगिनीमरण स्वर्ग एवं अपवर्ग के सुखों को देने वाला है, निर्मल है एवं कषायों को नष्ट करने में कुशल है। जो योगिराज इस मरण को स्वयं विन्धरहित पूजते हैं, अर्थात् धारण करते हैं वे अजर-अमर अर्थात् मोक्ष पद प्राप्त कर लेते हैं ।।२१३४।। इस प्रकार इंगिनीमरण का वर्णन सम्पूर्ण हुआ॥ इंगिनीमरण के उपसंहार की एवं प्रायोपगमन मरण के विवेचन की प्रतिज्ञा इङ्गिनीमरणं प्रोक्तं, समास-व्यास-योगतः । प्रायोपगमनं वक्ष्ये, व्यासेन विधिनाधुना ।।२१३५॥ अर्थ - इस इंगिनीमरण का संक्षेप एवं विस्तार से विधिपूर्वक कथन किया । अब आगे प्रायोपगमनमरण की विधि का संक्षेप से कथन करूंगा।।२१३५ ।। दोनों मरणों की विधि सामान्यत: समान है इङ्गिनीमरणेऽवाचि, प्रक्रमो यो विशेषतः। प्रायोपगमनेऽप्येष, द्रष्टव्यः श्रुत-पारगैः ।।२१३६ ।। अर्थ - श्रूत के पारगामी गणधरादि देवों ने इंगिनीमरण की जो विधि कही है विशेष रूप से वहीं विधि प्रायोपगमन मरण की देखी है अर्थात् कही है ।।२१३६।। संस्तरः क्रियते नात्र, तृण-काष्ठादि-निर्मितः। स्वकीयमन्यदीयं च, वैयावृत्त्यं न विद्यते ॥२१३७ ।। अर्थ - इस मरण में तृणशय्या एवं काष्ठादि की शय्या का निषेध है, क्योंकि इसमें स्वयं अपने से और दूसरों से भी सभी प्रकार की वैयावृत्य करने और कराने का निषेध है ।।२१३७ ।। Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ५८३ करोत्येनं ततो योगी, कृत-सल्लेखना-विधिः। उच्चार-प्रस्रवादीनां, ततो नास्ति निराक्रिया ॥२१३८ ।। अर्थ - कषाय के साथ-साथ जिसने अपना शरीर भी उत्तम प्रकार से कृश कर लिया है, अर्थात् जिसका अस्थि-चर्म मात्र शेष रह गया है इस कारण ऐसे योगी को मल-मूत्रादि का निराकरण नहीं होता अर्थात् प्रायोपगमन संन्यास धारण करने वाला योगी मल-मूत्र भी नहीं करता ।।२१३८ ।। पृथ्वी-वाय्वनिकायादी, निक्षिप्तस्त्यक्त-विग्रहः। आयुः पालयमानोऽसावुदासीनोऽवतिष्ठते ॥२१३९॥ अर्थ - यदि कोई देव, मनुष्य या पशु आदि उन्हें पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति या त्रसादि जीवनिकायों में फेंक देता है या डाल देता है तो शरीर से ममत्व त्याग कर वे अपनी आयु के समाप्त होने तक उसी स्थिति में वहीं पड़े रहते हैं।२१३९॥ गन्ध-प्रसून-धूपाद्यैः, क्रियमाणेऽप्युपग्रहे। त्यक्त-देह-तयोदास्ते, स स्व-जीवित-पालकः ।।२१४० ।। अर्थ - प्रायोपगमन संन्यासधारी की यदि कोई गन्ध, पुष्प या धूप आदि से पूजा करता है तब भी शरीर से ममत्व त्याग कर देने वाले वे योगिराज उस पूजा-सत्कार से उदास ही रहते हैं अर्थात् जैसे उपसर्ग आदि करने वाले पर कोप नहीं करते वैसे ही पूजक पर प्रसन्न नहीं होते और न उन्हें रोकते ही हैं। दोनों अवस्थाओं में समान रूप से उदासीन रहते हैं ।।२१४० ।। यत्र निक्षिपते देहं, नि:स्पृहः शान्त मानसः। ततश्चलयते नासौ, यावज्जीव मनागपि ।।२१४१॥ अर्थ – शरीर से नि:स्पृह और शान्त मन वाले वे योगिराज प्रायोपगमन संन्यास ग्रहण के समय अपने शरीर को जिस स्थान पर और जिस अवस्था में स्थित करते हैं यावज्जीवन वे वैसे ही स्थित रहते हैं, किंचित् भी हिलते-डुलते नहीं हैं ।।२१४१॥ इत्युक्तं निःप्रतीकारं, प्रायोपगमनं जिनैः। नियमेनाचलं ज्ञेयमुपसर्गे पुनश्चलम् ॥२१४२ ।। अर्थ - इस प्रकार प्रायोपगमन मरण सर्वधा प्रतीकार रहित होता है ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है। निश्चय से तो यह मरण अचल ही होता है अर्थात् नियम से शरीर की हिलने-डुलने आदि की क्रिया से रहित होता है, किन्तु उपसर्ग अवस्था में मनुष्यादि के द्वारा चलायमान किये जाने पर चल भी होता है अर्थात् इस मरण में स्वयं-कृत शरीर-चंचलता नहीं है, सर्वथा अकम्प, अचल और अडोल ही रहते हैं ॥२१४२ ।। उपसर्ग-हत: कालमन्यत्र कुरुते यतः। ततो मतं चलं प्राज्ञैरुपसर्गमृते स्थिरम् ॥२१४३ ।। Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ५८४ अर्थ - यदि उपसर्ग द्वारा उठाकर अन्यत्र फेंक दिये जाते हैं और वहाँ उनका मरण हो जाता है तो प्राज्ञ पुरुषों द्वारा शरीर की चलता मानी गई है, अन्यथा एक स्थान पर शरीर की स्थिरतापूर्वक ही मरण होता है अर्थात् उपसर्ग के कारण स्थानान्तर होते हैं अन्यथा नहीं। एक बार जहाँ जिस आसन से स्थित हो जाते हैं. मरण पर्यन्त वैसे ही स्थिर रहते हैं ।।२१४३ ।। प्रायोपगमनं केचित्, कुर्वते प्रतिमा-स्थिताः। प्रपद्याराधनां देवीमिङ्गिनीमरणं परे ।।२१४४॥ इति प्रायोपगमनम् । अर्थ - कोई मुनिराज कायोत्सर्ग धारण कर प्रायोपगमन मरण करते हैं अर्थात् प्रायोपगमन संन्यास धारण कर चार आराधनाओं की आराधना पूर्वक समाधि करते हैं और कोई मुनिराज इंगिनीमरण धारण कर आराधना देवी की आराधना करते हुए समाधि करते हैं।।२१४४ ।। इस प्रकार प्रायोपगमन मरण का वर्णन पूर्ण हुआ। ___ इस प्रकार पण्डितमरण के तीन भेदों में से भक्त प्रत्याख्यान का वर्णन अतिविस्तार पूर्वक और इंगिनी तथा प्रायोपगमन विधि का संक्षेप में किया है। अनायास महान् उपसर्ग आदि आ जाने पर भी महामुनि पण्डितमरण में उत्साह रखते हैं उपसर्गे सति प्राप्ने, दुर्भिक्षे च दुरुत्तरे। कुर्वन्ति मरणे बुद्धिं, परीषह-सहिष्णवः ॥२९४५॥ अर्थ - जिसका निवारण करना अशक्य है ऐसा घोर उपसर्ग आ जाने पर तथा महा भयंकर अकाल पड़ जाने पर परीषहों को सहन करने में समर्थ योगीश्वर पण्डितमरण पूर्वक समाधिमरण करने में ही अपनी बुद्धि लगाते हैं ||२१४५ ॥ इसी के समर्थक दृष्टान्त कोशलो धर्मसिंहोऽर्थ, ससाध श्वास-रोधतः। कोष्णतीरे पुरे धीरो, हित्वा चन्द्रश्रियं नृपः॥२१४६ ।। __ अर्थ - कौशलाधिपति धर्मसिंह नाम के धीर-वीर राजा ने कोष्णतीर नामक नगर के निकट अपनी पत्नी चन्द्रश्री का त्याग कर दीक्षा ग्रहण की, पश्चात् श्वासनिरोध द्वारा समाधिमरण साध कर पण्डितमरण किया ॥२१४६।। *धर्मसिंह मुनि की कथा * दक्षिण देशमें कोष्ठा तीर (कौशलगिरि) नगर के राजा वीरसेन और रानी वीरमती से दो पुत्र, पुत्री, हुए पुत्र का नाम चन्द्रभूति और पुत्री का नाम चन्द्रश्री था। चन्द्रश्री का विवाह कौशल देश के राजपुत्र धर्मसिंहसे हुआ। दोनोंका समय सुखपूर्वक व्यतीत होने लगा। धर्मसिंह अत्यंत धर्मप्रिय था, विशाल राज्यका संचालन Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका -५८५ करते हुए भी मुनियोंको आहारदान तथा जिनपूजा वह अवश्य करता था । किसी दिन दमधर मुनिराजसे धर्मोपदेश सुनकर धर्मसिंह नरेशने जिनदीक्षा ग्रहण की और तपस्या करने लगे। रानी चंद्रश्रीको बहुत दुःख हुआ। भाई चन्द्रभूति बहिनको दुःखी देखकर धर्मसिंह मुनिको जबरन चन्द्रश्रीके पास ले आया किन्तु धर्मसिंह पुनः वनमें गये और तपस्यामें लीन हुए। कुछ दिन इसी प्रकार व्यतीत हुए । चन्द्रभूतिने किसी दिन वनविहार करते हुए उन मुनिको देखा। मुनिराजने भी अपनी तरफ आते हुए उस अपने सालेको देखकर पहिचान लिया। उन्होंने सोचा कि यह मुझे तपस्या से च्युत करेगा। जहाँ मुनि तपस्या कर रहे थे, वहाँ वनमें पासमें एक हाथीका कलेवर पड़ा था, धीरवीर मुनि धर्मसिंह उसी में घुस गये। उन्होंने चार प्रकारके आहारका एवं संपूर्ण कषायभावों का त्यागकर संन्यास ग्रहण किया तथा तत्काल श्वासका निरोधकर प्राण छोड़े। इसतरह उन्होंने क्षणमात्रमें उत्तमार्थको साधा और स्वर्गमें जाकर देवपद पाया। वे महामुनि हम सबके लिए समाधिप्रद होवें। सुतार्थ पाटलीपुत्रे, मातुलेन कदर्थितः । जग्राहर्षभसेनोऽर्थ, वैखानस-मृतिं श्रितः।।२१४७ ।। अर्थ - पाटलीपुत्र नगर में रहने वाले ऋषभसेन सेठ ने दीक्षा ग्रहण करली थी। अपनी पुत्री के दुख के कारण अपने ही मामा अर्थात् श्वसुर द्वारा उपसर्ग किये जाने पर उन मुनिराज ने श्वास का निरोधकर सल्लेखना पूर्वक पण्डितमरण निया शा.२१४५७ ! ___*वृषभसेनमुनि की कथा * पाटलीपुत्र नगरीमें वृषभदत्त वृषभदत्ता सेठ सेठानी रहते थे। उनके पुत्रका नाम वृषभसेन था, वह सर्वगुणसम्पन्न, कलाओंमें प्रवीण एवं अत्यंत धर्मात्मा था। उसका विवाह अपने मामाकी पुत्री धनश्रीके साथ हुआ था। किसी एक दिन दमधर नामके मुनिके समीप धर्मोपदेश सुनकर उसने जिनदीक्षा ग्रहण की, इससे धनश्री रात दिन दुःखी रहने लगी, धनश्रीका दु:ख पिता धनपतिसे देखा नहीं गया। वह मुनि वृषभसेनको उठाकर घर ले लाया और उसे अनेक कपट द्वारा गृहस्थ बना दिया। कुछ दिन बाद अवसर पाकर वृषभसेन पुनः मुनि बन गये। दुष्ट धनपति पुनः हठात् उनको घर पर लाया और क्रोधमें आकर उन्हें साँकलसे बाँध दिया। मुनिने दे कि यह मुझे पुनः विवश कर रहा है, मेरी संयमनिधि लूटेगा। उन्होंने श्वासोच्छ्वास का निरोधकर आराधना पूर्वक संन्यास द्वारा प्राणत्याग किया और स्वर्गमें जाकर वैमानिक महर्द्धिक देवपद प्राप्त किया। इसप्रकार वृषभसेन मुनिराज ने ऐसी विषम स्थिति में भी आत्मकल्याण किया। नृपे हते हि चोरेण, यति-लिङ्ग-मुपेयुषा। आचार्य: सङ्घ-शान्त्यर्थ, शस्त्र-ग्रहणतो मृतः ॥२१४८ ॥ अर्थ - मुनिवेषधारी एक चोर ने आचार्य को नमस्कार करते हुए राजा को मार दिया। उस दुर्घटना के निमित्त से संघ पर आने वाली महती आपत्ति को दूर करने के लिए आचार्य ने शस्त्र द्वारा अपना घात कर समाधिमरण कर लिया था ॥२१४८॥ यतिवृषभ आचार्य की कथा श्रावस्ती नगरीका राजा जयसेन था, उसके पुत्रका नाम वीरसेन था। उस नगरीमें शिवगुप्त नामका बौद्ध Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ५८६ भिक्षु रहता था। वह निर्दय, मांसभक्षी तथा कपटी था। राजा जयसेन बौद्ध धर्म पर विश्वास करता था। अतः उसने शिवगुप्तको अपना गुरु बना लिया था। एक दिन यतिवृषभ आचार्य संघसहित उस नगरीके बाह्य उद्यानमें आये। प्रजाजनोंको उनके दर्शनार्थ जाते देखकर राजा भी कौतूहलवश उद्यानमें गया, वहाँपर आचार्यश्री मिष्ट वाणी में कल्याणप्रद उपदेश दे रहे थे; उपदेश तात्त्विक एवं तर्कपूर्ण था, उसे सुनते ही राजा जैनधर्म का श्रद्धालु हो गया। उस दिनसे उसने बुद्धकी उपासना छोड़ दी। इससे बौद्ध भिक्षु शिवगुप्त को बड़ा क्रोध आया। उसने राजाको बहुत समझाया, किंतु वह राजा की जैनधर्म की श्रद्धा को नष्ट नहीं कर सका, तब उसने पृथिवीपुरी नामकी नगरीमें बौद्धधर्मी राजा सुमतिके पास जाकर जयसेन राजाका जैन होनेका समाचार कहा। सुमति राजाने जयसेन के पास पत्र भेजकर उसको पुनः बौद्ध बनने को कहा, किन्तु जयसेन नरेश ने स्वीकार नहीं किया। सुमतिका कोप बढ़ता गया। उसने गुप्त रूपसे जयसेनको मारनेका जाल रचा। उस दुष्टने नौकरोंसे पूछा कि कोई ऐसा वीर है जो जयसेन को मार सकता हो । तब हिमारक नामके एक व्यक्तिने इस कार्यको करना स्वीकार किया। वह दुष्ट हिमारक श्रावस्तीमें आकर कपटसे उन्हीं यतिवृषभ आचार्यके समीप मुनि बन गया | राजा जयसेन प्रतिदिन दर्शनार्थ आया करता था। एक दिन राजा अपने नियमानुसार दर्शनार्थ आया, आचार्यके निकट धर्मचर्चा दि के नगरकाप का जाने लगा कि मुस्विभरी उस दुष्ट हिमारक ने राजा को शस्त्र से मार दिया और स्वयं तत्काल भाग गया। आचार्य इस आकस्मिक घटना को देखकर चिन्तित हो उठे। राजाकी मृत्युसे संघ पर आनेवाली घोर आपत्तिसे बचानेका उन्हें अन्य उपाय नहीं दिखा। अत: उन्होंने सामने की दीवार पर लिख दिया कि “यह अनर्थ किसी ने जैनधर्मके द्वेषसे किया है"। लिखने के तत्काल बाद उन्होंने संन्यास धारण कर वहाँ पर पड़े उसी शस्त्रसे अपना घातकर प्राणत्याग कर दिया। जयसेन राजाके पुत्र वीरसेनको अपने पिताकी मृत्युके समाचार मिले। वह उस स्थानपर आकर देखता है तो राजाके निकट आचार्यको भी दिवंगत हुए देखकर आश्चर्यचकित हुआ। इधर-उधर देखते हुए उसकी नजर दीवार पर पड़ी और पूर्वोक्त पंक्ति पढ़ते ही उसे समझमें आ गया कि यह सब घटना किसप्रकार हुई है। वीरसेनका हृदय आचार्य यतिवृषभकी भक्तिसे भर आया। उसको पहलेसे जैनधर्म पर श्रद्धा थी अब और अधिक दृढ़ हो गयी। इस प्रकार यतिवृषभ आचार्यने क्षणमात्रमें आराधनापूर्वक समाधिको सिद्ध कर लिया था। शस्त्र-ग्रहणतः स्वार्थः, शकटालेन साधितः। कुतोऽपि हेतुतः क्रुद्ध, नन्दे सति महीपतौ ।।२१४९ ॥ अर्थ - किसी कारण से नन्द राजा के क्रोधित हो जाने पर शकटाल नामक मुनिराज ने शस्त्र घात द्वारा समाधिमरणरूप अपना स्वार्थ सिद्ध किया था ।।२१४९ ॥ * शकटाल मुनि की कथा * पाटलीपुत्र नामकी नगरीमें राजा नंद राज्य करता था। उसके दो मंत्री थे, एक का नाम शकटाल और दूसरेका नाम वररुचि। शकटाल जैन सरल स्वभावी नीतिप्रिय था, इससे विपरीत वररुचि था। दोनोंका आपसमें Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ५८७ विरोध था। एक दिन पद्मरुचि नामके यतिराजसे धर्मोपदेश सुनकर शकटाल मंत्रीने जिनदीक्षा ग्रहण की। जैन सिद्धांत का अध्ययन कर उन यतिराजने संपूर्ण तत्त्वोंका समीचीन ज्ञान प्राप्त किया। किसी दिन शकटाल मुनि आहारार्थ राजमहल पधारे । आहार करके लौट रहे थे कि वररुचिने उन्हें देखा । वररुचि शकटालसे अत्यंत द्वेष रखता था अतः मौका देख उसने राजा नंद से कहा कि देखो, यह नग्न ढोंगी साधु महल में जाकर क्या-क्या पाप कर आया है, इत्यादि अनेक तरहसे राजाको कुपित किया, राजाने शकटाल मुनिको मार डालनेकी आज्ञा दी। कर्मचारी मुनिकी तरफ आ रहे थे, उन्हें शस्त्रास्त्र सहित आवेशमें आते देखकर शकटाल मनिने निश्चय किया कि ये घोर उपद्रव करने वाले हैं अत: उन्होंने तत्काल चतुराहारका त्याग एवं रागद्वेषकषाय का त्यागकर संन्यास ग्रहण किया और शस्त्र द्वारा प्राणत्याग कर स्वर्गारोहण किया। पंडितमरण के कथन का उपसंहार एवं बालपंडितमरण के कथन की प्रतिज्ञा अकारि पण्डितस्येति, सप्रपञ्चा निरूपणा। इदानीं वर्णयिष्यामि, मरणं बालपण्डितम् ॥२१५०॥ इति पण्डित्तमरणम्। अर्थ - इस प्रकार भेद-प्रभेद सहित पंडितमरण का सविस्तार कथन किया, अब आगे बालपंडित मरण का संक्षिप्त विवेचन करूँगा ॥२१५० ।। इस प्रकार पण्डितमरण का कथन पूर्ण हुआ॥ (११) बालपण्डित मरणाधिकार बालपंडितमरण का लक्षण संयतासंयतो जीवः, सम्यग्दर्शन-भूषितः । यत्तस्य मरणं प्रोक्तं, श्रुतज्ञैर्षालपण्डितम् ॥२१५१ ।। अर्थ - सम्यग्दर्शन से विभूषित जो जीव पंचमगुणस्थानवी - संयतासंयत भी है, श्रुतज्ञैः अर्थात् गणधरादि देवों द्वारा उसके मरण को बालपण्डित मरण कहागया है॥२१५१॥ देशसंयम रूप धर्म का लक्षण पञ्चधाणुव्रतं प्रोक्तं, त्रिधा प्रोक्तं गुणवतम्। शिक्षाव्रतं चतुर्धा च, धर्मो देशयतेरयम् ।।२१५२॥ अर्थ - पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत,ये बारह प्रकार के व्रत ही देशसंयमी का धर्म कहा गया है। अर्थात् पाँच अणुव्रत और सात शिक्षाव्रत यह देशसंयमी श्रावक का धर्म है ।।२१५२ ।। Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका- ५८८ बारह व्रतों के नाम हिंसामसूनृतं स्तेयं, परनारी-निषेवणम् । विमुञ्चतो महालोभं पञ्चधाणुव्रतं मतम् ॥ २१५३ ।। अर्थ - हिंसा, झूठ, चोरी, परनारी-सेवन और महालोभ का त्याग करना, अर्थात् हिंसादि पाँच पापों का स्थूलरूप से त्याग करना पाँच अणुव्रत हैं । २१५३ ।। दिग्देशानर्थदण्डानां त्यागस्त्रेधा गुणव्रतम् । शिक्षाव्रतमिति प्राज्ञैश्चतुर्भेदमुदाहृतम् ।।२१५४ ।। भोगोपभोग-संख्यानं, सामायिकमखण्डितम् । संविभागोऽतिथीनां च प्रोषधोपोषित - व्रतम् ॥। २१५५ ।। अर्थ - दिशा अर्थात् दिग्व्रत, देशव्रत और अनर्थदण्डव्रतों के त्याग रूप तीन गुणव्रत कहे गये हैं तथा प्राज्ञ पुरुषों के द्वारा सामायिक शिक्षाव्रत, प्रोषधोपवास, भोगोपभोग संख्यान और अतिथिसंविभाग के भेद से शिक्षाव्रत चार प्रकार के कहे गये हैं ।। २१५४-२१५५ ॥ सहसोपस्थिते मृत्यौ, महारागे दुरुत्तरे। स्व-बान्धवरनुज्ञाता, याति सल्लेखनामसी ॥ २१५६ ।। अर्थ- बारह व्रतधारी श्रावक सहसा मरण उपस्थित हो जाने पर या महाभयानक रोग हो जाने पर अपने बन्धुबान्धवों से अनुज्ञा लेकर सल्लेखना धारण करता है || २१५६ ॥ विधrयालोचनां सम्यक्, प्रतिपद्य च संस्तरम् । म्रियते यो गृहस्थोऽपि तस्योक्तं बालपण्डितम् ॥ २१५७ ।। अर्थ- सल्लेखना का इच्छुक वह श्रावक, आचार्य या मुनिराज के समक्ष अपने ग्राह्य व्रतों में लगे हुए दोषों की भली प्रकार आलोचना करता है, फिर चटाई आदि का यथायोग्य संस्तर ग्रहण करता है, इस प्रकार जो गृहस्थ नियमपूर्वक मरण करता है वह बालपंडितमरण कहा जाता है ॥ २१५७ ॥ प्रोक्तो भक्तप्रतिज्ञायाः, प्रक्रमो यः सविस्तरम् । अत्रापि स यथायोग्यं द्रष्टव्यः श्रुतपारगैः ॥ २१५८ ।। अर्थ - श्रुतपारगामी आचार्यों ने भक्तप्रत्याख्यान में जो विधि विस्तारपूर्वक कही है, वही सब विधि यथायोग्य इस बालपण्डितमरण में भी जानना चाहिए ।। २१५८ ।। बालपण्डितमरण का फल येन देशयतिना निषेव्यते, बालपण्डित-मृतिर्निराकुला । भोग- सौख्य- कमनीयतावधि:, कल्पवासि - विबुधः स जायते ॥ २१५९ ॥ अर्थ - इस प्रकार जो देशव्रती श्रावक आदि निराकुलता पूर्वक इस बालपण्डित मरण को ग्रहण करते Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ! Q मरणकण्डिका - ५८९ हैं वे भोग, सौख्य और सुन्दरता की चरम सीमा को स्पर्श करने वाले ऐसे सौधर्मादि कल्पोपपन्न वैमानिक देवों में उत्पन्न होते हैं ।। ११५९ ॥ एकदा शुभमना विषद्यते, बालपण्डित-मृर्ति समेत्य यः । स प्रपद्य नर-देव- सम्पदं, सप्तमे भवति निर्वृतो भव ।। २१६० ।। इति बालपण्डितम् । अर्थ - जो शुभमना अर्थात् विशुद्ध परिणाम वाला देशव्रती एक बार या एक भव में भी बालपण्डितमरण को ग्रहण कर लेता है वह उत्तम मनुष्य एवं देव सम्बन्धी अभ्युदय सुखों को भोग कर सातवें भव में मोक्ष चला जाता है ।।२१६० ॥ प्रश्न- पण्डितरण पद के पूर्व आया है? लक्षण क्या है और इसके स्वामी कौन-कौन हैं ? उत्तर - बालपण्डित में बाल शब्द का अभिप्राय है कि यह जीव पूर्ण संयमी नहीं है और पंडित शब्द इसलिए है कि उसके सम्यक्त्व सहित एकदेश संयम है। इन जीवों के मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी एवं अप्रत्याख्यान कषायों का उदय नहीं रहता, शेष प्रत्याख्यानादि का उदय होता है। पहली प्रतिमा से ग्यारहवीं प्रतिमा पर्यन्त के सब जीव अर्थात् ऐलक, क्षुल्लक, क्षुल्लिका एवं प्रतिमाधारी सभी ब्रह्मचारी, ब्रह्मचारिणी और व्रती श्रावकश्राविकाएँ इस मरण के स्वामी हैं। ये सभी सम्यग्दृष्टि जीव पंचम गुणस्थान में वर्तन करते हुए आहार एवं कषायभावों का त्याग करते हुए जो मरण करते हैं उसे बालपंडितमरण कहते हैं । प्रश्न - आर्यिका का कौनसा मरण होता है ? उत्तर - स्त्रियों के लिंग का विवेचन करते हुए शिवकोटि आचार्य कहते हैं कि इत्थीवि य जं लिंगं, दिट्ठे उस्सग्गियं व इदरं वा । तं तत्थ होदि हु लिंगं, परित्तमुषधिं करेंतीए ॥ ८० ॥ अर्थात् आर्यिकाओं के औत्सर्गिक और क्षुल्लिकादि श्राविकाओं के आपवादिक लिंग होता है। भक्तप्रत्याख्यानमरण के समय भी उनके यही औत्सर्गिक लिंग होता है। वसुनन्दी आचार्य ने अपनी टीका में प्रश्न उठाया है कि स्त्रीणां उत्सर्गलिंगं कथं निरूप्यते ? अर्थात् स्त्रियों के औत्सर्गिक लिंग कैसे कहा ? तब आप ही उत्तर देते हैं कि अल्पं परिग्रहं कुर्वत्याः । परिग्रह अल्प कर देने से आर्यिकाओं के भी औत्सर्गिक लिंग होता है। अर्थात् ममत्व भाव न होते हुए भी पर्यायजन्य विवशता से वे एक साड़ी रखती हैं और मरण के समय उसका भी त्याग कर देती हैं। अत: उनके औत्सर्गिक लिंग कहा गया है। इस कथन से सिद्ध होता है कि एक साड़ी होते हुए भी अर्थात् संयमासंयम गुणस्थान होते हुए भी उनका रत्नत्रय अथवा परिणाम विशुद्धि ऐलक - क्षुल्लकादि से उत्कृष्ट है। आर्यिकाओं के कौनसा मरण होता है ? इसका स्पष्ट विवेचन कहीं आगम में अद्यावधि मेरे देखने में नहीं आया अतः विद्वज्जनों द्वारा यह विषय चिन्तनीय है। Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ५९० (१२) पंडित-पंडित मरणाधिकार बालपंडितमरण का उपसंहार और पंडित-पंडित मरण के कथन की प्रतिज्ञा एवं समासतोऽवाचि, मरणं बालपण्डितम् । अधुना कथयिष्यामि, मृत्यु पण्डितपण्डितम् ॥२१६१ ।। अर्थ - इस प्रकार संक्षेप से बालपंडितमरण का कथन किया है अब पण्डित-पण्डितमरण का विवेचन करूँगा ||२१६१॥ क्षपक श्रेणी के लिए पुरुषार्थ अप्रमत्तगुणस्थाने, वर्तमानस्तपोधनः । आरोदं क्षपकश्रेणी, धर्मध्यानं प्रपद्यते ।।२१६२ ।। अर्थ - अप्रमत्त नामक सातवें गुणस्थान में वर्तन करने वाले मुनिराज क्षपक श्रेणी पर आरोहण करने की इच्छा से धर्मध्यान धारण करते हैं ।।२१६२।। धर्मध्यान का बाह्य परिकर अनुज्ञाते समे देशे, विविक्ते जन्तु-वर्जिते। ऋज्वायत-वपुर्यष्टिः, कृस्वा पर्यंक-बन्धनम् ।।२१६३ ॥ अर्थ - क्षेत्र के स्वामी से अथवा वहाँ के अधिष्ठाता देव से आज्ञा लेकर तपस्वीजन जीव-जन्तुरहित, एकान्त, रम्य, पवित्र और सम प्रदेश में अपनी शरीर यष्टि को अथवा रीढ़ की हड्डी को एकदम सीधा रख कर पर्यंकासन से ध्यान करते हैं ॥२१६३ ।। वीरासनादिकं बद्ध्वा, समपादादिकां स्थितिम्। आश्रित्य या सुधीः शय्यामुत्तान-शयनादिकम् ।।२१६४ ।। __ अर्थ - अथवा वे बुद्धिशाली मुनिजन वीरासनादि आसनों से स्थित होकर या दोनों पैरों को समान कर कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़े होकर या उत्तान अर्थात् सीधे सोकर या एक पार्श्व से लेटकर ध्यान करते हैं।॥२१६४।। पूर्वोक्त-विधिना ध्याने, शुद्धलेश्य: प्रवर्तते । योगी प्रवचनाभिज्ञो, मोहनीय-क्षयोद्यतः ।।२१६५ ।। अर्थ - शास्त्रों के अर्थात् अंग और पूर्वो के ज्ञाता तथा मोहनीय कर्म का क्षय करने में उद्यत वे मुनिराज पूर्वोक्त प्रकार से स्थित एवं शुक्ल लेश्या में संलग्न हो ध्यान करते हैं ।।२१६५॥ Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ५९१ मोहनीय कर्मप्रकृतियों के क्षय का कम पूर्व संयोजनान्हन्ति, तेन ध्यानेन शुद्ध-धीः । मिथ्यात्व-मिश्र-सम्यक्त्वं, त्रितयं क्रमतस्ततः ॥२१६६ ।। अर्थ - वे शुद्ध बुद्धिधारी मुनिराज उत्तम धर्म ध्यान द्वारा सर्वप्रथम अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ इन चार प्रकृतियों की विसंयोजना करके उन्हें नष्ट करते हैं। तदनन्तर मिथ्यात्व, मिश्र एवं सम्यक्च, दर्शनमोहनीय की इन तीन प्रकृतियों को क्रमश: नष्ट करके क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त करते हैं ।।२१६६ ।। प्रश्न - क्षायिक सम्यक्त्व तो चतुर्थ गुणस्थान से सप्तम गुणस्थान पर्यन्त के किसी भी गुणस्थान में हो सकता है तब फिर यहाँ सातवें गुणस्थान में ही उसकी प्राप्ति का क्रम क्यों कहा जा रहा है ? उत्तर - श्लोक २१६२ में आचार्यदेव ने “आरो, क्षपक श्रेणी" पद द्वारा यह निर्णय दे दिया है कि जो अप्रमत्तसंयत मुनि, क्षपक-श्रेणी चढ़ने को उद्यमशील हैं उनके क्षायिक सम्यक्त्व की बात कही जा रही है। प्रश्न - क्षायिक सम्यक्त्व किसे होता है और उसे प्राप्त करने का क्या क्रम है ? उत्तर - क्षायिक सम्यक्त्व चतुर्थादि गुणस्थानवर्ती कर्मभूमिज किसी सम्यग्दृष्टि मनुष्य के केवली या श्रुतकेवली के पादमूल में होता है। यह क्षायिक सम्यक्त्व मिथ्यात्व से या सासादन से या मिश्र से नहीं होता, मात्र सम्यक्त्व से होता है। सम्यक्त्व में भी प्रथमोपशम या द्वितीयोपशम सम्यक्त्व से न होकर मात्र वेदक सम्यक्त्व से होता है। वेदक सभ्यकची कर्मभूमिज मनुष्यों में भी द्रव्यस्त्रीवेदी एवं द्रव्य नपुंसकवेदियों को नहीं होता, मात्र द्रव्यपुरुषवेदी को होता है, द्रव्यपुरुषवेदियों में भी सर्वप्रथम अधःकरण करता है, पश्चात् अपूर्वकरण करता है, पश्चात् अनिवृत्तिकरण करता है। अनिवृत्तिकरण में अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ इन चारों प्रकृतियों की विसंयोजना करता है। प्रश्न - विसंयोजना किसे कहते हैं ? उत्तर - अनन्तानुबन्धी चतुष्क के स्कन्धों का प्रत्याख्यानावरण आदि बारह कषायों तथा नोकषायों में संक्रमित करने का नाम विसंयोजना है। इस प्रकार विसंयोजना द्वारा ही अनन्तानुबन्धी कषाय का सत्ता से नाश करता है। तदनन्तर अन्तर्मुहूर्त प्रमाण काल तक विश्राम करता है। पश्चात् पुनः अध:करणादि तीनों करण करता है, इनमें से अन्तिम अनिवृत्तिकरण में मिथ्यात्व का द्रव्य मिश्र प्रकृति में और मिश्र प्रकृति का द्रव्य सम्यक्त्व प्रकृति में संक्रमित कर क्रम से इन दोनों प्रकृतियों को नष्ट करता है, इसके पश्चात् सम्यक्त्व प्रकृति को स्वमुख से नष्ट कर क्षायिक सम्यग्दृष्टि हो जाता है। क्षपकश्रेणी आरोहण आरुह्य क्षपकश्रेणीमपूर्वकरणो यतिः । भूत्वा प्रपद्यते स्थानमनिवृत्तिगुणाभिधम् ॥