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________________ मरणोण्डका -१४४ अर्थ - गुरु के शिक्षावाक्यों को सहन न कर सकने के कारण आचार्य की उन उद्दण्ड शिष्यों के साथ आचार्य की असमाधि करानेवाला महान् कलह हो सकता है। यह कलह अनिवार्य रूप से दुख, विषाद और खेद आदि दोषों को उत्पन्न कर देता है।।४०५ ।। प्रश्न - कलह नामक दोष कैसे होता है? उत्तर - स्व संघ में रहनेवाले समाधिस्थ आचार्य द्वारा शिक्षा के वचन कहे जाने पर या कोई आज्ञा प्रसारित किये जाने पर संघ के स्थविर आदि कोई भी साधु कलह कर उठते हैं कि ये आचार्य सदैव हमें ही डाँटते हैं, या आज्ञा देते हैं, या उपदेश देते हैं, हम क्या अज्ञानी हैं? हम क्या श्रमण संहिता अथवा समाचार विधि नहीं जानते हैं ? इत्यादि। ऐसे कलह से आचार्य के मन में असमाधि करानेवाले दुख, खेद या विषाद का प्रादुर्भाव हो सकता है। अथवा 'ये आचार्य हमें कष्ट देते हैं ऐसा सोचकर शिष्य समुदाय में भी खेद, दुख आदि का प्रादुर्भाव हो सकता है, वह भी आचार्य की असमाधि का कारण है। गणेन साकं कलहादि-दोष, कुर्वत्सु बालादिषु दुर्धरेषु। गणाधिपस्य स्वगण-प्रवृत्तेर्ममत्व-दोषादसमाधिरस्तु ।।४०६ ।। अर्थ - संघ के साथ कलह आदि करने में तत्पर बाल-वृद्धादि धृष्ट मुनियों को देखकर असमाधि करानेवाला ममत्व भाव आचार्य के मन में उत्पन्न हो सकता है। अर्थात् स्वगण को झगड़ते देख कर स्नेह-वश भी आचार्य का मन अशान्त हो सकता है, अत: आचार्य को स्व संघ में रह कर समाधि नहीं करनी चाहिए ।।४०६ ।। दुख दोष उपेन्द्रवजा छन्द परीषहै?रतमैः स्व-संघ, निरीक्ष्यमाणस्य निपीड्यमानम्। गणे स्वकीये परमोऽसमाधिः, प्रवर्तते सङ्घपतेरवार्यः ।।४०७ ।। अर्थ - घोरतम परीषहों द्वारा अपने संघ को पीड़ित देखकर स्त्र संघ में रहनेवाले संघाधिपति आचार्य के मन में अशान्ति अर्थात् दुख होना अनिवार्य है, जो उनकी असमाधि का ही कारण है ॥४०७ ।। निर्भय दोष परीषहेषु विश्वस्त:, स्वगणे निर्भयो भवन् । याचते किञ्चनाकल्पं, सेवते भाषते स्फुटम् ॥४०८॥ अर्थ - समाधिस्थ आचार्य यदि अपने ही संघ में रहते हैं तो भूख-प्यास, ठण्डी, गर्मी आदि परीषह आ जाने पर स्वगण में अर्थात् अपने ही शिष्यगण होने से विश्वस्त होते हुए निर्भयतापूर्वक अर्थात् भय और लज्जा को छोड़कर कुछ भी अयोग्य वस्तु की याचना अथवा त्यागी हुई वस्तु का सेवन कर सकते हैं, तथा समझाये जाने पर निर्भय होकर कुछ भी अयोग्य वचन स्पष्टरूप से कह सकते हैं॥४०८ ।। स्नेह दोष बालाः स्वाङ्कोचिता दृष्टा, वृद्ध्या विह्वल-विग्रहाः। अनाथाशार्यिकाः स्नेह, जनयन्ति गुरोस्तदा ॥४०९॥
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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