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________________ मरणकण्डिका - १२९ अन्य भी वस्तुओं के त्याग का निर्देश यद्यदन्यदपि द्रव्यं किञ्चिद्बन्धन - कारणम् । तत्तत्त्रिधा निराकृत्य, यतध्वं दृढ संयमाः ॥ ३४६ ।। अर्थ - (साधुओं को मात्र आर्यिकाओं के संसर्ग से ही दूर नहीं रहना चाहिए अपितु ) अन्य भी जोजो वस्तुएँ साधुओं के किंचित् भी बन्धन का कारण हैं, अर्थात् उन्हें परतन्त्र करती हैं, उन उन वस्तुओं को मन, वचन और काय से त्याग कर संयम को दृढ़ रखने का प्रयत्न करना चाहिए ॥ ३४६ ॥ भ्रष्ट मुनियों के संसर्ग-त्याग का निर्देश पार्श्वस्थासन्न - संसक्त- कुशील - मृगचारिणः । मलिनी - क्रियते शश्वत्कज्जलेनेव सङ्गतम् ॥ ३४७ ॥ अर्थ- जैसे काजल का संसर्ग नियमतः मलिन करनेवाला होता है, वैसे ही पार्श्वस्थ, आसन्न, संसक्त, कुशील और मृगचारी इन भ्रष्ट मुनियों का संसर्ग सदा ही चरित्र आदि को मलिन करनेवाला होता है ॥ ३४७ ॥ प्रश्न - पार्श्वस्थ आदि मुनियों का क्या स्वरूप है? उत्तर - पार्श्वस्थ संयम का निर्दोष स्वरूप जानते हुए भी जो निरतिचार संयम का पालन नहीं करते किन्तु संयमी या संयममार्ग के समीप रहते हैं उन्हें पार्श्वस्थ साधु कहते हैं। ये एकान्त से असंयमी नहीं होते किन्तु मिथ्यामत में रुचि रखते हैं, दोषयुक्त आहार ग्रहण करते हैं, सदा एक ही वसतिका में रहते हैं, एक ही क्षेत्र में रहते हैं, एक ही संस्तर पर सोते हैं, गृहस्थों के घर पर अपनी बैठक लगाते हैं, जिसका शोधन अशक्य है या शोधा ही नहीं गया उसे भी ग्रहण कर लेते हैं; सुई, कैंची आदि वस्तुएँ रखते हैं; सीना, धोना, रंगाना, टाँगना; आदि कार्यों में तत्पर रहते हैं, कारण न होने पर भी अपने पास क्षार चूर्ण, सुहाग चूर्ण, नमक, घी आदि पदार्थ रखते हैं तथा उपकरणों से अपनी आजीविका करते हैं परन्तु मुनियों के समीप रहते हैं उन्हें पार्श्वस्थ कहते हैं। आसन्न - ये चारित्र में सदा शिथिल रहते हैं, सुख-स्वभावी होते हैं, मूल एवं उत्तरगुणों में सदा अतिचार लगाते हैं, परलोक के विषय में निस्पृह और ऐहिक कार्यों में तत्पर रहते हैं, स्वाध्याय आदि कार्यों में उदासीन रहते हैं, पन्द्रह प्रमादों से पूर्ण रहते हैं, आत्मकल्याण के कार्यों से एवं समिति गुप्ति की भावनाओं से कोसों रहते हैं तथा रत्नत्रय की शुद्धि में उदासीन किन्तु गृहस्थ सदृश आरम्भादि करने में संलग्न रहते हैं। दूर संसक्त ये अयोग्य और अशिष्ट कार्यों में प्रवृत्त रहते हैं; चारित्र से भ्रष्ट, संघ से अलग, इन्द्रिय और कषाय जन्य दोषों से युक्त, तीनों प्रकार के गारवों में आसक्त, स्त्रीविषय में संक्लेश परिणाम वाले तथा गृहस्थों पर विशेष प्रेम रखने वाले होते हैं। ये राजा या राजनेताओं की सेवा करते हैं; मन्त्र, तन्त्र, वैद्यक एवं ज्योतिष आदि के माध्यम से अपनी आजीविका करते हैं और चारित्रप्रिय साधुओं के साथ चारित्र-प्रिय तथा चारित्रअप्रिय साधुओं की संगति प्राप्त कर चारित्र अप्रिय बनकर नट के सदृश आचरण करते हैं। कुशील - ये इन्द्रिय-चोरों से पीड़ित और कषाय रूपी श्वापदों से ग्रसित होते हैं, साधुमार्ग का त्याग कर उन्मार्ग में पलायन करते हैं, भ्रष्ट मुनि के सदोष आचरणरूप वन में उन्मार्ग में भागते हुए आहार, भय, मैथुन
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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