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________________ मरणकण्डिका - ४४ के अभ्यास से चारित्र की वृद्धि होती है और इन भावनाओं की उपेक्षा करने से चारित्र की हानि होती है। इस प्रकार सम्यग्दर्शनादि के वृद्धिंगत होने पर ही रत्नत्रय में निश्चलतापूर्वक प्रवर्तन हो सकता है अतः आगमाभ्यास आवश्यक है। अर्थ सर्वज्ञ प्रणीत बाह्य और अभ्यन्तर भेद सहित बारह प्रकार के तपों में स्वाध्याय के सदृश तप पूर्व में था, न वर्तमान में है और न भविष्य में कभी होगा। अर्थात् तीनों कालों में स्वाध्याय ही सर्व श्रेष्ठ तप है । । १०८ ।। - जिनवचन की शिक्षा तप है तपस्यभ्यन्तरे बाह्ये, स्थिते द्वादशधा तपः । स्वाध्यायेन समं नास्ति, न भूतं न भविष्यति ।। १०८ ।। प्रश्न बाह्य और अभ्यन्तर तप किसे कहते हैं ? उत्तर - जो लोग समीचीन मार्ग से बाह्य हैं, वे भी जिन्हें जानते हैं अथवा बाह्य अर्थात् गृहस्थों द्वारा भी जिनका आचरण किया जाता है अथवा जो बाह्य जनों के दृष्टिगोचर होता है ऐसे अनशन, ऊनोदर आदि को कहते हैं और जो सन्मार्ग अर्थात् रत्नत्रय स्वरूप मुक्तिमार्ग को जानते हैं ऐसे मुनिजन जिनका आचरण करते हैं ऐसे विनय, स्वाध्याय एवं प्रायश्चित्त आदि को अभ्यन्तर तप कहते हैं । अन्य तपों की अपेक्षा स्वाध्याय तप में अतिशयता हैं बह्वीभिर्भवकोटिभिर्यदज्ञानेन हन्यते । 1 हन्ति ज्ञानी त्रिभिर्गुप्तस्तत्कर्मान्तर्मुहूर्ततः ।। १०९ । अर्थ - सम्यग्ज्ञान से रहित अज्ञानी जिस कर्म को करोड़ भवों में नष्ट करता है, उस कर्म को सम्यग्ज्ञानी तीन गुप्तियों से युक्त होता हुआ अन्तर्मुहूर्त मात्र में क्षय कर देता है || १०९ || षष्ठाष्टमादिभिः शुद्धिरज्ञानस्यास्ति योगिनः । ज्ञानिनो वल्भमानस्य, प्रोक्ता बहुगुणास्ततः ।। ११० ।। अर्थ - सम्यग्ज्ञान रहित साधु षष्ठोपवास अर्थात् बेला एवं अष्टमोपवास अर्थात् तेला आदि करके जितनी विशुद्धि प्राप्त करता है उससे बहुत गुणी विशुद्धि आहार ग्रहण करते हुए ज्ञानी के होती है ॥ ११० ॥ प्रश्न - कोटि भवों में जो कर्मक्षय हो वह अन्तर्मुहूर्त में हो जाय और बेला-तेला उपवास करने वाले की विशुद्धि से आहार करने वाली की विशुद्धि बहुगुणी हो, ये दोनों बातें कैसे सम्भव होती हैं ? उत्तर - सम्यग्ज्ञान रहित जीव को कर्मक्षय में करोड़ों भव लगते हैं। उसका कारण है कि उसके पास समीचीन श्रद्धा और समीचीन चारित्र भी नहीं है, किन्तु उसी कर्मपटल को अन्तर्मुहूर्त में नाश करने वाला रत्नत्रयधारी है और तीन गुप्तियों का भी स्वामी है। तात्पर्य यह है कि सम्यग्ज्ञानी के स्वाध्याय तप में जो सामर्थ्य है वह उसके अन्य तपों में नहीं है। दूसरी बात का भी यही कारण है कि सम्यग्ज्ञान रहित अनशन तप करने वाले तपस्वी की आत्मा
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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