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________________ मरणकाण्डका - ६५ उत्तर -- कुछ आचार्य शास्त्रविहित समाचार को ही जानते हैं। कोई आचार्य दूसरों के साथ आचरण करने से आचरण का क्रम जानते हैं और कोई आचार्य दोनों प्रकार से प्रबुद्ध होते हैं। इस प्रकार आचार्यों के बहुत भेद होते हैं । अनियतविहारी साधु को विहारकाल में अनेक प्रकार के आचार्यों की चरण सेवा का सुअवसर प्राप्त होता है। अर्थात् अनेक आचार्य-संघों में रहने का सौभाग्य प्राप्त होता है। उन्हीं सब की समाचार-विधि देखकर वह साधु भी उस निष्क्रमण एवं प्रवेशादि समाचार में कुशल हो जाता है। यथा - वसतिका आदि से बाहर जाते समय अथवा प्रवेश करते समय वसतिका का स्थान अथवा शरीर शीतल हो या गर्म हो अथवा पीछी गरम या ठण्डी हो उस समय विवेकपूर्वक ऐसा मार्जन हो ताकि शीतकायिक एवं उष्णकायिक जीवों को बाधा न पहुँचे। अथवा लाल, काले तथा श्वेत रंगवाली भूमियों में एक में से निकल कर दूसरी में प्रवेश करते समय कटि भाग से नीचे सम्मान करना चाहिए । अन्यथा विरुद्ध योनि के संक्रम से पृथिवीकायिक जीवों को और उस भूमि में उत्पन्न त्रस जीवों को भी बाधा उत्पन्न होती है। जल-प्रवेश करते समय पैरों में लगी हुई सचित्त-अचित्त धूलि का पीछी से भली प्रकार मार्जन करना चाहिए। जल से निकल कर जब तक पैर सूख न जाये तब तक जल के समीप ही ठहरना चाहिए | इसी प्रकार जिनमन्दिर में, साधुनिवास में, आहार हेतु गृहस्थ के गृह में, नदी में एवं नौका आदि में प्रवेश करते समय और निकलते समय क्या-क्या सावधानियाँ रखनी आवश्यक हैं, इसका ज्ञान भगवती आराधना गाथा १५२ की टीका से समझ कर उसी प्रकार आचरण करना चाहिए। मैं सब जानता हूँ 'गुरुकुल का वासी और विद्वान् हूँ' 'मुझे दूसरों से कोई आचारक्रम नहीं सीखना है' इत्यादि, ऐसा अभिमान नहीं करना चाहिए। किसी भी स्थान में प्रवेश करते समय 'निःसही' शब्द का प्रयोग और निकलते समय 'अस्सही' शब्द का प्रयोग अवश्यमेव करना चाहिए। शिक्षा में अन्त-पर्यन्त उद्योग करना चाहिए कर्तव्या यत्नतः शिक्षा, प्राणैः कण्ठगतैरपि। आगमार्थ समाचार-प्रभृतीनां तपस्विना ॥१५९॥ अर्थ - प्राण कण्ठगत होने पर भी साधुजनों को आगम के अर्थ की एवं समाचार-विधि सम्बन्धी शिक्षा प्रयत्नपूर्वक ग्रहण करनी चाहिए ॥१५९॥ सल्लेखना योग्य क्षेत्र परिमार्गणा प्रासुकं सुलभाहारं, संयतैर्गोचरी-कृतम्। सल्लेखनोचितं क्षेत्रं, पश्यत्यनियत-स्थितिः॥१६०॥ अर्थ - इस क्षेत्र में संयमी जनों को गोचरी में प्रासुक आहार सुलभता से प्राप्त हो जाता है, अत: यह क्षेत्र सल्लेखना के योग्य है, ऐसी जानकारी देशान्तर विहार करनेवाले साधुओं को सहज ही हो जाती है।।१६० ।।
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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