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________________ मरणकण्डिका - ४५ मिथ्यात्व मल से दूषित होने के कारण उस विशुद्धि से विशुद्ध हो ही नहीं सकती क्योंकि उसका तप समीचीन • श्रद्धा और समीचीन ज्ञान पर अधिष्ठित नहीं है किन्तु आहार करनेवाले स्वाध्यायरत योगी को सम्यग्दर्शन के साथ सम्यग्ज्ञान का भी साहाय्य प्राप्त है अतः उसका अल्प तप भी उसकी आत्मा को उत्तरोत्तर अधिकाधिक विशुद्ध करता जाता है। उसके कर्मबन्ध अल्प होता है और निर्जरा उत्तरोत्तर असंख्यात गुणित क्रम से होती है। रत्नत्रय की निश्चलता का कारण स्वाध्यायेन यतः सर्वा, भाविताः सन्ति गुप्तयः । भवत्यराधना मृत्यौ, गुप्तीनां भावने सति ॥ १११ ॥ अर्थ- स्वाध्याय से सर्व गुप्तियाँ भावित होती हैं और गुमियों की भावना होने से मरण समय में भी रत्नत्रयरूप परिणामों की आराधना में तत्पर रहता है ॥ १११ ॥ प्रश्न स्वाध्यान में की निश्चलता प्राप्त कर पाता है, इसका अभिप्राय या कारण क्या है ? उत्तर- अनन्तकाल से मन, वचन, काय रूप इन तीन अशुभ योगों का ही अभ्यास इस जीव ने किया है और कर्मोदय ने सदा इसे इस कार्य में बल प्रदान किया है अतः इनसे अलग होना या छुटकारा पाना अत्यन्त कठिन कार्य है। मात्र स्वाध्याय की भावना ही इनसे छुटकारा दिलाने में समर्थ है, कारण कि कर्मों को लाने में जो समर्थ कारण मन, वचन, काय का व्यापार है वह व्यापार स्वाध्यायरत साधु का स्वभावतः बन्द हो जाता है। अर्थात् तीनों गुप्तियाँ भावित हो जाती हैं, तब तीनों योगों का निरोध करने वाला योगी मरणपर्यन्त रत्नत्रय में ही निश्चल रहता है। पवन के अभाव में जैसे समुद्र- निस्तरंग रहता है वैसे अशुभ योगों की चंचलता के अभाव में आत्मा रत्नत्रय में निश्चल रहती है। स्वाध्याय से धर्मोपदेश की पात्रता प्राप्त होती है जिनाज्ञा स्व- परोतारा, भक्तिर्वात्सल्य वर्धनी । तीर्थ प्रवर्तिका साधोर्ज्ञानतः परदेशना ।। ११२ ।। ॥ इति शिक्षा-सूत्रम् ॥ अर्थ- स्वाध्याय रत साधु जिनाज्ञापालन, स्व-पर उद्धार, भक्ति, वात्सल्य वृद्धि, तीर्थप्रवर्तन और परदेशना अर्थात् धर्मोपदेश रूप गुणगणों को प्राप्त कर लेते हैं ।। ११२ ।। प्रश्न - धर्मोपदेश से उत्पन्न होने वाले इन गुणों के क्या लक्षण हैं? उत्तर- जिनाशा- 'जिनमत में प्रीति रखने वाले मोक्षेच्छु साधुओं को नियम से धर्मोपदेश करना चाहिए' ऐसी जिनेन्द्रदेव की आज्ञा है। धर्मोपदेशक साधु में इस आज्ञागुण का द्योतन होता है। स्व-पर- उद्धार - धर्मोपदेश देने से जिनेन्द्र की आज्ञा का पालन होता है जिससे उसका स्वयं का उद्धार होता है और जिनवचन सुन कर अन्य साधु एवं श्रावकजन हितमार्ग का बोध प्राप्त करते हैं, अतः पर का भी उपकार होता हैं। भक्ति - जिनवचन का अभ्यास करके उपदेश देनेवाले मुनिराजों का जिनमत में अनुराग प्रगट होता है, क्योंकि गुणों में अनुराग होना ही भक्ति का लक्षण है।
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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