२१६७ ।। अर्थ - क्षायिक सम्यक्त्वी होने के बाद अप्रमत्त गुणस्थानवर्ती साधु क्षपकश्रेणी पर आरोहण करता Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका- ५९२ है । इसमें क्रमशः अधःकरण अर्थात् सातिशय अप्रमत्तगुणस्थान तथा अपूर्वकरण नामक आठवें गुण-स्थान को प्राप्त करता है। (इसे अपूर्वकरण इसलिए कहते हैं कि उसने इस प्रकार के परिणाम नीचे के गुणस्थानों में कभी भी प्राप्त नहीं किये) उसके पश्चात् वह साधु नौवें अनिवृत्तिकरण गुणस्थान को प्राप्त करता है ॥ २१६७ ।। सूक्ष्म - साधारणोद्योत - स्त्यानगृद्धि-त्रयातपान् । एकाक्ष - विकलाख्यानां जातिं तिर्यग्यं मुनि ।।२१६८ ॥ स्थावरं नारक द्वन्द्वं षोडश प्रकृतीरिमाः । प्लोष प्रथमं तत्र शुक्लध्यान - कृशानुना ।।२१६९ ।। अर्थ - नौवें गुणस्थान में वह साधु निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि, सूक्ष्म, साधारण, उद्योत, आतप, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय ये चार जातियाँ, तिर्यंचगति, तिर्यंचगत्यानुपूर्वी, स्थावर, नरकगति और नरकगत्यानुपूर्वी इन सोलह कर्मप्रकृतियों को पृथकृत्व वितर्कवीचार नामक प्रथम शुक्लध्यान रूप अग्रि के द्वारा नष्ट कर देता है ।। २१६८-२१६९ ॥ A कषायान्मध्यमानष्टी, षंढवेदं निकृन्तति । स्त्रीवेदं क्रमतः षट्कं, हास्यादीनां ततः परम् ।।२१७० ।। अर्थ तदनन्तर उसी गुणस्थान में क्रमशः मध्य की आठ कषायों अर्थात् अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया एवं लोभ को तत्पश्चात् नपुंसक वेद को, पश्चात् स्त्रीवेद को, तदनन्तर हास्य, रति, अरति, शोक, भय और जुगुप्सा इन छह नोकषायों को नष्ट करता है ।। २१७० ।। पुंवेदं क्रमतश्च्छित्वा, शुक्लध्यान - महासिना । क्रोधं संज्वलनं मानं, मायां संज्वलनाभिधाम् ॥। २१७१ ।। अर्थ - पुनः उसी नौवें गुणस्थान में शुक्ल ध्यान रूपी तीक्ष्ण तलवार से पुरुषवेद को काट कर क्रमशः संज्वलन क्रोध, मान एवं माया का क्षय करता है । (पश्चात् संज्वलन लोभ को बादरकृष्टि द्वारा कृश करता है) ।। २१७१ ।। प्रश्न- इस अनिवृत्तिकरण नामक नौवें गुणस्थान में कौन-कौन से कर्मों की कितनी प्रकृतियों का क्षय करता है तथा इन प्रकृतियों के क्षय की संक्षिप्त विधि क्या है ? उत्तर- इस गुणस्थान में दर्शनावरणकर्म की तीन, मोहनीय की बीस और नामकर्म की तेरह, इस प्रकार कुल छत्तीस प्रकृतियों का क्षय करता है। उनके क्षय का क्रम इस प्रकार है मध्यवर्ती आठों कषायें अप्रशस्त है अतः इनका पहले क्षपण करना आवश्यक है। इन आठों कषायों के प्रकृति, प्रदेश, स्थिति एवं अनुभाग इन चारों को संज्वलन कषायों में संक्रमित कर इन्हें परमुख से क्षय करता है | पश्चात् अनिवृत्तिकरण के काल में जब संख्यातवाँ भाग शेष रहता है तब निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला और स्त्यानगृद्धि इन तीन को एवं नामकर्म की उपर्युक्त तेरह प्रकृतियों को अपनी-अपनी जाति में संक्रमित कर परमुख से क्षय करता है । पश्चात् स्त्री वेद और नपुंसकवेद के द्रव्य को पुरुष वेद में देकर उन दोनों का क्षय करता है। Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ५१३ पश्चात् पुरुषवेद एवं हास्यादि छह कषायों का द्रव्य क्रोध संज्वलन में क्षेपण कर क्षय करता है। इसी प्रकार क्रोध संज्वलन को मान संज्वलन में. मान के दव्य को माया संज्वलन में तथा माया के द्रव्य को लोभ संज्वलन में संक्रमित कर क्रोध, मान और माया का क्षय करता है। अन्त में बादरकृष्टि के द्वारा लोभ संज्वलन को कृश करके सूक्ष्मलोभ रूप में करता है। सूक्ष्मलोभ-गुणस्थाने, सूक्ष्मलोभं निशुम्भति। प्राप्नोति संयमं शुद्धं, तदा तदभिधानकम् ॥२१७२ ।। अर्थ - लोभ की बादरकृष्टि के अनन्तर लोभ की सूक्ष्मकृष्टि का अनुभव करने वाले मुनिराज जब सूक्ष्म साम्पराय नामक दसवें गुणस्थान का आश्रय लेते हैं तब उनको सूक्ष्मसाम्पराय नामक चारित्र की प्राप्ति होती है ॥२१७२॥ क्षीणासु लोभकृष्टिसु, नष्ट-कषायो यदा यतिर्भवति। एकत्वमवीचारं, सवितर्क ध्यानमश्नुते स तदा ॥२१७३ ।। अर्थ - जब संज्वलनलोभ की सूक्ष्मकृष्टि भी नष्ट हो जाती है तब वे यति एकत्ववितर्कवीचार नामक शुक्लध्यान को ध्याते हैं ।।२१७३ ।। तेन ध्यानेन तदा स-यथाख्यातेन शेष-घातीनि । भव-कारणानि युगपत्, प्रणिहन्ति मुनीश्वरस्तूर्णम् ।।२१७४ ॥ अर्थ - उस एकत्ववितर्क ध्यान तथा यथाख्यात चारित्र द्वारा वे महामुनीश्वर संसारभ्रमण के कारणभूत शेष घातिया कर्मों को एक साथ अर्थात् युगपत् नष्ट कर देते हैं ।।२१७४ ॥ मोहनीये हते शेषं, घातिकर्म-कदम्बकम् । तृणराज इवाशेष-सूचीबन्धे प्रणश्यति ॥२१७५ ।। अर्थ - जैसे ताड़वृक्ष की मस्तक सूची अर्थात् ऊपर का शाखाभार टूट जाने पर पूरा ताड़वृक्ष नष्ट हो जाता है, वैसे ही समस्त मोहनीय कर्म का क्षय हो जाने पर शेष घातिया कर्मों का समूह भी नष्ट हो जाता है।।२१७५॥ तीन धातिया कर्म नष्ट होने का क्रम सूक्ष्मलोभ-गुणस्थाने, सूक्ष्मलोभं निशुम्भति। स निद्रा-प्रचले क्षीण-मोहस्योपान्तिमे ततः॥२१७६ ।। पञ्चज्ञानावृतीस्तत्र-चतस्रो दर्शनावृतीः । पञ्च विघ्नानसौ हन्ति, चरमांशे चतुर्दश ॥२१७७ ॥ अर्थ - सूक्ष्मसाम्पराय नामक दसवें गुणस्थान के अन्त में सूक्ष्मलोभ को नष्ट कर वे मुनिराज बारहवें गुणस्थान में प्रवेश करते हैं। इस गुणस्थान के द्विचरम समय में निद्रा और प्रचला इन दो प्रकृतियों को एवं Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ५९४ चरमसमय में पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पाँच अन्तराय इन चौदह प्रकृतियों को एक साथ नष्ट कर देते हैं ॥२१७६-२१७७॥ __ तेरहवें गुणस्थान में प्रवेश हुत्वैकत्ववितर्काग्नौ, घाति-कर्मेन्धनं सुधीः। दर्शकं सर्व-भावानां, केवलज्ञानमश्नुते ॥२१७८ ॥ अर्ध - इस प्रकार वे महाबुद्धिशाली तपोधन एकत्ववितर्क अवीचार शुक्लध्यान रूपी अग्नि में घातिया कर्मरूपी ईंधन को भस्मसात् करके समस्त द्रव्य और उनकी अनन्तानन्त पर्यायों को जानने-देखने वाले केवलज्ञान एवं केवलदर्शन को प्राप्त कर लेते हैं।।२१७८ ॥ अनन्तमप्रतीबन्धं, निःसंकोचमनिन्द्रियम् । निःक्रमं केवलज्ञानं, निःकषायमकल्मषम् ।।२१७९ ।। कर-स्थितमिवाशेष, लोकालोकं विलोकते। युगपत्तेन बोधन, योगी विमानकाशिना ।।१९८॥ अर्थ - अनन्त प्रमाण वाला होने से अथवा कभी नष्ट न होने के कारण केवलज्ञान अनन्त है, व्याघात से रहित अथवा रुकावट से रहित होने के कारण अप्रतिबन्ध है, संकोच-विस्तार रहित है, इन्द्रियाधीन न होने से अनिन्द्रिय है, क्रम रहित होने से अथवा युगपत् जानने वाला होने से निक्रम है, यह ज्ञान असहाय है अतः केवल है, कषाय एवं पापों से रहित होने के कारण नि:कषायमकल्मषम् है, ऐसे विश्वप्रकाशी केवलज्ञान के द्वारा सयोगी भगवान हाथ में रखे हुए पदार्थ के सदृश अशेष लोकालोक को युगपत् जानते हैं ॥२१७९-२१८० ।। अनन्तं दर्शनं, ज्ञानं, सुखं वीर्यमनश्वरम्। जायते तरसा तस्य, चतुष्टयमखण्डितम् ।।२१८१॥ अर्थ - उन सयोग केवली अरहन्त-भगवन्तों के शीघ्र ही अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्त वीर्य ये अखंडित एवं अविनश्वर चतुष्टय उत्पन्न हो जाते हैं ।।२१८१ ॥ ___ सयोगकेवली अरहन्तों की प्रक्रिया ततो वेदयमानोऽसौ, शेषाधाति-चतुष्टयम् । कुर्वाणो जनतानन्दं, भ्रमत्येष सुरार्चितः ॥२१८२।। विवर्धमान-चारित्रो, ज्ञान-दर्शन-भूषितः। शेष-कर्म-विधाताय, योग-रोधं करोति सः॥२१८३ ।। अर्थ - वे सयोग केवली भगवान् शेष बचे चार अघातिया कर्मों का वेदन करते हुए, चतुर्निकाय देवों द्वारा पूजित होते हुए और अपनी दिव्यध्वनि द्वारा आर्यखण्ड की जनता को आनन्द प्रदान करते हुए विहार करते हैं। तदनन्तर विवर्धमान दर्शन, ज्ञान एवं चारित्र से विभूषित वे सयोगी जिन शेष कर्मों का नाश करने के लिए योगनिरोध करते हैं ।।२१८२-२१८३ ॥ Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ५९५ प्रश्न - योगनिरोध में क्या करते हैं ? उत्तर - अघातिया कर्मों को नष्ट करने के लिए सत्य मनोयोग, अनुभय मनोयोग, सत्यवचनयोग, अनुकरण का योग, औद.रि काग, औदारिक निकाययोग और कार्मणकाययोग, इन सात योगों का निग्रह प्रारम्भ करते हैं अर्थात् योगनिरोध में इन योगों के व्यापार को रोकते हैं। समुद्घात कब और क्यों करते हैं ? आयुषा सदृशं यस्य, जायते कर्मणां त्रयम्। स निरस्त-समुद्यातः, शैलेश्यं प्रतिपद्यते ।।२१८४ ॥ अर्थ - जिन सयोगी जिन के नामकर्म, गोत्रकर्म और वेदनीय कर्म की स्थिति आयु कर्म के समान ही होती है वे सयोगी जिन समुद्घात किये बिना ही शैलेशी अवस्था को प्राप्त हो जाते हैं अर्थात् अठारह हजार शीलों के आधिपत्य को प्राप्त कर लेते हैं अर्थात् चौदहवें अयोग केवली नामक गुणस्थान में आ जाते हैं।।२९८४ ॥ यदायुषोऽधिकं कर्म जायते त्रितयं परम् । समुद्घातं तदाभ्येति, तत्समीकरणाय सः॥२१८५ ।। अर्थ - किन्तु जिनकी आयुस्थिति कम होती है और नाम, गोत्र तथा वेदनीय कर्म की स्थिति अधिक होती है वे सयोगी जिन उन तीन कर्मों की स्थिति आयुकर्म की स्थिति के बराबर करने के लिए समुद्घात क्रिया अवश्य करते हैं।।२१८५॥ य: षण्मासावशेषायुः, केवलज्ञानमश्नुते। अवश्यं स समुद्घातं, याति शेषो विकल्प्यते ॥२१८६ ॥ अर्थ - अनुभूयमान मनुष्यायु छह मास शेष रहने पर जो केवलज्ञान प्राप्त कर लेते हैं वे अवश्यमेव समुद्घात करते हैं। शेष सयोगकेवली समुद्घात करते भी हैं और नहीं भी करते। उनके लिए कोई नियम नहीं है।।२१८६॥ अन्तर्मुहूर्त-शेषायुर्यदा भवति संयमी। समुद्धातं तदा धीरो, विधत्ते कर्म-धूतये ॥२१८७ ॥ अर्थ - सयोग केवली की आयु स्थिति जब अन्तर्मुहूर्त मात्र शेष रह जाती है तब वे धीर-वीर संयमी भगवान् कर्मों की स्थिति का हास करने के लिए समुद्घात करते हैं ।।२१८७ ।। समुद्घात क्रिया से कर्मस्थिति का ह्रास होने का हेतु प्रषिकीर्णं यथा वस्त्रं, विशुष्यति न संवृतम् । तथा कर्मापि बोद्धव्यं, कर्म-विध्वंस-कारिभिः ।।२१८८ ॥ Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका- ५९६ अर्थ - कर्मों का नाश कर देने वाले जिनेन्द्र भगवान ने कहा है कि जैसे गीला वस्त्र फैला देने पर वह जितने शीघ्र सूख जाता है, उतने शीघ्र इकट्ठा करके रखा हुआ वस्त्र नहीं सूखता, कर्मों की भी वैसी ही दशा जानना अर्थात् आत्मप्रदेश फैला देने से सम्बद्ध कर्मरज की स्थिति बिना भोगे ही घट जाती है ॥ २१८८ ॥ समुद्घाते कृते स्नेह-स्थिति-हेतुर्विनश्यति । क्षीण - स्नेहं ततः शेषमल्पीय: स्थिति जायते ।। २१८९ ।। अर्थ - वहाँ स्थितिबन्ध का कारण मात्र स्नेहगुण है। समुद्घात करने पर वह स्निग्धता नष्ट हो जाती है, स्नेहगुण क्षीण होते ही तीनों कर्म अल्पस्थिति वाले हो जाते हैं ।। २१८९ ॥ प्रश्न - कर्मों की स्थिति किस प्रकार घटती है ? उत्तर - समुद्घात द्वारा कर्मस्थिति घटने के दो हेतु दिये गये हैं, एक दृष्टान्त है कि जैसे धोकर निचोड़ा हुआ गीला वस्त्र यदि फैला दिया जाता है तो वह शीघ्र सूख जाता है और निचोड़ कर यदि वैसे का वैसा रख दिया जाता है तो देर से सूखता है। यही स्थिति तीनों अघातिया कर्मों की है । दूसरे हेतु में कर्म परमाणुओं के बन्ध का मूल कारण उन परमाणुओं में रहने वाला गुण है। यह अभ्यन्तर कारण है अर्थात् आत्मप्रदेश फैला देने से आत्मा के साथ बँधे हुए तीनों अघातिया के कर्मपरमाणु भी उसी रूप में फैल जाते हैं जिससे उनका स्निग्धगुण क्षीण हो जाता है और कारण क्षीण होते ही कार्यरूप स्थितिबन्ध भी क्षीण हो जाता है। केवलीसमुद्घात में आत्मप्रदेश फैलने का क्रम दण्डं कपाटकं कृत्वा, प्रतरं लोकपूरणम् । चतुर्भिः समयैर्योगी, तावद्भिश्च निवर्तते ॥ २१९० ॥ , अर्थ - सयोगकेवली जिन चार समयों में दण्ड, कपाट, प्रतर और लोकपूरण समुद्घात करके क्रमशः चार ही समयों में उन आत्मप्रदेशों को संकुचित कर लेते हैं ।। २९९० ॥ प्रश्न • सयोगी जिन केवली समुद्रात क्यों और किस प्रक्रिया से करते हैं ? - उत्तर - आयु की स्थिति अन्तर्मुहूर्त और शेष कर्मों की स्थिति अधिक रहने पर उन्हें आयु के बराबर करने के लिए सयोगी जिन केवली समुद्घात करते हैं। वे जिनेन्द्र पूर्वाभिमुख या उत्तराभिमुख कायोत्सर्ग अथवा पद्मासन मुद्रा में स्थित होते हैं। मूल कायोत्सर्ग आसन स्थित जिनेन्द्र के आत्मप्रदेश समुद्घात के प्रथम समय में दण्डाकार होते हैं, जो शरीर के प्रमाण चौड़े और कुछ कम चौदह राजू प्रमाण लम्बे होकर लोक में ऊपर से नीचे तक फैल जाते हैं, किन्तु जो जिनेन्द्र पद्मासन विराजमान हैं उनके आत्मप्रदेश शरीर से तिगुने चौड़े होकर दण्डाकार फैलते हैं। दूसरे समय में वे आत्मप्रदेश कपाटाकार अर्थात् जैसे किवाड़ बाहल्य अर्थात् मोटाई में कम होकर भी लम्बाई-चौड़ाई में बड़े रहते हैं वैसे ही उन जिनेन्द्र के आत्मप्रदेश मोटाई में कम, लम्बाई कुछ कम चौदह राजू और चौड़ाई दोनों पार्श्वभागों में सात राजू रूप फैलते हैं। विशेष इतना जानना चाहिए कि पूर्वाभिमुख स्थित जिनेन्द्र के की स्थिति Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ५९७ आत्मप्रदेश दक्षिण-उत्तर सात राजू चौड़े और उत्तराभिमुख स्थित जिनेन्द्र के आत्मप्रदेश जैसे लोकाकाश की पूर्व-पश्चिम चौड़ाई सात, एक, पाँच और एक राजू प्रमाण है वैसे ही हानि - वृद्धिरूप फैलते हैं। तीसरे समय में वे आत्मप्रदेश प्रतराकार हो जाते हैं अर्थात् मोटाई में भी वातवलयों के अतिरिक्त समस्त लोक में फैल जाते हैं। इस प्रकार दण्डाकार में लम्बे, कपाटाकार में चौड़े और प्रतराकार में मोटाई रूप से आत्मप्रदेश फैलते हैं। चतुर्थ समय में वे आत्मप्रदेश वातवलयों तक फैल कर सर्व लोक को व्याप्त कर लेते हैं जिसे लोकपूरण कहते हैं। इसके अनन्तर ही इनका संकोच होता है अतः पाँचवें समय में पुनः प्रतराकार, छठे समय में कपाटाकार सातवें समय में दण्डाकार और आठवें समय में मूलशरीर प्रमाण हो जाते हैं। इस प्रकार समुद्घात में कुल आठ समय लगते हैं। प्रश्न - समुद्घात में कौन-कौन से योग होते हैं ? उत्तर - समुद्रघात में दण्डाकार के समय औदारिक काययोग, दूसरे कपाटाकार समय में औदारिक मिश्रयोग, तीसरे प्रतराकार, चौथे लोकपूरण तथा संकोच करते हुए पाँचवें समय के प्रतराकार में ऐसे तीन समयों में कार्मण काययोग होता है। संकोच रूप कपाटाकार में औदारिक मिश्र योग और दण्डाकार में औदारिक काययोग होता है। इस प्रकार विस्तार-संकोच दोनों दण्डाकारों के समय औदारिक काययोग, दोनों कपाटाकारों के समय औदारिक मिश्र काययोग तथा दोनों प्रतराकार और लोकपूरण के समय कार्मण काययोग होता है। सिद्धिवधू को प्राप्त करने का उद्यम वेद्यायुर्नाम - गोत्राणि, समानानि विधाय सः । प्राप्तुं सिद्धिवधूं धीरो, विधत्ते योग - रोधनम् ॥ २१९१ ।। - अर्थ इस प्रकार नाम, गोत्र और वेदनीय कर्मों की स्थिति आयुकर्म की स्थिति के बराबर करके सिद्धिवधू को प्राप्त करने के लिए वे धीर जिनेन्द्र योगों का निरोध करते हैं ।। २१९१ ॥ प्रश्न- पूर्व में ही कहा जा चुका है कि विवर्धमान चारित्रो, ज्ञान-दर्शन-भूषित: । शेषकर्म - विघाताय, योगरोधं करोति सः ॥। २१८३ ।। अर्थात् ज्ञान दर्शन के साथ वृद्धिंगत चारित्र वाले वे सयोगी जिन शेष कर्मों का नाश करने के लिए योगनिरोध करते हैं। उपर्युक्त श्लोक २१९१ में भी यही कहा गया है कि सिद्धिवधू की प्राप्ति के लिए वे सयोगी जिन योगनिरोध करते हैं। इन दोनों में क्या अन्तर है ? उत्तर - केवलज्ञान हो जाने के बाद सयोगी अरहन्त जिन देश देश में विहार करते हैं एवं दिव्यध्वनि द्वारा धर्मोपदेश देते हैं जिसके लिए समोसरण की रचना होती है, इत्यादि बाह्य क्रिया रूप योगों के निरोध की सूचना श्लोक २१८३ में दी गई है। जैसे आदिनाथ भगवान ने चौदह दिन पूर्व, अजितनाथ से पार्श्वनाथ पर्यन्त बाईस तीर्थंकरों ने एक मास पूर्व और महावीर भगवान ने दो दिन पूर्व योगनिरोध किया था। चौदहवें गुणस्थान में प्रवेश करने हेतु जो योगनिरोध होता है उसकी सूचना उपर्युक्त श्लोक २१९१ में दी गई है, इन दोनों में यही अन्तर है। Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ५९८ योगनिरोध का क्रम स्थूलौ मनो-वचो-योगी, रुणद्धि स्थूल-कायतः । सूक्ष्मेण काययोगेन, स्थूलयोगं च कायिकम् ॥२१९२ ।। सूक्ष्मौ मनो-वचो-योगी, रुन्द्ध कर्मास्रवैर्जिनः । सूक्ष्मेण काययोगेन, सेतुनेव जलास्रवम् ।।२१९३ ।। अर्थ - सर्वप्रथम स्थूल काययोग में स्थित होकर वे केवली जिन बादर अर्थात् स्थूल वचमयोग और स्थूलमनोयोग को रोकते हैं, पश्चात् सूक्ष्म काययोग में स्थित होकर स्थूलकाययोग को रोकते हैं। उसी प्रकार सूक्ष्म काययोग के द्वारा सूक्ष्म मनोयोग और सूक्ष्म वचन योग को रोक कर सूक्ष्म काययोग में स्थित होते हैं। उस समय उनके ईयापथ आसव भी रुक जाता है, मात्र सूक्ष्म काययोग से किंचित् कर्म उस प्रकार आता है जिस प्रकार जल को बाँध देने वाले बंधा में किंचित् सा छिद्र रह जाने पर किंचित् जल आता है ।।२१९२२९९३॥ प्रश्न - योग किसे कहते हैं और एक समय में एक जीव के कितने योग होते हैं ? उत्तर - पुद्गल विपाकी शरीर नामकर्म के उदय से मन, वचन और काययुक्त के कर्म और नोकर्म वर्गाओं को ग्रहण करने की शनि लियोष को योग बढ़ो हैं। योग का यह सामान्य लक्षण है। अथवा मन, वचन और काय वर्गणा के निमित्त से आत्मप्रदेशों में जो परिस्पन्दन होता है उसे योग कहते हैं। अथवा जीवप्रदेशों का जो संकोच-विकोच अथवा परिभ्रमण रूप परिस्पन्दन होता है वह योग है। अथवा मनोवर्गणा, वचनवर्गणा और कायवर्गणा के निमित्त से आत्मप्रदेशों में जो परिस्पन्दन होता है उसे योग कहते हैं। एक समय में एक जीव के एक ही योग होता है। प्रश्न - यदि आत्मप्रदेशों का परिस्पन्दन ही तीनों योगों का लक्षण है तो तीनों योग एक साथ एक ही समय में होने चाहिए, एक समय में एक योग नहीं ? उत्तर - जीव प्रत्येक समय में अनेक कर्मवर्गणाओं को और नोकर्मवर्गणाओं को ग्रहण करता रहता है किन्तु उनमें जिस समय जिस वर्गणा के अवलम्बन से आत्मप्रदेश सकम्प होते हैं उस समय उसी वर्गणा के नाम वाला योग होता है। जैसे यदि मनोवर्गणा के अवलम्बन से कम्पन हुआ है तो उस समय मनोयोग ही होगा। अत: एक जीव के एक समय में एक ही योग होता है। प्रश्न - योगनिरोध का क्या कार्य है ? उत्तर - जीव की योगशक्ति को उपर्युक्त प्रक्रिया द्वारा कृश करते-करते नष्ट कर देना, यह योगनिरोध का कार्य है। सयोग केवली गुणस्थान के अन्त समय में यह योगशक्ति पूर्णतः नष्ट हो जाती है। तब वे अयोगकेवली नाम वाले चौदहवें गुणस्थान में प्रवेश कर जाते हैं। सूक्ष्मकाययोगी के होने वाला आम्रय एवं ध्यान लेश्या-शरीर-योगाभ्यां, सूक्ष्माभ्यां कर्म-बन्धकः । शुक्लं सूक्ष्मक्रियं ध्यानं, कर्तुमारभते जिनः ।।२१९४॥ Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ५९९ अर्थ - वे सयोगी जिन सूक्ष्म लेश्या के द्वारा सूक्ष्म काययोग से सातावेदनीय रूप ईर्यापथ आस्रव करके उसी कर्म प्रकृति का बन्ध करते हैं और सूक्ष्मक्रिया अप्रतिघाती शुक्ल का प्रारम्भ करते हैं।।२१९४ ।। प्रश्न - सूक्ष्मक्रिया अप्रतिघाती नामक तीसरे शुक्लध्यान का प्रारम्भ करते हैं, ऐसा क्यों कहा ? उत्तर - तीसरे पाये का प्रारम्भ इसलिए कहा गया है कि सूक्ष्म-काययोग में स्थित होने के पूर्व तेरहवें गुणस्थान के शेष सम्पूर्ण काल में और समुद्घात काल में भी यह शुक्लध्यान नहीं होता, इसका प्रारम्भ यहीं होता है। सूक्ष्म काययोग का विनाशादि सूक्ष्मक्रियेण रुद्धोऽसौ, ध्यानेन सूक्ष्म-विग्रहः । स्थिरीभूत-प्रदेशोऽस्ति, कर्मबन्ध-विवर्जितः ।।२१९५॥ अर्थ - उस सूक्ष्मक्रिया अप्रतिघाती शुक्ल ध्यान द्वारा सूक्ष्मकाययोग का निरोध कर सातावेदनीय जन्य ईर्यापथ आस्रव रूप कर्मबन्ध से भी रहित होते हुए वे अयोगी जिनेन्द्र अपने आत्मप्रदेशों में ही स्थिर हो जाते हैं।।२१९५।। अयोगीजिन की उदयगत कर्मप्रकृतियाँ अयोगोऽन्यतरद्वेद्यं, नरायुनू-द्वय त्रसम्। सुभगादेय-पर्याप्नं, पञ्चाक्षोच्च-यशांसि सः ॥२१९६ ।। खादरं तीर्थकृत्वैतास्तीर्थकारी त्रयोदश। न परो वेदयते साधुस्तदानीं द्वादश स्फुटम् ।।२१९७ ।। अर्थ - साता और असाता में से कोई एक वेदनीय, मनुष्यायु, मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी (यहाँ इसका उदय नहीं रहता। इसके द्रव्य का स्तिबुक संक्रमण मनुष्यगति में हो जाता है), त्रस, सुभग, आदेय, पर्याप्त, पंचेन्द्रिय जाति, उच्चगोत्र, यशः कीर्ति, बादर और तीर्थकर, इन तेरह कर्मप्रकृतियों का उदय-तीर्थंकरों के होता है किन्तु जो तीर्थंकर नहीं हैं, सामान्य अयोग-केवली हैं उनके नियमत: बारह प्रकृतियों का ही उदय रहता है।॥२१९६-२१९७।। प्रश्न - अयोगकेवली के चरम समय में ग्यारह प्रकृतियों का उदय कैसे कहा गया है ? उत्तर - जिन आचार्यों के मत से मनुष्यगत्यानुपूर्वी का क्षय चौदहवें गुणस्थान के द्विचरमसमय में हो जाता है और यदि वे तीर्थंकर नहीं हैं तो उनके मात्र ग्यारह प्रकृतियों का ही उदय रहता है। शरीर नष्ट करने का उद्यम देह-त्रितय-बन्धस्य, ध्वंसायायोगकेवली। समुच्छिन्न-क्रियं ध्यानं, निश्चलं प्रतिपद्यते ।।२१९८ ।। अर्थ - अयोगी जिन परम औदारिक, तैजस और कार्मण इन तीन शरीरों को नष्ट करने के लिए समुच्छिन्नक्रिया अप्रतिपाती अपर नाम व्युपरतक्रियानिवृत्ति नामक निश्चय शुक्ल ध्यान का ध्यान करते हैं ।।२१९८॥ Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकाण्डेका - ६०० उस ध्यान के काल का प्रमाण मात्रा-पञ्चक-कालेन, तेन ध्यानेन वर्तते । प्रकृतीनामपक्वानां, द्वासप्ततिमसौ समम् ।।२१९९ ।। अर्थ - अ इ उ ऋ लु इन पाँच ह्रस्व मात्राओं के उच्चारण में जितना काल लगता है उतना ही काल इस चतुर्थ शुक्ल ध्यान का एवं उतना ही काल चौदहवें गुणस्थान का है। इतने अल्पकाल वाले ध्यान के द्वारा ही वे अयोगी जिन उस गुणस्थान के उपान्त्य अर्थात् द्वि-चरम समय में अपक्व रूप अर्थात् अनुदय रूप बहत्तर प्रकृतियों का बिना उदीरणा किये युगपत् क्षय कर देते हैं ।।२१९९ ।। बहत्तर प्रकृतियों के नाम शरीरं पञ्चथा तत्र, पञ्चधा देह-बन्धनम् । संघात: पञ्चधा षोढा, संस्थानममर-द्वयम् ॥२२०० ।। अङ्गोपाङ्ग-त्रिसंख्यानं, षोढा संहनन-क्षणे। पञ्च वर्णा रसाः पञ्च गन्ध-स्पर्शा द्विधाष्टधा ॥२२०१॥ क्षीयते गुरुलध्यादि-चतुष्कं द्वे नभो-गती। शुभ-द्वयं स्थिर-द्वन्द्वं, प्रत्येकं सुस्वर-नूयम् ।।२२०२॥ अनादेयायशो निर्माणे, चापूर्णानि दुर्भगम् । वेद्यमन्यतरत्तस्य, द्वासप्ततिरुपान्तिमे ॥२२०३।। अर्थ - औदारिक आदि पाँच शरीर, औदारिक बन्धन आदि पाँच बन्धन, औदारिक शरीर संघात आदि पाँच संघात, समचतुरस्र आदि छह संस्थान, देवगति, देवगत्यानुपूर्वी, औदारिक शरीर-अंगोपांग, वैक्रियक शरीर अंगोपांग, आहारक शरीर अंगोपांग ये तीन, वज्रवृषभनाराच आदि छह संहनन, शुक्ल-कृष्णादि पाँच वर्ण, मधुर आदि पाँच रस, सुगन्ध, दुर्गन्ध, स्निग्ध, रुक्ष आदि आठ स्पर्श, अगुरुलधु, उपघात, परघात और उच्छ्वास यह चतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, अप्रशस्त विहायोगति, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, प्रत्येक, सुस्वर, दुस्वर, अनादेय, अयशकीर्ति, निर्माण, अपर्याप्त, दुर्भग, साता-असाता में से कोई एक वेदनीय और नीच गोत्र, इन बहत्तर प्रकृतियों का उपान्त्य समय में क्षय करते हैं ।।२२०० से २२०३ तक|| चौदहवें गुणस्थान के अन्त समय में नष्ट होने वाली प्रकृतियाँ अन्तिमे समये इत्वा, प्रकृती: स त्रयोदश । वन्द्यमान: सदाऽयोगः, प्रयाति पदमव्ययम् ।।२२०४ ।। अर्थ - अन्तिम समय में तेरह प्रकृतियों को नष्ट करके सबके द्वारा बंदनीय ऐसे वे अयोगी जिन मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं।।२२०४।। प्रश्न - अन्तिम समय में नष्ट होने वाली तेरह प्रकृतियाँ कौन-कौनसी हैं ? Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ६०१ उत्तर - पूर्व में श्लोक २१९६-२१९७ में कथित ही तेरह प्रकृतियाँ हैं। यथा-साता-असाता में से कोई एक वेदनीय, मनुष्यायु, मनुष्य गति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, त्रस, सुभग, आदेय, पर्याप्त, पंचेन्द्रिय जाति, यश:कीर्ति, उच्चगोत्र, बादर और तीर्थकर ये तेरह प्रकृतियाँ है। प्रश्न - मनुष्यगत्यानुपूर्वी का उदय तो विग्रह गति में आता है और चौदहवें गुणस्थान के चरम समय में उदयागत-प्रकृतियाँ ही नष्ट होती हैं तब मनुष्यगत्यानुपूर्वी का यहाँ नष्ट होना अर्थात् तेरह प्रकृतियों का यहाँ नष्ट होना कैसे सम्भव है? उत्तर - मनुष्यगत्यानुपूर्वी का उदय मात्र विग्रहगति में ही होता है यह सत्य है, किन्तु मनुष्यगत्यानुपूर्वी प्रकृति का बन्ध मनुष्यगति के साथ ही होता है, क्योंकि बन्ध की अपेक्षा इन दोनों प्रकृतियों में अविनाभावी सम्बन्ध है । इन आचार्यदेत की दृष्टि नभ दे इस अतिनाभानी सम्बन्ध पर रही है अत: इन्होंने चौदहवें गुणस्थान के द्विचरम समय में बहत्तर का और चरम समय में उपर्युक्त तेरह प्रकृतियों का नाश स्वीकार किया है। प्रश्न - कुछ आचार्यों ने चौदहवें गुणस्थान के द्विचरम समय में तिहत्तर और चरम समय में बारह प्रकृतियों का नाश होना स्वीकार किया है, इसमें क्या कारण है ? उत्तर - सयोग केवली भगवान् के पिच्चासी प्रकृतियों की सत्ता रहती है जो अयोगकेवली अर्थात् चौदहवें गुणस्थान के द्विचरम समय तक यथावत् पाई जाती है। इनमें से मनुष्यगत्यानुपूर्वी प्रकृति सहित अनुदय रूप तिहत्तर प्रकृतियों का क्षय चौदहवें गुणस्थान के द्विचरम में और उदयरूप बारह प्रकृतियों का क्षय चरम समय में स्वीकार किया है, इसका कारण यह है कि चौदहवें गुणस्थान में मनुष्यगति प्रकृति का स्वमुख उदय रहता है और मनुष्यगत्यानुपूर्वी का परमुख उदय रहता है, जिसके फलस्वरूप मनुष्यगत्यानुपूर्वी प्रकृति का द्रव्य चौदहवें गुणस्थान के चरम समय में सत्ता में नहीं रहता। इस बात पर दृष्टि रखने वाले आचार्यों ने मनुष्यगत्यानुपूर्वी का क्षय चौदहवें गुणस्थान के द्विचरम समय में स्वीकार कर तिहत्तर प्रकृतियों का क्षय होना कहा है। इस प्रकार इस विषय में दृष्टिभेद से दो मत हैं। प्रश्न - परमुख-उदय का क्या भाव है ? उत्तर - परमुख-उदय का भाव है स्तिबुक संक्रमण अर्थात् अनुदयरूप संक्रमण द्वारा संक्रमित हो जाना । मनुष्यगत्यानुपूर्वी प्रकृति चौदहवें गुणस्थान में अनुदय रूप प्रकृति है अत: इसका द्रव्य उदयरूप मनुष्यगति प्रकृति में स्तिबुक संक्रमण द्वारा संक्रमित हो सत्ता से समाप्त हो जाता है अतः यहाँ तिहत्तर का और चरमसमय में बारह प्रकृतियों का क्षय कहा गया है। नामकर्म-क्षयात्तस्य, तेजो-बन्धः प्रलीयते । औदारिक-वपुर्बन्धो, न सत्यायुः क्षये सति ।।२२०५ ।। एरण्डबीजवज्जीयो, बन्ध-व्यपगमे सति । ऊर्ध्वं याति निसर्गेण, शिखेव विषमाच्चिषः ॥२२०६ ।। अर्थ - उनके नामकर्म का क्षय हो जाने से तैजस शरीर बन्धन का क्षय हो जाता है और आयु कर्म का क्षय हो जाने से औदारिक शरीर बन्धन का भी क्षय हो जाता है। इस प्रकार जैसे बन्धनमुक्त एरण्ड का बीज Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरपाकण्डिका - ६०२ और पवन आदि के झकोरे से रहित अग्नि की ज्वाला स्वभावतः ऊपर की ओर जाती है, वैसे ही बन्धनमुक्त जीव ऊर्ध्वगमन ही करता है।।२२०५-२२०६॥ आवेशेनाशुगमिष, सम्पूर्णेन नियोजितः । अलाबुरिव निर्लेपो, गत्वा मोक्षेऽवतिष्ठते ॥२२०७ ॥ अर्थ - अथवा जैसे पूर्वके आवेग से नियोजित आशुगामी अर्थात् कुम्हार का चक्र गमन करता है अथवा मिट्टी के लेप से रहित तूम्बी जल के ऊपर आती है, वैसे ही कर्मलेप से रहित जीव स्वभावत: ऊर्ध्वगमन करके मोक्ष में अवस्थित हो जाता है।।२२०७॥ ध्यान-प्रयुक्तो यात्यूर्ध्वमात्मावेगेन पूरितः। तथा प्रयत्न-मुक्तोऽपि, स्थातुकामो न तिष्ठति ॥२२०८।। अर्थ - जैसे वेग से पूरित होकर दौड़ने वाला पुरुष उहरने की इच्छा करते हुए भी ठहर नहीं पाता, वैसे ही ध्यान प्रयोग के आवेग से पूरित आत्मा प्रयत्न के बिना ही ऊपर की ओर जाता है।।२२०८ ।। यथानल-शिखा नित्यमूर्ध्वं याति स्वभावतः । तथोयं याति जीवोऽपि, कर्म-मुक्तो निसर्गतः ॥२२०९॥ अर्थ - जैसे अग्नि की ज्वाला स्वभावत: ऊपर की ओर जाती है, वैसे ही कर्मों से मुक्त आत्मा स्वभावतः ऊर्ध्वगमन ही करता है ।।२२०९ ।। यात्यविग्रहया गत्या, निर्व्याघातः शिवास्पदम्। एकेन समयेनासौ, न मुक्तोऽन्यत्र तिष्ठति ।।२२१०।। अर्थ - कर्मों का क्षय होते ही वह मुक्त जीव अन्यत्र कहीं नहीं ठहरता, अपितु मोड़े रहित गति से बिना किसी विघ्न बाधा के एक ही समय में मोक्षस्थान में जाकर बिराजमान हो जाता है ।।२२१०। विच्छिच ध्यान-शस्त्रेण, देह-त्रितय-बन्धनम् । सर्व-द्वन्दू विनिर्मुक्तो, लोकाग्रमधिरोहति ॥२२११ ।। अर्थ - इस प्रकार ध्यानरूप तीक्ष्ण शस्त्र द्वारा औदारिक, तैजस एवं कार्माण शरीरों के बन्धनों को छेद कर सर्वद्वन्द्व अर्थात् सर्व विभाव भावों से रहित होते हुए वे भगवान् लोकान में आरोहण कर जाते हैं।।२२११॥ ईषत्प्राग्भार-संज्ञायां, धरित्र्यामुपरि स्थिताः । त्रैलोक्याग्रेऽवतिष्ठन्ति, ते किञ्चिन्यून-योजने ।।२२१२॥ ___ अर्थ - सर्वार्थसिद्धि विमान से ऊपर ईषत्प्राग्भार नाम की एक पृथिवी है, उस पृथिवी से कुछ कम एक योजन ऊपर जाकर वे भगवान् तीन लोक के अग्रभाग पर अवस्थित हो जाते हैं।।२२१२ ।। प्रश्न - ईषत्प्रारभार पृथिवी का क्या स्वरूप है और इस पृथिवी से कुछ कम एक योजन ऊपर जाकर वे भगवान् अवस्थित हो जाते हैं, ऐसा क्यों कहा गया है ? Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका -६०३ उत्तर - सर्वार्थसिद्धि नामक अन्तिम स्वर्ग विमान के ध्वजदण्ड से बारह योजन ऊपर जाकर आठवीं पृथिवी है। इसका ईषत्प्राग्भार नाम है, इसका मध्य बाहल्य अर्थात् मोटाई आठ योजन प्रमाण है, आगे दोनों ओर क्रमशः हीन होता गया है, जो अन्त में अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण अतिसूक्ष्म रहकर दोनों छोरों से उपरिम वातवलयों से स्पर्शित है। इस प्रकार यह पृथिवी ऊपर को उठे हुए विशाल और गोल छत्र के आकार को धारण करने वाली तथा चन्द्राभा सदृश उज्ज्वल है। इसका विस्तार अढ़ाईद्वीप के विस्तार प्रमाण अर्थात् पैंतालीस लाख योजन है। इसके ऊपर तीन वातवलय हैं, उन तीनों में प्रथम घनोदधिवातवलय की मोटाई दो कोस, दूसरे घनवातवलय की एक कोस और तीसरे तनुवात्तवलय की मोटाई कुछ (४२५ धनुष) कम एक कोस अर्थात् एक हजार पाँच सौ पिचहत्तर धनुष है। सिद्धशिला, मोक्षशिला एवं सिद्धालय आदि इसके अनेक नाम हैं। इस कुछ कम एक कोस विस्तार वाले तनुवातवलय के मात्र पाँच सौ पच्चीस धनुष मोटे अन्तिम भाग में सिद्ध भगवान् विराजमान हैं अत: कहा गया है कि मोक्षशिला से कुछ कम एक योजन ऊपर जाकर सिद्ध भगवान बिराजते हैं। सिद्ध भगवान् का इससे आगे न जाने का कारण न धर्माभावत: सिद्धा, गच्छन्ति परतस्ततः । धर्मो हि सर्वदा कर्ता, जीव-पुद्गलयोर्गतेः ॥२२१३ ।। अर्थ - लोकान के आगे धर्मद्रव्य का अभाव है अत: सिद्ध प्रभु आगे नहीं जाते, क्योंकि गमन करते जीव और पुद्गल के गमन में धर्मद्रव्य ही सहायक होता है॥२२१३ ।। निष्ठिताशेष-कृत्यानां, गमनागमनादयः । व्यापारा जातु जायन्ते, सिद्धानां न सुखात्मनाम् ।।२२१४॥ अर्थ - सम्पूर्ण कार्यों के कर चुकने के कारण निष्ठितकृत्य एवं अनन्त सुख का अनुभव करने वाले सिद्ध भगवान् के गमनागमन आदि की क्रियाएँ कभी भी नहीं होती हैं ।।२२१४ ।। कर्मभिः क्रियते पातो, जीवानां भव-सागरे । तेषामभावतस्तेषां, पातो जातु न विद्यते ।।२२१५॥ अर्थ - संसार-सागर में कर्मों के निमित्त से ही जीवों का पतन होता है, सिद्ध जीवों के इन कर्मों का अभाव हो चुका है, अत: वे कभी संसार में लौट कर नहीं आते ।।२२१५ ।। क्षुधा-तृष्णादयस्तेषां, न कर्माभावतो यतः। आहारास्तितो नार्थस्तत्प्रतीकार-कारिभिः ॥२२१६ ।। अर्थ - उन सिद्ध जीवों के जिस कारण से कर्मों का अभाव है उसी कारण से उनके भूख, प्यास एवं रोग आदि की वेदनाएँ नहीं होती और उन वेदनाओं के अभाव में वेदना का प्रतिकार करने वाले आहार, जल एवं औषधि आदि से भी उन्हें कोई प्रयोजन नहीं होता ।।२२१६॥ Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ६०४ मिडों के सुरन का प्रमाण यत्सर्वेषां ससौख्याना, भुवनत्रय-वर्तिनाम् । ततोऽनन्तगुणं तेषां, सुखमस्त्यविनश्वरम् ।।२२१७ ।। अर्थ - उन सिद्धों को अनन्त और शाश्वत सुख प्राप्त है। उनका यह सुख त्रिकालवर्ती तीनों लोकों के इन्द्र, चक्रवर्ती आदि सभी सुखी जीवों के सम्पूर्ण सुख से अनन्तगुणा है।।२२१७ ।। सिद्धों का आकार आदि अन्त्य-विग्रह-संस्थान-सदृशाकृतयः स्थिराः। सुख-दुःख विनिर्मुक्ता, भाविनं कालमासते॥२२१८॥ अर्थ - अन्तिम शरीर के संस्थान के सदृश आकार वाले वे सिद्ध परमेष्ठी उस आकार से विचलित न होने के कारण स्थिर हैं एवं सांसारिक सम्पूर्ण सुख-दुःखों से निर्मुक्त हैं। वे अनन्त स्वरूप भविष्य काल पर्यन्त इसी प्रकार अर्थात् उनके आत्मप्रदेश घनात्मक आकार स्वरूप ही रहेंगे॥२२१८ ॥ तेषां कर्म-व्यपायेन, प्राणाः सन्ति दशापि नो। न योगाभावतो जातु, विद्यते स्पन्दनादिकम् ॥२२१९ ।। अर्थ - कर्मों का अभाव हो जाने से सिद्ध जीवों के दस प्रकार के प्राण भी नहीं हैं और तीनों योगों का अभाव हो जाने से उनके कभी स्पन्दन अर्थात् हलन-चलन भी नहीं होता ।।२२१९ ।। न कर्माभावतो भूयो, विद्यते विग्रहग्रहः । शरीरं श्रयते जीवः, कर्मणा कलुषी-कृतः॥२२२०॥ अर्थ - कर्मों का अभाव हो जाने से सिद्ध जीव पुनः शरीर ग्रहण नहीं करते, क्योंकि कर्मों से कलुषित जीव ही कर्मकृत शरीर धारण करते हैं। बिना कर्मनिमित्त के शरीर-ग्रहण नहीं होता ||२२२० । सिद्धालय में ठहरे रहने का निमित्त अधर्म-वशतः सिद्धास्तत्र तिष्ठन्ति निश्चलाः । सर्वदाप्युपकर्तासौ, जीव-पुद्गलयोः स्थितेः ॥२२२१ ।। अर्थ - सिद्ध जीव अधर्म द्रव्य की वशवर्तिता अर्थात् निमित्त से ही सिद्धालय में सदा काल निश्चल अवस्थित रहते हैं, क्योंकि ठहरते हुए जीव और पुद्गलों की स्थिति का उपकारक अधर्म द्रव्य ही माना गया है अर्थात् जैसे जीव का स्वभाव चैतन्य है, वैसे स्थिति जीव का स्वभाव नहीं है। इसी कारण श्लोक में "अधर्मवशत:" पद दिया गया है ।।२२२१।। लोक-मूर्धनि तिष्ठन्ति, काल-त्रितय-वर्तिनम् । जानाना वीक्षमाणास्ते, द्रव्य-पर्याय-विस्तरम् ॥२२२२ ।। अर्थ - तीनों काल में होने वाले समस्त द्रव्यों की समस्त पर्यायों के विस्तार को जानते और देखते हुए वे सिद्ध परमेष्ठी सदाकाल लोक के मस्तक पर अवस्थित रहते हैं ॥२२२२ ।। Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ! 2 ! 41 मरणकण्डिका ६०५ युगपत्केवलालोको, लोकं भासयतेऽखिलम् । घनावरण - निर्मुक्तः, स्व-गोचरमिवांशुमान् ।। २२२३ ॥ अर्थ- जैसे मेघावरण से रहित सूर्य अपने प्रकाश में जितने पदार्थ समाविष्ट होते हैं उन सबको युगपत् प्रकाशित करता है, वैसे ही सिद्ध परमेष्ठी का केवलज्ञान और केवलदर्शन रूप प्रकाश समस्त लोकालोक को युगपत् जानते देखते हैं । २२२३ ॥ राग-द्वेष-मद- क्रोध-लोभ-मोह विवर्जिताः । ते नमस्यास्त्रिलोकस्य, धुन्वते कल्मषं स्मृताः ।। २२२४ ।। अर्थ - राग, द्वेष, अहंकार, क्रोध, लोभ एवं मोहादि दोषों से रहित वे सिद्ध परमेष्ठी त्रिकालवर्ती महापुरुषों के द्वारा नमस्करणीय हैं एवं जीवों के द्वारा स्मृत होने पर उनके पाप नष्ट करने वाले हैं ।। २२२४ ॥ जन्म - मृत्यु - जरा - रोग-शोकान्तकादि - व्याथयः । विध्याता सकलास्तेषां निर्वाण-शर-वारिभिः ।। २२२५ ।। अर्थ - उन सिद्ध प्रभु की जन्म, मरण, जरा, रोग, शोक एवं पीड़ा आदि सर्व व्याधियाँ निर्वाणरूपी बाण की जलधाराओं से शान्त हो चुकी हैं ।। २२२५ ।। - सिद्धों के सुखों का कथन शारीरं मानसं सौख्यं विद्यते यज्जगत्त्रये । तद्योगाभावतस्तेषां न मनागपि जायते ।। २२२६ ।। अर्थ तीन लोक में जितना भी शारीरिक एवं मानसिक सुख है, उस सुख का किंचित् अंश भी सिद्ध जीवों को नहीं होता, क्योंकि उनके मनयोग, वचनयोग एवं काययोग का अभाव हो चुका है, अत: उन्हें अनन्त, स्वाभाविक, शाश्वत और आत्मोत्थ सुख ही होता है ।। २२२६ ।। जानतां पश्यतां तेषां विबाधा रहितात्मनाम् । सुखं वर्णयितुं न शक्यते हत कर्मणाम् ।।२२२७ ॥ अर्थ - लोकालोक को जानने-देखने वाले, संसार की सम्पूर्ण बाधाओं से रहित एवं समस्त कर्मों को नष्ट कर देने वाले सिद्ध परमेष्ठियों के शाश्वत सुख का वर्णन कौन कर सकता है? अपितु कोई नहीं कर सकता ।। २२२७ ॥ भोगिनो मानवा देवा, यत्सुखं भुञ्जतेऽखिलम् । तन्नैषामात्मनीनस्य, सुखस्यांशोऽपि विद्यते ।। २२२८ ॥ अर्थ - भोगभूमिज जीव, मनुष्यों में चक्रवर्ती तथा देवों में देवेन्द्र और अहमिन्द्रादि अखिल इन्द्रियज सुख भोगते हैं वह सुख सिद्धों के आत्मोत्थ-स्वाधीन सुख का अंश मात्र भी नहीं है ॥२२२८ ॥ रूप- गन्ध-रस- स्पर्श-शब्दैर्यत्सेवितैः सुखम् । तदैतदीय- सौख्यस्य, नानन्तांशोऽपि जायते ।। २२२९ ।। Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ६०६ अर्थ - देवेन्द्र एवं चक्रवर्ती आदि रूप, गन्ध, रस, स्पर्श एवं शब्दों का इन्द्रियों द्वारा उत्तम विषयों का सेवन कर जो प्राप्त करते हैं, वह सुख सिद्धों के आत्मोत्थ शाश्वत सुख का अनन्तवाँभाग भी नहीं होता है ।।२२२९ ।। काल-त्रितय-भावीनि, यानि सौख्यानि विष्टपे। सिद्धैक-क्षण-सौख्यस्य तानि यान्ति न तुल्यताम् ॥२२३० ।। राग-हेतु पराधीनं, सर्व वैषयिकं सुखम् । स्वाधीनेन विरागेण, सिद्ध-सौख्येन नो समम् ॥२२३१॥ अर्थ - सब तिर्यंचों, मनुष्यों एवं देवों को तीनों कालों में जो-जितना भी सुख इस जगत् में है वह सब सुख सिद्धों के एक क्षण के सुख तुल्य भी नहीं है, क्योंकि संसारी जीवों का सुख राग का कारण है, पराधीन है और पंचेन्द्रियों के विषयों से उत्पन्न होने वाला है, वह स्वाधीन एवं विरागसम्पन्न सिद्ध प्रभु के सुख के साथ कदापि समानता को प्राप्त नहीं हो सकता।।२२३०-२२३१ ।। __ अनिन्द्रियसुख का लक्षण अक्षयं निर्मलं स्वस्थं, जन्म-मृत्यु-जरातिगम्। सिद्धानां स्थावरं सौख्यमात्मनीन जनार्चितम् ।।२२३२॥ अर्थ - सिद्धों का सुख कभी नष्ट नहीं होता अत: अक्षय है, भाव कर्मरूपी मल का अभाव हो जाने से निर्मल है, जन्म, मृत्यु और जरारूपी रोगों का अभाव हो जाने से स्वस्थ अर्थात् आरोग्य है, शाश्वत है, आत्मा से ही समुत्पन्न है और सर्व संसारी प्राणियों द्वारा अर्चित है।॥२२३२ ।। सिद्ध परमेष्ठी के गुण आदि कर्माष्टक-विनाशेन, ते गुणाष्टक-वेष्टिताः। सन्तिष्ठन्ते स्थिरीभूताः भुवनत्रय-वन्दिता: ।।२२३३ ।। अर्थ - अष्ट कर्म नष्ट हो जाने से सिद्ध परमेष्ठी अष्ट गुण युक्त हैं, उनके सर्व आत्मप्रदेश अचल एवं स्थिर अर्थात् हलन-चलन से रहित होने के कारण स्थिरीभूत हैं और तीन लोक के जीवों द्वारा सदैव वन्दित हैं ।।२२३३॥ प्रश्न - सिद्ध परमेष्ठी के आठ गुण कौन-कौनसे हैं और किन कर्मों के अभाव से प्रगट हुए हैं? उत्तर - सिद्ध परमेष्ठी का ज्ञानावरण कर्म नष्ट हो जाने से केवलज्ञान या अनन्तज्ञानगुण, दर्शनावरण कर्म नष्ट हो जाने से केवलदर्शन या अनन्त दर्शन गुण, वेदनीय कर्म के अभाव से अव्याबाध गुण, मोहनीय कर्म नष्ट हो जाने से सम्यक्त्व गुण, आयु कर्म नष्ट हो जाने से अवगाहनत्व गुण, नामकर्म नष्ट हो जाने से सूक्ष्मत्वगुण, गोत्र कर्म नष्ट हो जाने से अगुरुलघुगुण और अन्तराय कर्म नष्ट हो जाने से अनन्त-वीर्यगुण प्रकट हो जाते हैं अत: वे अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अव्याबाधत्व, सम्यक्त्व, अवगाहनत्व, सूक्ष्मत्व, अगुरुलधुत्व और अनन्त वीर्य, इन आठ गुणों से युक्त होते हैं। Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ६०७ संसारार्णवमुत्तीर्णा, दुःख-नक्र-कुनाकुलम् । ये सिद्धिसोधमापनास्त सम्भम सिद्धये ॥२२३४ ।। अर्थ - मानसिक एवं शारीरिक अनेक प्रकार के दुख रूपी मगरमच्छों के समूह से व्याप्त ऐसे संसार रूपी समुद्र को पार कर जो सिद्धि रूपी प्रासाद को प्राप्त कर चुके हैं, वे सिद्ध भगवन्त मुझे सिद्धि प्रदान करें ||२२३४॥ इस प्रकार सिद्ध परमेष्ठियों का वर्णन पूर्ण हुआ। पण्डितपण्डितमरण के कथन का उपसंहार भवति पण्डित-पण्डित-मृत्युना, सपदि सिद्धि-वधूर्वशवर्तिनी । विमल-सौख्य-विधान-पटीयसी, सुभगतेव गुणेन निरेनसा ।।२२३५ ।। इति पण्डितपण्डितम्। अर्थ - जैसे निर्दोष गुणों द्वारा सुभगता अर्थात् सर्वजनप्रियता प्राप्त होती है वैसे ही इस परमश्रेष्ठ पण्डित पण्डेित मरण द्वारा विमल सुख उत्पन्न करने में निपुण ऐसी सिद्धि रूपी वधू वशीभूत हो जाती है॥२२३५।। इस प्रकार पण्डित-पण्डित-मरण का वर्णन पूर्ण हुआ। आराधनाओं का फल आराधना जन्मवतचतुर्धा, निषेव्यमाणा प्रथमे प्रकृष्टा । भवे तृतीये विदधाति मध्या, सिद्धिं जघन्या खलु सप्तमे सा ॥२२३६ ॥ अर्थ - जो भव्य जीव सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र एवं सम्यक् तपरूप चार आराधनाओं का उत्कृष्ट रूप से सेवन करते हैं, वे उसी भव से मुक्त हो जाते हैं। जो मध्यम रूप से सेवन करते हैं वे तृतीयभव में और जो जघन्य रूप से उक्त आराधनाओं का सेवन करते हैं, वे सातवें भव में मुक्त हो जाते हैं।।२२३६ ।। ग्रन्थकर्ता आचार्य अमितगति जी आराधनाओं का कथन करने वाले इस ग्रन्थ को पूर्ण करते हुए ग्रन्थरचना के फल की याचना करते हैं आराधनैषा कथिता समासतो, ददातु सिद्धिं मम मन्दमेधसः । अबुध्यमानैरखिलं जिनागम, न शक्यते विस्तरतो हि भाषितुम् ॥२२३७ ।। अर्थ - सम्पूर्ण जिनागम के ज्ञाता महान् आचार्य भी इन आराधनाओं का सविस्तार वर्णन करने में समर्थ नहीं हैं तब मुझ जैसे मन्दबुद्धि वाले सविस्तार वर्णन कैसे कर सकते हैं? अतः मेरे द्वारा यह आराधना संक्षेप से कही गई है। यह संक्षेप में किया गया ही मेरा कथन मुझ मन्दबुद्धि को मोक्ष प्रदान करे ।।२२३७ ।। ग्रन्थकार द्वारा लघुता विज्ञापन विशोध्य सिद्धान्त-विरोधि-बद्धं, ग्राह्या श्रुतज्ञैः शिवकारिणीयम्। पलालमत्यस्य न किं पवित्रं, गृह्णाति सस्यं जनतोपकारि ॥२२३८ ।। अर्थ - अल्पश्रुतज्ञानी होने के कारण यदि कुछ सिद्धान्तविरुद्ध लिखा गया हो तो उसे आगम-विज्ञ Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका -६०८ सज्जन इस कल्याणकारी एवं मुक्तिप्रदायिनी आराधना की विवेचना को शुद्ध करके ही ग्रहण करें अर्थात् पढ़ें, पढ़ावें या सुनें, सुनावें। ठीक है, जगत् में चतुर मनुष्य क्या पलाल का त्याग कर उपकारी और पवित्र धान्य ग्रहण नहीं करते ? अपितु करते ही हैं ।।२२३८।। आराधना देवी का स्तव आराधना भगवती कथिता स्वशक्त्या, चिन्तामणिवितरितुं बुधचिन्तितानि । अह्राय जन्मजलधि तरितुं तरण्डं, भव्यात्मनां गुणवती ददतां समाधिम् ॥२२३९ ।। अर्थ - इस भगवती आराधना को मैंने अपनी शक्त्यनुसार कहा है। यह आराधना मुनिजनों को चिंतित वस्तु-मोक्ष देने के लिए चिन्तामणि सदृश है और जन्मरूपी समुद्र को शीघ्र ही पार करने के लिए नौका सदृश है। यह गुणवती आराधना भव्य जीवों को समाधि प्रदान करें ।।२२३९ ॥ करोति वशवर्तिनीस्त्रिदश-पूजिता: सम्पदो।' निवेशयति शाश्वते, यतिमते पदे पावने ॥ अनेक भव-सञ्चितं हरति कल्मषं जन्मिनाम् । विदग्ध-मुख-मण्डनी, सपदि सेविताराधना ॥२२४० ।। मरणकण्डिका समाप्ता। अर्थ - यह आराधना विद्वद्जनों के मुख-मंडन को अलंकार सदृश है, भव्य जीवों द्वारा सेवित है, देवों द्वारा पूजित है, मुक्ति रूपी सम्पदा को वश करने वाली है, शाश्वत एवं पवित्र जैनमत में प्रवेश कराती है और जीवों के अनेक भवों में संचित किये हुए पापों का नाश करती है ।।२२४० ।। इस प्रकार यह मरणकण्डिका ग्रन्थ पूर्ण हुआ। आचार्य अमितगति विरचित संस्कृत पद्यमय इस ग्रन्थ का प्रश्नोत्तर सहित भाषानुवाद सं. २०५८ वैशाख कृष्णा प्रतिपदा सोमवार दि. ९/४/२००१ को प्रात:काल समाप्त हुआ। मेरे लेखन में यदि सिद्धान्त विरुद्ध कुछ भी स्खलन हुआ हो तो गुरुजन एवं विद्वज्जन संशोधन कर ही ग्रहण करें। मुमुक्षु भव्य जीवों के आराधना सम्बन्धी अज्ञान अंधकार को दूर करता हुआ यह ग्रन्थ भूमण्डल पर चिरकाल तक स्थायी रहे। ॥ जैन जयति शासनम्॥ ॥ ॐ शान्तिः ।। ।। भद्रं भूयात् ॥ 卐卐卐 Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ६०९ 卐 आराधना-स्तवनम बन्धुः स्वर्गापवर्ग-प्रभव-सुखफल-प्रापणे कर्मवल्ली। नाना-बाधा-विधायि-प्रचित-कलिमल-क्षालने-जझुकन्या ॥ रागद्वेषादि-भावि-व्यसन-घनवनच्छेदने छेदनी या। सारामाराधनासौ, वितरतु तरसा शाश्वतीं वो विभूतिम् ।।१।। अर्थ - यह आराधना स्वर्ग एवं मोक्ष में उत्पन्न उत्तम सुखरूप फल प्राप्त कराने के लिए बंधुजन सदृश है, अनेक प्रकार की विघ्न बाधाओं को उत्पन्न करने वाले पापरूपी कीचड़ को धोने के लिए गंगा नदी के सदृश है, तथा रागद्वेषादि से उत्पन्न हुए संकट रूप सघन वन को काटने के लिए कुल्हाड़ी सदृश है, ऐसी यह रमणीक आराधना, आप लोगों को शीघ्र ही शाश्वत विभूति प्रदान करे॥१॥ यामासाद्याव-नम्न-त्रिदशपति-शिरो-घृष्ट-पादारविन्दाः । सद्य: कुन्दाषदात-स्थिर-परमयशःशोधिताशेषदिक्काः ।। जायन्ते जन्तवोऽमी जन-जनित-मुदः केवलज्ञान-भाजो। भूयादाराधना सा भव-भय-मथनी भूयसे श्रेयसे वः॥२॥ अर्थ - जिस आराधना को धारण करके ये संसारी भव्य प्राणी देवों के नम्रीभूत मस्तक द्वारा स्पर्शित हैं चरण-कमल जिनके ऐसे अर्थात् देवों द्वारा वन्दनीय हो जाते हैं, जो कुन्द पुष्प के सदृश उज्ज्वल है, स्थिर है और समस्त दिशाओं को शुद्ध करने वाला है ऐसे परम यश के स्वामी हो जाते हैं, लोगों को आनन्द उत्पन्न करने वाले एवं केवलज्ञान को भी प्राप्त करने वाले हो जाते हैं, ऐसी संसार के भय को नष्ट करने वाली यह आराधना तुम सब के विशाल कल्याण के लिए हो ॥२॥ यामाराध्याशु गन्ता शकलित-विपदः पञ्चकल्याण-लक्ष्मीम्। प्राप्यां पुण्यैरपापां त्रिभुवनपतिभिर्निर्मितां भक्तिमद्भिः ।। सम्यक्त्व-ज्ञान-दृष्टि-प्रमुख-गुणमणि-भ्राजितां यान्ति मुक्तिं। सा वन्द्या हृद्य-विधैर्विलसतु हृदये सर्वदाराधना वः ।।