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________________ मरणकण्डिका अर्थ - दर्शन - ज्ञान - चारित्रात्मक धर्मतीर्थ की व्युच्छित्ति न हो, वह सदा प्रवर्तित होता रहे, इस हेतु 'यह गुणज्ञ है' ऐसा जान कर बालाचार्य को पूर्वाचार्य दिशाबोध अर्थात् शिक्षा देते हैं। बालाचार्य को दिशा बोध देना ही 'दिशा' कहलाती है ॥ २८३ ॥ प्रश्न - बालाचार्य कैसा हो और उसको क्या शिक्षा दी जाती है? उत्तर - बालाचार्य आत्तार्यत्व के गुणों से सम्पन्न, सहिष्णु, गंभीर, बहुज्ञानी, धर्मानुपालक, धर्मप्रेमी, वात्सल्यगुण से भरपूर, अपने गुरु का विश्वासपात्र, उनका आज्ञानुवर्ती, संघ का भारवहन करने में समर्थ और सर्व संघ की श्रद्धा का पात्र हो । पुराने आचार्य नवीनाचार्य को शिक्षा देते हैं कि यह संघ रूपी नौका रत्नत्रय रूपी रत्न समूह से भरी है, अब आप इसके खेवटिया बन रहे हो, इसका इस प्रकार अनुग्रह करना कि यह नौका संसारसमुद्र से उत्तीर्ण हो जावे। संघ को भी शिक्षा देते हैं कि अब ये आपके आचार्य हैं, यही अब आपके मान्य हैं, इनके आज्ञानुवर्ती बन कर ही आप सबको अपने प्रयोजन की सिद्धि करनी है। अनुशासित रहते हुए ही आप सबको धर्म की एवं अपनी-अपनी आत्मा की उन्नति करना है। यदि मैं अपनी योग्यता के सदृश ही इन नवीनाचार्य की स्थापना किये बिना ही संघ को छोड़कर सल्लेखना हेतु चला जाऊँ, तो इस सम्पूर्ण संघ के रत्नत्रय धर्म का नाश होने से धर्मतीर्थ का ही विच्छेद हो जायेगा। आप सबके धर्म के रक्षण एवं वृद्धि हेतु ही मैंने इनका स्थापन किया है, अतः आप सबको आज से इनकी आज्ञानुसार ही प्रवर्तन करना है। 'दिशा' नामक अधिकार पूर्ण हुआ ।। १२ ।। - १०६ १३. क्षमण अधिकार आचार्य द्वारा क्षमा-याचना सकलं गणमामन्त्र्य, कृत्वा गणि- निवेशनम् । स त्रिधा क्षमयत्येवं, बालन - वृद्धाकुलं गणम् ॥ २८४ ॥ अर्थ - नवीन आचार्य और सर्व संघ को बुलाकर, नूतनाचार्य को गण के मध्य स्थापित कर तथा स्वयं पृथक् होकर बालमुनि, वृद्धमुनि आदिकों से पूर्ण ऐसे संघ से पूर्व आचार्य मन, वचन और काय से क्षमा माँगते हैं ॥ २८४ ॥ यद्दीर्घकाल संवास - ममत्व - स्नेह - रागतः । अप्रियं भणितं किंचित्तत्सर्वं क्षमयामि वः ॥ २८५ ॥ अर्थ - हे मुनिगण ! आप सबके साथ मेरा दीर्घ काल तक संवास रहा है, इस बीच मैंने ममता, स्नेह, राग या द्वेष से आपको जो अप्रिय या कटु वचन कहे हैं, उनकी मैं क्षमा माँगता हूँ ॥ २८५ ॥ आचार्य द्वारा क्षमा-याचना करने पर गण का कर्तव्य प्रणम्य पतितः सङ्घस्त्रातारं वत्सलं यतिम् । धर्माचार्यं निजं सर्व, सम्यक् क्षमयति त्रिधा ॥ २८६ ॥ इति क्षमणा-सूत्रम् ॥
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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