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________________ मरणकण्डिका - २८ प्रश्न - वेग से चलने वाला भी पथिक इष्ट स्थान को प्राप्त क्यों नहीं कर पाता? उत्तर - जैसे जयपुर से सम्मेदशिखर जाने की इच्छा रखने वाला पथिक यदि वेग से पश्चिम की ओर दौड़ रहा हो तो सम्मेदशिखर नहीं पहुँच सकता। उसी प्रकार मोक्ष का इष्ट और सहजमार्ग सम्यक्त्व सहित चारित्र एवं तप है, उस सम्यक्त्व से रहित मिथ्यादृष्टि जीव कितने भी उत्कृष्ट चारित्र का पालन करे तथा कठोर तप तपे किन्तु वह रत्नत्रय स्वरूप मोक्षमार्ग को और मोक्ष को प्राप्त नहीं कर सकता। तहीन मिथ्यादृष्टि दीर्घसंसारी होता है न विद्यते व्रतं शोलं, यस्य मिथ्यादृशः पुनः । न कथं दीर्घ-संसारमात्मानं विदधाति सः ।।६५ ।। अर्थ - जिस मिथ्यादृष्टि जीव के व्रत-शील आदि कुछ भी नहीं हैं वह दीर्घसंसारी कैसे नहीं होगा? वह तो अवश्य ही अपनी आत्मा को दीर्घसंसारी बना लेता है ।।६५ ।। मिथ्यात्व की कणिका भी दीर्घसंसार का कारण है अरोचित्वाज्जिनाख्यातं एकमप्यक्षरं मृतः। निमज्जति भवाम्भोधौ, सर्वस्यारोचको न किम् ॥६६॥ अर्थ - जिनोपदिष्ट आगम के एक अक्षर पर भी अश्रद्धा करने वाला व्यक्ति मरकर जब भवसमुद्र में डूब जाता है तब सम्पूर्ण आगम पर अश्रद्धा करने वाले के विषय में तो कहना ही क्या है! ॥६६॥ प्रश्न - आगम के एक अक्षर पर भी श्रद्धा न होने का विषय पूर्व में भी कहा जा चुका है, उसे पुनः क्यों कहा जा रहा है? उत्तर - श्लोक ४२ में कहा गया था कि जिसे सम्पूर्ण आगम पर तो श्रद्धा है किन्तु यदि जिनोपदिष्ट एक अक्षर पर श्रद्धा नहीं है तो वह मिथ्यावृष्टि है; यहाँ कहा जा रहा है कि एक अक्षर पर अश्रद्धा करने वाला भी जब दीर्घसंसारी होता है तब सर्वागम पर अश्रद्धा करने वाले के प्रति क्या कहा जाय ? इस प्रकार दोनों के कथन में विषयभेद है। संख्येयाः सन्त्यसंख्येया, बाल-बालमृतौ भवाः । भव्य-जन्तोरनन्ता वा, परस्य गणनातिगाः ।।६७।। अर्थ - बालबाल मरण से मरने वाले भव्य जीव के संख्यात, असंख्यात अथवा अनन्तभन्न शेष रहते हैं और अभव्य के गणनातीत अर्थात् अनन्तानन्त भव होते हैं ।।६७।। अनन्तेनापि कालेन, प्रभज्य भव-पञ्जरम् । सिद्धयन्ति भविनो भव्या, नाभव्यास्तु कदाचनम् ॥६८।। ॥ इति बालबालमरणाधिकारं समाप्तम् ।। अर्थ - भव्यजीव अनन्तकाल भवभ्रमण करके भी भव-पंजर का नाश कर मुक्त हो जाते हैं, किन्तु अभव्यजीव कदापि मोक्ष नहीं जाते। अर्थात् वे सदैव चतुर्गतियों में ही भ्रमण करते रहते हैं ।।६८ ॥ ॥ इस प्रकार बालबालमरण का वर्णन समाप्त हुआ ।।
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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