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________________ मरणकण्डिका - २४ प्रश्न - दोष-अवज्ञा और दोष तिरस्क्रिया किसे कहते हैं? उत्तर - मिथ्या दोष नहीं लगाना । अर्थात् अवर्णवाद नहीं करना यह 'दोषावज्ञा' का भाव है, किन्तु यदि कोई दोष लगा रहा है तो अपनी योग्यतानुसार उन दोषों का निराकरण करना 'दोष तिरस्क्रिया' का भाव है। ये दोनों गुण इस प्रकार हैं अर्हन्त - अर्हन्त भगवान में सर्वज्ञता और वीतरागता नहीं होती। जीव मात्र रागादि और अज्ञानता से युक्त होते हैं। ऐसा अवर्णवाद नहीं करना । यदि कोई ऐसे दोष लगा रहा है तो दूसरे असर्वज्ञों की प्रत्यक्ष और अनुमान प्रमाण से विरुद्धता दिखाकर सर्वज्ञता आदि की सिद्धि करना दोष-तिरस्क्रिया है। सिद्ध-सिद्ध भगवान भोजन, पान, स्त्रीभोग एवं वस्त्रालंकार आदि से रहित हैं अतः उन्हें वहाँ कोई सुख नहीं है । वे अतीन्द्रिय हैं अत: उन्हें कोई जान भी नहीं सकता, इत्यादि रूप से सिद्धों का अवर्णवाद नहीं करना। यदि कोई कह रहा है तब उन्हें युक्तिपूर्वक समझाना कि संसार में जो-जो वस्तुएँ दुख का प्रतिकार करनेवाली हैं उन्हें अज्ञानी जन सुख का साधन मान लेते हैं, यह भूल है। जैसे औषधि रोग का प्रतिकार करनेवाली है, सुख देनेवाली नहीं। इसी प्रकार अन्न, जल एवं स्त्री-भोग आदि भूखादिकी वेदना को मात्र शमन करनेवाले हैं। जिनके भूख आदि की वेदना ही नहीं है उन्हें आहार-जल से और जिनके शरीर नहीं है उन्हें वस्त्रालंकार आदि से क्या प्रयोजन है। अतीन्द्रिय होते हुए भी वे केवलज्ञान और श्रुतज्ञान द्वारा जाने जाते हैं । इस प्रकार यह सिद्धों के प्रति दोषतिरस्क्रिया करण है। चैत्य - जैसे बालिकाएँ खेल में गुड्डा-गुड्डी आदि में पुत्रादि की कल्पना कर रमती हैं उसी प्रकार अजीव मूर्तियों में अर्हन्त-सिद्ध की कल्पना प्रयोजनभूत नहीं है क्योंकि इनमें वे गुण नहीं हैं, इत्यादि रूप अवर्णवाद नहीं करना चैत्य की दोष अवज्ञा है। कोई ऐसा कर रहा हो तो उसे समझाना चाहिए कि जैसे अर्हन्त देव शुभोपयोग के निमित्त हैं वैसे ही उनके बिम्ब भी शुभोपयोग में निमित्त हैं। इसलिए यह मात्र बौद्धिक कल्पना नहीं है। इसी प्रकार अन्य सभी में लगा लेना चाहिए। असंयतसम्यग्दृष्टि भी अल्पसंसारी होता है मृतावाराधयन्नेवं, निश्चरित्रोऽपि दर्शनम्। प्रकृष्ट-शुभलेश्याको, जायते स्वल्प-संसृतिः॥५१॥ अर्थ - इस प्रकार सम्यक्त्व की आराधना करने वाला यद्यपि कोई मरण समय असंयत भी होता है, तो भी उत्कृष्ट एवं शुद्ध लेश्या वाला होने के कारण अल्प संसारी होता है।५१||
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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