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________________ मरणकण्डिका - ३७९ नग्नो बाल इवास्वस्थः, स्वनन्नव्यक्त-जल्पनः । श्वासाकुलो जनो नार्यां, कीदृशीं श्रयते रतिम् ।।१३१५ ।। अर्थ - नारी के साथ रमण करने वाला पुरुष बालक सदृश नग्न, अस्वस्थ, सीत्कार करता हुआ, अव्यक्त शब्द करता हुआ तथा जोर जोर से श्वास लेने के कारण आकुलित होता हुआ किस प्रकार की रति को प्राप्त करता है ? महत् आश्चर्य है ।।१३१५॥ ___ आरटन्ती भराक्रान्तां, दीनामुष्ट्रीमिषाकुलाम् । किं सुखं लभते मूढः, सेवमानो नितम्बिनीम् ॥१३१६ ॥ अर्थ - शब्द करती हुई, भार से आक्रान्त एवं दीन ऐसी ऊँटनी के सदृश व्याकुल हुई स्त्री का सेवन करता हुआ मूढ पुरुष क्या सुख पाता है? ||१३१६।। विभीमरूपाः कुटिल-स्वभावा, भोगा भुजङ्गा इव रन्ध्र-संस्था: 1 ये स्मर्यमाणा जनयन्ति दुःखं, ते सेविता: कस्य भवन्ति शान्त्यै ॥१३१७ ।। अर्थ - जैसे सर्प भयावह होते हैं, टेढ़ी चाल चलने से कुटिल स्वभावी होते हैं, रन्ध्रसंस्था अर्थात् बिल में रहते हैं तथा स्मरण मात्र आ जाने पर दुख उत्पन्न कर देते हैं, वैसे ही जो इह-परलोक में दुखदायी होने से भयावह हैं, कषाय तथा मायाचारादि से युक्त होने के कारण कुटिल स्वभावी हैं, स्त्री की योनिरूपी बिल में रहते हैं और स्मरण आ जाने मात्र से व्याकुलता उत्पन्न कर देते हैं, सेवन किये गये ऐसे भोग किसकी शान्ति के लिए हो सकते हैं ? किसी की शान्ति के लिए नहीं ।।१३१७ ।। प्रदर्श्य सौख्यं वितरन्ति दुःखं, विश्वासमुत्पाद्य च वञ्चयन्ति । ये पीडयन्ते परिचर्यमाणास्ते सन्ति भोगा: परमा द्विषन्तः॥१३१८ ॥ अर्थ - जो सुख का आभास करा कर या दिखा कर दुख देते हैं, विश्वास उत्पन्न करा कर अर्थात् हितचिन्तक जैसे बन कर ठग लेते हैं और परिचर्या किये जाने पर अर्थात् परिचय में आ जाने पर पीड़ा पहुँचाते हैं, ऐसे ये भोग यथार्थतः महान् शत्रु ही हैं, ऐसी दृढ़ श्रद्धा रखनी चाहिए ।।१३१८॥ भोगों में सुख न होने पर भी दुर्बुद्धियों को उनमें सुख का बोध होता है कामिभिर्भोग-सेवायामसत्यं दृश्यते सुखम् । कुरङ्गैर्मृगतृष्णायां, पानीयं तृषितैरिव ।।१३१९ ।। अर्थ - जैसे प्यास से व्याकुल हरिणों को मृगतृष्णा में जल दिखाई देता है किन्तु वह यथार्थतः जल नहीं होता, वैसे ही राग के प्यासे कामी पुरुषों को भोग भोगते समय सुख का अनुभव होता है किन्तु वह यथार्थ सुख नहीं है||१३१९॥ कुथित-स्त्री-तनु-स्पर्श, नष्ट-बुद्धिः सुखायते। अवगुह्य शवं व्याघ्रः, श्मशाने किं न तृप्यति ।।१३२० ।।
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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