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________________ मरणकण्डिका २७ मिथ्यात्व का लक्षण और भेद जिनैरभाणि मिथ्यात्वं तत्त्वार्थानामरोचनम् । इदं सांशयिकं जन्तोर्गृहीतमगृहीतकम् ।।५९ ।। अर्थ - तत्त्वार्थों में अवि होना वियत्व है, ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है। जीव का यह मिथ्या परिणाम तीन प्रकार का होता है - सांशयिक मिथ्यात्व गृहीत मिथ्यात्व और अगृहीत मिथ्यात्व ॥ ५९ ॥ तीनों मिध्यात्वों के लक्षण तत्र जीवादि - तत्त्वानां कथितानां जिनेश्वरैः । विनिश्चय-पराचीना, दृष्टि: सांशयिको मता ॥ ६० ॥ परोपदेश- सम्पन्नं, गृहीतमभिधीयते । निसर्ग सम्भवं प्राज्ञैर्मिथ्यात्वमगृहीतकम् ॥ ६१ ॥ अर्थ - जिनेन्द्र द्वारा प्रतिपादित जीवादि तत्त्वों का निश्चय नहीं होना अर्थात् जिनेन्द्रोपदिष्ट तत्त्व सत्य है या अन्य द्वारा कहा सत्य है, इस प्रकार का संशय होना सांशयिक मिथ्यात्व है || ६० || कुगुरु आदि के उपदेश एवं संगति आदि से जो अतत्त्व श्रद्धा होती है वह गृहीत मिथ्यात्व हैं तथा जो स्वभाव से ही मिथ्यात्वरूप भाव होता है प्राज्ञ पुरुषों ने उसे अगृहीत मिथ्यात्व कहा है ॥ ६१ ॥ मिथ्यात्व का प्रभाव अहिंसादि-गुणाः सर्वे व्यर्था मिध्यात्व - भाविते । कटुकेऽलाबुनि क्षीरं, सफलं जायते कुतः ॥ ६२ ॥ अर्थ - कड़वी तुम्बड़ी या तूम्बी में रखा हुआ दूध सफल अर्थात् मधुर कैसे हो सकता है ? अर्थात् नहीं हो सकता। उसी प्रकार मिथ्यात्व युक्त जीव के अहिंसा आदि सर्व गुण या व्रत व्यर्थ हैं। अर्थात् वे सफल नहीं हो सकते ॥ ६२ ॥ सर्वे दोषाय जायन्ते, गुणा: मिथ्यात्वदूषिताः । किमौषधानि निघ्नन्ति, सविषाणि न जीवितम् ॥ ६३ ॥ अर्थ - मिथ्यात्व से दूषित हुए अहिंसा आदि सर्वगुण दोष के लिए अर्थात् दूषित हो जाते हैं। क्या विषमिश्रित औषधियाँ जीवन का नाश नहीं करती हैं? अवश्य करती हैं ॥ ६३ ॥ निर्वृतिं संयमस्थोऽपि न मिथ्यादृष्टिरश्नुते । जवनोऽप्यन्यतो यायी, किं स्वेष्टं स्थानमृच्छति ॥ ६४ ॥ अर्थ - मिध्यादृष्टि जीव संयम में स्थित होकर भी मोक्ष प्राप्त नहीं कर पाता। विपरीत दिशा में वेग से गमन करने वाला भी पथिक क्या अपने इष्ट स्थान पर पहुँच सकता है? नहीं पहुँच सकता ॥ ६४ ॥
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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