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मरणकण्डिका - ५९४
चरमसमय में पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पाँच अन्तराय इन चौदह प्रकृतियों को एक साथ नष्ट कर देते हैं ॥२१७६-२१७७॥
__ तेरहवें गुणस्थान में प्रवेश हुत्वैकत्ववितर्काग्नौ, घाति-कर्मेन्धनं सुधीः।
दर्शकं सर्व-भावानां, केवलज्ञानमश्नुते ॥२१७८ ॥ अर्ध - इस प्रकार वे महाबुद्धिशाली तपोधन एकत्ववितर्क अवीचार शुक्लध्यान रूपी अग्नि में घातिया कर्मरूपी ईंधन को भस्मसात् करके समस्त द्रव्य और उनकी अनन्तानन्त पर्यायों को जानने-देखने वाले केवलज्ञान एवं केवलदर्शन को प्राप्त कर लेते हैं।।२१७८ ॥
अनन्तमप्रतीबन्धं, निःसंकोचमनिन्द्रियम् । निःक्रमं केवलज्ञानं, निःकषायमकल्मषम् ।।२१७९ ।। कर-स्थितमिवाशेष, लोकालोकं विलोकते।
युगपत्तेन बोधन, योगी विमानकाशिना ।।१९८॥ अर्थ - अनन्त प्रमाण वाला होने से अथवा कभी नष्ट न होने के कारण केवलज्ञान अनन्त है, व्याघात से रहित अथवा रुकावट से रहित होने के कारण अप्रतिबन्ध है, संकोच-विस्तार रहित है, इन्द्रियाधीन न होने से अनिन्द्रिय है, क्रम रहित होने से अथवा युगपत् जानने वाला होने से निक्रम है, यह ज्ञान असहाय है अतः केवल है, कषाय एवं पापों से रहित होने के कारण नि:कषायमकल्मषम् है, ऐसे विश्वप्रकाशी केवलज्ञान के द्वारा सयोगी भगवान हाथ में रखे हुए पदार्थ के सदृश अशेष लोकालोक को युगपत् जानते हैं ॥२१७९-२१८० ।।
अनन्तं दर्शनं, ज्ञानं, सुखं वीर्यमनश्वरम्।
जायते तरसा तस्य, चतुष्टयमखण्डितम् ।।२१८१॥ अर्थ - उन सयोग केवली अरहन्त-भगवन्तों के शीघ्र ही अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्त वीर्य ये अखंडित एवं अविनश्वर चतुष्टय उत्पन्न हो जाते हैं ।।२१८१ ॥
___ सयोगकेवली अरहन्तों की प्रक्रिया ततो वेदयमानोऽसौ, शेषाधाति-चतुष्टयम् । कुर्वाणो जनतानन्दं, भ्रमत्येष सुरार्चितः ॥२१८२।। विवर्धमान-चारित्रो, ज्ञान-दर्शन-भूषितः।
शेष-कर्म-विधाताय, योग-रोधं करोति सः॥२१८३ ।। अर्थ - वे सयोग केवली भगवान् शेष बचे चार अघातिया कर्मों का वेदन करते हुए, चतुर्निकाय देवों द्वारा पूजित होते हुए और अपनी दिव्यध्वनि द्वारा आर्यखण्ड की जनता को आनन्द प्रदान करते हुए विहार करते हैं। तदनन्तर विवर्धमान दर्शन, ज्ञान एवं चारित्र से विभूषित वे सयोगी जिन शेष कर्मों का नाश करने के लिए योगनिरोध करते हैं ।।२१८२-२१८३ ॥