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________________ गरणाकण्डिका - ९७ विशिष्ट, क्रमशः धर्मध्यान और शुक्लध्यान की पूर्णता का प्रयास करनेवाला क्षपक मुनि जहाँ ठहरा है उसी देश में उत्कृष्ट और दुर्लभ आहार का व्रत ग्रहण करता है कि यदि एक मास में ऐसा आहार मिलेगा तो ग्रहण करूँगा, अन्यथा नहीं। ऐसी प्रतिज्ञा करके उस माह के अन्तिम दिन वह प्रतिमायोग धारण करता है, यह एक भिक्षु प्रतिमा ___ पूर्वोक्त आहार से शतगुणित उत्कृष्ट और दुर्लभ ऐसे भिन्न-भिन्न आहार का व्रत अर्थात नियम वह क्षपक ग्रहण करता है। ये नियम दो, तीन, चार, पाँच, छह और सात माह पर्यन्त ग्रहण करता है और प्रत्येक माह के अन्तिम दिन में प्रतिमायोग धारण करता है। ये सात भिक्षु प्रतिमाएँ हैं। पुनः पूर्व आहार से शतगुणित उत्कृष्ट और दुर्लभ आहार को प्रत्येक सात-सात दिनों में केवल एक बार अर्थात् इक्कीस दिनों में मात्र तीन बार ग्रहण करता है। वह भी आहार की प्राप्ति होने पर तीन ग्रास, दो ग्रास और एक ग्रास ही ग्रहण करता है। ये तीन भिक्षु प्रतिमाएँ हैं, पश्चात् अहर्निश प्रतिमायोग से खड़ा रह कर अनन्तर प्रतिमायोग से ध्यानस्थ खड़ा रहता है। ये दो भिक्षु प्रतिमाएँ हैं। इसको धारण करने पर प्रथम अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान की प्राप्ति होती है, अनन्तर सूर्योदय होने पर वह क्षपक केवलज्ञान को प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार ये बारह भिक्षु प्रतिमाएँ होती हैं। आचाम्ल तप सर्वोत्कृष्ट है देह-सल्लेखना हेतु-बहुधा वर्णितं तपः। वदन्ति परमाचाम्लमर्हता यत्र योगिनः॥२५८॥ अर्थ - शरीर-सल्लेखना के निमित्त अनेक प्रकार के तपों के विकल्प पूर्व श्लोकों में वर्णित किये गये हैं। महर्षि योगियों ने उन तपों में आचाम्ल तप को ही सर्वोत्कृष्ट कहा है ।।२५८ ।। जो सब तपों में सर्वोत्कृष्ट है उस आचाम्ल का लक्षण षष्टाष्टमादिभिश्चित्रैरुपवासैरतन्द्रितः । गृह्णाति मितमाहारमाचाम्लं बहुशः पुनः ।।२५९॥ अर्थ - बेला, तेला आदि विविध उपवास करके निष्प्रमादी क्षपक क्रमशः अल्प आहार करता है, पश्चात बहुत प्रकार से आचाम्ल करता है ।।२५९।। प्रश्न - आचाम्ल किसे कहते हैं, आचाम्ल और कांजी में क्या अन्तर है तथा आचाम्लाहार में क्या गुण हैं ? उत्तर - मात्र चावल का मांड ग्रहण करना आचाम्ल है। या थोड़े चावल मिला हुआ चावल का मांड आचाम्ल है। या थोड़ा जल और चावल अर्थात् भात अधिक भी आचाम्ल है। या मात्र भात ग्रहण करना आचाम्ल है। या भात और इमली का पानी ग्रहण करना आचाम्ल है। या कांजी सहित भात का ग्रहण आचाम्ल है।
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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