३।। अर्थ - संसारी भव्य प्राणी जिसकी आराधना करके विपत्तियों को नष्ट कर पंचकल्याणक रूप लक्ष्मी शीघ्रता से प्राप्त कर चुके हैं, भक्तिमान एवं पुण्यशाली ऐसे त्रैलोक्याधिपति देवेन्द्रों और नरेन्द्रों द्वारा जो प्राप्त करने योग्य है, श्रेष्ठ विद्याओं से युक्त महापुरुषों द्वारा जो वन्दनीय है और जिसके प्रसाद से भव्य जीव निर्दोष सम्यक्त्व, ज्ञान एवं दर्शन आदि प्रमुख गुण रूपी मणियों से अलंकृत ऐसी मुक्ति को भी प्राप्त कर लेते हैं, वह उत्तमोत्तम आराधना आप लोगों के हृदय में सदा शोभायमान हो ।।३।। या सौभाग्यं विधत्ते, भवति भव-भिदे भक्तित: सेव्यमाना । या छिन्ते मोह-दैत्यं, भुवन-भवभृतां साध्वसं ध्वंसयन्ती ।। यो चानासाद्य देही, भ्रमति भव-वने भूरि-भाषाद्रिरौद्रे । सा भद्राराधना वो भवतु भगवती वैभवोद्भावनाय ।।४।। Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रण.. कार अर्थ - जो सौभाग्य प्रदान करती है, भक्तिपूर्वक सेवित किये जाने पर संसार का छेद कर देती है, मोहरूपी दैत्य को पछाड़ देती है, संसारी जीवों के भय को नष्ट कर देती है और जिसे प्राप्त न कर सकने से यह जीव अद्यावधि विकार भावरूप भयानक पर्वतों से युक्त इस संसाररूपी वन में अद्यावधि भ्रमण कर रहा है ऐसी वह महाकल्याणकारी भगवती आराधना आपके अनेक वैभव उत्पन्न करने वाली हो॥४॥ या काम-क्रोध-लोभ-प्रभृति-बहुविध-ग्राह-नक्रावकीर्णा। संसारापार-सिन्धोर्भव-मरण-जरावर्त-गर्गदुपेत्य ॥ गच्छत्युत्तीर्य सिद्धिं सपदि भव-भृत: शाश्वतानन्त-सौख्यम्। भव्यैराराधनानोर्गुणगण-कलिता नित्यमारुहातां सा॥५।। अर्थ - यह संसार रूप अपार समुद्र काम, क्रोध तथा लोभ आदि बहुत प्रकार के ग्राह और नक्ररूप क्रूर जलचर जन्तुओं से व्याप्त है एवं इसमें जन्म, मरण तथा जरारूप आवों के गर्त हैं, संसारी जीव अनादि काल से इन गर्मों में गिरे पड़े हैं, इन गर्मों से निकालने का सामर्थ्य मात्र आराधना रूप नौका में है, यह नौका गुणसमूह से भरी हुई है और भव्य जीवों को शीघ्र ही इन दुखमय गर्मों से निकाल कर शाश्वत-आनन्द तथा सुख रूप सिद्धि प्राप्त करा देती है अतः ऐसी नौका पर भव्य जीव नित्य ही आरोहण करें। अर्थात् इस उत्तम आराधना को धारण करें ॥५॥ या मैत्री ख्याति-कान्ति-द्युति-मति-सुगति-श्री-विनीत्यादि-कान्ताम् । संयोज्योपार्जनीयामवहित-मतिभिर्मुक्तिकान्तां युनक्ति । मुक्ताहाराभिरामा मम मद-शमनी सम्यगाराधनाली। भूयाम्नेदीयसी सा विमलित-मनसां साधयन्तीप्सितानि ॥६॥ अर्थ - यह भगवती आराधना, सेवा करने वाले अपने भव्य सेवक जनों का मैत्री, यश, कान्ति, शोभा, सुबुद्धि, सुगति, सम्पत्ति एवं नम्रता आदि रूप उत्तम अनेक स्त्रियों के साथ समागम करा देती है और अन्त में अवश्यमेव प्राप्त करने योग्य ऐसी मुक्ति रूपी स्त्री का भी मिलन करा देती है। यह सम्यगाराधना मोतियों की माला सदृश सुन्दर है, मेरे मद को शान्त करने वाली है अत: निर्मल मन वाले भव्यों के इच्छित पदार्थों का साधन करती हुई यह आराधना रूप उत्तम सखी सदैव मेरे समीप रहे ॥६ ।। स्वान्तस्था या दुरापा नियमित-करणा सृष्ट-सर्वोपकारा । माता सर्वाश्रमाणां भव-मथन-पराऽनङ्ग-सङ्गापहारा॥ सत्या चित्तापहारी बुध-हित-जननी ध्वस्त-दोषाकर-श्रीः । दद्यादाराधना सा सकलगुणवती नीरजा व: सुखानि ॥७॥ अर्थ - अत्यन्त दुर्लभ यह भगवती आराधना भव्य जीवों के मन में स्थित हो जाने पर उनकी इन्द्रियों को नियन्त्रित करती है, उनका सब प्रकार से उपकार करती है, यह आराधना देवी ब्रह्मचर्यादि समस्त गुणरूपी आश्रमों की माता है, भव का मथन करने वाली है, काम एवं परिग्रह का तिरस्कार करने वाली है, सत्यस्वरूपा है, संताप की अपहीं है, बुधजनों के हित को उत्पन्न करने वाली है, दोषों के समूह की विध्वंसिनी है, सकलगुणों की खान है और पाप रहित है, ऐसी आराधना आपके लिए सर्व सुख प्रदान करे ॥७॥ Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ मरणकण्डिका- ६११ L उद्-दु:खागदुर्गं गुरु- दुरित दवं दग्धुमनीयमाना । हर्तुं मोहान्धकारं कवलित- निखिना तिग्मरश्मीयमाना । निःशेषं वस्तु - दातुं भव-भृदभिमतं कामधेनूयमाना । निर्बाधा या विधत्ताममितगति-सुखं शीघ्रमाराधना वः ॥८ ॥ अति उत्तुंग दुखरूपी पर्वतों से घिरे हुए पापरूपी भयंकर वनको भस्म करने के लिए यह आराधना अग्निसदृश है, मोहान्धकार को नष्ट करने के लिए सूर्य तुल्य है और भव्य जीवों को वांछित फल देने के लिए कामधेनु सदृश है, ऐसी निर्बाध अमित ज्ञान से गर्भित यह उत्तमोत्तम आराधना आप लोगों को अनुपम सुख प्रदान करे ॥८ ॥ श्वभ्र- -भूमि-ज्वलद्वह्निर्याऽविच्छिन्न-जलोद्गतिः । अद्य नः शरणं सास्तु, रत्नत्रय विशुद्धिता ॥९ ॥ अर्थ नरक भूमि रूप प्रज्वलित अग्नि को शान्त करने के लिए अविच्छिन्न मेघधारा सदृश और रत्नत्रय से निर्मल यह आराधना हमको आज शरणभूत हो ॥ ९ ॥ यैषा कुद्दालिका शाता, तिर्यग्दुःखाडुरोद्धृता । अद्य नः शरणं सास्तु, रत्नत्रय विशुद्धिता ॥ १० ॥ अर्थ- तिर्यंचगति के दुखरूपी अंकुरों को उखाड़ फेंकने के लिए कुदाली सदृश यह आराधना हमारे लिए आज शरणभूत हो ॥ १० ॥ मर्त्य-चिन्तित-लाभाय, यैषा कल्पद्रुमायते । अद्य नः शरणं सास्तु, रत्नत्रय - विशुद्धिता ॥ ११ ॥ अर्थ - मनुष्यों को चिंतित पदार्थ प्रदान करने के लिए कल्पवृक्ष तुल्य मानी गई ऐसी यह रत्नत्रय से शुद्ध निर्मल आराधना आज हमारे लिए शरणभूत हो ॥ ११ ॥ दूतिका हृतये येयं, महर्धिक - सुर- श्रियः । अद्य नः शरणं सास्तु, रत्नत्रय - विशुद्धिता ॥ १२ ॥ अर्थ - महाऋद्धिधारी देवों की लक्ष्मी को आमन्त्रित करने के लिए अर्थात् बुलाने के लिए जो दूती सदृश है ऐसी यह रत्नत्रय से विशुद्ध आराधना आज हमारे लिए शरणभूत हो ॥ १२ ॥ मुक्ति-दाने क्षमा यास्ति, विरतिर्भव - संततेः । अद्य नः शरणं सास्तु, रत्नत्रय - विशुद्धिता ॥ १३ ॥ अर्थ- जो मुक्ति प्रदान करने में समर्थ है, भव-परम्परा को नष्ट करने वाली ऐसी यह रत्नत्रय से विशुद्ध आराधना आज हमें शरणभूत हो ॥ १३ ॥ एषैव परमो धर्म, एषैव परमं तपः । एषैवार्हद्वचो वाच्यमेषैव ध्यान - सङ्गतिः ।। १४ ।। Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ६१२ अर्थ - यह आराधना ही उत्कृष्ट धर्म है, यही उत्कृष्ट तप है, जिनेश्वर ने दिव्यध्वनि द्वारा इसका ही कथन किया है और यही आराधना ध्यानप्राप्ति में कारण है॥१४॥ एषैव परमो लाभ, एषैव परमं मतम् । एषैव परमं तत्त्वमेषैव परमा गतिः ॥१५॥ अर्थ - इस आराधना की प्राप्ति ही सर्वोत्कृष्ट लाभ है, यही उत्तम मत है. यही उत्तम तत्त्व है और यही परम गति है ।।१५।। एतस्या दुर्लभं ब्रूहि, त्रिलोके कतमत्सुखम् । अत: शरणमेपैका, भवतान्मे भवे-भवे ।।१६।। अर्थ - जिस किसी भी महापुरुष को इस आराधना की प्राप्ति हुई है उसे कौनसा सुख दुर्लभ है? अत: मुझे भी यह आराधना भव-भव में शरणभूत हो ॥१६॥ या सर्वज्ञ-हिमाचलादपसृता, शील-प्रवाहात्मिका। या सर्वर्द्धि-समर्थितैर्गणधरैराराधिता निर्मला ।। या दुर्वार-भवासुखाहत-नृणां, निर्वापणी स्वधुनी । सा वः पाप-विशोधनाय शुभदा, भूयात्सदाराधना ॥१७ ।। अर्थ - इस आराधना रूपी गंगा की उत्पत्ति सर्वज्ञरूपी हिमाचल से हुई है, यह शीलरूप जलप्रवाह से युक्त है, ऋद्धिधारी गणधर देवों द्वारा मान्य है, निर्मल है और दुर्वार संसार के दुखों से पीड़ित पुरुषों के लिए आनन्ददायक है। ऐसी यह उत्तमोत्तम आराधनारूपी गंगा आप सबके पापरूप मैल की शुद्धि के लिए हो और सदा पुण्यदायक हो ॥१७॥ या सज्ज्ञान-समृद्धि-नाल-कलिता, सम्यक्त्व-सत्कर्णिका। या चारित्र-पलाश-सञ्चय-चिता द्वेधा तपो-भासुरा। या भव्योत्तम-षट्पदैः परिवृता, नैःसंग्यसपद्माकुला। सा वोऽस्याद्भवतापमुज्वल-गुणैसराधना पद्मिनी ॥१८॥ अर्थ - यह आराधना सम्यग्ज्ञान की समृद्धि के लिए नालदण्ड है, सम्यक्त्वरूपी कर्णिका से युक्त है, तेरह प्रकार के पत्र-समूह वाली है, बाह्य और अभ्यन्तर इन दो प्रकार के तप से प्रफुल्लित है, भव्यजीव रूप भ्रमरों से वेष्टित है और निष्परिग्रहता रूपी कमलों से व्याप्त है, ऐसी यह आराधनारूपी पद्मिनी उज्वल गुणों द्वारा आप सब आराधकों का भव-सन्ताप हरण करे ।।१८।। या सर्वानव-रोथिनी कलिमलं, दूरं निरस्याङ्गजं । सैद्धं चारु-पदं नयेद्-गुणवतो, भव्यात्मनो वाञ्छितम् ।। चक्रेशादि-सुखं सुरैरभिनुतं, संयोज्य संन्यस्यतां ॥ सा वः स्यान्मुनि-हंस-सेवित-रसा, देवापगाराधना ।।१९।। Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका- ६९३ अर्थ - यह अपराधना रूपी गंगा नंदी, समस्त आस्रवों को रोकने वाली है, शारीरिक एवं आत्मा में उत्पन्न रागादि मलों को दूर कर गुणज्ञ भव्य जीवों को सुन्दर एवं इष्ट ऐसा सिद्धिपद देती है, सल्लेखना धारक महापुरुषों को देवों द्वारा नमस्करणीय पद देती है तथा चक्रवर्ती आदि के सुख देती है, मुनिजनरूप हंसों द्वारा सेवित ऐसी यह आराधनारूपी गंगा आपको भी प्राप्त हो । १९ ।। या शीलोज्ज्वल-पुष्प-गन्ध-सुभगा, सद्ध्यान-सत्पल्लवा । भास्वद्दर्शन - सम्भवा वर- तपः, पत्रोच्चयेनाञ्चिता || सम्यग्वृत्त-लसन्महाफलवती, भव्यालि झङ्कारिता । सा वो मानस भूतले प्रसरतादाराधना - वल्लरी ॥ २० ॥ - अर्थ - यह आराधनारूपी उत्तम लता सम्यग्दर्शन रूपी उत्तम बीज से उत्पन्न हुई है, उत्कृष्ट तपरूपी पत्रसमूह से भरी हुई है, धर्मध्यान शुक्लध्यान रूप पल्लवों से युक्त है, शीलरूपी श्वेत, उज्ज्वल एवं सुगन्धित पुष्पों से मनोहर है, भव्यरूपी भ्रमरों की झंकार से व्याप्त है और सम्यक् चारित्ररूपी महाफल देने वाली है। ऐसी यह आराधना रूपी पवित्र बेल आपकी मानस भूमि पर अवश्य फैले ॥ २० ॥ या श्रीमत् श्रुत-शील - नीर- कलिता, निर्वाण-दान- क्षमा । या पुण्याम्बुधितारिणी शुचितया, रङ्ग-तरङ्गाकुला ।। या निर्धूय कलेवराणि महतः, संस्थापयेत् सत्सुखे । सा वो मङ्गल - मातनोतु नितरामाराधना-स्वर्धुनी ॥ २१ ॥ अर्थ - यह आराधनारूपी गंगा श्रुतज्ञान और शीलरूप जल से भरी है, मोक्ष देने में समर्थ है, पुण्यरूपी समुद्र को प्राप्त होती है, पवित्र है, ध्यानरूपी तरंगों से व्याप्त है और सत्पुरुषों के औदारिक आदि शरीरों को नष्ट करके उन्हें मोक्षसुख में स्थापित करती है, ऐसी आराधना रूपी गंगा तुम्हारा मंगल करे ॥ २१ ॥ या मोहासुर-सङ्ग - लब्ध-विजया, सर्वार्थ-सम्पादनी । शूराणामसमाधि - नाशन-धिया, कार्ति - त्रयाणां सताम् ॥ या दुर्वार-महोपसर्ग-मथनी, सिद्धि-प्रियाणां सती । सावः पातु भवाटवीं प्रतिगतानाराधना - त्र्यम्बिका ॥ २२ ॥ अर्थ - यह आराधना रूपी अंबिका देवी, मोहासुर को पराजित कर विजयी हुई है, इसकी भक्ति करने वाले पुरुषों को सर्व इष्ट पदार्थों की प्राप्ति हो जाती है। यह देवी परीषहसहिष्णु शूरवीर मुनियों का दुख दूर कर उन्हें समाधि की प्राप्ति करा देती है और सिद्धिप्रिय मुनिजनों के दुर्वार महोपसर्ग का नाश करने वाली है। ऐसी यह आराधना अम्बिका संसाररूपी वन में भटकते हुए आप लोगों की रक्षा करे ॥ २२ ॥ या शुद्धयष्टक - चारु- मौक्तिक- फलैर्मध्यस्थ-दिनायकः । भास्वद्-बोध-विचित्र - सूत्र - रचितैश्चारित्र - सल्लक्षणैः ॥ श्रीमद्-गुप्ति - समुज्वलैर्विरचिता, दोषोग्र- रोगापहा । सा वस्तिष्ठतु वक्षसीह सुतरामाराधना कण्ठिका ॥ २३ ॥ Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ६१४ अर्थ - यह आराधना कण्ठ में पहने जाने वाले मुक्ताहार के सदृश है, जिसमें षोड़शकारण भावना रूप मोती पिरो भा है, मध्य में दशलक्ष धर्मरूप रत्नों की रचना है, सम्यग्ज्ञानरूपी धागे से इसकी रचना हुई है और जिसमें चारित्र और उत्तम गुप्तिरूप ऐसे विशिष्ट मोती डाले गये हैं, जो दोष रूपी उग्रज्वर आदि रोगों को नष्ट करते हैं, ऐसी यह आराधना रूपी कण्ठिका आपके वक्षस्थल पर शोभायमान हो ॥२३॥ या नि:शेष-परिग्रहेभ-दलने, दुर्वार-सिंहायते। या कुज्ञान-तमो-घटा-विघटने, चण्डांशु-रोचीयते ।। या चिन्तामणिरेव चिन्तित-फलैः संयोजयन्ती-जनान् । सा वः श्री वसुनन्दियोगि-महिता, पायात्सदाराधना ।।२४ ।। अर्थ - यह आराधना सर्व परिग्रह रूपी हाथियों का घात करने के लिए सिंह के सदृश है, अज्ञान अन्धकार रूप घटा-टोप का विघटन करने के लिए सूर्य की प्रचण्ड किरण सदृश है और आराधक मनुष्यों को चिन्तित फल देने के लिए चिन्तामणि तुल्य है, ऐसी यह वसुनन्दी आचार्य द्वारा पूजित आराधना आपकी सदा रक्षा करे॥२४॥ या संसार-महोदधेः प्रतरणी, नौरेव भव्यात्मनाम् । या दुःख-ज्वलनावलीढ-वपुषां, निर्षापणी स्त्रधुनी। या चिन्तामणिरेव चिन्तित-फलैः, संयोजयन्ती जनान् । सा निःश्रेयस-हेतुरस्तु भवतामाराधना देवता ॥२५॥ अर्थ - भव्य जीवों को संसार-समुद्र से पार करने के लिए यह उत्तमोत्तम आराधना नौका सदृश है, दुख रूप अग्नि की ज्वालाओं से वेष्टित अर्थात् जलते हुए जीवों को सुख, शान्ति एवं शीतलता प्रदान करने के लिए स्वर्ग-गंगा के समान है और मनोवांछित फलों से मनुष्यों को संयुक्त करने वाली है, ऐसी यह आराधना देवी आपको मोक्ष देने में कारण बने ॥२५॥ या पुण्यासव-मूर्तिरेक-पदवी, स्वर्गालयारोहिणाम् । या मार्ग-त्रय-वर्तिनीति विदिता. निर्धत-नाना-रजाः ।। यस्याः सद्गुरु-पर्वतः प्रभव इत्याहु पुरा-वेदिनः। सा वः पाप-मलानि गालयतु खल्वाराधना-स्वर्धनी ॥२६॥ अर्थ - यह आराधना पुण्यास्रव की मूर्ति सदृश है, स्वर्गारोहण करने वालों को मार्ग सदृश है, रत्नत्रय स्वरूप होने से लोग इसे त्रिमार्गणा कहते हैं, इसकी सेवा करने से नाना प्रकार के पातक नष्ट हो जाते हैं तथा यह आराधना देवी सद्गुरु रूपी पर्वत से प्रगट हुई है ऐसा प्राचीन आचार्य कहते हैं। ऐसी यह आराधमा गंगा तुम्हारे पाप-मलों को गलाये ||२६|| या सर्वज्ञ-हिमाचलात्प्रगलिता, पुण्याम्बु-पूर्णा शुचिः। या सज्ज्ञान-चरित्र-लोचन-धरैमूर्धा गणीन्द्रद्धुता ॥ या कर्मानल-धर्म-पीडित-मुनीन्द्रेभावगाह-क्षमा। सा वो मङ्गलमातनोतु भगवत्याराधना-स्वधुनी ।।२७ ।। Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ६१५ अर्थ - यह आराधना गंगा सर्वज्ञ रूपी हिमाचल से उत्पन्न हुई है, पुण्यरूप जल से आपूर्ण है, निर्मल है, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र रूप विशिष्ट नेत्रों को धारण करने वाले गणधर देवों ने इसे अपने मस्तक पर धारण किया है और कर्मरूप अग्नि से सन्तप्त मुनिजन रूपी हाथी जिसमें नित्य अवगाहन करते हैं ऐसी यह आराधना रूपी स्वर्गगंगा आपका मंगल करे ||२७॥ या पुण्याम्बुधि-पूरणी कलि-मल-प्रक्षालनैकोद्यमा। या निर्धूय कलेवराणि विमली-कर्तुं क्षमाराधकान्॥ यामासाद्य मुनीभ-यूथ-पतयो, निर्वान्त्यपङ्कात्मिकाम् । सा षोऽन्तर्मल-दाहमाशु निहतादाराधना-स्वर्धनी ॥२८ ।। अर्थ - यह आराधना रूपी नदी पुण्य रूपी समुद्र को पूरित करती है। पाप को धोने में समर्थ है, आराधक मुनिजनों के औदारिक आदि तीन शरीरों को नष्ट करके आत्मा को निर्मल बनाने में सक्षम है और इस आराधना का आश्रय प्राप्त कर मुनि रूप हाथी समुदाय के अधिपति भी अपनी आत्मा को अपंक अर्थात् निर्मल एवं पवित्र कर लेते हैं, ऐसी आराधना रूपो नदी अन्त:स्थित कर्ममल-दाह को नष्ट करे ॥२८॥ या संसार-महाविषापहरणे, सन्मन्त्र-विद्यायते। या कर्मावृतताटवी-प्रदहने, दावानलोर्वीयते ।। या दुर्मोह-तमो-घटा-विघटने, चण्डांशु-रोचीयते। साव: पाप-मलानि हंतु, रुचिरा, रत्नत्रयाराधना ।।२९॥ अर्थ - जो संसार रूपी तीव्र विष का हरण करने के लिए उत्तम विद्या के सदृश है, कर्म वल्ली रूपी वन को जलाने के लिए दावाग्नि के सदृश है एवं मिथ्या मोहान्धकार को नष्ट करने के लिए सूर्यकिरण सदृश है, ऐसी यह मनोहर तथा रत्नत्रय स्वरूप आराधना आपके पाप-मलों को नष्ट करे ।।२९ ।। धर्माराम-महातरोः फलवती, या पुण्य सन्मञ्जरी। मुक्ति-श्री-ललनाभिसारण-पटु-भ्रष्टाक्षरा शम्फली। स्वर्गान-प्रविभासि-सौध-शिखरारोहैकनिःश्रेणिका। सा व: पातु पवित्र-मूर्तिरमला, रत्नत्रयाराथना ।।३० ।। अर्थ - यह आराधना धर्मरूपी बगीचे के वृहद् वृक्ष की फल-युक्त उत्तम मंजरी है, मुक्तिरूपी सुन्दरी को अभिशरण करने की प्रवृत्ति करने वाली स्पष्ट तथा मधुर वाणी बोलने वाली सखी है और स्वर्ग के अग्रभाग पर सुशोभित मोक्षरूप प्रासाद के उपरिम भाग में आरोहण करने के लिए नसैनी सदृश है, ऐसी पवित्र एवं निर्दोष रत्नत्रय स्वरूप आराधना आपकी रक्षा करे ।।३० ।। या सदृष्टि-रुचि-प्रभा-स्वर-तनुः, सज्ज्ञान-नेत्रोज्वला । सच्चारित्र-विभूषणा शुचि-तपः,शीलौघ-माल्याम्बरा ॥ मुक्ति-श्रीवर-कामिनी-प्रिय-सखी, पुष्पेषु-विद्वेषिणी। सा धीरेरभिवन्दिता मम हृदिस्तानित्यमाराधना ।।३१॥ Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ६१६ अर्थ - यह आराधना सम्यग्दर्शन रूप कान्ति से सुन्दर है, सम्यग्ज्ञान रूप उज्ज्वल नेत्रवाली है, सच्चारित्ररूप आभूषण से युक्त है, पवित्र तप एवं शील समुदायरूप माला और वस्त्रों से सुसज्जित मुक्ति रूपी सुन्दर स्त्री की प्रिय सखी है, मदन से द्वेष करती है तथा बुधजनों से वन्दित है, ऐसी यह आराधना देवी मेरे हृदय में नित्य ही निवास करे॥३१ ।। या शुद्ध्यष्टक-युक्त-दर्शन-दलं, ज्ञानोल्लसत्कर्णिकम् । चारित्रोज्वल-दीर्घ-नालममलं, शीलोल्लसत्केसरम् ॥ मुक्ति-श्री-ललना-निवास-कमलं, धत्ते गुणैर्निर्मितम् । सा मे हृत्सरसि स्फुटं विकसतादाराधना पद्मिनी ॥३२॥ इति आराधना स्तवनम् समाप्तम् ॥ अर्थ - अष्ट प्रकार की शुद्धि से संयुक्त सम्यक्त्व ही जिसका दल है, सम्यग्ज्ञान जिसकी कर्णिका है, चारित्र रूप उज्ज्वल नाल है, निर्मल शील समुदाय ही केसर है और मोक्षरूपी लक्ष्मी का निवासस्थल है, ऐसे कमलों को धारण करने वाली, गुणों से समुत्पन्न यह आराधना रूपी कमलिनी मेरे हृदयरूप सरोवर में विकसित रहे ॥३२॥ इस प्रकार आराधना स्तवन पूर्ण हुआ॥ मणक्खत्त-वण्णणं तं जधा। अस्सिणी-णखत्ते जदि संथारं गिण्हदि तदि सादि-णखत्ते रत्ते कालं करेदि॥१।। नक्षत्र गुणों का वर्णन __ अर्थ - क्षपक यदि अश्विनी नक्षत्र में संस्तर ग्रहण करता है तो स्वातिनक्षत्र के उदित रहते रात्रि में उसका मरण होगा ॥१॥ भरणि-णक्कत्ते जदि संथारं गेण्हदि तदा रेवदि-णक्खत्ते पच्चूसे मरदि॥२॥ अर्थ - क्षपक यदि भरणी नक्षत्र में संस्तर ग्रहण करता है तो रेवती नक्षत्र में प्रातःकाल उसका समाधिमरण होगा ।।२।। कित्तिग-णखत्ते जदि संथारं गेण्हदि तदा उत्तरफागुणि-णक्खत्ते मज्झण्हे मरदि॥३॥ अर्थ - क्षपक यदि कृतिका नक्षत्र में संस्तर ग्रहण करता है तो उत्तरा-फाल्गुनी नक्षत्र में मध्याह्न काल में उसका मरण होगा ॥३॥ रोहिणी-णक्खत्ते जदि संथारं गेण्हदि तदा सवण-णक्खत्ते अद्धरते मरदि॥४॥ अर्थ - क्षपक यदि रोहिणी नक्षत्र में संस्तर ग्रहण करता है तो श्रवण नक्षत्र के उदित रहते अर्धरात्रि में उसका मरण होगा ॥४॥ Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ६१७ मियसिर-णक्खत्ते जदि संधारं गेण्हदि तदा पुष्वफग्गुण-णक्खत्ते मरदि॥५॥ अर्थ - क्षपक यदि मृगशिरा नक्षत्र में संत कह करना है तो पूर्वापार गुलि में उसका मरण होगा॥५॥ अहा-णक्खत्ते जदि संथारं गेण्हदि तदा उत्तर-दिवसे मरदि। जदि ण मरदि तदा तहि पुरोगदे णक्खत्ते मरिस्सदि॥६॥ अर्थ - क्षपक यदि आर्द्रा नक्षत्र में शय्या ग्रहण करता है तो दूसरे दिन मरण होगा। यदि न हुआ तो आगे के नक्षत्र में उसकी मृत्यु होगी अथवा पुनः वहीं आर्द्रा नक्षत्र आने पर मृत्यु होगी। पुणवसु-णक्खत्ते जदि संथारं गेण्हदि तदा अस्सणि-णक्खत्ते अवरण्हे भरदि॥७॥ अर्थ - क्षपक यदि पुनर्वसु नक्षत्र में संस्तर ग्रहण करता है तो अश्विनी नक्षत्र के उदित रहते अपराह्न बेला में उसका मरण होगा ||७|| पुस्स-णखत्ते जदि संथारं गेण्हदि तदा मियसिर-णक्खत्ते मरदि।।८।। अर्थ - क्षपक यदि पुष्य नक्षत्र में शय्या ग्रहण करता है तो मृगशिरा नक्षत्र में उसका मरण होगा ।।८।। असलिस-णक्खत्ते जदि संथारं गेण्हदि तदा चित्त-णक्खने मरदि॥९॥ अर्थ - क्षपक यदि आश्लेषा नक्षत्र में शय्या ग्रहण करता है तो चित्रा नक्षत्र में उसका मरण होगा ।।१।। मघ-णक्खत्ते जदि संधारं गेण्हदि तदा तद्विवसे मरदि। जदि ण मरदि तदा तह्मि पुरोगदे णक्खत्ते मरदि॥१०॥ अर्थ - क्षपक यदि मघा नक्षत्र में शय्या ग्रहण करता है तो उसी दिन उसका मरण होगा। यदि उस दिन मरण नहीं हुआ तब पुनः उसी नक्षत्र के आने पर मरण होगा ॥१०॥ पुन्धफगुणि-णखत्ते जदि संथारं गेण्हदि तदा थणिट्ठा-णक्खते दिवसे मरदि।।११।। अर्थ - क्षपक यदि पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र में शय्या ग्रहण करता है तो धनिष्ठा नक्षत्र के उदित रहते दिन में उसका मरण होगा ॥११॥ उत्तरफागुणि-णखत्ते जदि संथारं गिण्हदि तदा मूल-णक्खत्ते पयोसे मरदि॥१२॥ अर्थ - क्षपक यदि उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में शय्या ग्रहण करता है तो मूल नक्षत्र के उदित रहते सायंकाल में उसका मरण होगा ||१२॥ हत्थ-णक्खत्ते जदि संथारं गिण्हदि तदा भरणि-णक्खते दिवसे मरदि।॥१३॥ अर्थ - क्षपक यदि हस्त नक्षत्र में संस्तर ग्रहण करता है तो भरणी नक्षत्र के उदित रहते दिन में उसका मरण होगा॥१३॥ चित्ता-मक्खत्ते जदि संथारं गिण्हदि तदा मियसिर-णक्खत्ते अद्धरते मरदि ।।१४ ।। अर्थ - क्षपक यदि चित्रा नक्षत्र में संस्तर ग्रहण करता है तो मृगशिरा नक्षत्र में अर्धरात्रि को मरण होगा॥१४॥ Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ६१८ सादि-णक्खने जदि संथारं गिण्हदि तदा रेवदि-णक्खने पभादे मरदि॥१५ ।। अर्थ - क्षपक यदि स्वाति नक्षत्र में शय्या ग्रहण करता है तो रेवती-नक्षत्र में प्रभात वेला में मरण होगा ।।१५।। विसाह-णक्खत्ते जदि संथारं गिण्हदि तदा असिलेसा णक्खत्ते मरदि॥१६॥ अर्थ - क्षपक यदि विशाखा नक्षत्र में शय्या ग्रहण करता है तो आश्लेषा नक्षत्र में मरण होगा ॥१६॥ असिलेसा-णक्खत्ते जदि संथारं गिण्हदि तदा पब्वभद्द-णक्खने दिवसे मरदि॥१७॥ अर्थ - क्षपक यदि आश्लेषा नक्षत्र में शय्या ग्रहण करता है तो पूर्वाभाद्रपद नक्षत्र के उदित रहते दिन में मरण होगा॥१७॥ मूल-णक्खत्ते जदि संस्थारं गिण्हदि तदा जेट्टा-णखत्ते पमाद-बेलाए मरदि ॥१८॥ क्षपक यदि मूल नक्षत्र में शय्या ग्रहण करता है तो ज्येष्ठा नक्षत्र में प्रभात बेला में उसका मरण होगा॥१८॥ पुव्वासाढ-णखत्ते जदि संथारं गिण्हदि तदा मियसिर-णक्खत्ते पदोस-बेलाए मरदि ॥१९ ।। अर्थ - पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र में यदि क्षपक शय्या ग्रहण करता है तो मृगशिरा नक्षत्र पर पूर्वरात्रि के समय उसका मरण होगा ॥१९॥ उत्तरासाढणखत्ते जदि संथारं गिण्हदि तदा तहिवसे चेव अहवा भद्दपद-णक्रुत्ते अवरण्हे मरदि ॥२०॥ अर्थ - क्षपक यदि उत्तराषाढ़ानक्षत्र में शय्या ग्रहण करता है तो उसी दिन अथवा भाद्रपद नक्षत्र में अपराह्न वेला में उसका मरण होगा।।२०।। सवण-णक्खत्ते जदि संथारं गिण्हदि तदा उत्तरभद्दपद-णक्खत्ते तहिवसे कालं करेदि॥२१॥ अर्थ - क्षपक यदि श्रवण नक्षत्र में शय्या ग्रहण करता है तो उत्तराभाद्रपद नक्षत्र में ही अर्थात् उसी दिन मरण होगा ॥२१॥ धणिट्ठा-णक्खते जदि संथारं गिण्हदि तदा तद्दिवसे कालं करेदि, जदि तद्दिवसे कालं ण करेदि तदा पुण-तहिवसे चेव आगदे मर्रादे॥२२॥ अर्थ - क्षपक यदि धनिष्ठा नक्षत्र में शय्या ग्रहण करता है तो उसी दिन मरण होगा। यदि उसी दिन मरण न हुआ तो पुनः जब वही नक्षत्र आवेगा तब मरण होगा ।।