SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 581
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मरणकण्डिका - ५५७ में रहने वाले जीवों को बाधा होती है, सचित्त तृणपुंज पर बैठने से भी भूमिशय्या मूलगुण का पालन हो जाता है, उद्दिष्ट भोजन में कोई दोष नहीं है क्योंकि भिक्षा हेतु पूरे ग्राम में भ्रमण करने से जीव निकायों की महती विराधना होती है, गृहस्थों के घर के पात्रों में भोजन करने में कोई दोष नहीं है क्योंकि कर-पात्र में आहार करने वाले को परिशातन दोष लगता है तथा आजकल आगमानुसार आचरण करने वाले साधु हैं ही नहीं, इत्यादि । इसी प्रकार की अन्य भी आगमविरुद्ध विसंगतियों का प्रचार-प्रसार करने वाले साधु यथाछन्द अर्थात् स्वच्छन्द कहे जाते हैं। इनसे जिनागम का अत्यधिक विलोप होता है और निर्दोष मोक्षमार्ग अत्यन्त दूषित हो जाता है। पत्थर की नाव के सदृश आगमविरोधी ऐसे साधु स्वयं संसार समुद्र में डूबते हैं और अन्य को भी डुबोते हैं। प्रश्न - पार्श्वस्थ साधुओं का क्या स्वरूप है ? उत्तर - जैसे कोई पथिक मार्ग को देखते हुए भी उस मार्ग से न जाकर उसी के समीपवर्ती अन्य मार्ग से जाता है तो उसे मार्ग पार्श्वस्थ कहते हैं, वैसे ही जो संयम का निरतिचार मार्ग जानते हुए भी उसमें प्रवृत्ति नहीं करते किन्तु संयम के पार्श्ववर्ती मार्ग पर चलते हैं; ये मुनि न तो एकान्त से असंयमी होते हैं और न निरतिचार संयमी होते हैं अत: इन्हें पार्श्वस्थ कहते हैं। ये शय्याधरों के यहाँ नित्य ही आहार ग्रहण करते हैं। प्रश्न - शय्याधर किसे कहते हैं ? उत्तर - वसतिका बनाने वाले, वसतिका का जीर्णोद्धार कराने वाले और 'आप यहाँ ठहरों' ऐसा कह कर वसतिका दान देने वाले, इन तीनों को शय्याधर कहते हैं। आगम में शय्याधरों के यहाँ आहार करने का निषेध है। जो आहार करने के पहले या आहार करने के बाद दाता की स्तुति या प्रशंसा करते हैं, उत्पादन एवं एषणा दोषों से दूषित आहार करते हैं, नित्य एक ही वसतिका में रहते हैं, एक ही क्षेत्र में रहते हैं, एक ही संस्तर पर सोते हैं, गृहस्थों के घरों में जाकर बैठ जाते हैं, गृहस्थों के उपकरणों का उपयोग करते हैं, प्रतिलेखना किए बिना ही वस्तु को ग्रहण कर लेते हैं, या दुष्टतापूर्वक प्रतिलेखना करते हैं, सुई, कैंची, नाखून-कतरनी, छुरी, कान का मैल निकालने की सींक या साधन आदि सामग्रियों पास में रखते हैं, क्षारचूर्ण, सुरमा, नमक, घी एवं नाना प्रकार के तेल आदि बिना कारण ग्रहण करते हैं या अपने पास रखते हैं वे पार्श्वस्थ साधु हैं। जो इच्छानुसार लम्बा-चौड़ा संस्तरा बिछाते हैं और रात्रि भर मनमाना सोते हैं वे उपकरण-वकुश साधु हैं, जो दिन में सोते हैं वे देह-वकुश हैं, ये दोनों भी पार्श्वस्थ हैं। जो बिना कारण पैरादि धोते हैं, तेल-मर्दन करते हैं, वस्त्रों को धोते हैं झटकते हैं, सुखाते हैं एवं रंगवाते हैं, गण के माध्यम से उपजीविका करते हैं, तीन अथवा पाँच मुनियों की ही सेवा में तत्पर रहते हैं वे सब पार्श्वस्थ साधु हैं और जो अपनी सुखशीलता के कारण बिना प्रयोजन अयोग्य का सेवन करते रहते हैं वे साधु तो सर्वथा पार्श्वस्थ ही होते हैं। प्रश्न - कुशील मुनि का क्या स्वरूप है ? और वे कितने प्रकार के हैं ? उत्तर - जिनका खोटा आचरण लोक-प्रसिद्ध हो जाता है, उन्हें कुशील मुनि कहते हैं। ये अनेक प्रकार के होते हैं, यथा-कौतुक कुशील, भूतिकर्म कुशील, प्रसेनिका कुशील, अप्रसेनिका कुशील, निमित्त कुशील, आजीव कुशील, कक्व कुशील, कुहन कुशील, सम्पूर्छन कुशील, प्रतापन कुशीन और सामान्य कुशील आदि। ----
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy