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________________ मरणकण्डिका - ३०८ अर्थ - जैसे विष्ठा से भरे सछिद्र घड़े के चारों ओर से मल झरता है, वैसे ही शरीर के सारे अवयवों से सतत ही मल निकलता रहता है।॥१०९० ॥ गुल्यैरवयवैः स्त्रीणां, निचितैर्विविधैर्मलैः। सारासार-प्रदृष्टानां मानसं ह्रियते कथम् ।।१०९१।। अर्थ - स्त्रियों के विविध मलों से भरे हुए गुह्य अवयवों में सार-असार को देखने वाले मनुष्यों का मन कैसे लज्जित नहीं होता ||१०९१॥ लज्जनीयेऽति-बीभत्से, मूढ-धी रमते कथम्। योनौ क्लिन्ने स्रवद्रक्त, निन्द्ये कृभिाव-वणे ॥१०१२॥ अर्थ - अति लज्जा की कारण, अति घिनावनी, आर्द्र, रक्त झरती हुई निन्द्य योनि में मूढबुद्धि मनुष्य कैसे रमता है ? यह रमना तो वैसा हुआ, जैसे घाव में कीड़े रमते हैं ॥१०९२ ।। अङ्गारस्येव कायस्य, बहिरन्तश दृश्यते । नैकोप्यवयवः शुद्धः, सर्वथा मलिनात्मनः ॥१०९३॥ इति निर्गमः॥ अर्थ - जैसे कोयले का बाह्य एवं अभ्यन्तर शुक्ल नहीं होता, सर्वत: काला ही होता है, वैसे ही शरीर का एक भी अवयव पवित्र दिखाई नहीं देता, कारण कि शरीर ही अपवित्र है ।।१०९३ ।। इस प्रकार निर्गम वर्णन समाप्त ॥७॥ शरीर की अशुचिता का कथन कायो जलैः पयोधीनां, धाव्यमानोऽखिलैरपि। स्वभाव-मलिनो जातु, नाङ्गार इव शुध्यति ॥१०९४ ॥ अर्थ - जैसे समुद्र के सम्पूर्ण जल से धोने पर भी कोयला श्वेत नहीं होता, उसमें से कालापन ही निकलता है ; वैसे ही स्वभावतः मलिन शरीर सागर के सम्पूर्ण जल से धोने पर भी शुद्ध नहीं होता, उसमें से मल निकलता ही रहता है॥१०९४ ।। अभ्यङ्गोद्वर्तन-स्नान-मुख-दन्ताक्षि-थावनैः। शश्वद्विशोध्यमानोऽपि, दुर्गन्धं वाति विग्रहः ।।१०९५॥ अर्थ - अभ्यंग अर्थात् तेल, इत्र, सेन्ट आदि लगाने से उबटन, स्नान द्वारा तथा मुख, दाँत तथा नेत्रादि को सदैव बार-बार धोने पर भी यह शरीर सदा दुर्गन्ध को ही बाहर फेंकता है। अर्थात् दुर्गन्धमय पदार्थों को ही बाहर फेंकता रहता है ।।१०९५॥ मृत्तिकाञ्जन-पाषाण-धातु-त्वङ्मूलवल्लिभिः। केशास्यवास-ताम्बूल-धूप-पुष्प-दलादिभिः ॥१०९६ ।।
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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