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________________ मरणकण्डिका - ४० ३. शिक्षा अधिकार जिन पचन प्रशंसा निपुणं विपुलं शुद्धं, निकाचितमनुत्तरम्। पापच्छेदि सदा ध्येयं, सार्वीयं वाक्यमार्हतम् ॥१०॥ अर्थ - जिनेन्द्र भगवान के वचन निपुण, विपुल, शुद्ध, अर्थ से परिपूर्ण, सर्वोत्कृष्ट, पापनाशक, सबका हित करने वाले और सदा ध्येय रूप हैं ॥१०० ।। प्रश्न - जिन वचन के विशेषणों का अर्थ क्या है? उत्तर - प्रत्येक विशेषण का संक्षिप्त अर्थ इस प्रकार है - १. निपुण - जीवादि पदार्थों का नय एवं प्रमाणानुसार विवेचन करने से निपुण हैं। २. विपुल - निक्षेप, निरुक्ति एवं अनुयोगद्धार आदि द्वारा जीवादि तत्त्वों का विस्तार पूर्वक निरूपण करने से विपुल हैं। ३. शुद्ध - पूर्वापरविरोध, पुनरुक्ततादि दोष एवं राग-द्वेष से रहित होने से शुद्ध हैं। ४. निकाचित - अर्थ से भरपूर हैं। ५. अनुत्तर - प्रतिपक्ष रहित एवं सर्वोत्कृष्ट हैं। ६. पापच्छेदि - ज्ञानावरणादि द्रव्य कर्मरूप मल एवं अज्ञानादि भाव मल अथवा धातिया कर्मरूप पाप का नाश करने वाले हैं। ७. सार्वीय - सब प्राणियों के हितकारी हैं और - ८. सदा ध्येय - अहर्निश ध्येय रूप हैं। गद्य - जिनवचन के अभ्यास से प्रकट होने वाले गुण सर्वभाव-हिताहितावबोध-परिणामसंबर-प्रत्यग्रसंवेग-रत्नत्रयस्थिरत्व-तपोभावना - परदेशकत्व लक्षण-गुणा: सप्त संपद्यन्ते जिनवचन-शिक्षया ।।१०१।। अर्थ - जिनेन्द्रदेव के वचनों का अभ्यास करने से १. हिताहित का ज्ञान, २. भावसंवर, ३. नवीननवीन संवेग, ४. रत्नत्रय में स्थिरता, ५. तप, ६. भावना और ७. परोपदेश में कुशलता; ये सात गुण प्रगट होते हैं ||१०१॥ प्रश्न - आत्मा का हित इन्द्रिय-सुख में है या आत्मिकसुख में? उत्तर - इन्द्रियसुख तो आत्मा का अहित करने वाला है क्योंकि वह सुख (१) मात्र दुख के प्रतिकार स्वरूप है। (२) अल्पकाल रह कर नष्ट हो जाने वाला है। (३) इन्द्रिय और पदार्थों के आधीन है। (४) रागभाव
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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