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________________ अर्थ - इस प्रकार आहार में आसक्ति होने पर निर्यापकाचार्य उस क्षपक के मन से सूक्ष्म शल्य को निकालने के लिए असंयम की प्राप्तिरूप आय एवं इन्द्रियसंयम के विनाशरूप अपाय को समझाते हुए विशेष रूप से दिव्य उपदेश देते हैं। अर्थात् क्षपक को प्रसन्न करते हुए उसकी शान्ति को वृद्धिंगत करने वाला उपदेश देते हैं ॥७२७ ॥ मरणकण्डिका - २२८ २९. हानि अधिकार आहार - आसक्ति से होने वाली हानि कुरुते देशनां सूरिरायापाय- विशारदः । निराकर्तुं मनःशल्यं, सूक्ष्मं निर्यापयन्नमुम् ।।७२७ ।। प्रश्न क्षपक के मन में सूक्ष्म मनःशल्य कौनसी है, आय अपाय किसे कहते हैं और आचार्य उस शल्य को कैसे निकालते हैं? - उत्तर - आहारासक्त क्षपक के मन में उस आहार की अभिलाषा सम्बन्धी सूक्ष्म शल्य रह सकती है। असंयम की प्राप्ति को आय और इन्द्रियसंयम के विनाश को अपाय कहते हैं। आहार की गृद्धता या आसक्ति से इन्द्रियसंयम को हानेि और असंयम की वृद्धि होती है । अत: आचार्य उस क्षपक को समझाते हैं कि हे क्षपक ! आँखों से अन्धा मनुष्य केवल पदार्थों को नहीं देख पाता, परन्तु वह विवेक से रहित नहीं होता, किन्तु विषयांध मनुष्य अन्धे से भी महान् अन्धा है क्योंकि वह हेय, उपादेय को भी नहीं जानता । जिस साधु ने अपनी इन्द्रियों को तप के ताव में नहीं रखा, वह साधु अपने आत्मसिद्धिरूप कार्य को कदापि सिद्ध नहीं कर सकता, अतः अब आयु की अन्तबेला में आहारासक्ति का त्याग करो और मन को वश में रखो। इस प्रकार का हितकारी उपदेश देकर आचार्य क्षपक की शल्य निकाल देते हैं। कश्चिदुद्धरते शल्यं, क्षिप्रमाकर्ण्य देशनाम् । करोति संसृतिग्रस्तः, सूरीणां वचसा न किम् ॥७२८ ।। अर्थ- वैराग्य का उपदेश सुन कर कोई क्षपक शीघ्र ही उस आहार वांछा को त्याग देता है और संसार से भयभीत हो उठता है। ठीक है ! आचार्य के वचनों द्वारा क्या-क्या हित नहीं होता ! अर्थात् सब प्रकार का हित होता है || ७२८ ॥ प्रश्न क्षपक इतनी आसक्ति का त्याग कैसे कर देता है ? उत्तर - वैराग्यवर्धक उपदेश सुनने के बाद क्षपक का विवेक जाग्रत हो जाता है और वह सोचता है कि अहो ! इस आहार की आसक्ति के कारण ही मैंने अतीत काल में अनन्त दुख उठाये हैं, अब भी यदि इस आसक्ति को नहीं छोडूंगा तो भव भव में पुनः वही दुख उठाने पड़ेंगे। इस प्रकार के चिन्तन से वह भयभीत हो उठता है और उसकी शल्य निकल जाती है। - समाधानीयतो गृध्नोः, संत्याज्य सकलं गणी । एकैकं हापयन्नैवं प्रकृते दधते शनैः ।। ७२९ ।।
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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