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________________ मरणकण्डिका - ५४५ अर्थ - चिरकाल तक अनेक प्रकार के अनशनादि तप से युक्त किन्तु ध्यानरूप संवर से रहित मुनि को ध्यान रूप संवर करने वाला क्षपक मुनि शीघ्र ही जीत लेता है। अर्थात् पूर्वकोटि काल तक संवर रहित चारित्र एवं तप करने वाले मुनि से एक अन्तर्मुहूर्त मात्र ध्यानरूप संवर से युक्त मुनि श्रेष्ठ है ॥१९७६ ।। आयुधं योगिनो ध्यानं, कषाय-समरे परम् । निर्ध्यान: संस्तरे युद्धे, निरस्त्र-भट-सन्निभः॥१९७७ ॥ अर्थ - जैसे युद्ध क्षेत्र में बिना अस्त्र के कोई भी योधा शत्रु पर विजय प्राप्त नहीं कर सकता, वैसे ही संस्तर में स्थित समाधि का इच्छुक क्षपक ध्यान रूप शस्त्र के बिना कषाय रूप या कर्मरूप शत्रुओं पर विजय प्राप्त नहीं कर सकता, क्योंकि कषायों का नाश करने वाली समरभूमि में योगीरूप सुभट का सर्वोत्कृष्ट शस्त्र ध्यान ही है।।१९७७॥ कषाय-संयुगे ध्यानं, मुमुक्षोः कवचो दृढः। ध्यान-हीनस्तदा युद्धे, नि:कङ्कट-भटोपमः ॥१९७८ ॥ अर्थ - जैसे कवच रहित सुभट युद्धक्षेत्र में शत्रु के शस्त्रप्रहार से अपनी रक्षा नहीं कर सकता, वैसे ही ध्यान रूप कवच से रहित क्षपक रूपी योद्धा कषाय शत्रु के शस्त्र प्रहार को नहीं रोक सकता, क्योंकि कषायरूप शत्रु से युद्ध करने के लिए मुमुक्षुमुनि को यह ध्यान दृढ कवच के सदृश है।।१९७८ ।। ध्यानं करोत्यवष्टम्भं, क्षीण-चेष्टस्य योगिनः। दण्डः प्रवर्तमानस्य, स्थविरस्येव पावनः ।।१९७९ ॥ अर्थ - जैसे चलनक्रिया में असमर्थ वृद्ध पुरुष को गमन करते समय लाठी सहायक होती है वैसे ही क्षीणकाय योगी के ध्यान सहायक होता है अर्थात् शरीर क्षीण हो जाने से जो क्षपक देववन्दनादि षड़ावश्यकों द्वारा कर्मनिर्जरा आदि करने में असमर्थ है वह ध्यान द्वारा कर्मनिर्जरा कर लेता है अतः ध्यान उसका सहायक है।।१९७९॥ बलं ध्यानं यतेश्रुत्ते, मल्लस्येव घृतादिकम् । समोऽपुष्टेन मल्लेन, ध्यान-हीनो यतिमतः ।।१९८० ।। ___ अर्थ - जैसे घी-दूधादि पदार्थ मल्ल पुरुष के बल को दृढ़ करते हैं, वैसे ही ध्यान, क्षपक की शक्ति को दृढ़ करता है। जैसे दूधादि न पीने वाला अपुष्ट अर्थात् कमजोर मल्ल अखाड़े में हार जाता है, वैसे ही ध्यानविहीन क्षपक कषायों से हार जाता है॥१९८० ।। वज्रं रत्लेषु गोशीर्ष, चन्दने च यथा मतम् । ज्ञेयं मणिषु वैडूर्य, यथा ध्यानं व्रतादिषु ।।१९८१॥ अर्थ - जैसे रत्नों में हीरा श्रेष्ठ रत्न है, चन्दनों में गोशीर्ष चन्दन श्रेष्ठ है और मणियों में वैडूर्यमणि श्रेष्ठ है, वैसे ही क्षपक के लिए व्रत, संयम एवं तप आदि में ध्यान श्रेष्ठ है ।।१९८१ ॥
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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