२२ ।। सदभिस-णक्खते जदि संधारं गिण्हदि तदा जेठा-णक्खत्ते अथवण-बेलाए मरदि ॥२३ ।। अर्थ - क्षपक यदि शतभिषा नक्षत्र में शय्या ग्रहण करता है तो ज्येष्ठा नक्षत्र पर सूर्यास्त की बेला में उसका मरण होगा ।।२३॥ पुन्वभद्दपद-णक्खत्ते जदि संथारं गिण्हदि तदा पुण्णवसु-णखत्ते रत्तिं मरदि॥२४॥ अर्थ - क्षपक यदि पूर्वाभाद्रपद नक्षत्र में संस्तर ग्रहण करता है तो पुनर्वसु नक्षत्र पर रात्रि में उसका मरण होगा ॥२४॥ Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ६१९ उत्तरभद्दपद-णक्खत्ते जदि संथारं गिण्हदि तदा दिवसे वहमाणे वा पुण-रादि वा मरदि ॥२५॥ अर्थ - क्षपक यदि उत्तराभाद्रपद नक्षत्र में शय्या ग्रहण करता है तो उसी दिन, दिन में या उसी रात्रि में मरण होगा ॥२५॥ रेवति-णक्खत्ते जदि संथारं गिण्हदि तदा मघ-णक्खत्ते मरदि॥२६॥ अर्थ - रेवती नक्षत्र में शय्या ग्रहण करने पर मघा नक्षत्र में मरण होगा ॥२६॥ मूल-णक्खत्ते जदि संथारं गिण्हदि तदा जेट्ठ-णक्नत्ते मरदि॥२७॥ सम्मत्तं णक्खत्त वण्णणं। अर्थ - मूल नक्षत्र में संस्तर धारण करने वाले क्षपक का मरण ज्येष्ठा नक्षत्र में प्रात: होगा ||२७ ।। इस प्रकार नक्षत्र गुण वर्णन पूर्ण हुआ। प्रशस्ति श्रीदेवसेनोऽजनि माथुराणां, गणी यतीनां विहितप्रमोदः। तत्त्वावभासी निहित-प्रदोषः, सरोरुहाणामिव तिग्मरश्मिः॥१॥ अर्थ - देवसेन नामके आचार्य माथुर संघ के यतिजनों के श्रेष्ठ आचार्य थे और सब मुनिजनों को आनन्द प्रदान करने वाले थे। जैसे सूर्य कमलों को विकसित करता है, रात्रि का विनाश करता है और पदार्थों को दिखाता है, वैसे ही वे देवसेन आचार्य स्वयं दोषरहित थे, अन्य मुनिजनों को दोष रहित करते थे और भव्य जीवों को जीवादितत्त्वों का स्वरूप दिखाते थे॥१॥ धृत-जिन-समयोऽजनि महनीयो, गुणमणि जलधेस्तदनुतिर्यः । शम यम निलयोऽमितगतिसूरिः, प्रदलित मदनः पद-नत-सूरिः॥२॥ अर्थ - देवसेनाचार्य के शिष्य जैनमत की प्रभावना करने वाले अमितगति नामके एक आचार्य हुए हैं, जो गुणों के समुद्र थे तथा शम एवं व्रतों के आधार थे और मदन का विनाश करने वाले थे, उन्हें बड़े-बड़े विद्वान् भी नमस्कार करते थे ।।२।। सर्व-शास्त्र जलराशि पारगो, नेमिषेण मुनि-नायकस्ततः।। सोऽजनिष्ट भुवने तमोपहः, शीत-रश्मिरिव यो जनप्रियः॥३।। ___अर्थ - इसके अनन्तर इस माथुर संघ में चन्द्रमा सदृश लोकप्रिय और अज्ञानान्धकार को नष्ट करने वाले नेमिषेण नामक एक आचार्य हुए हैं, जो सर्व शास्त्र-समुद्र के पारगामी थे ।।३।। माधवसेनोऽजनि मुनिनाथो, ध्वंसित-माया-मदन-कदर्थः । तस्य गरिष्ठो गुरुरिव शिष्यस्तत्त्व-विचार-प्रवणमनीषः ।।४।। अर्थ - नेमिषेणाचार्य के शिष्य माधवसेनाचार्य हुए हैं। इन्होंने निन्दनीय माया को और मदन को विनष्ट कर दिया था। ये अपने गुरु के अथवा वृहस्पति के समान चतुर थे और इनकी बुद्धि तत्त्वों के चिन्तन में अत्यन्त प्रवीण थी॥४॥ Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ६२० शिष्यस्तस्य मनीषिणोऽमितगतिर्मार्गत्रयालम्बिनीम् । एनां कल्मषमोषिणीं भगवतीमाराधनां स्थेयसीम् ॥ लोकानामुपकारको कृत-सतीं, विध्वस्त-तापांहृदः । पद्मः सत्त्वनिषेवितस्य विमलां, गङ्गां हिमाद्रेरिव ॥ ५ ॥ अर्थ - माधवसेन आचार्य के शिष्य मनीषी अमितगति आचार्य हुए हैं। इन्होंने इस भगवती आराधना की रचना की है। यह भगवती आराधना रत्नत्रय मार्ग का अवलम्बन करने वाली है, पाप का नाश करने वाली है, संसारताप का हरण करने वाली है और गंगा नदी के सदृश है। लोक का उपकार करने वाली जैसे गंगा नदी हिमाद्रि से उत्पन्न हुई है वैसे ही यह भगवती आराधना रूपी गंगा अमितगति आचार्य रूपी हिमाचल से उत्पन्न हुई है ॥५॥ आराधनैषायदकारि पूर्णा- मासैश्चतुर्भिर्नतदस्ति - चित्रम् । महोद्यमानां जिनभक्तिकानां, सिध्यन्ति कृत्यानि न कानि सद्यः ॥ ६ ॥ अर्थ - आचार्यश्री के द्वारा यह ग्रन्थ मात्र चार मास में रचा गया है किन्तु इसमें कुछ भी आश्चर्य नहीं है, क्योंकि महाप्रयत्नशाली जिनभक्त कौन से कार्य सिद्ध नहीं कर सकते हैं ? अपितु सभी कार्य सिद्ध कर लेते हैं ॥ ६ ॥ स्फुटी - कृता पूर्व-जिनागमादियं मया जने यास्यति गौरवं परं । प्रकाशितं किं न विशुद्ध बुद्धिना, महार्घतां गच्छति दुग्धतो घृतम् ॥७ ॥ अर्थ - पूर्व जिनागम का अर्थात् शिवकोटि आचार्य रचित भगवती आराधना ग्रन्थ का आधार लेकर मैंने यह ग्रन्थ रचा है। जैसे दूध से निकाला गया घृत मूल्यवान् एवं आदरणीय होता है, वैसे ही पूर्व जिनागम के आधार को लेकर रचा गया मेरा यह ग्रन्थ विद्वज्जनों में आदरणीय होगा ॥ ७ ॥ यावत् तिष्ठति पाण्डुकम्बलशिला, देवाद्रि-मूर्ध्नि- स्थिरा । यावत् सिद्धिथरा त्रिलोक-शिखरे, सिद्धैः समाध्यासिता ॥ तावत् तिष्ठतु भूतले भगवती, विध्वंसयन्ती तमः । सा चैषा श्रम - दुःखनोदरपरा, चन्द्रप्रभेवोज्ज्वला ॥ ८ ॥ अर्थ - जब तक मेरु शिखर पर पाण्डुकम्बल शिला स्थित रहे, जब तक सिद्धों से अधिष्ठित सिद्धशिला त्रैलोक्य के शिखर पर बिराजमान रहे तब तक चन्द्रकान्ति के समान उज्ज्वल श्रम-दुख का परिहार करने वाली एवं अज्ञान अन्धकार को नष्ट करने वाली यह भगवती आराधना इस संसार में स्थिर रहे || ८ ॥ प्रशस्ति पूर्ण ॥ सं. २०५८ वैशाख शुक्ला एकादशी दि. ३-५-२००१, गुरुवार को ग्रन्थलेखन पूर्ण हुआ । 卐卐卐 Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्लोकानुक्रमणिका ॥ श्लोक सं./पृष्ठ सं. | श्लोक श्लोक श्लोक सं./पृष्ठ सं. ४५/२० ६२/२७ ६६/२८ ६८/२८ ४५३/१५८ ४७६/१६६ ४९९/१७१ ५०६/१७२ ५५०/१८५ ५५९/१८८ ५६४/१८९ ५९१/१९५ ६२०/२०१ ६२१/२०१ अनेनाश्रद्दधानेन अहिंसादिगुणाः सर्वे अरोचित्वाजिनाख्यातं अनंतेनापि कालेन अनुकूलैहीतो वा अंगाक्षार्थसुखत्यागो अदृष्टपूर्वमुच्चार्थ. अभितो धावमानं तद् अवश क्रियते वश्य अवद्यभीर: संविग्ने असंक्लिष्ट-तपः शास्त्र अकारित तपो योग्य अभुक्तिरवमौदर्य अशनं नीरसं शुद्ध अन्तर्बहिर्भवा शय्यां अयोग्यजनसंसर्ग अपि संन्यस्यता चिन्त्य अविच्छेदाय तीर्थस्य अर्हद् भक्तिः परा यस्य अविश्वस्तोंऽगनावर्गे असंयतेन चारित्रं अनुक्तोऽपि गुणो लोके अजल्पन्तो गुणान् वाण्या अनन्यतापकोऽखण्ड अयं नोऽनुग्रहोऽपूर्वो अनन्यतापिभिः सर्वं. अचेलकत्वमुद्दिष्ट अवद्यभीरुको नित्यं अशुद्धमुपधिं शय्यां १४९/६० १५०/६० १५५/६४ १९५/७८ ११९/७८ २१३/८४ २२३/८७ २३८/९० २४१/९१ २८०/१०५ २८३/१०५ ३२२/१२० ३४०/१२७ अयमन्नमयो जीव अस्ति तीरं गतस्यापि अवपीड्य तथोत्पीडी अतिचारास्तपोवृत्त अष्टाचारादयो ज्ञेयाः अपराधोऽस्ति य: कश्चिज् अनुद्धृते प्रमादेन अनुकंप्यानुमान्यं हि अव्यक्त वदतः स्वस्य अरगर्तघटी यंत्र अश्रद्धाय वचस्तस्य अनाकुलमनुद्विन. अप्रकाश्य विधाहारं अशित्वा कश्चिदशेन अनुवासादिभिस्तस्य अप्रमत्ता गुणाधारा; अनशन-निरते तनुभृति सकलं अनुशिष्टं न चेद् दत्ते अनादिकाल-मिथ्यात्व. अच्छिन्ना लभ्यते येन अज्ञानोपि मृतो गोपो अल्पं यथाणुतो नास्ति असूनृतादिभिर्युःखं अल्पायुर्दुर्बलो रोगी अप्येकाहापकेन प्रकृष्टः अवज्ञा कारण वैरं अप्रत्ययो भयं वैर असत्यवादिनो दोषाः असत्यमोचिनो दोषा । अपराधे कृतेऽप्यत्र • ---- ६८२/२१८ ७२०/२२६ ७२४/२२७ ७३४/२३० ७४६/२३३ ७५०/२३३ ७५२/२३४ ७६०/२३६ ७७३/२४३ ७११/२४६ ८१९/२५६ ८२६/२५७ ८३३/२५८ ८५१/२६३ ८६१/२६५ ८७७/२६८ ८८०/२६९ ८८२/२६९ ८१४/२७१ ३७१/१३६ ३७६/१३७ ३८७।१३९ ३८९/१४० ३९३/१४१ ४३८/१५२ ४४०/१५५ ४४२/१५५ Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ६२२ श्लोक श्लोक सं./पृष्ठ सं. | श्लोक श्लोक सं./पृष्ठ सं. ९०१/२७२ ९०९/२७४ ९२१/२७६ १३४४/३८४ १३६५/३८९ १४१६/४०० १४३०/४०४ १४३५/४०४ १४३२/४०४ १४५६/४१० ९६१/२८३ ९६४/२८४ ९८४१८८ १०२३/२९५ १०२७/२९५ १०६३/३०३ ५०६५/३०३ १०७२/३०५ १०८५/३०७ १०९३/३०८ १०९५/३०८ १११५/३१२ अदत्ते तृणमात्रेऽपि अब्रह्म दशधा त्यक्त्वा अरत्यग्निशिखा जालै अवमन्य भवाम्भोधौ अभिलष्य चिरं लब्ध्ना अनर्थकारणं पुंसां अकृतेमपराये असत्यानां गृहं योषा अनलो दहने पुंसां अमेध्य-सदृशं वान्तं अमेध्यं भक्षयनेकं अमेध्यस्य कुटी गात्र अभविष्यन्न चेद् गात्रं अंगारस्येव कायस्य अभ्यंगोद्वर्तन-स्नान अपश्यन्नग्रतो मृत्यु अमेध्य-निर्माण-ममेध्यपूर्ण अविश्वस्तोऽप्रमत्तो यः अहं वः कथं किं में अरण्ये नगरे ग्रामे अवशस्य नरस्यार्थी अन्तरे द्रव्यशोकेन अर्थप्रसक्तचित्तोऽस्ति अमीभिरखिलैर्दोषै अंकुशो गतसंगत्वं अनेनैव प्रकारेण असंमताग्रहः साधोः अप्रवेशोऽननुज्ञाते अर्हद् गणधराचार्य अशस्तं याचते क्रुद्धो अनपेक्ष्य यथा सौख्यं अधमों निजे गेहे अतर्पकमविश्वाम अक्षचौरहताः केचित् अन्तः शुद्धौ बहिः अग्रिनेव हृदयं प्रदयते । अरत्यर्चि; करालेन अभाष्या भाषते अरतिर्जायते माथी अनुभुक्तं स्वयं यावत् अकुर्वाणस्तपः सर्वैः अकुर्वतस्तपोऽन्येऽपि अज्ञानतिमिरोच्छेदि अभ्यंग-स्वेदनालेप अयोग्यमशनं पानं अहमाराधयिष्यामि अग्निमध्यगताः केचिद् अवमौदर्यमंत्रेण अग्निराजसुतः शक्त्या अमी तपोधनाः प्राप्ताः असुरैवैतरण्यां च अत्राणपतितः क्षोण्या अवशेन त्वया सोढा असंयमप्रवृत्तानां अभूतपूर्वमन्येषा. अवश्यमेव दातव्यं अप्रमाणयता - तेन अतिक्रामति वाजीव अशनं कांक्षतो नित्यं असिधाराविषे दोष. अध्रुवाशरणैकान्य अस्ति कर्मोदये बुद्धिः अर्थः पापोदये घुसो | अगम्या विषयाः सन्ति १५३४/४२६ १५३५/४२६ १५४५/४२८ १५७८/४३४ १५८२/४३५ १५९७/४३८ १६०८/४४० १६२४/४४५ १६२८/४४७ ११५७/३२२ ११५८/३२२ १२०६/३३६ १२१४/३३७ १२२४/३३१ १२२५/३४० १२५५/३५९ १२६४/३६३ १२६५/३६३ १२७५/३६७ १६४६/४५५ १६६६/४६१ १६८६/४६५ १६९४/४६६ १७१४/४७१ १७१५/४७१ १७१८/४७१ १७४६/४७८ १७४८/४७९ १७५१/४७९ ५८०१/४९३ १८१६/४९७ १८१७/४९८ १८२४/४९९ १३०८/३७७ Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ६२३ श्लोक श्लोक सं./पृष्ठ सं. | श्लोक श्लोक सं./पृष्ठ सं. २२१८/६०४ २२२१/६०४ २२३२/६०६ ८८/३६ ९३/३८ २१७/८५ २५०/९३ २५२/९४ २५५/९५ २५७/९६ २६२/९८ अध्वनीना इवैकत्र अमित्रं जायते मित्र. अनादिनिधनो ज्ञानी अनेक-दुःख-पानीये असंख्यलोकमानेषु अवाप्यानंतशो दु:ख. अशुभाः सन्ति नि:शेषाः अर्थो मूलमनर्थानां अमेध्यनिर्मितो देहः अदृश्यैश्चक्षुषा दृश्यैः अप्रमादकपाटेन अनिर्दिष्ट फलं कर्म अहो ! द्वेषेण रागेण अयोगकेवली शुक्लं अन्तर्विशुद्धितो जीवो अन्तर्विशुद्धितो जन्तोः अविघ्नेन विशुद्धात्मा अवशेषित-कर्माणः अदीनमनसो मुक्त्वा अवसन्नो यथाछन्दो अशुद्ध मनसो वश्याः अभियोग्य क्रियासक्ता अकारि पंडितस्येति अप्रमत्तगुणस्थाने अनुज्ञाते समे देशे अनन्तमप्रतीबन्ध अनंत दर्शनं ज्ञानं अन्तर्मुहूर्त-शेषायु अयोगोऽन्यतरद् वेद्यं अंगोपांग त्रिसंख्यानं अनादेयायशो निर्माणे अंतिम समये इत्वा १८४७/५०६ अन्त्यविग्रह संस्थान १८५०/५०७ अधर्मवशतः सिद्धाः १८५७/५०८ अक्षर्य निर्मलं स्वस्थ १८६०/५०१ 'आ' आराधना द्विधा प्रोक्ता १८७६/५१५ आराधने चरित्रस्य १९०५/५२३ आसवं संवर बंध १९०६/५२४ आपवादिकलिंगोऽपि १९११/५२४ आत्मीया दर्शिता श्रद्धा १९१६/५२६ आसने शयने स्थाने १९३२/५३१ आहारस्तप्तये पुंसां १९४३/५३४ आहार-खर्वता दांतिः १९५४/५३६ आत्मा प्रवचनं संघः १९७४/५४४ आहारमल्पयने आहार-गोचरैरुप्रै. १९९८/५५० आचाम्लरसहानिभ्यां २००६/५५१ आज्ञाकोपो जिनेन्द्राणां आर्यिका मानसं सद्यो २०१८/५५३ आर्यिका वचने योगी २०३०/५५५ आपृच्छ्येति गणं सर्व २०३५/५५५ आज्ञाकोपो गणेशस्य २०३८/५५९ आर्यिकाः क्षुल्लिकाः क्षुल्ला: २१५०/५८७ आलोचना प्रवृत्तस्य २१६२/५९० आलोचना प्रवृत्तस्य २१६३/५९० आचार-जीद-कल्पानां २१७९/५९४ | आलोक्य सहसायान्त २१८१/५९४ आवश्यके ग्रहे क्षेपे २१८७/५९५ आचारी सूरिराधारी २१९६/५९९ आचारी स मतः सूरिः २२०१/६०० आचारस्थः पुनर्दोषान् २२०३/६०० | आत्मश्रममनालोच्य २२०४/६०० | आलोचनां प्रतिज्ञाय ३३८/१२७ ३४२/१२८ ४००/१४२ ४०१/१४२ ४१०/१४५ ४२२/१४७ ४२३/१४७ ४२५/१४८ ४२६/१४९ ४२८/१४९ ४३४/१५१ ४३६/१५१ ४४५/१५६ ४७४/१६५ Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ६२४ श्लोक श्लोक सं./पृष्ठ सं. | श्लोक श्लोक सं./पृष्ठ सं. ४७९/१६६ ४९२/१६९ ९५२/२८२ ९७९/२८७ ५३८/१८० १०३९/२९७ १०७७/३०६ १०९९/३०९ १११७/३१२ ५४१/१८२ ५५७/१८७ ५८०/१९२ ६००/१९७ आथापायविधिर्येन आयापाय दिशस्तु समीप आचार्यो यत्र शिष्यस्य आचार्यः करणोत्साह आराधनागतं क्षेमं आपृच्छ्य क्षपकं सूरिः आलोचना द्विधा साधो आलोचनादिकं तस्य आलोचितं मया सर्व आलोचयामि नि:शेष आसने शयने स्थाने आद्ये व्रते द्वितीये वा आत्मशुद्धिं विधत्ते यः आगमेन चरित्रेण आमर्शन-परामर्श आत्मा त्यक्तः परं शास्त्र आस्वाद्य कश्चिदेतेन आचाम्लेन क्षयं याति आराधकस्त्रिधाहार आराधनास्य निर्विघ्ना आचार्येऽध्यापके शिष्ये आराधना-पुरोयानं आश्रमाणां मतो गर्भः आत्मघातोऽङ्गिना घातो आहारोपधिभेदेन आरम्भेऽशिवधे जन्तुः आयास-रसनाछेदआश्रय स्वजनं मित्रं आकर्ण्य मूषकस्यापि आपाते मधुरं रम्य. आसने शयने स्थाने आशीविषेण दष्टस्य ६१६/२०० ६१६२०२ ६७९/२१७ ७०३/२२३ ७२३/२२७ आयुधैर्विविधैः कीर्णा ! आसन् रामायणादीनि आशीविष इव त्याज्या आजन्म विधवाः काश्चित् आमपक्वाशयस्थान आत्मनः पतितो खेलो आशामूले दृढं लग्नो आरोहति नगं वृक्षं आहारमुपधिं शय्या. आभिः समितिभिर्योगी आकांक्षति महादुःखं आरटन्ती भराक्रा-तां आलोचनाधिकारस्य आरामे त्रिचरन् स्वेच्छ आददानो यथा लोहं आधारं पुरुषं हत्वा आबद्ध-धृत्युपानत्क आलस्य-सुख-शीलत्वे आहारसंज्ञया श्वभ्रं आहारसंज्ञया भद्र ! आहारं बल्भमानोऽपि आपात-सुखदै भोज्ये आर्त्तरौद्र-यं त्याज्यं आकाशे पक्षिणोऽन्योन्य आनवं कुरुते योगो आलंबनै तो लोको आयुधं योगिनो ध्यान आराधनावबोधार्थं आराध्याराधनामेव आर्त्तरौद्र पर; साधुः आलोचनामनाधाय | आदौ मध्येऽवसाने च ७३५/२३० ७३.७/२३१ ७४१/२३२ ७८.६/२४६ ८२५/२५७ ८२९/२५७ ८४४/२६१ ८४९/२६२ ८७८/२६८ ८९७/२७१ ९००/२७२ ९१२/२७५ ९१७/२७६ ९२६/२७७ १२५३/३५३ १२५६/३५९ १३०४/३७६ १३१६/३७९ १३४८/३८५ १३८७/३९४ १४३४/४०५ १४३६/४०५ १४७७/४१४ १५२९/४२५ १७३३/४७४ १७३५/४७६ १७३७/४७६ १७४५/४७८ १७८६/४८७ १८७२/५१५ १९२६/५२८ १९६७/५४१ १९७७/५४५ १९८५/५४६ २०१२/५५२ २०२८/५५५ २०३५/५५६ २०६३/५६५ Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ६२५ श्लोक श्लोक सं./पृष्ठ सं. | श्लोक श्लोक सं./पृष्ठ सं. आकृष्य नीयते यस्यां २०७१/५६८ इन्द्रियार्थ-महातृष्णा. १५४७/४२८ आराधनाविधिः पूर्व २०९८५७४ इति विलोक्य तपः फलमुत्तमं १५५३/४२९ आराध्याराधनादेवी २०१९/५७५ | इत्थं शुश्रूषमाणस्य १५७२/४३३ आरुह्य क्षपकश्रेणी. २१६७/५९१ इत्थं क्षपक्रमापृच्छ्य १५८५/४३५ आयुषा सदृशं यस्य २१८४/५९५ इत्येष कवचोऽवाचि १७६५/४८२ आदेशेनाशुगमीव २२०७/६०२ इत्येवं क्षपकः सर्वान् १७६९/४८३ आराधना जन्मवतश्चतुर्धा २२३६/६०७ । इदं जगच्छारद वारिदोपम १८१४/४९६ आराधनैषा कथिता समामतो २२३७/६०७ इन्द्रियार्थाभिलाषार १८८३/५१७ आराधना भगवती कथिता स्वशक्त्या २२३९/६०८ | इन्द्रियार्थ-सुखे येन ५९२२/५२७ आराधनैषायदकारि पूर्णा (प्रश.) ६/६२० इन्द्रियाश्वा नियम्यते इत्थं यो दुर्लभां बोधि १९६३/५४० । इदमेव वचो जैन. इत्थं यो ध्यायति ध्यानं १९७५/५४४ इत्ययं विनयोऽध्यक्षः इत्थं समत्वमापन्न: १९८८/५४७ इन्द्रियार्थ-सुखासक्तः १९७१७८ इत्थं संस्तरमापन्ना २०२७/५५५ इत्थं सल्लेखनामार्ग २६५/९९ इहलोक-क्रियोद्युक्ताः २०३४/५५६ इत्थं गुणपरिणामो ३१७/११८ इत्थं विराध्य ये जीवा २०४०/५६० इदं नो मंगलं बाढ ३८८/१३९ इदं विधानं जिनमापदेशित २०७४/५६९ इति विमुच्य रहस्यविभेदकं ५१७/१७६ इहामुत्र सुखे दुःखे २१२३/५८० इति ज्ञात्वा महालाभं ५७१/१९० इंगिनी-मरणेऽप्येव २१३३/५८२ इत्युक्तं सूरिणोत्कृष्टां इंगिनी-मृति-सुखानुषंगिणी २१३४/५८२ इत्येकत्वगतः कृत्स्नं ५७८/१९२ इंगिनी-मरणं प्रोक्तं २१३५/५८२ इत्यन्यव्याजतश्छन्नं ६१४/२०० इंगिनीमरणेऽवाचि २१३६/५८२ इदमालोचनं दत्ते ६२९/२०३ इत्युक्तं निःप्रतीकारं २१४२/५८३ इह बंधं वधं रोध ८३१/२५८ इन्द्रराज-गृहस्वामि ९०७/२७३ ईन्धनेनेव सप्तार्चिः १७३८/४७६ इच्छावतीमनिच्छा वा ९५९/२८३ ईषत् प्राग्भार-संज्ञायां २२१२/६०२ इत्थमर्जयते पाप ९६६/२८४ इत्यंगेऽवयवाः सन्ति १०८३/३०६ उपवृहः स्थितीकारो ४८/२२ इन्द्रियार्थरतिजीवो ११३०/३१५ उत्कृष्टा मध्यमा हीना ५३/२५ इत्थं कृत-क्रियो मुंच १२३८/३४४ उपहादि तात्पर्य ११४/४६ इदानीं चरणं कृत्वा १३४२/३८४ उक्तं शब्दे रसे रूपे ११८/४८ इत्येते साधवः पंच १३७९/३९२ | उपशान्तमगार्हस्थ्यं १२८/५५ Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परणकण्डिका - ६२६ श्लोक श्लोक सं./पृष्ठ सं. | श्लोक श्लोक सं./पृष्ठ सं. उपधिं मुंचतेऽशेषं उपर्युपरि शुद्धेषु उन्मार्ग-देशको मार्ग.... उपसर्ग महायोधा उद्गमोत्पादना बल्भा उद्गमोत्पादनाहार उपधीनां निषद्याया: उत्थापयिषुरात्मानं उद्यतः पंचधाचार उत्थापने मलत्यागे उद्धृत्य कुर्वते कालं उक्तो दोषः सदोषस्य उल्लाघी कुरुते वैद्यो उद्गमादि-मलापोटा उद्यानमन्दिरे हृद्ये उत्तराशाशिराः क्षोणी उत्तमार्थमृतौ यस्य उद्वेगं कुरुते हिंस्रो उच्चोऽपि सेवते नीचं उपकारं गुणं स्नेह उष्णश्चन्द्रो रविः शीतो उदीर्णोऽप्यगिनो मोहो उदीयते यदा लोभो उद्देशापर्शकं सूत्र. उन्मत्तो बधिरो पूको उच्च भवे कुलं नीचो उच्चत्वे बहुशः कोऽत्र उच्चत्वे जायते प्रीतिः उच्चत्वमिव नीचत्वं उच्चत्वादि-निदानेऽपि उत्तारितः करीन्द्रेण उड्डीय शाखिनः पक्षी १७०/६९ उदीयमानेन महोद्यमेन १५२७/४२४ १७९/७३ उत्पाट्य बहुशो में १६५०/४५७ १९२/७७ उदीर्ण-कर्मणः पीडा १६९९/४६८ उपधि संस्तरं शय्यां १७७९/४८५ २३९/९० उपवासमनध्यायं २०६८/५६८ पाठांतर/९५ उक्तो भक्तप्रतिज्ञाया २१०३/५७६ उपेक्षते विनिक्षिप्तः २१२१/५८० ३८३/१३८ | उपदेशोऽन्यसूरीण. २१३२/५८१ उपसर्ग-हृतः काल २१४३/५८३ उपसर्ग सति प्राप्ते २१४५/५८४ ५६९/१९० उद्यद् दुःखागदुर्ग (आराधनास्तवनं) ८/६११ ६३३/२०४ ६५४/२११ ऊर्ध्वाधः सत्रिलोकस्था ६६४/२१३ ६६७/२१४ | ऋद्धयः सन्ति या लोके २०२०/५५४ ६६९/२१४ ७१४/२२५ एवं स्मृतिपरिणामो १६९/६८ ८३०/२५७ एक वि त्रि चतुः पंच २१५/८५ ९४२/२८० एवमैकाग्यमापन्नो २४३/९१ ९८५/२८८ एवं भावयमानः संस् १०२८/२९५ एवं मुणपरीणाम ३३०/१२३ ११२५/३१४ एवं गुणाकरीभूतं ११७७/३२७ एकोऽपि संयतो योगी ३६४/१३४ ११७९/३२७ एते दोषाः संति संघे स्वकीये ४१२/१४५ १२१५/३३७ एक द्वि त्रीणि चत्वारि ४१८/१४७ १२८६/३७१ एकरात्र तनूत्सर्गः ४१९/१४७ १२८९/३७२ एभिर्निर्यापकः सूरि ४३५/१५१ १२९०/३७२ | एकाते मधुरं स्निग्धं ४९४/१६९ १२९१/३७३ एतस्याचार्यकं संघो ५१३/१७५ १२९७/३७५ | एवं कृते स्वनिक्षेपे ५३५/१८० १३८८/३९४ एक: संस्तरकस्थोऽनो ५४२/१८२ १३८९/३९४ | एकमेव विधिना यतिं ततः Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ६२७ श्लोक श्लोक सं./पृष्ठ सं. | श्लोक श्लोक सं./पृष्ठ सं. एति शल्यं निराकर्तुं ५७९/१९२ 'औ' एतस्य कधने शुद्धिः ६३२/२०३ औत्सर्गिकमचेलत्वं ८२/३४ एक-द्वि-नि-चतुः-पंच ६३७/२०५ औत्सर्गिक-पदान्वेषी १७२/३९ एवमेकाग-चेतस्काः ६९९/२२२ औषधानि सवीर्याणि १६९३/४६६ एति सल्लेखना मूलं ७११/२२४ एकत्र जन्मनि प्राणी ७१२/२२४ कल्पाचार-परिज्ञानं एकोप्यर्हन्नमस्कारो ७८७/२४६ कर्तव्या यत्नतः शिक्षा १५९/६५ एकत्रापि पदे यत्र ८०८/२५२ कषायाकुलचित्तस्य २६७/१०० एकोऽपि हन्यते येन ८३४/२५८ कषायाकुलचित्तानां ३४८/१३० एकेनासत्यवाक्येन ८७६/२६८ कथ्यमाना गुणा वाचा ३७२/१३६ एते दोषा न जायन्ते ९०६/२७३ कण्टकेऽनुदधृते प्राप्तो ४८३/१६७ एतेषां चिंतनान्मानो १२९६/३७४ कश्चनाकथने दोषे ४९३/१६९ एका सत्य सहस्राणि १४५७/४१० कथायामकथायां च ४९५/१७० एकत्र निधनं नाशो १६९७/४६७ कण्ठीरव-इवौजस्वी ४९७/१७१ एकत्र कुरुते दोषं . कानाको यो ५२२/१७७ एवं प्रज्ञाप्यमानोऽसौ १७६३/४८१ कर्णाहुतिं न चेद् दत्ते ५२६/१७८ एवं भावितचारित्रो १७७७/४८४ कण्टकेन यधा विद्धे ५६०/१८८ एकान-मानसश्चक्षु १७९२/४८८ कश्चित् क्रीत्वा विष भुक्ते ५९४/५९६ एकानेक-भवोपात्त १७९९/४९२ क्लमापहारपार्श्वस्थ ५९८/१९७ एकाकी म्रियते जीवो १८३५/५०२ कथा साक्षेपणी ब्रूते ६८६/२१८ एक द्वि त्रि चतुः पंच कथ्या बहुश्रुतस्यापि ६८९/२१९ एकेन्द्रियेष्वयं जीवः १८८१/५१६ कश्चिद् दृष्ट्वा तदेतेन ७२२/२२६ एवं कालगतस्यास्य २०४५/५६१ कश्चिदुद्धरते शल्यं ७२८/२२८ एवमष्टसु यामेषु २१२५/५८० कटुकेऽलाबुनि क्षीरं ७६४/२३८ एकदा शुभमना विषद्यते २१६०/५८९ करणेन विना ज्ञानं ८०३/२५१ एवं समासतोऽवाचि २१६१/५९० कषायकलुषो यस्मा ८४६/२६२ एरंड बीजवज्जीवो २२०६/६०१ . कलशोऽस्तीति यद्भूते ८५५/२६४ एषैव परमो धर्म (आ.स्त.) १४/६११ कर्कशं निष्ठुरं हास्यं ८६०/२६५ एषैव परमो लाभः (आ.स्त.) १५/६१२ कलिलस्यास्रवद्वार ८७९/२६८ एतस्या दुर्लभं ब्रूहि (आ.स्त.) १६/६१२ कन्याभिरार्यिकाभिश्च १०४०/२९७ 'ओ' कणिका-शुद्धितः शुद्धः १०५४/३०१ ओघेन भाषतेऽनल्प ५५८/१८७ | कर्णयोः कर्णगूथोऽस्ति १०८६/३०७ Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ६२८ श्लोक श्लोक सं./पृष्ठ सं, | श्लोक श्लोक सं./पृष्ठ सं. ११०२/३०९ ११४८/३१९ १२११/३३७ १३८३/३९३ कस्तूरिका कुरंगानां कषायेन्द्रिय-संज्ञाभि. कलिं कलकलं वैरं कश्चिद् दीक्षामुपेतोऽपि कषायाक्ष-गुरुत्वेन कषायाक्ष-गुरुत्वेन कषायाक्षगुरुत्वेन कषायेन्द्रियदोषेण कण्ठालग्नशिलोऽगाधं कषायमत्त उन्मत्त: कषायाक्ष पिशाचेन कषायाक्ष वश स्थायी कषायेन्द्रियदोषेण कषायेन्द्रिय दोषातः कषायाक्ष गृहीतस्य कषायेन्द्रिय-दुष्टाश्वैः कषायेन्द्रिय-दुष्टाश्वैः कषाय-मर्कटा-लोला: कषायाक्ष-द्विषो बद्धा कषायाक्ष-द्विपा मत्ता कषायाक्ष-गजाः शील कषायाक्ष-महाव्याघ्राः कषाय-चौरानति-दुःखकारिणः कासव-निरोधेऽय कटुतिक्त-कषायाम्ल कस्यचित् क्रियमाणेऽपि कस्त्वं किं नाम ते काल: कः कृत्वा स्व स्तवं मानी, कर्णाजलि पुरैः पीत्वा कर्कशे निष्ठुरे नि:श्रचे भाषणे कर्माण्युदीर्यमाणानि कर्मणा पततीन्द्रे तु १३६४/३८९ १३७१/३९० १३७७/३९२ १३९६/३९६ १३९८/३९६ १३९९/३९७ १४०२/३९७ १४०७/३९८ १४०८/३९८ १४१२/३९९ १४७०/४१३ १४७१/४१३ १४७८/४१४ १४८१/४१५ १४८५/४१५ १४८४/४१५ १४८२/४१५ १५१५/४२१ १५२६/४२४ १५७०/४३२ १५७९/४३४ १५८४/४३५ १५९९/४३९ १६३८/४५३ १६७१/४६२ १७००/४६८ १७०४/४६९ कर्मोदयमिति ज्ञात्वा | कलेक्रमिदं त्याज्य. कल्याण-प्रापकोपायः कर्मोदये मतिर्याति कर्म नाशनसहानि जनानां करोति पातक जन्तुः कषाय-पट्टिकाबद्ध कर्मानवति जीवस्य कर्म-सम्बन्धता जाता कल्मषं कार्यते घोरं कषाय-तस्कराः रौद्राः कर्मभिः शक्यते भेत्तुं कषायसंयुगे ध्यानं कषायव्यसने मित्र कषायाातपे छाया कषायो ग्रन्ध-संगेन कंदर्पभावनाशीला; करोत्येनं ततो योगी कषायान्मध्यमानष्टौ करस्थितमिवाशेष कर्मभिः क्रियते पातो | कर्माष्टकविनाशेन करोति वशवर्तिनीस्त्रिदश 'का कायिको वाचिकश्चैतः कार्याय स्वीकृता शय्यां कांदपी कैल्विषी प्राझै कामे भोगे गणे देहे काष्ठाश्म-तृण-भू-शय्या कालो द्वादशवर्षाणि कातरोऽप्रिय-धर्मापि कालेऽमुकत्र देशे वा १७०६/४६९ १७६२/४८१ १७९८/४९२ १८१५/४९७ १८३२/५०१ १८३३/५०१ १८८४/५१७ १९१४/५२५ १९१५/५२५ १९२०/५२७ १९२९/५३० १९३३/५३२ १९७८/५४५ १९८२/५४६ १९८३/५४६ १९९६/५४९ २०३७/५५९ २१३८/५८३ २१७०/५९२ २५८०/५९४ २२१५/६०३ २२३३/६०६ २२४०/६०८ १२२/५३ १८४/७४ १८७/७५ २०६/८१ २३४/८९ २६०/९८ ३६२/१३३ Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ६२९ शस्नोक श्लोक सं./पृष्ठ सं. ] श्लोक श्लोक सं./पृष्ठ सं. कालानुसारतो ग्राह्या कालानुसारिणौ ग्राह्यौ कालकूटं यथान्नस्य कामाकुलितचित्तस्य काम्यमानं जनं कामी कामी शूरोऽपि तीक्ष्णोऽपि कामाध्वना कुच-फलानि कालेयकानि सप्तांगे कायः कृमि-कुलाकीर्णः कायो जलैः पयोधीनां कांपिल्य-नगरेऽर्थार्थं काय-क्रिया-निवृत्तिर्वा कामिभिर्भोगसेवाया कातरत्वं न कुर्वन्ति कास-शोषारुचिश्छर्दि काकंद्यां चण्डवेगेन कांक्षन्तोऽपि न जीवस्य कालेऽतीतेऽभवत् सर्वः कालेन निर्जरा नून काल-त्रितय-भावीनि ७००/२२२ पुवन्ति दारुणां पीड़ा. ९९८/२९१ ७०२/२२२ कुत्सिता नुर्यतो मारी १०१६/२९४ ८७४/२६८ कुल-जाति-यशोधर्म १०२१/२९४ ९१९/२७६ कुथित-सद्मनि वा कुथितैः कृते ११०३/३१० ९२३/२७६ कुर्वतोऽपि परां चेष्टा १९९९/३३४ ९४४/२८० | कुथितस्त्री-तनु-स्पर्श १३२०/३७९ ९७३/२८६ | कुर्वन्तो देहिनां दुःखं १३३३/३८२ ५०७६/३०५ कुपितः कुरुते मूढः १४४३/४०६ १०८२/३०६ कुलसंघयशस्कामाः १६१४/४४१ १०९४/३०८ कुलालेऽरिष्ट-संज्ञेन १६३५/४५२ ११९८/३३३ कुंभीपाके महातापे १६५१/४५७ १२४६/३४७ कुलीनो धार्मिको मानी १७३०/४७४ १३१९/३७९ कुर्याद दिव्यादिभोगानां १७७३/४८४ १६०७/४४० कुर्वन्ति बांधता: विघ्नं १८५३/५०७ कुदर्शनावृत्तकषाययोगैः १९२७/५३० १६२९/४४८ कुरुष्व सुखहेतूनां १९९२/५४९ १६९८/४६८ १८४५/५०५ कृत्याकृत्ये यतो ज्ञात्वा १९४२/५३३ । कृत-योग्य-क्रियो युद्धे २५/१० २२३०/६०६ कृतिकर्म विधायासौ ५३२/१७९ कृत्वा त्रिशुद्धिं प्रतिलिख्य ५९०/१९५ कृत्वापि कल्मषं कश्चित् ६५२/२१० ११५३/३२० कृत्यस्तृणमयोऽसन्धिः ६७३/२१५ १३३९/३८३ कृषति दीव्यति सीव्यति ११८८/३३२ १७३६/४७६ | कृत्वा हिंसानृतस्तेय १४४५/४०७ २०७७/५६९ कृतस्य कर्मणः पूर्वं १७११/४७० कृशानु-मूषिकाम्भोभिः १२१२/३३७ कृष्णा नीला च कापोती १९९०/५४७ ५५२/१८६ कृतकृत्या गृहीतार्था २०५४/५६३ ६०१/१९७ कृत्यस्तत्र समस्तेन २०६१/५६५ ७२७/२२८ कृतार्थतां समापनो २१०७/५७७ २४३/२८० किमालंद परीहारं किं पुनर्विकृता कल्पा: किं करिष्यन्ति ते भोगा किं त्वमिच्छसि भूयोऽपि किं न तैर्भुवने प्राप्त कुर्वतः समितीप्ती: कशलोऽपि यथा वैद्यः कुर्वाणस्यानुमान्येति कुरुते देशनां सूरि. कुलीनो निंदितं कर्म Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ६३० श्लोक सं./पृष्ठ सं. 'के' १६४२/४५४ २०४९/५६४ 'क्षी' १७७८/४८५ २२०२/६०० श्लोक श्लोक सं./पृष्ठ सं. | श्लोक क्षिप्तस्तत्राग्निना तप्तो केचित् सिद्धि-पुरासन्नाः १३७२/३९१ | क्षिप्रमादाय गच्छन्ति केनेहोदीयमानानां १८२६/५०० क्षीणशक्तेर्यदा चेष्टा कोदण्ड-लगुडादण्ड २३३/८९ क्षीणासु लोभकृष्टिसु कोट्यः पंचाष्ट-षष्टीश्च ११०५/३१० क्षीयते गुरु-लघ्वादि को दोषेष्वप्रशान्तेषु १५२३/४२४ को नामाल्प-सुखस्या) १७४९/४७९ क्षुधया तृष्णया साधोः कोशलो धर्मसिंहोऽर्थ २१४६/५८४ क्षुद्राणामल्पसत्त्वानां क्षुधादिधीडित: शून्ये । क्रमेण संल्लिखत्यंग. २५६/९६ क्षुधातृष्णाभिभूतोऽपि क्रमेण वैराग्य-विधौ नियुक्तो ७३०/२२९ क्षुप्यते कृष्यते लूयते क्रुद्धः कण्ठीरवः सर्पः १००४/२९२ क्षुधादि-पीडिते देहे क्रोध लोभ भय माया ११८३/३२९ क्षुत्-तृष्णा-व्याधि-संहार क्रीणाति वयते वस्त्रं ११९१/३३२ क्षुत्-तृष्णादि-महाव्याध क्रोधो भाशयते धर्म १४९९/४१८ क्षुधितस्तृषितः श्रान्तो क्रमेण फलमेतासु २०५१/५६२ क्षुधातृष्णादयस्तेषां ७०७ २२३ ८१२/२५३ ९५०/२८२ १३०७/३७६ १६६७/४६१ १८७४/५१५ १८८०/५१६ १६७/६८ ११७५/३२६ क्षमयामो वयं तद् यत् क्षपकेच्छाविधानेन क्षपकस्य सुखं दत्ते क्षपकाध्युषिते धिष्ण्ये क्षपकस्य कथा कथ्या क्षपकावसथ द्वार क्षपकस्यात्मनो वास्ति क्षपको वाऽखिलास्त्रेधा क्षपयित्वेति वैराग्य, क्षपकाननराजीवं क्षपको जायते तीरैः क्षणेन दोषोपचयापसारिणः ३९०/१४० क्षेमं यावत् सुभिक्षं च ४६०/१६० क्षेत्रं वास्तु धनं धान्यं ५२७/१७८ ६६८/२१४ मणिनैव समं जल्पः ६८४/२१८ गणेन सार्क कलहादि दोष ६९५/२२१ गणिनः प्रैष्य शुश्रूषा ७०६/२२३ गणे स्वकीयेऽपि गुणानुरागी ७३६/२३० गणाधिपः कृताभ्यासो ७४५/२३२ गणस्थितेऽसतीदृक्षे १५५६/४२९ गदन्ति ऋषयः सत्यं गतस्याहारदानार्थ १७६७/४८२ गर्हितं दुरितकर्म निर्मित गच्छत्रुलंघते क्षोणी १६४१/४५४ | गत्वा सुख विहाराय १८३/७४ ४०६/१४४ ४११/१४५ ४१४/१४६ ६५५/२११ ६५६/२५१ ८६६/२६७ क्षिप्तः श्वभ्रावनौ क्षिप्रं १८३०/५०० २०६९/५६८ Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोक गंभीरां मधुरां स्निग्धां गंभीरां मधुरां श्रव्यां गंधे रूपे रसे स्पर्शे गंभीरं मधुरं स्निग्धं गंगायां नावि मझायां गंध- प्रसून धूपाद्यैः गाथका वादका नर्त्तकाश्चाक्रिका गात्रैर्मुञ्चति वर्चासि गाढप्रहार- विद्धोऽपि गिरिकन्दर-दुर्गाणि गीतार्थैरपि नो कृत्या गुड-तैल-दधि-क्षीर गुणदोषौ प्रजायेते गुर्वी दृष्ट्वामरो मानी गुर्वी यद्यपि पीडास्ति गुणबंधनमारुह्य 'गि' गुणाः स्थितस्येति बहुप्रकारा गुणैरमीभिः कलितोष्टभिर्जनैः गुरोर्निजं दोषमभाषमाणो गुणानामालयः सत्यं गुह्यैरवयवैः स्त्रीणां गुणागुणौ न जानाति गुणैरशेषैः कलिते मनोरमै गृह्णाति प्रासुकां भिक्षां गृहीतार्थी गणी प्रार्थ्य गृह्णानस्य यतेः सूरे: 'गु' 'गॄ' मरणकण्डिका। श्लोक सं. / पृष्ठ सं. २८८/१०७ ५२३ / १७७ ११६० / ३२३ १५९४/४३७ १६२३ / ४४४ २१४० / ५८३ ६६० / २१२ १०९०/३०७ १६३२ / ४५० ११९६ / ३३३ ७१६ / २२५ २२२/८७ ३६६ / १३५. ३७५/५३७ ४६४ / १६१ ५३० / १७९ ६१८/२०० ८७१ /२६७ १०९१ / ३०८ १४३८/४०६ १५५५/४२९ १६८१ / ४६४ १७७६ / ४८४ १९३४/५३२ २२६/८७ ४९५/१४६ ४३१/१५० - ६३१ श्लोक गृहस्थवचनं मुक्त्वा गृह्णात्यवर्णवादं यः गृहीतुं शक्यते जातु गृद्ध्या कांक्ष-कारणं सेवते गृहवास तथा त्यक्त्वा गृहीतोऽक्षग्रहाघ्रातो गृह्णीते मुंचमानोऽडुगी गृह्णता मुंचता दारुणं कल्मषं 'गो' गो- स्त्री - ब्राह्मण - बालानां गोमहिषीहयरासभरक्षी गधा छ गोपासक्ता सुतं हत्वा ग्रन्थो लोकद्वये दोषं ग्रन्थो महाभयं नृणां ग्राह्यस्तथोपदेशोऽयं ग्रामस्याभिमुखं कृत्वा घोटकोच्चार तुल्यस्य चक्षुर्दृष्टेर्मतः सारः चतुरंगं प्रपात्ल्यापि चतुरंग परीणाम चतस्रो गृध्नुतासक्ति चतुर्णां कषायाणां 'ग्रा' चतुरंगमगीतार्थो चत्वारो वादिनोऽक्षोभ्याः चतुर्विधस्य संघस्य चर्मरोमाणि जायन्ते चमरीणां कचं क्षीरं श्लोक सं./ पृष्ठ सं. ६३६ / २०४ ९४० / २७९ १००३ / २९२ १२४० / ३४४ १३९२ / ३९५ १३९७/३९६ १८६४/५१० १८८९/५१८ ८२७/२५७ ९५१/२८२ ९८७ / २८९ १४२८/४०४ ११७८/३२७ १९८४ / ३३० ३८६ / १३९ २०६४/५६५ १४९४ / ३९९ १५/७ १८/७ २०२ / ७९ २२०/८६ २६९/१०१ ४४७/१५६ ६९८/२२२ ७०९/२२४ १०५८/३०२ ११०१/३०९ Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ६३२ श्लोक श्लोक सं./पृष्ठ सं. | श्लोक श्लोक सं./पृष्ठ सं. "ज' चतुर्विधेन संधेन चतुरंग-बलोपेतः चन्द्रमा वर्धते क्षीण १६३७/४५३ १७३४/४७५ जननी भगिनी भार्या जननी जनक कान्तं जनमध्ये भुजास्फालं जन्म-मृत्यु-जरा कीर्णा जन्ममृत्यु-जरातके जधन्या मध्यमा वर्या जधन्याराधनां देवीं जलानल-विषच्याल जन्ममृत्यु-जरा-रोग ९६९/२८५ २७५/२८६ १५९८/४३९ १६६१/४५९ १८२०/४९९ १८७०/५१३ २०२१/५५४ २०९२/५७३ २२२५/६०५ ६६१/२१२ ११३४/३१६ चारित्राराधने व्यक्तं चारित्रं पंचम सारो धारित्राराधने सिद्धा. चारित्रं शोधयिष्यामि चारणा वारणा वाजिनो मेषका चारुदत्तो विनीतोऽपि 'चि' चिकारयिषतां शुद्धा चिक्कणो रोमकूपेषु चिरं तिष्ठति संस्कारे चिन्तामणिस्तपः पुंसो चिन्तितं यच्छतो वस्तु चित्र-दुःख-महावर्ता चिराभ्यस्तचरित्रोऽपि ५८४/१९३ १०८९/३०७ १११०/३११ १५४४/४२७ २७५/१०२ ४६२/१६१ ४६५/१६१ ५५३/१८६ १८८२/५१७ २०२९/५५५ जायमानः कषायानिः जानाति प्रासुकं द्रव्यं जानाति व्यवहारं यः जानताऽपि तथा दोष जानीते मे यतः सर्वा जातस्य प्रतिसेवातः जायते धनिनो वश्य: जाति-रूप-कुलैश्वर्य जायन्ते सकला दोषा जानन्तं कुथिते काये जानता पश्यतां तेषां चूर्णितः कुट्टितश्छिन्नो ६५०/२०९ ११९७/३३३ १४४७/४०८ १४६६/४१२ १९१९/५२६ २२२७/६०५ १६४९/४५६ चेलादयोऽखिला ग्रन्थाः चेलमात्र परित्यागी १२१६/३३७ ११८०/३२८ चैत्यस्य संमुखः प्राच्या. 'चौ' चौराणामिव सांगत्यं 'छा' छायानामिव पांथानां जिनेश-सिद्ध-चैत्येषु जिनैरभाणि मिथ्यात्वं जिनाज्ञा स्व-परोत्तारा जिनाज्ञा पालिता सर्वा जिनेन्द्रवचनश्रद्धा जिनेन्द्रयक्षनागादि जिनार्चाया दिशः प्राच्या जिनेशवाक्य-प्रतिकूलचित्ता जिनेन्द्रभक्तिरेकापि ४९/२२ ५९/२७ ११२/४५ ३३१/१२४ ४८८/१६८ ३४५/१२८ १८०५/४९५ छिद्रापेक्षाः सेव्यमाना विभीमा ५८९/१९४ ६३४/२०४ ७७८/२४४ Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोक जिनपतिवचनं भवभयमथनं जिनेन्द्र - भाषितं तथ्यं जिह्वा कर्णौष्ठ नासाक्षि जिह्वेन्द्रिय वशस्याशु जीवाजीवविकल्पेन जीर्ण तृणमिव मुख्य जीवेषु सेव्या सकलेषु मैत्री जीवानामक्षसामग्री जीन पोतो भवांभोधौ जुषते प्रीतितः पापं जेतव्या क्षमया क्रोधो ज्येष्ठे सूर्यः सिते पक्षे जैनिका- संगतो नष्टः ज्ञानं मिथ्यादृशोऽज्ञान. ज्ञानीयो विनयः काले ज्ञान-दर्शन- चारित्र ज्ञानविज्ञानसंपन्न: ज्ञात्वा वक्रामवक्रां वा ज्ञानेन शम्यते दुष्ट ज्ञानाभ्यासस्ततो युक्तः ज्ञानोद्योतो महोद्योतो ज्ञानं प्रकाशकं वृत्तं ज्ञानोद्योतं विना थोऽत्र ज्ञानदीपविनाशाय ज्ञानं परोपकाराय ज्ञानाद्याराधने प्रीति ज्ञान दर्शन - चरित्र संपदं 'जु' 'जै' 'ज्ञा' मरणकण्डिका ६३३ श्लोक सं./ पृष्ठ सं. ८०९/२५३ १३७६ / ३९१ १६७७ / ४६३ १७२८/४७३ ८३९ / २५९ ९३९ / २७९ १७८२/४८५ १८०७/४९५ १८६२ / ५०९ १०१८ / २९४ २६८ / १०० ९३० / २७८ ११५४ / ३२० 618 ११५/४६ १७५/७० क्षेपक / १०५ ६४९/२०९ ७९५ / २४८ ७९९/२४९ ८०१/२५० ८०२/२५० ८०४/२५१ १४०४/३९७ १४११/३९९ १५१९/४२२ १९३७ / ५३२ श्लोक ज्ञेय प्रत्येक-बुद्धन डिण्डीरपिण्डवल्लोक: तत्र केवलिनो वर्या तत्र जीवादितत्त्वानां तदौत्सर्गिक लिंगानां तपस्याभ्यंतरे बाधे तपस्तपोऽधिके भक्ति, तद् दुष्टं मानलं येन तस्मादेकोत्तर श्रेया तन्निर्जरयते कर्म तत्तपोऽभिमतं बाह्यं तद् हेयं सर्वदा यत्र तत्र विध्यापिते सद्यो ततः समीपे व्यवहारवेदिन: ततः स्थापनाकारी ततो वक्रमतेस्तस्य तदानीं क्षपको नूनं तं गृह्णीते मार्गवेदी गणं स्वं ततः सम्यक्त्व चारित्र. तस्य सूत्रार्थ - दक्षेण तपो भाव नियुक्तस्य तस्या नयन्ति चत्वारो तस्यासंवृतवाक्यानां ततः कृत्या मनोज्ञाना. ततोऽसौ भावितः पानैः तं चतुर्विधमाहार तपो ज्ञान चरित्राणि तथा शीलानि तिष्ठन्ति तथा निरीक्षते द्रव्यं श्लोक सं. / पृष्ठ सं. ३७/१७ १८०२ / ४९४ ५५/२५ ६० / २७ ७९/३३ १०८/४४ १२१ / ५३ १४८ /६० २१८/८६ २४४ /९१ २४६/९२ २७० / १०१ ३१५/११८ ४७१/१६५ ४७८ / १६६ ४८० / १६७ ४९१ / १६८ ५४० / १८१ ५५४/१८६ ६२३ /२०२ ६९१ / २२० ६९२ / २२० ७१५ / २२५ ७२१/२२६ ७३३ / २३० ७३८ / २३१ ७६५ / २३८ ८२३/२५६ ८८६ / २७० Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोक ततोऽस्ति सप्तमे मासे तरुणस्यापि वैराग्यं तस्कराणां भयं जात. तस्मान्मनोवचः काय ततो नोच्चत्व नीचत्वे तं भावना - महाभाण्डं तमसंयमदष्ट्राभिः ततोऽपथेन धावन्तः ततः शील- दरिद्रास्ते तदा शमवने रम्ये तस्य शुद्धो न भावोऽस्ति तपः फलति कल्याणं तपः संसारकान्तारे तन्नास्ति भुवने वस्तु तपः क्रियायामनिशं स्वविग्रहो ततोऽमुं शासनं श्रव्यं तवेमां देशनां कृत्वा तवोपदेशपीयूषं तथेति मोहमापन्नः तस्येति सार्यमाणस्य तदा धृतिं न कुर्वन्ति तप्ताय: प्रतिमाकीर्णे तष्ट्वा लोकेऽखिलं गात्रं तरसा येन नीयन्ते तथा सिद्धि - समीपस्था: तपसा दीयमानेन तपसा ध्यायमानोऽक्री तदीयं सफलं जन्म तत्र द्रव्याणि सर्वाणि तपस्यवस्थितं चित्रं तदभावेऽनलाशायां ततो वेदयमानोऽसौ मरणकण्डिका ६३४ श्लोक सं. / पृष्ठ सं. श्लोक १०६४ / ३०३ ११३५ / ३१७ १९८५ / ३३० १२४८/३४८ १२९३/३७३ १३५५ / ३८७ १३५७/३८८ १३६६/३९० तावनू में देहनिक्षेपः ताभ्यां प्रपीडितो बाद तापार्थं प्लोषते कुष्ठी तादृशी वेदना श्वभ्रे ताडने वाहने बंधने त्रासने तावद् वेदनया ज्ञात्वा तितवाविव पानीयं तिर्यगर्क पर्यर्क १३७३ / ३९१ १४८७/४१५ १५३० / ४२५ १५३७ / ४२६ १५४९/४२८ १५५१/४२९ १५५४/४२९ १५५९/४३० १५६०/४३० १५६४/४३१ १५८३/४३५ १५८७/४३६ १६११ / ४४१ १६४७ / ४५६ १६५६ / ४५८ १७०२/४६८ तेषु संसर्गतः प्रीति, १७५९/४८० तेन तैलादिना कार्या १९४४/५३४ ते बीजेन विना सस्यं १९४६/५३५ १९५५/५३६ १९७१/५४२ १९७६/५४४ २०५० / ५६२ २१८२/५९४ तिलनालयामिव क्षिप्रं तिष्ठत्त्वामाशयस्याध 'ता' तीव्रव्यथासु योनीषु तीर्ण श्रुतपयोधीनां 'ति' तिर्यग्गतिं तीव्र - त्रिचित्र - वेदनां तिरस्कृता नृपाः सन्तः 'ती' 'तृ' तृणक्षोणि-पाषाण-काष्ठ. तृतीयं तद् वचो सत्यं तृण- तुल्यमवेत्य विशिष्टफलं तृणादि-संस्तरो योग्य 'ते' श्लोक सं. / पृष्ठ सं. तेभ्यो निरसने तेषां तेजो नश्यति जीवानां ते धन्या ये नरा धर्मं तेजः पद्मा तथा शुक्ला तेजोलेश्यामधिष्ठाय ते धन्या ज्ञानिनो धीरा १६८ /६८ ४५६ / १५९ १२८१ / ३६९ १६४३ / ४५४ १६६४/४६० २०९४ / ५७३ १४०/५८ २२९/८८ ९५८/२८३ १०६०/३०२ १६६८/४६१ १७२२/४७२ ४८६ / १६८ ५३३/१७९ ६७६ / २१६ ८५७ / २६५ १३८२/३९३ १७५७/४८० ३५०/१३१ ७१८/२२५ ७८२/२४४ १२१८/३३८ १८११/४९६ १९५२/५३६ १९९१/५४७ - २००२/५५० २०७६/५६९ Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोक तेन ध्यानेन तदा स तेषां कर्म-व्यपायेन तोयं विषयतृष्णाया त्यजतासंयमं त्रेधा त्यजत्याराधका देहं त्रिवलीकलितालीको त्रिकाल दोषदा नित्यं त्रिदशा - येन पात्यंते त्रिदशैर्विक्रियावद्भि त्रेधा विशुद्धचित्तेन त्रैलोक्यमुपलभ्यापि त्रैलोक्येन यतो मूल्यं त्वं कार्येष्वपरिस्रावी त्वमतः समिती: पंच त्वं पराजित्य निःशेषा. 'तो' त्याज्याऽऽय-संगतिर्गरवत् 'त्रि' त्रिः कृत्वालोचनां शुद्धां त्रिविधं वा परित्याज्यं त्रिलोकदाही विषयोद्धतेजाः दर्श्यमानं यदा सम्यक् दम्यमानस्य लोचेन दन्तधावन - कण्डूति दर्शने चरणे ज्ञाने दर्शने चरणे ज्ञाने 'त्य' 'त्या' 'त्रे' 'त्रै' 'त्व' मरणकण्डिका श्लोक सं. / पृष्ठ सं. २१७४ / ५९३ २२१९/६०४ १९८४/५४६ ३८०/१३८ ܕ ܨ ܘ ܀ ३३५/१२६ ६४४ /२०८ ७३९ / २३१ ११७१ / ३२६ १४३३/४०५ १४७९/४१४ १७०३ / ४६८ २११८/५७९ ३२७ / १२२ ७७५/२४३ ८१७/२५६ २९९/११० १२७० / ३६६ १५९६/४३८ ३६/१६ ९२/३७ २३५/९० २९४/१०९ २९५/१०९ - ६३५ श्लोक दह्यते सकलो लोको दर्शन - ज्ञान - चारित्र. दत्तं सातिशयं दान. दशधा स्थितिकल्पे वा ददाति शर्म क्षपकस्य सूरि : दर्शन - ज्ञान - चारित्र जाति सोख विधुनोति दुःखं दह्यते न हुताशेन दष्टकामभुजगेन दह्यते पंचमे गात्रं दशाहं कललीभूतं दग्ध - निःशेष चर्माणं दर्शितास्ति मनः शुद्धिः दत्ते शापं विना दोषं दंभेऽर्थः क्रियमाणेऽपि दर्शन ज्ञान चारित्र दयालो: सर्वजीवाना. दर्शन - ज्ञान - चारित्र दर्शनद्विपमधिष्ठितो बुधो ददाति चिंतितं सौख्यं दर्शनज्ञानहीनास्ते दंड कपाटकं कृत्वा दान्तान्यक्षाणि गच्छन्ति दायकानामशेषस्य दारिद्र्यं विनसां व्याधि दारितः क्रकचैश्छिन्नः दिवसे प्लोषते सूर्यो दिग्देशानर्थदण्डानां दीक्षा-प्रभृति निःशेषं श्लोक सं. / पृष्ठ सं. ३१४/११८ ३२५/१२१ ३३२/१२५ ४३७/१५२ ५२८ / १७८ ६३८ / २०५ 'दि' ७७६ / २४३ ८६७ / २६७ ९२५/२७७ ९२८ / २७७ १०५५/३०१ १०८४ / ३०६ १२३१ / ३४२ १४९६/४१७ १५१० / ४२० १५७३ /४३६ १६९५/४६७ १७८३ / ४८६ १९४८/५३५ २००७/५५१ २०४२ / ५६० २११०/५९६ १९६ / ७८ ३९६ / १४१ ९९२/२९० १६५३ / ४५७ ९३१ / २७८ २१५४ / ५८८ ५३४ / १८० Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ६३६ श्लोक श्लोक सं./पृष्ठ सं. | श्लोक श्लोक सं./पृष्ठ सं. दीक्षितोप्यधमः कश्चित् दीक्षित्वापि पुनः साधु १३८५/३९३ १३९४/३९६ | दूरस्थितं फलं रक्तं दूतिका हृतथे येयं (आ.स्त.) ८८५/२७० १२/६११ ७६/३२ १८५/७४ दृष्टिशुद्धि-स्थिरीकारौ दृढसूर्योऽथ शूलस्थो दृश्यन्ते भुवने दोषा दृष्टश्रुतानुभूतानां दृष्ट्वात्मनः परं हीनं दृष्टनष्टानि सौख्यानि ३५७/१३२ ३५९/१३३ ८०६/२५२ ९१४/२७५ ११५१/३२० १४४८/४०८ १८०३/४९४ ५६१/१८८ ५६६/१८९ १२५/५४ २५८/९७ दुर्बलौ यस्य जायते दुरि कारणं यस्य दुश्चरं पश्चिमे काले दुर्जनेन कृते दोषे दुर्जनस्यापराधेन दुष्टानां रमते मध्ये दुष्टोऽपि मुंचते दोघं दुःखतः संघर्म लब्ध्वा दुःख-ज्याकुलित-स्वान्तः दुःसहा वेदनका दुर्भिक्षे मरके मार्ग दुर्गतौ यानि दुःखानि दुर्मोचैः कामिनी-पाशैः दुःखानि नश्यन्ति शर्माणि दुराशा-गिरि-दुर्गाणि दुरन्ताश्चंचला दुष्टाः दुःखदाननिपुणा निषेविताः दुर्जयान्नर-निर्लिप-भर्तृभिः दुर्भिक्षे मरके कक्ष दुःस्पर्ध्वं खाद्यमानो यत् दु:कृतकर्मविपाकवशोत्थं दुःसह किंकरीभूतः दुर्गतौ यत् त्वया प्राप्त दुर्भिक्षादिषु मार्जारी दुःखं जन्मसमं नास्ति दुःख-व्याकुलितं दृष्ट्वा दुःखोदके भवाम्भोधौ दुःशील-भूत-वेताल ८३५/२५८ ९५६/२८३ १२४१/३४४ १३६८/३९० १३८०/३९२ १४२९/४०४ १४९५/४१७ १६१२/४४१ १६४८/४५६ १६६०/४५८ १६७२/४६२ १६८४/४६५ १७३१/४७४ १७५४/४८० १८४३/५०४ १९१३/५२५ २११७/५७९ देशकाल-वयोभाव | देह-सल्लेखनाहेतु व्यः संघाटकोऽवयं | देशो जाति: कुलं रूपं | देह कर्मसु चेष्टन्ते | देवैरकं वृणीष्व त्वं | देवेभ्यः प्रातिहार्याणि | देहस्य बीज-निष्पत्ति देहस्याशुचिनिर्बीज देहस्याक्षमयत्वेन देश-संमति-निक्षेप | देवश्चक्री सुखं भुक्त्वा । देवत्वे मानसं दुःखं | देहार्थ-बांधवाः सार्ध | देवो महर्द्धिको भूत्वा | देशो जातिः कलं रूपं देशादिष्वपि लब्धेषु देवमानवतिर्यग्भ्यः देहत्रितयबन्धस्य ४४९/१५७ ६८०/२१७ ८१६/२५५ १०४२/२९७ १०५१/३०१ १०५२/३०१ १२२०/३३८ १२५१/३५० १३४३/३८४ १६८०/४६४ १८३६/५०२ १८९५/५२१ १९६१।५३८ १९६२/५४० २११६/५७९ २१९८/५९९ दोषेभ्यो वार्यते दुःखं ४५२/१५८ Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ६३७ श्लोक श्लोक सं./पृष्ठ सं. | श्लोक श्लोक सं./पृष्ठ सं. दोषमुद्गाल्यते तत्स्थ ४९६/१७० द्वितय-लोक-भयंकर-मुत्तमो १५०६/४१२ दोषो निवेशितो यत्र ५०५/१७२ द्वि-चतुर्बहुपादा ये १८२३/४९९ दोषशुद्धिरपचेतसा पुनः ६०५/१९८ दोषावत्तीर्णोऽपि ददाति पीडा ६२६/२०२ द्वीपायनेन नि:शेषा १४४६/४०७ दोषान्न प्रांजलीभूय ६४६/२०९ दोषाः कामस्य नारीणां ९१३/२७५ द्वेष्यो जनःप्रकोपेन १४४२/४०६ दोषाच्छादनतः सा स्त्री १०१४/२९३ द्वेष कलिं भयं वैरं १४४९/४०८ दोषाणामालयो रामा १०२४/२१५ द्वेषमप्रत्ययं निन्दा १४४५/४०९ दोषा ये सन्ति नारीणां १०३२/२९६ दोषानिति सुधीर्बुद्ध्वा १३४६/३८५ द्वैषिकी कायिकी प्राण. ८३७/२५१ दोषाय जायते ज्ञानं १४०५/३९८ 'ध' दोषो निगुह्यमानोऽपि १५०७/४२० धर्माधर्मनभः कालः ३९/१८ 'घ' धन्यास्ते मानवा लोके ३०४/११२ द्योतनं मिश्रणं सिद्धिं २/१ धन्य: स त्वं वंदनीयो बुधानां ५३६/१८० द्योतनं दर्शनादीना. धन्यं स्त्री-व्याधनिर्मुक्ताः ११६९/३२५ धर्म-पादप-निकर्तन-शस्त्री १४६२/४११ द्रव्यश्रिति परित्यज्य धरण्यामार्द्रचर्मेव १६२१/४४३ द्रव्यभावश्रिति ज्ञानाः धर्म-धैर्य-कृतज्ञत्व, १७२९/४७४ द्रव्यं क्षेत्र सुधीः कालं २६४/९९ धन्यस्य पार्थिवादीना १७६४/४८१ 'द्रव्यं क्षेत्रं परिज्ञाय ४६७/१६३ धर्म चतुर्विधं ध्यात्वा १७८५/४८६ द्रव्यशल्ये यथा दुःखं ४८२/१६७ धर्मः सर्वाणि सौख्यानि द्रविणे ग्रहिलीभूय ८९०/२७० धर्मे भवति सम्यक्त्व १९५८/५३७ द्रव्यापहरणं द्वार ८९६/२७१ | धर्मध्यानमतिक्रान्तो १९६८/५४१ द्रष्टुं घृणायते देहो १०५३/३०१ धर्मकार्य-पराधीनाः २०३२/५५५ द्रव्यं क्षेत्रं बलं कालं २०९१/५७२ धन्या महानुभावास्ते २०७८/५६९ धर्माराम-महातरोः (आ.स्त.) ३०/६१५ द्वादशात्मक-तपोरयंत्रित १९५७/५३७ 'धा' द्वारपाल इव द्वारे १९३५/५३२ धान्यं कृषीवलस्येव १४३९/४०६ द्वादशापीत्यनुप्रेक्षा १९६६/५४१ धावते देहिनामायु १८०९/४९५ 'द्वि' द्वितीयं तद्वचोऽसत्य ८५६/२६५ । धीरता सेनया धीरो २०९/८३ द्विपमिव हरिकान्ता मंक्षु मीनं बकीव ११६१/३२३ | धीरोऽखिलांग पूर्वज्ञो ४४६/१५६ Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ६१८ श्लोक श्लोक सं./पृष्ठ सं. | श्लोक श्लोक सं./पृष्ठ सं. धीरैराधारित धन्याः धीरेराचरितं स्थान धीरोऽवन्तिकुमारोऽगात् धुनीते क्षणतः कर्म धृति-स्मृति-मति-श्रद्धा धृत-जिन-समयो (प्रशस्ति) 'ध्या' ध्यायति शोचति सीदति रोदिति ध्यान-योधा-वशीभूता ध्यानविघ्नं करिष्यंति ध्याने प्रवर्त्तते कांक्षन् ध्यायत्येकाग्रचेतस्को घ्यायता पूर्वदक्षेण ध्यानं करोत्यवष्टम्भ ध्यानप्रयुक्तो यात्यूचं. ५९.७/१९७ नमस्कारेण गृह्णाति ५२०७/३३६ न शक्यते वशीकतुं १६१९/४४२ नरस्य चन्दनं चन्द्र. नरो मातेव विश्वास्यः ७४८/२३३ र विश्वासो दया लज्जा न रात्रौ न दिवा शेते २०२४/५५४ न वेत्ति नवमे किंचिद २/६१९ न पश्यति सनेत्रोऽपि नरो विरागो बुधवृन्दवंदितो ९१५/२७५ नगभूमि-नभोऽम्भोधि. १४८६/४१५ न दृष्टमपि सद्भावं १५६६/४३१ । नराणां भदने शूल १७९१/४८८ | न रामा निखिलाः सन्ति नव सन्ति द्रणास्यानि १९७२/५४२ न पश्यत्यंगनारूप १९७९/५४५ | न दोषश्वापदे भीमे २२०८/६०२ न विव्वोक-रदोऽभ्येति नदीजलैरिवाम्भोधि १०४१/२९७ नरत्त्वादि निदानं च नरत्व-संयम-प्राप्ती ३०७/११५ नग्नो बाल इवास्वस्थः नदी जलैरिवाम्भोधि ११३२/३१५ न मानी कुरुते दोष न दोषाननपाकृत्य ६५/२८ न बिभीष्यः स नो वाच्यो ९४/३८ नरके वेदनाश्चित्रा ९५/३८ न तृप्तिर्यस्य संपन्ना नरः पापोदये दोष न कोऽपि विद्यते त्राणं २७९/१०५ नगदुर्गे क्षितौ शैले ३३७/१२७ न योधा रथ हस्ताश्चा ६०७/१९८ न कोपि देहिनः शत्रुः ७९०/२४६ ७९३/२४७ ८६४/२६६ ८६९/२६७ ८९३/२७१ ९१८/२७६ ९२९/२७७ ९४६/२८१ ९७४/२८६ १००१/२९१ १०१३/२९३ १०२६/२९५ १०३५/२९६ १०७८/३०६ ११५९/३२३ ११६६/३२४ ११७०/३२५ १२०१/३३४ १२८२/३६९ १२८४/३७० १३१५/३७९ १३२६/३८० १५०५/४१९ १५२१/४२३ १५९१/४३७ १६४०/४५३ १७४३/४७८ १८१८/४९८ १८२१/४९९ १८२२/४९९ १८२५/४९९ १८५१/५०७ ध्रियते शुद्ध-शीलाभि ध्रुवसिद्धिश्चतुनिः ध्वान्तैकान्त-कुशीलेह न विद्यत्ते व्रत शीलं न भू-दन्तौष्ठ-कर्णाक्षि न स्कन्धकुट्टनंवासं न मूको बधिरोऽन्धो न प्रवर्त्तयितुं मार्गे अशक्नोम्यशुचि त्याज्य न किं यूनोऽल्पविद्यस्य न चेद् दोषं गुरोरगे Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ६३१ श्लोक श्लोक सं./पृष्ठ सं. | श्लोक श्लोक सं./पृष्ठ सं. न यस्यास्ति स्मृतिश्चित्ते १९३६/५३२ निद्रागृद्धि-मद-स्नेह २५१/९३ न कर्मनिर्जरा जन्तोः निगृहीतेन्द्रियद्वारैः ३१६/११८ नष्टा प्रमादतो बोधिः १९६४/५४० नि:कषायो यतिर्दान्तः ३२४/१२१ न धर्माभावतः सिद्धा निर्गुणोऽपि सतां मध्ये ३७४/१३६ न कर्माभावतो भूयो २२२०/६०४ निर्गुणो गुणिनां मध्ये ३७७/१३७ 'ना' निपीड्यमानः क्षपकः परीषहै: ४७५/१६५ भासावर्हति संन्यास. ७८/३३ निवर्तनं न दोषेभ्यो ५०३/१७२ नार्या बंधेन बन्धोऽन्य. ३४३/१२८ नित्योत्पीडी पीडयित्वा समस्तांसू ५०४/१७२ नालिकाधमवज्ज्ञात्वा ६५३/२१० निर्यापकेण शान्तेन ५२०/१७६ नास्तीन्द्रिय-सुखं किंचिज् ८४५/२६२ निर्यापक गुणोपेतं नारिय॑तः परोस्त्यस्या १०१५/२९३ नि:पत्रः कटुक; शुष्क- ५८१/१९२ नामान्यपि दुरनि १०१९/२१४ । निवेदितं मया सर्व ६२८/२०२ नारीभ्यः पश्यतो दोषा. १०३०/२९६ नि:शेष भाषते दोषं ६४७/२०९ नारीणां दर्शनोद्देश ११४१/३१८ निस्पर्शवन्निश्चतुरंग दोषं ६५९/२१२ नाभ्यन्तर: ससंगस्य ११७६/३२७ निबिडाः संवृत-द्वारा: ६६६/२१३ नार्थे संचीयमानेऽपि १२००/३३४ नि:स्निग्धत्व सुखस्पर्शः ६७०/२१५ नाशो भोगरतेरस्ति १३३२/३८२ निर्यापके समर्प्य स्वं ६७५/२१६ नास्ति निद्रा-तमस्तुल्यं १५२४/४२४ निशि जाग्रति चत्वारो ६९६/२२१ नान्योऽपि लभ्यते कोऽपि १७०८/४६९ निर्यापको गणी शिक्षा ७५५/२३४ नानादेशागताः पांथा १८०४/४९४ नियम्यते मनोहस्ती ७९६/२४८ नाना-प्रकृतिके लोके १८४८/५०६ निर्वर्तना सनिक्षेपा ८४२/२६० नाक्षसर्पा निगृह्यन्ते निर्वर्तनोपधिदेहो ८४३/२६० नानाविधानि कर्माणि १९४१/५३३ निरस्तांगांगरागस्य ९१०/२७४ नाना-विधासु जातासु २१३०/५८१ निमज्यन्ते न पानीयैः १०४५/२९८ नामकर्म-क्षयात् तस्य २२०५/६०१ निंद्यानि लज्जनीयानि १०६८/३०४ निरीक्षते यो वपुषः स्वभावं ११२१/३१३ निर्वाणस्य सुखं सारो निसर्ग-मोहित-स्वान्तो निःश्रेयस-सुखादीनां ३०/१३ निरस्यति ततो लज्जा ११३९/३१८ निर्वृति संयमस्थोऽपि ६४/२७ निर्मर्यादं मनःसंगात् ११४७/३१९ निपुणं विपुलं शुद्ध १००/४० नि:सारां मलिना जीर्णा ११५०/३२० निष्कृपो निरनुक्रोशः १९१/७७ निधनमृच्छति तत्र यदेकको ११९४/३३३ निद्राजयः समाधान २१९/८६ । नि:संगे जायते व्यक्तं १२३२/३४२ Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ६४० श्लोक श्लोक सं./पृष्ठ सं. | श्लोक श्लोक सं./पृष्ठ सं. नीचं यानमवस्थान नीचीन र भाना नीता व्रत-महावारिं नीचत्वे मम किं दु:ख नीचेन छाद्यमानोऽपि १२४/५४ १२९४/३७३ १४८३/४१५ १५०३/४१९ १५०९/४२० नृत्वं जातिः कुलं रूप. नृत्वेऽहता हृता वार्थाः नृत्वं सत्त्वं बलं वीर्य नृत्वे योऽक्षसुर्ख मूढो नृपे हते हि चौरेण ८१५/२५४ ९०४/२७२ १२७४/३६७ १९२३/५२७ २१४८/५८५ नेह सिध्यति विद्यापि ७८०/२४४ निषेद्धृ सिद्धिलाभस्य १२७३/३६७ निदानं योऽल्पसौख्याय ५२७९/३६९ निदानेऽपि कुलादीनि १२९८३७५ निषेव्यमाणो वनिता कलेवरं । १३१४/३७८ निरस्त-दारादि-विपक्ष-संगती १३३०/३८१ निदानी प्रेक्षते भोगान् १३३६/३८३ निदान-माया-विपरीन-दर्शनैः १३५०/३८६ निंद्यते संयतः सर्वैः १४०१/३९७ निर्मानो लभते पूजा १४५१/४०८ निषेवित; कोपरिपुर्यतो १५०२/४१९ निद्रा जय नरं निद्रा १५१६/४२२ निद्रा प्रीतौ भये शोके १५१८/४२२ निद्राविमोक्षकाले त्वं १५२५/४२४ निर्जरां कुरुते गुर्वी १५६९/४३२ निमज्जन्तं भवाम्भोधौ १५७४/४३३ निर्यापक्रेन मर्यादा १५९३/४३७ निमेषमात्रके सौख्यं १७४७/४७८ निराकृत्य वचोयोगं १७८०/४८५ निदा दारिद्र्यमैश्वर्य १९००/५२२ निर्दोषमपि नि:पुण्यं १९०१/५२३ निसर्गतः कोऽपि समेऽपि वल्लभो १९०२/५२३ निंद्यस्थानभवाः कामा १९०७/५२४ निसर्ग-मलिनः कायो १९०९/५२४ निवेशयन्ती भुवनाधिपत्ये २०४४/५६० निषद्या नातिदूरस्था २०४७/५६२ निरुद्धं प्रथम तत्र २०८६/५७१ निरुद्धं कथितं तस्य २०८७/५७१ निष्याझ सकलं संघ २१०५/५७६ नि:क्रम्य स्थंडिलादौ स २१०८/५७७ निषद्योत्थाय नि:शेष. २११४/५७९ निष्ठिताशेषकृत्यानां २२१४/६०३ नैकमप्यक्षरं येन ४२/२० r नोपकार कुलीनोऽपि ९३५/२७९ २२/९ परीषहोपसर्गादि परिकर्म विधातव्यं पंडितं पंडितादिस्थं परोपदेशसम्पन्न परिकर्म-भय-ग्रन्थ. परीषह-सहिष्णुत्वं परितो धावते चेतश् पर्यायरक्षितो दीर्घ पंचेति भावनास्त्यक्त्वा पर्यंकमर्द्धपर्यक पर-दोष-परीवाद. पवित्र-विद्योद्यत-दान-पंडितै, परापवादोद्यतयो जरन्तः ६१/२७ ८४/३५ १२०/४१ १४१/५९ १६२/६६ १९४/७७ २३१/८९ ३९७/१४१ ४०२/१४२ Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकपिडका - ६४१ श्लोक श्लोक सं./पृष्ठ सं. | श्लोक श्लोक सं./पृष्ठ सं. पार्श्वस्थासन्न-संसक्त. पादपैरुन्नतैः सेव्यं । पाश्वस्थत्वभनारी पार्श्वस्थानां निजं दोषं पानं नयन्ति चत्वारो पाषाणोऽपि तरेत् तोये पावकः सुखदारूणां पापकर्म महाटव्यां पाशैर्बद्धोऽभितो भिन्नों पादयोः कंटके भग्ने ३४७/१२९ ५८६/१९३ ५९९/१९७ ६३०/२०३ ६९३/२२१ १००९/२९२ १०२२/२९४ १३६९/३९० १६५४/४५७ परीषहै?स्तमैः स्वसंघ परीषहेषु विश्वस्तः पंच षट्र सप्त वा गत्या परकार्य-पराचीनाः परैः सूचयते दृष्ट, परिविष्टेऽभवद् दोषो पंचाक्ष प्रसरो यस्यां पर्वतेषु यथा मेरु परां सपर्या ददती निरत्यये परकीयां स्त्रियं दृष्ट्वा परो वस्ति-मुख-स्पर्शी परिग्रहार्थं प्रणिहन्ति देहिनो पठति जल्पति लुंठति लुंपते परदुःख-क्रियोत्पन्न परेषु विद्यमानेषु पलालैरिव निःसारैः परीषहातुरः कश्चित् पंचधा स्थावरा जीवा: पराभवे तिरस्कारे परोऽयं विग्रहः साधो ! परीषहं प्रभवति संस्तरे स्थितो पंचास्तिकायषट्काय परिणामान्तरेष्वंगी पर्वतादीनि तीर्थाणि परस्य ढौकिता येन परीषहोपसर्गाणां परीषहोपसर्गाणामेवं पंचधाणुव्रतं प्रोक्तं पंचज्ञानावृतीस्तत्र ४०७/१४४ ४०८/१४४ ०१७/२४६ ५०१/१७१ ६०३/१९८ ६१०/१९९ ६६३/२१३ ८२०/२५६ ८५२/२६३ ९६०/२८३ १०६७/३०४ ११८१/३२९ ११८९/३३२ १५००/४१८ १५०४/४१९ १५६५/४३१ १५९०/४३७ १६६२/४५९ १६७६/४६३ १७५५/४८० १७६८/४८३ १७९७/४९१ ७५७/२३६ ९३४/२७८ १०६२/३०३ पिन सम्यक्त्वपीयूष पिशाचेनेव कामेन पिच्छिलं चर्वित दन्तैः 'पी' पीडानामुपकारस्य पीनस्तनीन्दुवक्त्रा १६९२/४६६ १९०६/३१० पुनर्भव-लतामूल. पुरत्नानि न जायन्ते पुरस्य खातिका यद्वत् पुद्गला ये शुभाः पूर्व पुद्गला विविधोपायैः पुरुषैः कथितं धीरेः पुण्योदये परां कीर्ति पुरो गंतव्यमेकेन पुंवेदं क्रमतश्छित्वा ४८९/१६८ १०३८/२९७ १२४७/३४८ १४९०/४१६ १७४१/४७७ १७६१/४८१ १८१९/४९८ २०६०/५६४ २१७१/५९२ २०८१/५७० २०७९/५७० २११३/५७८ २१२२/५८० २१५२/५८७ २१७७/५९३ पूजा-संपादक वाक्य. पूजां सज्जनसंगेन पूतकुर्यादसमाधान. | पूर्व-काराति-देवेन १२७/५५ ३६१/१३३ ४५७/१५१ १६२६/४४५ पादोपगमनं भक्त पाटकावसथद्वार २२७/८८ Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ६४२ श्लोक श्लोक सं./पृष्ट सं. | श्लोक श्लोक सं./पृष्ठ सं. पूर्वभवार्जित-दुष्कृत-जातं पूर्व भुक्तं स्वयं द्रव्यं पूर्वकर्मागतासातं पूर्वजन्मकृत-कर्म-निर्मित पूर्वस्य कर्मणः पुंसो पूर्वोक्त विधिना ध्याने पूर्व संयोजनान् हन्ति १६८३/४६४ १७१०/४५० १७१२/४७० १८५८/५०८ १९४०/५३३ पृष्टोऽपृष्टोऽपि यो ब्रूते पृथक्व (गद्य) पृथ्वीवाय्वग्निकायादौ १९६२/५४१ २१३९/५८३ पौर्वाहिकी यथा छाया १८१०/४९६ ७७/३३ ११७/४७ २८२/१०५ प्रवर्त्तते सुखं यस्य प्रणिधानं द्विधा प्रोक्त. प्रदेशे पावनीभूते प्रणम्य पतितः संघः प्रव्रज्या संयमध्वंसी प्रवृद्धधर्म-संवेगः प्रयाल्यापि चिरं वृत्त. प्रवेशे निर्गमे स्थाने प्रभ्रष्ट-बोधिलाभोऽतः प्रमाणरचितो योग्यः प्रत्याख्यानविदो धीराः प्रह्लादजनकं पथ्यं प्रत्याख्यानोपदेशादौ प्रतिक्रान्तौ तनूत्सर्गे प्रथमं तद्वचोऽसत्यं प्रवृद्धे च ततो लोभे प्रसूनमिव निर्गन्धं प्रच्छाद्य निंदितं गंध | प्रथयति भवमार्ग मुक्तिमार्ग वृणक्ति ११६२/३२३ प्रतिबंध-प्रतीकार १२३४/३४२ | प्रदर्श्य सौख्य वितरन्ति दुःखं १३१८/३७९ प्रव्रज्यागंत्रिकां गुप्ति १३५२/३८७ | प्रस्थितः साधुसार्थन १३५३/३८७ प्रमादवशतो यातो १३५६/३८८ प्रमादवदनाः साधु १४७६/४१४ प्रकटोऽपि जनैदोषः १५०८/४२० प्रतिकर्म विधातव्यं १५८९/४३६ प्रविशन्ति रणं पूर्व १६००/४३९ प्रपेदे मशकैर्दशैः १६३०/४४८ प्रमाणी कुरुते भक्तो १७१९/४७२ प्रत्याख्यानमनादाय १७२५/४७२ प्रत्याहृत्य मनोऽक्षाणि १७९३/४८८ प्रतीकारोऽस्ति रोगाणा १८२७/५०० प्रतीकारो न रोगाणां १८२८/५०० प्रदेशाष्टकमत्यस्य १८६८/५१२ प्रतिपद्य तपोवाही २००३/५५० प्रसिद्धो यदि संन्यासे २०५७/५६४ प्रकाशमप्रकाशं च २०९०/५७२ प्रमाणं कालबाहुल्य. २१००/५७५ प्रव्रज्या-ग्रहणे योग्यो २१०४/५७६ प्रविकीर्णं यथा वस्त्र २१८८/५९५ 'प्रा' प्राप्तार्थश्चारुचारित्रः प्रासुकं सुलभाहारं १६०/६५ प्राग्भाराकृत्रिमाराम २४२/११ प्राप्य दुर्लभ-संतत्या ८१८/२५६ प्राणिघातादयो दोषा: ८५९/२६५ प्रांजलत्वं विना स्त्रीषु १०१०/२९३ प्राप्यापि कृच्छ्रतो जीवो १३३८/३८३ प्राप्तोपदेश-पीयर्ष १५५८/४३० ३२०/११९ ४५१/१५८ ४७२/१६५ ४८५/१६८ ६७४/२१५ ६७८/२१६ ६८३/२१८ ७१७/२२५ ७४९/२३३ ८५४/२६४ ८८८/२७० ९९३/२९० १०९७/३०९ Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोक प्राचुर्यं गई - भावानां प्रायोपगमनं केचित् प्रियधर्माशयः साधु प्रिया सवित्री पितृ देहजादी प्रियस्य विगमे दु:ख. प्रियाप्रिय-पदार्थानां प्रियायोगाप्रिय-प्राप्ति प्रोक्ता भक्तप्रतिज्ञेति प्रोक्तो भक्तप्रतिज्ञायाः बीभिर्भवकोटिभि, बहुदोषाकरे ग्रामे बहुदुर्लभसन्तत्या बहुप्रकार पूर्वाग बहिर्वदन्ति चत्वारः बलानि नायकेनेव बह्वल्पं च परद्रव्य. बन्धुं जातिं कुलं धर्मं बन्धने महिला पाशः बन्धने छोटने छेदने भेदने बध्यते समितो नाघैः बन्धमुक्तः पुनर्बन्धं बहिर्निभृतवेषेण 'f' बहिः शुद्धिर्यतो लिंग बलीयेभ्यः समस्तेभ्यो बलं पलायते रूपमिव बलकेशव चक्रेश बद्धस्य बंधनेनेव बंधन तुल्यं चरण सहाय बंधुरं साधवो धर्म भरणकण्डिका श्लोक सं. / पृष्ठ सं. १९६०/५३८ २१४४/५८४ १५४/६४ १२०५ / ३३६ १६७० / ४६२ १७७१/४८३ १७८९/४८७ २१०२/५७६ १९५८/५८८ १०९/४४ २१६/८५ ४५०/१५८ ५२१ / १७७ ६९७/२२२ ७६९/२३९ ८८४ / २७० ९३३ / २७८ १०२५/२९५ १२१७/३३८ १२५८ / ३६० १३९३/३९५ १४१३/३९९ १४१७/४०० १७०५/४६९ १८९२/४९६ १८२९/५०० १८४१ / ५०३ १८४२/५०४ १८५४ /५०७ - ६४३ श्लोक बहुसंस्थान रूपाणि बंभ्रमीति चिरंजीवो बंधू रिपू रिपुर्बन्धु बलं ध्यानं यतेर्धत्ते बहुना किमुक्तेन बंधु: स्वर्गापवर्ग प्रभव ( आ. स्त. ) १ / ६०९ 'बा' बाह्येन तपसा सर्वा बाह्याभ्यन्तरीं कृत्वा बालान् वृद्धान् शैक्षकान् बाला स्वाकोचिता दृष्टा बाह्याकारेणातिशुद्धोऽपि बाहुभ्यां जलधे: पारं बाले यदि कृतं कोऽपि बाह्यमाभ्यन्तरं संग बालश्चरति यत्रैव बाह्याभ्यन्तरभेदेन बादरं तीर्थकृत्वैता 'बी' श्लोक सं. / पृष्ठ सं. १८६५/५१० १८८६/५१७ १८९७ / ५२२ १९८०/५४५ २०२२/५५४ बीजादयो येन शरीर-धर्मा 'g' बुधैर्न शीलैः रहिता नितम्बिनी बुभुक्षा तादृशी जाता ब्रह्मव्रत मुमुक्षूणां भजते मरणं बालं भक्ति: पूजा यशोवादी भवन्त्यन्ये भवाः सप्त भक्तत्यागः प्रशस्तेषु भक्तत्यागं लवीचार भक्ति: प्रह्लादनं कीर्तिः २४७/९२ २७८ / १०४ ४०४ / १४३ ४०९ / १४४ ६०८/१९८ १०११ / २९३ १०७१/३०५ ११७३ / ३२६ १२५९ / ३६० १९८९/५४७ २१९७/५९९ ११२० / ३१३ ३९८/१४२ १६८८/४६५ ३४४ / १२८ ३३/१४ ५०/२२ ५४/२५ ६९/२९ ७१ /२९ १३६/५७ Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ६४४ श्लोक श्लोक सं./पृष्ठ सं. | श्लोक श्लोक सं./पृष्ठ सं. भक्तिरर्हत्सु सिद्धेषु ३२१/१२० __'भी' भवन्ति दोषा न गणेऽन्यदीये ४१३/१४५ भीष्यमाणोऽप्यहोरात्रं २०४/८० भद्रः सारणया हीनो ५००/१७१ भीशोकमानमात्सर्य, १६७३/४६३ भयमानमृषा-माया ५७३/१९१ भीतः करोति दुःखेभ्यः १८८७/५१७ भवत्याक्षेप-निवेग. ६८५/२१८ भीरु-शैक्ष-गणि-ग्लान २०५३/५६३ भवंति येषां गुणिनः सहायाः ७१९/२२६ 'भू भवद्रुम-महामूलं ७५६/२३५ भुज्यते यदनिच्छन्ती ९६७/२८४ भक्तिमर्हत्सु सिद्धेषु ७७७/२४४ भुजंगीनामिव स्त्रीणां भक्तिमाराधनेशानां ७८१/२४४ भुज्यमानैश्चिरं भोगैः १३२५/३८० भवभय-विचयन-वितथ-विमोची ८८३/२६९ भुक्तोज्झिताः कृताः सर्वे १४११/४१६ भवन्ति सकला दोषा ९७२/२८६ भुक्तपूर्वे यते ! कोऽस्मिन् १७४४/४७८ भवन्ति सर्वदा योषा ९९६/२९१ भुक्त्वा भोगं च्युताः सन्तो २०२३/५५४ भवन्तो भाविनो भूता १२३६/३४३ भव-शरीर-निर्वेद १२८५/३७० भूरि-भक्तिभरा- नम्रः ६२२/२०१ भवत्यब्रह्मचर्यार्थ १३०१/३७५ भूरि-शृंगार कल्लोला ११६७/३२५ भवान्तर समं गत्वा १८३९/५०२ भूत्वा भूत्वा मृतो यत्र १८६६/५११ भवन्ति जल्लोषधयो मुनीन्द्रा । १९१२/५२५ भगवंतोऽत्र ते शूराः २०७५/५६९ भोजने च कृतेऽन्येन ६१५/२०० भक्तत्यागः सवीचारो २०८४/५७१ भोगार्थमेव चारित्रं १३००/३७५ भक्तत्यागोस्त्यवीचारों २०८५/५७१ भोगार्थं वहते साधुः १३०५/३७६ भवति पंडित-पंडित-मृत्युना २२३५/६०७ भोगेषु भोगि-गीर्वाण १३२७/३८१ 'भा' भोगमध्ये प्रदीव्यन्ति १३३७/३८३ भावशुद्ध्या विनोत्कृष्ट २६६.९९ भोगिनश्चक्रिणो रामा १७३९/४७७ भावशल्यं त्रिधा तत्र ५६३/१८८ भोज्यं कण्ठगत-प्राणैः १७४२/४७८ भावशल्यमनुद्धृत्य भोग रोगं धनं शल्यं १८४०/५०३ भावशुद्धिं न कुर्वन्ति ६४३/२०८ भोगोपभोगसंख्यानं २१५५/५८८ भाषमाणो नरः सत्यं ८७०/२६७ भोगिनो मानवा देवा २२२८/६०५ भावना भावयन्नेताः १२६१/३६६ भावनाः समिति गुप्तयो १२७१/३६६ भ्रष्टोऽस्ति दर्शनभ्रष्टो ७७०/२३९ भावशुद्धिमधिष्ठाय २११०/५७७ महागुणमवृत्तस्य भिक्षाद्यविदधानेन ७०४/२२३ मन्यते दर्शितं तत्त्वं 'म' Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ..... - ... मरणकण्डिका - ६४५ . श्लोक श्लोक सं./पृष्ठ सं. | श्लोक श्लोक सं./पृष्ठ सं. १७५०/४७९ . २०६६/५६७ ११/६११ - ११९/४८ २९१/१०७ ३०६/११४ -.- -.- मंदिरादिषु तुंगेषु मंत्रकौतुक तात्पर्य भूति. महाविकार कारिण्यो ममत्वं कुरुते हित्वा मनीषितं वस्तु समस्तमंगिनां महामते ! तिष्ठ निराकुलः त्वं मध्ये गणस्य सर्वस्य मधुरा लोचनैषादी मनुष्यः कृतपापोऽपि मलं क्षिपन्ति चत्वारो मम पितृ-जननी-सदृशः मध्यस्थो न कपिः शक्य: मन्दायते मतियांति महान्तं दोषमासाद्य मत्सराविनयायास मयूर-देहवदेहो मन्मनैः कोमलैर्वाक्यैः महिला मन्मथावास महाधन-समृद्धोऽपि महाश्रमकरे भारे मनसो दोषविश्लेषो मनोगुप्त्येषणादान महिलालोकनालापौ महाव्रतानि जायन्ते मधुरा: सेवमाना हि मध्यं दिनार्कतप्तस्य मता बहिः क्रियाशुद्धि मधुलिप्तामसेर्धारा मर्त्यमांस-रसासक्तः महोपशम-सत्वाढ्यै मनः कायासुखव्याघ्र. मनसा वपुषा वचसा भगवन् १८०/७३ मधुलिप्तामसेधारा मंदी भवन्ति जीवस्य २२१/८६ महन् मध्यम नक्षत्रे २९८/११० महँचिंतितलाभाय (आ.स्त.) ३९९/१४२ 'मा' ५३७/१८० मान-माया-मद-क्रोध ५४५/१८४ मा स्म कार्षीर्विहारं त्वं ५९५/१९६ मावश्यके कृथा जातु ६४२/२०७ मा स्म धर्मधुरं त्याक्षु ६९४/२२१ मार्गे चोरापगा-राज ७४४/२३२ मा छेदयन्तु स्वयशो ७९७/२४९ मा ग्रहीषु परीवाद ९२२/२७६ मारयत्यथवा सूरि ९७१/२८५ माया-निदान-मिथ्यात्व १०२०/२९४ मा स्म कार्षीः प्रमादं त्वं १०९८/३०९ माक्षिकं मक्षिकाभिर्वा ११४३/३१८ | माहात्म्यं भुवनख्याति ११४६/३१९ । मान्या ये सन्ति माना १२०२/३३५ | मातारस्तीर्थकर्तृणां १२३५/३४३ मासेन बुदबुदीभूतं १२४५/३४६ मासेन पुलकाः पंच १२६२/३६० मासमेकं स्थितोऽध्यक्ष १२६६/३६४ मांसपेशी-शिरा-स्नायु १२७२/३६६ मानसः स्वल्प-सत्त्वस्य १२९९/३७५ मातृ-स्वस-सुताः पुंस १३२१/३८० मार्गोद्योतोययोगाना १४१५/३९९ माया शल्येन ही बोधे: १४२१/४०१ मार्दवं कुर्वतो जन्तोः १४२६/४०३ | मानेन सद्यः सगरस्य पुत्रा १४८०/४१४ माया-दोषाः पुरोद्दिष्टाः १५४८/४२८ | मातेवास्ति सुविश्वास्यः १५६८/४३२ मानिनो योगिनो धीराः .- ३६९/१३६ ३८१/१३८ ५१०/१७४ ५६२/१८८ ७६७/२३९ ८१४/२५४ ९३८/२७९ ९७७/२८७ १०३६/२९७ १०५६/३०२ १०५७/३०२ १०६१/३०३ १०७४/३०५ ११३८/३१८ ११४९/३१२ १२४९/३४८ १३४९/३८५ १४५२/४०८ १४५३/४०८ १५३३/४२६ १५४२/४२७ १६०१/४३९ Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ६४६ श्लोक श्लोक सं./पृष्ठ सं. | श्लोक श्लोक सं./पृष्ठ सं. मा कार्षीजीवितार्थ त्वं १६०५/४४० मासोपवास-सम्पन्न १६२५/४४५ मारुतं गृष्मकं तापं १६२७/४४६ मानुषीं गतिमापद्य १६६९/४६२ मार्दवाव नैःसंग्य १७९५/४९० माता पोषयते पुत्र, १८४९/५०६ भाता सुता स्नुषा भार्या १८९१/५१८ मांसलिप्ता सिराबद्धा १९०८/५२४ मात्रा पंचक कालेन २१९९/६०० भाधवसेनोऽजनि मुनिनाथो (प्रश.) ४/६१९ | मुनिनानिच्छता लोके ८५०/२६२ | मुंचासत्यं वचः साधोः ८५३/२६४ मुण्डो जटी शिखी नग्नः ८७३/२६८ मुक्त्वापि कश्चन ग्रन्थं १३८४/३९३ मुह्यतः क्षपकस्येत्थं १५८६/४३५ मुक्तिदाने क्षमा (आराधना स्त.) १३/६११ मूक-संज्ञान-बलने मूर्धन्यस्त-कराम्भोजो मूर्छिता पाटलीपुत्रं मूनि प्रज्वालने वह्नः उक्तं च १/२०४ ७४२/२३२ १४२५/४०२ १६७५/४६३ ४४/२० २५३/९४ ६६५/२१३ ७५४/२३५ ७५८/२३६ मिथ्यात्वं वेदयन्नंगी मिथ्यादर्शनिनां सौम्यं मिथ्यादृष्टि-जनागम्या मिथ्यात्व-वमनं दृष्टि मिथ्यात्वमोहिताः सत्य. मिथ्यात्वमोहतो जन्तोः मिथ्यात्वोत्कर्षतः संघ मिथ्यात्व-वेद-हास्यादि मित्रभेदे कृते सद्यः मित्रे शत्रौ कुले संघे मिथ्यात्व-मोहित-स्वान्तो मिथ्यात्वाव्रतकोपादि मिथ्यात्वमालवद्वार मृतावाराधनासारो मृतावाराधयन्नेव मृत्युकाले श्रुतस्कन्धः पृत्तिकांजन-पाषाण, मृत्यु-व्यालेक्षितो दुःख मृत्यु-जन्म-जरातस्य मुगमीनौ परौ जन्त्योः २१/८ ५१/२४ ८०७/२५२ १०९६/३०८ १५३९/४२७ ७६३/२३७ ११७४/३२६ १४५८/४१० १७७२/४८३ . १८५९/५०८ १९१७/५२६ १९२८/५३० मेध्यान्यमेध्यानि करोत्यमेध्यं १९१०/५२४ मैथुन सेवमानोंऽगी 'मो' ५७/२६ मोहोदयाकुलस्तत्व मोहोदयेन जायन्ते मोक्षाभिलाषिणः साधो मोक्षः संवरहीनेन मोक्षावसान-कल्याण. मोहनीये हते शेष मुहूर्त्तमपि ये लब्ध्वा मुण्डत्वं कुर्वतो लोच. मुंच च्यवनकल्पं त्वं मुमुक्षूणां किमन्येषां मुहूर्तमप्यतः स्थातुं मुक्त-शल्य-ममत्वोडसा मुने ! महाव्रतं रक्ष ४३/२० १०४६/२९८ १७२३/४७२ १९४७/५३५ १९४९/५३५ २१७५/५९३ २९३/१०९ ४८७/१६८ ५७७/१९२ ७५५/२३५ | म्रियते वल्लभा पूर्व ११०८/३११ Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ६४७ य श्लोक श्लोक सं./पृष्ठ सं. | श्लोक श्लोक सं./पृष्ठ सं. म्रियन्ते समरे वीराः १६०६/४४० यतोऽशुचीनि सर्वाणि १०५९/३०२ 'य' यत् किंचित् कुरुते ब्रूते १०७०/३०४ यद्यभावित योगोऽपि २७/१० यदि षण्णवति रोगाः ११०४/३१० यस्य त्रिस्थानगो दोषो ८०/३४ यथा यथा वयोहानिः यस्य दुःखसहस्राणि १४६/६० यः करोति गुरुभाषितं मुदा ११३६/३१७ यादेति कषायाग्नि २७१/१०१ यदि ते जायते बुद्धिः ११६३/३२४ यद् दीर्घकाल-संवास २८५/१०६ यदा तदा ततश्चेष्टां १२६०/३६० य: पिण्डमुपधिं शय्या २९६/१०९ यते: स्पर्शे रसे गंधे १२६८/३६४ यथा यथाऽनिशं साधो ३१८/११९ यत् सुखं भोगजे जन्तोः १३०६/३७६ यद्यदन्यदपि द्रव्यं यथा यथा निषेव्यन्ते १३२४/३८० यद्यपि प्रस्थितो मूले ४२०/१४७ यः साधुः सार्थतो भ्रष्टः १३५८/३८८ यद्यपि प्रस्थितो मूले ४२१/१४७ यज्जायते यथाछन्दो १३७५/३९१ यतः प्रसूचने दोष ४९०/१६८ यत्र प्रयान्ति स्थिति-जन्मवृद्धी १४१८/४०० यथावष्टभ्य हस्ताभ्यां ४९८/१७१ यधैवोन विष:सर्पः १४४०/४०६ यथायं दूषितोऽनेन ५१२/१७५ यः क्रोधमान-लोभाना १४६०/४१० यजमानक्षते-जैनैस् ५४३/१८३ यदा प्रबाधते निद्रा १५१७/४२२ यदि दृष्टमदृष्टं च ६०४/१९८ यतस्वाभ्यन्तरे बाह्ये १५२८/४२५ यत् कल्प-व्यवहारांग. ६२४/२०२ | यथा मे निस्तरत्यात्मा १५६१/४३० यतोऽसमाधिना मृत्यु ७०८/२२४ यधात्मनो गणस्यापि १५६१/४३१ यनिर्दिष्ट पानकर्माधिकारे ७४०/२३१ यदासौ नितरां क्षीणः १५७१/४३३ यज्जन्मलक्षकोटीभिः ७४७/२३३ यमुनाचक्र-निक्षिप्तः १६३३/४५१ यथा न ते प्रियं दुःखं ८११/२५३ यंत्रेण पीड्यमानांगाः १६३४/४५२ यथाकाशे स्थितो लोको ८२१/२५६ यच्छ्वभ्रावसथे भीमे १६४४/४५४ यथा तिष्ठन्ति चक्रस्य ८२२/२५६ यच्छूले कूट-शाल्मल्या १६४५/४५४ यतो रुष्टः परं हत्वा ८३२/२५८ यदापत्रः परायत्तो १६५५/४५७ यथा विवर्द्धते वातः ८८७/२७० यत् स्फुटल्लोचनो दग्धो १६५८/४५८ यत्र तत्र प्रदेशे ता ९६२/२८४ यते ! देहममत्वेन १७५३/४८० यथाभिद्रूयमाणासु ९६५/२८४ यत्र खादति पुत्रस्य १८९६/५२१ यथा-यथा स्त्री पुरुषेण मन्यते यशस्वी सुभगः पूज्यो यथा समीरणोल्काम्भो १००२/२९१ यथा यथा विवर्द्धन्ते यतो लाति महादोषं १०१७/२९४ यथाख्यातविधि प्राप्ता २००१/५५२ यथा नरा विमुंचते १०३४/२९६ | यदैव म्रियते काले २०५२/५६३ १९५६/५३७ Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ६४८ श्लोक श्लोक सं./पृष्ठ सं. | श्लोक श्लोक सं./पृष्ठ सं. या सर्वाम्रवरोधिनी | या शीलोज्ज्वल-पुष्प २०/६१३ या श्रीमच्छ्रुत-शील २१/६१३ या मोहासुर-संग-लब्ध २२/६१३ या शुद्ध्यष्टक-चारु-मौक्तिक २३/६१३ या नि:शेष-परिग्रहेभ-दलने २४/६१४ या संसार महोदधेः २५/६१४ या पुण्यासवमूर्ति या सर्वज्ञहिमाचलात् प्रगलिता २७/६१४ या पुण्यांबुधिपूरणी २८/६१५ या संसार-महाविषापहरणे २९/६१५ या सदृष्टि-रुचि-प्रभास्वर ३१/६१५ | या शुद्ध्यष्टक-युक्त-दर्शन-दलं ३२/६१६ । यावत् तिष्ठति पाण्डुकंबलशिला (प्रश.) ८/६२० यस्योपकरणं किंचित् २०५६/५६४ यदि तस्य शिरो दन्ता २०७२/५६८ यदा संक्षिप्यते वाणी २०९६/५७४ यथोक्तं कुरुते सर्व. २१२७/५८१ यत्र निक्षिपते देह २१४१/५८३ यदायुषोऽधिकं कर्म २१८५/५९५ यः षण्मासावशेषायुः २१८६/५९५ यथानल-शिखा नित्य २२०९/६०२ यत् सर्वेषां ससौख्यानां २२१७/६०४ 'या' यात्रासाधनगार्हस्थ्य ८३/३४ या रूक्षा लोच-बीभत्सा ९६/३८ या भिक्षु-प्रतिमाश्चित्रा पाठान्तर/९६ यावज्जीवं विमुचस्व ८१०/२५३ या यौवने प्रिया कान्ता ११०७/३१० यावन्तः केचन ग्रन्थाः १२३७/३४३ याराधिता महाधीरैः १५६३/४३१ यावन्ति सन्ति सौख्यानि यावन्तो वासरा गात्र २०७०/५६८ यावदस्ति बलं वीर्य २०८८/५७२ यावन्न क्षीयते वाणी २०१३/५७३ यावज्जीवं त्रिधाहारं २११२/५७८ यात्यविग्रहया गत्या २२१०/६०२ आराधनास्तवनम् यामासाद्यावनम्र २/६०९ यामाराध्याशु ३/६०९ या सौभाग्यं विधत्ते या काम-क्रोध-लोभ या मैत्री ख्याति-कान्ति यैषा कुद्दालिका शाता १०/६११ या सर्वज्ञ-हिमाचला, १७/६१२ या सज्ज्ञान-समृद्धि १८४६१२ युवाऽपि वृद्धशीलोऽस्ति युगपत् केवलालोको ११२८/३१५ २२२३/६०५ यूयमासादनां कृध्वं ३७९/१३७ येऽन्येऽपि केचनाहारा ये स्वार्थ कर्तुमुझुक्ताः | ये धर्मभावमज्जादि ये सन्ति वचनेऽलीके ये मेहगुदयोः सन्ति येऽनंतशोऽगिना भृक्ता ये रामा-काम-भोगानां ये शक्राः पतनं शक्ता ये जन्म द्वितये दोषाः ये कल्पानामनंताना ये च वीर्येन्द्रियाश्वेभ्यो । ये मृता मुक्तसम्यक्त्वाः २२४/८७ ५०२/१७१ ७७१/२४० ८८१/२६९ १०८८/३०७ १३२३/३८० १४२०/४०१ १७०१/४६८ १७३२/४७४ १८६७/५१२ १९५३/५३६ २०४३/५६० Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ६४९ श्लोक श्लोक सं./पृष्ठ सं. | श्लोक श्लोक सं./पृष्ठ सं. येन देशयतिना निषेव्यते २१५९/५८८ रक्षणाय मता तेषां रणारंभे वरं मृत्युः रत्नत्रयं जगत्सार. रत्याकुलितचित्तस्य रत्नसंभृत-पात्रस्था रत्नत्रयकुठारेण १२४३/३४५ १६०२/४३९ १७२७/४७३ १७४०/४७७ १७५८/४८० २०११/५५२ २००८/५५१ यैः पोष्यते दुःख-दान-प्रवीणा यैरेषाराधना देवी 'यो' योगा यावन्न हीयन्ते योऽन्यस्य दोषमाकर्ण्य यो नैति परया भक्त्या योऽपराधो मयाकारि योषावेषधरः कर्मयोषास्त्यजन्ति विद्वान्सो योषिता नर्तनं गानं योगिनो मुच्यमानस्य यो नीचत्त्वमिबोच्चत्वं यो नृत्वे सेवते भोगं योगः कर्मास्रवं दुष्टो यो मुनिर्यदि शुद्धात्मा योग्यं पूर्वोदितं कृत्वा ३८४/१३८ ७१३/२२४ ७४३/२३२ ९६८/२८४ १०३१/२९६ ११४५/३१९ १२६७/३६४ १२९२/३७३ १९२४/५२७ १९२५/५२८ १९३८/५३३ २१०९/५७७ राजन्य: सर्वदा योग्यां रागद्वेषादिकं साधोः रागद्वेषावपाकृत्य रागद्वेषकषायाक्ष रागद्वेषादिभिर्भग्ना राजकार्यातुरासत्य रागद्वेषमदक्रोध रागो द्वेषो मदोऽसूया रामा-व!