SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 301
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मरणकण्डिका - २७७ अर्थ - काम से पीड़ित मनुष्य अपनी इच्छित स्त्री के न मिलने पर प्राय: पर्वत से गिर कर या समुद्र में डूब कर, या आग में कूद कर या वृक्ष की शाखा से लटक कर मरने की चेष्टा करता है ।।९२३ ।। संकल्पाण्डक-सान, विश्पन्छि-बासिमः। रागद्वेष-द्विजिह्वेन, वृद्ध-चिन्ता-महाक्रुधा॥९२४॥ दष्ट-कामभुजङ्गेन, लज्जा-निर्मोक-मोचिना। दर्प-दंष्ट्राकरासेन, रति-वक्त्रेण नश्यति ॥९२५॥ अर्थ - जो मानसिक संकल्परूपी अण्डे से उत्पन्न हुआ है, विषयरूपी वामी में निवास करता है, वृद्धिंगत चिन्ता से.महाक्रोधित है, लज्जा रूपी कांचुली को छोड़ चुका है, दर्परूपी भयंकर दाढ़ वाला है, रतिरूप मुख वाला है और रागद्वेषरूपी दो जिह्वाओं से युक्त ऐसे कामवासनारूप करालसर्प से काटा हुआ मनुष्य शीघ्र ही नष्ट हो जाता है । ९२४-९२५॥ आशीविषेण दष्टस्य, सप्तवेगा: शरीरिणः । दष्टस्य स्मर-सर्पण, जायन्ते दश दुःसहा ॥९२६॥ अर्थ - सर्प जाति में आशीविष सर्प अधिक विषैला होता है। उसके द्वारा डसे हुए मनुष्य के तो सात ही वेग होते हैं, किन्तु काम रूपी सर्प द्वारा डसे हुए मनुष्य के दस भयंकर वेग होते हैं।९२६ ।। प्रश्न - सर्पग्रसित के सात वेग कौन-कौन से हैं ? उत्तर - भयंकर विषैले या आशीविष सर्प द्वारा डसे हुए विषाक्त पुरुष के शरीर में विष के उद्रेकरूप सात वेग आते हैं। यथा - १. रक्त काला-पीला हो जाता है और ऐसा अनुभव होने लगता है कि मुख एवं नेत्रों में जैसे कीड़े चल रहे हों। २. ऐसा अनुभूत होता है कि मानों शरीर में गाँठे पड़ गई हों । ३. मस्तक भारी हो जाता है और नेत्र बन्द हो जाते हैं। ४. थूकता है, उल्टी करता है और नींद अधिक आती है। ५. दाह पैदा हो जाती है और हिचकी आने लगती है। ६. हृदय में पीड़ा उत्पन्न हो जाती है, शरीर भारी हो जाता है और मूर्छा आ जाती है। ७. पीठ एवं कमर आदि भग्न होने लगते हैं तथा शरीर की सर्व चेष्टाएँ समाप्त हो जाती हैं। सर्पदंश के ये सात वेग होते हैं। काम के दश वेग शोचति प्रथमे वेगे, द्वितीये तां दिदृक्षते । तृतीये निश्वसित्युच्चैधरस्तुर्ये प्रवर्तते ॥९२७ ।। दत्यते पञ्चमे गात्रं, भक्तं षष्ठे न रोचते। प्रयाति सप्तमे मूर्खामुन्मत्तो जायतेऽष्टमे ।।९२८॥ न वेत्ति नवमे किञ्चिद्दशमे मुच्यतेऽसुभिः। संकल्पतस्ततो वेगास्तीघ्रा मन्दा भवन्ति वा॥९२९ ।।
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy