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________________ मरणकण्डिका - ५५५ यथाख्यात चारित्रधारी, पवित्र सम्यग्दर्शन एवं सम्यग्ज्ञान से युक्त, अशुभ लेश्याओं के शोधक, विशुद्ध ध्यान को वृद्धिंगत करने वाले तथा शुक्ल लेश्या रूपो स्त्री से आलिागत क्षपक मुनिराज सम्पूर्ण कर्मों को नष्ट कर शीघ्र ही तीन लोक में उत्तम और तीन लोक से वंदित सिद्ध परमेष्ठी बन जाते हैं अर्थात् मोक्ष चले जाते हैं ।।२०२४, २०२५, २०२६ ।। इस प्रकार प्रशस्त एवं शुभ लेश्या पूर्वक समाधि करने का महान् और श्रेष्ठ फल प्रदर्शित किया। अर्थात् शुभ लेश्याधारी चार आराधनाओं की आराधना करने वाले क्षपक स्वर्ग या मोक्ष जाते हैं, इस उत्तम फल की प्राप्ति का उपाय कहा गया है। आराधना की विराधना का फल इत्थं संस्तरमापन्ना, रौद्रार्त-वशवर्तिनः। रत्नत्रयं विशोध्यापि, भूयो भ्रश्यन्ति केचनः ॥२०२७ ।। आर्तरौद्र-परः साधुर्यो, मुञ्चन्ति कलेवरम्। एतां दुःखप्रदामेष, देव-दुर्गतिमृच्छति ।।२०२८ ।। अर्थ - इस प्रकार संस्तर पर आरूढ़ होकर और रत्नत्रय को निर्मल करके भी कोई-कोई क्षपक कर्मों की गुरुता या वशवर्तिता से आर्तरौद्र ध्यान पूर्वक रत्नत्रय रूप आराधना से भ्रष्ट हो जाते हैं और जो साधु आर्त - रौद्र ध्यान पूर्वक अपना शरीर छोड़ते हैं वे उन खोटे ध्यानों के कारण दुखदायी देवदुर्गति को प्राप्त होते हैं अर्थात् सुदेवत्व प्राप्त नहीं कर पाते ।।२०२७-२०२८ ॥ चिराभ्यस्त-चरित्रोऽपि, कषायाक्ष-वशीकृतः। मृत्युकाले ततः सद्यो, यदि भ्रश्यति संयतः॥२०२९ ।। अवसन्नो यथाछन्दो, य: पार्श्वस्थः कुशीलकः । संसक्तश्च तदा किं न, स भ्रश्यति कुमानसः ॥२०३० ।। अर्थ - जिसने चिरकाल तक उनम चारित्र-पालन का अभ्यास किया है ऐसा संयत क्षपक भी जब मृत्युकाल में भूख-प्यास आदि वेदना के कारण कषायों एवं इन्द्रियों के आधीन हो कर शीघ्र ही चारित्र तथा समाधि से भ्रष्ट हो जाता है तब जो नित्य ही अबसन्न, यथाछन्द, पार्श्वस्थ, कुशील और संसक्त इन भ्रष्ट साधुओं में से कोई है, वह क्या समाधि से च्युत नहीं होगा? अवश्य होगा ।।२०२९, २०३० ।। देवदुर्गति प्राप्त करने वाले अवसन्नादि साधुओं का स्वरूप अशुद्ध-मनसो वश्या:, कषायेन्द्रिय-विद्विषाम् । पूज्यात्यासना-शीला, नीचा माया-निदानिनः ॥२०३१ ।। धर्मकार्य-पराधीना:, पाप-सूत्र-परायणा:। सङ्घ-कृत्ये ममानेन, किं कृत्यमिति वादिनः ।।२०३२ ॥
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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