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________________ मरणकण्डिका - ४३२ मनसा वपुषा वचसा भगवन्ननुशासनमेतदनन्य-मतिः। तव यो विदधाति सदा, विधिना शिवतातिपति स मुक्त ममः ॥९५६८॥ इति अनुशिष्टिः॥ अर्थ - हे प्रभो ! आपके इस अनुशासन अर्थात् उपदेश को जो भव्य-पुरुष अनन्य मति अर्थात् एकाग्रचित्त होकर मन, वचन और काय से विधिपूर्वक सदा धारण करता है वह पुरुष कर्ममल से मुक्त होता हुआ मोक्षसुख की परम्परा को प्राप्त होता है ।।१५६८॥ इस प्रकार अनुशिष्टि नामक महाधिकार पूर्ण हुआ॥३३॥ विशेषार्थ - इस मरणकण्डिका ग्रन्थ में समाधिमरण की सिद्धि हेतु अर्ह, लिंग एवं शिक्षादि चालीस अधिकार हैं। उनमें से अनुशिष्टि नामक यह ३३ वाँ अधिकार अति विस्तृत है। इस अधिकार में निर्यापकाचार्य का क्षपक के लिए जो उपदेश दिया गया और क्षपक ने जिस विनम्रता से उसे ग्रहण किया है तथा उसमें दृढ़ रहने की जो प्रतिज्ञा की है वह सब हृदयग्राही है। इस अधिकार के प्रारम्भ में क्षपक को जो निर्देश दिया गया था कि आहार और उपधि को निर्दोष ग्रहण करना, शल्य त्याग, मिथ्यात्व वमन, सम्यक्त्व की भावना, भक्ति, पंच नमस्कार में प्रीति, ज्ञानाभ्यास की प्रेरणा, महाव्रतों का विस्तृत विवेचन, कषायनिग्रह, इन्द्रियविजय एवं निद्राविजय तथा अन्त में तपस्या का माहात्म्य, उसके गुण एवं उसके फल का निरूपण करते हुए यह अनुशिष्टि नामक तैंतीसवाँ अधिकार पूर्ण किया गया है। सारणादि अधिकार आचार्य की शिक्षा तप में और तप निर्जरा में कारण है निर्जरां कुरुते गु:, कुर्वाण: क्षपकस्तपः। दत्ते निर्यापकः शिक्षामनिर्विण्णः प्रियम्वदः ।।१५६९॥ अर्थ - इस प्रकार हित एवं प्रियवचन बोलने वाले निर्यापकाचार्य बिना विरक्त हुए अथवा बिना विश्राम के क्षपक को शिक्षा देते हैं, जिससे वह विशिष्ट तप करता हुआ पूर्वबद्ध कर्मों की एकदेश अथवा उनके बहुभाग की निर्जरा करता है ।।१५६९॥ पानक के भेद एवं उनका त्याग कटु-तिक्त-कषायाम्ल-लवण-स्वादुभी-रसैः। पानकं मध्यमैर्युक्तं, तस्मै क्षीणाय दीयते ॥१५७० ।। अर्थ - समाधिमरण में उद्यत क्षीणकाय क्षपक के लिए कटुक, तीखा, कषायला, नमकीन, स्वादु एवं मीठा इन रसों में से मध्यम रसों का पानक देना चाहिए ।।१५७० ।।
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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