SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 120
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मरणकण्डिका - ९६ उपवास, छह बेला के भोजन का त्याग षष्ठभक्त अथवा बेला कहलाता है। इसी प्रकार आगे भी तेला, चोला आदि के क्रम से बढ़ते हुए छह मास के उपवास पर्यन्त जानना चाहिए। चतुर्थ, षष्ठ अर्थात् एक उपवास, बेला एवं तेला आदि के क्रम से अनशन तप की वृद्धि होती है। एक, दो, तीन एवं चार ग्रास कम करते जाने से अवमौदर्य तप की वृद्धि होती है। एक रस, दो रस, तीन रस आदि क्रम से रसों का त्याग करने से रसपरित्याग तप की वृद्धि होती है। मैं सात, पाँच, तीन या एक ही घर तक भिक्षावृत्ति के लिए जाऊँगा, अथवा भिक्षा के ग्रासों के परिमाण कम-कम करते जाना वृत्ति- परिसंख्यान तप की वृद्धि है। दिन में आतापनयोग करके रात्रि में प्रतिमायोग धारण करना कायक्लेश तप की वृद्धि है। इस प्रकार वर्धमान तप करते-करते जब महान् श्रम हो जाता है तब कभी अनशन आदि तप में कुछ कमी कर देता है। अर्थात् कुछ समय तक हीयमानतप करता है, पश्चात् पुन: वर्धमान तप के लिए उद्यमशील हो जाता है। इस प्रकार तप करते हुए क्षपक-साधु अपने शरीर को शनैः शनैः कृश करता है। प्रकारान्तर से सल्लेखना विधि क्रमेण संलिखत्यङ्गमाहारं खर्वयन्यतिः । प्रत्यहं वा गृहीतेन, तपसा विधि: कोविदः ॥२५६॥ अर्थ - क्रमश: आहार को घटाते हुए शरीर को कृश करता जाय । अथवा प्रतिदिन विविध प्रकार के तप को करते हुए तप की विधि को जाननेवाला साधु काया को कृश करता है।॥२५६ ॥ प्रश्न - 'प्रत्यहं' पद का क्या अर्थ है? उत्तर - 'प्रत्यहं वा' पद से यह अर्थ भी ग्राह्य है कि एक-एक तप से अर्थात् एक दिन अनशन, एक दिन अवमौदर्य, एक दिन रसपरित्याग और एक दिन वृत्तपरिसंख्यान आदि क्रम से शरीर को कृश करता है। आहार-गोचरैरुप्रै नाकारैरवग्रहः । मुमुक्षुः संलिखत्यङ्ग, संयमस्याविरोधकम् ।।२५७ ।। अर्थ - इन्द्रिय संयम और प्राणी संयम की जिसमें विराधना न हो इस प्रकार रूक्ष, नीरस, अल्प एवं आचाम्ल आदि द्वारा और उग्र-उग्र अवग्रह अर्थात् नियमों द्वारा मुमुक्षु क्षपक अपना शरीर कृश करते हैं ।।२५७ ।। या भिक्षु-प्रतिमाश्चित्रा, बले सति च जीविते। पीडयन्ति न ताः कायं, संलिखं तं यथाबलम् ॥पाठान्तर।। अर्थ - यदि आयु हो और शारीरिक शक्ति हो तो नाना प्रकार की भिक्षु-प्रतिमाओं का स्वीकार कर क्षपक यथाशक्ति शरीर को कृश करता है, उससे उसे पीड़ा नहीं होती, किन्तु यदि शक्ति के उपरान्त इन प्रतिमाओं को धारण कर लिया अर्थात् तीव्रगति से शरीर कृश करने का उद्यम किया तो महासंक्लेश परिणाम उत्पन्न हो सकते हैं, अत: तप में यथाशक्ति प्रवृत्ति करना ही श्रेयस्कर है।। (पाठान्तर) प्रश्न - भिक्षु-प्रतिमाएँ कौन धारण कर सकता है और उनका संक्षिप्त स्वरूप क्या है ? उत्तर - सल्लेखना करनेवाला धैर्यशाली, महासत्त्व से सम्पन्न, परीषहों का विजेता, उत्तम संहनन से
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy