SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 81
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मरणकण्डिका -५७ अर्थ - जिसके द्वारा मुक्ति साध्य की जाती है, जिसके द्वारा श्रमणता वृद्धिंगत होती है, जिसके द्वारा आचार्य की आराधना होती है और जिसके द्वारा संघ प्रसन्न किया जाता है, वह विनय है। अर्थात् विनयवान जीव को ये उपलब्धियाँ सहज प्राप्त हो जाती हैं ॥१३३ ।। ऐसी विनय के बिना जो मोक्षसुख प्राप्त करना चाहता है, वह मानों जहाज के बिना ही समुद्र को पार करना चाहता है।।१३४।। विनय के माध्यम से उत्पन्न होने वाले अन्य गुण कल्पाचार-परिज्ञानं, दीपनं मानभञ्जनम्। आत्मशुद्धिरवैचित्त्यं, मैत्री मार्दवमार्जवम् ।।१३५ ।। अर्थ - विनयवान का कल्पशास्त्र और आचारशास्त्र का परिज्ञान वृद्धिंगत हो जाता है, मान कषाय नष्ट हो जाती है; आत्मशुद्धि, चित्त में स्थिरता, सब के प्रति मैत्रीभाव, मार्दवभाव और आर्जव भान विकसित हो जाते हैं॥१३५॥ प्रश्न - कल्पशास्त्र और आचारशास्त्र किसे कहते हैं और इनका ज्ञान हो जाने से क्या लाभ होता है? उत्तर - जो शास्त्र अपराध के अनुरूप दण्ड विधान की संयोजना का प्रकाशन करता है उसे कल्पशास्त्र कहते हैं। विनयवान साधुओं को इस शास्त्र का तलस्पर्शी ज्ञान हो जाता है। कल्पशास्त्र अविनयी साधु के लिए दण्डविधान का निर्धारण करता है, अत: वह विनय का हो निरूपण करता है। उसके भय से साधुजन विनय करने में तत्पर रहते हैं, यह इस शास्त्र का ही उपकार है। रत्नत्रय के आचरण का कथन करने में तत्पर होने से द्वादशांग के प्रथम अंग को आचारांग कहते हैं। अर्थात् जिसमें मुनिजनों के आचरण का कथन हो वह आचार शास्त्र है। इसका अभिप्राय यह है कि कायिक और वाचिक विनय करने से आचारांग में कहे गये क्रम का प्रकाशन होता है। यही कारण है कि विनय करने से श्रुत की और चारित्र की अर्थात् दोनों की आराधना हो जाती है। भक्तिः प्रह्लादनं कीर्तिलाघवं गुरु-गौरवम् । जिनेन्द्राज्ञा गुण-श्रद्धा, गुणा वैनयिका मताः॥१३६ ॥ अर्थ - देव, शास्त्र और गुरु में प्रगाढ़ भक्ति, प्रह्लाद अर्थात् हार्दिक प्रसन्नता, यश, लाघव, गुरु के गौरव की वृद्धि, जिनेन्द्राज्ञा का पालन और गुणसमूह में श्रद्धा भाव, ये सब गुण विनय करने वाले को स्वयमेव प्राप्त हो जाते हैं॥१३६॥ प्रश्न - प्रह्लाद गुण और लाघव गुण का क्या अभिप्राय है? उत्तर - प्रकृष्ट गुण को प्रह्लाद कहते हैं अर्थात् जिनकी विनय की जाती है उनका मन प्रफुल्लित हो जाता है अर्थात् उन्हें बहुत सुख होता है। इस प्रकार विनययोग्य को सुखी करना यह विनय का प्रह्लाद गुण है। लाघव का अर्थ है लघु या भार रहित । विनीत साधु अपना भार गुरु को सौंप कर हल्का या लघु हो जाता है। अर्थात् उसका मन चिन्तामुक्त हो जाता है क्योंकि आचार्यदेव स्वयं उसकी चिन्ता करने लगते हैं; इसकारण उसके मन पर कोई भार नहीं रहता।
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy