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________________ मरणकण्डिका - ४३ अर्थ - अपूर्व - अपूर्व अर्थ से अर्थात् श्रेष्ठ गूढ़ अर्थ से भरे हुए जिनागम का जैसे-जैसे अभ्यास करता है, वैसे-वैसे मुनिधर्म में विशिष्ट अनुराग वृद्धिंगत होता जाता है ।। १०६ ।। प्रश्न- जिनवचन से संवेग और संवेग से आत्महित कैसे होता है? उत्तर - जैसे आम्रफल स्वादिष्ट रस से भरा रहता है वैसे ही जिनवचन रूपी शब्दात्मक श्रुत में अर्थरूपी सर्वोत्कृष्ट रस भरा हुआ है। अतः जिनवचन का अध्ययन करने से अपूर्व- अपूर्व अर्थात् नये-नये अर्थों का तथा प्रमेयों का बोध हो जाता है। आत्मा सहित अन्य पदार्थों के यथार्थ बोध से आत्मा में संवेग अर्थात् संसार से भय उत्पन्न हो जाता है जिससे धार्मिक श्रद्धा दृढ़ हो जाती है। यह श्रद्धा मन को निरन्तर प्रफुल्लित रखती है तथा यही धार्मिक श्रद्धा - जन्य प्रफुल्लता आत्महित की साधक है। स्वाध्याय से लय में निष्कम्पता आती है। शुद्धया निःकम्पनो भूत्वा, हेयादेय- विचक्षणः । रत्नत्रयात्मके मार्गे, यावज्जीवं प्रवर्तते ॥ १०७ ॥ अर्थ - शास्त्राभ्यास द्वारा जिन्हें हेय-आदेय अर्थात् हानि-ल -लाभ को जानने की विचक्षणता प्राप्त हो गई है वे मुनिराज शुद्धि के बल से रत्नत्रयमार्ग में निष्कम्पता पूर्वक जीवन पर्यन्त प्रवर्तन करते हैं ॥ १०७॥ रत्नत्रय मार्ग में निष्कम्पता कैसे आतो है? प्रश्न - उत्तर - शास्त्राभ्यास के बिना गुण-दोषों का ज्ञान नहीं होता, तब बिना जाने गुणों को कैसे ग्रहण किया जा सकता है और दोषों को कैसे छोड़ा जा सकता है। स्वाध्याय के माध्यम से रत्नत्रय की हानि एवं वृद्धि का परिज्ञान कर मुनिजनों के द्वारा हानिरूप कारणों का त्याग और वृद्धिरूप कारणों का संचय तथा अतिचारों का परिहार और दर्शन, ज्ञान, चारित्र की विनय करने से रत्नत्रय विशुद्ध होता है, इस विशुद्धि की वृद्धि में उद्यमशील साधु ही रत्नत्रय में निश्चलतापूर्वक प्रवर्तन कर सकते हैं। सम्यग्दर्शनादि की हानि - वृद्धि इस प्रकार होती है-आगमाभ्यास से सम्यग्दर्शन के निःशंकितादि आठों गुण बढ़ते हैं और अभ्यास के अभाव में शंकादि दोष बढ़ते हैं जिससे उसकी हानि होती है। अर्थशुद्धि, व्यंजन शुद्धि एवं उभयशुद्धि आदि के भेद से ज्ञानविनय आठ प्रकार की है। इस विनय के आश्रय से श्रुतज्ञान में मन एकाग्र हो जाता है; यह सम्यग्ज्ञान की वृद्धि है। मन एकाग्र न होने से जीवादि पदार्थों का समीचीन ज्ञान नहीं हो पाता अतः यह उसकी हानि है। सतत ज्ञानाभ्यास के बिना पूर्वकालीन ज्ञान भी विस्मृत या शंकास्पद हो जाता है, यह भी सम्यग्ज्ञान की हानि ही है। संयम की भावना से तप वृद्धिंगत होता है, तप करने में अपनी शक्ति न छिपाना, ज्ञानाभ्यास में सदा तत्पर रहना, ऐहिक कार्यों में सदा अनासक्त रहना, ये सब तपवृद्धि के कारण हैं और इनसे विपरीत होने वाली साधु की क्रियाएँ तप की हानि करती हैं। पापक्रियाओं से विरक्त होना संयम हैं तथा मनोयोग, वचनयोग और काययोग की अशुभ प्रवृत्ति का त्याग करना चारित्र है। इनमें अहिंसादि पाँचों व्रतों में से प्रत्येक की पाँच-पाँच भावनाएँ हैं, इन पच्चीस भावनाओं
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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