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________________ मरणकण्डिका - ३०७ अर्थ - जिसके देह की सब चमड़ी जल जाने से शरीर सफेद वर्ण का हो गया है और जिसमें सदैव पीव बह रहा है, ऐसी नारी हो अथवा अपना कोई प्रिय व्यक्ति भी हो तो उसे मनुष्य देखना भी नहीं चाहता ||१०८४|| अभविष्यन्न चेगात्रं, पिहितं सूक्ष्मया त्वचा। को नामेदं तदा स्प्रक्ष्यन्मक्षिका-पत्र-तुल्यया॥१०८५।। अर्थ - यदि यह शरीर मक्खी के पंख सदृश पतली त्वचा से वेष्टित न हो तो कौन व्यक्ति इसे स्पर्श करता ? ||१०८५॥ इस प्रकार शरीर अवयव वर्णन समाप्त ॥७।। निर्गम का कथन इस शरीर में क्या-क्या पैदा होता है और क्या-क्या निकलता है। इसका कथन कर्णयोः कर्ण-गूथोऽस्ति, तथाक्ष्णोर्मलमश्रु च। सिंङ्याणकादयो निन्या, नासिका-पुटयोर्मलाः ॥१०८६ ।। अर्थ - कानों से कान का मल उत्पन्न होता है, नेत्रों में नेत्रों का मल और आँसू रहते हैं तथा नासिका पुटों में सिंघान आदि निन्द्य पल रहता है॥१०१.६ ।। लाला-निष्ठीवन-श्लेष्म, पुरोगा विविधा मलाः। जायते सर्वदा वक्त्रे, दन्त-कीटाकुल-व्रणे ।।१०८७ ।। अर्थ - जिस मुख में दन्त पंक्ति के आधारभूत मसूड़ों में कीड़ों का समूह और व्रण रहते हैं। उस मुख में लार, थूक, कफ, वमन, दन्त-मल, जिलामल, वमन एवं खखार आदि उत्पन्न होते रहते हैं ॥१०८७॥ ये मेह-गुदयोः सन्ति, वर्ची-मूत्रादयो मलाः । न वक्तुमपि शक्यन्ते, वीक्षितुं ते कथं पुनः ॥१०८८ ।। अर्थ - मेहन और गुदा में क्रमश: मूत्र एवं मल आदि भरे रहते हैं। बिना ग्लानि के जिन्हें कहना भी शक्य नहीं है तब उनका देखना तो किस प्रकार शक्य है।।१०८८ ॥ चिक्कणो रोम-कोपेषु, स्वेदः सर्वेषु सर्वतः। यूकाः षट्पदिका लिक्षा, जायन्ते सर्वदा ततः॥१०८९ ।। अर्थ - शरीर के सब रोम कूपों में से चिपचिपा अर्थात् चिकना पसीना सदैव निकलता रहता है, जिसके कारण शरीर में जूं, लीख एवं षट्पदिका अर्थात् चर्म-यूका उत्पन्न होती रहती हैं ॥ १०८९।। गात्रैर्मुञ्चति वर्चासि, विग्रहो निखिलैरपि। गूथ-पूर्णो घटो गूथं, छिद्रितो विवरैरिव ॥१०९० ।।
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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