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________________ . मरणकण्डिका - ४१ उत्पन्न करके आत्मा को कर्मों से बद्ध करता है। (५) उसकी प्राप्ति भी दुर्लभ है। (६) दुर्गति का मार्ग है। (७) शारीरिक आयाम से उत्पन्न होता है। (८) अपवित्र शरीर से उत्पन्न होता है। (९) दुखों से मिश्रित रहता है। (१०) कर्मों के आधीन है और (११) पाप का बीज है, अतः इस इन्द्रियसुख से आत्मा का हित कदापि नहीं होता। आत्मिक सुख कर्मों के नाश से स्वयमेव आत्मा में उत्पन्न होता है, आत्मा के साथ शाश्वत रहने वाला है और इस सुख की प्राप्ति के लिए ही हितेच्छु भव्यजन सदा प्रयत्न करते हैं क्योंकि यही सुख आत्मा का हित है। जिनवचन के अभ्यास से ही हितरूप आत्मिक सुख का और अहितरूप इन्द्रियसुख का ज्ञान होता है। प्रश्न - भावसंवर आदि सब गुणों का क्या लक्षण हो । (२) उत्तर - परिणाम-संवर - इसका भाव है कि जिन पाप-परिणामों से अशुभ कर्मों का आस्रव होता है उन परिणामों का त्याग भाव संवर है। सरागी जीव जिनवचन के अभ्यास से ही पापपरिणामों को छोड़ते हैं। वीतराग मुनिराजों की अपेक्षा जिनवचन शुद्धोपयोग में कारण हैं क्योंकि वहाँ पुण्यास्रव के कारणभूत परिणामों के त्याग रूप भावंसवर होता है। जिनवचन के अभ्यास से ही आसव के निमित्त रूप शुभाशुभ परिणामों का त्याग होता है अत: भावसंवर जिनवचन का गुण है। (३) प्रत्यग्र संवेग इसका अर्थ है, प्रतिदिन नवीन-नवीन संवेग। अर्थात् जिनवचन के अभ्यास से प्रतिदिन धर्म में श्रद्धा होती जायेगी और संसार के स्वरूप का ज्ञान वृद्धिंगत हो जाने से संसार-भीरुता रूप नयेनये परिणाम जाग्रत होते जायेंगे। (४) रत्नत्रय स्थिरत्व जिनवचन के अभ्यास से रत्नत्रय में सिद्धि एवं निश्चलता प्राप्त होती है। (५) तप - जिनवचन से स्वाध्याय नामक अभ्यन्तर तप की वृद्धि एवं सिद्धि होती है। (६) भावना - गुप्तियों में भावना दृढ़ होती है और - (७) परदेशकत्व - भव्यों को धर्मोपदेश देने का सामर्थ्य उत्पन्न हो जाता है। इस प्रकार जिनवचन के अभ्यास से आत्मा में ये सात गुण स्वयमेव स्फुरायमान होते जाते हैं। (८) हिताहित का ज्ञान सर्वे जीवादयो भाषा, जिनशासन-शिक्षया। तत्त्वतोऽत्रावबुध्यन्ते, परलोके हिताहिते ।।१०२।। अर्थ - जिनशासन की शिक्षा से अर्थात् ज्ञान के प्रभाव से जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष आदि सर्व पदार्थों के सत्य स्वरूप का बोध हो जाता है, तथा इसके सामर्थ्य से इस लोक एवं परलोक में हिताहित का भी परिज्ञान हो जाता है।।१०२।। प्रश्न - आत्महित के लिए क्या करना चाहिए और आत्मा का यथार्थ हित क्या है? उत्तर - जैसे जंगल में उत्पन्न होने वाली वनस्पति रूप औषधि रोगी का हित करती है वैसे ही इस लोक में दान एवं तप आदि उत्तम कार्य आत्मा का हित करते हैं अत: इसलोक में उन्हें ही हित कहा जाता है। क्योंकि
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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