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________________ मरयाण्डिका - २५६ सर्व-व्रतातिचारस्थाः, सुखास्वादन-लालसाः। अनाराधित-चारित्राः, पर-चिन्ता-कृतोद्यमः ।।२०३३ ॥ इहलोक-क्रियोयुक्ताः, परलोक-क्रियालसाः। मोहिन: शबलाः क्षुद्राः, संक्निष्टा दीन-वृत्तयः ॥२०३४ ।। आलोचनामनाधाय, ये म्रियन्ते कुबुद्धयः। त्रिदिवे निन्दिताचारा, दुर्भगाः सन्ति ते सुराः॥२०३५ ।। अर्थ - जो अशुद्ध मन वाले होते हैं, कषाय और इन्द्रियरूपी शत्रुओं के वशीभूत रहते हैं, पूज्य पुरुषों की अर्थात् तीर्थंकर गणधर, घोर तपस्वी एवं आचार्य आदि की आसादना करने के स्वभाव वाले हैं, नीच हैं, मायाचार करने में तत्पर रहते हैं, प्रत्येक धर्मकार्य पराधीन होकर करते हैं, अर्थात् षड़ावश्यक क्रियाएँ विनय एवं वैयावृत्त्यादि आचार्यादि के भय से करते हैं, स्वयं की रुचि से नहीं करते, पापसूत्रपरायण होते हैं अर्थात् वैद्यकशास्त्र, काव्य, नाटक, चोर-विद्या एवं कामशास्त्र आदि के पढ़ने-पढ़ाने में चतुर होते हैं, संघ में वैयावृत्त्यादि का कोई कार्य उपस्थित हो जाने पर यही उत्तर देते हैं कि मुझे इससे क्या प्रयोजन है, मैं इसमें कुछ भी सहयोग नहीं करूँगा इत्यादि, महाव्रतादि अट्ठाईस मूलगुणों में भी अतिचार लगाते हैं, सुखिया स्वभावी होने से सुखद शय्या तथा स्वादु भोजन में लम्पटी होते हैं, संलग्नतापूर्वक चारित्र की आराधना नहीं करते अपितु गृहस्थादि की चिन्ता में संलग्न रहते हैं, इस लोक संबंधी अर्थात् लोकरंजना, देश, राज्य, पंचायत, गृहस्थ एवं देह सम्बन्धी क्रियाओं में तो तत्पर रहते हैं किन्तु परलोक सम्बन्धी निर्दोष व्रतपालन तथा समीचीन ज्ञानवृद्धिजन्य कार्यों में प्रमादी होते हैं, मोही, शिथिलाचारी, क्षुद्र, संक्लिष्ट परिणामी और याचकों के सदृश दीनवृत्ति वाले होते हैं। कुबुद्धिशाली ऐसे भ्रष्ट मुनि अपने दोषों की आलोचना किये बिना ही मरण कर स्वर्ग में दासकर्म और वाहनादि नीच कार्य करने वाले एवं अप्रिय अर्थात् दुर्भगदेव होते हैं।।२०३१ से २०३५ पर्यन्त ॥ प्रश्न - अवसन्न मुनियों का क्या स्वरूप है? उत्तर - जैसे कीचड़ में फंसे हुए और मार्गभ्रष्ट को द्रव्यावसन्न कहते हैं, वैसे ही जिसका चारित्र अशुद्ध होता है उसे भावासन्न कहते हैं। ऐसे साधु उपकरण अर्थात् पीछी-कमण्डलु आदि में और वसतिका में आसक्ति रखते हैं, संसार शोधने में, विहार करने की भूमि के शोधन में, स्वाध्याय में, गोचरी की शुद्धता में, ईर्या आदि समितियों की शुद्धि में, स्वाध्याय काल का ध्यान रखने में एवं स्वाध्याय-समाप्तिकाल का ध्यान रखने में प्रमादी रहते हैं; छह आवश्यकों में आलस्य करते हैं। इन्हें अवसन्न मुनि अन्य मुनिराजों की अपेक्षा अधिक करते हैं, किन्तु मन से नहीं करते, वचन और काय से ही करते हैं। प्रश्न - यथाछन्द साधु का क्या स्वरूप है? उत्तर - जो बात या जो क्रिया आगम में नहीं कही गई है उसे जो साधु अपनी इच्छानुसार कहते हैं या उसका प्रवर्तन करते-कराते हैं उन्हें यथाछन्द कहते हैं। इनका प्रतिपादन एवं क्रिया उत्सूत्री ही होती है। जैसे वर्षाकाल में जल धारण करना एवं वृक्ष के नीचे बैठकर ध्यान करना असंयम है, छुरा तथा कैंची आदि से केश काटने की प्रशंसा करते हुए यह कहना कि केशलोंच करने से आत्म-विराधना होती है, पृथ्वी पर सोने से तृणों
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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