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________________ मरणकण्डिका - १९१ अर्थ - जैसे काँसे की झारी साफ करते हुए भी बाहर से स्वच्छ हो जाती है किन्तु भीतर हरी-नीली रहती है; वैसे ही छलपूर्वक आलोचना करनेवाला क्षपक बाह्याकार से अतिशुद्ध प्रतीत होता है किन्तु भाव शल्य युक्त होने से वह अंतरंग की शुद्धि को प्राप्त नहीं होता ॥६०८ ।। इस प्रकार बादर दोष कथन पूर्ण हुआ। ५. सूक्ष्म दोष आसने शयने स्थाने, संस्तरे गमने तथा। आर्द्र-गान-परामर्शे, गर्भिण्या बालवत्सया॥६०९।। परिविष्टेऽभवद्दोषो, यः सूक्ष्मः स निगद्यते। स्थूलं प्रच्छाद्य येनासौ, जिनवाक्य-पराङ्मुखः ।।६१०॥ अर्थ - साधु गुरु से निवेदन करता है कि हे स्वामिन्! मैंने आसन पर बैठते समय, सोते समय एवं स्थान पर खड़े होते समय पिच्छिका से मार्जन नहीं किया था, वसति में प्रवेश करते समय नि:सही और निकलते समय असही नहीं बोला था, जहाँ ओस बहुत गिरी थी ऐसे मार्ग में भी ईर्यासमिति में चित्त की एकाग्रता के बिना गमन किया था, छह आवश्यक योग्य काल में नहीं किये थे, जल से गीले शरीर आदि पदार्थों को स्पर्श किया था, सचित्त धूलि पर बैठा था, खड़ा हुआ था और सोया था, धूलि भरे पैरों से जल में प्रवेश किया था, पाँच माह से अधिक गर्भवती महिला से, गोदी के बालक को स्तनपान करा कर आई हुई महिला से तथा प्रसूति की समयशुद्धि के पूर्व ही महिला से आहार ग्रहण किया था, इस प्रकार के सूक्ष्म अर्थात् छोटे-छोटे दोष तो कहता है और बड़े-बड़े दोषों को छिपा लेता है, ऐसा क्षपक सदोष है और जिनागम से पराङ्मुख है।।६०९-६१०॥ स्थूलं सूक्ष्मं च चेद्दोषं, भाषते न गुरोः पुरः। माया-व्रीडा-मदाविष्टः, सदा दोषोऽस्ति पञ्चमः ।।६११ ।। अर्थ - जो क्षपक गुरु के समक्ष अपने व्रतों में लगे हुए सूक्ष्म एवं बादर दोषों को नहीं कहता है, उसके सदा माया, लज्जा तथा गर्व से भरा हुआ पाँचवाँ दोष होता है॥६११॥ प्रश्न - क्षपक किस अभिप्राय से बादर दोषों की आलोचना नहीं करता? उत्तर - बादर दोष न कहनेवाले किसी क्षपक का यह अभिप्राय रहता है कि यदि मैं बड़े दोष कह दूंगा तो गुरु कड़ा प्रायश्चित्त देंगे। अथवा कोई भयभीत होता है कि इतने महान् दोष सुनकर गुरु मुझे छोड़ देंगे। अथवा मेरा चारित्र निरतिचार है ऐसा गर्व करके कोई बादर दोष छिपा जाता है, अथवा मेरे इतने सूक्ष्म दोष सुनकर ही गुरु को विश्वास हो जायेगा कि यह क्षपक यथार्थत: भयभीत है, जब यह इतने छोटे-छोटे भी दोष कह रहा है तब बड़े-बड़े पाप कैसे छिपा सकता है। अथवा कोई क्षपक स्वभाव से ही कपटी रहता है वह कभी सूक्ष्म दोष कहता है, बादर दोष छिपाता है, कभी इसके विपरीत भी करता है। रसेन पीतं जतुना प्रपूर्ण, कूटं विपाके कटकं गृहीतम् । यथा तथेत्थं विहितं विधत्ते, विशोधनं तापमपारमुग्रम् ॥६१२।। इति सूक्ष्म-दोषः॥
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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