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________________ मरणकण्डिका - ३८० अर्थ - जैसे श्मशान में मुर्दे का भक्षण कर क्या व्याघ्र तृप्ति का या सुख का अनुभव नहीं करता ? करता ही है; वैसे ही नष्टबुद्धि कामी पुरुष स्त्री के दुर्गन्धित शरीर के आलिंगन में सुख मानते हैं ॥१३२०॥ मध्यं दिनार्क-तप्तस्य, यावच्छाया-व्यतिक्रमे। वेगतो धावत: सौख्यं, तावद्-भोग-निषेवणे ॥१३२१॥ अर्थ - जैसे ग्रीष्म ऋतु में अत्यन्त वेग से दौड़ते हुए और मध्यकाल के सूर्य की किरणों से सन्तप्त मनुष्य को मार्ग में स्थित एक वृक्ष की छाया को लांघते समय धूप की किंचित् कमी होने से जो थोड़ा-सा सुख होता है वैसा ही अत्यल्प सुख भोगों के सेवन में है।।१३२१ ।। स्रोतसा अपमानस्थ, पादाशा-सुखं भवेत् । पादाङ्गुष्ठे क्षिति-स्पर्श, तावद्-भोग-सुखं स्फुटम् ॥१३२२ ॥ अर्थ - अथवा नदीप्रवाह के द्वारा बहा कर ले जाते हुए मनुष्य का भूमि से पैर के अंगूठे का स्पर्श हो जाने पर जैसा आशा सम्बन्धी अल्प सुख होता है कि मैं तट पर लग जाऊँगा' वैसा ही भोग सम्बन्धी सुख अति अल्प होता है, ऐसा स्पष्ट रूप से समझना चाहिए ||१३२२॥ येऽनन्तशोऽङ्गिना भुक्ता, भोगाः सर्वे त्रिकालगाः। को नाम तेषु भोगेषु, भुक्त-त्यक्तेषु विस्मयः ॥१३२३।। अर्थ - संसारी प्राणी द्वारा तीन काल सम्बन्धी सम्पूर्ण भोग अनन्तबार भोगे जा चुके हैं अत: भोग कर छोड़े गये उन उच्छिष्ट सदृश भोगों में क्या उत्सुकता ? या क्या आश्चर्य ? अर्थात् जिनका परिचय अनन्तों बार हो चुका है और जो उच्छिष्ट हैं उन पदार्थों की प्राप्ति में आश्चर्य नहीं करना चाहिए ||१३२३ ।। यथा-यथा निषेव्यन्ते, भोगास्तृष्णा तथा-तथा। भोगा हि वर्धयन्ते तामिन्धनानीव पावकम् ॥१३२४॥ अर्थ - जैसे ईंधन डालते रहने से अग्नि वृद्धिंगत होती रहती है, वैसे ही जैसे-जैसे भोग भोगे जाते हैं, उनकी तृष्णा वृद्धिंगत होती जाती है॥१३२४ ।। भुज्यमानैश्चिरं भोगैस्तृप्तिास्ति शरीरिणाम्। उत्पूरमुद्धतं चित्तं, विना तृप्त्यात्र जायते ॥१३२५ ।। अर्थ - संसारी जीवों को चिरकाल तक भोग भोग लेने पर भी तृप्ति नहीं होती और तृप्ति न होने से चित्त उन भोगों के लिए सदा अत्यन्त उत्कंठित ही रहता है ।।१३२५ ।। नदी-जलैरिवाम्भोधिर्विभावसुरिवेन्धनैः। सेव्यमानैरयं भोगैर्न जीवो जातु तृप्यति ॥१३२६ ।। अर्थ - जैसे हजारों नदियों से भी समुद्र तृप्त नहीं होता और ईंधन से अग्नि की तृप्ति नहीं होती, वैसे ही भोगे हुए या भोगते हुए भी यह जीव कभी भोगों से तृप्त नहीं होता ॥१३२६ ।।
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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