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________________ मरणकण्डिका - ५५८ १. कौतुक कुशील - जो औषधि, विलेपन एवं विद्या के प्रयोगों द्वारा राजद्वार में कौतुक दिखाकर लोकप्रियता सम्पादित करते हैं, उन्हें कौतुक कुशील कहते हैं। २. भूतिकर्म कुशील - यहाँ भूति शब्द उपलक्षण है। अभिमंत्रित किये हुए धूल, श्वेत सरसों, पुष्प, फल एवं जल आदि के द्वारा किसी का रक्षण करने वाले को या किसी को वशमें करने वाले को भूतिकर्म कुशील कहते हैं। ३. प्रसेनिका कुशील - जो अंगुष्ठ प्रसेनिका, अक्षर प्रसेनिका, शशि प्रसेनिका, सूर्य प्रसेनिका एवं स्वप्न प्रसेनिका आदि विद्याओं के द्वारा मनुष्यों का मनोरंजन करते हैं, वे प्रसेनिका कुशील हैं। ४. अप्रसेनिका कुशील - जो विद्या, मन्त्र एवं औषध प्रयोग द्वारा असंयमी जनों की चिकित्सा करते हैं वे अप्रसेनिका कुशील हैं। ५. निमित्त कुशील - जो अष्टांग निमित्तों को जान कर लोगों को इष्टानिष्ट बताते हैं, वे निमित्त कुशील ६. आजीव कुशील - जो अपने कुल एवं जाति आदि को प्रकाशित करके भिक्षादि प्राप्त करते हैं, वे आजीव कुशील हैं अथवा जो किसी के द्वारा उपद्रव होने पर दूसरों की शरण ग्रहण करते हैं अथवा अनाथालय आदि में जाकर अपनी चिकित्सा कराते हैं, वे भी आजीव कुशील हैं। ७. कक्व कुशील - जो विद्याप्रयोग आदि के द्वारा दूसरों का द्रव्यादि हरण करने में एवं दम्भ-प्रदर्शन में तत्पर रहते हैं वे कक्व कुशील हैं। ८, कुहन कुशील - जो इन्द्रजालादि के द्वारा लोगों को आश्चर्य उत्पन्न करते हैं वे कुहन कुशील साधु हैं। ९. सम्मूर्छन कुशील - जो वृक्ष, झाड़ी, पुष्प और फलों को तत्काल उत्पन्न करके बता देते हैं एवं गर्भ स्थापना करवाते हैं वे सम्मूर्छन कुशील हैं। १०. प्रतापन कुशील - जो बस जाति के कीट आदि का, वृक्षों आदि का, पुष्प एवं फलादि का तथा गर्भ का विनाश करवाते हैं और शाप देते हैं, अन्य भी हिंसा आदि के काम करते हैं वे प्रतापन कुशील साधु हैं। ११. अन्य सामान्य कुशील - जो क्षेत्र, स्वर्ण. चौपाये आदि परिग्रह स्वीकार करते हैं; कन्द एवं हरे फल खाते हैं; कृत, कारित, अनुमोदना से युक्त आहार, उपधि तथा वसतिका का सेवन करते हैं; स्त्रीकथा में लीन रहते हैं, मैथुन सेवन करते हैं, आस्रव के अधिकरणों में सदा लगे रहते हैं, धृष्ट हैं, प्रमादी है और विकारयक्त चेष्टा करते हैं वे सब कशील है। प्रश्न - संसक्त साधुओं का क्या स्वरूप है ? उत्तर - जो पंचेन्द्रियों के विषयों में आसक्त रहते हैं, द्धि-गारव, सात गारव और रस गारव में लीन रहते हैं, स्त्रियों के प्रति रागरूप परिणाम रखते हैं, गृहस्थों के प्रेमी होते हैं तथा चात्रप्रेमी साधुओं के साथ
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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