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________________ मरणपिडका -५४४ निश्चलता सब ज्ञानोपयोगों में साधारण है अतः ध्यान का यह लक्षण भी सभी ज्ञानोपयोगों में घटित हो जाता है। इसी कारण जैसे केवलज्ञान को ध्यान कहा है, वैसे ही श्रुतज्ञान एवं कुश्रुतज्ञान को तथा मतिज्ञान एवं मतिअज्ञान को भी ध्यान कहते हैं। समुच्छिन्नक्रिया या व्युपरत क्रिया नामक चतुर्थ शुक्लध्यान का स्वरूप एवं स्वामी अयोगकेवली शुक्लं, सिद्धि-सौधमियासया। चतुर्थं ध्यायति ध्यानं, समुच्छिन्न-क्रियो जिनः॥१९७४ ।। अर्थ - जिनकी काययोगरूप समस्त क्रियाएँ नष्ट हो चुकी हैं और जो सिद्धिरूप प्रासाद को प्राप्त करने वाले हैं वे अयोग केवली भगवान् समुच्छिन्न क्रिया नामक चतुर्थ शुक्लध्यान को ध्याते हैं ।।१९७४ ।। प्रश्न - इस ध्यान के नाम की सार्थकता, इसके स्वामी एवं कार्य क्या हैं ? उत्तर - इस ध्यान में सम्पूर्ण योगरूप क्रिया नष्ट हो जाती है अतः इसका समुच्छिन्न क्रिया या व्युपरत क्रिया सार्थक नाम है। अयोग केवली जिन इस चतुर्थ शुक्ल ध्यान के स्वामी हैं। ये अयोग केवली भगवान् औदारिक, तैजस और कार्मण शरीरों को नष्ट करते हुए ही इस अन्तिम ध्यान को ध्याते हैं। इस ध्यान में अघातिया कर्मों की पिच्चासी प्रकृतियाँ नष्ट हो जाती हैं। इस प्रकार समस्त अठारह हजार शीलों के स्वामी और चौरासी लाख उत्तर गुणों से परिपूर्ण वे अयोगीजिन सर्व कर्मभार से रहित होकर अष्टम ईषत् प्राग्भार नामा पृथिवी अर्थात् सिद्धशिला से कुछ कम एक योजन ऊपर जाकर सिद्धलोक में सदा-सदा के लिए विराजमान हो जाते हैं और वहाँ निर्द्वन्द्व, अन्यानाथ एवं अनन्त सुख में मग्न रहते हैं। प्रश्न - इस ध्यान में क्या-क्या विशेषताएँ हैं ? उत्तर - इस ध्यान में मनोयोग, वचनयोग, प्राण, अपान, श्वास एवं उच्छ्वास का प्रचार तथा काययोग सम्बन्धी हलन-चलन क्रिया का व्यापार नष्ट हो जाता है अत: यह ध्यान अक्रिय है। यह ध्यान समस्त कर्मों को नष्ट किए बिना समाप्त नहीं होता अतः यह अनिवर्ति है। इस ध्यान से सब कर्मों का आस्रव रुक जाता है अतः इसे निरुद्ध योग कहते हैं। इस निरुद्धयोग से शैलेशीभाव रूप यथाख्यात चारित्र उत्पन्न हो जाता है अतः इस ध्यान को शैलेशी भी कहते हैं। इस ध्यान का प्रादुर्भाव योगनिरोध के पश्चात् ही होता है। इस प्रकार शुक्लध्यान का वर्णन पूर्ण हुआ। ध्यान का माहात्म्य इत्थं यो ध्यायति ध्यानं, गुणश्रेणिगत: शुभम्। निर्जरां कर्मणामेष, क्षपकः कुरुते पराम् ।।१९७५ ।। अर्थ - इस प्रकार वह क्षपक गुणश्रेणी को प्राप्त हो प्रशस्त शुक्ल घ्यान को ध्याता है और उस ध्यान के बल से कर्मों की महान् निर्जरा करता है।।१९७५ ॥ तपस्यवस्थितं चित्रं, चिरं निर्ध्यान-संवरम् । ध्यानेन संवृत: क्षिप्रं, जयति क्षपकः स्फुटम् ॥१९७६ ।।
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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