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________________ मरणकण्डिका - ९५ अर्थ - तपस्वी के सन्तोष, संयम, शरीर में हल्कापन और उपशम भावों की वृद्धि होती है। इस प्रकार अनशनादि तप करनेवालों को यथासम्भव अनेक गुण प्राप्त हो जाते हैं ।। २५४ ॥ प्रश्न- तपस्वी के शरीर में लाघवता एवं उपशम भावों की वृद्धिआदि गुण कैसे उत्पन्न हो जाते हैं ? उत्तर - पुष्टाहार मांसवृद्धि का कारण है। इससे शरीर भारी हो जाता है, मोटापा बढ़ जाता है, शरीर का भारीपन आलस्य का मूल है, अतः अनशन आदि तप अवश्य ही करने चाहिए। इस तप से शरीर का भारीपन नष्ट हो जाता है जिससे आवश्यकादि क्रियाएँ सुलभता से सम्पन्न हो जाती हैं तथा स्वाध्याय और ध्यान आदि बिना क्लेश के से सम्पन्न हो जाते हैं। अनादिकाल से इस जीव को अपने प्राप्त शरीर में ही सबसे अधिक मोह या स्नेह रहा है। इस शरीर - स्नेह के कारण ही लोग असंयम में प्रवृत्ति कर रहे हैं, शरीर का स्नेह ही अनर्थकारी है। यह शारीरिक स्नेह कितने ही जीवों को दीक्षा में और दीक्षित भी हैं तो तपश्चरण में प्रवृत्त नहीं होने देता। इसके स्नेह में कितने ही तपस्वी मुनि तप को छोड़ बैठते हैं किन्तु जो भुनिराज दुष्कर तप में दृढ़तापूर्वक प्रवृत्त रहते हैं उनके रागादि भाव उपशमित हो जाते हैं। जैसे-जैसे तपश्चरण में प्रखरता आती है, वैसे-वैसे उपशम भावों की वृद्धि होती जाती है। वे मुनिराज विचार करते हैं कि - यह रागभाव उपद्रव करनेवाला है, यह आत्मा में नवीन कर्मबन्ध उत्पन्न करता है और पूर्व संचित कर्मों के रस में वृद्धि करता है। यदि मन रागभाव को आश्रय देगा तो नियमतः मेरा यह तपश्चरण व्यर्थ हो जावेगा, अतः ऐसे उपद्रवकारी राग से मुझे क्या प्रयोजन है? इसके होने पर तो मेरा अद्यावधि तपश्चरण का सर्व परिश्रम या कष्टसहन निष्फल हो जायेगा। इस प्रकार के चिन्तन से उपशम भावों की वृद्धि होती रहती है। उक्त प्रकरण का उपसंहार उद्गमोत्पादनाहार-दोषभक्तं मितं लघु । विरसं गृह्णताहारं, क्रियते विविधं तपः ॥ ( पाठान्तर ) अर्थ - मुनिराज उद्गम, उत्पादन और एषणा आदि छियालीस दोषों का त्याग कर मित अर्थात् अल्प, लघु, रसादिरहित एवं रूक्ष आहार- पान लेते हुए नित्य ही बाह्य तप करते हैं। शुद्ध आहार लेकर ही तप करना चाहिए, अशुद्ध आहार लेकर नहीं || ( पाठान्तर ) आहारमल्पयन्नेवं वृद्धो वृद्धेन संयतः । तपसा संलिखत्यङ्गं वृद्धेनेकान्ततोऽथवा ।। २५५ ॥ अर्थ - इस प्रकार मुनिराज आहार को अल्प करते हुए वृद्धिंगत तप द्वारा तप की वृद्धि करते हैं । तप की वृद्धि से ही शरीर को कृश करते हैं। अथवा कभी-कभी हीयमान तप से भी प्रवृत्ति करते हैं । २५५ ।। प्रश्न - 'वर्धमानतप भी करते हैं और हीयमान भी करते हैं' इस प्रकार ये दोनों तप एक ही साधु द्वारा कैसे सम्भव हैं ? उत्तर - एक दिन में भोजन की दो बेला कही गई है। एक बेला धारणा के दिन की, दो बेला उपवास के दिन की और एक बेला पारणा के दिन की, इस प्रकार चार भोजन बेला का त्याग चतुर्थ भक्त अथवा एक
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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