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________________ मरणकण्डिका- ३०६ आम पक्वाशय स्थानं, षोडशैवान्त्र-यष्टयः । कुथितस्याश्रयाः सप्त, शरीरे सन्ति मानुषे ॥ १०७७ ।। अर्थ आमाशय और पक्वाशय में सोलह आँतें हैं तथा मनुष्य के इस शरीर में कुथिताश्रय अर्थात् मलस्थान सात हैं ॥१०७७ ॥ नव सन्ति व्रणास्यानि, मुच्यमानानि कश्मलम् । तिस्रः स्थूणाशतं देहे, मर्मणां सप्त-संयुते ॥ १०७८ ।। अर्थ - इस शरीर में नित्य ही दुर्गन्धित मल बहाने या झराने वाले नौ व्रणमुख अर्थात् मलद्वार हैं; वात, पित्त और कफ ये स्थूणाएँ हैं तथा एक सौ सात मर्म स्थान हैं || १०७८ ॥ शुक्र-मस्तिष्क - मेदांसि प्रत्येकं सूरयो विदुः । स्वकीयाञ्जलि - मानानि, मनुष्याणां कलेवरे ॥ १०७९ ।। अर्थ .. आचार्य कहते हैं कि महलों के शरीर में अपनी अंजुलि प्रमाण वीर्य, अंजुलि प्रमाण मस्तिष्क और अंजुलि प्रमाण ही मेद है ।। १०७९ ।। षडञ्जलिमितं पित्तं, वसाञ्जलि त्रय प्रभा । श्लेष्मा पित्त-समो रक्तमर्द्धादकमितं मतम् ॥ १०८० ॥ - अर्थ - इस शरीर में छह अज्जुलि प्रमाण पित्त, तीन अंजुलि प्रमाण वसा अर्थात् चर्बी, पित्त प्रमाण छह अंजुलि कफ और अर्ध आढक या बत्तीस पल प्रमाण रक्त है ।। १०८० ॥ षट् - प्रस्थ- प्रमितं वर्चो, मूत्रमर्द्धादक- प्रमम् । नखानां विंशतिर्दन्ता, द्वात्रिंशत्प्रकृता मताः ।। १०८१ ।। अर्थ - विष्ठा छह प्रस्थ प्रमाण, मूत्र अर्ध आढ़क प्रमाण, नख बीस और दाँत बत्तीस, स्वभावतः शरीर में इतने प्रमाण अवयव होते हैं ।। १०८१ ॥ को घेरे हुए काय: कृमि - कुलाकीर्णः, कृमिणो वा व्रणोऽखिलः । तं सर्वं सर्वतो व्याप्य, स्थिताः पञ्च चरण्यवः ।। १०८२ ॥ अर्थ - जैसे घाव में कीड़े भरे रहते हैं, वैसे ही यह शरीर कीड़ों के समूह से भरा है। समस्त शरीर पाँच वायु स्थित हैं ।। १०८२ ॥ इत्यङ्गेऽवयवाः सन्ति, सर्वे कुथित - पुद्गलाः । नैकोऽप्यवयवस्तत्र, पवित्रो विद्यते शुचिः ।। १०८३ ॥ अर्थ - उपर्युक्त प्रकार से शरीर के सर्व अवयव सड़े हुए पुद्गल स्वरूप ही हैं। एक भी अवयव ऐसा नहीं है जो पवित्र और शुचि हो ॥१०८३ ॥ - नि:शेष चर्माणं, पाण्डुरङ्गीं गलद्वसाम् । दिदृक्षतेऽपि नो कोऽपि वल्लभामपि वल्लभः । १०८४ ।। दग्ध
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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