मध्यवर्ती मनुष्य रागो मनोहरे ग्रन्थे राद्धांत-मातरोऽष्टी रामस्य जामदग्न्यस्य राधान्त-सचिवाः सन्तः रागद्वेष-क्रोध-मात्सर्य-मोदाः रागद्वेष-मद-क्रोध रागद्वेष-मद-क्रोध-लोभ राग-हेतु पराधीनं २३/९ २७२/१०१ ४६८/१६४ ५४८/१८५ ५६८/१९० ६४५/२०८ ८६२/२६६ ९५७/२८३ १११८/३१३ १२२७/३४० १२६१/३६० १४६७/४१२ १६१८/४४२ १७८४/४८६ १८६१/५०९ २२२४/६०५ २२३१/६०६ ११११/३११ यौवनेन्द्रिय लावण्ये '' रत्नत्रये यतो यत्नः रत्नत्रयं विराध्याभि रसदेहसुखोनास्था रत्नत्रये विधातव्यं रहस्यभेदिना तेन रहस्यस्य कृते भेदे रक्तस्य कृमिरागेण रसेन पीतं जतुना प्रपूर्ण रहितो युवसंगत्या रजो धुनीते हृदयं पुनीते रक्षण-स्थापनादीनि १९३/७७ २४९/९३ २८९/१०७ ५०८/१७४ ५०९/१७४ रुद्रः पाराशरो नष्टो रुधिर-कर्दम-दुर्गम-माहवं रुषित: पूजनीयोऽपि ११५५/३२० ११९२/३३२ १४४४/४०६ ११२७/३१५ ११३७/३१७ १२२१/३३९ रूप-गंध-रस-स्पर्श, रूपं संतमसि द्रष्टुं रूप-शब्द-रस-स्पर्श-गंधासक्ता ५४७/१८५ १००५/२९२ १४२२/४०१ Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ६५० श्लोक सं./पृष्ठ सं. श्लोक श्लोक सं./पृष्ठ सं. | श्लोक रूप-शब्द-रस-स्पर्श-गंधाना १४२३/४०१ | लुपति पातकलोपि चरित्रं रूपे शुभाशुभे न स्त: १४९२/४१६ रूप-गंध-रस-स्पर्श २२२९/६०५ | लूना तृष्णा-लतारूढा १३४७/३८५ २२८/८८ 'ले' ५२/२५ रोचका जन्तवो भक्त्या रोगो दुरुत्तरो यस्य रोग-मारि-चौर-वैरि ७३१/२२९ १९९३/५४९ २१९४/५९८ ७८५/२४५ रौद्रं चतुर्विधं ध्यान रौद्रमार्त्त त्रिधा त्यक्त्वा १७८७/४८७ १७९०/४८८ लेपालेप-धन-स्वच्छ लेश्यानां जायते शुद्धिः लेश्या-शरीर-योगाभ्यां 'लो' लोभतो लभते दोषं लोभस्तुणेऽपि पापा) लोभेन लोभः परिवर्द्धमानो लोकद्वये दुःखफलानि दत्ते लोकद्वये परा: पूजाः लोकस्वभावं चपलं दुरंत लोकमूर्धनि तिष्ठन्ति १४६३/४११ १४६४/४११ १४६८/४१२ १५१४/४२१ १५३६/४२६ १९०४/५२३ २२२२/६०४ ३३४/१२६ ३४९/१३० ३९१/१४० ६७२/२१५ लध्वस्वेदरजोग्राहि लभमानो गुणानेवं लज्जा जुगुप्सनं योगी लब्धसिद्धिपथा जाता: लघुर्भूमि समो रुन्द्रो लभते दारुणं दुःखं लज्जनीयेऽति-बीभत्से लभते यातनाश्चित्रा लघुः सर्वत्र नि:संगो लंध्यमानोऽहिना सुप्तो लभ्यन्ते नरदेवानां लध्वी विपत्तिमुवीं वा 'ला' लालितः सर्वदा सौख्यै लाघवं दुष्टसंगेन लाला-निष्ठीवन-श्लेष्म लाभं लाभमनन्ताश्च १०९२/३०८ १२२३/३३९ १२३३/३४२ १३९०/३९४ १५४३/४२७ १६१५/४४१ वर्धितावग्रहः साधुः वर संयततः प्राप्ता वर्षासु विविध स्पृष्ट्वा वल्भित्वा सर्वमतेन वल्भित्वा सुंदराहारं वंदना-भक्ति-मात्रेण वश्या भवन्ति सत्येन वधं बंधं भयं रोध वह्निर्विध्याप्यते नीरैः वर्षद्वादशकं वेश्यां | वंचयन्ति नरान् नार्यः वक्रावलोकनैः स्त्रीणां वर्ष वातं क्षुधं तृष्णां वत्ते नाक्ष-कषायातः वरं मृत्युः कुलीनस्य वहमानो नरो भारं २७७/१०४ ३६५/१३४ ६५८/२१२ ७२५/२२७ ७२६/२२७ ७८४/२४५ ८६८/२६७ ८९८/२७२ ९३२/२७८ ९४८/२८१ ९९४/२९० ११४४/३१८ ११८७/३३२ १४०९/३९८ १६०४/४४० १८८५/५१७ १९७/७८ ३५३/१३१ १०८७/३०७ १२८८/३७२ लिप्यते वर्तमानोऽपि ११६४/३२४ लुनीते धुनीते पुनीते कृणीते १९९५/३३३ Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोक वसन्ततिलका माता वक्रेण बिमलाहंतो: वज्रं रत्नेषु गोशीर्ष वर्य - रत्नत्रयोद्योगाः बसतेऋते भागे वन्दमानोऽश्नुते पुण्यं वांछिताभिमुखं स्वान्तं वाक्या सहिष्णुता वात्या वाच्यो गणस्थितः पथ्य वाक्यैराप्यायिता लोका वाक्याक्षमाया ममाधिकारी 'वा' वास्तव्यागंतुकाः सम्यक् वास्तव्यो हास्तिने धीरो वाचना पृच्छनाम्नाचा वाचना पृच्छनाम्नाय 'वि' विस्तरेणागमोक्तेषु विज्ञातव्यमयोगानां विनय दर्शने ज्ञाने विनयेन विना शिक्षा विमुक्ति: साध्यते येन विनयेन विना तेन विनयं न विना ज्ञानं विकल्पैर्विविधैर्लोकं विशुद्धं दर्शनं साधो विनिष्क्रम प्रवेशादि विपद्यते समाधि ते विवेको भक्तपानांग विधापितः क्रियां योग्यां विधापितस्तपो योग्यं त्रिमुह्यत्युपसर्गे नो मरणकण्डिका श्लोक सं./ पृष्ठ सं. १८९२/५१८ १९८/५१२ १९८१/५४५ २०१९/५५३ २०४८/५६२ २०८२ / ५७० १४२/५९ २७३ / १०२ ३६७/१३५ ३९५/१४१ ४०५ / १४३ ४२७/१४९ १६३१ / ४४९ १७९६/४९१ २१२४/५८० २८/११ ३५/१३ ११३/४६ १३२/५६ १३३/५६ १३४ / ५६ १३७/५८ १४४/५९ १५२/६१ १५८/६४ १७३ / ७० ९७६ / ७१ २०० /७९ २०१ / ७९ २०५/८० - ६५९ श्लोक विधाय विधिना दृष्टि विषयः स बिचित्रैः संलिखत्यंग विज्ञाय कालमाहूय विध्यापयति यो वेश्म विनीता गुरुशुश्रूषा विना गुणपणा विमुक्तः सर्वतो जातः विद्यमानं गुणं स्वस्थ विश्राम्यासौ शल्यमुद्धर्तुकामः विविधं दोषमापन्नः विश्वस्तो भाषते सर्वा. विश्वस्तो भाषते शिष्यः विश्वासघातका एव विद्यते यद्यतीचारो विमुचाभिमुखं स्थित्वा विध्वस्तो ऽस्फुटितोऽकंप: विक्षेपणी- रतस्यास्य विक्षेपण विमुच्यात: विषाग्नि-कृष्णसर्पाद्याः विद्धो मिथ्यात्वशल्येन विविध दूषणकारि कुदर्शनं विधिनोप्तस्य सस्यस्य विद्विषो नायकेनेव विधिना योग-कोपादि विवेक नियताचार विपरीतं ततः सत्यं विशंति पर्वतेऽम्भोधौ विद्यमाने धने लोका वितरन्ति जनाः स्थानं विधाय पुरुषः स्तेयं विमुंचते यः परचित्तमंजसा श्लोक सं. / पृष्ठ सं. २१०/८३ २३७/९० २६१ / ९८ २८१/१०५ २९२/१०८ ३०५/११२ ३१९/११९ ३४१ / १२८ ३७३/१३६ ४३३ / १५१ ४८४/१६७ ५०७/१७४ ५११/१७५ ५१५ / १७५ ५५५/१८६ उक्तं च २/२०४ ६७१ / २१५ ६८८/२१९ ६९०/२१९ ७६१/२३७ ७६२ / २३७ ७६६ / २३८ ७८३ / २४५ ७८९ / २४६ ८४० / २६० ८४८/२६२ ८६३ / २६६ ८९१ / २७१ ८९२ / २७५ ८९५ / २७९ ९०२/२७२ ९०८/२७३ Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ६५२ श्लोक श्लोक सं./पृष्ठ सं. | श्लोक श्लोक सं./पृष्ट सं. विधत्ते चाटु नीचस्य ९४५/२८० विदेहाधिपति राजा ५८९४/५२० विशीलो दुर्भगोऽमुत्र ९७०/२८५ विचित्यमानं जगतो विचेष्टितं १९०३/५२३ विनंभ-संस्तव-स्नेहा ९८०/२८७ विषयेष्वभिलाषो यः १९२१/५२७ विसंभयन्ति ता मर्त्य ९८१/२८७ विपुलसुखफलानां कल्पने कल्पवल्ली१९६५/५४० विरज्यते स्वयं तस्याः ११०९/३११ वितर्को भण्यते तत्र १९७०/५४२ विसब्धश्चपलाक्षो यः ११३१/३१५ | विधायाराधनां देवीं २०१५/५५२ विश्वासे सति विसंभो ११४०/३१८ | विशुद्ध-दर्शन-ज्ञानाः २०१७/५५३ विषयैर्विष्टपस्थस्य ११६५/३२४ विराध्य ये विपद्यन्ते २०४१/५६० विलास-सलिलोत्तीर्णा ११६८/३२५ विधीयते न यद्येवं २०५५/५६३ विपुलयौवननीरमनाकुलो ११७२/३२६ विधायालोचनामने २१११/५७८ विपुल वीचिविगाढ-नभस्तलं विधायालोचनां सम्यक् २१५७/५८८ विषयेभ्यो दुरन्तेभ्यः १२२६/३४० विवर्धमान-चारित्रो २१८३/५९४ विश्वस्ता यैः प्रतार्यन्ते १३१३/३७८ | विच्छिद्य ध्यान-शस्त्रेण २२११/६०२ विभीमरूपाः लटिल-स्वभावा १३११/३१९ । विशोध्य सिद्धांत-विरोधि-बद्ध २२३८/६०७ विद्धो मिथ्यात्व-शल्येन १३५१/३८६ 'वी' विधिनोप्तस्य सस्यस्य १५३८/४२६ वीरवत्यापि शूलस्थः ९८८/२८९ विदधानस्तपो भक्त्या १५४१/४२७ | वीक्ष्यमाणे मनुष्याणा ११००/३०९ विभीम विषयांभोधे १५४६/४२८ | वीर्य निगृह्यते येन १५३१/४२५ विक्रीणाति तपोऽनर्घ वीर्यान्तराय-चारित्र १५३२/४२५ विशोध्य दर्शन-ज्ञान १३४५/३८५ | वीरासनादिकं बद्ध्वा २१६४/५९० विहाय हरिणो यूथ विधाय ज्वलितं हस्ते | वृद्धवृद्धाः नराः शीलैः ११२२/३१४ विदधाति गुणं ज्ञानं • १४०६/३९८ | वृद्धस्तरुणशीलोऽस्ति ११२९/३१५ विदधानस्तथा को १४३५/४०५ वृद्धो गणी तपस्वी च ११५२/३२० विदधानोऽपि चारित्रं १४५४४०९ वृद्ध-संयम-तपः पराक्रमः १२७८/३६८ विचित्र-वेदना-दष्टाः १४७२/४१३ | वृत्ते नाक्ष कषायातः १४०९/३९८ विदधाति यतश्चक्षुः १४९३/४१७ वृद्धि हानी कषायाणां १९९५/५४९ वितरति विपुला निकृति-धरित्री १५११/४२० विज्ञाय विकृति तस्य १५७७/४३४ वेदनायामसह्यायां ५१९/१७६ विराधितो भवन्मानो | वेदनायामसह्यायां १६१०/४४१ विषादे रोदने शोके १७०७/४६९ | वेदनां कर्मणां दत्ता १८३४/५०१ विचक्षुर्बधिरो मूको १८७८/५१६ ! वेदनानां प्रतीकारं Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ६५३ श्लोक श्लोक सं./पृष्ठ सं. | श्लोक श्लोक सं./पृष्ठ सं. वेद्यायुनर्नाम गोत्राणि २१९१/५९७ में ३२६/१२२ ४६१/१६० १३३५/३८२ १५७५/४३३ १५७६/४३४ २०७३/५६९ ४६६/१६२ ४६९/१६४ ४७०/१६४ वैयावृत्यं तपोऽन्तस्थ वैयावृत्यकरैस्त्यक्तं वैरिणो देहिनां दुःखं वैयावृत्य-गुणाः पूर्वं वैयावृत्य ततः कार्य वैमानिक: स्थलं यातो व्य' व्यवहारो मतो जीद व्यवहारापरिच्छेदी व्यवहाराबुधः शक्तो 'व्या' व्यापारस्तत्र चारित्रे व्यापारः क्रियते नित्य व्यापारहीनस्य ममत्वहाने व्याघ्र विषे जले सर्प व्याघ्रादयो महादोष व्याघ्रा इव परित्याज्या व्याघेणाने कृतो हन्तुं व्याक्षेपोऽस्ति यतस्तस्य व्यलीकादि विनिर्मुक्त व्याकुली भवति प्राणी व्याकुलस्य सुखं नास्ति व्याकुलो वेदनाग्रस्त व्याधितो व्यसनी शोकी शस्तमन्यदपिस्थान शब्दाकुले चतुर्मास शयनासननिक्षेप शंकमानमना निद्रा शटैस्ते स्त्रीजनैस्तीक्ष्णैः शम्पेव चंचला नारी शलाका पुरुषास्ताभि शतानि त्रीणि संत्यस्थना शदं कंचिदसौ श्रुत्वा शत्रवो यान्ति मित्रत्वं शल्य दु:-कंटकैर्विद्धाः शत्रूपकाराद्रोषो शत्रुसनिलव्याघ्राः शब्दे वर्णे रसे गन्धे | शब्द-गंध-रस-स्पर्श | शप्तोऽस्मि न हतोऽनेन शक्तिभिः सूचिभिः खड्गैः शब्द रूपे रसे गन्धे शरीरादात्मनोऽन्यत्वं | शयालोर्मुखमभ्येत्य शस्त्रग्रहणतः स्वार्थ: शरीरं पंचधा तत्र 'शा' शामिकी क्षायिकी शांतोऽपि क्षोभ्यते मोहो शांतोप्युदीयते मोहः शाकवत् भृज्यमानो यत् शारीरं मानसं दुःखं शारीरं मानसं दुःखं शान्तिर्भवति सर्वेषा शारीरं मानसं सौख्य ५८८/१९३ ६१९/२०१ ८४७/२६२ ८९९/२७२ ९७८/२८७ ९९९/२९१ १०३७/२९७ १०७३/३०५ १२०८/३३६ १३३४/३८२ १३६२/३८९ १४३७/४०५ १४६९/४१३ १४८८/४१६ १४९४/४१७ १४९८/४१८ १६५७/४५८ १७७४/४८४ १८५६/५०८ १८७३/५१५ २१४९/५८६ २२००/६०० . ९८९/२८९ ९९०/२९० १०३३/२९६ १११४/३१२ १२३०/३४१ १२५०/३४९ १३२८/३८१ १३२९/३८१ १५८१/४३४ १८७९/५१६ व्रतप्ररोहणाहत्वं व्रतं शीलं तपो दानं ४३९/१५२ ८२४/२५७ ११२४/३१४ ११२६/३१४ १६५२/४५७ १६७८/४६३ १७५२/४७९ २०६५/५६६ २२२६/६०५ शंका कांक्षा चिकित्सान्य, शक्तितो भक्तितः संघे ३०९/११६ Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ६५४ श्लोक श्लोक सं./पृष्ठ सं. 1 श्लोक श्लोक सं./पृष्ठ सं. ___ 'शि' ३८२/१३८ शिष्टोपि दुष्टसंगेन शिक्षान्न-श्रुति-पानाभ्यां ४५४/१५९ शिवसुखमनुपममपरुजममलं ५२९/१७८ शिल्पानि बहुभेदानि ९५४/२८२ शिराजालानि चत्वारि १०७५/३०५ शिश्रायाराधनां देवीं १६२०/४४२ शिष्यस्तस्य मनीषिणोऽमितगति(प्रश.) ५/६२० शोकद्वेषासुखायास शोधावत्योपरि पत्य शोचति प्रथमे वेगे शोणित-प्रस्रवद्वार शोषणे पेषणे कर्षणे ९२७/२७७ १०६६/३०४ १६५९/४५८ 'शी' शीतातप-क्षुधा-तृष्णा शीलसंयमरत्नाढ्यं शीतमुष्णं क्षुधां तृष्णा शील-संयम-तपो-बहिवा शीलवंत्यो विलोक्यन्ते शीतादयोऽखिलाः सम्यक् शीतवाता-तपादीनि ५२५/१७८ ९४९/२८२ ९९७/२९१ १०४३/२९८ १२२८/३४० श्रामण्यं सर्वदा कुर्वन् २४/९ श्रावके नगरे ग्रामे श्रीभूतिमहती प्राप्य ९०५/२७३ श्रुतपानं यतस्तस्मै श्रुतिपानक-शिक्षान्न १६९१/४६६ शृण्वतो भूरि-सूरीणां १५७/६४ श्रुत्वा सल्लेखनां सर्वे ७१०/२२४ श्रेणिको व्रतहीनोऽपि ७७२/२४२ श्रेयसामाकरो ज्ञेयं १५५०/४२८ श्रोत्रियो ब्राह्मणो भूत्वा १८९९/५२२ श्रीदेवसेनोऽअनि माथुराणां (प्रश.) १/६१९ 'श्ला ' श्लाघ्या भवन्ति नार्योऽपि १०४८/२९८ १०७/४३ १७४/७० शुझ्या नि:कंपनो भूत्वा शुद्धिरालोचना शय्या शुभाशुभेन गन्धेन शुश्रूषकप्रमादेन शुद्धलेश्यस्य यस्यान्ते शुद्ध-शील-कलितासु जायते । शुक्र-मस्तिष्क-मेदांसि शुक्ललेश्योत्तमांशं यः शुद्धतमा गुणवृद्धि गरिष्ठा शुक्ल लेश्यांगनाश्लिष्टा ५१८/१७६ ८००/२५० १०५०/२१९ | श्वसिति रोदिति माद्यति लज्जते ११९०/३३२ श्वसिति रोदिति सीदति वेपते १२१३/३३७ | श्वभ्र तिर्यग् नर स्वर्ग १६३९/४५३ श्वभ्रभूमिज्वलद्-वह्निः (आ.स्त.) ९/६११ २०००/५५० २००५/५५१ २०२६/५५४ ११०/४४ २५९/९७ २६३/९८ शून्यवेश्म शिलावेश्म शून्यवेश्मरजोभस्म षष्ठाष्टमादिभिः शुद्धिः षष्ठाष्टमादिभिश्चित्रै षण्मासीमप्रकृष्टेन षडंजलिमित पित्तं . षट्र-प्रस्थ-प्रमितं वर्षों २४०/९० ५८३/१९३ १०८१/३०६ शेषांशान् शुक्ललेश्यायाः Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ६५५ श्लोक श्लोक सं./पृष्ठ सं. | श्लोक श्लोक सं./पृष्ठ सं. सर्वे तीर्थकृतोऽनंत ५५११८५ सम्पूर्णीकरण सम्यक्त्व-वृत्त-निःशल्या ५७०/१९० सम्यक्त्वाराधने साधोः सम्यगालोचयेत् सर्व ५७२/१९१ समितिगुप्तिमंजान मम्यक-स्वज्ञान-वृत्तेषु ५७४/१११ सर्वे दोषाय जायन्ते समुद्रनिम्नगादीनां सवीचारमवीचार ७०/२९ सर्वदोषक्षयाकांक्षी ६४०/२०६ समृद्धस्य सलज्जस्य ८१/३४ स सामान्य-विशेषाभ्या ६४१/२०७ सभ्यप्रवृत्तनिःशेष. सम्यगालोचते तेन ६४८/२०९ सर्वे जीवादयो भावा १०२/४१ स चारित्रगुणाकांक्षी ६५७/२११ समाहितं मनो यस्य १३९/५८ सन्ति यस्याः समीपे निकृष्टक्रिया ६६२/२१२ समस्ताः सम्पदः सद्यो १३८/५८ समाधानीवतो गृध्नोः ७२९/२२८ सत्येव स्मृतिमाहात्म्ये १६४/६७ सम्यक्त्वस्य च यो लाभ: ७७४/२४३ समस्त-द्रव्य-पर्याय १७८/७२ समस्तानि दुःखानि विच्छिद्य सद्यः ७१२/२४७ समानुदिशं सर्वं १८६/७५ सदा रमयितव्योऽसौ ७९८/२४९ सर्वज्ञ-शासन-ज्ञान१८९/७६ सर्वैः सर्वे समं प्राप्ताः ८२८/२५७ सल्लेखना द्विधा साधो २१२/८४ सर्वोप्यथ हुते द्रव्ये ८८९/२७० सन्तोषो भावितः सम्या २२५/८७ स दु:खमयशोऽनर्थ ९४५/२७९ समस्फिगमसमस्फिक्क सलिलेनेव कामेन ९४७/२८१ सन्तोषः संयमो देह २५४/९४ सर्वस्व-हरण रोधं ९६३/२८४ स दग्ध्वा ज्वलितः क्षिप्रं २७४/१०२ सकश्मलाशया रामाः ९९१/२९० सकलं गणमामन्त्र्य २८४/१०६ सव्या व गुहारत्नैः १०१२/२९३ स सूत्रार्थ-रहस्यज्ञ: २८७/१०७ सर्पिणीव कुटिला विभीषणा १०२९/२९५ समये गणिमर्यादा २९७/११० सर्वशास्त्रसमुद्राणां १०४४/२९८ समर्थो न विधत्ते यो ३१२/११७ स चर्म-पूय-मांसास्थि सगुणो गुणिनां मध्ये ३७८/१३७ सचित्ता अंगिनो घ्नन्ति १२१९/३३८ सर्वजीवहिते वृद्धे ३९२/१४१ समस्त-ग्रन्थ-निर्मुक्तः १२३२/३४४ सर्वज्ञैरिव यैः वृद्ध. ३९४/१४१ सहसा दृष्ट-दुर्दृष्ट १२५४/३५८ स प्रणम्य गणनायकं त्रिधा । ४३२/१५० समितो लिप्यते नाघैः १२५७/३५९ सल्लेखनायाः कुरुते प्रकाशनां ४४३/१५५ स सूत्राय मणि भिन्ते १२८०/३६९ समाधानविधि तस्य ४५९/१६० समाधिमरणं बोधिः १२८.३/३६९ समस्तं स्पर्शचारित्रं ५४६/१८४ सम्पद्यते सुर्ख भोगे ५३१२/३७८ स षट्त्रिंशत् गुणेनापि ५४९/५८५ स सिद्धियायिनः साधुः Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ६५६ श्लोक सं./पृष्ठ सं. ५६/२६ ५८/२६ ६७/२८ १२३/५३ १३१/५६ १४७/६० १५३/६३ १६५/६७ २४८/९२ श्लोक श्लोक सं./पृष्ठ सं. | श्लोक सर्वांगीण मलालीढी १४०३/३९७ संख्यातामप्यसंख्याता सरय्यां गंधमित्राख्यो १४२४/४०२ संयतोऽसंयतो वा यो सर्वेऽपि कोपिनो दोषा १४५०/४०८ संख्येया: सन्त्यसंख्येया समवर्षाणि नि:शेष १४६१/४१० संस्काराभावत: केशाः सध्यान-मंत्र-वैराग्य संक्लेशः पीड्यमानस्य सत्येऽपि सर्वतो दोषे १४९७/४१७ संभ्रमो नमनं सूरेः सदैवमुपयुक्तेन १५२०/४२३ संयतानां गृहस्थानां सन्तोषबलतस्तीब्रा १५९५/४३७ संसारकारिणो दोषा समुद्रा इव गंभीरा १६१६/४४१ संविग्नो वृत्तसम्पन्न: सदा परवशीभूता संन्यासकारणे जाते सलिल-मारुत-शीत-महातप १६६५/४६० सन्तीन्द्रियाणि दान्तानि समुद्रो लंपितो येन १६९०/४६६ संलिख्यं गौरवं संज्ञा सर्व-साधारणं दुःखं १७१६/४७१ संक्षिप्तेहादितोऽम्भोधि सहमानो मुने! सम्य १७५६/४८० संज्ञागौरव रौद्रात सल्लेखना श्रमं साधो! १७६०/४८१ संसारभीस्तोत्पन्ना समस्त-द्रव्य-पर्याय १७७०/४८३ संयतोऽपि जनैर्दुष्टो समानो भव सर्वत्र १७७५/४८४ संविग्न परमां कोटिं समत्वमिति सर्वत्र १७८१/४८५ संविग्नस्याघभीतस्य स चतुर्भिस्त्रिभिभ्यिा १८७७/५१६ संवेगोद्वेगसम्पन्न: सर्वे सर्वैः समं प्राप्ताः १८९०/५१८ संघाटको न दातव्यो सर्वभावगतं शुक्लं १९७३/५४३ संसारसागरे घोरे ससंगस्याजिन; कर्तुं १९९९/५५० संयमे चेत् कृतेऽन्येन सर्वलेश्याविनिर्मुक्तः २००४/५५१ संवेजनी कथा ब्रूते स यथाख्यातचारित्रा: २०२५/५५४ संसारं न विना शक्तं सर्व-व्रतातिचारस्थाः संयम श्लोकखण्डेन सर्वस्यापि समाधान २०४९/५६२ संरम्भोऽकथि संकल्पः स चूर्णेः केशरैर्वापि २०६२/५६५ संपद्यन्ते गुणाः सत्ये सन्निरुद्धमवीचारं संकल्पाण्डकजातेन सहसा स्खलने जाते २१२८/५८१ संयुक्तां कर्षति क्षोणी सहसोपस्थिते मृत्यौ २१५६/५८८ संज्ञा-गौरव-पैशून्य समुद्घाते कृते स्नेह २१८९/५९६ संगो महाभयं यस्मात् सर्वशास्त्र-जल-राशिपारगो प्रशस्ति ३/६१९ संसर्गस्यानिवृत्तस्य २९०/१०७ ३०२/१११ ३२३/१२० ३५४/१३१ ३६३/१३४ ४२४/१४८ ४४८/१५७ ६१७/२०० ६८७/२१८ ७८८/२४६ ८०५/२५१ ८४१/२६० ८७२/२६७ ९२४/२७७ ९५३/२८२ ११८२/३२९ ११८६/३३१ १३०३/३७६ Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ६५७ श्लोक श्लोक सं./पृष्ठ सं. | श्लोक श्लोक सं./पृष्ठ सं. २१४/८५ २३०/८८ १३४०/३८३ १३६७/३९० १४००/३९७ १५१२/४२१ १५१३/४२१ १५२२/४२३ १५४०/४२७ १५८८/४३६ १६८५/४६५ संसार पुनरायान्ति संज्ञानदीषु ते मग्नाः संयतस्य कुलीनस्य सम्पद्यते सपुण्यस्य संसारेऽटाट्यमानेन संसारे युज्यते स्वप्तुं संसारस्याविषह्येन संतत सारणवारणकारी संयतस्य वरं मृत्युः संख्यातमप्यसंख्यातं संसारे भ्रमतस्तृष्णा संयतस्य वरं साधोः संघतीर्थकराचार्य संयोगो देहिनां वृक्षे संसारे भ्रममाणाना. संगमोऽस्ति शकुन्तानां संसारे जायते यस्मिन् संसारे देहिनोऽनन्ते संकेतवन्तः परिचारकास्ते संघकृत्ये निरुत्साहाः संमोह भावनोयुक्ताः संस्तरेण समं बद्ध्वा संपद्यतां नोऽपि विना. संस्थाप्य गणिनं संघे संपद्यतेऽखिलास्तस्य संस्तरः क्रियते नात्र संयतासंयतो जीवः संसारार्णवमुत्तीर्ण सार्वकालिकमन्यच्च सावष्टंभं तनूत्सर्ग साधुधारणया संघः सारणां वारणां नास्य सारं द्वार पुरस्येव सावधं गर्हितं वाक्य साकेताधिपतिर्देव साधारणेऽत्र सर्वेषां सामान्येन ततो नेह | साधयन्ति महार्थं यन् म. नियम.. साधुः सार्थं परित्यज्य साधः सार्धपथं त्यक्त्वा साधु-साथ स दूरेण साधुकारं परे तत्र साक्षीकृत्य गृहीतस्य । साक्षीकृत्य पराभूताः | साधवो बांधवास्तस्माद् | साधूनां स्थितिकल्पोऽयं 'सि' सिद्धान् नत्वार्हदादींश्च | सिद्धाः संसारिणो जीवा: | सिद्ध-चैत्य-श्रुताचार्य सिकता-तृण-कल्लोल. | सिद्धो विवर्द्धनो राजा ४४४/१५६ ७६८/२३९ ८५८/२६५ ९८६/२८८ १०४७/२९८ १०४९/२९९ १२४२/३४५ १६.४/३८७ १३६१/३८९ १३६३/३८९ १३७०/३९० १६०९/४४० १७१७/४७१ १७२०/४७२ १८५५/५०७ २०४६/५६१ १६९६/४६७ १७२१/४७२ १८०६/४१५ १८४४/५०५ १८४६/५०५ १८९३/५२० १९५१/५३७ १९८७/५४६ २०३९/५५९ २०५८/५६४ २०६७/५६८ २१०६/५७७ २११९/५७९ २१३७/५८२ २१५१/५८७ २२३४/६०७ ४०/१८ ७७९/२४४ १०००/२९१ २१०१/५७५ 'सा' साधुर्भावित चारित्रो साधुर्गवेषयन्मुक्ति साधुः सल्लेखनो कर्तु सुखकारी दधात्येनं सुभगत्वमसौभाग्यं सुवेगस्तस्करो दोनो सुरूपोऽपि नरो रुष्टो सुखं त्रैलोक्य-लाभेऽपि | सुन्दरास्त्रिदिववासि-सुंदरी ५२४/१७८ १२९५/३७४ १४२७/४०३ १४४१/४०६ १४६५/४११ १६८२/४६४ १७१/६९ २११/८४ Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोक श्लोक सं./पृष्ठ सं. | श्लोक श्लोक सं./पृष्ठ सं. सुख दुःख सहा वृत्त सुखं साप्सरसो 'देवाः सुखाय यदि लभ्यन्ते सुताई पाटलीपुत्रे २०१४/५५२ २०१६/५५३ २१२०/५८० २१४७/५८५ | स्थूल सूक्ष्मं च चेद् दोषं स्थिरत्वं नयते पूर्व स्थेयांसः प्रियधर्माण: स्थानानि तानि सर्वाणि स्थानतश्चलति नाकपर्वतः स्थावर नारकद्वंद्वं स्थूलौ मनो-वचो-योगौ ६११/१९९ ६५१/२१० ६७७/२१६ १३७८/३९२ १५६७/४३१ २१६९/५९२ २१९२/५९८ ३२८/१२३ ५९२/१९५ ९३७/२७९ 'स्ना' स्नान्ति क्षपकतीर्थे ये २०८०/५७० सूत्रानुसारतः साधोः सूरिधारणया संघः सूरि भक्तेन पानेन सूर्योपाध्याय-संघानां सूरेभांति प्रभावेण सूक्ष्म साधारणोद्योत सूक्ष्मलोभगुणस्थाने सूक्ष्मलोभगुणस्थाने सूक्ष्मौ मनोवचो योगी सूक्ष्मक्रियेण रुद्धोऽसौ २१६८/५९२ स्फुटीकृता पूर्वजिनागमादियं (प्रश.) ७/६२० २१७६/५९३ २१९३/५९८ २१९५/५९९ स्त्री-राज-मन्मथाहार. स्त्री-निःश्रेण्योन्नतस्यापि स्रोतसा नीयमानस्य स्रंसते बपि ज्ञानं स्त्रैणषंढत्व-तैरश्च ६८१/२१७ ९७६/२८७ १३२२/३८० १४१०/३९८ १४५९/४१० ६०२/१९७ सेव्यमानो यथाहारो सेवमानो यथा वह्नि सेवमानो नरो नारी सेवन्ते मद्य-गोमांस. सेव्यते क्षपको येन १३११/३७८ १६१३/४४१ २०८३/५७० ९८/३९ सोऽथवा पंचधा शय्या सोढ्वा तृष्णा-बुभुक्षे ते १७७/७१ १६८९/४६५ स्ववशत्वमदोषत्वं स्वपक्षे चिह्नमालम्ब्य स्वाध्याय पंचश: स्वाध्यायेन यतः सर्वा स्वन्यस्त जिनवाक्यस्य स्वसुर्विधर्मतां दृष्ट्वा स्वयं साधोः स्थिरत्वे स्वान्तानिष्टमपि ग्राह्य स्वस्तवेन गुणा यान्ति स्वल्पोऽप्यन्यगुणो धन्यं स्वस्यापरस्य वा त्यागे स्वभ्यस्तं कुरुते ज्ञानं स्वकीये परकीये वा स्वमातुरप्यविश्वास्यो १११/४५ २०३/७९ २०७/८२ ३३९/१२७ ३६८/१३५ ३७०/१३६ स्तेनो वा जागरूकेभ्यः स्तेनाग्नि-जल-दायाद स्तोष्यते क्षपकः सूरेः स्तेयासत्यवचोरक्षा 'स्थ' स्थविरस्य प्रमाणस्य स्थूलं व्रतातिचारं यः १६७४/४६३ १७६६/४८२ १७८८/४८७ ७०५/२२३ ७९४/२४८ ८६५/२६६ ८७५/२६८ ३३६/१२७ ६०६/१९८ Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - ६५९ श्लोक सं./पृष्ठ सं. १२६३/३६२ १२८७/३७१ १०४/४२ १२९/५५ ४५८/१५९ ६३५/२०४ ८३६/२५८ ८३८/२५९ १२४४/३४६ १७२६/४७३ श्लोक श्लोक सं./ पृष्ठ सं. | श्लोक स्विद्यते विद्यते तप्यते | हास्य-लोभभय-क्रोध स्वल्पेपि विहिते दोषे ९८२/२८८ | हानि-वृद्धी प्रजायते स्वर्गभोगिनरनाथ-कामिनी; १२७७/३६८ स्वस्थाध्यात्मरतिर्जन्तो १३३१/३८१ हिताहितमजानानो स्वयमेवाशनं वान्तं १३९१/३९४ हितादानाहितत्यागौ स्वारोपित भराः केचित् १६१७/४४२ हित-मित-परिणाम स्वयं पुराकृतं कर्म १७१३/४७१ हित्वा निर्भय॑मानोऽसौ स्वकीया देहिनोऽत्रैव १८३७/५०२ हित्वा दोषान् दशापीति स्वकीय परकीयं न १८३८/५०२ हिंसातोऽविरतिहिँसा स्वयं पलायते कर्म हिंसा त्रिभिश्चतुर्भिश्च स्वगणस्थमिति प्राज्ञैः २०९५/५७४ हिंसादीनां मुनेः प्राप्तिः स्वयमेवात्मनः सर्व २११५/५७९ हिनस्ति देहिनोऽन्नार्थ स्वाध्यायकाले विक्षेपा २१२६/५८० हिमपुंजा इवानित्या स्वान्तस्था या दुरापा (आ.स्त.) ७.६१० हितं करोति यो यस्य हिंसारंभादि-दोषेण हर्षोत्सुकत्व-दीनत्व. ८१३/२५४ हिंसादयो मता दोषाः हस्तान्यस्त कपोलोऽसौ ९२०/२५६ हिंसामसूनृतं स्तेयं हरन्ति मानसं रामा १००६/२९२ हसितैः रोदनैर्वाक्यैः १००७/२९२ हुंकारांगुलि-नेत्र-भ्रू हरन्ति पुरुषं वाचा १००८/२९२ | हुत्वैकत्ववितर्काग्नौ हन्तुमने कृतो मूढो १११३/३१२ हन्यते ताड्यते बध्यते रुध्यते १२०४/३३६ । हृषीक-दन्तिनो दुष्टान हतं मुष्टिभिराकाशं १७०९/४७० | हुषोक-तस्करैभीमः हरन्ती जीवितं दृष्ट्वा २०९७/५७४ | हृषीक-मार्गणास्तीक्ष्णा हृषीक-मार्गणास्तीक्ष्णाः हास्य कांदर्प कौत्कुच्य १८८/७६ हषीक-विजयः सद्भिः हासोपहास-लीलाभि ११४२/३१८ हा हा भूतस्य जीवस्य १२०३/३३५ । हेया; क्रमेण चत्वार १८५२/५०७ १८८८/५१७ १९१८/५२६ २१५३/५८८ १९८६/५४६ २१७८/५९४ १३६०/३८८ १४७५/४१४ १४८९/४१६ ७०१/२२२ Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ # उद्धृत कथा-सूची // क्र.सं. कथा श्लोक सं./पृष्ठ सं. | क्र.सं. कथा श्लोक सं./पृष्ठ सं. 1. नागदत्त मुनि 207/82 | 32. गन्धर्वदत्ता 1425/402 2. संघश्री मंत्री 763/237 33. भीमराजा 1426/403 3. धर्मानुराग-भावानुराग 34. सुवेग चोर 1427/403 प्रेमानुराग-मज्जानुराग 771/240 35. द्वीपायन मुनि 1446/407 4. राजा श्रेणिक 772/242 36. सगर चक्री के पुत्र 1453/409 5. राजा पद्यस्थ 784/245 37. मायावी भरत कुम्हार 1461/410 6. सुभग वाला 791/247 38. कार्तवीर्य 1467/412 7. यम मुनि 805/251 39. सुकुमाल मुनि 1619/442 8. दृढसूर्य चोर 806/252 40. सुकौशल मुनि 1620/443 9. यमपाल चाण्डाल 851/263 41. गजकुमार मुनि 1621/443 10. वसुराजा 879/269 42. सनतकुमार मुनि 1622/444 11, वारत्रिक मुनि 943/280 43. एणिक पुत्र पणिकमुनि 12. गोरसंदीव मुनि 948/281 44. धर्मघोष मुनि 1625/445 13. कडारपिंग 971/285 45. श्रीदत्त मुनि 1626/446 14. रक्तारानी 986/288 46. वृषभसेन मुनि 15. गोपवती 1627/446 987/289 1628/447 16. वीरवती 47. कार्तिकेय मुनि 988/289 17. सुरतराजा 1112/311 48. अभयघोष मुनि 1629/448 18. चारुदत्त 49. विद्युच्चर मुनि 1134/316 1630/448 19. शकट, कूपार 1154/321 | 50. गुरुदत्त मुनि 1631/449 20. सात्यकि, रुद्र, पाराशर, 1155/322 51. चिलातपुत्र भुनि 1632/450 21, सगे दो भाइयों की कथा 1984/330 52. दण्डमुनि 1633/451 22. चौरों की कथा 1185/330 53. अभिनन्दन आदि 500 मुनि 1634/452 23. धनलोभी जिनदत्त 1186/331 54. आचार्य वृषभसेन 1635/452 24. पिण्याकगन्ध 1198/334 55. सुभौम चक्रवर्ती 1734/476 25. फणहस्त 1202/335 | 56, धनदेव (18 नाते) की कथा 1892/519 26. वशिष्ठ मुनि 1276/368 | 57. सुदृष्टि सुनार 1898/522 27. लक्ष्मीमती 1294/373 2101/575 28. सम्भूत 1343/384 | 59. धर्मसिंह मुनि 2146/584 29. पुष्पदन्ता आर्यिका 1349/386 / 60, वृषभसेन मुनि 2147/585 30, मरीचि 1351/386 / 61. यतिवृषभाचार्य 2148/585 31. गन्धमित्र 1424/402 | 62. शकटाल मुनि . 2149/586