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________________ मरणकण्डिका - ९८ मूलाराधना गाथा २५१ की दूसरी टीका में 'आयंबिलं कजिकाहारे' पद के द्वारा आचाम्ल को ही कांजिका कहा है। या खटास से युक्त एक प्रकार के पेय को कांजी कहते हैं। या भात और जल मिला कर पीना कांजी आहार है। या केवल चावलों का मांड पीना कांजी आहार है। उपर्युक्त लक्षणों से ज्ञात होता है कि आचाम्ल और कांजी पर्यायवाची हैं। आचाम्ल से लाभ आचाम्ल से कफ का क्षय होता है, पित्त शान्त होता है और वात से रक्षा होती है, अतः आचाम्ल सेवन में प्रयत्न करना चाहिए। भक्तप्रत्याख्यान का उत्कृष्ट काल और उसे पूर्ण करने की विधि कालो द्वादश-वर्षाणि, काले सति महीयसि । भक्तत्यागस्य पूर्णानि, प्रकृष्टः कथितो जिनैः ॥२६०॥ अर्थ - यदि आयुष्य काल अधिक है तो जिनेन्द्रदेव ने उत्कृष्ट से भक्त-प्रत्याख्यान का पूर्ण काल बारह वर्ष प्रमाण कहा है।।२६०॥ विचित्रैः संलिखत्यग, योगैर्वर्ष-चतुष्टयम्। समस्त-रस-मोक्षेण, परं वर्ष-चतुष्टयम् ॥२६१॥ आचाम्ल-रस-हानिभ्या, वर्षे द्वे नयते यतिः। आचाम्लेन विशुद्धेन, वर्षमेकं महामनाः ॥२६२॥ षण्मासीमप्रकृष्टेन, प्रकृतेन समाधये । षण्मासी नयते धीरः, कायक्लेशेन शुद्ध-धीः ॥२६३॥ अर्थ - बारह वर्ष प्रमाण काल में वे क्षपक मुनिराज विविध प्रकार के आतापन आदि योग अर्थात् कायक्लेश तप तपते हुए प्रथम चार वर्ष व्यतीत करते हैं। आगे के चार वर्ष दूध, दधि, गुड़, नमक आदि रसों का त्याग करते हुए व्यतीत करते हैं ॥२६१ ।। आचाम्ल भोजन और रसहानि अर्थात् नीरस भोजन करके महामना क्षपक दो वर्ष पूर्ण करते हैं। पश्चात् मात्र आचाम्ल आहार ग्रहण करते हुए एक वर्ष पूर्ण करते हैं ।।२६२।। अवशेष बचे एक वर्ष के प्रथम छह मास में मध्यम तपों द्वारा और द्वितीय अर्थात् अन्तिम छह मास में वे शुद्ध बुद्धिवाले धीर-वीर क्षपक मुनिराज उत्कृष्ट तपों द्वारा शरीर को क्षीण करते हैं ।।२६३॥
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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