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________________ मरणकण्ठिका - ९४ अर्थ - बाह्य तप तपनेवाला तपस्वी निद्रा, गृद्धता, मद, स्नेह, लोभ और मोह को परास्त कर देता है, उनके ध्यान एवं अध्ययन में निशदिन वृद्धि तथा सुख और दुख, दोनों अवस्थाओं में समता की अभिवृद्धि होती रहती है ॥२५१॥ प्रश्न - अनशन आदि तपविहीन साधु को निद्रा आदि से क्या-क्या हानियाँ होती हैं? उत्तर - अनशन आदि तप न करनेवाला साधु प्रतिदिन आहार करता है, रसयुक्त आहार में तत्पर रहता है और बहुत आहार ग्रहण करता है, अतः उसे वायु आदि उपद्रवों रहित, मृदु स्पर्श युक्त तथा निरुपद्रव स्थान में सोने की इच्छा एवं चिन्ता होती है। ऐसे स्थान की खोज में व्याकुल रहता है अथवा अनुकूल स्थान मिल जाने पर गुरुजनों से छिप कर वहाँ एकान्त में जाकर चटाई आदि ओढ़कर आराम से सो जाता है, दीर्घ काल तक खर्राटे लेता है, प्रेत सदृश निश्चल पड़ा हुआ सोता रहता है और अशुभ परिणामों के प्रवाह में बह जाता है। अधिक भोजन करनेवाला तो बैठ भी नहीं पाता, वह ऊपर को मुख करके ही सोता है। रसीले पदार्थों का आहार करनेवाला गरिष्ठाहार की ऊष्मा से इधर-उधर करवटें बदलता हुआ व्याकुलता के आधीन पड़ा रहता है। बहुजनवाली वसतिका में रहनेवाला साधु दूसरों की वार्ता सुनने में और उनसे सम्भाषण करने में ही अपना समय व्यतीत कर देता है। दूध, घी, शक्कर आदि रसों से युक्त आहार प्राप्त होने पर राग एवं गर्व आदि करता है और स रूखा-सखा आहार मिलने पर देष करता है। इस प्रकार अनशनादि तपों की उपेक्षा करनेवाले साध निद्रादि दोषों पर विजय प्राप्त नहीं कर पात, निराकुलता पूर्वक सौत्साह से स्वाध्याय एवं ध्यान नहीं कर पाते तथा गुरुजनों की विनय एवं उनकी आज्ञापालन भी नहीं कर पाते । इस प्रकार अनशनादि तपों में प्रवृत्त न होने से और भी अनेक हानियाँ होती हैं, जिनका फल दीर्घ संसार है। बाह्य तप से होनेवाले लाभ आत्मा प्रवचनं सङ्घः, कुलं भवति शोभनम् । समस्तं त्यक्तमालस्यं, कल्मषं विनिवारितम् ।।२५२॥ अर्थ - बाह्य तप के द्वारा साधु अपनी आत्मा, प्रवचन अर्थात् जैन मत, अपने संघ और अपने कुल को अर्थात् अपनी शिष्यपरम्परा को सुशोभित करता है। उसका समस्त आलस्य छूट जाता है और पापों का निरोध हो जाता है।।२५२॥ मिथ्यादर्शनिनां सौम्य, संवेगो भूयसां सताम् । मुक्तेः प्रकाशितो मार्गो, जिनाज्ञा परिपालिता । २५३ ।। अर्थ - मुनिराजों का उग्र तप देखकर मिथ्यादृष्टि जीव अपनी उग्रता छोड़कर सौम्य हो जाते हैं, अन्य मुनिजन भी संसार से अत्यन्त भयभीत हो तप में प्रवर्त हो जाते हैं, इस तप से मुक्ति का मार्ग प्रकाशित होता है और जिनेन्द्रदेव की आज्ञा का पालन होता है ।।२५३॥ सन्तोषः संयमो देह-लाघवं शम-वर्धनम् । तपसः क्रियमाणस्य, गुणाः सन्ति यथायथम् ।।२५४॥
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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