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________________ मरणकण्डिका - १३ पसन्द नहीं करते। जीवितार्थी साधु असंयमादि के योग से भी प्राणरक्षण में उद्योगशील रहता है किन्तु बाह्य तप में अनुरक्त साधुओं की जीविताशा नष्ट हो जाती है। रस-देह-सुखोनास्था, जायते दुःख-भावना। प्रमर्दनं कषायाणामिन्द्रियार्थेष्वनादरः ।।२४९ ॥ अर्थ - बाह्य तपों से मधुर आदि रसों में और शरीर आदि सुखों में आस्था नहीं रहती, दुख सहन करने की भावना बलवती होती जाती है, कषायों का मर्दन हो जाता है और इन्द्रियों के विषयों में अनादर भाव हो जाता है।।२४९ ।। प्रश्न - दुख भावना बलवती होने से आत्मा को क्या लाभ होता है? उत्तर - दुख भावना बलवती होने से ही दुख सहन हो जाता है, बिना संक्लेश के अर्थात् समता-पूर्वक दुख सहन करने से ही कर्मों की निर्जरा होती है और क्रम से होनेवाली कर्मनिर्जरा ही समस्त कर्मों के विनाश का उपाय है, अत: मोक्षार्थी को दुख भावना बहुत उपयोगी है। इसके अतिरिक्त बार-बार दुख-भावना करनेवाला साधु ही ध्यान में निश्चल हो पाता है। (स, शरार और सुख में होनेवाली आसक्ति समाधि में विघ्न करती है, दुख भावना से इस आसक्ति का निरास हो जाता है। आहार-खर्वता दान्तिः समस्तत्याग-योग्यता। गोपनं ब्रह्मचर्यस्य, लाभालाभ-समानता ॥२५० ।। अर्थ - अनशनादि तप से आहार की वाञ्छा नष्ट हो जाती है, यावज्जीवन आहारत्याग की योग्यता आ जाती है, ब्रह्मचर्य की रक्षा होती है और लाभ तथा अलाभ, इन दोनों में समभाव प्राप्त हो जाता है ।।२५० ।। प्रश्न - अनशन तप से क्या-क्या लाभ हैं ? उत्तर - मरणकाल में क्षपक को चारों प्रकार के आहार-जल का त्याग करना होता है, जो अति दुष्कर कार्य है। अनशन तप के अभ्यास से यह दुष्कर कार्य भी सहज साध्य हो जाता है। आहार और सुख में जो अनुराग उत्पन्न होता है वह इस तप से प्रशमित हो जाता है और आत्मदमन नामक गुण प्रगट हो जाता है। इस तप से आहार-इच्छा त्याग का संस्कार या अभ्यास वृद्धिंगत होता-जाता है, आत्मा का मद नामक दोष नष्ट हो जाता है, आहार-निरासता नामक गुण प्रगट हो जाता है तथा आत्मा इस गुण को यावज्जीवन धारण करने में समर्थ हो जाती है। इस तप से आहार की लम्पटता नष्ट हो जाती है, लाभ-अलाभ में समता भाव जाग्रत रहता है। अर्थात् आहार प्राप्त हो जाने पर हर्ष नहीं होता और न मिलने पर क्रोध नहीं आता । तपस्वी जब प्राप्त आहार को भी छोड़ देता है तब भला अप्राप्ति में खेद-खिन्न क्यों होगा? रसयुक्त आहार का त्याग हो जाने से नवीन वीर्य का संचय नहीं होता और पुराना संचितवीर्य नष्ट होता जाता है, अतः बाह्य तपों से ब्रह्मचर्य का रक्षण हो जाता है। अनशन तप से ये महान् लाभ हैं। निद्रा-गृद्धि-मद-स्नेह-लोभ-मोह-पराजयः । ध्यान-स्वाध्याययोर्वृद्धिः, सुख-दुःख-समानता ।।२५१॥
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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