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________________ मरणकण्डिका - १७५ अर्थ- अथवा अपने दोों को प्रगट होते देख कर मानरूपी पिशाच से आकुलित होता हुआ वह क्षपक आचार्य को ही मार डालता है, क्योंकि मानी मनुष्य संसार-भ्रमण को नहीं मानते॥५१०।। दोष कहनेवाले आचार्य का मानों गण ने त्याग कर दिया विश्वस्तो भाषते शिष्यः, सूरेरग्रे स्वदूषणम्। परस्याथ पुनबूंते, पदनाद-बहिनः ।।१२।। यथायं दूषितोऽनेन, दूषयिष्यति नस्तथा। इति क्रुद्धो गणः सर्वः, पृथक्त्वं प्रतिपद्यते ।।५१२॥ अर्थ - आचार्य द्वारा क्षपक के दोष प्रगट किये जाने पर गण के साधु विचार करते हैं कि अहो! आचार्य के समक्ष शिष्य तो विश्वस्त होकर अपने दोष प्रगट करता है और सदाचार से बहिर्भूत यह आचार्य उन दोषों को दूसरों से कह रहा है। इसने जैसे इस क्षपक का दोष प्रगट किया उसी प्रकार यह हमारे दोष भी प्रगट कर देगा, ऐसा विचार कर क्रोधित होता हुआ सर्व गण आचार्य को छोड़ कर चला जायगा अथवा आचार्य को छोड़ देगा ||५११-५१२॥ दोष प्रगट करने से संघत्याग एतस्याचार्यकं समो, विच्छिनत्ति चतुर्विधः । निर्घाटयति वा रुष्टो, रोषतः क्रियते न किम् ।।५१३॥ अर्थ - दोष प्रगट करने वाले आचार्य का चतुर्विध संघ नष्ट होता है या क्रोधावेश में संघ आचार्य को निकाल देता है क्योंकि क्रोध से क्या-क्या नहीं किया जाता? ||५१३ ।। प्रश्न - संघ किसे कहते हैं ? उत्तर - जिसमें रत्नत्रय का उपदेश किया जाता है ऐसे मुनि, आर्यिका, श्रावक और श्राविका के समुदाय को संघ कहते हैं। दोष प्रगट करने से मिथ्यात्व की आराधना होती है आचार्यो यत्र शिष्यस्य, विदधाति विडम्बनाम् । धिक् तानिर्धर्मकान्साधूनिति वक्ति जनोऽखिलः॥५१४॥ विश्वासघातका एव, दुष्टाः सन्ति दिगम्बराः। ईदृशीं कुर्वते निन्दां, मिथ्यात्वाकुलिता जनाः ॥५१५॥ अर्थ - क्षपक के दोष प्रगट करने से सर्व लोग कहने लग जाते हैं कि देखो ! इस जैन धर्म के आचार्य ही अपने शिष्य की विडम्बना कर रहे हैं। धिक्-धिक ऐसे धर्म विहीन साधुओं को। ये जैन साधु ऐसे होते हैं ? ये दिगम्बर दुष्ट हैं, अपने शिष्यों के साथ ही विश्वास-घात करते हैं, इस प्रकार मिथ्यादृष्टि लोग जैनधर्म की निन्दा करते हैं ।।५१४-५१५॥
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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