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________________ परणकण्डिका - २६ जघन्य सम्यक्त्वाराधना का माहात्म्य संख्यातामण्यसंख्यातामनुसृत्याथ संसृतिम् । मृत्युकालेऽनुगच्छन्तो, जीवा: सिध्यन्ति दर्शनम् ।।५६ ।। अर्थ - जो सम्यक्त्व के साथ मरते हैं वे संख्यात अथवा असंख्यात भव संसार-परिभ्रमण कर अवश्यमेव सिद्धि प्राप्त कर लेते हैं ।।५६ ॥ प्रश्न - जिस जीव को एक बार सम्यक्त्व हो जाता है वह तो अवश्य ही मोक्ष जाता है, फिर यहाँ सम्यक्त्व का क्या माहात्म्य दर्शाया गया है ? उत्तर - सम्यक्त्व होने की अपेक्षा मृत्यु के समय तक सम्यक्त्व बना रहना अति दुर्लभ है, क्योंकि मृत्यु के समय होने वाली वेदना एवं संक्लेश के कारण सम्यक्त्व, देशसंयम या सकलसंयम प्रायः छूट जाते हैं। अतः जीवन में सम्यक्त्व हुआ, यह महत्त्वपूर्ण है। किन्तु मरणोपरान्त स्थित रहा, यह इससे भी अनन्तगुणा महत्त्वपूर्ण है। इसी प्रकार जीवनभर देशव्रत या महाव्रत का पालन किया इस महत्त्व से सम्यक्त्व, सहित वह चारित्र प्राणान्त पर्यन्त बना रहे इसका महत्त्व बहुत अधिक है। विरले ही जीव सम्यक्त्व सहित मृत्यु प्राप्त कर पाते हैं तथा सम्यक्चारित्र सहित मृत्यु प्राप्त करने वाले जीव तो अति विरले हैं। सम्यक्त्व का माहात्म्य मुहूर्त पिलो जता, जीला मुञ्चन्ति दर्शनम् । नानन्तानन्तसंख्याता, तेषामद्धा भव-स्थितिः ॥५७ ।। ॥ इति बालमरणाधिकारं समाप्तम् ॥ ____ अर्थ - जो अन्तर्मुहूर्त मात्र भी सम्यक्त्व को प्राप्त कर सम्यक्त्व से गिर जाते हैं, उन जीवों के संसार में रहने का काल संख्या से अनन्तानन्तभव प्रमाण नहीं होता है अर्थात् अर्धपुद्गल परिवर्तन से अधिक नहीं होता ||५७|| ॥ इस प्रकार बालमरण का कथन समाप्त हुआ ॥ बालबाल मरणाधिकार: सम्यक्स बिना मात्र बाह्य चारित्र से आराधक नहीं होता संयतोऽसंयतो वा यो, मिथ्यात्व-कलुषी-कृतम्। विदधात्यधम: कालं, कस्याप्याराधको न सः ॥५८ ।। अर्थ - जो मिथ्यात्व से कलुषित होकर मरण को प्राप्त होता है वह बाह्य से संयमी हो या असंयमी हो किन्तु वह किसी भी आराधना का आराधक नहीं होता। अर्थात् आराधना सम्यक्त्व के सद्भाव में ही होती है।।५८ ॥
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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