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________________ मरणकण्डिका - ९२ - - - - - - तप इस प्रकार करना चाहिए तत्तपोऽभिमतं बाह्य, मनो येन न दुष्यति। योगा येन न हीयन्ते, येन श्रद्धा प्रवर्तते ।।२४६ ।। अर्थ - उसी का नाम बाह्य तप है, जिससे मन दूषित नहीं होता अर्थात् क्लेशित नहीं होता. जिससे पूर्व गृहीत आताफ्न आदि योग हीन नहीं होते और जिससे अभ्यन्तर तप में श्रद्धा बनी रहती है ।।२४६ ।। बाहा तप के गुण बाह्येन तपसा सर्वा, निरस्ता: सुख-वासनाः। सम्यक् तनू-कृतो देहः, स्व: संवेगेऽधिरोपितः ।।२४७ ।। अर्थ - बाह्य तप से सुखशीलता के समस्त संस्कार नष्ट हो जाते हैं, शरीर भली प्रकार से कृश हो जाता है और स्वयं आत्मा संसार की भीरुता में स्थापित हो जाती है ॥२४७॥ प्रश्न - सुखशीलता का संस्कार ना ना क्यों आवश्यक है? उत्तर - सुखशीलता शरीर में आलस्य उत्पन्न करती है और आलस्य चारित्र का प्रबल शत्रु है। सदा सुख की भावना जाग्रत रहने से मन में रागभाव उत्पन्न होता है, वह रागभाव कर्मबन्ध के कारणभूत दोषों को उत्पन्न करता है; कर्मबन्ध, कर्मस्थिति का कारण है और कर्मस्थिति संसार-परिभ्रमण का कारण है, अतः बाह्य तप के माध्यम से आत्महित के लिए सुख-शीलता के संस्कार नष्ट करना अत्यावश्यक है। सन्तीन्द्रियाणि दान्तानि, स्पृष्टा योगसमाधयः । जीविताशा परिच्छिन्ना, बल-वीर्यमगोपितम् ॥२४८॥ अर्थ - बाह्य तप द्वारा इन्द्रियाँ वश में रहती हैं, योग एवं समाधि में एकाग्रता प्राप्त होती है, जीवन की आशा नष्ट हो जाती है तथा बल और वीर्य प्रगट हो जाते हैं ।।२४८ ।। प्रश्न - 'इन्द्रियाँ दान्त होती हैं' इत्यादि पदों का क्या आशय है? उत्तर - अनशन, अवमौदर्य, रसपरित्याग और वृत्तिपरिसंख्यान तपों से जिला इन्द्रिय वश में हो जाती है। विविक्तशय्यासन तप से अर्थात् इन्द्रियों के प्रिय विषयों के अभाववाली वसतिका होने से स्पर्शनादि इन्द्रियों का दमन हो जाता है। रत्नत्रय में मन के एकाग्र होने को समाधि कहते हैं। बाह्य तप से ऐसी समाधि में योग अर्थात् सम्बन्ध स्पष्ट होते रहते हैं। आहारादि का त्याग होते जाने से विषय-प्रेम भी नष्ट हो जाता है, क्योंकि विषयराग से सताये हुए साधु का मन रत्नत्रय में एकाग्र नहीं होता. फलत: वह रत्नत्रय में न लग पाने से व्याकुल होता हुआ अशुभ परिणामों में ही संलग्न रहता है। बाह्य तप से आत्मिक शक्ति स्फुरायमान हो जाती है जिससे मुनिराज वीर्याचार में ही प्रवृत्त रहते हैं। जिनकी जीविताशा जीवित है, अर्थात् जिनका जीवितपने पर स्नेह है वे आहार आदि का त्याग करना
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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