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________________ मरणकण्डिका - १३३ काट कर छोटा होने के कारण तत्काल छिप जाता है और वहीं पड़े हुए बड़े सर्प को लोग मार डालते हैं। वे समझते हैं कि इसी सर्प ने काटा है। इसी प्रकार अपराध तो करता है दुर्जन किन्तु उसकी संगति में आया हुआ सज्जन पुरुष उस अपराध का दण्ड भोगता है। असंयतेन चारित्रं, संयतस्यापि लुप्यते। सङ्गतेन समृद्धस्य, सर्वस्वमिव यस्युमा ।।३५८ ।। अर्थ - जैसे सम्पर्क में आये हुए चोर के द्वारा समृद्धिशालियों का सर्व धन हरण कर लिया जाता है, वैसे ही असंयमी पुरुष के सम्पर्क से संयमीजन का भी चारित्र लुप्त हो जाता है।।३५८ ॥ दुष्टानां रमते मध्ये, दुष्ट-सङ्गेन वासितः। विदूरीकृत-वैराग्यो, न शिष्टानां कदाचन ॥३५९॥ अर्थ - जिसने अपना वैराग्य भाव छोड़ दिया है ऐसा व्यक्ति दुष्टों की संगति से वासित हुआ दुष्टों की गोष्ठी में ही रमता है। दुष्टों की संगति में फंसा हुआ व्यक्ति शिष्टों की गोष्ठी में कभी नहीं रमता ॥३५९॥ सज्जनों की संगति के गुण दुष्टोऽपि मुञ्चते दोषं, स्वकीयं शिष्ट-सङ्गतः। किं मेरुमाश्रितः काको, न धत्ते कनकच्छविम् ॥३६०॥ अर्थ - सज्जनों की संगति से दुष्ट पुरुष भी अपने दोष छोड़ देता है। क्या, सुमेरु पर्वत का आश्रय लेनेवाला काक स्वर्ण की कान्ति को प्राप्त नहीं करता ? अवश्यमेव करता है॥३६० ।। पूजां सज्जन-सङ्गेन, दुर्जनोऽपि प्रपद्यते। देवशेषा विगन्धापि, क्रियते किं न मस्तके ।।३६१ ।। अर्थ - सज्जन की संगति से दुर्जन भी पूजा अर्थात् आदर को प्राप्त कर लेता है। क्या, सुगन्धरहित भी फूल "यह देव का आशीर्वाद है" ऐसा मान कर सिर पर धारण नहीं किया जाता? अवश्य किया जाता है ||३६शा वैराग्यशील संयमी साधुओं की संगति से लाभ कातरोऽप्रिय-धर्माऽपि, व्यक्तं संविप्र-मध्यगः। भी-प्रपा भावनामानैश्चारित्रे यतते यति: ।।३६२ ।। अर्थ - जिसे धर्म से प्रेम नहीं है तथा जो संयमजन्य दुख सहन करने में कायर है वह साधु भी वैराग्यवान और संसारभीरु साधुओं के मध्य में रहने से भय, लज्जा, भावना एवं मान आदि से चारित्र पालने के लिए व्यक्त रूप से प्रयत्नशील हो जाता है।३६२ ।। प्रश्न - जिसे धर्म से प्रेम नहीं है और जो कायर है उसे साधु बनने से क्या लाभ है? उत्तर - जिसे रत्नत्रय में अभ्यन्तर से रुचि नहीं है किन्तु ख्याति-पूजा की ओर विशेष आकर्षित रहता
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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