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________________ मरणकण्डिका - ३८१ भोगेषु भोगि-गीर्वाण-बल-केशव-चक्रिणः । न तृप्तिं ये नु गच्छन्ति, तत्र ऋष्यन्ति ति परे ।।१३२५० ।। अर्थ - स्वर्गवासी देव एवं इन्द्र, बलभद्र, अर्धचक्री और चक्रवती भी भोगों से तृप्ति को प्राप्त नहीं होते तब साधारण मनुष्य इन भोगों से कैसे तृप्त हो सकता है? ।।१३२७ ।। प्रश्न - इन्द्रादि से साधारण मनुष्य की तुलना करने का क्या अभिप्राय है ? उत्तर - इसका अभिप्राय यह है कि सर्वार्थसिद्धि के देव तैंतीस-सागर पर्यन्त, भोगभूमिज मनुष्य तीन पल्य पर्यन्त, छ्यानवे हजार रानियों का एक साथ भोग करने की शक्ति युक्त तथा नव निधियों से प्राप्त विपुल भोग दीर्घकाल पर्यन्त भोगते हुए भी जब चक्रवर्ती तृप्ति को प्राप्त नहीं होते तन अल्प बल, अल्पायु और अल्प भोगसामग्री वाले साधारण मनुष्य कैसे तृप्त हो सकते हैं ? अपितु कभी तृप्त नहीं हो सकते । व्याकुली भवति प्राणी, ग्रहणे रक्षणेऽर्जने । नाशे सम्पदि तत्तस्य, भोगायोत्कण्ठितश्चलः ।।१३२८॥ अर्थ - सम्पत्ति होते हुए भी मनुष्य अप्राप्य द्रव्य के अर्जन में, अर्जित-द्रव्य के रक्षण में तथा दूसरों को दी हुई सम्पत्ति को उनसे ग्रहण करने में सदैव व्याकुल रहता है। इसी प्रकार प्राप्त भोगसामग्री को भोगने में एवं भोग-सम्पदा नाश हो जाने पर भी मनुष्य का चित्त व्याकुल रहता है और अन्य-अन्य भोगों के लिए उत्कंठित रहता है ।।१३२८ ।। व्याकुलस्य सुखं नास्ति, कुतः प्रीतिर्विना सुखम् । कुतो रतिविना प्रीतिमुत्कण्ठां वहतः परम् ॥१३२९ ।। अर्थ - जिसका चित्त व्याकुल रहता है उसे सुख प्राप्त नहीं होता, सुख के बिना प्रीति नहीं होती और प्रीति अर्थात् तृप्ति के बिना रति नहीं होती। इस प्रकार कामुक एवं व्याकुल चित्त मनुष्य को अतिशयरूप से मात्र उत्कण्ठा ही रहती है ।।१३२९॥ निःसार भोगों का त्याग कर देने वाले साधु को यदि रमने की इच्छा हो तो वह कहाँ रमे ? निरस्त-दारादि-विपक्ष-सङ्गती, रिरंसुरध्यात्म-सुखे निरन्तरम् । रतिं विधत्तां शिव-शर्म-कारणे, तया समा नास्ति जगत्त्रये रतिः॥१३३० ।। अर्थ - जो सत्यार्थ सुख का विपक्षी है ऐसे स्त्री, पुत्र एवं धनादि का त्याग कर देने वाले साधुओं को यदि रमण करने की इच्छा है तो उन्हें निरन्तर मोक्षसुख के कारणभूत अध्यात्म अर्थात् आत्मोत्थ सुख में रति करनी चाहिए, क्योंकि तीन लोक में इस रति के सदृश सर्वोत्कृष्ट और कोई रति नहीं है ॥१३३०॥ स्वस्थाध्यात्म-रतिजन्तोर्नेव भोगरतिः पुनः। भोगरत्यास्ति निर्मुक्तो, परया न कदाचन ॥१३३१॥ ___ अर्थ - अपने स्वस्थ अर्थात् आत्मस्वभावी अध्यात्म में जीवों को जैसी रति होती है वैसी रति भोगों में नहीं होती, क्योंकि भोगरति से तो निर्मुक्त हो जाता है किन्तु अध्यात्म रति से कभी निर्मुक्त नहीं होता ॥१३३१ ।।
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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