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________________ मरणकण्डिका - ३०५ अर्थ - वह अज्ञानी बालक जो कुछ भी करता है, निर्लज्ज होकर जो कुछ भी बोलता रहता है, जो कुछ भी खा लेता है, यहाँ-वहाँ किसी भी स्थान पर मल-मूत्र कर देता है ।।१०७० ।। बाले यदि कृतं कोऽपि, कृत्यं संस्मरति स्वयम् । तदात्मन्यऽपि निर्वेद, यात्यन्यत्र न किं पुनः॥१०७१॥ अर्थ - यदि बाल्यावस्था में किये गये कार्यों का भी कोई स्मरण करले तो दूसरे स्त्री-पुत्र आदि की तो बात ही क्या, अपने स्वयं से ही वैराग्य हो जाय ॥१०७१।। अमेध्यस्य कुटी गात्रममेध्येनैव पूरिता ! अमेध्यं स्रवते छिद्रं, अमेध्यमिव भाजनम् ।।१०७२।। इति वृद्धि॥ अर्थ - यह शरीर विष्ठादि मलिन वस्तुओं की कुटी है, अमेध्य अर्थात् अपवित्र पदार्थों से भरी है एवं मल से भरे सछिद्र पात्र के सदृश सदैव अमेध्य अर्थात् मल को ही झराता रहता है ।।१०७२।। इस प्रकार शरीरवृद्धि वर्णन समाप्त ॥६।। शरीर के अवयवों का वर्णन शतानि त्रीणि सन्त्यस्या, मज्जा-पूर्णानि विग्रहे। सन्धीनामपि तावन्ति, सन्ति सर्वत्र मानुषे ॥१०७३ ।। अर्थ - इस मानवशरीर में मज्जा नामक दुर्गन्ध धातु से युक्त तीन सौ हड्डियाँ हैं, तथा तीन सौ ही सन्धियाँ हैं।॥१०७३ ॥ मांसपेशी-शिरा-स्नायु-शतान्यङ्गे यथा-क्रमम् । पञ्च सप्त नव प्राज्ञाः, सर्वदापि प्रचक्षते ॥१०७४॥ अर्थ - प्राज्ञ पुरुषों ने कहा है कि इस शरीर में मांसपेशियाँ पाँच सौ, शिराएँ सात सौ और स्नायु नौ सौ हैं। ये यथाक्रम लेने चाहिए ॥१०७४ ॥ शिरा-जालानि चत्वारि, कण्डराणि च षोडश। शिरा-मूलानि षट् चैव, मांस-रज्जु-द्वयं तथा ||१०७५॥ अर्थ - शरीर में शिराओं के जाल चार हैं, कण्डरा अर्थात् रक्त से पूर्ण महाशिराएं सोलह हैं, शिराओं के मूल छह हैं और मांस रज्जू दो है|१०७५ ।। कालेयकानि सप्ताङ्गे, त्वचः सप्त निवेदिताः । सर्वत्र कोटि-लक्षाणामशीती रोम-गोचरा ॥१०७६ ।। अर्थ - शरीर में कालेयक अर्थात् मांस खण्ड सात हैं, त्वचाएँ सात हैं और रोम अस्सी लाख करोड़ हैं ।।१०७६॥
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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