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________________ मरणकण्डिका - २४१ जैसे लकुच मुनिराज ने धर्मानुराग से चारित्र में दृढ़ रह कर अपना मार्ग प्रशस्त कर लिया उसी प्रकार प्रत्येक प्राणी को धर्मानुराग में दृढ़ रहना चाहिए। भावानुमग .. जिनेन्द्र प्रति दित तत्त्वों का स्वरूप कथंचित् स्मरण में न हो अथवा ज्ञात ही न हो तो भी जिनेन्द्र द्वारा कथित सर्व प्रमेय सत्य ही है, वह कदापि अन्यथा नहीं होता। श्रेष्ठी जिनदत्त सदृश ऐसा दृढ़ श्रद्धान होना भावानुराग है। *भावानुराग की कथा * उज्जैन के राजा धर्मपाल की रानी का नाम धर्मश्री था। धर्मश्री धर्मात्मा एवं अत्यन्त उदार प्रकृति की थी। इसी नगर में समुद्रदत्त नाम का एक सेठ रहता था। उसके प्रियंगुश्री नाम की एक सुन्दर कन्या थी । प्रियंगुश्री के मामा का लड़का नागसेन उस कन्या से विवाह करना चाहता था, किन्तु समुद्रदत्त ने अपनी कन्या का विवाह उसी नगर में रहने वाले सागरदत्त सेठ एवं सुभद्रा सेठानी से उत्पन्न नागदत्त के साथ कर दिया, जिससे नागसेन ने नागदत्त के साथ शत्रुता बाँध ली और उसे कष्ट देने का अवसर खोजने लगा। नागदत्त धर्मप्रेमी था। धर्म पर उसकी अचल श्रद्धा थी। इसके विवाह में विपुल दान दिया गया, पूजा-उत्सव किये गये एवं दीन-दुखियों को बहुत सहायता दी गई। एक दिन नागदत्त ने उपवास किया और वह भावानुराग से जिनमन्दिर में कायोत्सर्ग मुद्रा में ध्यान करने लगा। नागसेन ने अचानक उसे देख लिया । उस दुष्ट ने अपनी शत्रुता का बदला लेने के लिए एक षड्यन्त्र रचा। तत्काल अपने गले में से हार निकाल कर नागदत्त के पैरों के समीप डाल दिया और जोरजोर से हल्ला करने लगा कि यह मेरा हार चुराकर लिये जा रहा था। मैंने पीछे-पीछे दौड़कर इसे पकड़ लिया तब यह ढोंग बना कर यहाँ ध्यानस्थ हो गया है। हल्ला सुनकर लोग एकत्रित हो गये और नागदत्त को पकड़ कर राजा के दरबार में ले गये। राजा ने भी उसे मार डालने का आदेश दे दिया। नागदत्त को उसी समय वधभूमि ले जाया गया और उसकी गरदन पर तलवार का वार किया गया, किन्तु वह वार उसके गले में फूल की माला हो गया। उसी समय आकाश से पुष्पवृष्टि हुई और जय-जय, धन्य-धन्य शब्दों से आकाश गूंज उठा। इस प्रकार जैनधर्म के भावानुराग के प्रभाव को देखकर नागदत्त और धर्मपाल राजा बहुत प्रसन्न हुए। .. प्रेमानुराग - मणिचूल नामक देव को अपने मित्र सगर चक्रवर्ती से अत्यन्त प्रेम था, अत: उसने उन्हें बार-बार समझा कर भोगों से विरक्त किया था। इसी प्रकार धर्मप्रेम से धर्म में दृढ़ रहना और उस धर्मप्रेम से प्रेरित होकर अन्य जीवों को धर्म में जुटने की प्रेरणा देना प्रेमानुराग है। *प्रेमानुराग की कथा * अयोध्या के राजा सुवर्णवर्मा और उनकी रानी सुवर्णश्री के समय वहाँ सुमित्र नाम के एक प्रसिद्ध सेठ रहते थे। सेठ का जैनधर्म पर अत्यन्त प्रेम था । एक दिन सुमित्र सेठ रात्रि के समय अपने ही घर पर कायोत्सर्ग मुद्रा में ध्यान कर रहे थे। ध्यानसमय की उनकी स्थिरता एवं भावों की दृढ़ता देखकर एक देव ने उनकी परीक्षा करने हेतु सेठ की समस्त सम्पत्ति, स्त्री तथा बालक-बालिकाओं को अपने अधिकार में कर लिया। स्त्री एवं बच्चे रो-रोकर सेठ के पैरों में जा गिरे, और 'छुड़ाओ-छुड़ाओ' की हृदयभेदी दीन प्रार्थना करने लगे। जो न होने का था, वह वहाँ कुछ ही समय में सब हो गया, किन्तु सेठ ने अपना ध्यान अधूरा नहीं छोड़ा, वे वैसे
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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