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________________ मरणकण्डिका - ३०४ अर्थ - यदि कोई एक मास तक मल आदि अशुचि पदार्थ खाते हुए देख लिया जाता है, भले ही वह अपना प्रिय बन्धु ही क्यों न हो फिर भी उससे ग्लानि हो जाती है। तब जो नव या दस मास तक उस वमन एवं मल तुल्य आहार को ग्रहण करता रहा है, ऐसा शरीर ग्लानि का पात्र क्यों नहीं होगा? अवश्यमेव होगा ।।१०६५॥ इस प्रकार गर्भस्थ के आहार का कथन समाप्त ।।४।। जन्म का कथन शोणित-प्रसव-द्वारं, दुर्गन्धं जठराननम्। अवाच्य-जन्मभूतस्य, लज्जनीयमशौचकम् ॥१०६६ ।। अर्थ - जठर अर्थात् उदर का मुख स्त्रियों की योनि है। मानव-शरीर का जन्म इसी योनि से होता है। यह योनि मूत्र एवं रक्त निकलने का द्वार है, दुर्गन्धित है। उसका नाम लेने में भी लज्जा आती है क्योंकि वह सबसे अधिक अपवित्र है ।।१०६६॥ परो वस्ति-मुख-स्पर्शी, महद्भिनिन्द्यते यदि। उदरद्वार-संस्पर्शी, विनिन्द्यो न तथा कथम् ॥१०६७॥ इति जन्म ॥ अर्थ - यदि दूसरे के वस्तिमुख अर्थात् गुदा आदि का स्पर्श करने वाला व्यक्ति महापुरुषों के द्वारा निन्दनीय होता है, तो जो योनि का स्पर्श कर उसका आस्वादन लेता है, वह निन्दनीय कैसे नहीं होगा ? अवश्यमेव होगा ||१०६७|| इस प्रकार जन्म-वर्णन समाप्त ॥५॥ शरीर की वृद्धि का कथन निन्द्यानि लज्जनीयानि, कर्माणि कुरुते शिशुः । कृत्याकृत्यमजानानो, सेव्यासेव्य च मूढ-धीः ।।१०६८॥ अर्थ - छोटा शिशु निन्दनीय और लज्जाकारक कार्यों को करता रहता है । वह मूढ़ बुद्धि अज्ञानी शिशु कार्य-अकार्य को तथा सेव्य-असेव्य को भी नहीं जानता ॥१०६८ ॥ स चर्म-पूय-मांसास्थि-वर्ची-मूत्र-कफादिकम् । स्वस्यापरस्य वा वक्त्रे, क्षिपते विगत-त्रपः ॥१०६९।। अर्थ - वह शिशु अपना अथवा दूसरे का चमड़ा, पीप, मांस, हड्डी, मल, मूत्र एवं कफादि अपवित्र पदार्थ निर्लज्ज होता हुआ मुख में रख लेता है।।१०६९।। यत्किञ्चित्कुरुते ब्रूते, बाल: खादत्यलज्जितः। हदते विगत-ज्ञान:, प्रदेशे यत्र तत्र वा॥१०७०॥
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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