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________________ मरणकण्डिका - २५ सम्यक्त्व के आराधक कौन-कौन होते हैं रोचका जन्तवो भक्त्या, स्पर्शका: प्रतिपादकाः । आगमस्य समस्तस्य, सम्यक्त्वाराधका मताः॥५२॥ अर्थ - समस्त आगमार्थ की रुचि वाले, भक्ति से स्पर्श करने वाले एवं उस अर्थ का प्रतिपादन करने वाले जीव सम्यक्त्व के आराधक माने गये हैं।॥५२॥ सम्यक्त्व आराधना रूप परिणामों के भेद एवं उनका फल उत्कृष्टा मध्यमा हीना, सम्यक्त्वाराधना त्रिधा। उत्कृष्ट-लेश्यया तत्र, सिद्धयत्युत्कृष्टया तया॥५३ ।। भवन्त्यन्ये भवा: सप्त, मध्यया मध्यलेश्यया । संख्याता वाप्यसंख्याता, हीनया हीनलेश्यया ।।५४॥ अर्थ - उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य के भेद से सम्यक्त्वाराधना तीन प्रकार की है। उत्कृष्ट शुक्ललेश्या सहित उत्कृष्ट सम्यक्त्वाराधना में मोक्ष प्राप्त करता है ।।५३ ।। मध्यम शुक्ल लेश्या के साथ मध्यम सम्यक्त्वाराधना से मात्र सात भव शेष रहते हैं और जघन्य लेश्या के साथ जघन्य सम्यक्त्वाराधना से संख्यात अथवा असंख्यात भव अवशेष रहते हैं ||५४|| उपर्युक्त तीनों आराधनाओं के स्वामी तत्र केवलिनो वर्या, मध्या सा शेषसदृशाम् । असंयतस्य सदृष्टीनं संक्लिष्ट-चेतसः ।।५५॥ अर्थ - उत्कृष्ट आराधना केवलियों के होती है, मध्यम आराधना (देशचारित्र एवं सकल चारित्र युक्त) शेष सम्यग्दृष्टियों के होती है और जघन्य सम्यक्त्व आराधना संक्लेश परिणामवाले अविरत सम्यग्दृष्टियों के होती है॥५५॥ प्रश्न - सम्यक्त्वाराधना की उत्कृष्टता कैसे होती है ? उत्तर - सम्यक्त्व के दो भेद हैं - (१) सराग सम्यक्त्व और (२) वीतराग सम्यक्त्व । राग के दो भेद हैं (१) प्रशस्त राग तथा (२) अप्रशस्त राग । अरहन्त-सिद्ध आदि पंच परमेष्ठी एवं उनके गुणों में, आगम में, चैत्य-चैत्यालय आदि में होने वाला अनुराग प्रशस्तराग है। अप्रशस्तराग के दो भेद हैं - एक तो मन को प्रिय लगने वाले इन्द्रियविषयों में होने वाला राग और दूसरा मिथ्या देवों में, उनके सिद्धान्तों में, उनके द्वारा दर्शाये गये मार्ग में एवं उनके अनुयायियों में प्रवर्तमान राग दृष्टिराग है। इनमें से प्रशस्तराग सहित जीवों का श्रद्धान सराग सम्यग्दर्शन एवं सर्व राग से रहित तथा जिनका मोह और आवरण क्षीण हो गया है उनका श्रद्धान वीतराग सम्यग्दर्शन है, उनकी आराधना उत्कृष्ट है। अर्थात् सम्पूर्ण राग एवं मल के अभाव से तथा त्रिकालवर्ती पदार्थों के यथार्थ स्वरूप को ग्रहण करने वाले केवलज्ञान से उस आराधना को उत्कृष्टता प्राप्त होती है।
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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